डॉ कृष्ण कुमार नाज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
डॉ कृष्ण कुमार नाज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 20 जून 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ के ग़ज़ल संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की इंजी. राशिद हुसैन द्वारा की गई समीक्षा .…..समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें

      सरज़मीने-लखनऊ में जन्मे मशहूर व मारूफ़ शायर जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ जिनको अदब की दुनिया में इज्ज़तदाराना मुक़ाम हासिल है। वो जब किसी मुशायरे में मंचासीन होते, तो ऐसा लगता था, मानो पूरा लखनऊ मंच पर बैठा हो।उन्होंने अपने जीवनकाल में कई शिष्य बनाए या यूं कहें कि उनका शिष्य बनकर युवा शायर खु़द पर फ़ख्र महसूस करता था। नूर साहब की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है, जिसमें उन्होंने पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर दिया है, उसका एक शेर यूं है-

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं

यह शेर सीधे दिल पर दस्तक देता है। सामाजिक परिवेश को बड़ी खू़बसूरती से अपने शेरों में कह देने का हुनर रखने वाले जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ की अदब की रोशनी की किरण जब मुरादाबाद पर पड़ी, तो एक नाम सामने आया- डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ जिनकी लेखनी पर नाज़ किया जा सकता है। कृष्णकुमार ’नाज’ का जन्म मुरादाबाद से चंद मील दूर कुरी रवाना गांव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए जब वह शहर आए तो यहीं के होकर रह गए। जीविका की खोज में कब साहित्य से प्रेम हुआ, पता ही नहीं चला और उसमें रमते चले गए। उनकी साहित्यिक  यात्रा आज भी बदस्तूर जारी है। यूं तो नाज़ साहब की कई किताबें मंजरे-आम पर आ चुकी हैं और वह अपनी लेखनी का लोहा मनवा चुके हैं। अभी हाल ही में उनका ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ का विमोचन हुआ, जिसका मैं भी साक्षी बना।

      आइए बात करते हैं नाज़ साहब के नये ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की। नाम ही पूरे संग्रह का सार है, क्योंकि नूर साहब के शागिर्द हैं तो नाज़ साहब ने भी अपने शेरों के ज़रिए समाज को आईना दिखाया है। नाज़ साहब परिपक्व ग़ज़लकार हैं। वैसे तो उन्होंने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ और मुहब्बत की बात की है, लेकिन उनकी शायरी में समाज में फैली विसंगतियों पर चिंतन ज़्यादा नज़र आता है। बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे तक का जीवन दर्शन भी उनकी ग़ज़लों में मिलता है। जैसा कि किताब का शीर्षक ’दिये से दिया जलाते हुए’ अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।

आइए शुरूआत बचपन से करते हैं, जब वो किसी बच्चे को हंसता हुआ देखते हैं, तो शेर यूं कहते हैं-

बच्चा है ख़ुश कि तितली ने रक्खा है उसका ध्यान

तितली भी ख़ुश कि नन्हीं हथेली है मेज़बान

फिर वो बचपन को याद करते हुए अपनी चाहत का इज़हार कुछ यूं करते हैं-

ज़हन का हुक्म है मुझको कि मैं दुनिया हो जाऊं

और दिल चाह रहा है कोई बच्चा हो जाऊं

नाज़ साहब ने जब बचपन की बात की, तो मां की ममता का ज़िक्र भी बड़ी ईमानदारी से अपनी ग़ज़ल में कर दिया। उन्हें मां की ममता कुछ इस तरह से बयां की है कि पढ़ने-सुनने वाले का दिल भर आए-

कलियां, फूल, सितारे, शबनम, जाने क्या-क्या चूम लिया

जब मैंने बांहों में भरकर उसका माथा चूम लिया

दुनिया के रिश्ते-नातों की नज़रें थी धन दौलत पर

लेकिन मां ने बढ़कर अपना राजदुलारा चूम लिया

कोई शायर इश्क़-मुहब्बत और हुस्न की बात न करे, ये हो नहीं सकता। नाज़ साहब ने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ में डूबे आशिक़ के दिल के जज़्बात को बड़ी ख़ूबसूरती से कह दिया है-

