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शनिवार, 27 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के ग़ज़ल संग्रह "तिराहे पर" की ओंकार सिंह ओंकार द्वारा की गई समीक्षा ....आस्था और चिंतन की गजलें हैं ’तिराहे पर’ में

  ग़जल की यह परंपरा रही है कि ग़जल का हर शेर अपने आपमें स्वतंत्र होता है यानी यह आवश्यक नहीं है कि ऊपर के शेर से मिलती हुई बात ही दूसरे शेर में भी कहीं जाए दूसरे शेर में दूसरी बात हो सकती है तीसरे शेर में कोई और बात हो सकती है चौथे और पाँचवे शेरों में अलग-अलग बातें कहीं जा सकती हैं। परंतु कवि श्री शचींद्र भटनागर जी की यह विशेषता है कि उनकी कृति "तिराहे पर" में संग्रहीत कई ग़ज़लों में एक शेर दूसरे शेर से संबद्ध रहता है जिससे गुज़लों का सौंदर्य और अधिक हो गया है, जो कि पाठक के आनंद को बढ़ा देता है।

   आजकल मनुष्य इतना स्वार्थी होता चला जा रहा है कि वह समृद्धि, संपन्नता, वैभव और सुख तो चाहता है, परंतु उसके लिए सकारात्मक प्रयास नहीं करता। यह बात ठीक उसी तरह से है जैसे कि किसी पुराने कवि की इस पंक्ति में कि 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय' परंतु कवि श्री शचींद्र जी एक मतले के द्वारा इसी बात को सुंदर ढंग से इस तरह से कहते हैं

फूल चाहा, पर न अभिरुचि बागवानी में रही

 हर समय रुचि स्वार्थ के प्रति सावधानी में रही

और इसी प्रकार वे कहते हैं कि

जिक्र ऊँचाइयों का होता है 

पर सफ़र खाइयों का होता है

लाख चलते हैं हम मरुस्थल में

ध्यान अमराइयों का होता है।

राज्य का हर नागरिक पीड़ा से कराह रहा है तरह-तरह से कष्ट एवं कठिनाइयाँ झेल रहा है प्रदूषण, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महँगाई, शोषण, मजहब और धर्म के नाम पर अलगाववाद और आतंकवाद की चपेट में या गिरफ्त में फँसे हुए समाज का हर व्यक्ति इस घुटन से मुक्ति चाहता है। कवि श्री शचींद्र भटनागर जी ने भी इस घुटन से मुक्ति की कामना इस तरह से एक शेर के माध्यम से की है। इससे लगता है कि उनका भरोसा शासन से उठ गया है और जनता को घुटन से मुक्ति का रास्ता खुद तलाशना होगा।

     राज्य के हर नागरिक को जो घुटन से मुक्ति दे

     अब हवा ऐसी न कोई राजधानी में रही।

भीड़ बढ़ती चली जा रही है मगर आदमी अकेला होता चला जा रहा है। और इस भीड़ में तन्हाई के इस दर्द की टीस को कविवर श्री शचींद्र भटनागर ने अपने इस शेर में किस खूबसूरत अंदाज़ में बयान किया है

बढ़ती भीड़ों में रात-दिन केवल 

दर्द तनहाइयों को होता है।

संसार में सारे सुख वैभव मौजूद रहते हुए भी आज का आदमी उनका सुख नहीं भोग पा रहा है और अधिक प्राप्ति की चाह में अपने वर्तमान को नरक बनाए हुए हैं, अधिक से अधिक व्यक्तिगत पूँजी जमा करने में अपना भविष्य सुरक्षित समझता है। कवि श्री भटनागर इस बुराई से निजात पाने के लिए प्रेरित करते हैं और कहते हैं

धन तो चोरों औ' लुटेरों पे बहुत होता है

 मिल सके प्यार औ' सम्मान यही काफ़ी है।

और वे कहते हैं

आदमी है, जो हँसता-हँसाता रहे 

संकटों से भी जो सीख पाता रहे

फूल सा खुशनुमा हो सभी के लिए

 शूल के बीच भी मुस्कुराता रहे

जब लक्ष्य बड़ा होता है तो रास्तों का भी कठिन होना स्वाभाविक है ऐसे में अधिक धन-दौलत, आलीशान महल आदि की सुविधा भोगते हुए उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसी बात को अपने इस शेर में सुंदर ढंग से व्यक्त करते हैं श्री भटनागर जी

दूर जब लक्ष्य हो, राहें भी बहुत मुश्किल हों

 साथ में थोड़ा हो सामान यही काफी है।

समाज में संवेदनहीनता इतनी अधिक है कि यदि सड़क दुर्घटना में कोई व्यक्ति घायल पड़ा मदद के लिए तड़प रहा हो, तब भी उसे अस्पताल पहुंचाने वाला कोई नहीं होगा। भीड़ अनदेखी करती हुई गुजर जाएगी इसके अलावा भी न जाने कितनी ही घटनाएँ, दुर्घटनाएँ हमारे आस-पास होती हैं परंतु कोई किसी का दर्द बाँटने का उपक्रम नहीं करता। शायद इन्हीं बातों से व्यथित होकर श्री शचींद्र भटनागर जी कहते है कि

अब उन्हें देख के हरकत न जरा होती है

 हादिसे सामने हर रोज गुजर जाते हैं।

मनुष्य का जीवन खुशहाल बनाने के लिए सामाजिक ताना-बाना आवश्यक है। परंतु हमारा समाज विभिन्न रोगों से ग्रसित है। यह चिंता कवि श्री शचींद्र भटनागर को साल रही है। इसी से बेचैन होकर वे कहते हैं कि 

कैसे महकेगा कोई फूल किसी डाली पर

बाग का बाग है बीमार भला क्या होगा

द्वार दीवारें हैं कमजोर छतें चटकी हैं 

और तूफों के हैं आसार भला क्या होगा।

जब न हाथों में हो मल्लाह के ताकत बाकी 

लाख मजबूत हो पतवार भला क्या होगा।

श्री भटनागर साहब ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर और उनके निदान पर शेर कहे हैं। इसके अलावा शृंगाररस में भी उन्होंने बेजोड़ शेर कहे हैं, जिनमें हर पंक्ति से सौंदर्यबोध होता है, जो प्यार की खुशबू भरी मिठास पाठक के तक पहुँचाता है। बानगी के तौर पर कुछ शेर देखिए

वक्त के इस तरह से इशारे हुए 

आज के दिन पुनः तुम हमारे हुए

पांखुरी पांखुरी मुस्कुराने लगी 

रात तक जो रही मन को मारे हुए

आप जब भी मेरे उपवन की तरफ़ आते हैं

 वृक्ष किसलय से अनायास ही भर जाते हैं।

काम ही काम करते रहना मनुष्य का सद्गुण है कवि श्री शचींद्र जी कहते हैं....

हमारी व्यस्तता के क्षण कभी भी कम नहीं होंगे

हमारी याद ही रह जाएगी जब हम नहीं होंगे।

अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि श्री भटनागर की गजलों से महसूस होता है कि वे ईश्वर में दृढ़ आस्था रखने वाले पूरी तरह आध्यात्मिक और समाज के प्रति चिंतनशील कवि थे। 






✍️ 'ओंकारसिंह 'ओकार'

1 बी/241, बुद्धि विहार 

आवास विकास कालोनी

मुरादाबाद (उ.प्र.)

शनिवार, 13 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के आठ गीत

 


(एक)

अच्छा लगता है
तुलसी के पास
एक पल रुक जाना
अच्छा लगता है

यह तुलसी की पौध
तुम्हारी थाती है
इससे पावन महक
तुम्हारी आती है
फूल पँखुरियों वाले
जल से
इसे सवेरे अरघाना
अच्छा लगता है

पात -पात में इसके
दृष्टि तुम्हारी है
झलक रही इसमें
संतुष्टि तुम्हारी है
दरवाजे के निकट
आज भी
इसका दिन दिन हरियाना
अच्छा लगता है

जब भी खुद को
कभी अकेला पाता हूँ
बरसों पीछे
लौट-लौट में जाता हूँ
खड़े-खड़े ही
तब ने बोले
मन-ही-मन कुछ बतियाना
अच्छा लगता है।

(दो)

अब इस
तरतीब से लगे घर का
ख़ालीपन सहा नहीं जाता

शोकेसों के भीतर
सजी हुई
ये चीजें
जानी पहचानी हैं।

सब-की-सब हुईं आज
बेमौसम अर्थहीन
बिल्कुल बेमानी हैं।

घर के
हर कोने तक उग आया
बीहड़ बन सहा नहीं जाता ।

होली, दीवाली आईं
आकर
चली गईं
अनमनी अलूनी
राख की परत में
लिपटी
सुलगा करती है
अनदेखी धूनी

तुम बिन
हरियाली तीजों वाला
अब सावन सहा नहीं जाता।

(तीन)

दौड़ रहा है शोर
सड़क पर
फिर भी है गूँगे -से दिन
धुएँ- धुँध के घेरे
बोए-से लगते हैं
सभी अलग सपनों में
खोए- से लगते हैं।

घुटन भरी इन दुर्गंधों में
हुए साँपसूँघे-से दिन ।

पहली किरण तरसती है
घर में आने को
भीतर के कोने-कोने से
बतियाने को
उन्हें न भाती
सुबह गुलाबी
वे मोती-मूँगे- से दिन।

(चार)
ऐसा बाग़ लगा है
जिसमें जगह-जगह गिरगिट फैले हैं
जैसा रंग दीखता
वैसा रंग उन्हें भाने लगता है
परिवर्तन के संग
कंठ उस सुर में ही गाने लगता है
छवि है बिल्कुल भोली-भाली
बाहर से देखते हैं खाली
किंतु कार में अशर्फियों से
भरे कई भारी थैले हैं।

मिलते हैं वह सभी वर्ग में ,
राजनीति में,धर्म क्षेत्र में,
तन लिपटे उजले वस्त्रों में
लेकिन रखते कपट नेत्र में
जिस पलड़े को देखा भारी
उसी तरफ़ की बाजी मारी
ऐसे सरवर के स्वामी हैं
जिसके उद्गम ही मैंले हैं ।

अपने सुख की अधिक
न उनको लगती कोई कथा सुहानी
देश धर्म की श्रेष्ठ  कर्म की बातें
हैं उनको बेमानी
जीवनमूल्य न उनको भाते
ऊँची बातों से कतराते
कभी न ऊपर आँख उठाते
ऐसे चीकट गुबरैले हैं।

(पांच)
आओ करें साधना
हमको सबसे पीछे खड़े व्यक्ति के
शब्दों को ताकत देनी है ।

चारों तरफ भीड़ है
आपाधापी ऐसी
आपस में न कहीं कोई रिश्ता नाता है
आगे वाले को धकिया कर
पीछे वाला
गर्व- सहित उससे भी आगे बढ़ जाता है
लेकिन सबसे दूर
खड़ा जो निर्विकार है
बित्ता भर अपना पग नहीं बढ़ा पाता है
हमें उन्हीं सब लोगों से
लोहा लेने की
उसके मन को बहुत सबल चाहत देनी है ।

जितनी धाराएं हैं
जिनमें लहर न उठती
शांत दीखते हैं ऊपर के कुल- किनारे
जो कि राख की
कई सघन परतों के नीचे
मौन छिपाए रखते दबे हुए अंगारे
आने वाली
सभी परिस्थितियों को अपनी
नियति मानकर बैठे  रहते हैं मन मारे

हमें हवा देनी है
उनकी दबी  आग को
दहकाकर दुनिया को गर्माहट देनी है।

(छह)
हम जो भी हैं
अपने कारण हैं
आओ यह सत्य आज स्वीकारें

सुख-दुख
यश-अपयश के थे विकल्प
पर हम ने स्वेच्छा से
एक को स्वयं ही तो छाँटा है।
युग-युग से निर्विवाद सत्य यही है केवल
जैसा बोया हमने वैसा ही काटा है
हम ही लाए
अपने आँगन पर
बादल के दल,
बिजली,बौछारें
आओ यह सत्य आज स्वीकारें

सौंपें दायित्व
किसी सत्ता को नहीं
स्वतः जीवन में उठ रहे
अदम्य चकवातों का
मढ़ें नहीं दोष
किसी मौसम के माथे पर
ठिठुर दिशाओं का, खौलते प्रपातों का
नहीं किसी की
भेजी हैं बहती
तरल भयंकर पावक की धारें
आओ यह सहज स्वीकारें ।

हमने ही
अपने सुकुमार हृदय को
अपनी हठधर्मी से ही
शरबिद्ध किया बार-बार
शाश्वत स्रोतों से कटकर
केवल वृर्त्तों की
सीमा में यौवन को वृद्ध किया बार -बार
हमने सरिता पर तटबंधों की
निर्मित खुद की ऊँची दीवारें
आओ यह सत्य आज स्वीकारें।

(सात)
यह बहू जो छोड़ सब-कुछ
आ गई अनजान घर में
है अकेली तुम इसे अपनत्व देना।

माँ -पिता,भाई बहन का
प्यार छोड़ा
आँगना-दालान,
देहरी -द्वार छोड़ा
छोड़ सखियाँ ,
राखियाँ तीजें यहाँ आई शहर में
है अकेली,तुम इसे अपनत्व देना।

एक तुलसी पौध है
सुकुमार है यह
स्वस्थ्य प्राणों का
सुखद संचार है यह

ध्यान रखना
यह न मुरझाए सुलझती दोपहर में
है अकेली तुम इसे अपनत्व देना।

मायका था बस
भरा-पूरा सरोवर
तब अपरिचित था
न कोई भी वहाँ स्वर

ताल की मछली
यहाँ भेजी गई बहने लहर में
है अकेली, तुम इसे अपनत्व देना।

(आठ)
किसको कहें
कौन है मेला
कौन यहाँ बेदाग !

कितने भी
दिखते पवित्र हों
रिश्ते- नाते
शत्रु-मित्र हों
नए-नए संबोधन वाले
कितने भी उजले चरित्र हों

सब बाहर से
संत दीखते
भीतर से हैं घाघ

मोड़ भरी
सड़कों राहों में
आम,नीम
बट की छांहों में
तीर्थभूमि
आश्रम या गुरुकुल
देवालयों  ईदगाहों में
नज़र नज़र में
सबकी बैठा
एक भयंकर बाघ।

:::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत                                           मोबाइल फोन नंबर 9456687822



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मंगलवार, 9 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शचींद्र भटनागर के 11 गीत । ये सभी गीत उनके गीत संग्रह ’इदं न मम’ से लिए गए हैं। उनका यह गीत संग्रह वर्ष 2017 में युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि, मथुरा द्वारा प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उनके 109 गीत हैं ।

 













::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
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उत्तर प्रदेश, भारत
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के छह गीत । ये गीत लिए गए हैं उनके गीत संग्रह ’त्रिवर्णी’ से। उनका यह गीत संग्रह वर्ष 2015 में हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित हुआ है और इसकी भूमिका लिखी है मधुकर अष्ठाना ने ।


 (1) बदलाव

हर दिशा से

आज कुछ ऐसी हवाएँ चल रही हैं

आदमी का आचरण बदला हुआ है.


इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर

बात मन से

मन नहीं करता यहाँ पर

हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है

कि जिसको देखकर

सागर स्वयं डरता यहाँ पर

कल्पना विध्वंस की करता यहाँ पर


एक भी निःश्वास

स्वाभाविक नहीं वातावरण में

इस क़दर वातावरण बदला हुआ है।


लोग कहते हैं नया परिधान पहना है समय ने

और सूरज

बहुत ऊपर चढ़ गया है 

पर मुझे लगता कि सबको

स्वप्न धोखा दे रहा है

घोर दलदल बीच ही रथ अड़ गया है

आदमी भीषण भँवर में पड़ गया है


सभ्यता के ग्रंथ में

पन्ने पुराने ही भरे हैं

किंतु ऊपर आवरण बदला हुआ है

(2) कसबे का दर्द

मेरा दर्द कि मै न गाँव ही रह पाया

न शहर बन पाया


लुप्त हुई 

कालीनों जैसी

खेत-खेत फैली हरियाली 

बीच-बीच में

पगडंडी की शोभा

वह मन हरने वाली 

अब न फूलती सरसों 

डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं 

तन-मन की जो थकन मिटा दे 

वह शीतल-से ठौर नहीं हैं


सबको छाँह बाँटने वाला

मैं न सघन पाकर बन पाया


वह चूनर का छोर

होंठ के कोने में रखकर

शरमाना

देख कनखियों से

बिन बोले

मन का महाकाव्य कह जाना 

ऐसे दृश्य सहज सुखदायक 

हुए आज आँखों से ओझल 

सूख गया नयनों का पानी 

बढ़ता गया निरंतर मरुथल


कभी नहीं कल-कल जल वाला

वह निर्मल निर्झर बन पाया


बहुत बढ़े

देवालय मसजिद

रोज़ कथा कीर्तन होते हैं 

होती

उपदेशों की वर्षा

नित जागरण हवन होते हैं

 दुर्भावों की कीचड़ फिर भी 

 हृदय बीच बढ़ती ही जाती

जैसे गंगा बीच किसी पर

परत कलुष की चढ़ती जाती


पावन गंगारज कहलाता 

मैं न वही पत्थर बन पाया

(3) शहर की खोज

खोज में शहर की मन का बौनापन पाया
कबिरा के ढाई आखर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

उठते हैं ठीक सामने
रेत के बगूले
लगता है भटक गए हम
राह यहाँ भूले
कहीं नहीं जल है केवल मरुथल की छाया

घर वाले कल-कल निर्झर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

कुछ भी तो यहाँ न पाया
अपनापन खोया
विश्वासी आँखें खोईं
भीगा मन खोया
इससे तो अच्छे हम थे श्याम के सँगाती

पगली मीरा के गिरधर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

चलें अलावों के आगे
प्यार की तपन में
खेत-खेत आँगन-आँगन
खेलते पवन में
जहाँ नहीं नयनों में है संशय गहराता

पुरवइया के निश्छल स्वर की तुम्हें दुहाई
ओ भाई
लौट चलें अपने गाँव

(4) निरपेक्ष
और किस-किससे अपेक्षा मैं करूँ
अब मुझे हर व्यक्ति परवश दीखता

है न कोई
जो तिमिर की भीड़ में
एक दीपक की
हिमायत कर सके
न्याय के जो पक्ष में
बाँहें उठा
बात कहने की
ललक से भर सके

जो अनय-अन्याय को ललकार दे
अब न ऐसा तीव्र तेजस दीखता

परत पर परतें
जमी हैं राख की
दिख न पाती उष्णता
अंगार में
बह रहे हैं सब
अवश असहाय से
क्षुद्र तिनकों-से
समय की धार में
चीर कर मझधार पहुँचे पार जो
अब कहीं ऐसा न ओजस् दीखता

शब्द की
संकल्प से दूरी बढ़ी
कर्म-चिंतन में नहीं है संतुलन
कर रही है
शांत मन के मूल पर
भोगवादी दृष्टि
भीषण आक्रमण

एक-सा हो आचरण-वाणी जहाँ
एक भी ऐसा न वर्चस दीखता

(5) असुरक्षा
अब नहीं सुरक्षित है
कोई भी साँस
करें किस पर विश्वास हम

एक समय था
जब हर घर-देहरी के सुख में
अपनापन होता था
हर आँगन का दुःख
हर नयन को भिगोता था
किसी गेह कन्या की
सजल विदा-बेला में
गाँव की हरेक आँख
सहज डबडबाती थी
हर युवा पड़ोसी के
हाथ की कलाई जब
राखी में बँधने को
पल-पल अकुलाती थी
दो कच्चे धागे
अनमोल हुआ करते थे
घर-बाहर प्रीतपगे
बोल हुआ करते थे

अब तो हर दृष्टि हुई
भीतर की फाँस
करें किस पर विश्वास हम

एक समय था
जब हर खेत, वृक्ष, नीड़ों में
भोर चहचहाती थी
वंदना सुनाती थी
सांझ घर बुलाती थी
मन में होती उमंग
सुबह खेत जाने की
शाम ललक होती थी
गेह लौट आने की
किलकारी शैशव की
स्वप्नबिंधे वैभव की
अनुभव के आशीषों की फुहार पाने की
अब वह सब कहाँ गया,
ममता का नाम नहीं
अँगड़ाती सुबह नहीं,
बतियाती शाम नहीं

दिन सूने-सूने हैं
यामिनी उदास करें
किस पर विश्वास हम

खेत गली चौबारे
जगह रह न पाई अब
कोई अनबींधी है
लगता है नहीं रही
दृष्टि सरल सीधी है
कुछ दिन ही बीते जब
घर-आँगन में उसकी
कोने से कोने तक किलकारी गूँजी थी
जहाँ चौक पूरे थे
होलिका जलाई थी
दीप जगमगाए थे, दीवाली पूजी थी
अब उसे डराती है गेह की अटारी भी
अपने ही घर की वह आँगन-तिदवारी भी

घर में ही
कसे कई क्रूर बाहुपाश करें
किस पर विश्वास हम

(6) छद्मवेश
ओसभरी अँजुरी का
हो क्यों आभास यहाँ
दहक रहे हों जब अंगारे सिरहाने

कौन छद्मवेषों में सगा या पराया है
नहीं जान पाते हम
अपनी धरती की हत्या के षड्यंत्रों की
योजना बनाते हम

एक-से मुखौटे सब
पहने हैं फिर बोलो
भले-बुरे को कोई कैसे पहचाने

कौन भला दुहराएगा साहस- शौर्य भरे
उत्तम इतिहासों को
देवालय के भीतर प्राण गँवाते देखा
हमने अरदासों को

लगता है ईंट ईंट
रक्त में भिगोकर हम
आए हैं एक अनोखा भवन बनाने

सहचर होने का सुख अलग हुआ करता
जब लक्ष्य एक होता है
फिर न सोचता कोई, किसकी उपलब्धि हुई
कौन यहाँ खोता है

कोई बेमोल भी
न अपनाएगा हमको
बिखर गए जिस दिन इस माला के दाने

:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
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शनिवार, 6 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के सात नवगीत । ये नवगीत लिए गए हैं उनके नवगीत संग्रह ’कुछ भी सहज नहीं’ से। उनका यह नवगीत संग्रह वर्ष 2015 में हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित हुआ है और इसकी भूमिका लिखी है पारसनाथ ’गोवर्धन’ ने ।

 


(1) कहाँ आ गए

कवि तुम कहाँ आ गए भाई

यह तो है बाजार

यहाँ पर क़दम क़दम बिखरी चतुराई


यहाँ न काम करेंगे शब्द,

अर्थ या टटके बिंब तुम्हारे 

भीतर उतर नहीं पाएँगे

गीतों वाले सहज इशारे


गोताख़ोर नहीं हैं

नापें जो उन भावों की गहराई


सबके बाड़े अलग

सभी के अपने-अपने अलग अखाड़े 

मंचों की है अलग सियासत 

अलग वहाँ राजे-रजवाड़े


पूरा दल दौड़ा आता है

सिर्फ़ एक आवाज़ लगाई


सस्ती चीज़ों पर

ऊपर से चढ़े मुलम्मे हैं चमकीले 

चटखारे भरते हैं

उनको देख-देखकर रंग रँगीले


जितना घटिया माल भरा है 

उतनी ही दूकान सजाई


(2) सहज नही

चलते-चलते जीवन गुज़रा

मंजिल मिलती कैसे

जबकि उधर की पगडंडी से हटे हुए हैं लोग


पकड़ न पाए पथ

जो बिल्कुल जाना-पहचाना था

भीड़ संग चल दिए उधर ही

जो पथ अनजाना था


भटकन का अहसास हुआ 

फिर भी विस्मय है भारी

उसी भीड़ के संग आज भी डटे हुए हैं लोग


अड़ी हुई हैं पथ में आकर

कुछ मज़बूत शिलाएँ

अलग-अलग सब शक्ति लगाते

कैसे उन्हें हटाएँ


जीवन-धारा का प्रवाह

फिर क्यों अजस्र रह पाता

जब अपने उद्गम स्रोतों से कटे हुए हैं लोग


सभ्य कहाने के प्रयास में

सब संकीर्ण हुए हैं

नींव सुदृढ़ थी

फिर भी कितने जर्जर जीर्ण हुए हैं


कुछ भी सहज नहीं रह पाया है

अब शिष्टाचारों में

भाव-शब्द-संबोधन सारे रटे हुए हैं लोग


(3) भीतर की बात

बंधु!

आज कुछ अपने भीतर की बात करें 

क्या रक्खा मात्र इन विमर्शो में


होती है जब कोई

दुर्घटना नई-नई

भीड़ घरों से बाहर खूब जुटा करती है।

किसी दामिनी के प्रति 

रोषभरी करुणा तब 

गली-गली लोगों के हृदय में उभरती है


लगता है

लोग सभी मिलकर जुट जाएँगे

अब अनीतियों से संघर्षों में

क्या रक्खा मात्र इन विमर्शो में 


हर अनीति के विरुद्ध

चर्चा-परिचर्चा में

शब्दों के बड़े-बड़े व्यूह गढ़े जाते हैं

सड़कों पर शांतिमार्च होते हैं

मंचों से

ज़ोरदार भाषण, वक्तव्य पढ़े जाते हैं


सोच में न लेकिन

कुछ परिवर्तन आता है 

बीतते महीनों में वर्षों में

क्या रक्खा मात्र इन विमशों में


रोज ख़बर छपती है

समाचार-पत्रों में

मन नहीं बदलते हैं भाषणों सभाओं से

केवल भय और दमन 

संभव हो पाता है.

बड़े-बड़े नियमों से, दंड संहिताओं से


अपने मन का भी

हम चोर स्वयं पहचानें

एक व्यावहारिकता दीखे निष्कर्षो में 

क्या रक्खा मात्र इन विमर्शों में


सारी ओषधियों के

नाम गिनाने-भर से

रोग-दोष का कुछ उपचार नहीं होता है

भीमकाय उपदेशों

सम्मोहक भजनों से

पथभूले मन का प्रतिकार नहीं होता है।


बात प्रभावी होती

स्वयंसिद्ध सूत्रों से

अपनी हो निष्ठा जब ऊँचे आदर्शों में

क्या रक्खा मात्र इन विमर्शों में


(4) नया घर

इस नए घर में बहुत कुछ है.

खुला आँगन नहीं है


खिल रहे चेहरे

गुलाबों से सभी के

हर नयन से छलछलाता हर्ष भी है 

टिक न पाए धूल जिस पर

इस तरह का

टाइलों का चमचमाता फ़र्श भी है


बाहरी दीवार

मेकअप में खिले चेहरे नए-से

पर न है आभास पुरवा का

सजल सावन नहीं है


खिड़कियों पर

आधुनिक शीशे जड़े हैं

धूप भी सीधी न आ सकती उतरकर

अब करुण वातास का

आना कठिन है

क्योंकि बहता है पवन अभिजात भीतर


है कमी कुछ भी न ए०सी० 

कूलरों की, गीजरों की

किंतु अमराई तले की 

अनछुई सिहरन नहीं है


शीशियों से

खुशबुएँ बाहर निकलकर 

बंद कमरों को बहुत गमका रही हैं।

क्यारियों की

रात-रानी, मोगरे की

गंध को आतंक से हड़का रही हैं


पर धरा के छोर तक जाती

हवाओं में घुले जो

वह सहजतासिक्त

संवेदन नहीं है


वह खुला आँगन

जहाँ से सूक्ष्म स्वर में ही

निरभ्राकाश से संवाद होता


स्थूल से

उस अनदिखी निस्सीमता तक

एक आरोही अखंडित नाद होता


शोर मल्टीमीडिया के 

साधनों से भर गया घर 

किंतु वह आह्लाद से भरपूर

अपनापन नहीं है।


(5) नियति

इस आयातित भीड़-भाड़ में 

अब एकाकी ही चलना है नियति हमारी


मन की कौन सुनेगा

नहीं किसी को फ़ुरसत

सब करते हैं सिर्फ़ दिखावा

बाहर हैं ठंडी खुशबुएँ

डियो की लेकिन

भीतर खौल रहा है लावा


होंठों पर मुस्कान रँगी है

पर भीतर-भीतर जलना है नियति हमारी


धारा से विपरीत दिशा में

अगर किसी ने

अलग-अलग बहने की ठानी

उसे नकार दिया जाता है

सबके द्वारा

कहकर उसकी सोच पुरानी

इच्छा से या विवश

समय के विकृत साँचे में ढलना है नियति हमारी


(6) विस्मरण

भागदौड़ का जीवन

भा गया हमें

सर्पिल सड़कों में हम अपना घर भूलें


औरों से

कैसे हम निकल सकें आगे

इसलिए सुबह से

 हम संध्या तक भागे

हाँफते रहे

रुके नहीं लेकिन पल-छिन

बीतती रहीं

जगमग रातें, सूने दिन


निमिष-निमिष

शोर सघन इस क़दर हुआ

हम निर्मल नदिया का कल-कल स्वर भूले


कौंध-कौंध जाती है

एक कल्पना-सी 

अंतरिक्ष के कैसे

हम बनें निवासी


ध्यान में रहा करते 

चंद्र और मंगल 

अपनों के लिए नहीं 

शेष एक भी पल 


अमरबेल फैली है 

अमराई पर 

हम अमृतवाणी का हर अक्षर भूले हैं 


भेड़ों से हम 

चलते रहे आँख मींचे

 देखा तक नहीं किसी पल 

 ऊपर-नीचे

 केवल कुछ शब्द रटे

सीख ली प्रथाएँ

याद नहीं रहीं 

हमें प्रेरणा कथाएँ 

स्वयं सभ्य कहलाएँ 

इस प्रयास में

न्यू ईयर याद रहा, संवत्सर भूले


(7) पुश्तैनी हवेली

ऊँचे परकोटे के भीतर 

एक हवेली है पुश्तैनी


पक्की सड़क आज भी जाती है 

विशाल फाटक से घर तक 

घर की दीवारें दरवाज़े 

कल चमका करते थे लकदक 

आज द्वार, आँगन, कमरों के 

इतने अधिक हुए बँटवारे 

हर कोने में धूल जमी है 

इनकी मिट्टी कौन बुहारे 


रोज़ नई दीवारें उठतीं 

रुकती नहीं हथौड़ी-छैनी


परकोटे के भीतर 

रहते लोगों के मन बँटे हुए हैं

दूज, तीज, होली, दीवाली 

रक्षाबंधन बँटे हुए हैं


खेत बँट गए

और बँट गए उनमें उगे अन्न के दाने

एक भवन में रहकर भी सब 

रहते आपस में अनजाने


किंतु अलग रहकर भी 

मन में रहती है हरदम बेचैनी 


यहाँ रहेंगे सभी एकजुट 

यह सोचा होगा पुरखों ने 

नहीं कल्पना होगी 

ये परिणाम कभी होंगे अनहोने 

इन्हें हुए बेअसर सूर के पद

या तुलसी की चौपाई 

अथवा प्रेमदीवानी मीरा ने 

जो थी रसधार बहाई

 इन्हें न समझा पाएगी 

 कबिरा की साखी, सबद, रमैनी


 :::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822




गुरुवार, 4 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर का प्रथम गीत संग्रह ’खण्ड खण्ड चांदनी’ ।यह गीत संग्रह वर्ष 1973 में इन्द्रधनुष प्रकाशन आगरा द्वारा प्रकाशित हुआ है इस संग्रह में उनके 44 गीत हैं । इस कृति की भूमिका लिखी है डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल ने ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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मंगलवार, 2 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के पांच गीत । ये गीत लिए गए हैं उनके गीत संग्रह ’ढाई आखर प्रेम के’ से। उनका यह गीत संग्रह वर्ष 2010 में हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित हुआ है और इसकी भूमिका लिखी है प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी ने ।

 


(1) फगुनाए दिन

तुम आए

तो सुख के फिर आए दिन

बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन


पोर-पोर ऊर्जा से भरा देह-मन 

निमिष-निमिष के 

हलके हो गए चरण 

उतर गई प्राणों तक 

भोर की किरण 

हो गए गुलाबी फिर सँवलाए दिन


हो गई बयार

इस प्रकार मनचली 

झूमने लगी फुलवा बन कली-कली

भोर साँझ दुपहर

मन मोहने लगी 

धूप-धूल से लिपटे भी भाए दिन


(2) बदलाव

समय बदला हुआ है

मीत

मत बोलो

सरल मृगशावकों से नयन की भाषा

न कोई समझ पाएगा


यहाँ किसको समय है

प्यार से देखे 

तुम्हारी ओर पल-भर भी 

तुम्हारी बात तो है दूर

सुन पाता नहीं कोई

यहाँ अपना मुखर स्वर भी

समय बदला हुआ है 

मीत

मत छेड़ो

मधुर संगीत-लहरी अब

धरा स्वर से

सजाने की सनातन सौम्य अभिलाषा

न कोई समझ पाएगा


हमारी दृष्टि पैनापन पुरातन खो चुकी अपना परत-दर-परत भीतर

हृदय की गहराइयों में झाँकना

संभव न हो पाता

स्वनिर्मित पंथ पर हम

भूमि से आकाश तक को नापने में व्यस्त हैं इतने सहज संवेदना की 

सौंधती अमराइयों में घूमना संभव न हो पाता

समय बदला हुआ है

मीत

मत सोचो

हृदय में भावनाएँ हैं

तुम्हारी यह अप्रचलित रूढ़ परिभाषा

न कोई समझ पाएगा


(3) कुछ दिन बीते


तुम्हें गए

कुछ दिन बीते हैं 

पर मुझको अरसा लगता है


सब कहते

कल ही पूरब में 

एक घटा नभ में घहराई

फिर भी

लगता है बरसों से 

इधर नही आई पुरवाई 

मेरे घर पर

कभी न कोई

बादल-दल बरसा लगता है 


गुमसुम हैं

सारी दीवारें

छत भी है रोई रोई-सी

आँगन के

थमले में तुलसी

 रहती है खोई-खोई सी 

 द्वार

किसी निर्जन तट वाले

सूखे सरवर-सा लगता है


(4)अवकाश नहीं


सूख रहा कंठ

होंठ पपड़ाए

लेकिन

अँजुरी भरने का अवकाश नहीं मिलता है

नीर - भरे कूलों को नमस्कार


भाग रहे हैं

अनगिन व्यस्त गली-कूचों में 

चौराहों-मोड़ों पर 

भीड़ों के बीच कई एकाकीपन

मन से अनजुड़े हुए तन 

कभी सघन छाँह देख 

ललक-ललक जाता हूँ

मन होता ठहरूँ

विश्राम करूँ

लेकिन

कहीं ठहरने का अवकाश नहीं मिलता है

सतरंगे दुकूलों को नमस्कार

सारे अनुकूलों को नमस्कार


एक घुटन होती है 

बादल के मन-सी 

कुहरे की परतों में बंदिनी किरन-सी 

गंधों की गोद पले गीतों के सामने 

चटखते दरारों वाले मन जब 

दौड़े आते है कर थामने 

कभी-कभी मन होता 

फेंक दूँ उतारकर विवशता में पहना यह 

कंठहार 

गंधहीन कागज़ का 

लेकिन

मन की करने का अवकाश नहीं मिलता है 

गंधप्राण फूलों को नमस्कार 

बौराई भूलों को नमस्कार


(5) और कहीं


यहाँ बहुत मैले प्रतिबिंब हैं 

चलो चलें और कहीं दर्पण मन मेरे


कैसे पहचानी 

पगडंडी को छोड़ें

कैसे गंधों से 

संबंध यहाँ जोड़ें

दूर तलक फैले वीरानों में कैसे हम

क्रूर बबूलों से

अपना रिश्ता जोड़ें 

झुलसाते अणुओं की गोद से

चलो चलें और कहीं चंदन मन मेरे


यहाँ सिर्फ़ बिखरे हैं

पाहन ही पाहन

रोगग्रसित स्वामी है

जर्जर है नाहन

ऊपर की चमक देख मूल्यांकन होता है

भीतर तक कहीं नहीं

होता अवगाहन

गँवई गाहक वाले गाँव से 

चलो चलें और कहीं कंचन मन मेरे


यहाँ स्वार्थ ही है 

संबंधों की सीमा

एक वृत्त तक है 

स्वच्छंदों की सीमा 

हृदयों की नहीं मात्र अधरों की बातें हैं 

सारे के सारे 

अनुबंधों की सीमा 

ऐसी सीमाओं को तोड़कर 

चलो चलें और कहीं उन्मन मन मेरे


:::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822


बुधवार, 21 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचीन्द्र भटनागर के नवगीत संग्रह 'त्रिवर्णी' की अशोक विद्रोही द्वारा की गई समीक्षा --- मन मोह लेने वाली अनमोल धरोहर है त्रिवर्णी

 त्रिवर्णी, शचींद्र भटनागर जी द्वारा रचित अनमोल कृति है। प्रस्तुत पुस्तक में 1960 से 1970 के मध्य लिखी गई पुस्तक "खंड खंड चांदनी से 18 गीत,उसके बाद 1970 से 1995 के मध्य लिखी गई पुस्तक" हिरना लौट चलें " से 20 गीत "ढाई अक्षर प्रेम के" से 16 गीत संकलित हैं सभी नवगीतों में अंतर्मन की जीवन अनुभूतियों का बहुत ही सुंदर चित्रण है रचनाएं छंदबद्ध है काव्य सौंदर्य की अनुभूति प्रत्येक गीत से फूटती प्रतीत होती है। जीवन संघर्ष एवं जिजीविषा के आत्मसात प्रतिबिंब ,मिथक, संकेत स्पष्ट होते हैं । सामाजिक विद्रूपताओं विसंगतियों का पर्दाफाश करती हुई मन: स्थितियों को गीतों में पिरोया गया है जिन तीन पुस्तकों से गीत संकलित किए गए हैं ,खंड खंड चांदनी, ,हिरना लौट चलें, और ,ढाई आखर प्रेम के, वह एक लंबे कालखंड में बदलती परिस्थितियों का समय रहा है जिसको बड़े ही सुंदर ढंग से कवि ने  उत्कृष्ट शब्द चयन लेखन में प्रस्तुत किया है

खंड खंड चांदनी से उद्धरित जनसंख्या नियंत्रण को दर्शाता गीत देखिए 

आओ हम रोपें दो पौधे फुलवारी में 

इतने ही काफी हैं 

छोटी सी क्यारी में 

हर पौधे की अपने सपनों की बस्ती हो अपनी कुछ धरती हो

 अपनी कुछ हस्ती हो 

हर पौधे के द्वारे गर्वीली गंध रुके 

बासंती यानों पर उड़ता आनंद रुके 

भटनागर जी ने  जनसंख्या विस्फोट पर  इसी गीत के उत्तरार्ध  में लिखा है --

भीड़ भरी बस्ती में लूट हुआ करती है

 सब कुछ कर सकने की 

छूट हुआ करती है

कोई व्यक्तित्व वहां उभर नहीं पाता है 

संवर नहीं पाता है 

उभर नहीं पाता है

 धूप नहीं मिलती है ,वायु नहीं मिलती है उपवन के उपवन को आयु नहीं मिलती है सारे पौधे 

सूखे सूखे रह जाते हैं

 प्यासे रह जाते हैं 

भूखे रह जाते हैं

जो बदलाव समाज में होते हैं उनको परिलक्षित  करते हुए वह लिखते है -----

हर दिशा से

आज कुछ ऐसी हवाएं चल रही है 

आदमी का आचरण बदला हुआ है 

इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर 

बात मन से

 मन नहीं करता यहां पर

हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है 

कि जिसको देखकर

सागर स्वयं डरता यहां पर 

कल्पना विध्वंस की करता यहां पर

दिन ठहर गया  गीत में वह कहते हैं---

अभी-अभी इमली के पीछे 

दिन ठहर गया 

रोक दिया वाक्य 

जो विराम ने

 पत्तों के पीछे से 

झांक लिया लंगड़ाते धाम ने

जैसे मुड़कर देखा हो 

सजल प्रणाम ने

लंबाए पेड़ 

पात शाखाएं

 छायाएं दिशा दिशा नापतीं

एक सलेटी साड़ी पर


एक और गीत देखिए ------

अंधकार उतरा

पिघल गया सूर्यमुखी रूप 

बिल्लोरी जल में 

एक लहर सोना मढी

एक लहर मूंगे जड़ी 

एक लहर मोथरी छुरी 

जैसे हो सान पर चढ़ी 

शाम के लुहार ने 

तपा हुआ लोहखंड 

अग्नि से निकाला

पल भर में बुझा हुआ दिवस पड़ा काला

कितना सुंदर प्रकृति चित्रण इस गीत में किया है 

मनोभावों को गीत  में उतारते हुए वह लिखते हैं-----

 पूस की रात

कांप रही कोने में रात पूस की 

धवलाई किरणों को 

कुतर गई सांझ

 गोधूली ओढ़

 मौन पीछे दीवार सिटी सीढ़ी से 

उतर गई सांझ 

और किसी वृद्धा सी दुबक गई 

डरी डरी 

रीढ़ झुकी कटिया भी पूस की 

कांप रही कोने में रात पूस की


कवि जो देखता है उसके मन की व्यथा गीतों में अनायास ही फूट पड़ती है ----

मेरा दर्द कि मैं न गांव ही रह पाया 

न शहर बन पाया 

लुप्त हुई

कालीनों जैसी

खेत खेत फैली हरियाली

बीच-बीच में पगडंडी की शोभा वह

मन हरने वाली

अब न फूलती सरसों 

डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं

तन मन की जो थकन मिटा दे 

वह शीतल से ठौर नहीं हैं

सबको छांह बांटने वाला 

मैं न सघन पाकर बन पाया

और गांव से शहर की ओर होने वाले पहले पलायन पर कवि ने लिखा

गांव सारा चल दिया 

जाने किधर 

हम निमंत्रण को तरसते रह गए

रुक गई वे दुध मुंही किलकारियां 

मौन भाषा चिट्ठियों की खो गई

थम गईं

रिमझिम फुहारें सांवनी 

गंध सोंधी मिट्टियों की खो गई

 --------------------------

कल तक जलजात जहां गंध थे बिखेरते

उग  आया वहीं पर 

सिवारों का जंगल 

इस कदर अंधेरा है 

विष भरी हवाएं हैं 

पार पहुंच पाना भी लगता है मुश्किल 

हम इतनी दूर 

चले आए हैं बिन सोचे 

आज लौट जाना भी लगता है मुश्किल 

सोचा था पाएंगे हम बयार चंदनी 

किंतु मिला कृत्रिम 

व्यवहारों का जंगल

संवेदनशील देखिएगा.... कवि कहता है-

औरों के क्रूर आचरण

कई बार कर लिए सहन 

अपनों का अनजानापन 

मीत सहा नहीं जाता 

सूरज को 

छूने की होड़ लिए वृक्षों से 

 कहीं नहीं मिलतीं 

मनचाही छायाऐं 

ऊंचे उठने की लघु ललक लिए बिटपों की 

बौनी रह जाती हैं 

अनगिनत भुजाएं

एक गीत और देखिएगा-

गंध का छोर मिलेगा

 हिरना लौट चलें 

अभिनंदन करती 

आवाजों के शोर बीच 

भाव मुखर एक भी नहीं 

सभी यंत्र चालित हैं 

बोलते खिलौने हैं

जीवित स्वर ही एक भी नहीं 

इन ऊंचे शिखरों पर 

बहुत याद आता है 

बादल बन बन बगियों में घिरना 

लौट चलें

अंत में कुछ गीत "ढाई आखर प्रेम के" से देखिएगा--

एक आकर्षण 

अगरु की गंध में 

भीगे नहाए क्षण

 मलय की छांव छूकर

लौट आए प्रण 

फिर भी मौन हूं मै

वह तरल निर्वाधिनी गति 

रुक गई 

एक ऊंचाई 

थरा तक झुक गई 

और मेरी दृष्टि 

हो आई गगन के पार 

गंधिल निर्जनो में 

विमल चंदन वनों में

एक आकर्षण 

अतल गहराइयों तक 

डूब आया मन 

खिंचावों में घिरा 

मेरा अकेलापन

फिर भी मौन हूं मैं

और देखिए कवि की संवेदना----

कोलाहल जाग गया 

सांसों के गांव में 

निमिष निमिष भीग गया 

रसभीने भाव में 

ऊंघ रहा है इस क्षण

उनमन सा एक सुमन एक कली जागी 

ऐसी कुछ बात हुई 

बनकर ज्यों छुईमुई

सोई है एक डगर एक गली जागी

अंत में एक गीत और --

जाने फिर मिले 

या न मिले खुला गगन कहीं 

यह नीला नीला आकाश सरल मन सा

आओ कुछ देर यहां बैठे हम ठहरें

     यदि शचीन्द्र भटनागर जी को, उनकी संवेदनाओं को जानना है तो यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए।



कृति : त्रिवर्णी (नवगीत संग्रह)

रचनाकार  : शचीन्द्र भटनागर

प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत

संस्करण  :  प्रथम 2015

मूल्य : ₹300 


समीक्षक
: अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर,  मुरादाबाद, 8218825541 



रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचीन्द्र भटनागर की रचना --आस्तिक पिता-


पिता सूर्य के लिए खुले ही

रखते थे वातायन


प्यार बांट कर

बांधा सबको

तब परिवार बनाया

किंतु कभी

श्री फल बनकर भी

था सदभाव सिखाया

उनकी सीख आज लगती है

हमको सिद्ध रसायन


उनके रहते

कभी किसी ने

भी अलगाव न जाना

एक भवन में

 सिमटा रहता

खुशियों भरा ख़ज़ाना

जीवन के वास्तविक यज्ञ का

था वह देवा्वाहन


सुबह 

साइकिल से जाना

फिर देर शाम घर आना

उन्हें न भाया

कभी बैठकर

ख़ाली समय गंवाना

कर्मयोग का करते रहते

पूरे दिन पारायण


कभी न

पूनो पर्व  नहाए

माला नहीं घुमाई

किंतु विकल हो गये

दुखी जब

कोई दिया दिखाई

यह कर्तव्य भाव था उनका

कथा यज्ञ रामायण

✍️  शचींद्र भटनागर