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बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की अंकित गुप्ता "अंक" द्वारा की गई समीक्षा.. महकती है भारतीयता की भीनी-भीनी ख़ुशबू

ग़ज़ल का अपना एक सुदीर्घ इतिहास रहा है । अमीर ख़ुसरो,  कबीर, वली दक्किनी, मीर तक़ी 'मीर', मिर्ज़ा मज़हर, सौदा, मीर दर्द, ज़ौक़, मोमिन, ग़ालिब, दाग़, इक़बाल, जिगर मुरादाबादी जैसे सुख़नवरों से होती हुई यह फ़िराक़ गोरखपुरी, फ़ैज़, अहमद फ़राज़, दुष्यंत कुमार के हाथों से सजी और सँवरी । ग़ज़ल को पारंपरिक तौर पर इश्क़ो- मोहब्बत की चाशनी में पगी सिन्फ़ समझा जाता था और एक हद तक यह धारणा गलत भी नहीं थी । धीरे-धीरे ग़ज़ल बादशाहों के दरबार से नज़र बचाकर समाज की ओर जा पहुँची । तल्ख़ हक़ीक़तों की खुरदुरी ज़मीन से इसका पाला पड़ा, तो ज़िंदगी की कशमकश के नुकीले काँटों ने भी इसके कोमल हाथों को लहूलुहान किया । इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि इसने अपने पैकर में रहते हुए भी अपनी आत्मा को परिमार्जित और परिष्कृत किया तथा यह शोषित-पीड़ित मन की आवाज़ बनने लगी ।

मोहम्मद अल्वी का कहना था—

"क्यूँ सर खफा रहे हो मज़ामीं की खोज में

 कर लो जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर"

    ज़िया ज़मीर जदीद शायरी की इस मशाल को आगे बढ़ाने वाले शोअ'रा में से एक है़ं । उनका ग़ज़ल-संग्रह 'ये सब फूल तुम्हारे नाम'  इस कथन पर मुहर लगाने के लिए काफ़ी है । संग्रह में 92 ग़ज़लें, 9 नज़्में, 16 दोहे और 6 माहिये संकलित हैं । ज़िया साहब को शायरी का फ़न विरासत में मिला । वालिदे-मुहतरम जनाब ज़मीर दरवेश के मार्गदर्शन में उनकी शायरी क्लासिकी और आधुनिकता दोनों का कॉकटेल बन गई । ज़िया ज़मीर अपनी हर ग़ज़ल में ग़ज़ल के स्वाभाविक और 'क्विंटनसेंशियल' हिस्से मोहब्बत और इश्क़ को नहीं भूलते । इस पतवार का सहारा लेकर वे आधुनिक जीवन की हक़ीक़त और सच्चाइयों और बुराइयों के पहलुओं को छूते हैं और एक नए दृष्टिकोण की स्थापना करते हैं । 

 "उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

  बैठेंगे    कभी    साथ    तो  तन्हाई बनेगी"

उपरोक्त शे'र के ज़रिए वे आज की एकांत और बेहिस ज़िंदगी की तस्वीर खींचते हैं, तो वहीं

 " जो एक तुझको जां से प्यारा था 

 अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या"

 शे'र में तेज़ी से बदलते रिश्तों के प्रतिमान की पड़ताल कराते हैं कि कैसे इस सो कॉल्ड 'आधुनिक' समाज में रिश्ते और संबंध पानी पर उठे बुलबुले जैसे क्षणभंगुर हैं ।

बाहुबलियों के हाथों दीन-हीनों पर अत्याचार कोई नई बात नहीं रही है;  नई बात तो उनका हृदय-परिवर्तन होना है । ज़िया साहब का एक शे'र देखें—

 " लहर ख़ुद पर है पशेमान के उसकी ज़द में

  नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है "

बालपन किसी घटना को पहले से सोचकर क्रियान्वित नहीं करता । वह तो गाहे-बगाहे वे कार्य कर डालता है जिसे बड़े चाह कर भी नहीं कर पाते । ज़िया ज़मीर कुछ यूँ फ़रमाते हैं— 

"किसी बच्चे से पिंजरा खुल गया है

 परिंदों   की   रिहाई   हो  रही  है"

फ़िराक़ गोरखपुरी के अनुसार, "ग़ज़ल वह बाँसुरी है; जिसे ज़िंदगी की हलचल में हमने कहीं खो दिया था और जिसे ग़ज़ल का शायर फिर कहीं से ढूँढ लाता है और जिसकी लय सुनकर भगवान की आँखों में भी इंसान के लिए मोहब्बत के आँसू आ जाते हैं ।" प्रेम की प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं हो सकती । बाइबिल में अन्यत्र वर्णित है— "यदि मैं मनुष्य और स्वर्ग दूतों की बोलियाँ बोलूँ और प्रेम न रखूँ; तो मैं ठनठनाता हुआ पीतल और झनझनाती हुई झांझ हूँ ।"  ज़िया ज़मीर की शायरी इसी प्रेम का ख़ाक़ा खींचती है और वे कहते हैं—

 "देख कर तुमको खिलने लगते हैं

  तुम गुलों से भी बोलती हो क्या "

.............

"इश्क़ में सोच समझ कर नहीं चलते साईं

जिस तरफ़ उसने बुलाया था, उधर जाना था"

हालांकि उन्होंने मोहब्बत में हदें क़तई पार नहीं कीं और स्वीकार किया—

"हमने जुनूने- इश्क़ में कुफ़्र ज़रा नहीं किया

 उससे मोहब्बतें तो कीं, उसको ख़ुदा नहीं किया"

आज हालांकि मानवीय संवेदना में कहीं न कहीं एक अनपेक्षित कमी आई है ।  हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । एक शायर भी इससे अछूता नहीं रह सकता । उसकी शायरी हालात का आईना बन जाती है । इस बाबत मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद का शे'र मुलाहिज़ा करें—

 "कुुछ ग़मे-जानां, कुछ ग़मे-दौरां दोनों मेरी ज़ात के नाम 

 एक ग़ज़ल मंसूब है उससे एक ग़ज़ल हालात के नाम"

ज़िया का मन भी आहत होकर कहता है—

“कुछ दुश्मनों की आँख में आँसू भी हैं; 

मगर कुछ दोस्त सिर्फ लाश दबा देने आए हैं“

..........

"पत्थर मार के चौराहे पर एक औरत को मार दिया

 सबने मिलकर फिर ये सोचा उसने गलती क्या की थी"

...........

"दानाओं ने की दानाई, मूंद ली आँखें 

चौराहे पर क़त्ल हुआ पागल ने देखा"

आले अहमद सुरूर ग़ज़ल को 'इबादत, इशारत और अदा की कला' कहते हैं । ज़िया ज़मीर इस रवायत को बड़े सलीक़े से निभाते चलते हैं ।  अपने भोले माशूक़ से ज़िया साहब की मीठी शिकायत है—

 "तुमने जो किताबों के हवाले किए जानां

वे फूल तो बालों में सजाने के लिए थे"

ख़्यालात की नाज़ुकी  उनके यहाँ कहीं-कहीं इतनी 'सटल' हो जाती है कि क़ारी के मुँह से सिर्फ़ "वाह" निकलता है—

  "मेरे हाथों की ख़राशों  से न ज़ख़्मी हो जाए

   मोर के पंख से इस बार छुआ है उसको"

शायरी का फ़न ऐसा है कि उसमें सोच की नूतनता, शिल्प की कसावट और 'अरूज़  का पालन सभी तत्वों का समावेश होना अत्यावश्यक है अन्यथा कोई भी तख़्लीक़ सतही लगेगी । जिया ज़मीर फ़रमाते हैं—

"शौक यारों को बहुत क़ाफ़िया पैमाई का है

 मस'अला है तो फ़क़त शे'र में गहराई का है"

विचारों के सतहीपन को वे सिरे से नकारते हैं— 

"शे'र जिसमें लहू दिल का शामिल ना हो

वो लिखूँ भी नहीं, वो पढ़ूँ  भी नहीं "

...............

