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शनिवार, 31 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की मुंशी प्रेमचंद जयंती पर कविता ----


मैं भारत को नमन करती हूँ 

उसके सच्चे सपूत

प्रेमचंद जी को नमन करती हूं 

नमन करती हूंँ उस माँ को 

उस धरती को नमन करती हूँ

धन्य हुई भारत भूमि 

धन्य हुई वो जननी 

 जन्म दिया जिसने इस धरा पर 

 लेखनी के सच्चे सवांहक को 

खाका उतार डाला यथार्थ का 

लेखनी सत्य पर उकेरी थी 

विडम्बनाओं से परे होकर 

खुद अपनी आवाज उठाई थी

एक -एक कृतियों में उनके 

 जीवन जीवन्त हुआ 

 खुद भले ही मुश्किलें झेली 

 साहित्य का सागर भर डाला 

 एक से एक हीरे मोती से 

 श्रृंगार उसका कर डाला 

दे दिया अनमोल खजाना हमको 

जिसका कोई सानी न हुआ 

इतिहास बन गये मुंशी जी स्वयं 

उनसा न दूसरा ज्ञानी हुआ 

✍️ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ----बहु


रिद्धिमा विवाह से पहले बहुत डरी हुई थी ।उसे डर विवाह से नही ,बल्कि अपनी सासू माँ से लग रहा था ।जैसा कि उसे पता था ,कि सास बहुत तेज होती हैं ,जरा चैन नही लेने देती ,आदि- आदि ।        खैर, विवाह का दिन भी आ गया फेरे ले रिद्धिमा रोहित के साथ विदा हो अपनी सपनों की दुनिया ले ससुराल आ गयी ।उसे मन ही मन डर लग रहा था ।खैर, रोहित की दिलासा से वह थोड़ी सहज हुई ।।       अगले दिन सबेरे उठ उसने सबसे पहले नहा-धो कर चाय बना कर सासु माँ के कमरे में पहुँचाने गई।सासु माँ उठ चुकी थीं व पूजा कर रही थी ।रिद्धिमा को देख बोली ",बैठो बेटा, मैं जानती हूँ, तुम्हें नए परिवेश में ढलने में थोड़ा वक्त लगेगा ।लेकिन इस बात की कतई चिंता मत करना ,धीरे- धीरे तुम यहाँ के सारे तौर-तरीके , रीति -रिवाज सीख जाओगी।और फिर घबराहट कैसी, मैं हूँ तुम्हारे साथ , जो समझ न आये बेहिचक मुझसे पूछ लो ।

       आखिर माँ हूँ तुम्हारी ,आज से एक नही दो माएँ हैं तुम्हारी ।एक मायके में और एक ससुराल में।कह पल्लवी ने रिद्धिमा को गले लगा लिया ।सच रिद्धिमा का सारा डर एकदम दूर हो गया ।वह सोच रही थी ,कितनी भाग्यशाली है वह जो उसे ऐसी सासू माँ मिली ।आज पंद्रह वर्ष बीत जाने पर भी दोनों में वैसा ही अगाध प्रेम है ,जैसा पहले था ।माँ -बेटी जैसा और रिद्धिमा ने भी सही अर्थों में अच्छी बहु होने की परिभाषा गढ़ दी ।जो केवल और केवल आपसी सामंजस्य से ही सम्भव हो पाई ।

✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ---सपने


मधु जब मात्र छह वर्ष की थी, उसके पिता तिलक गुजर गए थे । एक भाई जो उस समय चार वर्ष का था उसे मालूम नही था कि जिंदगी किसे कहते हैं ।माँ मेहनत मजदूरी करके पेट भरती रही ।कहने को मामा साथ रहते ,लेकिन उनकी तरफ से जरा सी भी मदद की उम्मीद न थी ।मामी को मामा का मिलना -जुलना भी पसंद न था ।खैर ,समय बीतता गया ।मधु और उसका भाई राजीव बड़े हो गए थे ।राजीव को मिर्गी के दौरे पड़ते थे ।सो वह ज्यादा न पढ़ पाया लेकिन मेहनत करती माँ को देख मधु का मन कुछ करके हासिल करने को आतुर हो जाता ।वह नहीं चाहती थी ,कि माँ अब इस उम्र में भी मेहनत करे ।वह अपनी माँ को वो तमाम खुशियाँ देना चाहती थी ,जिससे वह वंचित रह गई।मधु जानती थी ,सपने बंद आँखों से नही खुली आँखों से देखने वालों के ही पूरे होते है और  दिन -रात कड़ी मेहनत कर मधु ने अपनी मंजिल पा ही ली और उसका बैंक में चयन हो गया ।वह जानती थी ,मेहनत करने वालों की कभी हार नही होती ।जो सपना उसने देखा ,कि वह माँ, भाई को अपने साथ रखेगी आज वह पूरा हो गया ।

✍️  शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद

रविवार, 28 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कविता ------रंग -बिरंगे रंगों संग , होली लाई एक नई उमंग .....

रंग -बिरंगे रंगों संग ,

होली लाई एक नई उमंग ,

हर तरफ हुड़दंग मचा है भारी ,

इसलिए तो होली होती है न्यारी ,

      राग - द्वेष सब भूल जाते ,

      होली पर जब रंग लगाते ,

      हवा में एक खुमारी छाई ,

      चारों ओर मस्ती है छाई ,

गुंजिया ,कचरी की खुशबू से ,

चहु दिशाएँ महकी हैं ,

बिन इनके देखो प्यारे ,

होली की दावत भी अधूरी है ,

✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार,  मुरादाबाद

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ----करप्शन


रीता की हाल ही में विधवा पेंशन बनने वाली थी ।जैसे तैसे उसने अपने परिचित काम वाले वर्मा जी से जुगाड़ लगा कर पेंशन बनवाने का फॉर्म भरा था ।चार पाँच घरों में काम करके रीता अपने व बच्चों के गुजारे लायक ही तो कमा पाती थी ।सोचा था ,विधवा पेंशन बन जाने पर थोड़ा सहारा मिल जायेगा।सो फॉर्म भर दिया ,पता चला कि इसमें आधार कार्ड लगेगा ,सो वर्मा जी ने आधार कार्ड बनवा दिया ।रीता एक दिन सब कामों से निबट कर फॉर्म जमा करने ऑफिस पहुँची।पता चला कि फॉर्म जमा करने से पहले हजार -हजार रुपए जमा कराये जा रहे है ।कहाँ से लाये वह हजार रुपए ,जैसे तैसे तो वह घर का गुजर बसर कर रही है ।बचता ही कहाँ है ,जो वह आज हजार रुपए ला सके और अपनी विधवा पेंशन बनवा सके।वह ऑफिस के बाहर खड़ी सोचती रही ,कि क्या रिश्वत ,पेंशन जो कि एक बेसहारा के लिये उसकी जरूरत है उससे बड़ी है ।भारी मन लिये वापस अपने कामों पर आ जाती है ।

 ✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कविता ----अन्जान पथ


अन्जान पथ मुश्किल भरे ।

काँटो से हैं ये सजे ।

दूर-दूर तक कोई नही अपना ।

अकेले हैं बस हम ,

और कोई नही अपना ।

यूँ ही हम चलते जाते हैं।

समय का साथ निभाते जाते हैं।

राह नई चुनते जाते हैं।

मंजिल यूँ ही नही मिलती प्यारे ।

ख्वाब उसके बुनते जाते हैं।

     कटती हैं रातें भी कभी जागते हुए

     दिन भी कटते हैं कभी ,

     भूखें रहते हुए ।

     तसल्ली रहती हैं,

     फिर भी दिल को मेरे।

     रोशन होगा एक दिन मेरे,

     अरमानों का चमन ।

संघर्षो की अजीब दास्तां हैं ये पथ ।

अनुभवों की पाठशाला हैं ये पथ ।

कुछ न कुछ सिखाते हैं ये पथ ।

अपने आप ही कुछ ,

कह जाते हैं ये पथ ।

✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार , मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश

बुधवार, 20 जनवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा --उनके हिस्से की खुशियाँ

     


सौम्या की नौकरी एक अनजाने शहर में लगी थी ।अपने शहर से दूर कभी उसे अपनो से दूर अकेले रहना पड़ेगा ,उसने सोचा भी नही था ।खैर ,यही सोच उसकी माँ उसके साथ आयी थी ।नई जगह होने की वजह से शुरू में परेशानी तो हुई ।धीरे -धीरे सब सामान्य हो गया।सौम्या कभी अकेली नही रही थी ,माँ भी कब तक उसके साथ रहती ,वह भी सर्विस करती थीं।

माँ के जाने के बाद सौम्या को अकेला -पन खाने लगा ।वह वैसे भी कम बोलती थी ।माँ के जाने के बाद और भी अकेली हो गयी ।हालांकि उसके मकान मालिक बहुत अच्छे थे ।लेकिन फिर भी वह अकेला पन महसूस करती रहती ।सौम्या कभी पीछे की सोचती तो उसे अपने पर विश्वास नही होता ,कि क्या ये वही सौम्या है ,जो अपनी माँ के बिना एक पल भी इधर से उधर नही होती थी ।क्या यह वही सौम्या है ,जो पापा के बाद एक दम बदल गयी थी ।उसने अपनी माँ को संघर्ष करते हुए देखा था ।शायद यही कारण था ,उसने सोच लिया था ,कि जीवन में वह कभी किसी भी परिस्थिति से हार नही मानेगी ।वह माँ को वह सारी खुशियाँ देगी ,जो वह अपने संघर्ष और उन तीनों भाई-बहनों के पालन -पोषण के दौरान खो चुकी थीं ।यही सोचते -सोचते कब रात से दिन निकल गया पता ही नही चला ।एकाएक उसके मुँह से निकला, नहींं मैं दूँगी खुशियांँ ,मैं लौटाऊंंगी माँ को उनके हिस्से की खुशियांँ ।

✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की रचना ---आने वाले नए साल का , इम्तेहान अभी बाकी है


अलविदा हुआ दो हजार बीस।

कुछ खट्टी -मीठी यादें दे कर ।

कुछ उलझी -सुलझी सी बातें दे कर ।

कुछ नया हुआ या नही हुआ ।

लॉकडाउन तो एकदम नया हुआ ।

अनुभव दे गया हजारो ऐसे ।

जिनसे सीखने को मिला नया ।

जीना सीखा गया हर परिस्थिति में।

चाहे घर में हो या बाहर हो ।

समय कभी भी बदल सकता है ।

कुल मिला कर बता गया ।

कुछ अपने -पराये दूर हुए , तो 

कुछ दूर हो कर पास आये ।

गिले-शिकवे सभी भुला कर ,

कोरोना काल ने मिला दिया ।

जाते -जाते बता गया ,कि 

जंग अभी बाकी है ।

आने वाले नए साल का ,

इम्तेहान अभी बाकी है ।

✍️ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

बुधवार, 23 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ----करवा चौथ

     


विवाह के सात वर्ष व्यतीत हो चुके थे ,और उन सात वर्षों में मोनिका का हर सम्भव यही प्रयास रहा ,कि वह अपने कर्तव्यों पर खरी उतरे ।ससुराल में पति के साथ-साथ सब लोगों को खुश रखने के चक्कर में मोनिका स्वयं अपना अस्तित्व ही भूल चुकी थी ।दिन - रात एक कर सबकी सेवा में लगी रहती लेकिन अनुज और उसके घर वालोंं की नजर में उसकी कोई कीमत न थी ।इतना सब करने के बाद कभी -कभी मोनिका का मन ग्लानि से भर जाता ।सोचती ,क्या इसे ही विवाह कहते हैं।क्या यही है ,पति -पत्नी का संबंध।

      अनुज की नजरों में मोनिका की कोई अहमियत नही थी ।उसका व्यवहार मोनिका के प्रति आत्मीयता का नही ,बल्कि सिर्फ एक नौकरानी का था ।आखिर कब तक मोनिका यह सब कुछ सहती, एक दिन वह अपने बच्चों को साथ ले अपने पिता के घर आ गयी ।जैसे भी हो ,अब वह वहाँ लौट कर नही जायेगी।आखिर कब तक वह अपना और अपने बच्चों का शोषण करवायेगी ,अनुज को वैसे भी उसकी जरूरत समाज को देखते हुए ही थी ।समय बीतता रहा, शुरू में तो अनुज ने उसे बुलाने के प्रयास भी किये,लेकिन धीरे -धीरे वह भी बंद हो गये।

      मोनिका अपने माता -पिता के साथ अपने बच्चों की परवरिश में लग गयी लेकिन उसने अपने कर्तव्यों की डोर को नही छोड़ा ।यहाँ एक तरफ पति के साथ ससुराल में रह अपने कर्तव्यों का पालन किया ,वहीं दूसरी तरफ अपने अस्तित्व को बचा कर बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती रही ।यहाँ तक कि, प्रतिवर्ष करवा चौथ आती और वह व्रत रखती।यहाँ भी वह अपने कर्तव्य से नही फिरना चाहती थी ।इसलिए नही ,कि लोग क्या सोचेंगे ,बल्कि इसलिए कि ईश्वर उसके आगे का मार्ग प्रशस्त कर उसे एक नई शक्ति दें ।

डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कहानी ---- ऑनलाइन क्लास

 


वैभव एक फर्म में बहुत छोटे ओहदे पर था ।रात दिन मेहनत करके इतनी तनख्वाह मिल जाती ,कि दो वक्त की रोटी नसीब हो जाये ।दो पढ़ने वाले बच्चों के साथ जैसे -तैसे गुजारा हो पाता ।वैभव अपने दोनों बच्चों के भविष्य के लिये कोई समझौता नही करना चाहता था ।वह नही चाहता था ,कि जिस हालात का वह सामना कर रहा है ,उसके बच्चे भी उसी हालात से गुजरे।यही कारण था,कि वह जी तोड़ मेहनत करके अपने बच्चों की फीस ,ट्यूशन आदि का खर्च निकाल ही लेता ।सुधा उसे बार -बार आगाह करती ,कि अपने स्वास्थ्य का तो ध्यान रखो । लेकिन वह उसकी एक न सुनता ।

       किसी को क्या पता था ,कि कोरोना जैसी बीमारी में स्कूल ऑफलाइन नही ऑनलाइन चलेगे।सो स्मार्टफोन का उपयोग जरूरी हो जायेगा।दोनों बच्चों की क्लास का एक ही टाइम था।अगर एक मोबाइल फोन लाता है ,तो दूसरा कैसे उसी टाइम पर पढेगा।इसी ऊहापोह में वैभव ने दो मोबाइल फोन का कर्जा अपने ऊपर करके बच्चों को मोबाइल फोन लाकर दे दिये।

      बच्चे सुबह से मोबाइल फोन लेकर बैठ जाते।सुधा पूछती क्लास चल रहीं है क्या ।वह हाँ में उत्तर देते।कम-पढ़े लिखे वैभव-सुधा इसी चक्कर में रहे ,कि बच्चे पढ़ रहे है ।उन्हें क्या पता ऑनलाइन क्लास की ओट में बच्चे गेम खेल रहे हैं,तरह-तरह की वीडियो देख रहे हैं।

       वैभव सुबह का जाता देर रात तक घर आता । नतीजा यह हुआ ,बच्चे दिन भर मोबाइलफोन ले कर बैठे रहते।न कोई घर का काम करते न बाहर का ।सुधा को उनका व्यवहार देख चिन्ता खाये रहती ,कि ये ऑनलाइन पढ़ाई उसके बच्चों को कहींं का नहींं छोड़ेगी।

  ✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

सोमवार, 23 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की रचना ----व्यथा


मैं वो अनसुलझी कहानी ।

मुझे कोई समझ न पाया ।

जीवन के हर मोड़ पे ,

मुझे कोई मिल न पाया।

       अकेली आई ,अकेली चल दी इन 

       राहों पर ।

        जिन राहों पर कोई और चल न  

        पाया।

मंजिल दूर-दूर होकर मुझसे चली ।

न जाने क्यों कहाँ कैसे मुझसे यूँ चली।

चाहा बहुत कुछ था ,जीवन में।

फिर भी कुछ मिल न पाया ।

          मैं वो अनसुलझी कहानी ।

           मुझे कोई समझ न पाया ।

           जीवन के हर मोड़ पे ।

           मुझे कोई मिल न पाया ।

थी ,एक आस सी मन में मेरे।

छू लू ये आसमान धरती तले ।

शायद वो आस मेरी आस 

बन के मन में रही ।

मेरी उस आस को कोई किनारा

मिल न पाया ।

मैं वो अनसुलझी कहानी ।

मुझे कोई समझ न पाया ।

जीवन के हर मोड़ पे ।

मुझे कोई मिल न पाया ।

 ✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद