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रविवार, 16 जनवरी 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख.....सुरेन्द्र मोहन मिश्र का बहुआयामी व्यक्तित्व


अवशेषों और पुरातत्वों की खोज में ,यायावरों की भांति, अपनी संस्कृति और सभ्यताओं को सहेजने, सवांरने के लिए कोई यथार्थ का दामन थामे इतिहासकार तो हो सकता है, परन्तु कल्पना के पंख लगा प्रकृति के हास - उल्लास के गीत गाते,नवयौवन के मधुर कल्पना लोक में विचरते कवि  होना उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचायक बन जाता है ,जहाँ इतिहासकार होना ,व्यक्तित्व के रूखेपन को दर्शाता है वहीं इतिहासकार होकर कवि के कवित्व को बनाये रखना सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी की कल्पनाशीलता जैसे सारी बातों का खण्डन कर रही हो । लेखक का हास्य रुप सबको दिखता है, परन्तु उस कठोर यथार्थ के भीतर बहते मीठे स्रोत को पहचानना हर किसी के वश में नहीं, लेकिन सुरेन्द्र मोहन जीवन की इन सारी कटुताओं के बीच कवि हृदय को जीवित रखने में सफल हुए हैं । वे इतिहासकार हैं तो पुरातत्ववेत्ता भी ,उपन्यासकार हैं तो कविता की मधुरता से ओतप्रोत भी ।उनके गीत मात्र हास भर नहीं है, उनके यहाँ प्रकृति इठलाती है, नर्तन करती है, हृदय में माधुर्य भी घोलती है--

दृग सम्मुख ये विशाल भूधर /ओढ़े है चांदी की चादर /**** झर-झर झरते शुचि निर्झर से / सरिता की लहरों के स्वर से /****** खग रव से मुझको गान मिला /मुझको मेरा उपहार मिला 

अल्पावस्था से ही उनको कविता का उपहार मिला समय के साथ वह प्रौढ़ होता चला गया। प्रेम और श्रृंगार के गीत रचते -रचते कवि कब सांसारिक दुखों से बोझिल हो नैराश्य से भर उठा --

  बनकर कितने स्वप्न मिटे हैं मेरे 

जल -जलकर कितने दीप बुझे हैं मेरे 

जग का ठुकराया प्यार तुम्हें मैं क्या दूँ

संसार के मिथ्या  प्रेम और आडम्बर से ऊबकर कवि कब लौकिक से पारलौकिक हो गया कि वह ईश्वर को प्रिय मान उन्हीं में अपने जीवन के सौंदर्य को तलाशने लगा --

 मेरे दुर्दिन में जब प्रियतम आते हैं 

नयनों में आ आंसू बन बह जाते हैं 

मेरे उर के कोमल छाले भी 

नभ के तारे बनकर मुस्काते हैं  

इस प्रकार जीवन के विविध रूपों को तलाशते हुए उदारमना कवि सुरेन्द्र मोहन जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं ,उनमें इतिहासकार की भांति खरा यथार्थ है तो कल्पनाशीलता भी । इतिहास की वीथिका में विचरते हुए उनका कवि मन कभी भी थकता नहीं है ,ऐसा एक विराटमना व्यक्ति अपने जीवन में निरंतर कालजयी रचनाओं के साथ हमारे बीच अपनी उपस्थिति बनाने में सफल हो सका है तो वे हैं सुरेंद्र मोहन मिश्र ,यहीं उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता भी है ---

 तेरे रंगीन विश्व में मुझे बहुत छला गया 

मिलन उम्मीद का विहग उड़ा कहीं चला गया 

सभी तो स्वार्थ में पले न बन सका कोई मेरा 

न जाने कौन विषमयी सुरा मुझे पिला गया 

अपने विविध आयामों में आभा बिखेरता वह महान व्यक्तित्व अपनी रचनाओं के साथ चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा  ।

✍️ डॉ मीरा कश्यप

अध्यक्ष हिंदी विभाग

के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत


रविवार, 12 दिसंबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख .... प्रोफेसर महेंद्र प्रताप के काव्य में प्रेम और सौंदर्य


गौर वर्ण ,दमकता भाल, व्यक्तित्व की विराटता को समेटे प्रो. महेंद्र प्रताप यानि ' दद्दा ' का वात्सल्य भाव अकस्मात ही सबका मन मोह लेता था, धोती कुर्ता पहने ,मुँह में पान दबाये दद्दा बनारसी फक्कड़पन और मस्ती में सराबोर, सदाबहार साहित्य जगत के महान पुरोधा कहे जा सकते हैं ।पूरा का पूरा भाषा-विज्ञान या साहित्य की विराट अक्षय पुंजीभूत सितारे की तरह देदीव्यमान दद्दा अपने समकालीन साहित्यिक जगत के सरताज थे ,जितना ही अक्खड़ उनका व्यक्तित्व था, उतना ही पारदर्शी उनका वात्सल्यमय उनका हृदय था।सब पर अपना प्रेम बिखेरते ,मानव -मूल्यों और जन -जीवन से गहरा नाता रखते थे ,उनकी हंसी से पूरा वातायन जैसे खिलखिला उठता हो ।प्रेम और सौंदर्य के अनुपम चितेरे दद्दा विशद दार्शनिक विचारों से परिपूर्ण प्रो महेंद्र जी चलते फिरते अकादमी से कम न थे ।अपने शिक्षकीय दायित्वों का पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ निर्वाहन करते हुए ,नैतिक आदर्शों और मानवीय मूल्यों को पूर्णता से निभाते हुए साधक की तरह थे ।मुरादाबाद महानगर के प्रतिष्ठित  के.जी.के. महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक एवम प्राचार्य के दायित्वों को निभाते हुए साहित्यिक परिवेश में रचे बसे प्रो महेन्द्र जी एक युग को जीते रहें ।जीवन भर साहित्य-साधना करते हुए भी आत्म प्रदर्शन की भावना नहीं रखते थे  --' मेरे गीत किसी के अनुचर हैं ' जैसे कवि किसी ऋण से उऋण होना चाहता है। 

उनकी कविता उनका जीवन है ,प्रिय का आगमन कवि मन को खुशियों से भर देता है --

उतर पड़े मेरे आँगन में 

तिमिर मिटा किरणें फूटी हैं 

बन्द द्वार खुल गये चेतना 

की दृढ़ कारायें टूटी 

 राह मिली है मिला तुम्हारे 

 करुण दृगों का मौन इशारा 

प्रिय की पल -पल की प्रतीक्षा में विरहिणी मन की विकलता बढ़ती ही जा रही है -- 

दे रहें तुमको विदाई 

आज आकुल चेतना है 

व्यथा की बाढ़ आई 

....गूँजता मधुमास स्वर था जहाँ, 

पतकार आया 

और फिर प्रिय उनके सपनों में आ उनकी चेतना को विकल कर रहा है --

स्वप्न में मैंने ऊषा की  /रागिनी के गाल चूमे  /और संध्या के सुनहरे /भव्य केश विशाल चूमे / 

प्रिय के न आने पर मानों मन की विकलता पीड़ा बनकर कवि के अंतस से बह निकलती है --

 गेय अगीत रहा /मैंने कितनी मनुहारे भेजी अगवानी में /कितनी प्रीत पिरो डाली/स्वागत की वाणी में /पर प्यार की परिधि पर/प्राणों का मीत रहा / गेय अगीत रहा 

स्मृतियों के सुनेपन में जैसे प्रिय मन की मौन को तोड़ता गीत गा रहा हो ,उसकी मधुर रागिनी से मन का कोना -कोना झंकृत हो उठा हो -- 

मौन की पायल बजाता है / मौन में ही गुनगुनाता है / मैं कभी आवाज तो सुनता नहीं /  पर मुझे कोई बुलाता है  

प्रिय के मिलन को आतुर ,प्रेम पूरित हृदय लिए नायक प्रियमय होने लगा है -- 

मैं तुम्हारे लिए हूँ बना / स्नेह में हूँ तुम्हारे सना / प्राण में है पुलक प्यार की / और क्या मैं करूँ कामना / .......कामना अर्चना बन गयी / व्यंजना भावना बन गयी 

अन्ततः कवि का प्रेमी मन प्रियमय को पाने की चरम आस लिए तड़प उठा है --

 याचना की अबूझ प्यास हो / सांत्वना की सदय आस हो / तुम क्षितिज की तरह दूर हो / पर दरस के लिए पास हो 

इस प्रकार प्रो महेंद्र जी की साहित्य साधना उनके हृदय की दासी की तरह उनकी अनुचरी हो ,जब चाहा ,जो चाहा ,जैसे भी चाहा सब कुछ अपने अनुसार ढालने की कृपा दृष्टि उन पर माँ वागेश्वरी की बनी रहती ।प्रकृति के सानिध्य में जैसे कवि सब कुछ भूल चुका है ,प्रकृति और प्रिय का सानिध्य ही उसके जीवन का पाथेय बन गया हो -- रात्रि कब की हो चुकी है / प्रकृति आधी सो चुकी है / किंतु मैं लघु दीप सन्मुख / तुम्हारे मधु स्मरण में  /जागरण ही चाहता हूँ 

औरअपने प्रिय  के सन्निकट रहकर कवि का ऐसा पावन रिश्ता बंध गया है -- 

साथ तुम मेरे रही हो / और प्रिय एकांत में  / संगीत लहरी बन बही हो / आज यौवन भार लेकर / छोड़ कर जाना न संगिनी /  जी रहा तेरे सहारे /  

पर प्रिय है कि आंखमिचौली खेलता ही रहता है ,उसकी प्रतीक्षा में थक चुका मन ,क्षण - क्षण पथ निहार रहा है --- 

कितने दृग पंथ रहे निहार /स्वागत है अभ्यागत उदार / तुम आये बन वसंत वन में / भावों के सुमन खिले मन में /  प्राणों का कलरव गूँज रहा /  उल्लास भर गया जीवन में  / 

इस प्रकार प्रो महेंद्र जी के गीत श्रृंगार प्रधान होते हुए भी ,उनमें विरह -वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है ।उनके काव्य का भावपक्ष जितना प्रखर है उसका कलापक्ष उतना ही उत्कृष्ट है ।अपने जीवन में विविध रूपों को जीते हुए प्रो महेंद्र जी  समकालीन कविता के निकट रहकर तत्कालीन कवियों और आलोचकों के प्रिय भी रहे ।जो लिखा ,जितना भी लिखा है उनका साहित्य अपने समय के धरोहर के रूप में संजोये जा सकते हैं -- 

      सूखे जितना अधर हृदय की

     धरती उतनी ही हो उर्वर 

     ******************

     विकल- करुणा - धार पर तुम

     आज बन बरसात छाई ।


✍️ डॉ मीरा कश्यप

अध्यक्ष हिंदी विभाग

के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद

सोमवार, 2 अगस्त 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख ---- प्रेम और श्रृंगार के कवि : कैलाश चन्द्र अग्रवाल


मुरादाबाद मंडल के प्रतिष्ठित कवि साहित्यकार स्मृतिशेष कैलाश चन्द्र अग्रवाल जी अपनी कालजयी रचनाओं के साथ, प्रेम और श्रृंगार के आदर्श रूप को अपने सृजन का आधार बनाते हैं, साथ ही यथार्थ का चित्रण उनके गीतों व मुक्तकों में देखने को मिलता है ,जो आने वाले समय में नयी पीढ़ी के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है ।उन पर छायावादी प्रेम की अभिव्यक्ति और  कवि हरिवंशराय बच्चन जी के मधुशाला या हालावाद का प्रभाव  भी  झलकता है ।

 कैलाश जी के साहित्य में प्रिय का अनुपम सौंदर्य देखने को मिलता है, उनके गीतों में प्रेम की अनुभूति के साथ ही ,वियोग की पीड़ा ,दुःख, दर्द ,वेदना की विकलता टीस और छटपटाहट है - मौन प्राणों पर व्यथा / भार पल- पल ढो चुका हूँ/ मैं तुम्हारी वंदना के गीत गा -गा सो चुका हूँ/ मैं तुम्हारा हो चुका हूँ ।

गीत काव्य का प्राण है मानव के सरल हृदय में प्रेम के अतिरेक में भाव गीत बन स्वतः ही फूट पड़ता है, तो वियोग में भी कवि का घायल मन विरह गीत गाता दिखता है, कवि कैलाश चन्द्र जी का हृदय उतना ही पावन है, जितना उनका प्रेम ,इस प्रकार प्रणय का चितेरा कवि अपनी सम्पूर्ण रागात्मकता, और भाव प्रवणता में हृदय की गहन अनुभूति से प्रेममय हो चुका है ,सब कुछ भूल कर प्रेम की धारा में अवगाहन करता रहता है, कैलाश जी के गीतों में प्रेमानुभूति की विशद और विविध रंग देखने को मिलता है - प्राण तुम्हारी ही सुधियों में निस -दिन खोया रहता हूँ। उनके प्रेम में वासना का लेश मात्र भी नहीं है, बल्कि उसमें आत्मनियंत्रण व औदात्य रूप देखने को मिलता है - "सरिता के तट पर आकर भी जिसने जल की ओर न देखा/क्योंकि पपीहे से सीखा है मैंने अब तक आत्म नियंत्रण ।" उनके यहाँ प्रेम सुखद ही नहीं अलौकिक भी है   - देख तुम्हारा रूप अछूता पूनम का शशि भी शरमाया ।प्रणय जब जीवन का आस बनता है, तब मानों जीवन को अमूल्य निधि मिल जाता है ,प्रिय के रूप और लावण्य के आगे सब कुछ फीका लगता है -चाँद भी पलकें झुकाये देखता है/आज तो रूपसि करो श्रृंगार ऐसा ।

कैलाश जी कवि हृदय सिर्फ प्रेम का ही चितेरा नहीं है बल्कि उनके साहित्य में जन चेतना व लोक कल्याण की भावना भी देखने को मिलता है - लोक सेवा भावना का मूल्य है अपना /साधना की अग्नि में अनिवार्य है तपना /हर दुःखी का दुःख निवारण हो सके जिससे/चाहिये वह मंत्र ही निशि- दिन हमें अपना  ।

वास्तव में कैलाश जी का कवि व्यक्तित्व अपने जीवन की सार्थकता लोक सेवा में मानता है ,कर्म उनके लिये पूजा है।जन मन को सुरभित करने वाले जीवन संघर्ष के प्रति आस्था रखने वाले कवि हैं - प्रीति का पाखण्ड से परिचय नहीं/प्रीति में कोई कहीं शंसय नहीं / वास्तविकता ही इसे स्वीकार है /प्रीति करना जानती अभिनय नहीं  / उनका मानना है कि ईश्वर की सत्ता कण -कण में व्याप्त है ,समस्त प्राणी जगत उसी का प्राणाधार है -  तुमसे ही मानव जीवन का सम्भव है उद्धार /तुमसा कोई नहीं दूसरा निश्छल और पुनीत /तुम सचमुच अपने भक्तों के सदा रहे हो मीत /

कवि के लिये प्रेम मुक्ति का मार्ग है, भक्ति है, श्रद्धा है ।प्रेम का दीपक ईश तक जाने का मार्ग प्रशस्त करता है, अतएव उनकी कविता में -आँसू की वेदना है ,पीड़ा है , कामायनी का आनन्द है तो पंत जी की ग्रन्थि का अनुनय ग्रन्थिबन्धन है ,निराला जी की तरह शक्ति पाने  का मार्ग है। प्रेम जन- जन तक पहुंचाने का कार्य करता है, इसलिये उनका प्रिय अनन्य है -देख कर तुमको प्रथम बार ही /रह गयी दृष्टि मेरी ठगी /......चारुता वह अलौकिक तुम्हारी / अंत तक क्षीण होने न पायी / उस तुम्हारे मधुर राग में ही / बाँसुरी की प्रीति मैं बजाता /

✍️ डॉ मीरा कश्यप, अध्यक्ष ,हिंदी -विभाग ,के .जी. के. महाविद्यालय ,मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत

रविवार, 25 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख ---दयानंद गुप्त जी की कहानियों में जीवन के विविध पक्ष

 


रचना रचनाकार के व्यक्तित्व का परिचायक होती है, मुरादाबाद के ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में श्री दयानंद गुप्त जी का साहित्य अविस्मरणीय है ।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे ,साहित्य सृजन के साथ ही उन्होंने समाज सेवा व शिक्षा जगत को अपने औदात्य व्यक्तित्व से उज्ज्वल और प्रशस्त किया है।जीवन की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार कर उनका सामना करने को निरंतर तत्पर रहते थे  । उनके व्यक्तित्व पर तत्कालीन परिवेश का गहरा प्रभाव पड़ा ,जिससे गांधी जी के आवाहन पर स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति में अपने जीवन की आहुति देने को तैयार हो गये  । पेशे से वकील होते हुए भी साहित्यिक अभिरुचि रखते थे  । "नैवेद्य" उनकी कविताओं का संकलन है, जिसमें जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं ।हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाय ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान निराला जैसे प्रतिष्ठित कवि के छत्रछाया में रहकर उनका कृपा प्राप्त करना किसी भी व्यक्ति के लिए गौरव का पल हो सकता है निराला जी का आशीर्वाद उनको निरन्तर मिलता रहा । उनके काव्य कृति की भूमिका निराला जी ने लिखकर उनके साहित्य को और भी प्रधान बना दिया ।

'कारवां ' ,'शृंखलाएँ ''मंजिल' उनके कहानी संग्रह हैं ,जिसकी कुछ कहानियां पाठकों पर अपना अमिट छाप छोड़ती हैं ।' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है  ,सेठ दामोदर दास जैसे पात्र जिनके लिए परिवार और स्वार्थ से ऊपर और कुछ भी नहीं है ,देश काल की दृष्टि से वह काल राजनीतिक उथल- पुथल और आजादी की क्रांतिकारी चेतना से भरा पड़ा था ,व्यक्ति और समाज के लिए राष्ट्र हित सर्वोपरि था परिवार गौण हो गया था, अपना पूरा जीवन राष्ट्रहित में समर्पण करते हुए हमारे महापुरुषों और राजनेताओं ने अपने जीवन की आहुति दे दी थी ।सेठ दामोदरदास गांधीवादी विचार धारा से प्रभावित थे ,अपनी पार्टी में प्रभावशाली   स्थान रखते थे, उनकी व्यस्तता व दैनिक क्रियाकलाप उनके देशप्रेमी होने के प्रमाण देते हैं ,यहाँ तक कि अपनी पत्नी और पुत्री के लिए भी उनके पास समय नहीं होता था ,उनका कहना था कि - " हमें मानव में विभिन्नता पैदा करने का अधिकार कहाँ ? अपने सम्बन्धियों  को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।" इस सम्वाद से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन परिवेश में ईमानदारी और सच्चरित्र कितना मायने रखता था, उनका पूरा जीवन देशहित व सामाजिक उत्थान के लिए होम हो जाता है।सेठ दामोदरदास अपने परिवार में पत्नी व छोटी बच्ची से प्रेम तो बहुत करते हैं ,पर उसे प्रकट करने का उनके पास समय न होता था, उनके इस व्यवहार से उनकी पत्नी का हृदय बहुत ही आहत होता था । गीत सुनने का आग्रह करना, और उस भावनात्मक वक़्त में भी, उन्हें अपने भाषण के लिए नोट तैयार करते देख पत्नी को चोट पहुंचती है -- गीत तो आप कहीं भी सुन सकते थे, मेरी ही क्या जरूरत थी .....उनके अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी । 

' विद्रोही ' कहानी में  गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है, कि कैसे एक कलाकार सौंदर्य के कल्पना लोक में विचरता रहता है और रूप के मादकता में डूबा रहता है।सौंदर्य प्रिय कलाकार अपने निर्मित छायाचित्र में इतना तल्लीन रहता है कि उसका सामाजिक यथार्परक जीवन से कोई वास्ता नहीं रह जाता है, वह चाहता है कि इस सौंदर्य साधना को समाज का हर व्यक्ति समझे ,उपेक्षित दुराग्रह से वह कुंठित मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है, क्योंकि जिस तरह की कला को वह श्रेष्ठ समझता है वह सामाजिक धरातल पर अश्लीलता की श्रेणी में आता है।धीरे -धीरे कुंठित होता हुआ कलाकार की चेतना ,अवचेतन मन मे संग्रहित होती विचारधारा में अपने जीवन का स्वर्णिम पल हारने लगता है, क्योंकि जीवन में हर व्यक्ति के लिए सौंदर्य की अलग -अलग सत्ता होती है, हतोत्साहित कलाकार विद्रोही हो समाज से कटने लगता है ।

'नया अनुभव ' कहानी लेखक की गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है ,कहानी का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों से ग्रस्त है, चोरी के इल्जाम में उसे जेल भी जाना पड़ता है ,जेल से लौटने के बाद उसे कोई नौकरी या काम धंधा देने को तैयार नहीं होता है, थका हारा ,भूखा -प्यासा एक मन्दिर में शरण लेता है ,पर उसकी लोलुप दृष्टि मंदिर में रुपयों से भरी थैली पर रहती है और रात में सबके सो जाने के बाद मौका देख कर उसे लेकर भाग जाता है, महंत के शिष्यों द्वारा पकड़े जाने पर, उसे जब महंत के पास लाया जाता है तो महंत उसका पक्ष लेते हुए कहते हुए कहते हैं कि यह थैली मैंने स्वयं ही इस को दिया है, यह सुनते ही रामजीमल के जीवन में नवीन चेतना जन्म लेती है ,उसको लगता है कि जिस समाज में अभी तक उसे उपेक्षित होना पड़ रहा था ,महंत जी के बदले हुये व्यवहार ने उसके अंदर एक नया अनुभव जागृत किया ,ग्लानि और आत्मविश्वास से भरा एक नये जीवन का जन्म होता है, जैसे लेखक यह कहना चाहता हो कि - पाप से घृणा करो ,पापी से नहीं ,महंत उसे सुधरने का एक मौका देता है । 

'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी में लेखक को धार्मिक उन्माद में आशावाद और सकारात्मक चेतना का स्पष्ट दर्शन दिखता है ,लगातार कम हो रहे एहसास और अपनेपन के प्रति गुप्त जी चिंतित तो हैं ही,हमारे सामाजिक परिवेश में छिन्न - भिन्न होती नैतिकता को लेकर अशांत है, आज की विद्रूप व्यवस्था, जहां समस्याओं का अंबार तो है, लेकिन समाधान नहीं है ।आज हम समस्याओं से दुखी नहीं, बल्कि समस्या हमारी मूर्खताओं से दुखी है, जहां हम समस्या को समस्या की तरह न लेकर उसका समाधान केवल धर्म या राजनीति में ही खोजते हैं, जिससे समस्या दुखी होती है और समाधान नदारद । धार्मिक उन्माद किस तरह समाज को खोखला बनाकर, व्यक्ति को सामाजिक जीवन मूल्यों से दूर कर देती है। धर्म के ठेकेदार धर्म के आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और आम आदमी को हिंदू-मुस्लिम या मंदिर-मस्जिद के नाम पर मतभेद पैदा करते हैं,इस कहानी के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखा जा सकता है, आज वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।

' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है ,बनारस के गौरवशाली संगीत परम्परा में नृत्य का एक स्वर्णिम अतीत रहा है एक नर्तकी जिसके लिए धन -दौलत और रूप का लावण्य ही सर्वोपरि है। एक भिक्षु के निवेदन पर सशर्त अपना जीवन नये दृष्टि कोण से जीना चाहती है। नर्तकी कनक की सभा में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली व वैभव सम्पन्न संगीत प्रेमियों का तांता लगा रहता है, वहाँ पर एक भिक्षुक का आना अप्रत्याशित सा लगता है, परन्तु कनक उसकी चुनौती को सहर्ष स्वीकार करती है और भिक्षुक के बनाये शर्तों के अनुरुप जीवन यापन करने को तैयार हो जाती है, किस प्रकार वासना पूरित जीवन कुछ ही दिनों में वैरागी हो जाता है ,जो नर्तकी नाच - गाने को अपने जीवन का श्रेष्ठतम मानती हो ,वहीं उन सबसे दूर रहकर भक्ति में तल्लीन हो जाती है और उसका हृदय परिवर्तन हो उठता है, अन्ततः उस भिक्षु को अपना गुरु मानते हुए सारा ऐश्वर्य छोड़कर विलासिता के जीवन से विमुख हो जाती है, सारा राग -रंग विलुप्त होने लगता है, इस प्रकार मोह -माया का जीवन त्याग कर भक्ति- मार्ग पर निकल पड़ती है ,यह कहानी गौतम बुद्ध और आम्रपाली की यादों को ताजा कर देती है गुप्त जी की यह कहानी स्त्री जीवन के सुधारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करती है । वास्तव में जो लोग सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर जीवन जीते हैं के सामान्य स्थिति व असमान्य स्थिति दोनों में ही अलग दिखाई देते हैं ।

 गुप्त जी भी सामान्य जीवन व आचार- विचार का समर्थन करते हुए दिखते हैं जो उनके वैचारिक रूप से सम्पन्न भाव व आम आदमी की पीड़ा को कोरी कल्पना शीलता से अधिक मानते हैं, यथार्थ जीवन से लगाव ,उनका स्वभाव बन चुका था, उनकी कहानियां सीधी -सरल भाषा में हमारे नैराश्य जीवन के अन्तस् में झांककर हमें नई आशा के प्रति एक आश्वस्ति- बोध भरती है जो कि एक अनूठापन है। जीवन का आपाधापी और अंधापन ,जहां हर व्यक्ति इतनी जल्दी में हो कि वह हर लक्ष्य पर नैराश्य ही अनुभव कर रहा है ,आज प्रेम महज औपचारिकता के कुछ भी नहीं है, हमारा अनुभव चूक चला है और भरोशे प्रायः खत्म हो चुके हैं, ऐसे में उनकी सीधी -सरल भाषा कहानी में सपाट बयानी की एकता का रूपक गढ़ रही है ।एक सच्चे साहित्यकार का जीवन कबीर का जीवन है जो कर्तव्य के साथ -साथ समाज को दिशा देने का संकल्प लेकर निरन्तर चलता रहता है और ये कार्य गुप्त जी अपनी प्रखर चेतना से कर रहे थे ,इस प्रकार उनकी कहानियों में जीवन अनेक रूपों में रूपांतरित हुआ है  ।

✍️ डॉ मीरा कश्यप, विभागाध्यक्ष हिंदी, के .जी .के .महाविद्यालय, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत 

मंगलवार, 25 मई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का गीत ---काल है निर्मम बना ,नित रक्तबीज सा बढ़ रहा, साँसों का कोई मोल नहीं , चीखते हर ओर ऑंसू -


 मौन रहकर कब तलक 

गीत अधरों पर सजेंगे 

वेदना मन की सिसकती

विकल ,क़ुछ कह न पाती ।

        काल है निर्मम बना ,नित

        रक्तबीज सा बढ़ रहा 

        साँसों का कोई मोल नहीं

        चीखते हर ओर ऑंसू ।

देखकर अब दृश्य दारुण 

थिर नहीं मन ,काँपता है

मन विकल अब हो रहा 

है कयामत की रात आयी ।

          सो गये आँखों के सपने

           अपने सभी के खो गये

           यादों में रह गये शेष  

            वे दूर इतने हो गये ..।

जिनके सहारे अब तक 

जिंदगी जीती है हमने 

आस्था ,सेवा ,समर्पण के

प्रेम मय बीज  बो गये वे ।

         आस का था दीप जलता 

         पर हवा का रूख है तेज 

          व्यथा से भर टूटता मन 

         दर्द का है शोर ,हर ओर ।

संवेदनाएं मौन हैं अब 

भाव सारे रो रहे हैं ..

उलझे सवालों में सब ऐसे

मिलता नहीं उत्तर कहीं  ।

       वेदना की आँधियों में 

       तूफानों से घिर रहें हम 

      अब व्यथा को देखकर 

        गीत कैसे गा मिलेगा ।

वेदना मन की सिसकती 

कह नहीं अब क़ुछ पाती ।

✍️ डॉ मीरा कश्यप, हिन्दी विभागाध्यक्ष, केजीके महाविद्यालय, मुरादाबाद

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का गीत -- विश्व पटल पर परचम लहराती,हृदय का स्वाभिमान है हिन्दी -


सरस सुुकोमल  भावों की,  मधुर रसधार है हिंदी

विश्व पटल पर परचम लहराती,हृदय का स्वाभिमान है हिन्दी 

कबीर की अक्खड़ भावों की,साखी सबद,रमैनी हिंदी

गोकुल के कुंज गलिन की,राधा कृष्ण की रास है हिन्दी

तुलसीदास के रामचरित औ, सीता सी पावन है हिंदी

जायसी के पद्मावती सी,प्रेम और श्रृंगार है हिन्दी

बिहारी और घनानन्द की मृदुल भाव सुजान है हिंदी

हिंदी से हम हिंदुस्तानी ,केशव औ रसखान है हिन्दी

छायावाद के बिम्ब ,प्रतिकों की कोमल भाव है हिंदी

प्रेम और श्रृंगार प्रसाद की,श्रद्धा सी कोमल भाव है हिंदी

पन्त की सुकुमार कल्पना,निराला की महाप्राण है हिंदी

महादेवी की भाव-लहरी सी मर्यादित ,नारी की अभिमान है हिंदी

मां की ममता सी दुलराती, लोरी की मधुर संगीत है हिंदी

बरगद की छाया विशाल ,पीपल पात सरिस है हिंदी

चंदन सी बंदित भारत के ललाट की मान है हिंदी

मिट्टी की खुशबू से लिपटे ,किसानों की पहचान है हिंदी

मजदूरों की पीड़ा संग ,रोटी की मीठी स्वाद है हिंदी

जन ,मन की पूजा है हिंदी, सबका दृढ़ विश्वास है हिंदी

देश और विदेश में,अपनों की पहचान है हिंदी

हिमालय की उत्तुंग शिखर सी,भारत माँ की भाल है हिंदी

हिन्दवासी की धड़कन हिंदी, आंगन की फुलवारी सी 

हिंदी से सारी दुनियां और ,हिंदी है पहचान हमारी

  ✍️ डॉ मीरा कश्यप , मुरादाबाद 244001