जबसे देखा है तेरे हुस्न की रानाई को

जी रही हैं मेरी आंखें तेरी अंगड़ाई को

+   +

आंखों से उनकी जाम पिए जा रहा हूं मैं

क्या ख़ूब ज़िंदगी है जिए जा रहा हूं मैं

उन्होंने आज के नौजवानों की हक़ीक़त को दिखाता क्या ख़ूब शेर कहा है-

हमने यूं भी वक़्त गुज़ारा मस्ती में याराने में

जब जी चाहा घर से निकले बैठ गए मयखाने में

जब मुहब्बत होती है तो बेवफ़ाई भी होती है, जुदाई भी होती है और यादें भी होती हैं, तनहाई भी होती है। प्यार में चोट खाए इंसान के दिल के दर्द को बड़े सलीके़ से अपनी शायराना अंदाज में कहते हैं-

बुझा-बुझा रहता है अक्सर 

चिड़ियों की चहकार भी अब तो

शोर शराबा सी लगती है 

जाने दिल की क्या मर्जी है।

+   +

दूर है मुझसे बहुत दूर है वो शख्स मगर

बावजूद इसके कभी आंख से ओझल न हुआ

+   +

ख्वाब मेरा जो कभी आपको छू आया था

अब उसी ख्वाब की तस्वीर बनाने दीजे

एक पिता मुफ़लिसी के दौर में अपने बच्चों का किस तरह लालन-पालन करता है, इस शेर को देखें-

एक बूढ़े बाप के कांधों पे सारे घर का बोझ

किस क़दर मजबूर है ये मुफ़लिसी की ज़िंदगी

और फिर वही बच्चे बड़े होकर नाफ़रमान हो जाते हैं। तब मां-बाप की बेबसी यूं बयां होती है-

बेटों ने तो हथिया लिए घर के सभी कमरे

मां-बाप को टूटा हुआ दालान मिला है

आज के समय में जब रिश्तों में मुहब्बत की कमी हो गई है, तब नाज़ साहब ने रिश्ते निभाने के लिए समर्पण को अहमियत दी है। वो कहते हैं-

सिमट जाते हैं मेरे पांव ख़ुद ही

मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं

+   +

उससे हार के ख़ुद को बेहतर पाता हूं

लेकिन जीत के शर्मिंदा हो जाता हूं

आज इक्कीसवीं सदी में थोड़ा-सा पैसा किसी के पास आ जाए तो उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते। ऐसे मग़रूर के लिए लिखते हैं-

सरफिरी आंधी का थोड़ा-सा सहारा क्या मिला

धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया

शायर आने वाले वक़्त में हालात और क्या हो सकते हैं, उसकी फ़िक्र करते हुए लिखते हैं-

कभी अंधेरे, कभी रोशनी में आते हुए

में चल रहा हूं वजूद अपना आज़माते हुए

कौन करेगा हिफ़ाज़त अब इनकी मेरे बाद

ये सोचता हूं दिये से दिया जलाते हुए

इसी संग्रह की एक ग़ज़ल जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, उसके लिए क्या लिखूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं। बस एक बात समझ आई कि नाज़ साहब ने यह साबित कर दिया कि वो ही नूर साहब के सच्चे और पक्के शागिर्द हैं। उस ग़ज़ल के ये दो शेर प्रस्तुत हैं-

पेड़ जो खोखले पुराने हैं

अब परिंदों के आशियाने हैं

जिंदगी तेरे पास क्या है बता

मौत के पास तो बहाने हैं

नाज़ साहब का यह ग़ज़ल-संग्रह पूरा जहान समेटे हुए है। यह समाज के हर पहलू को बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरते हुए एक मुकम्मल किताब लगती है।  इसको पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि इसे बार-बार पढ़ा जाए।





कृति : दिये से दिया जलाते हुए (ग़ज़ल संग्रह)

ग़ज़लकार : डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

मूल्य : 200 रुपये पृष्ठ : 104 हार्ड बाउंड

संस्करण : वर्ष 2023


समीक्षक
: इंजी. राशिद हुसैन

मकान नंबर 4, ढाल वाली गली,मुहल्ला बाग गुलाब राय, नागफनी,मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

रविवार, 25 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के प्रथम ग़ज़ल संग्रह “गुनगुनी धूप“ में प्रकाशित डा. कुँअर बेचैन द्वारा लिखी गई भूमिका...."संवेदना की धरती पर आँखों देखे हाल का आलेख हैं कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें।" इस संग्रह का प्रथम संस्करण वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण आठ वर्ष पश्चात 2010 में गुंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ ।




कहा जाता है कि सच्ची कविता अपने युग की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, उनकी विडंबनाओं पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए शाश्वत सत्यों और उन्नत जीवन-मूल्यों की खोज करती है। कवि अपने समय के प्रति जागरूक रहता है, तो भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी करता चलता है। जैसे पुष्प सामने दिखाई देता है, किंतु उसकी सुगंध हवाओं में समाहित होकर दूर तक फैलती है, युगीन कविता भी उसी प्रकार जो सामने है, उस वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उसकी व्यंजनाओं को आगत के लिए सुरक्षित रखती चलती है। इस दृष्टि से इस संकलन के सुकवि श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें सफल और सार्थक ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लें आज की ग़ज़लें हैं, जो पुरानी शैली में लिखी हुई ग़ज़लों से कई अर्थों में भिन्न हैं। उनका कथ्य अब केवल प्रेम और सौंदर्य नहीं है, वरन् आज के इंसान का दुख-दर्द भी है। आज के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक परिवेश पर भी 'नाज़' की ग़ज़ल टिप्पणी करती चलती है। उनमें भाषा की नवीनता है, प्रतीक और बिंब भी नये हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें बिल्कुल नयी हैं। इश्क की शायरी से हटकर उनकी ग़ज़लें आम आदमी की मजबूरियों को संवेदनात्मक स्तर पर समझते हुए चिंता में डूबी ग़ज़लें लगती हैं।

कुम्हलाई फ़स्लें तो खुश हैं, बादल जल बरसायेंगे 

सोच रहे हैं टूटे छप्पर, वो कैसे बच पायेंगे

यही नहीं, उनका ध्यान उन अधनंगे बच्चों पर भी जाता है, जो कूड़े के ढेर में से पन्नी चुनने को मजबूर हैं, क्योंकि ये चुनी हुई पन्नियां ही उनको कुछ पैसे दिला पायेंगी, जिससे वे अपना पेट भर सकेंगे

कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे

पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है

आर्थिक दृष्टि से समाज में कितनी विषमता है। यह देश जिसके कानून की नींव 'समाजवादी ढाँचे का समाज' होने पर रखी गई है, उसी देश में एक ओर ऊँची अट्टालिकाएँ हैं तो दूसरी ओर झोंपड़ियाँ।  कवि 'नाज़' ने इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए कितना प्यारा शेर कहा है

किसी के जिस्म को ऐ 'नाज़' चिथड़ा तक नहीं हासिल 

किसी की खिड़कियों के परदे भी मख़मल के होते हैं

और इसी समाज में जो बड़े लोग हैं, वे छोटों को शरण देने के बजाय उन्हें लील जाते हैं। यह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक ऊँच-नीच छोटों को अस्तित्व-विहीन बनाने में संलग्न है। 'सर्वाइवल आफ़ फ़िटेस्ट' में जो बड़े हैं, उन्हें ही 'फिटेस्ट' माना जाता है। छोटी मछली, बड़ी मछली के प्रतीक के माध्यम से कवि ने यह बात ज़ोरदार तरीके से कही है

निगल जाती है छोटी मछलियों को हर बड़ी मछली

नियम-कानून सब लागू यहाँ जंगल के होते हैं

आज जीवन-मूल्यों का इतना पतन हुआ है कि वे लोग जो अच्छे हैं, सच्चे हैं, वे ही दुखी हैं। झूठ तथा ऐसी ही अन्य नकारात्मक स्थितियाँ सच्चाई तथा ऐसे ही अन्य सकारात्मक मूल्यों पर विजय प्राप्त करती नज़र आ रही हैं। सच की राह पर चलने वाले लोगों की हालत बिगड़ी हुई है

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 

सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है

जब घर का मुखिया ठंडा चूल्हा देखता है, खाली बर्तन देखता है, बच्चों की भूख और उनके नंगे जिस्मों को देखता है, तब आखिर सच की राह पर चलना उसके लिए सचमुच ही नामुमकिन हो जाता है। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने जीवन मूल्यों के पतन के पीछे छिपे 'गरीबी' के तथ्य को ठीक से समझा है और इसी कारण को ख़ास तौर से रेखांकित किया है।

आज महँगाई का बोझ और काम का बोझ व्यक्ति को कितना तोड़ रहा है, कवि की दृष्टि उधर भी गई है। वेतनभोगी, निम्न-मध्यवर्गीय या मध्यम वर्ग के लोगों की कठिनाइयों को एक बहुत ही सुंदर शेर में अभिव्यक्त किया है

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं

हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

भौतिक सभ्यता का प्रभाव आज के व्यक्ति के ज़हन में इस क़दर घर कर गया है कि वह चाहे भीतर-भीतर कितना ही टूटा हुआ हो, बाहर से ठीक-ठाक दिखाई देना चाहता है। वह अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छुपाने में लगा है

घर की खस्ताहाली को वो कुछ इस तौर छुपाता है 

दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें चिपकाता है

आज आम आदमी के सम्मुख रोटी का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। रात हो या दिन, हर समय उसे यही चिंता है कि उसके परिवार वालों को कोई कष्ट न हो। इसी चिंता में नींदें भी गायब हो गई हैं

पेट की आग बुझा दे मेरे मालिक, यूँ तो 

भूख में नींद भी आते हुए कतराती है।

बड़ी कविता वह होती है जिसमें कवि जीवनानुभवों को चिंतन और भाव की कसौटी पर कसकर दुनिया के सामने लाता है और उसमें उसके अभिव्यक्ति-कौशल की क्षमताएँ दिखाई देती हैं। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने विभिन्न जीवनानुभवों को बड़े ही खूबसूरत ढंग से नज़्म किया है। इस अभिव्यक्ति में उन्होंने सुंदर प्रतीकों को माध्यम बनाया है। संसार में सबसे कठिन कार्य है सबको साथ लेकर चलना,क्योंकि कहा भी गया है- 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नः'। सबके अलग-अलग विचार होते हैं, उनमें एकरूपता उत्पन्न करना कोई हँसी-खेल नहीं है। 'नाज़' साहब ने इस बात को एक सच्ची हकीकत, जो रोज़ देखने में आती है, के माध्यम से व्यक्त किया है

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़' 

एक कदम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

दुनिया में यह भी देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति का अहंकार नहीं रहा है। जो अपनी औकात से बढ़ता है, उसे भी उसके किये की सज़ा मिलती जरूर है। इस बात को जिस उदाहरण द्वारा कवि कृष्ण कुमार ने समझाया है, वह काबिले तारीफ़ है

अपनी औकात से बढ़ने की सज़ा पाती है 

धूल उड़ती है तो धरती पे ही आ जाती है

सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जब हमें किसी विशेष स्थिति या बात की आवश्यकता होती है, तब ही जिससे हमें कुछ प्राप्त करना होता है, उसके नखरे बढ़ जाते हैं। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को कवि ने विभिन्न संदर्भों एवं आयामों से जोड़कर इस प्रकार व्यक्त किया है 

नहाते रेत में चिड़ियों को जब देखा तो ये जाना

ज़रूरत हो तो नखरे और भी बादल के होते हैं

व्यक्ति तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छिपाता है। सच बात तो यह है कि यदि हममें हौसला होता है तो 'थकन' आदि कुछ भी अपना अस्तित्व नहीं रख पाती हैं। जब हम हौसला हार जाते हैं, तब ही सारी चीजें मुसीबतें बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं

थकन तो 'नाज़' है केवल बहाना

हमारे हौसले ही में कमी है

कृष्ण कुमार 'नाज' की गजलें सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी गजलों में सौंदर्य और प्रेम का अहसास नहीं है। सच तो यह है कि अहसास के स्तर पर भी एक गहन आलोक छोड़ जाती हैं। इसी रंग के दो शेर देखें

काग़ज़ के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए

 लिपटी हुई है एक महक फूलदान से

+++

है साथ अपना कई जनमों पुराना 

तू कागज़ है, मैं तेरा हाशिया हूँ

इस प्रकार आज के ग़ज़लकारों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले एक सलीके के गजलकार श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें जहाँ एक ओर अपने युग का चित्रण हैं, वहीं उसके रंग और रूप कुछ ऐसा संकेत भी देते चलते हैं, जो युग को केवल चित्र ही नहीं बने रहने देते, वरन् मानवतावादी दृष्टि, संवेदना और शाश्वत मूल्यों की रक्षा के संकल्प की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करते हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें एक ओर भाषा की सरलता एवं 'कहन' की सहजता से सुसज्जित हैं, तो दूसरी ओर अपने गूढ़ार्थों को कुछ इस प्रकार छिपाये रखती हैं कि वे स्पष्ट भी होते चलते हैं। यदि वे एक ओर संवेदना की धरती की गंध से आवेशित हैं, तो दूसरी ओर उनमें जागरूक विचारों का गौरवशाली स्पर्श भी है। यदि वे एक ओर बंद आँखों से देखा गया 'आलोक' हैं, तो दूसरी ओर खुली आँखों से देखा हुआ वह 'आलेख' भी, जो आम आदमी के मस्तक की रेखाओं से झाँकता है। उनकी गज़लें वह मानसरोवर हैं, जिसमें मुक्त विचारों के हंस तैरते हैं, वह नदी हैं जिसमें भावनाएँ बहती हैं, वह सागर हैं जिसका ज्वार अनेक समस्याओं के जहाज़ों को पार लगाने का साधन बन सकता है।




✍️ डा. कुँअर बेचैन 




मंगलवार, 13 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम के गीत संग्रह --- 'दर्द अभी सोये हैं' की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा ..... भंवर से किनारे की ओर लाता गीत-संग्रह

 एक रचनाकार अपने मनोभावों को पाठकों/श्रोताओं के समक्ष प्रकट करता ही है परन्तु, जब पाठक/श्रोता उसकी अभिव्यक्ति में स्वयं का सुख-दु:ख देखते हुए ऐसा अनुभव करें कि रचनाकार का कहा हुआ उनके ही साथ घट रहा है, तो उस रचनाकार की साधना सार्थक मानी जाती है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय 'अनुपम' की प्रवाहमयी लेखनी से होकर साहित्य-जगत् के सम्मुख आया गीत-संग्रह - 'दर्द अभी सोये हैं' इसी तथ्य को प्रमाणित करता है।

      एक आम व्यक्ति के हृदय में पसरे इसी दर्द पर केन्द्रित एवं उसके आस-पास विचरण करतीं इन 109 अनुभूतियों ने यह दर्शाया है कि रचनाकार का हृदय भले ही व्यथित हो परन्तु, उसने आशा एवं सकारात्मकता का दामन भी बराबर थामे रखा है। यही कारण है कि ये 109 अनुभूतियाॅं वेदना की इस चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करते हुए, उजली आशा का मार्ग तलाश लेती हैं। 

     पृष्ठ 17 पर उपलब्ध गीत - 'दर्द अभी सोये हैं' से आरम्भ होकर वेदना के अनेक सोपानों से मिलती, एवं उनमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान आशा की किरणों में नहाती हुई यह पावन गीत-माला, जब पृष्ठ 126 की रचना - 'मैं तो सहज प्रतीक्षारत हूॅं' पर विश्राम लेती है, तो एक संदेश दे देती है कि अगर एक और ॲंधेरे ने अपनी बिसात बिछा रखी है तो उसे परास्त करने में उजली आस भी पीछे नहीं रहेगी। साथ ही दैनिक जीवन की मूलभूत समस्याओं तथा पारिवारिक व अन्य सामाजिक संबंधों पर दृष्टि डालते हुए, उनके यथासंभव हल तलाशने के प्रयास भी संग्रह को एक अलग ऊॅंचाई प्रदान कर रहे हैं। अतएव,  औपचारिकता वश ही कुछ पंक्तियों अथवा रचनाओं का  यहाॅं उल्लेख मात्र कर देना, इस उत्कृष्ट गीत-संग्रह के साथ अन्याय ही होगा। वास्तविकता तो यह है कि ये सभी 109 गीत पाठकों के अन्तस को गहनता से स्पर्श कर लेने की अद्भुत क्षमता से ओत-प्रोत हैं, ऐसा मैं मानता हूॅं। निष्कर्षत: यह गीत-संग्रह मुखरित होकर यह उद्घोषणा कर रहा है कि दर्द भले ही अभी सोये हैं परन्तु, जब जागेंगे तो आशा के झिलमिलाते दीपों की ओर भी उनकी दृष्टि अवश्य जायेगी।

मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि सरल व सहज भाषा-शैली में पिरोया गया एवं आकर्षक साज-सज्जा व छपाई के साथ, सजिल्द स्वरूप में तैयार यह गीत-संग्रह गीत-काव्य की अनमोल धरोहर तो बनेगा ही, साथ ही वेदना व निराशा का सीना चीरकर, उजली आशा की धारा भी निकाल पाने में सफल सिद्ध होगा। 



कृति : दर्द अभी सोये हैं (गीतसंग्रह)

संपादक : डा. कृष्णकुमार 'नाज़'

कवि : डा. अजय 'अनुपम'

प्रथम संस्करण : 2022

मूल्य : 200 ₹

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन

सी-130, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद (उ.प्र., भारत) - 244001 

समीक्षक : राजीव 'प्रखर' 

डिप्टी गंज,

मुरादाबाद

8941912642, 9368011960


बुधवार, 21 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के दो गीत - 'रूप तुम्हारा कोमल-कोमल' और 'दुनियाभर का खेल-तमाशा'

 


1- रूप तुम्हारा कोमल-कोमल


            रूप तुम्हारा कोमल-कोमल, 

            प्रीत तुम्हारी निर्मल-निर्मल

            अधरों पर मुस्कान मनोरम, 

            लगती है पावन गंगाजल


पुलकित कर देता है मुझको, 

संग तुम्हारे बातें करना 

शब्दों में ढलकर वाणी से, 

बहता है फूलों का झरना 

            सारी सृष्टि तुम्हारी ही छवि 

            और तुम्हारी ही अनुगामी 

             तुम पुरवाई-सी सुखदायी, 

             वर्षा की बूँदों-सी चंचल


अपना भाग्य सराहे पल-पल, 

उर-आँगन का कोना-कोना 

लगता है जग-भर पर तुमने, 

कर डाला है जादू टोना 

            तुम आकर्षण की मूरत हो, 

            तुम देवी हो सम्मोहन की

             सागर-सी भी मर्यादित हो, 

             नदिया-सी भी हो उच्छृंखल


भावों ने सीखा है तुमसे, 

उत्सुक होकर पेंग बढ़ाना 

चिंतन के उन्मुक्त गगन में, 

इंद्रधनुष बनकर मुस्काना

            मगर तुम्हारे स्वप्न हठीले, 

            यूँ भी करते हैं बरजोरी 

            खटकाते रहते हैं अक्सर, 

            मन के दरवाज़े की साँकल


2  - दुनियाभर का खेल-तमाशा 


             दर्शक बनकर देख रहा हूँ 

             दुनियाभर का खेल-तमाशा 

             आस कहीं पाई चुटकीभर 

             और कहीं पर घोर निराशा 


जिस क्षण मुश्किल हो जाता है 

अपनों से सम्मान बचाना 

मन को बोझिल कर देता है 

संबंधों का ताना-बाना 

               कैसे आख़िर पहचानूँ मैं 

               चेहरों से ऐसे लोगों को 

               भेष बदलकर हो जाते जो 

                पल में तोला, पल में माशा 


सब चेहरों पर सजे मुखौटे 

सबने चढ़ा रखे दस्ताने 

भ्रम का ओवरकोट पहनकर 

बरबस लगते हाथ मिलाने 

                भाषा की मर्यादा तजकर

                अनुशासन का पाठ पढ़ाते

                बोली में विष घोल रहे हैं 

                रख दाँतों के बीच बताशा 


सज्जनता का करें प्रदर्शन 

साधारण क्या, नामचीन भी 

किंतु निकलते हैं भीतर से

निपट खोखले, सारहीन भी 

                 शिष्टाचार छपा है इनके 

                 रँगे-पुते चेहरों पर, लेकिन-

                 गाढ़े मेकप के पीछे से

                  झाँक रही है घनी हताशा


✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'

सी-130, हिमगिरि कालोनी

कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.

मोबाइल नंबर  99273 76877


मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की ग़ज़ल ----रामचरितमानस, रामायण, भगवद्गीता, वेद, पुराण अभिनंदन उन पुरखों का जो ये जागीरें छोड़ गए


वादों की फ़ेहरिस्त दिखाई और तक़रीरें छोड़ गए 

वो सहरा में दरियाओं की कुछ तस्वीरें छोड़ गए


कच्ची नींदों से उकताए, अलसाए, झुँझलाए ख़्वाब 

आँखों की दहलीज़ पे आए, कुछ ताबीरें छोड़ गए 


रेगिस्तान में उठने वाले तेज़ बगूले क्या जानें

रेत के सीने पर कितनी ही वो तहरीरें छोड़ गए 


घर आए कुछ मेहमानों का ऐसा भी बर्ताव रहा 

दीवारों पर आड़ी-तिरछी चंद लकीरें छोड़ गए 


ज़िंदाबाद मुहब्बत, तेरे दीवाने भी ज़िंदाबाद 

ज़ात फ़ना कर बैठे अपनी और नज़ीरें छोड़ गए


रामचरितमानस, रामायण, भगवद्गीता, वेद, पुराण 

अभिनंदन उन पुरखों का जो ये जागीरें छोड़ गए

✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'

सी-130, हिमगिरि कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.

मोबाइल नंबर  99273 76877






सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्णकुमार 'नाज़' की षष्टिपूर्ति के अवसर पर रविवार 31 जनवरी 2021 को आयोजित सम्मान समारोह एवं कविसम्मेलन-----

  "कृष्णबिहारी 'नूर' साहित्य संस्थान" द्वारा प्रख्यात ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़' को उनकी षष्टिपूर्ति के अवसर पर रविवार 31 जनवरी 2021 को समारोहपूर्वक सम्मानित किया गया। 

       कार्यक्रम की अध्यक्षता देश के प्रख्यात नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी ने की, जबकि मुख्य अतिथि हिंदू कॉलेज मुरादाबाद के पूर्व प्राचार्य डॉ. रामानंद शर्मा रहे। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथिगण प्रख्यात शायर श्री ज़मीर दरवेश, प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी, डॉ. महेश दिवाकर थे। इस अवसर पर डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़' को कुलदीप शर्मा दीप, सुमित सिंह मीत, डॉ प्रशांत देव मिश्र, डॉ सीमा विजयवर्गीय, पीयूष शर्मा, मनीष मोहक, अनुराग मेहता सुरूर, अरविंद शर्मा आनंद, गौरव नायक, मूलचंद राज  डॉ पूनम बंसल, अखिलेश वर्मा, योगेंद्र वर्मा व्योम, डॉ मनोज रस्तोगी, ओंकार सिंह ओंकार, राहुल शर्मा आदि ने  भेंट देकर तथा शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया। इस अवसर पर  कवि सम्मेलन का आयोजन भी किया गया। उपस्थित सभी साहित्यकारों ने रचना पाठ कर समां बांध दिया । 




कार्यक्रम में डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़' द्वारा अतिथि संपादक के रूप में संपादित कानपुर की हिंदी पत्रिका दि अंडरलाइन के ग़ज़ल विशेषांक का विमोचन भी किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ सीमा विजयवर्गीय ने किया ।