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शनिवार, 18 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी -----दलील


जस्टिस भंडारी को सुबह सुबह ही एक महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई हेतु नियुक्त किये जाने का आदेश मिला। उनका अर्दली रामभरोसे बाहर नियुक्ति के आदेश और मामले से जुड़े दस्तावेजों के साथ खड़ा था। महामारी के चलते जस्टिस भंडारी यदा कदा ही न्यायालय जाते हैं। घर से ही ऑनलाइन मामलों की सुनवाई करते हैं, बहुत अधिक गंभीर मामलों के लिए ही वो न्यायालय जाते हैं। जस्टिस भंडारी, जी हाँ जस्टिस निर्मल चंद्र भंडारी जो कि भारत की उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के विशेष न्यायाधीशों में से एक हैं। वरिष्ठता और कार्य कुशलता के कारण सभी उनका सम्मान करते हैं। चाय की मेज पर मामले की फाइल पढ़ते हुए जस्टिस भंडारी के मुख पर एक तिरछी मुस्कान खिंच गयी थी। उनके स्टेनो विकास ने उनसे पूछा,'सर, क्या इस केस को भी ऑनलाइन सुनवाई के लिए चिन्हित कर दूँ?'
  'नहीं विकास, ये मामला तो न्यायालय में ही सुनने योग्य है। इस विषय के दोनों पक्षों को प्रत्यक्ष रूप से सुने बिना इस मामले की वास्तविक गंभीरता समझ नहीं आएगी। इसके दोनों पक्षकारों को तारीख दे दो और प्रत्यक्ष सुनवाई के लिए प्रेषित कर दो', जस्टिस भंडारी विकास को यह कहकर तैयार होने चले गए।
  दोपहर के भोजन के बाद जस्टिस भंडारी पुनः उस मामले को विस्तार से पढ़ने के लिए बैठे। यह एक स्वतंत्र याचिका थी जो कि एक अधिवक्ता ने दाखिल की थी। इसका शीर्षक था, 'महामारी के कारण देशभर के स्कूल और शैक्षणिक संस्थान आगामी एक सत्र के लिए बंद किये जाने के सम्बन्ध में'।  यूँ तो देश का संविधान हर किसी को अपनी किसी भी समस्या के लिए न्यायालय जाने के लिए स्वतंत्रता देता है, परन्तु इस सुविधा के चक्कर में कई बार बेफिजूल की याचिकाएं अदालतों का समय बर्बाद करती हैं। कई बार झूठी प्रशंसा और समाचारों का पर्याय बनने के उद्देश्य से अनूठी और बेकार की याचिकाएं बेवजह न्यायालयों पर भार बढ़ाती रहती हैं। इनका कोई मूल उद्देश्य तो होता नहीं और इनके चक्कर में अन्य उपयोगी मामले लंबित हो जाते हैं। खैर, केस की फाइल पढ़ते पढ़ते कब रात हो गयी, पता ही नहीं चला। मिसेज भंडारी ने जब रात के भोजन के लिए जस्टिस भंडारी को आवाज दी तब जाकर उनकी चेतना टूटी। भोजन करते करते मिसेज भंडारी ने पूछ ही लिया, 'क्या कोई नया अनूठा केस है? बड़ी तल्लीनता के साथ पढ़ रहे हो'।  'स्वतंत्र याचिकाएं तो अक्सर अनूठी ही होती हैं। यह मामला अनूठा तो है लेकिन साथ ही साथ थोड़ा गंभीर भी है', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया।
     'ऐसा क्या हैं इसमें?' मिसेज भंडारी ने उत्सुकता वश पूछा। 'कोरोना की वजह से एक साल तक स्कूल बंद करने की याचिका है', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया जिसे सुनकर पहले तो मिसेज भंडारी थोड़ा चौंक गयीं, फिर थोड़े समय बाद उन्होंने एक तिरछी मुस्कान देते हुए पूछा 'ओह, तो मतलब अब स्कूल एक साल के लिए बंद किये जायेंगे?' 'ये तो आप फैसला सुना रही हैं,  मैंने भी अभी तक निर्णय नहीं किया है', जस्टिस भंडारी ने कहा।
  'अब ये तो आप ही जाने जज साहब, आपको क्या करना है क्या नहीं, लेकिन मुझे इस विषय में  रुचि अधिक है। मुझे प्रतिदिन इस केस की सुनवाई के बारे में बताइयेगा जरूर'। यह बोलकर मिसेज भंडारी काम निपटाने रसोईघर में चली गयीं।

अगले दिन प्रातः तैयार होकर जस्टिस भंडारी कोर्ट पहुंचे। महामारी के चलते सिर्फ मामले से जुड़े पक्षकार, अधिवक्ता और कर्मचारी ही उपस्थित थे। याचिकाकर्ता खुद एक अधिवक्ता, सुरेन्द्रनाथ तिवारी थे। अधेड़ उम्र के एक अधिवक्ता, जिनकी ख्याति कुछ खास नहीं थी। वे अपने अतरंगी अंदाज और अनोखी याचिकाओं के लिए जाने जाते थे। हालाँकि उनको कई बार उनकी इन्ही अनोखी याचिकाओं के लिए कोर्ट से फटकार लग चुकी थी। लेकिन उनका यही अंदाज उनकी ख्याति का कारण था। इस पक्ष में दूसरी तरफ अधिवक्ता थे सुधांशु चतुर्वेदी, एक युवा लेकिन तेज तर्रार अधिवक्ता जो हाल ही में विधि में परास्नातक की शिक्षा पूरी कर सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्र नाथ चौबे के निर्देशन में कार्य कर रहे थे। खैर, अदालत की कार्यवाही शुरू हुई,  जस्टिस भंडारी ने कोर्ट रूम में पहुँच अपना स्थान ग्रहण किया। औपचारिकताएं जांचने के बाद  बहस और दलीलों का दौर शुरू हुआ। सबसे पहले जस्टिस भंडारी ने मुख्य याचिकाकर्ता तिवारी को अपना पक्ष रखने के लिए कहा। तिवारी जी बड़े ही जोश और उमंग के साथ खड़े हुए जैसे मानो वो एक ही दलील में केस जीत लेंगे। रौबदार तरीके से चलते हुए वो अपनी जगह तक पहुंचे और फिर उन्होंने शुरू किया, 'योर ऑनर, हम इस समय इस वक़्त की सबसे बड़ी भयंकर समस्या से दो चार हो रहे हैं। इस महामारी ने अपनी चपेट में पूरे विश्व को ले लिया है और हमारा सामान्य जीवन इससे प्रभावित हुआ है। इस महामारी के प्रकोप से बचने के लिए पिछले कई महीने से देश भर में लॉकडाउन किया गया था, जो कि अब समय के साथ धीरे धीरे खोला जा रहा है। बंद उद्योग खोले जा रहे हैं ,बाजार खोले जा रहे हैं, कार्यालय खोले जा रहे हैं लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि खतरा अभी भी कम नहीं हुआ है। संक्रमण का खतरा अभी भी बना हुआ है, और विशेषतौर पर बच्चों के लिए ये खतरा बना हुआ है, और इसी के मद्देनजर मैं जनहित में देश के सभी शिक्षण संस्थानों को आगामी पूरे सत्र के लिये बंद किये जाने की मांग करता हूँ ' इसी के साथ एडवोकेट तिवारी ने अपनी याचिका की प्रस्तावना को अदालत के सामने व्यक्त किया।
    याचिकाकर्ता का पक्ष सुनने के बाद जस्टिस भंडारी ने बचाव पक्ष के अधिवक्ता को अपना पक्ष रखने को बोला।
   सुधांशु बड़े ही अदब और सलीके के साथ खड़ा हुआ , उसने आँखों से जस्टिस भंडारी को अभिवादन किया और फिर उसने शुरू किया, ' योर ऑनर , मेरे काबिल दोस्त ने महामारी के प्रभावों का बड़ी ही कुशलता से वर्णन किया है। ये बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि इस महामारी ने हमारे जनजीवन को बहुत प्रभावित किया है। संक्रमण का खतरा निश्चित ही बना हुआ है और बच्चों के प्रति उनकी इस सुरक्षा भावना का मैं निश्चित ही सम्मान करता हूँ। वाकई ये समस्या जटिल है कि ऐसे वक्त में जबकि हम अस्त व्यस्त जीवन को पुनः पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं ऐसे वक्त में संक्रमण के खतरे के साथ परिस्थितियों को सामान्य कैसे किया जाये? उसमें भी याचिकाकर्ता पक्ष की तरफ से ऐसी याचिका जो सबकुछ सामान्य होने की राह में रोड़ा अटकाने जैसा है। हमने पिछले तीन महीनों में काफी कुछ सीखा है मीलॉर्ड, और उसमें से एक चीज ये भी कि हमें हार नहीं माननी है। हमें एक दूसरे का साथ देते हुए फिर से एक बार खड़े होना है। लेकिन मुझे अफ़सोस है कि मेरे काबिल दोस्त शिक्षा जैसी मूल आवश्यकता पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर रहे हैं। वे स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद करने की बात कर रहे हैं जबकि ऐसे वक़्त में हमें शिक्षा और ज्ञान ही इस बुरे वक्त से निकाल सकता है। इससे न केवल छात्रों का भविष्य संकट में पड़ जायेगा बल्कि अनेक लोगों की जीविका पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा , लिहाजा शिक्षण संस्थानों को सत्र भर के लिए बंद करना कतई उचित नहीं होगा'।
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद जस्टिस भंडारी ने मामले की बहस जारी रखने के लिए अगली तारीख दे दी। केस स्वीकार कर लिया गया था। शाम को खाने के वक़्त मिसेज भंडारी ने जस्टिस भंडारी से उत्सुकतावश पूछा, 'कैसा रहा पहला दिन? क्या केस स्वीकार किया गया?' ' हाँ , कल से इस पर बहस होगी', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया। 'क्या लगता है आपको, फैसला किस ओर जायेगा?' मिसेज भंडारी ने पूछा। 'ये अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ इसकी दलीलें जरूर दिलचस्प होंगी, क्यूंकि इस मामले में ज्यादा कानूनी दांवपेंच नहीं हैं। ठोस दलील के बलबूते ही इसका निर्णय किया जायेगा', जस्टिस  भंडारी ने कहा।

अगले दिन की कार्यवाही के लिए सभी पक्षकार उपस्थित हुए। याचिकाकर्ता अधिवक्ता तिवारी ने अपनी याचिका के समर्थन में कई शोध आख्याएँ प्रस्तुत कीं। वहीँ बचाव पक्ष के अधिवक्ता सुधांशु ने भी कई साक्ष्य अपने तर्क के समर्थन में दिए। अब समय था मुख्य बहस का, जो कि मध्यावकाश के बाद होनी थी। भोजनावकाश के बाद तिवारी जी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ,' योर ऑनर, इन शोध आख्याओं से स्पष्ट है कि स्कूलों के खोले जाने के बाद बच्चों में संक्रमण और तेजी से फैलेगा, लिहाजा बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद किया जाए'।
   अब बचाव पक्ष ने अपना कथन दिया,'मीलॉर्ड,बेशक बच्चों के लिए संक्रमण का खतरा है, लेकिन मैं याचिकाकर्ता से पूछना चाहता हूँ कि क्या स्कूलों को बंद किया जाना इसका विकल्प है? क्या इससे बच्चों के भविष्य का खतरा नहीं हो जायेगा?' बीच में ही तिवारी जी कूद पड़े 'योर ऑनर शायद बचाव पक्ष के अधिवक्ता ये भूल रहे हैं कि ऑनलाइन पटल पर पढाई जारी है और ये पूरे सत्र के लिए भी जारी रह सकती है। आखिर ये तकनीकी युग है और ऑनलाइन पढ़ने से बच्चों के मानसिक विकास में भी वृद्धि हो रही है'। सुधांशु ने बेबाकी से इसका कटाक्ष किया, 'बेशक ऑनलाइन पटल पर पढ़ाई हो रही है लेकिन ये कितना प्रभावी है क्या मेरे काबिल दोस्त इस बात पर गौर फरमाना चाहेंगे? योर ऑनर हर वर्ग, हर व्यक्ति की अपनी तार्किक क्षमता व अपना बौद्धिक विकास होता है। ऑनलाइन पटल वर्तमान के लिए एक अस्थायी विकल्प है लेकिन ये परम्परागत स्कूली पढाई का स्थान नहीं ले सकता। ऑनलाइन पढाई से पाठ्यक्रम पूरा किया जा सकता है इसमें कोई दोराय नहीं है, लेकिन महोदय ऑनलाइन पढ़ाई से शिक्षा के वास्तविक अर्थ की पूर्ति किसी तरह से भी संभव नहीं है। मेरे काबिल दोस्त शायद भूल रहे हैं इसीलिए मैं उनके साथ साथ आप सबको ये बताना चाहता हूँ की स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने का स्थान नहीं है, बल्कि ये एक बच्चे के सर्वांगीण विकास का द्वितीय चरण है मीलॉर्ड। एक बच्चा जब स्कूल में प्रवेश लेता है तो उसे सबसे पहले पाठ्यक्रम नहीं बल्कि नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। स्कूल एक परिवेश देता है, एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करता है जहाँ शिक्षक उसके अभिभावक की तरह उसके विकास का उत्तरदायित्व सम्हालता है। स्कूल में सिर्फ किताबें नहीं पढ़ाई जातीं, बल्कि वहां बच्चे को अपने सहपाठियों से लेकर अपने बड़ों तक के साथ किस तरह का व्यव्हार करना है, शिष्टाचार और मुख्यतः अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है। जब किसी छोटे बच्चे को कोई पाठ समझ नहीं आता तब शिक्षक उसे विभिन्न प्रकार के अन्य कलापों द्वारा समझाता है।  मेरे काबिल दोस्त यदि ये बता पाएं कि इनमें से एक भी कार्य ऑनलाइन पटल के माध्यम से पूर्ण हो सकता है तो बेशक स्कूलों पर ताला लगा दिया जाये'।
सुधांशु की इस दलील के आगे तिवारी जी के पास कोई उत्तर न था, किन्तु अपने तर्क के समर्थन में कुछ तो कहना ही था तो वो बोले, 'यानि आपका तर्क है कि बच्चों के जीवन का कोई मोल नहीं?' सुधांशु ने इस बार समाधान की दलील पेश की, 'बेशक बच्चों का जीवन कीमती है, बल्कि अभी कुछ समय तक शायद स्कूलों को बंद ही रखा जाये, किन्तु उन्हें पूरी तैयारी और सावधानी के साथ निश्चित समय पर खोला जा सकता है। सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के साथ। बजाय इसके कि हम अपने बच्चों को डर के घर में छुपना सिखाएं, हमें उन्हें जागरूक करना चाहिए, कैसे वो सामाजिक दूरी बनाये रख सकते हैं वो सिखाना चाहिए। साथ ही सरकार को चाहिए कि वे दिशा निर्देश निर्धारित करें और स्कूलों को सलीके से खोलने के इंतजाम करे लेकिन एक  सत्र के लिए स्थगन कोई तर्क सम्मत विचार नहीं। मैं आपसे ही पूछता हूँ कि यदि आपके शरीर के किसी एक अंग में कोई रोग हो जाये तो आप उस रोग का इलाज करेंगे या उस अंग को काटकर कुछ दिनों के लिए रख देंगे? शिक्षा हमारे समाज का अभिन्न अंग है और हमें ऐसे कठिन समय में इसके सुधार पर चर्चा करनी चाहिए'। तिवारी जी ने फिर चाल चली, 'अधिवक्ता महोदय, दलील तो बहुत दे दी, लेकिन अदालत ठोस सबूत मांगती है '।
  सुधांशु ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ' बिलकुल, सुबूत है, मीलॉर्ड मैंने जो साक्ष्य अदालत में दाखिल किये हैं उनमें सबसे पहले है बेसिक शिक्षा विभाग की आख्या, जो ये स्पष्ट कहती है कि उनके लिए ऑनलाइन पटल कारगर नहीं क्यूंकि प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा के साधन उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही एक अन्य शोध आख्या है जिसके अनुसार छोटे बच्चों को ऑनलाइन पटल से पढ़ने में सबसे अधिक दिक्क्तों का सामना करना पड़ रहा है । निजी स्कूल के कई शिक्षकों को आधा वेतन और उनके कर्मचारियों को वेतन विहीन रहना पड़ रहा है। मीलॉर्ड आख्या ये भी बताती हैं कि ऑनलाइन पटल की शिक्षा छोटी कक्षाओं के लिए प्रभावी नहीं है।  यहाँ तक की सुरक्षा उपकरणों के साथ स्कूलों का खोला जाना अन्य कई देशों में भी संभव हुआ है। और ये सब उन आख्याओं में वर्णित है जो कि अदालत में दाखिल की गयीं हैं'। इसके बाद तिवारी जी के पास बोलने को न ही कोई दलील बची थी और न ही पेश करने को कोई सुबूत। अब गेंद जस्टिस भंडारी के पास थी, लेकिन शाम हो चली थी और फैसला कल सुनाया जाना निश्चित किया गया। दिन की कार्यवाही समाप्त हुई। घर पहुँचते ही मिसेज भंडारी कुछ पूछतीं उससे पहले ही जस्टिस भंडारी ने उन्हें अगले दिन न्यायालय में आने का न्योता दे दिया। रात भर जस्टिस भंडारी ने अपने सहायक विकास के साथ बैठकर इस मामले का निर्णय लिखा जो कि अगले दिन सुनाया जाना था।

अगले दिन सुबह सभी कोर्ट में समय से पहले पहुंचे। सभी उत्सुक थे फैसला जानने के लिए। सीमित तौर पर एक दो पत्रकार भी उपस्थित थे। जस्टिस भंडारी अपने स्थान पर पहुंचे। जस्टिस भंडारी ने गंभीर भाव और ठहराव के साथ कहना प्रारम्भ किया, 'ये मामला बेशक देखने में एक छोटी सी याचिका थी, लेकिन वास्तविक रूप में इसके पक्षों की दलील ने कई अहम् सवाल खड़े किये। याचिकाकर्ता का प्रश्न अपनी जगह जायज था कि बच्चों की सुरक्षा को किसी भी रूपसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, किन्तु उनकी मांग बड़ी ही विचित्र थी। अदालत ने इस मुद्दे पर दोनों ही पक्षों की दलील को गंभीरता से सुना और सभी सुबूतों को गहनता से जांचा। इससे पहले कि अदालत का फैसला मैं सुनाऊँ मैं इस मुद्दे पर अदालत की टिप्पणी सुनना चाहूंगा। यह बात निर्विवाद रूप से सच है कि बच्चों की सुरक्षा से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता। वे आने वाले कल के भविष्य हैं और उनका स्वस्थ भविष्य हमारी जिम्मेदारी बनता है। किन्तु ये इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा की गुणवत्ता में भी कोई लचरता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ता का कहना है कि ऑनलाइन पटल पर शिक्षण कार्य चल रहा है और इसे आगामी पूरे साल के लिए ऑनलाइन ही रखा जाये और स्कूलों को बंद रखा जाये। वहीं बचाव पक्ष की ये दलील रही कि ऑनलाइन पटल उतना अधिक प्रभावी नहीं जितनी कि परम्परागत स्कूली शिक्षा। साथ ही ये बात भी विचारणीय है कि एक साल तक स्कूल बंद रखने से उससे जुड़े कई लोगों की जीविका का संकट भी उभर कर सामने आएगा। अदालत बचाव पक्ष की इस दलील के साथ सहमत होती है कि स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने का स्थान मात्र नहीं बल्कि वास्तविक शिक्षा को छात्र के जीवन में आत्मसात करने का स्थान है। बेशक एक बच्चा स्कूल में जो सीखता है वो उसे ऑनलाइन पटल पर उपलब्ध नहीं हो सकता। स्कूल के माध्यम से एक बच्चे की दिनचर्या बनती है, उसे स्कूल के परिवेश में पाठ्यक्रम के साथ साथ उसे संस्कारों का ज्ञान भी प्राप्त होता है जो कि ऑनलाइन पटल पर संभव नहीं। शिक्षा विभाग की आख्या का अवलोकन करते हुए अदालत सहमत है कि ग्रामीण क्षेत्र के कई विद्यार्थी अभी भी ऑनलाइन शिक्षा के साधन से वंचित हैं। सिर्फ ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहर में रहने वाले निम्न वर्ग के वे बच्चे जिनके अभिभावक मजदूरी और अन्य जीविकोपार्जन के साधन से जहाँ स्कूलों की फीस ही नहीं भर सकते वो भला ऑनलाइन शिक्षा कैसे ग्रहण करेंगे। ऐसे बच्चों के लिए ही स्कूलों में मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है जो कि ऑनलइन पटल पर संभव नहीं। लिहाजा, बचाव पक्ष की तमाम दलीलों व पेश किये गए सुबूतों से सहमत होते हुए ये अदालत स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद किये जाने की ये याचिका ख़ारिज करती है। इसके साथ ही ये अदालत सरकार को ये आदेश भी देती है कि वरिष्ठ शिक्षाविदों और वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति गठित करे जो कि स्कूलों के लिए सुरक्षा हेतु दिशा निर्देशों का निर्माण करेगी। इसी के साथ ये अदालत बर्खास्त की जाती है'।  जस्टिस भंडारी के फैसला सुनाते ही सुधांशु के चहेरे पर एक सुकून भरी मुस्कान खिंच गयी। अधिवक्ता तिवारी ने उसके पास आकर उसकी पीठ थपथपाई। वहीँ मिसेज भंडारी भी दूसरी ओर बैठी मंद मंद मुस्कुरा रहीं थीं। लौटते वक़्त मिसेज भंडारी ने जस्टिस भंडारी से कुछ पूछना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे भांपते हुए कहा, 'मैं जानता हूँ तुम क्या जानना चाहती हो। यही न कि सुबूत कुछ खास नहीं थे फिर भी इस केस का फैसला किस आधार पर किया? तो सुनो, सुधांशु की दलील ठोस थी। सच कहूं तो उसने स्कूलों का वो दृष्टिकोण सामने रख दिया जो शायद मैंने भी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसी दलील भी कभी मिलेगी। कभी कभी कुछ दलीलें सुबूतों के ढेर पर भी भारी पड़ जाती हैं'।


✍️विभांशु दुबे विदीप्त
गोविंद नगर
मुरादाबाद 244001

बुधवार, 15 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी - 'ऑनलाइन क्लास'


