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शनिवार, 7 जून 2025
शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024
मुरादाबाद के साहित्यकार फ़रहत अली ख़ान की चार लघुकथाएं । ये प्रकाशित हुई हैं भारतीय भाषा परिषद की कोलकाता से प्रकाशित मासिक पत्रिका वागर्थ के अक्टूबर 2024 के अंक में
1.'हादसा'
जब वह घर से निकला तो रास्ते में एक अजनबी से सामना हुआ। उसे लगा कि वह शख़्स रो रहा है। या फिर उसकी सूरत ही ऐसी है। शायद लगातार दुःख और तकलीफ़ें सहने की वजह से उसकी शक्ल ऐसी हो गयी है।
दोनों अपनी-अपनी रफ़्तार से चल रहे थे, इसलिए वह बस कुछ ही पल के लिए उसका चेहरा पढ़ पाया।
थोड़ी देर बाद उसे शक सा होने लगा कि उसके चेहरे ने उस अजनबी की शक्ल इख़्तियार कर ली है।
उसने देखा कि राह चलते लोग उसकी सूरत को बहुत ग़ौर से देख रहे हैं।
अब उसे एक आईने की ज़रूरत थी।
2. 'गुम'
बिजली की कड़कड़ाहट से जब देर रात बड़े मियाँ की आँख खुली तो उन्हों ने देखा कि बड़ी बी अपने बिस्तर पर नहीं थीं। यहीं-कहीं होंगी, आती होंगी, सोच कर चंद लम्हे इंतेज़ार किया। मगर जब बे-चैनी बढ़ी तो बिस्तर से उठ कर इधर-उधर देखने लगे। बड़े बेटे के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। बेटा और बहू निकल आए।
"तुम्हारी अम्मी कहाँ चली गयीं इस वक़्त?"
"ओह अब्बू!..." कहते हुए बेटे ने अफ़सोस से सर पकड़ लिया, "अम्मी जा चुकी हैं। अब वो नहीं आएँगी।"
परेशान बहू ने नर्म लहजे में कहा, "आप फिर भूल गए अब्बू! इस एक महीने में ये तीसरी बार है।"
बेटा हाथ पकड़ कर उन्हें उन के बिस्तर तक ले आया और लिटा कर चला गया।
बारिश शुरू हो चुकी थी। बड़े मियाँ देर तक ख़ाली बिस्तर को तकते रहे, फिर बुदबुदाए, "कैसा बुरा ख़्वाब है।"
3. 'बे-आई'
सूरज के डूबने का वक़्त नज़दीक था। भीड़, जिसकी नुमाइंदगी क़स्बे के चार-पाँच बदमाश कर रहे थे, बहुत ग़ुस्से में थी और लाठी-डंडों से लैस थी। शोर-शराबा बता रहा था कि ये लोग कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत रखते हैं।
ज़रा ही देर में जब भीड़ अपनी मंज़िल पर पहुँच गयी तो उसकी नुमाइंदगी कर रहे लोगों में से एक शख़्स एक तरफ़ उंगली से इशारा करते हुए बोला, "ये रहा, यही है उसका मकान।"
ये सुन कर भीड़ उस मकान, जिसका कमज़ोर लकड़ी का दरवाज़ा अंदर से खुला था, में घुस गयी और अंदर मिलने वाले हर सामान और शख़्स को तोड़ना-फोड़ना शुरु कर दिया। घर में एक हंगामा बरपा हो गया, चीख़-ओ-पुकार मच गई। एक दुधमुँहा बच्चा एक छोटी सी चार-पाई पर पड़ा बिलख रहा था। एक वही था जो भीड़ का शिकार होने से बच पाया।
कारवाई शुरु हुए चंद मिनट ही हुए थे कि उंगली उठाने वाला शख़्स ज़ोर से चीख़ कर बोला, "अरे नहीं! शायद वो इसके बराबर वाला मकान था।"
4. 'जवाब’
"कई मिनट हो गए। पानी का नल घेर रखा है।.देखो, अब वो हाथ धो रहा है। ...अब उस ने हाथ गीला करके सर पर फेरा। ...लो, अब पैर धोने लगा। क्या तुम्हें ये सब अजीब नहीं लगता?"
"तुम्हारे लिए ये सब अजीब है। उस के लिए नहीं है। क्या फ़र्क़ पड़ता है इस बात से?"
"फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ेगा? पब्लिक प्लेस पर वो ये सब कैसे कर सकता है? ...अब देखो, ज़मीन पर कपड़ा बिछा कर खड़ा हो गया।"
"एक कोने ही में तो खड़ा है। अब जैसी जिस की श्रद्धा। क्या तुम्हारा कुछ नुक़सान कर दिया उस ने?"
"जो भी हो, मगर मुझे ये सब पसंद नहीं।"
"तो अब तुम क्या करोगे?"
"अगर उस को आज़ादी है तो मैं क्यूँ पीछे रहूँ।" कह कर उस ने कुर्ते की जेब से माला निकाली और कुछ प्रबंध किया, फिर पूछा, "और तुम?"
"मेरी अभी इच्छा नहीं है। तुम करो। और हाँ, जब कर चुको तो उस को शुक्रिया ज़रूर बोल देना।"
✍️ फ़रहत अली ख़ान
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल फोन नंबर 9412244221
सोमवार, 18 मार्च 2024
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित फरहत अली खां का संस्मरणात्मक आलेख....वो 'नायाब' हैं
ढूंँढोगे अगर मुल्कों-मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जो याद न आए भूल के फिर ऐ हमनफ़्सो वो ख़्वाब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी(1846-1927) का ये मतला किन 'नायाब' लोगों की तरफ़ इशारा करता है?... बेशक, ऐसी शख़्सियात, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बन जाएँ।
राजपूत सर की शख़्सियत को मैं इसी तरह देखता हूँ। हमारे तअल्लुक़ की उम्र कोई 13-14 साल हुई होगी, जिस में से काफ़ी वक़्त तक बात सलाम-दुआ तक रही। एक ही कम्पनी(बीएसएनएल) में होने की वजह से तकल्लुफ़ से काम लिया जाता था, जैसा कि सीनियर-जूनियर के बीच रहता ही है। मगर हमारे सेक्शंज़ अलग-अलग थे, इस लिए गाहे-ब-गाहे ही मुलाक़ात होती। मैं, तब न तो ख़ुद ही अदब की राह पर था और न ही उन के 'मधुकर' को जानता।
ये बात होगी अब से लगभग 7-8 साल पहले की, जब एक दिन 15 अगस्त या 26 जनवरी को दफ़्तर में सुबह का कार्यक्रम हो चुकने के बाद मैं उन से मिला तो उन्हों ने अपने सेक्शन में बात-चीत करने को बिठा लिया। छुट्टी का दिन था, काम से हम आज़ाद थे। उन दिनों मेरा अदब की तरफ़ खिंचाव शुरू हो चुका था। उसी दिन पहली दफ़ा मेरा उन की शख़्सियत के 'मधुकर'-पहलू से तअर्रुफ़ हुआ। तभी फ़िक्री जद्दोजहद करने का उन का जज़्बा भी मुझ पर खुला। बात-चीत के दौरान हमारे बीच कार्ल मार्क्स, मज़दूर, कम्युनिज़्म, कैपिटलिज़्म, सेकुलरिज़्म, साम्प्रदायिकता, धर्म, विज्ञान, तर्क, सामाजिक विज्ञान और सरोकार बार-बार आए। सवाल-जवाब हुए, तबादला-ए- ख़्याल हुआ। कहीं ख़ुलूस के साथ बातों को स्वीकारा गया, कहीं अदब-ओ-एहतेराम के साथ नकारा भी गया। ग़रज़ ये कि बहुत-कुछ सीखने-समझने-सोचने को मिला। वक़्त जैसे बातों में बह गया, सुबह से तीसरा पहर हुआ। एक-आध दिन बाद उन्हों ने मुझे अपनी और कुछ दूसरों की लिखी किताबें भी इनायत फरमायीं।
उस के बाद ऐसी कई बातें-चीतें हुईं, कभी लंबी, कभी मुख़्तसर। वो भगत सिंह, गोर्की, प्रेमचंद को पसंद करते थे। कहते थे, साहित्य वही है जिस में यथार्थ हो, समाज में चेतना लाने का माद्दा हो, वरना सब बेकार की बातें हैं। मैं सहमत-असहमत तो क्या ही होता, अलबत्ता उन की ये बातें मेरे सामने साहित्य को ले कर कई सवाल ज़रूर खड़े कर देती थीं, जिन के जवाबात पाने को आज भी इधर-उधर तलाशियाँ लेता फिरता हूँ।
दफ़्तर में उन की रिटायरमेंट पार्टी में व्योम जी से पहली बार तअर्रुफ़ हुआ।
एक दिन जब बेटी की शादी के मौक़े पर उन्होंने एक कवि सम्मेलन कराया तो मुझ नाचीज़ को भी वहाँ पढ़ने का मौक़ा दिया। वहीं मैं ने पहली बार ब्रजवासी जी को सुना और राजीव 'प्रखर' भाई से पहली मुलाक़ात हुई।
एक बार एक व्हाट्सएप्प ग्रुप पर उन्हों ने प्रेमचंद जयंती के मौक़े पर लोगों से आर्टिकल्स माँगे, जिस के तहत मैं ने भी एक आर्टिकल पोस्ट किया।
कुछ दिन बाद मैं दफ़्तर में था कि फ़ोन आया, फ़रहत भाई! कहाँ हो? ज़रा गेट पर आ जाओ। (उम्र और ओहदे, दोनों ही में मुझ से बड़े होने के बावजूद वो मुझ से 'फ़रहत भाई' कह कर मुख़ातिब होते थे)
मैं गेट पर पहुँचा तो देखा, स्कूटर पर बैठे हैं और एक बड़ा सा सर्टिफ़िकेट हाथ में है। सर्टिफ़िकेट मुझे देते हुए बोले, ये तुम्हारे आर्टिकल के लिए है। कुआँ ख़ुद प्यासे के पास चल कर आया, ये सोच कर मैं कुछ शर्मिंदा हुआ, कहा, अरे सर! ख़्वाह-म-ख़्वाह आप परेशान हुए, बोल दिया होता, मैं ख़ुद ले लेता।
बोले, नहीं, कोई बात नहीं। आप ने अच्छा लिखा।
इसी तरह, जब रिटायर्मेंट के बाद और फिर कोरोना के दौरान मिलने-जुलने का सिलसिला टूट सा गया, तो कई बार फ़ोन पर बात होती, अच्छी-ख़ासी लम्बी बात। बात अक्सर यहाँ से शुरू होती कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो।
मैं ने पाया कि राजपूत सर कभी बे-मक़सद नहीं थे। ज़िन्दगी के मैदान में अपने सामने उन्हें एक गोल-पोस्ट हमेशा दिखाई देता रहा।
लहरों के ख़िलाफ़ चलना उन की फ़ितरत में शामिल था। अपनी राह पर बिना डरे-झुके वो चलते रहे। नौकरी के दौरान बहुत सी बंदिशें थीं। मगर नौकरी के बाद उन्हों ने ख़ुद को पूरी तरह समाज की भलाई के काम में झोंक दिया। आम-जन के कवि तो थे ही, सच्चे समाजसेवी भी थे, फ़िल्में बनायीं तो वो भी सामाजिक मुद्दों पर, फिर उन में अदाकारी के जौहर भी दिखाए। कई तहरीकों का हिस्सा रहे। आख़िरी वक़्त में सियासत में भी उतरे। लेकिन अपने उसूलों से कभी हटे नहीं। चाहते तो दूसरे बहुत से लोगों की तरह लहरों के साथ तैरते और फ़ायदा उठाते।
ऐसे बे-ग़रज़ काम करने वाले अच्छे लोग कहाँ मिलते हैं। इसी लिए वो 'नायाब' हैं।
✍️ फ़रहत अली ख़ाँ
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
गुरुवार, 20 जनवरी 2022
मुरादाबाद के साहित्यकार फरहत अली ख़ान का आलेख ....."श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र: एक नायाब शख़्सियत"
स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के बारे में मैंने पहले भी सुन रखा था, जिस से मुझे इतना इल्म हुआ था कि उन के पास बहुत पुरानी पांडुलिपियाँ और किताबें मौजूद थीं। इस के अलावा उन के बारे में जो कुछ भी जाना वो आज इस आयोजन के ज़रिए जाना। मंच पर शोहरत उन्हें एक हास्य-कवि के रूप में मिली, मगर उन में एक गीतकार की तड़प मौजूद थी। इस की वज़ाहत उन की किताब 'कविता नियोजन' में लिखी भूमिका से होती है, साथ ही डॉ. प्रेमवती साहिबा के उन के बारे में लिखे संस्मरण से भी यही बात ज़ाहिर होती है। उन्होंने 'पवित्र पँवासा' खण्डकाव्य रचा जो उन्हें एक अहम कवि के तौर पर स्थापित करता है। राजीव सक्सेना जी के आलेख से पता चलता है कि अपने खण्डकाव्य में उन्हों ने मक़ामी इतिहास को ख़ास जगह दी, ये उन की शख़्सियत का एक और नायाब पहलू है, जो सामने आता है।उन्होंने 'शहीद मोती सिंह' नाम से एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा, जो उन्हें उपन्यासकार के तौर पर पहचान देता है और उन्हें वृन्दावन लाल वर्मा जी जैसे ऐतिहासिक उपन्यासकारों की सफ़ में ले आता है।
इतिहास को जुनून की हद तक जीने की ये उन की ललक ही थी, जिस ने उन्हें एक ख़ास रचनाकार के तौर पर सँवारा और उन से वो सब लिखवाया जो अमूमन नहीं लिखा जाता है।
इंसानी तहज़ीब से मुहब्बत और उसे जानने-खोजने की चाहत ही ने उन्हें एक महान पुरातत्ववेत्ता बनाया।हमें उन से ये सब कुछ सीखने, अपने अंदर उतारने और सहेज कर रखने की ज़रूरत है।
✍️ फ़रहत अली ख़ान,
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
रविवार, 24 मई 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार फरहत अली खान की 10 ग़ज़लें-----
*1.
बाज़ दिल याद से उन की न ज़रा-भर आया
वो न आए तो ख़्याल उन का बराबर आया
साक़ी-ए-दर्द भरा ही किया पैमाना-ए-चश्म
सो तिरी बात पे छलका जो ज़रा भर आया
आह! वो शिद्दत-ए-ग़म है कि मिरी आँखों से
बूँद दो बूँद नहीं, एक समुंदर आया
जिस से बचने के लिए बंद कीं आँखें हम ने
बंद आँखों पे भी आगे वही मंज़र आया
ये जो सहरा में फिरा करता है दीवाना सा
ख़ुद को दुनिया के झमेलों से छुड़ा कर आया
दिल को शिद्दत से तमन्ना थी तिरे कूचे की
सो बड़े शौक़ से उस को मैं वहाँ धर आया
*2.
ज़िन्दगी दौड़ती है सड़कों पर
और फिर मौत भी है सड़कों पर
दिनदहाड़े पड़ा है इक ज़ख़्मी
क्या अजब तीरगी है सड़कों पर
लोग बस बे-दिली से चलते हैं
यानी बे-चारगी है सड़कों पर
उम्र घर में तो उस की कम गुज़री
और ज़ियादा कटी है सड़कों पर
मुफ़्लिसी कैसी-कैसी शक्लों में
तू भी अक्सर मिली है सड़कों पर
घर तो गोया किसी का है ही नहीं
सब का सब शहर ही है सड़कों पर
चलते हम-तुम भी है मगर 'फ़रहत'
होड़ रफ़्तार की है सड़कों पर
*3.
आप को उजला दिखे, काला दिखे
सच तो सच है चाहे वो जैसा दिखे
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ, दीदा-ए-नम, दर्द-ए-दिल
इन से बाहर आएँ तो दुनिया दिखे
आँख के अंधे को फिर भी अक़्ल है
अक़्ल के अंधे को सब उल्टा दिखे
मुझ को अपने आप सा लगता है वो
राह चलते जब कोई रोता दिखे
हूँ पशेमाँ मैं गुनहगार अपना मुँह
फेर लेता हूँ जो आईना दिखे
खूब है दुनिया की ये जादूगरी
वो नहीं होता है जो होता दिखे
*4.
छेड़ दें गर क़िस्सा-ए-ग़म शाम से
कह रहेंगे सुबह तक आराम से
चाहिए हम को कि बेदारी रहे
आशना हों हश्र से अंजाम से
जो बुलाता था वो शख्स़ अब जा चुका
काम अपना देखिए आराम से
पा गए हम बे-गुनाही की सज़ा
बच गए सौ बार के इल्ज़ाम से
कट रही है ज़िन्दगी अब दश्त में
हम को क्या मतलब रहा हुक्काम से
क्या ख़बर तुझको कि कितना रोए हम
छूट कर सय्याद तेरे दाम से
बज़्म में ‘फ़रहत’ बड़े नाशाद थे
मुँह पे रौनक़ आ गयी इक नाम से
*5.
तू जहाँ में चार दिन मेहमान है
इसके आगे और ही सामान है
आदमी इक ख़ाक का पुतला है बस
जिस्म में रंगत है जब तक जान है
काला-गोरा, ऊँचा-नीचा, जो भी हो
आदमी वो है कि जो इंसान है
गर जहन्नुम की हक़ीक़त जान लो
राह जन्नत की बहुत आसान है
कुछ तिरे आमाल ही अच्छे न थे
अपनी बर्बादी पे क्यूँ हैरान है
कुछ नहीं सारे जहाँ की दौलतें
आदमी के दिल में गर ईमान है
*6.
न सारे ऐब हैं ऐब और हुनर हुनर भी नहीं
कुछ एहतियात तो कीजे पर इस क़दर भी नहीं
तुम्हारे हिज्र में बाँधा है वो समाँ हमने
कि आँख हमसे मिलाता है नौहागर भी नहीं
नहीं, ज़रा भी तो उस ने नहीं मिलाया रुख़
मैं उसको देख रहा था, ये जानकर भी नहीं
ये हमने भूल की आ पहुँचे उन की महफ़िल में
पर उन से अर्ज़-ए-तमन्ना तो भूल कर भी नहीं
कोई तो रंग बिखेरेगी ज़िन्दगी की ये धूप
अगर तवील नहीं है तो मुख़्तसर भी नहीं
मैं किस तरह से उसे दोस्त मान लूँ 'फ़रहत'
नहीं जो अहल-ए-सितम और चारागर भी नहीं
*7.
वो इक मोड़ क़िस्से में ऐसा भी आया
वही शख़्स रोया भी, जो मुस्कुराया
हमें याद करने में क्या लुत्फ़ पाया
कलेजा तुम्हारे जो मुँह को न आया
उसूलों की ख़ातिर जिसे हम ने छोड़ा
उसूलों ने फिर मुँह न उस का दिखाया
वफ़ा के तक़ाज़े अजब हमने देखे
जिसे आज़माया, बहुत आज़माया
सताने की हद हम ने देखी है 'फ़रहत'
वही रो पड़ा जिस ने हम को सताया
*8.