  “चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शे'र कहूँगा

 तख़्लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया पैमाई बनेगी"

प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी का इस संबंध में एक शे'र कितना प्रासंगिक है—

 " कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी न करना

   ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी न करना"

आज जब रिश्तो को बनाए रखने की जद्दोजहद में हम सभी लगे हैं।  ऐसे में अना का पर्दा हर बार हमारे संबंधों की चमक पर पड़कर उसे फीका कर देना चाहता है; जबकि रिश्तों को बचाए, बनाए और सजाए रखना उतना कठिन भी नहीं है। बक़ौल ज़िया—

"बस एक बात से शिकवे तमाम होते हैं

बस एक बार गले से लगाना होता है"

ग़ज़लों के बाद यदि नज़्मों पर दृष्टि डालें तो वे भी बेहद असरदार और अर्थपूर्ण बन पड़ी हैं । क्योंकि नज़्मों में अपने विचारों से पाठक को अवगत कराने के लिए अपेक्षाकृत अधिक फैलाव मिल जाता है; इसलिए इस विधा का भी अपना अलग रंग है । 'बिटिया' शीर्षक नज़्म में कन्या भ्रूण हत्या की त्रासदी को बड़ी असरपज़ीरी से उन्होंने हमारे सामने रखा है । 'राष्ट्रपिता' नज़्म महात्मा गांधी के योगदान व बलिदान पर सवालिया और मज़ाक़िया निशान लगाने वाली भेड़चाल को बड़ी संजीदगी से व्यक्त करती है । मेट्रोपॉलिटन, कॉस्मोपॉलिटन, मेगा सिटी, स्मार्ट सिटी इत्यादि विशेषणों से सुसज्जित आधुनिक शह्रों में गुम हुई भारतीयता की असली पहचान हमारी भूल-भुलैया नुमा, टेढ़ी-मेढ़ी पतली गलियों और उनमें बसने वाले मासूम भारत का सजीव अंकन करती है नज़्म 'गलियाँ' ।  'चेन पुलिंग' बतकही शैली में रची गई एक और नज़्म है जो सुखांत पर समाप्त होती है; तो 'कॉफ़ी' शीर्षक नज़्म नाकाम और बेमंज़िल प्यार की ट्रेजेडी को बयान करती है । 'माँ का होना' नज़्म में ज़िया ज़मीर दुनिया की हर माँ के प्रति श्रद्धावनत होते हुए उसके संघर्षों और आपबीती को ख़ूबसूरत ढंग से व्यक्त करते हैं ।

   ग़ज़लों, नज़्मों की भांति ज़िया साहब के दोहों में भी एक गहरी प्रभावशीलता है । निदा फ़ाज़ली, मंसूर उस्मानी, वसीम बरेलवी, शहरयार, बेकल उत्साही आदि मॉडर्न शो'अरा ने भी दोहों में बख़ूबी जौहर आज़माए हैं और ज़िया भी इन सुख़नवरों की राह पर पूरी तन्मयता से बढ़ते नज़र आते हैं— 

"इतनी वहशत इश्क़ में होती है ऐ यार

 कच्ची मिट्टी के घड़े से हो दरिया पार"


 "उसकी आँखों में दिखा सात झील का आब

  चेह्रा पढ़ कर यह लगा पढ़ ली एक किताब"


"जाने कब किस याद का करना हो नुक़सान

जलता रखता हूँ सदा दिल का आतिशदान"


 एक माहिये में कितनी सरलता से वे इतनी भावपूर्ण बात कह जाते हैं—

   "आँसू जैसा बहना

     कितना मुश्किल है

    उन आँखों में रहना"

ज़िया ज़मीर ने भाषायी दुरूहता को अपने शिल्प के आड़े नहीं आने दिया । इन सभी 'फूलों' को हमारे नाम करते हुए उन्होंने यह बख़ूबी ध्यान रखा है कि इनकी गंध हमें भरमा न दे । बल्कि इनमें भारतीयता और उसकी सादगी की भीनी-भीनी ख़ुशबू महकती रहे । आशय यह है कि भाषा छिटपुट जगहों को छोड़कर आमफ़हम ही रखी गई है ।प्रचलित अंग्रेज़ी  शब्दों इंसुलिन, इंटेलिजेंसी,  सॉरी,  मैसेज,  लैम्प-पोस्ट, रिंग,  सिंगल, जाम, टेडी आदि के स्वाभाविक प्रयोग से उन्होंने परहेज़ नहीं किया । वहीं चाबी, पर्ची, चर्ख़ी, काई, टापू, चांदना जैसे ग़ज़ल के लिए 'स्ट्रेंजर' माने जाने वाले शब्दों का इस्तेमाल भी सुनियोजित ढंग से वे कर गए हैं । तत्सम शब्दों गर्जन, नयन, संस्कृति, पुण्य आदि भी सहजता से निभाए गए हैं ।  ज़िया ज़मीर के यहाँ मुहावरों /लोकोक्तियों का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिल जाता है । कान पर जूं न रेंगना, डूबते को तिनके का सहारा, जान पर बन आना आदि का इस्तेमाल प्रशंसनीय है।

संक्षेप में, कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर ने जो ये फूल अपने संग्रह में सजाए हैं; उनकी ख़ुशबू पाठक के ज़ह्न और दिल में कब इतनी गहराई तक उतर जाती है उसे ख़ुद पता नहीं चलता । संग्रहणीय संग्रह के लिए वे निश्चित तौर पर बधाई के पात्र हैं और 'ये सब फूल हमारे नाम' करने के लिए भी ।



कृति-
‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)  ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                        प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹

समीक्षक -अंकित गुप्ता 'अंक'

सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज, 

लाइनपार, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल नंबर- 9759526650



रविवार, 11 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा... ख़ुशबू के सफ़र की ग़ज़लें

 ग़ज़ल के संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा है- ‘ग़ज़ल एकमात्र ऐसी विधा है जो किसी ख़ास भाषा के बंधन में बंधने से इंकार करती है। इतिहास को ग़ज़ल की ज़रूरत है, ग़ज़ल को इतिहास की नहीं। ग़ज़ल एक साँस लेती, जीती-जागती तहजीब है।’ मुरादाबाद के साहित्यकार  ज़िया ज़मीर के  ग़ज़ल-संग्रह ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ की 92 ग़ज़लों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अश’आर में अरबी-फारसी की इज़ाफ़त वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही उनकी शायरी की खासियत भी है। सादाज़बान में कहे गए अश’आर की बानगी देखिए जिनकी वैचारिक अनुगूँज दूर तक जाती है और ज़हन में देर तक रहती है-

  है डरने वाली बात मगर डर नहीं रहे

  बेघर ही हम रहेंगे अगर घर नहीं रहे

  मंज़र जिन्होंने आँखों को आँखें बनाया था

  आँखें बची हुईं हैं वो मंज़र नहीं रहे

  हैरत की बात ये नहीं ज़िंदा नहीं हैं हम

  हैरत की बात ये है कि हम मर नहीं रहे

बचपन ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसे हर कोई एक बार नहीं कई बार जीना चाहता है परन्तु ऐसा मुमक़िन हो नहीं पाता। जीवन का सबसे स्वर्णिम समय होता है बचपन जिसमें न कोई चिन्ता, न कोई ज़िम्मेदारी, न कोई तनाव। बस शरारतों के आकाश में स्फूर्त रूप से उड़ना, लेकिन यह क्या ! आज के बच्चे खेल़ना, उछलना, कूदना भूलकर अपना बचपन मानसिक बोझों के दबाव में जी रहे हैं। शायर ज़िया ज़मीर भी स्वभाविक रूप से अपने बचपन के दिनों को याद करके अपने बचपन की आज के बचपन से तुलना करने लगते हैं लेकिन अलग अंदाज़ से-

 इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है

 इक ग़म का समन्दर है जो घटता ही नहीं है

 स्कूली किताबों ज़रा फुरसत उसे दे दो

बच्चा मेरा तितली पे झपटता ही नहीं है

इसी संवेदना का एक और शे’र देखिए-

बच्चे को स्कूल के काम की चिंता है

पार्क में है और चेहरे पे मुस्कान नहीं

वह अपनी ग़ज़लों में कहीं-कहीं सामाजिक विसंगतियों पर चिंतन भी करते हैं। वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रतिपल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। आज के विद्रूप समय की इस पीड़ा को शायर बेहद संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करता है-

  ये जो हैं ज़ख़्म, मसाहत के ही पाले हुए हैं

  बैठे-बैठे भी कहीं पाँव में छाले हुए हैं

  कोई आसां है भला रिश्ते को क़ायम रखना

  गिरती दीवार है हम जिसको संभाले हुए हैं

इसी पीड़ा का एक और शे’र देखिए-

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी

वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल ने अपने एक शे‘र में कहा भी है-’पीड़ा, आंसू, ग़म, बेचैनी, टूटन और घुटन/ये सारा कुछ एक जगह शायर में मिलता है’। अपनी मिट्टी से गहरे तक जुड़े ज़िया ज़मीर की शायरी में ज़िन्दगी का हर रंग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सुप्रसिद्ध नवगीतकार  माहेश्वर तिवारी जी का बहुत चर्चित और लोकप्रिय गीत है- ‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेज़बान छत-दीवारों को घर कर देता है’। यह घर हर व्यक्ति के भीतर हर पल रहता है। परिणामतः हर रचनाकार और उसकी रचनाओं के भीतर घर किसी ना किसी रूप में हाज़िर रहता ही है। वर्तमान समय में घरों के भीतर की स्थिति की हकीकत बयान करती हुई ये पंक्तियाँ बड़ी बात कह जाती हैं-

  नन्हे पंछी अभी उड़ान में थे

  और बादल भी आसमान में थे

  किसलिए कर लिए अलग चूल्हे

  चार ही लोग तो मकान में थे

घर के संदर्भ में एक और कड़वी सच्चाई-

  मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है कब्जा इसका

  अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बगैर

ग़ज़ल का मूल स्वर ही शृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को जीते हुए ज़िया ज़मीर अपनी ग़ज़लों में कमाल के शे’र कहते हैं या यों कहें कि वह अपनी शायरी में प्रेम के परंपरागत और आधुनिक दोनों ढंग से विलक्षण शब्दचित्र बनाते हैं-

 वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी

 हाथों में लिए बैठी है तस्वीर हमारी

 आँखों से पढ़ा करते हैं सब और वो लड़की

 होठों से छुआ करती है तहरीर हमारी

प्रेम का आधुनिक रंग जो शायरी में मुश्किल से दिखता है-

 तनहाइयों की चेहरे पे ज़र्दी लिए हुए

 दरवाज़े पर खड़ा हूँ मैं चाबी लिए हुए

 सुनते हैं उसकी लम्बी-सी चोटी है आजकल

 और घूमती है हाथ में टैडी लिए हुए

उनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। खुशबू के सफर की इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को मंत्रमुग्ध रखती है। वह कहते भी हैं- 

‘हमारे शे’र हमारे हैं तरजुमान ज़िया

हमारे फन में हमारा शऊर बोलता है’। 

निश्चित रूप से यह ग़ज़ल-संग्रह साहित्यिक समाज में अपार सराहना पायेगा और अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करेगा। बहरहाल, भाई ज़िया ज़मीर की बेहतरीन शायरी के ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’। 


कृति
- ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)                    

ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                            

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹


समीक्षक
: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981  



गुरुवार, 1 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर की लघुकथा ....शाबाशी


चौराहे पर भीड़ जमा थी। सरकारी डस्ट-बिन में मैले और फटे हुए कपड़े में लिपटी नन्ही सी जान को वो भीड़ देख रही थी। तभी एक भिखारिन ने लपक कर उसे उठा लिया और अपने बोरे पर जाकर बैठ गई। कुछ देर ख़ामोशी रही। फिर उस भीड़ में खुश होकर तालियां बजा दीं।

 ✍️ ज़िया ज़मीर 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


सोमवार, 16 मई 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा की ओर से 15 मई 2022 को आयोजित ज़िया ज़मीर के गजल-संग्रह "ये सब फूल तुम्हारे नाम" का लोकार्पण समारोह

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में  साहित्यकार ज़िया ज़मीर के गजल-संग्रह "ये सब फूल तुम्हारे नाम" का लोकार्पण हिमगिरि कालोनी मुरादाबाद स्थित मशहूर शायर ज़मीर दरवेश साहब के निवास पर किया गया।     

कार्यक्रम का आरंभ ज़िया ज़मीर द्वारा प्रस्तुत नाते पाक व मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ। इस अवसर पर लोकार्पित कृति "ये सब फूल तुम्हारे नाम" से रचनापाठ करते हुए ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लें सुनायीं-

 "दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है

किसकी आमद है भला कौन नज़र आ गया है

ज़िंदगी रोक के अक्सर यही कहती है मुझे

तुझको जाना था किधर और किधर आ गया है

लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उसकी ज़द में

नन्हें हाथों से बना रेत का घर आ गया है"। 

उनकी एक और ग़ज़ल की सबने तारीफ की-

 "दरिया में जाते वक़्त इशारा करें तुझे

जब डूबने लगें तो पुकारा करें तुझे

महफ़िल से तू ने उठते हुए देखा ही नहीं

हम सोचते रहे कि इशारा करें तुझे"।

   समारोह की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा- "जिया जमीर के पास गहरे पानियों जैसा बहाव है। वे आम फ़हम भी हैं, जिसके लिए लुगत की ज़रूरत नहीं है। उर्दू कविता के सहृदय पाठकों को जिया ज़मीर की शायरी में एक गहरी कलात्मकता और पारदर्शी सोच मिलेगी।"

 मुख्य अतिथि के रूप में विख्यात शायर मंसूर उस्मानी ने कहा- "ज़िया ज़मीर मौजूदा वक्त में नई गजल की नई फिक्र और नई नजर के मजबूत हस्ताक्षर हैं, जो सिर्फ आज में ही नहीं जीते, उनके साथ उनका माजी भी है और आने वाले वक्त के रंगीन सपने भी।"

 विशिष्ट अतिथि मशहूर शायर ज़मीर दरवेश ने कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में हकीकत और तख़य्युल का खूबसूरत इस्तेमाल मिलता है। हकीक़त शायरी की जान है और तख़य्युल उसकी खूबसूरती। उनकी शायरी में यादों के बादल हैं, उदासी का परिंदा है, दर्द की शाख़ है, दर्द का सहरा है, तहज़ीब की नाव है।"

विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ शायर अनवर कैफ़ी ने कहा- "नौजवान नस्ल में जिन शायरों ने उर्दू हिन्दी ज़बान और साहित्य में नुमाया कामयाबी हासिल की है और गेसू-ए-सुखन को संवारा है उनमें जिया ज़मीर ऐसा नाम है जिन्हें महफिलों में याद रखा जाता है।"

 विशिष्ट अतिथि विख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने कहा- "ज़िया ज़मीर मुरादाबाद की मिट्टी में उपजे ऐसे युवा शायर हैं जिनकी शायरी की खुशबू देश भर में दूर-दूर तक फैल कर अपना मुकाम हासिल कर रही है।अदबी दुनिया को उनसे बहुत उम्मीदें हैं।" 

कार्यक्रम के संचालक नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अशआर में अरबी-फारसी की इज़ाफत वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती।"

वरिष्ठ शायर डॉ. मुजाहिद फ़राज़ ने कहा- "ज़िया ने अपनी ग़ज़ल के लिए दिल का रास्ता चुना है। वही दिल जिसने मीर से मीरा तक बे शुमार शायरों को अदब के सफ़हात पर सजाया है, इसीलिए तो ज़िया की शायरी में दिल और इश्क़ की कार फ़र्माइयाँ जा-बजा नज़र आती हैं।"

 वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार नाज़ ने कहा- "जिया जमीर की ग़ज़लें उदाहरण हैं इस बात का कि वहाँ प्रेम भी मिलता है, वहाँ समाज भी मिलता है, वहाँ संस्कृति भी मिलती है, वहाँ अध्यात्म भी मिलता है और वहाँ राजनीतिक चेतना भी दिखाई देती है।" 

     समीक्षक डॉ. मौ. आसिफ हुसैन ने कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में इस बात के रोशन इमकानात मौजूद हैं कि आने वाले वक़्त में मुरादाबाद को शायरी के हवाले से एक बड़ा नाम मिलने वाला है।" 

    कार्यक्रम में डॉ. मनोज रस्तोगी, सय्यद मौ हाशिम, मनोज मनु, राजीव प्रखर, अहमद मुरादाबादी, फरहत अली खान, ग़ुलाम मुहम्मद ग़ाज़ी, मयंक शर्मा, अभिनव चौहान, ज़ाहिद परवेज़, सैयद सलीम रजा नकवी, शाहबाज अनवर, मुशाहिद हुसैन, शकील अहमद, श्रीकांत शर्मा, नूरुज्जमा नूर, शांति भूषण पांडेय, तहसीन मुरादाबादी, दानिश कादरी सहित अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति तसर्रुफ ज़िया ने प्रस्तुत की। 

















::::::::प्रस्तुति::::::::

योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

संयोजक- अक्षरा, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा ......


 वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा  "विरासत जगमगाती है" शीर्षक के तहत मुरादाबाद मंडल के बिजनौर जनपद के साहित्यकार दुष्यंत कुमार को उनकी पुण्यतिथि पर 29 व 30 दिसम्बर 2020 को याद किया गया। ग्रुप के सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा की।   

सबसे पहले ग्रुप एडमिन ज़िया ज़मीर ने उनके जीवन के बारे में विस्तार से बताया कि दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के रहने वाले थे। दुष्यन्त कुमार का जन्म बिजनौर जनपद उत्तर प्रदेश के ग्राम राजपुर नवादा में एक सितम्बर 1933 को और निधन भोपाल में 30 दिसम्बर 1975 को हुआ था| इलाहबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे बाद में प्रोड्यूसर पद पर ज्वाइन करना था लेकिन तभी हिन्दी साहित्याकाश का यह सूर्य अस्त हो गया| वास्तविक जीवन में दुष्यन्त बहुत सहज और मनमौजी व्यक्ति थे| सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यन्त कुमार को मिली वो दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब होती है| दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं| दुष्यंत का लेखन का स्वर सड़क से संसद तक गूँजता है| दुष्यंत कुमार अपने हाथों में अंगारे लिए ऐसा शायर है जो अपने लोगों की ज़िंदगियां अन्धेरी होने के कारण ही नहीं बताता बल्कि उन्हें रौशन करने के उपाय भी सुझाता है। इस कवि ने कविता, गीत, गज़ल, काव्य नाटक, कथा आदि सभी विधाओं में लेखन किया। उन्होंने पटल पर उनकी निम्न रचनाएं भी प्रस्तुत कीं-----

*1.*

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए

यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो

इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके

जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ

हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

*2.*

ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

और हर गाम हो रही है अब

जिस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब

अज़मते—मुल्क इस सियासत के

हाथ नीलाम हो रही है अब

शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं

सुब्ह बदनाम हो रही है अब

जो किरन थी किसी दरीचे की

मरक़ज़े बाम हो रही है अब

तिश्ना—लब तेरी फुसफुसाहट भी

एक पैग़ाम हो रही है अब

*3.*

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है

मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं

यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन

ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना

ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी

कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं

ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है

चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं

*4.*

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

*5.*

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ

मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह

तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ

अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर

तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ

ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो

तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

*6.*

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो

अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा

इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे

आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे

आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया

इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की

तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

*7.*

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

*8.*

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो

धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं

बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है

ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है

पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं

आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर

आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं

सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत

हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

 ***अपनी प्रेमिका से

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी

जो तुम्हें शीत देतीं

और मुझे जलाती हैं

किन्तु

इन हवाओं को यह पता नहीं है

मुझमें ज्वालामुखी है

तुममें शीत का हिमालय है।

फूटा हूँ अनेक बार मैं,

पर तुम कभी नहीं पिघली हो,

अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं

पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं

तनी हुई.

तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की

जो गर्म हो

और मुझे उसकी जो ठण्डी!

फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति

जो दुखाती है

फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का

जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है

काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।

तुम जो चारों ओर

बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो

(लीन... समाधिस्थ)

भ्रम में हो।

अहम् है मुझमें भी

चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ

लेकिन क्यों?

मुझे मालूम है

दीवारों को

मेरी आँच जा छुएगी कभी

और बर्फ़ पिघलेगी

पिघलेगी!

मैंने देखा है

(तुमने भी अनुभव किया होगा)

मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को

जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे

लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई।

देखो ना!

मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,

सूर्योदय मुझमें ही होना है,

मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,

इसीलिए कहता हूँ-

अकुलाती छाती से सट जाओ,

क्योंकि हमें मिलना है।

***फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं

चापल्य नहीं उन्माद नहीं

सूना-सूना सा जीवन है

कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं


तव स्वागत हित हिलता रहता

अंतरवीणा का तार प्रिये ..


इच्छाएँ मुझको लूट चुकी

आशाएं मुझसे छूट चुकी

सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ

मेरे हाथों से टूट चुकी


खो बैठा अपने हाथों ही

मैं अपना कोष अपार प्रिये

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..


***सूना घर


सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।


पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर

अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर

खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।


पर कोई आया गया न कोई बोला

खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला

आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।


फिर घर की खामोशी भर आई मन में

चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में

उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।


पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं

कमरे के कोने पास खिसक आए हैं

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

***एक आशीर्वाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना की गोद से उतर कर

जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये

रूठना मचलना सीखें।

हँसें

मुस्कुराएँ

गाएँ।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें

उँगली जलाएँ।

अपने पाँव पर खड़े हों।

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

***सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन

सूरज जब

किरणों के बीज-रत्न

धरती के प्रांगण में

बोकर

हारा-थका

स्वेद-युक्त

रक्त-वदन

सिन्धु के किनारे

निज थकन मिटाने को

नए गीत पाने को

आया,

तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,

ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप

और शान्त हो रहा।


लज्जा से अरुण हुई

तरुण दिशाओं ने

आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!

क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने

मुख-लाल कुछ उठाया

फिर मौन सिर झुकाया

ज्यों – 'क्या मतलब?'

एक बार सहमी

ले कम्पन, रोमांच वायु

फिर गति से बही

जैसे कुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन

ईश्वर की शपथ!

सूरज के साथ

हृदय डूब गया मेरा।

अनगिन क्षणों तक

स्तब्ध खड़ा रहा वहीं

क्षुब्ध हृदय लिए।

औ' मैं स्वयं डूबने को था

स्वयं डूब जाता मैं

यदि मुझको विश्वास यह न होता –-

'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य

ज्योति-किरणों से भरा-पूरा

धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को

जोतता-बोता हुआ,

हँसता, ख़ुश होता हुआ।'

ईश्वर की शपथ!

इस अँधेरे में

उसी सूरज के दर्शन के लिए

जी रहा हूँ मैं

कल से अब तक!

   


चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि दुष्यन्त मुहावरों की तरह आम आदमी की ज़बान पर चढ़ कर आज भी जहां-तहां कभी तबीयत से पत्थर उछालता मिल जाता है तो कभी हिमालय से गंगा निकालने लगता है राजा भगीरथ की तरह। 


वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि दुष्यंत कुमार एक ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने न केवल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विद्रूपताओं- विसंगतियों के खिलाफ अपनी रचनाओं के जरिए आवाज उठाई बल्कि वे उस आवाज में असर के लिए बेकरार थे। वे बंद दरवाजे को तोड़ने का जतन कर रहे थे। वे जर्जर नाव के सहारे लहरों से टकरा रहे थे । वे देख रहे थे- इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पांव घुटनों तक सना है । उनके सामने स्थितियां थी- इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं खिड़कियां। वह हतप्रभ थे यह देखकर- यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं । इन तमाम स्थितियों को खत्म करने के लिए उनकी लेखनी ने आह्वान किया - कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं। पुराने पड़ गए डर को फेंक दो तुम । चारों तरफ बिखरी राख में चिंगारियां देखो और पलकों पर शहतीर उठाकर एक पत्थर तो तबीयत से उछालो। उनका मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना नहीं था, वह पर्वत सी हो गई पीर को पिघलाना चाहते थे, हिमालय से गंगा निकालना चाहते थे। वे चाहते थे बुनियाद हिले और यह सूरत बदले ।

प्रसिद्ध गीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि दुष्यंत कुमार स्थापित परंपराओं के विरुद्ध जाकर नई परंपराओं को इस तरह विकसित करने वाले रचनाकार थे कि नई पीढ़ियां उनसे प्रेरणा हासिल कर सकें। 


युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि उनके महान व क्रांतिकारी रचनाकर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह   तात्कालिक रूप से प्रभावशाली होने के साथ-साथ भविष्य की तस्वीर को भी स्वय॔ में समाहित किये रहा।

युवा कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि दुष्यंत कुमार अपने रचनाकर्म के माध्यम से आमजन में इतने रचे बसे हैं कि दुष्यंत के बिना कोई महफिल, कोई कार्यक्रम यहाँ तक कि संसद के अधिवेशन भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। 

:::::;;प्रस्तुति::::::

 ज़िया ज़मीर

ग्रुप एडमिन

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब

मो०8755681225

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि 30 दिसम्बर पर उनकी ग़ज़लों पर ज़िया ज़मीर का विस्तृत आलेख ------- दुष्यन्त कुमार : हाथों में अंगारे लिए एक शायर


बहुत आसान है यह कह देना कि दुष्यंत एक बे-बेहरा शायर है, बहुत आसान है यह कह देना कि दुष्यंत हिंदी का शायर है इसलिए उसके यहां व्याकरण का बचकाना दोष है और बहुत आसान यह भी कह देना है कि मुट्ठी भर ग़ज़लें कह कर कोई बड़ा शायर नहीं बन जाता। मगर बहुत कठिन है यह बात स्वीकार कर पाना कि मुट्ठी भर ग़ज़लें कहने वाला यह बे-बेहरा शायर अपनी झोली में कम से कम दो दर्जन ऐसे शेर लिए बैठा है जो अब इतने बड़े हो गए हैं कि किताबों की क़ैद से बाहर निकल आए हैं और इतने तेज़ रफ्तार भी हो गए हैं कि सरहदों को मुंह चिढ़ाते हुए शायरी समझने वाले लगभग सभी देशों में घूम आए हैं। 

आम से दिखने वाले इस शायर को इतनी शोहरत कैसे हासिल हो गयी? इसका जवाब यह है कि दुष्यंत ने कभी भी शायरी अपने लिए नहीं की बल्कि जब भी कलम उठाया, अपने लोगों के लिए उठाया। जब भी दुख ज़ाहिर किया उन लोगों का किया जिनका दुख दुनिया के लिए कोई मायने नहीं रखता। वही लोग जो अपने दुख अपने सीनों में लिए जीते रहते हैं और ऐसे ही मर जाते हैं। शायर जब अपने दुखों को शब्द देने लगता है तो उसकी शायरी में हल्की- हल्की चिंगारियां नज़र आने लगती हैं और पढ़ने सुनने वालों को धीमी - धीमी आंच महसूस होने लगती है। मगर जब शायर अपने दुखों को एक तरफ रख कर अपने लोगों के दुखों को ज़ुबान देता है तो उसके यहां हल्की-फुल्की चिंगारियां नहीं बल्कि एक ऐसी आग पैदा हो जाती है जो पढ़ने और सुनने वालों के चेहरों को ही नहीं बल्कि रूहों को भी दमका जाती है। दुष्यंत कुमार अपने हाथों में अंगारे लिए ऐसा ही एक शायर है जो अपने लोगों की ज़िंदगियां अन्धेरी होने के कारण ही नहीं बताता बल्कि उन्हें रौशन करने के उपाय भी सुझाता है :-

रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया

इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कवंल के फूल कुम्लहाने लगे हैं 

अब नई तहज़ीब के पेशे - नज़र हम

आदमी को भून कर खाने लगे हैं 

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप

जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही 

खड़े हुए थे अलाव की आंच लेने को

सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए 

लहूलुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो 

शरीफ लोग उठे, दूर जाके बैठ गए 

हो गयी है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए 

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं 

मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

दिलों की बुझ गयी आग को जलाने और जलाए रखने का हुनर सिखाने वाला यह शायर अगर किसी से सबसे ज़्यादा नफरत करता था तो अपने मुल्क की राजनीति और राजनेताओं से करता था। इसीलिए दुष्यंत ने उम्र भर राजनेताओं की तरफ ही अपनी सोच के अंगारे उछाले :-

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है

हर किसी का पैर घुटनों तक सना है

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस यह मुद्दआ

यहां तक आते-आते सूख जाती हैं सभी नदियां

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा

देखिए उस तरफ़ उजाला है 

जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

लेकिन दुष्यंत को सिर्फ सियासत को आइना दिखाने वाला शायर ही समझ लेना इस शायर और इसकी शायरी की अनदेखी करना है, जो कि हम लोग वर्षों से करते आ रहे हैं। दुष्यंत अपने हाथों में अंगारे लिए नज़र आता है मगर दूसरी तरफ उसके सीने में वह महके हुए फूल भी हैं जो जवां दिलों को महकाते हैं और प्रेम की एक अनदेखी और अनजानी फिज़ा कायम करते हैं।

दुष्यंत की रूमानी शायरी में भी उसका खुरदुरापन उसी तरह मौजूद है, मगर यह खुरदुराहट दिल पर ख़राशें नहीं डालती बल्कि एक मीठे से  दर्द  का एहसास  कराती चली जाती है। दुष्यंत कहता है :-


एक आदत सी बन गई है तू

और आदत कभी नहीं जाती

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ

उस जिस्म के  तिलिस्म  की  बंदिश तो देखिए

एक जंगल है तेरी आंखों में

मैं जहां राह भूल जाता हूं

तू किसी रेल सी गुजरती है

मैं किसी पुल सा थरथराता हूं

चढ़ाता  फिर रहा हूं  जो चढ़ावे

तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं

तमाम रात  तेरे मयकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

तुम्हें भी इस बहाने देख लेंगे

इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी

आंधी में सिर्फ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे

हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और

तेरे गहनों सी खनखनाती थी

बाजरे की फसल रही होगी

वह घर में मेज़ पर कोहनी टिकाए बैठी है

थमी हुई है वहीं उम्र आजकल लोगो

दिल के नर्म गोशों को सहलाने वाले यह शेर उसी शायर की क़लम से निकले हैं जिसका क़लम अंगारे उगलने के लिए मशहूर है। चाहते न चाहते हर रचनाकार किसी ना किसी सांचे में ढल ही जाता है या ढाल दिया जाता है। यही मुआमला दुष्यंत के साथ भी हुआ। कुछ बातें इस शायर की शोहरतों के साथ-साथ सफर करती रही हैं, पहली बात यह कि दुष्यंत रूमानी शायरी नहीं कर सकता जिस को रद्द करने के लिए ऊपर दिए गए अशआर ही काफी हैं। दूसरी बात यह है कही जाती है कि दुष्यंत उर्दू का शायर नहीं है बल्की हिंदी का शायर है। इस बात या गुमान को रद्द करने के लिए अशआर पेश करने से पहले यह बताना भी ज़रूरी है कि किसी एक ज़बान का शायर दूसरी जबान के अल्फाज़ न के बराबर इस्तेमाल करता है। अगर दुष्यंत सिर्फ हिंदी का शायर होता तो उर्दू के ऐसे अल्फाज़ का इस्तमाल करते हुए ये अशआर कभी नहीं कहता :-

जो हमको ढूंढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा

तसव्वुर ऐसे ग़ैर - आबाद हल्क़ों तक चला आया

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको

क़ायदे क़ानून समझाने लगे हैं

कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे

कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

ज़रा सी बात है दिल से निकल न जाए कहीं

हुज़ूर आरिज़ो रुखसार क्या तमाम बदन

मेरी सुने तो मुजस्सम गुलाब हो जाए

यह ज़ुबां हमसे सी नहीं जाती

जिंदगी है कि जी नहीं जाती

मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

कहीं पर शाम सिरहाने लगा के बैठ गए

तमाम रात तेरे मयकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल ना जाए कहीं

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

शब ग़नीमत थी लोग कहते थे

सुब्ह बदनाम हो रही है अब 

अशआर की ये चंद मिसालें हैं जो किसी भी एतबार से किसी हिंदी गज़ल के शायर की नहीं कही जा सकतीं। अब तीसरी बात पर आते हैं वह यह कि दुष्यंत हिंदी का शायर है, यह मान भी लिया जाए तो भी दुष्यंत हिंदी का वैसा आम सा शायर नहीं है जैसा दूसरा हिंदी का शायर समझा जाता है। देखिए शायरी की ज़बान के लिए सबसे जरूरी कोई चीज़ है तो वह यह कि वह ज़बान ऐसे अल्फाज़ अपनी झोली में लिए हुए होती है जो बोलते हुए ज़बान पर बहने का माद्दा रखते हैं। नस्रऔर नज़्म में यही तो फर्क है कि नस्र पढ़ते हुए ज़बान पर बह नहीं सकती, इसमें अटकाव और ठहराव होता है जबकि नज़्म की यह सबसे बड़ी खूबी है कि वह ज़बान पर बहती चली जाती है। इसलिए जिस ज़बान में जितने ज्यादा बहाव वाले अल्फाज़ होते हैं उस ज़बान की शायरी उतनी ही ज़्यादा असरदार, बड़ी और याद रह जाने वाली होती है। दुष्यंत ने हिंदी ज़बान के अल्फाज़ भी खूब इस्तेमाल किए हैं, मगर दुष्यंत का यह कमाल है कि उसने इन अल्फाज़ को बहने वाले अल्फाज़ में तब्दील कर दिया है। यानी अल्फाज़ का बहाव बनाया भी है और निभाया भी है। यह काम वही रचनाकार कर सकता है जो अल्फाज़ में छुपी खामोशियों और अल्फाज़ की खूबियां और खामियों से पूरी तरह वाक़िफ हो। दुष्यंत ने हिंदी अल्फाज़ को किस खूबी से उर्दू ग़ज़ल के भाव में शामिल किया है और उन अल्फाज़ को ग़ज़ल के रिवायती अल्फाज़ के साथ किस फनकारी से चस्पां किया है, यह देखते ही बनता है। यह खूबी हर शायर को मयस्सर नहीं आती। जो नए लोग और पुराने भी, हिंदी ज़बान में ग़ज़लें कह रहे हैं या कहने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें दुष्यंत के ये शेर ज़रूर सुनने और पढ़ने चाहिए और अल्फाज के बहाव पर मंथन करना चाहिए:-

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर

और कुछ हो या न हो आकाश सी छाती तो है

ग़जब है सच को सच कहते नहीं वे

क़ुरानो उपनिषद खोले हुए हैं

किसी संवेदना के काम आएंगे

यहां टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है

आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हिंदी अल्फाज़ की ऐसी रवानी और किसी शायर के यहां मुश्किल से ही देखने को मिलती है। दुष्यंत के यहां हिंदी उर्दू अल्फाज़ की आमेज़िश एक नई ताज़गी के साथ ज़ाहिर हुई है और यह इस शायर की बड़ी खूबी मानी जा सकती है। दुष्यंत के यहां इंसानी कशमकश, जज़्बात, उदासी, महरूमी को भी बहुत फनकारी के साथ बयान किया गया है, जो उसे एक न भूलने वाला शायर बनाता है। इसके अलावा ज़बान की सादगी और ज़बान का हिंदुस्तानीपन दुष्यंत को अपने अहद का सबसे अनोखा और अलबेला शायर भी बनाता है। दिल से निकलने और दिल में उतर जाने वाले कुछ अशआर सुनिए :-

दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें

सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया

दिल को बहला ले, इजाज़त है मगर इतना न उड़

रोज़ सपने देख लेकिन इस कदऱ प्यारे न देख

थोड़ी आग बनी रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो

कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएंगे

अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था

वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

यह बहस खूब की जा सकती है कि दुष्यंत हिंदी ग़ज़ल का शायर है या उर्दू ग़ज़ल का। दुष्यंत बे-बहरा शायर है या नहीं इस पर भी घंटो एक दूसरे का सब्र आज़माया जा सकता है। इस बात पर भी चर्चा हो सकती है कि दुष्यंत ने ग़ज़ल के व्याकरण की अनदेखी अपनी अज्ञानता के कारण की है या अपने बग़ावती तेवर के सबब उसने यह काम जानबूझकर किया है। मगर दुष्यंत नई ग़ज़ल का सच बोलने वाला सबसे अनोखा शायर है जिसकी शायरी तब तक ज़िंदा रहेगी जब तक गरीबों, लाचारों और बेबसों के लिए कोई न कोई आवाज़ उठती रहेगी। 

दुष्यंत के बारे में अच्छी और बुरी बातें हर नए दौर में कही जाती रहेंगी, लेकिन दुष्यंत ही अकेला ऐसा शायर है जिसने उम्र भर सियासत को मुंह चढ़ाया मगर दुष्यंत के बाद सियासतदानों ने संसद में या संसद के बाहर, विधानसभाओं में या विधानसभाओं के बाहर अपनी बात को मनवाने और अपनी बात में ज़्यादा वज़्न पैदा करने के लिए दुष्यंत को ही हजारों बार कोष किया है। दुष्यंत मायूसी के काले बादलों को तार-तार करने की ताक़त रखता है और दूसरों को भी ऐसा करने पर उकसाता है, तभी तो दुष्यंत का यह शेर उसकी सारी शायरी उसकी सोच और समाज को बदलने, संभालने और सजाने के लिए एक मिसाल बन चुका है :-

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो


✍️ ज़िया ज़मीर

ई-13/1, हिमगिरि कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

मो0 - 8755681225

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नूर उज़्ज़मां नूर की दस ग़ज़लों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा आनलाइन साहित्यिक चर्चा


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा  'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 24 अक्टूबर 2020 को मुरादाबाद के साहित्यकार नूरउज़्ज़मां नूर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई। यह चर्चा तीन दिन चली। सबसे पहले नूरउज़्ज़मां नूर ने निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत कीं---

1)
शिकस्ते ज़ात की यह आखिरी निशानी थी
मिरे वुजूद से सैराब रायगानी थी

मुझे चराग़ बनाना था अपनी मिट्टी से
बदन जला के तुम्हें रोशनी दिखानी थी

पकड़ रहा था मैं आँखों से जुगनुओं के बदन
अंधेरी रात थी ,मशअल मुझे बनानी थी

उतर रहा था फ़लक मिट्टी के कटोरे में
ज़मीं सिमटती हुई खु़द में पानी पानी थी

पलक झपकने के इस खेल में पता क्या था
मुझे नज़र किसी तस्वीर से मिलानी थी

2)
रोज़े अव्वल से किस गुमान में हूँ
अपनी छोटी सी दास्तान में हूँ

खु़द ही इम्काँ  निकालता हूँ मैं
खु़द ही इम्काँ  के इम्तिहान में हूँ

एक  नुक़्ता भी जो नहीं भरपूर
अपनी हस्ती के उस निशान में हूँ

ढूंढने निकलूं तो कहीं भी नहीं
मैं जो मौजूद दो जहान में हूँ

बंद दरवाज़ों का भरम हूँ मैं
मुंह से चिपकी हुई ज़बान में हूँ

एक अरसे से यह भी ध्यान नहीं
एक अरसे से किसके ध्यान में हूँ

3)
तिरा गुमान ! उजालों का आसमाँ  है तू
मिरा यक़ीन ! अंधेरों के दरमियाँ  है तू

कोई सनद तो दे अपने कुशादा दामन की
मिरी नज़र मे तो छोटा सा आस्माँ है तू

निकलते ही नहीं ज़ेरो ज़बर के पेचो ख़म
यह किस ज़बान में तहरीर दास्ताँ है तू

मिरे मुरीद मैं सदक़े तिरी अक़ीदत के
तुझे बता दूँ, मिरी तरह रायगाँ  है तू

तिरा उरूज ही दरअसल है ज़वाल तेरा
है बूंद नूर की और ख़ाक मे रवाँ है तू

4)
ज़ात का पत्थर उगल कर आ गया
अपने अन्दर से निकल कर आ गया

हलचलें ठहरी रहीं दरयाऔं में
शोर पानी से उछल कर आ गया

तीरगी से तीरगी मिलती रही
दरमि्याँ  से मैं निकल कर आ गया

आज़माइश धूप की पुर ज़ोर थी
रोशनी का साया जल कर आ गया

आँख से तेज़ाब की बारिश हुई
हड्डियों में जिस्म गल कर आ गया

चेहरा चेहरा जुस्तुजू इक ख़्वाब की
कितनी आँखें मैं बदल कर आ गया

5)
नये फूल खिलते हुए देखता हूँ
मैं इक ज़र्द पत्ता हरी शाख़ का हूँ

बदन के मकाँ से जो घबरा रहा हूँ
न जाने कहाँ मैं पनह चाहता हूँ

मैं शौके जुनूँ मे उड़ाते हुए ख़ाक
सफ़र दर सफ़र ख़ाक में मिल रहा हूँ

मैं अपनी ही आँखों में  चुभने लगा था
सो अपने ही पैरों से कुचला गया हूँ

तो क्या मैं गया भी इसी शहर से था
मैं जिस शहर में लौट कर आ रहा हूँ

मुझे भीड़ मे उसको पहचानना है
जिसे सिर्फ आवाज़ से जानता हूँ

अभी उसके बारे मे दा'वा करूँ क्या
अभी उसके बारे मे क्या जानता हूँ

6)
बन्द है कारोबारे सुख़न इन दिनों
मुझ से नाराज़ है मेरा फ़न इन दिनों

एक बे सूद कश्ती मिरे नाम की
एक दरिया में है मोजज़न इन दिनों

दाद दी है किसी ने बदन पर मिरे
रुह में है उसी की छुअन इन दिनों

फूल किसने बिछाये मिरी क़ब्र पर
ख़ाक दर ख़ाक है एक चुभन इन दिनों

चार शानो पे यारों के जाते मगर
बंद है इस सफ़र का चलन इन दिनों

लोग आते हैं थैली में लिपटे हुए
और चले जाते हैं बे कफ़न इन दिनों

हाल ये हो गया है कि बाज़ार में
बिक रही है दिलो की कुढ़न इन दिनों

7)
धोका है निगाहों का,फ़लक है न ज़मीं है
मौजूद वही है जो कि मौजूद नहीं हैं

इम्काँ के मनाज़िल से ज़रा आगे निकल कर
क्या देखता हूँ मुझ में ,गुमाँ है न यकीं है

इस ख़ाक में मैंने ही बसाये थे कई घर
इस ख़ाक में अब कोई मकाँ है न मकीं है

फिर किसके लिए तूने, बनाई है ये दुनिया
मिट्टी को वह इंसाँ तो, कहीं था न कहीं है

सजदों के निशानात तो दोनों ही तरफ़ हैं
मंज़ूरे नज़र फिर भी,ज़मीं है न जबीं है

हम लोग हैं किरदार मजाज़ी,यह हक़ीक़त
मेरे ही तईं है ,न तुम्हारे ही तईं है

8)
तुझ से जितना मुकर रहा हूँ मैं
ख़ुद में उतना बिखर रहा हूँ मैं

क्या सितम है कि फ़र्ज़ करके उसे
तुझको बांहों में भर रहा हूँ मैं

तुझ को हासिल नहीं हूँ पूरी तरह
यह बताने से डर रहा हूँ मैं

पाप करते हुए सितम यह है
एक नदी मे उतर रहा हूँ मैं

कौन ईमान लाएगा मुझ पर
अपने बुत से मुकर रहा हूँ

मुझसे आगे हैं नक़्शे पा मेरे
यह कहाँ से गुज़र रहा हूँ मैं

9)
रौशन अपना भी कुछ इम्काँ होता ।
कारे  तख़्लीक़,  गर आसाँ  होता ॥

मैं कि आइने से होता न अयाँ  ?
अक्स मे अपने जो  पिंहाँ  होता ॥

उसने देखा ना मुझे ख़स्ता हाल।
देख लेता तो पशेमाँ होता ??

सिर्फ होती जो मिरी हद बंदी ।
यूँ ज़माना ये परेशाँ होता ??

दरो दीवार से होता जो घर  ।
क्या मकाँ मेरा बयाबाँ  होता ?

कब कि माँगी थी ख़ुदाई मैंने।
बस कि इक जिस्म का सामाँ  होता ॥

10)
दरे इम्कान खटखटाता है
एक उंगली से सर दबाता है

न बदल जाए रंग मट्टी का
पानियों को गले लगाता है

जिसके चेहरे पे कोई आँख नहीं
वह मुझे रोशनी दिखाता है

चाक करता है दिल ख़लाऔं का
अपने दिल का ख़ला मिटाता है

घूमता है बदन हवाऔं का
कोई बच्चा पतंग उड़ाता है


इन गजलों पर चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि ग़ज़ल में नयी कहन मुरादाबाद का नाम रौशन करेगी,यह बात बहुत ज़़ल्द सच साबित होगी। हिन्दुस्तानी फ़लसफ़े की खुली हवाओं में सांस लेती, हालात से रूबरू मुखातिब होने वाले भाई नूरुज्ज़मा को हार्दिक शुभकामनाएं।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि शायर नूरुज़्ज़मां की दस ग़ज़लों ने उनकी शायरी के जहान से वाक़िफ़ कराया। पढ़ कर अच्छा लगा। जिस सलीक़े से उन्होने अपने एहसासात और तख़य्युलात का इज़हार किया है उस से उन की फ़िक्री उड़ान का अन्दाज़ा बख़ूबी हो जाता है। उनकी शायरी ग़ज़ल के एतबार से उनकी विशिष्ट शैली के  आहंग और उसलूब में जलवे बिखेरती नज़र आती है। ग़ज़लों में लय भी है सादगी भी है और शाइसतगी भी। रवाँ दवाँ और पैहम ज़िन्दगी के नित नये मसायल की तर्जुमानी में उम्दा तख़लीका़त अश्आर के रूप में ढली हैं।

मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फराज़ ने कहा कि आज जब मुरादाबाद के लिटरेरी क्लब के पोर्टल पर नूर की दस ग़ज़लें पढीं तो बहुत दिनों से ख़याल के घर में सोए हुए पंछी फड़फड़ाने लगे। इसे नूर की शायरी की ताज़गी ही कहा जाएगा कि उसे पढ़ते हुए ज़हनो दिल थकन की चादर उतारकर मज़ीद कुछ पढ़ने का तकाज़ा करने लगे।
वरिष्ठ कवि आनन्द गौरव ने कहा कि  मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत नूर साहब की सभी ग़ज़लें सराहनीय हैं । बड़े अदब से नूर उज़्ज़मा साहब को उनकी अदबी फिक्र औऱ क़लाम के बावत दिली मुबारकबाद।

वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि नूर साहब की ग़ज़लों में उनके भीतर की बेचैनी, कसमसाहट और छटपटाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वह मशअल बनाने के लिए अपनी आंखों से जुगनुओं के बदन पकड़ते हैं और मिट्टी के कटोरे में फ़लक उतारते हैं। उनकी शायरी भीड़ में उसको पहचानने की कोशिश करती है जिसको वह सिर्फ आवाज से जानते हैं। बाजार में दिलों की कुढ़न बिकते हुए देखकर वह कह उठते हैं - ज़ात का पत्थर उगल कर आ गया, अपने अंदर से निकल कर आ गया और सवाल करते हैं तो क्या मैं गया भी इसी शहर से था, मैं जिस शहर में लौट के आ रहा हूं।यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नूर साहब की शायरी  की छुअन देरतक रुह में रहती है
युवा शायर फ़रहत अली ख़ान ने कहा कि नूर भाई की शायरी की सब से बड़ी ख़ासियत है इन की फ़िक्र की वुसअत और फिर अल्फ़ाज़ से उस की बुनाई, इस तरह कि शायरी कहीं भी सपाट नहीं होने पाती। जदीदियत का रंग इन की शायरी का बुनियादी रंग है। जो सादगी इन के मिज़ाज में जगमगाती है, वही इन की शायरी को रौशन करती है। बिला-शुबह नूर भाई में एक बड़ा शायर मौजूद है। इन के पास वो टूल्स भी मौजूद हैं जिन से ये अपने फ़न के स्क्रू भली तरह कस सकते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि मुरादाबाद के  साहित्यिक पटल पर भाई नूर उज़्ज़मां जैसे उम्दा शायर का उभरना अर्थात् मुरादाबाद की गौरवशाली साहित्यिक परम्परा का एक और सुनहरा कदम आगे बढ़ाना।
युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि  वाट्स एप.पर संचालित साहित्यिक समूूूह मुरादाबाद लिटरेरी क््लब पर मुरादाबाद के युवा शायर नूर साहब की सभी ग़ज़लें पढ़ी। बहुत अच्छा पढ़ने को मिल रहा है बहुत-बहुत मुबारकबाद आपको  नूर साहब। 

युवा शायरा मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा प्रस्तुत की गईं नूर उज़्ज़मां जी की सभी ग़ज़लें बेहद उम्द़ा व ग़ज़ल की कसौटी पर खरे सोने से चमकती हुई हैं। 


ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि अच्छी बात यह है कि यह शायरी जो कुछ सोचती है वो बयान करने में हिचकते नहीं है, यानी नूर साहसी शायर हैं जिनसे आने वाले वक़्त में हमें और बेहतर शायरी सुनने को मिलेगी। ऐसा मुझे पूरा यक़ीन है।

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ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" मुरादाबाद।
मो० 8755681225