       'ओह, 10 बजे गए, 11 बजे से ऑनलाइन क्लास लेनी है', राकेश ने दुकान पर खड़े हुए घड़ी में देख मन ही मन कहा l राकेश, एक निजी स्कूल में अध्यापक था l लॉक डाउन के चलते स्कूल तो बंद हैं, अब ये ऑनलाइन क्लास के भरोसे ही सारा काम चल रहा है l निजी स्कूल के शिक्षकों को लॉक डाउन में अपनी आजीविका चलाने के लिए एकमात्र सहारा ये ऑनलाइन क्लासेस ही तो थीं l दिन भर 5 घण्टे की क्लास लेने के बाद स्कूल से माह का आधा वेतन मिलता था l प्रबंधक ने साफ़ कह दिया था कि यदि ऑनलाइन काम नहीं तो वेतन भी नहीं l राकेश के पैर जल्दी जल्दी घर की ओर दौड़ने लगे l ' अरे यार! मैं तो भूल ही गया, वो बिना तार वाले हेडफोन लेने थे एक मित्र से' l घर का सामान लेने की जल्दी में राकेश अपने मित्र रवि से वो बिना तार के हेड फोन लेना भूल गया l अब ऑनलाइन पढ़ाने में उसे फोन को दूर रख बोर्ड पर पढ़ाना होता था, लेकिन वहाँ से आवाज फोन तक नहीं पहुंच पाती थी l आधी तनख्वाह में घर का खर्चा ही मुश्किल से निकल पा रहा है l उपर से हर दिन नेट का अतिरिक्त खर्च भी झेलना है, फिर ये बिना तार का हेड फोन जो कम से कम हजार - बारह सौ से कम न मिलेगा, इसीलिए एक मित्र से कुछ दिनों के लिए 'उधार' लेना पड़ रहा है l राकेश रवि के घर पहुंचा और दरवाज़ा खटखटाया l रवि उसे देखते ही समझ गया कि वो वहाँ क्या लेने आया है l रवि ने हेड फोन देते हुए कहा - "यार शाम से पहले दे जाना, लड़के को फोन में गेम खेलना होता है वो बड़ा उत्पात मचायेगा" l राकेश हाँ में गर्दन झुका घर चला आया l आते ही सीधा उपर वाले कमरे में गया और क्लास की तैयारी करने लगा l आज किसी शैतान लड़के ने फिरकी लेने के मिजाज से अपने भाई के दोस्त को क्लास में जोड़ लिया था l उसने पूरे 1 घण्टे राकेश को खूब ही परेशान किया l किसी तरह क्लास निपटा वो सोफ़े पे बैठा सोचने लगा l रोज ही ऐसी हरकत होती रहती, कोई न कोई शैतान छात्र किसी न किसी तरह उसे परेशान किया करता l स्कूल में शिकायत का कोई नतीज़ा नहीं, उल्टा प्रधानाचार्य ने कह दिया कि ज्यादा दिक्कत हो तो क्लास बंद कर दो l अगर क्लास बंद कर दी तो जो आधा वेतन आता है वो भी नदारद l इसी उधेड बुन में शाम हो चली l राकेश रवि के घर की ओर चल पड़ा, हेड फोन वापस करने l उधर अपने एसी कमरे में सोफ़े पर लेटे हुए एक अभिभावक अपने मित्र को ज्ञान दे रहे थे - 'ऑनलाइन क्लास एक दम बकवास है यार l  पैसा लूट रहे हैं सब l इससे कोई फायदा नहीं होने वाला l' इत्तेफाक से इनका लड़का ही था जो आए दिन बाहर के लड़कों को ऑनलाइन क्लास में बुला राकेश को तंग किया करता था l राकेश रवि के घर से वापस लौट रहा था ये सोचते हुए कि स्कूल तो बंद ही हैं यदि ऑनलाइन क्लास भी बंद हो गई तो क्या होगा?

- विभांशु दुबे 'विदीप्त'
गोविंद नगर, मुरादाबाद
9948149835

बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी-------- 'द सीज ऑफ डेथ '


ये समय था 1944 की सर्दियों का और इस वक़्त जर्मनी और रुसी सेनाओं के बीच लेनिनग्राड शहर के लिए एक अहम और भयानक युद्ध चल रहा था। जर्मनी की सेना ने लेनिनग्राड शहर के इर्द गिर्द घेरा डाल रखा था। शहर को रूस के अन्य शहरों से जोड़ने वाले मुख्य मार्गों को जर्मनों ने कब्ज़ा रखा था और बाल्टिक सागर में उसकी नौसेना ने घेरा डाल रखा था। आसमान में जर्मनी के लड़ाकू विमान गरजते रहते थे। ये इस मोर्चे की सबसे भयंकर जंग थी। दो साल हो चुके थे और लेनिनगार्ड का घेरा अभी भी कायम था। जर्मनों की सफलता ये थी की शहर की आपूर्ति और उसके आस पास उनका कब्ज़ा था, तो वहीँ रूसियों ने जर्मनों को शहर पर कब्ज़ा करने से रोके रखा था। जब जर्मन सेना आगे बढ़ने में असफल रही तो उसने शहर की आपूर्ति ठप्प कर दी। रसद , अनाज और असलहा ढ़ोने वाले वाहनों को वो रस्ते में ही तबाह कर देता था और भेजी गयी रसद का बहुत छोटा सा हिस्सा ही शहर तक पहुँच पाता था। बाल्टिक सागर से आने वाले रसद के जहाजों को जर्मन पनडुब्बियां पानी में ही जलसमाधि दे देती थीं। शहर के हालात बेहद खराब हो चुके थे। रसद और राशन की कमी के कारण आधा शहर कब्रिस्तान बन चुका था। शहर में रुसी सेना के हालात भी ज्यादा अच्छे न थे। न हो ढंग से असलहा मिल रहा था न ही मदद। पूरे शहर में मौत , बेबसी और भूतिया सन्नाटा पसरा हुआ था। 2 साल में लेनिनग्राड में मात्र भुखमरी से 6 लाख से भी ज्यादा नागरिक मारे जा चुके थे। कब्रिस्तान बन चुके लेनिनग्राड में हालात बद से बदतर हो चले थे। अब लोग चलते चलते ही गिर पड़ते और उन्हें उठाने वाला भी वहां कोई न होता। रुसी सैनिक दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे, एक तो सामने के दुश्मन से दूसरा इस तबाही से। रोज न जाने कितने ही नागरिकों को दफनाते , जिनमे काई छोटे छोटे बच्चे कुछ तो नौनिहाल भी होते और तो और कई बार अपने ही किसी साथी को भी दफनाना पड़ता। जिन्दा लाश बन कर रह गए थे । जो ये सब नहीं देख पाता था, अपनी राइफल से खुद को गोली मार लेता था। जर्मन भी इस स्थिति से वाकिफ थे और उनका मानना था कि इस तरह वो बिना लड़े ही जीत जायेंगे। शहर खंडहर हो चुका था, जिस शहर में कल तक ऊँची ऊँची इमारतें हुआ करती थी, आज सड़कों पर उनका मलबा बिखरा पड़ा था। दिन में दो बार सेना के वाहन रसद बाँटा करते थे। हाँ, जिसको जितना मिल जाये वो अपनी किस्मत समझ ले लेता था। जिसे दिन में मिल जाता उसे शाम को मिले भी या नहीं इस बात कि भी कोई गारंटी नहीं थी। ऐसे ही शहर में घूमते सेना के एक ट्रक में सवार सैनिक इवानोस्की गुजरते रस्ते को देख रहा था। शहर कि दुर्दशा को देख उसके मन में अब कोई भाव नहीं आता था क्यूंकि आँखों के आंसू सूख चुके थे और दिल तो न जाने कब का पत्थर का हो चुका था। ट्रक रुकने पर इवानोस्की ट्रक से उतरा और बैरक की ओर चल दिया। बैरक क्या थी , एक टूटे फूटे भवन की ईमारत थी जिसमे वो और उसकी कंपनी के लोग रात गुजारते थे। अब आँखों में नींद नहीं होती थी। इवानोस्की 2 साल से लेनिनग्राड में था, अब इसे उसकी किस्मत कहें कि वो इतने साल तक जिन्दा रहा या बदकिस्मती कि उसने अपने साथ के न जाने कितने साथियों को अपने ही हाथों से दफनाया था। उसकी आँखों के कोर गीले तो होते थे लेकिन न ही आंसू निकलते थे और न ही मन में कोई भाव ही आता था। तभी एक गोली चलने की आवाज से वो उठ खड़ा हुआ, लेकिन थोड़ी देर में ही असलियत जान वापस पत्थर के टुकड़े पर लेट गया। साथ के एक और सिपाही ने खुद को गोली मार ली थी ,उसने आज दो लाशें दफ़नायीं थीं जिनमे एक मां और दूसरा 5 साल का बच्चा था। अपने ही लोगों को अपने सामने भूख से मरते देखना और फिर उनकी लाशों को दफनाना, नए रंगरूट कई बार इससे उबर नहीं पाते थे। इवानोस्की अतीत में देखने लगा कि जब वो पहली बार 2 साल पहले लेनिनग्राड आया था तो उसने भूख से मरे पूरे 11 लोगों के परिवार को दफनाया था। उसके बाद वो एक महीने तक सो नहीं पाया था। इवानोस्की जैसे न जाने कितने थे जो अब पत्थर के बन चुके थे। अगली सुबह इवानोस्की उठकर वापस अपनी ड्यूटी पर गया तो उसे पता चला कि रात को रसद लाने वाला ट्रक जर्मन बमबारी में तबाह हो गया, अब आज दिन का राशन नहीं बंटेगा। इवानोस्की को 4 रंगरूटों के साथ शहर का एक चक्कर लगाने को कहा गया। वो बैरक में वापस आ जाने की तैयारी करने लगा । वो रंगरूट भी वहीँ बैठे अपनी राइफल में गोलियां भर रहे थे और असलहा ले जाने की तैयारी कर रहे थे। इवानोस्की ने ये देख उनसे कहा -
'गोलियों से भी जरुरी एक चीज रख लेना, उसकी जरुरत आजकल ज्यादा पड़ती है'
'वो क्या सार्जेंट?' एक रंगरूट ने पूछा।
'कुदाल (फावड़ा)', इवानोस्की ने कहा।
वो रंगरूट चौंककर उसकी ओर देखने लगे।
'क्या हम दुश्मन को कुदाल से मारेंगे सार्जेंट', एक ने पूछा। 
'नहीं, दुश्मन के लिए नहीं' अपनी कुदाल रखते हुए इवानोस्की ने कहा
'तो कुदाल क्यों सार्जेंट?' दूसरे रंगरूट ने पूछा।
'कब्र खोदने और लाशें दफ़नाने के लिए’, ये कह इवानोस्की निकल गया।
उन चारों के मुख की चंचलता एक अजीब से तनाव और गंभीर भाव में बदल गयी। वो बिना कुछ कहे उठे और इवानोस्की के पीछे हो लिए।
इवानोस्की अपनी पत्थर निगाहों को शहर के प्रमुख स्थानों की ओर दौड़ता और उन स्थानों के युद्ध के पहले जैसे होने की कल्पना करता। इस युद्ध की विभीषिका ने इस शहर का क्या हाल बना दिया है। जहां पहले ये शहर खुशहाल , सुंदर और लोगों से भरा हुआ होता था, वहीँ आज खंडहर, कब्रिस्तान और भूतिया हो गया है। गश्त लगाते लगाते इवानोस्की शहर के मुख्य चौराहे पर पहुंचा तो उसने देखा एक 80 साल की बुढ़िया अपनी गोद में एक दुधमुंहा बच्चा लेकर दो कब्रों के पास बैठी थी। इवानोस्की उसके पास गया, और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख वहीँ बैठ गया। आगे की बात उस बुढ़िया की आँखों के आंसुओ ने इवानोस्की को बता दी। इवानोस्की ने अपने रंगरूट को इशारा किया तो वो पानी लेकर उसके पास गया। इवानोस्की ने उस बुढ़िया की ओर पानी बढ़ा कहा -
‘अम्मा, लो पानी ले लो'
आँखों में आंसू लेकिन पत्थर जैसी भाव से उसे बुढ़िया ने कहा -
'मेरी प्यास 5 दिन पहले मेरे बहु और बेटे के साथ मर गयी थी'
इवानोस्की के लिए ये कुछ नया नहीं था, फिर भी अपनी ड्यूटी निभाते हुए वो आगे बोला  'अम्मा , मैं तेरी क्या मदद कर सकता हूँ?'
'मेरा पोता 2 साल का है। इसकी मां 5 दिन पहले ही चल बसी', उस बुढ़िया ने उन कब्रों को निहारते हुए कहा।
इवानोस्की ने अपनी सप्लाई में टटोल के देखा तो उसे कुछ खाने का सामान मिल गया। उसने उसे उस बुढ़िया के हाथ में रखने की कोशिश की। इवानोस्की यही करता था, वो अपना सप्लाई राशन रोज किसी किसी न जरूरतमंद को दे देता था। लेकिन उस दिन उस बुढ़िया ने उससे राशन लेने से मना कर दिया। इवानोस्की ने थोड़ा जोर देकर कहा -
'आमा अपने पोते के लिए ले ले’
'वो, वो तो कल रात ही चल बसा', ये कहते हुए उस बुढ़िया की आँखों से आंसू ढुलक पड़ा।
इवानोस्की दंग रह गया। मन ही मन शायद वो भगवान से ये भी का रहा था की अभी और क्या देखना बाकी  है। उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
'अगर तू मेरी मदद करना चाहता है तो मेरे पोते को उसके मां बाप की कब्रों के बीच दफना दे'
इवानोस्की पत्थर हो चुका था। उसकी आँखों में भावरहित बेबसी और दुःख के आंसू थे। वो बिना कुछ कहे खड़ा हुआ और उसने वहां उन दोनों कब्रों के बीच एक छोटा सा गड्ढा खोदा और उस बच्चे को वहां दफना दिया। वो चारों रंगरूट ये दृश्य देख रहे थे। उन्हें ये समझ ही नहीं आया कि किस से क्या कहें। उन्हें इवानोस्की के शब्द याद आ रहे थे -'कुदाल, लाशें दफ़नाने के लिए'। खैर, ये सब निपटा कर जैसे ही वो जाने को हुए, उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
‘बेटा, मेरा एक काम और करता जा'
इवानोस्की के कदम रुक गए। उसने उस बुढ़िया के हाथ अपने हाथ में लिए और बोला -
'बोलो अम्मा, क्या करना है'
‘मेरे मरने के बाद मुझे भी यहीं मेरे परिवार के पास दफना देना', उस बुढ़िया ने अपने पोते की कब्र की ओर देखते हुए कहा।
इवानोस्की के हाथ से उस बुढ़िया के हाथ छूट गए। उसकी समझ ही नहीं आ रह था की वो क्या कहे। थोड़ी देर उस बुढ़िया की आँखों में देख इवानोस्की खड़ा हुआ और वापस अपनी बैरक आ गया। आज की घटना के बाद जैसे उसका मन अब भर चुका था इस सबसे। वो रंगरूट तो सबसे ज्यादा विचलित थे। अभी आये हुए 3 माह भी नहीं हुए थे और ये वीभत्स दृश्य देख वो तो जैसे पूरी तरह ही डोल गए थे। उस रात बैरक में 4  सिपाहियों ने खुद को गोली मार ली। इवानोस्की को जब ये पता चला तो वो एक बार फिर अपनी कुदाल उठा चल दिया। बेबसी के इस माहौल में न जाने उसे अभी और कितनों को दफनाना था। इसा मोर्चे पर रूसियों को जर्मन सेना से इतनी क्षति नहीं पहुंची थी जितनी इस भुखमरी और बेबसी ने दी थी। लेनिनग्राड का ये घेराव पूरे 2 साल 4 महीने चला (तकरीबन 870 दिनों तक )। ये इतिहास का सबसे विभीषक  मोर्चा था जहां एक ही बार में इतने नागरिक  मारे गए थे (तकरीबन 8 लाख से भी ज्यादा) । 872 दिन के बाद रुसी सेना से जर्मन सेना को पीछे धकेलते हुए नगर का घेराव तोड़ा और युद्ध में वापसी की।

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त
 मुरादाबाद

बुधवार, 10 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की लघुकथा -------अपराधी कौन





लाला सूरजमल की 
शहर के चौक पर बहुत बड़ी मिठाई की दुकान थीl काफी प्रसिद्धि थी क्षेत्र मेंl शुद्ध देसी घी के मिष्ठान बनाने का एकमात्र स्थान होने का घमंड कह लो या दुकान के समृद्ध व्यवसाय की संतुष्टि, सूरजमल के मुख पर सदैव दमकती रहती थी। व्यक्ति का अहंकार उसको सामाजिक मूल्यों में कंजूस बना देता है, शायद इसी कारण सूरजमल का व्यवहार संकुचित और दंभ से परिपूर्ण हो गया था ।स्वयं को अत्यधिक धनवान बनाने की लालसा और किसी दूसरे को अपने सम्मुख तुच्छ समझना, सूरजमल के व्यावहार में प्रतिदिन ढलता ही जा रहा था। रोज की ही भांति आज भी वो अपने ऊंचे से स्थान पर आसीन हो दुकान में बैठे थे। बहीखाते में हिसाब देखते, बीच बीच में गर्दन उचका कर दुकान में नजर भी दौड़ती रहती । इसी बीच एक आदमी ने दुकान से दो कचौड़ी उठा भागने का प्रयास किया , लेकिन पकड़ा गया । लाला के आदमियों ने खूब पिटाई की, मार मार मुँह से खून निकाल दिया ।काफी हो-हल्ला मच गया था बाजार में। कोतवाली में दरोगा को बुलावा भेजा तो थोड़ी देर में वो दो सिपाहियों के साथ आया । आते ही दरोगा ने 'उसे' देखा और लाला से पूछा - "यही है क्या"? लाला ने हाँ में सर हिला दिया । दरोगा ने सरेआम दो बेंत जड़ दिए l हाड़ मांस के उस ढांचे पे दो बेंत लगते ही वो नीचे गिर पड़ा।दरोगा ने उससे पूछा - " क्यों बे, चोरी करता है"  ये कहते ही दुबारा बेंत मारने के लिए हाथ उठा ही था कि अचानक "उसकी" भूख, लाचारी, बेबसी सब उसके आत्मसम्मान के सामने छोटी सी पड़ गई हो जैसे, वो उठ खड़ा हुआ और बोल पड़ा "बाबू साहब, बिटिया दो दिन की भूखी है, तीन रोज से कोई काम नहीं देता, आज हिम्मत जवाब दे गयी'l दारोगा का हाथ रुक गया, मानो पत्थर हो गया l लाला ने चौंककर उसका चेहरा ध्यान से देखने की कोशिश की -" अरे ये तो वही है जो दो रोज पहले काम मांगने आया था" । लाला न जाने क्यूँ अब थोड़ा शर्मिंदा महसूस कर रहा था ।लाला और दारोगा दोनों एक दूसरे की आँखों में देखकर मानो जैसे पूछ रहे थे "अपराधी कौन?" 

 ✍️विभांशु दुबे 'विदीप्त"
गोविंद नगर, मुरादाबाद

बुधवार, 27 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की लघुकथा -------- गिद्ध

       
       पड़ोस के गांव में महामारी घिर आयी थीl सैकड़ों लोग देखते ही देखते उसकी चपेट में आ गए थेl कुछ तुरंत मर गए; जो जिंदा बच गए वो मौत का इंतजार कर रहे थेl जो थोड़े बहुत काम करने लायक थे, वे बीमारों की तिमारदारी में लाग गएl सूचना मिलते ही काफी लोग गांव की ओर दौड़ पड़ेl इनमे से सबसे पहले थे डॉक्टर और प्रशासन के लोग, जो पीड़ितों की सहायता कर रहे थेl डॉक्टर जिसे बचा सकते थे उसे बचा रहे थे, जिसकी मौत निश्चित थी,उसका दर्द कम करके मौत को थोड़ा आसान बना रहे थेl प्रशासन के लोग गांव वालों के लिए व्यवस्था बनाने में लगे हुए थे, मृतकों के अंतिम क्रिया और उससे संक्रमण न फैले, उसका ख्याल रख रहे थेl इसके बाद जो लोग पहुंचे वो कुछ भले मानस थे, सो लोगों की सेवा में लग गए l बीमार को पानी देना, उसे भोजन करा देना, व्यवस्था बनाने में शासन की मदद करने में लग गएl फिर कुछ ऊंचे लोग भी पहुंचे, जो दान 'दिखाने' आए थेl एक निवाला मुँह में डालकर दस लोग उसकी फोटो निकलवा रहे थेl फिर कुछ "सत्यान्वेषी"  भी पहुंचेl मरे हुए की लाश का तमाशा दुनिया को दिखाने और अधमरे के मरने का सजीव वर्णन करनेl ऐसे तो बहुत थे, उनकी भीड़ लग गयी वहाँl सफेदपोश भी आए हुए थेl उनके लिए तो यही मौका था बिसात चमकाने काl जो 'अंदर' थे, वो जिंदा की गिनती करवाने लगे थे, जो 'बाहर' थे, वो लाशों की गिनती कर रहे थेl ये सब वो पांच साल का 'छोटू' देख रहा था, जिसके मुँह में न जाने कितने दिन से निवाला नहीं गया थाl उसने ऊपर मंडराते गिद्ध को देखा फिर उसने अपनी मां की तरफ देखाl उसकी मां की आंखे अब उसे रोटी की झूठी तसल्ली नहीं दे पा रही थींl ये सब लोग थे वहाँ और पहाड़ की चोटी पर बैठा शेर अपने शावक के साथ ये सब देख रहा थाl अचानक गिद्ध छोटू के पास आयाl वो ऊपर से सबको देख रहा था, जितने भी लोग शहर से आए थे, सबकोl शेर का शावक ये देखकर सोच रहा था कि ये गिद्ध उस बच्चे की मौत का इंतजार करेगा और फिर उसकी लाश से अपनी भूख मिटायेगाl लेकिन उस गिद्ध ने अपनी चोंच में दबी रोटी का टुकड़ा उस बच्चे के सामने रख दिया और थोड़ी देर देख वहाँ से चला गया।
उस बच्चे ने अपनी मां की ओर देखा और आँखों ही आँखों में उससे सवाल पूछ डाला, वहीँ शेर के शावक ने भी शेर से वही सवाल पूछा । ज़वाब न शेर दे पाया न ही उसकी मां। सवाल था, गिद्ध कौन? आखिरकार कौन था गिद्ध? ज़वाब शेर को भी पता था, और उस बच्चे को भी ।बस उन्होंने एक दूसरे की आँखों में देखा और शायद उन्हें ज़वाब मिल गया।


✍️विभांशु दुबे विदीप्त
गोविंद नगर
मुरादाबाद 244001