चारों जानिब सब्ज़ा-सब्ज़ा लगता है
साथ है वो तो सब कुछ अच्छा लगता है
उसके शहर में आया हूँ मैं पहली बार
फिर भी सब कुछ देखा-देखा लगता है
इश्क़ में इस दर्जा रहती है ख़ुश-फ़हमी
पैहम धोका खाना अच्छा लगता है
आँख से जारी होता है पानी कैसे
तू तो ऐ दिल सूखा सूखा लगता है
अहद-ए-वफ़ा ही कर बैठे थे हम वरना
रुस्वा होना किसको अच्छा लगता है
अब तक 'फ़रहत' हम तो इस धोके में रहे
हर कोई वैसा है जैसा लगता है
*9.
पत्ता पत्ता ख़ार हुआ है
गुलशन आँखों में चुभता है
सर फोड़े जैसा दुखता है
याद का पत्थर आके लगा है
गोया दिल पर बोझ हो कोई
हर लम्हा भारी लगता है
मेरा दोस्त नहीं है कोई
हर कोई तेरे जैसा है
उसकी झूठी वफ़ा का क़िस्सा
अक्सर याद आता रहता है
दिल का ज़ख़्म जो भर नहीं पाया
अक्सर आँखों से रिसता है
मुझ पे जो बीत रही है नासेह
तुझ पे न बीते मेरी दुआ है
अब शायद आराम मिले कुछ
हमने जी को मार लिया है
*10.
वो मुस्कुरा दिए तो ज़रा मुस्कुराएँ हम
फिर ख़ुद से चाहे कोई बहाना बनाएँ हम
फिर से है पैरहन को रफ़ूगर की जुस्तजू
दिल चाहता नहीं कि उसे भूल जाएँ हम
रंग उस के पैरहन के जहाँ में बिखर गए
ख़ुशबू फ़ज़ा में ऐसी घुली क्या बताएँ हम
इश्क़ अस्ल में है नाम अना की शिकस्त का
जब भी वो रूठ जाए तो उस को मनाएँ हम
फिरता है इक ख़्याल हमारी तलाश में
हम भी तलाश में हैं कहाँ उस को पाएँ हम
रंग इंतज़ार करते हुए खो गए कहीं
फ़ुर्सत न मिल सकी कि वहाँ हो भी आएँ हम
✍️फ़रहत अली ख़ान
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल फोन नंबर 9412244221
गुरुवार, 2 अप्रैल 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार फरहत अली खान की लघुकथा --वादा
“ये अजीब वबा फैली कि सारी दुनिया मुसीबत में है।”
“हाँ, मगर इस का एक अच्छा पहलू भी नज़र आया। अगर कुछ को छोड़ दिया जाए तो लॉक-डाउन में देश का हर आदमी घर में बैठा है। सब ने एकता का सबूत दिया। इस इम्तेहान की घड़ी में ये बहुत बड़ी बात है।”
“हाँ, बड़ी बात तो है। मगर हमारी एकता का असली इम्तेहान तो तब होगा जब हम इस महामारी से बचने में कामयाब हो जाएँगे।”
“मतलब...?”
“मतलब ये कि इस वक़्त तो हमारा एक साथ होना फिर भी आसान है, क्यूँ कि इस महामारी से हम सभी को बराबर तौर से ख़तरा है। लेकिन जब ये बुरा दौर गुज़र जाएगा और तब अगर हम में से किसी एक पर कोई मुसीबत आती है, तो ये देखने वाली बात होगी कि हम सब उस एक के साथ खड़े होते हैं या नहीं। दर अस्ल तब ही हमारी एकता का असली इम्तेहान होगा। तब भी हम इसी तरह एकजुट रहेंगे न?”
“.....”
“.....”
“हाँ, ज़रूर। हम तब भी एकजुट रहेंगे। उस एक के लिए आवाज़ बुलंद करेंगे, उस के साथ खड़े होंगे।”
“हमारी एकता सलामत रहे।”
***फरहत अली खान
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत