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रविवार, 26 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा का यात्रा वृतांत.... यादगार रहा नेपाल-भारत साहित्य महोत्सव

नेपाल जाते समय अपने घर से निकलने पर मुझे ऐसे लग रहा था जैसे कोई परीक्षा देने जाना है दिमाग में यही चल रहा था कि कोई जरूरी सामान छूट न जाए। दूर जगह और दूसरा देश। अपने देश की तस्वीर दूसरे देश में प्रस्तुत जो करनी थी चाहे कविता के रूप में, चाहे पहनावे के रूप में या फिर सभ्यता के रूप में। रास्ते में ही पता चला कि हमारा मुख्य हथियार यानि 'कलम' हमसे घर पर ही छूट चुका था, हालांकि यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी, कोई भी पैन पांच-दस रूपए का कहीं से भी खरीद सकता था लेकिन पता नहीं क्यों ,मन में निश्चय कर लिया कि यह पूरी यात्रा बिना कलम के ही करूंगा। 

हमें अलीगढ़ से जोगबनी तक ट्रेन से जाना था और ट्रेन जाने का समय सुबह 9:30 था ,हम कहीं लेट न हो जाएं इसलिए रामपुर के वरिष्ठ गीतकार श्रद्धेय शिवकुमार चंदन जी को अपने घर पर रात्रि में ही बुला लिया था। 16मार्च की सुबह 6:00 बजे से पहले ही,हम लोगों ने बहजोई के ख्याति प्राप्त साहित्यकार श्री दीपक गोस्वामी चिराग जी का दरवाजा खटखटाया। हो सकता है उनकी श्रीमती जी ने कहा भी हो कि यह लोग न खुद सोएंगे, न हमें सोने देंगे, क्योंकि सुबह की नींद का तो आनन्द ही कुछ और होता है।

 कुछ ही देर में साहित्य के हम तीनों सिपाही अलीगढ़ की बस में सवार हुए और समय से पहले स्टेशन पहुंच गए। 'भारतीय रेलवे लेटलतीफी व्यवस्था' का सम्मान करते हुए, ट्रेन निर्धारित समय से मात्र 20 मिनट लेट थी। रेंगती हुई ट्रेन में हम लोग सवार हो गए और ट्रेन झूंमती-झांमती जोगबनी को रवाना हुई। कहीं अंगड़ाई लेती नजर आती तो कहीं स्पीड पकड़ लेती और जहां उसे याद आ जाता कि उसका नाम एक्सप्रेस भी है तो अपने नाम का सम्मान करते हुए थोड़ा और तेज चल जाती। प्रयागराज ,पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन , मीरजापुर आदि होती हुई ट्रेन 25 घंटे की यात्रा पूरी करके जोगबनी स्टेशन पहुंच गई ।बॉर्डर पर ऊंचा तिरंगा देखकर हमारा सीना फूलता महसूस हुआ और फिर शीघ्र ही हमने नेपाल देश की सीमा में कदम रखा, रिक्शे से विराटनगर (महानगरपालिका) शहर पहुंचे।

हमें नेपाल भारत साहित्य महोत्सव में प्रतिभाग करना था, सीधे कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे। श्री रामजानकी मंदिर के पास होटल में कमरा नंबर 13 में, हमारे ठहरने की व्यवस्था थी। तरोताजा होने के बाद हम लोग, श्री रामजानकी मन्दिर में दर्शन करने के उपरान्त, कार्यक्रम में पहुंचे। प्रोफ़ेसर देवी पन्थी जी अपना उद्बोधन दे रहे थे, देखते ही हमारे नाम पुकारे और रुद्राक्ष माला पहना कर व तिलक लगाकर हम सबका स्वागत किया। इस उद्घाटन सत्र में "हिन्दी और नेपाली भाषा का जुड़ाव" विषय पर चर्चा चल रही थी, वक्ताओं ने अपने-अपने सारगर्भित विचार रखे। भारत के सिक्किम, मिजोरम, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के अतिरिक्त नेपाल के दूरदराज क्षेत्रों से भी साहित्यकार इस महोत्सव में पहुंचे हुए थे। वक्ताओं में कुछ जमकर नेपाली भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे और भारतीय वक्ता अपने-अपने क्षेत्रों के इतिहास से जोड़कर, हिन्दी भाषा में धाराप्रवाह बोल रहे थे। हाॅल में सूनापन बिल्कुल नहीं था, क्योंकि जब नेपाली बोलते तो नेपाली भाषा के चहेते चहकने लगते, और जब कोई हिन्दी भाषी बोलते तो हिन्दी प्रेमी लोग तालियां बजाते। कुछ ऐसे भी थे जो दोनों भाषाओं पर अधिकार और ज्ञान रखते, तो वे करतल ध्वनि से दोनों ही भाषाओं का सम्मान बढ़ा देते।

प्रथम दिवस में ही काफी कलमकारों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं, अनूठा माहौल बना हुआ था, इतने में ही संचालक महोदय ने मेरे नाम को बोलते हुए, मंच पर अपना स्थान लेने की बात कही, लेकिन हमें अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि पूरा हॉल उच्च स्तर के वरिष्ठ कलमकारों से भरा हुआ था,न जाने किस दृष्टिकोण से उन्होंने मुझे मंचस्थ करने का फैसला लिया होगा? खैर हम मंच की ओर बढ़ चले और अपनी जगह ले ली। इतने में ही काठमांडू से आए त्रिभुवन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ गज़लकार डॉ घनश्याम परिश्रमी जी को मंच पर आमंत्रित किया गया, मैं उनसे पूर्व परिचित था, वे मेरे पास ही सटकर बैठ गए। अब उस सत्र में अपनी प्रस्तुति देने वालों को सम्मानित करने का जिम्मा, मंच पर मौजूद लोगों का ही था। अंत में मंच के लोगों के बोलने का क्रम शुरू हुआ, जिसमें हमने भी अपने कुछ मुक्तक और छोटी सी रचना प्रस्तुत की ,जिसमें भारतीय संस्कृति को पटल पर रखने की पूरी कोशिश की गई थी। सदन का भरपूर स्नेह मिला और फिर नेपाल-भारत साहित्य महोत्सव के आयोजक मंडल ने अंगवस्त्र ,प्रमाण पत्र व स्मृति चिन्ह भेंट किए। तमाम वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपने गीत,गजल ,हास्य-व्यंग्य आदि पेश किए ,कुछ युवा कलमकार भी थे, ऐसे खुशनुमा माहौल में साहित्य की लहलहाती फसल देखकर, मेरा मन बहुत प्रफुल्लित था।

दूसरे दिन नाश्ते के बाद कार्यक्रम विधिवत प्रारंभ हुआ जिसमें बहजोई के वरिष्ठ साहित्यकार श्री दीपक गोस्वामी चिराग और रामपुर के जाने-माने गीतकार श्री शिवकुमार चंदन जी को पूरे मान-सम्मान से मंचस्थ किया गया था,मुझे लगा कि नेपाल में पहुंचकर मेरा भारत सिंहासन पर विराजमान है। चारु विधा के जनक प्रोफेसर देवी पन्थी जी संचालन कर रहे थे ,नेपाल और भारत के विभिन्न राज्यों से कुछ अतिथि साहित्यकारों को भी मंचित किया गया और फिर सुनने-सुनाने का क्रम चलता रहा, खूबसूरत माहौल का आनंद लेने के बाद दूसरे दिन के कार्यक्रम को संपन्न किया गया।

शाम को बाजार घूमने निकल पड़े क्योंकि मेरा एकादशी का व्रत था,ऊर्जा हेतु कुछ फल या मिठाई खरीदने थे। बाजार में हर जगह भारतीय और नेपाली मुद्रा के लिए दिमाग लगाना पड़ता और फिर वहां महंगाई सिर चढ़कर बोल रही थी, फलों के भाव सुनकर भूख अपने आप विदा हो गई फिर भी कुछ संतरे ,अंगूर और मिठाई खाकर व्रत पूर्ण किया। मैंने महसूस किया कि स्थानीय लोगों में कठोरता बिल्कुल नहीं थी और न ही कोई चालाकी। कई सरल-हृदय लोगों से संपर्क हुआ उनमें हमारे प्रति सम्मान की भावना झलकती, यानि वहां के अधिकांश लोग दिल के धनी थे। एक जगह जरूर ऐसा मौका आया,  जहां रिक्शेवाले ने हमें बाहरी समझते हुए, चार सौ की जगह एक हजार रूपये भाड़ा मांगा, वहां हमने भी स्वयं को विदेशी स्वीकार करने में देर नहीं लगाई।

हिन्दी भाषा के चलन को लेकर वाकई नेपाल देश की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी होगी कि वहां पर आज भी मुद्रा पर हिन्दी अंकों का चलन है और वाहनों पर लगी नंबर प्लेट पर नम्बरों को, देवनागरी लिपि में ही लिखा जाता है,इस विषय पर मैं कहूंगा कि भारत सरकार को भी यह शिक्षा लेनी चाहिए ताकि हिन्दी को बढ़ावा दिया जा सके।

तीसरे दिवस नाश्ते में पतली-पतली करारी जलेबी और चने की दाल के साथ कचौड़ी का लुफ्त लेने के बाद कार्यक्रम हॉल में पहुंचे, आज समापन-सत्र था और हम "क्या खोया-क्या पाया" जैसे विषय पर , मन-मन ही मंथन कर रहे थे। देखा तो क्रान्तिकारी साहित्य अकादमी के संस्थापक व कार्यक्रम संयोजक डॉ विजय पंडित आज का संचालन कर रहे थे। सदन में, नेपाली और हिंदी भाषा में लिखी पुस्तकों का, एक-दूसरी भाषा में अनुवाद को लेकर चर्चा जारी थी। प्रश्नोत्तर चल रहे थे, समस्याओं के समाधान हेतु मंच पर डॉ घनश्याम परिश्रमी जी के साथ ही हिन्दी और नेपाली भाषा के विशेषज्ञ मौजूद थे। धीरे-धीरे कार्यक्रम समापन की ओर बढ़ता चल रहा था,अंत में सभी एक दूसरे को विदा करने और मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान करने में व्यस्त दिखाई पड़े।

 हमने कार्यक्रम के उपरान्त शहर के निकट, राजा विराट के महल के भग्नावशेष देखने का निश्चय किया, जो उस स्थान से 8 किलोमीटर की दूरी पर, यादव जाति बाहुल्य गांव भेड़ियारी में था। गांव पहुंचने पर देखा कि चारदीवारी में खंडहरनुमा अस्त-व्यस्त टीला और पड़ोस में माता भुवनेश्वरी का मंदिर और विराटेश्वर महादेव का मंदिर बना था। इस स्थान के संरक्षक श्री कमल किशोर यादव जी से मुलाकात हुई जिन्होंने निजी स्तर पर कुछ पुराने अवशेष एकत्रित कर रखे थे, जैसे - नापतोल के बाट, प्राचीन शिलालेख, सिलौटा, मूर्तियां, हाथी दांत का पासा, तांबे व अन्य धातु के सिक्के, मूंगा रत्न आदि। सरकार की उदासीनता पर यादव जी खासे नाराज दिखे हालांकि कुछ समय पहले ही प्रशासन ने राजा विराट के नाम पर संग्रहालय और उसके सामने चौक में राजा विराट की प्रतिमा स्थापित की है।

बताया जाता है कि जोगबनी का प्राचीन नाम सुंदरवन था जिसमें ऋषियों के तपस्या करने के कारण इसका नाम बाद में योगमुनि, तत्पश्चात जोगबनी पड़ा। यहीं पर प्राचीन काल में एक शमी का वृक्ष था जिस पर पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छुपा दिए थे और दुर्योधन से छुपते हुए, मत्स्य देश के राजा विराट के महल में नाम परिवर्तन कर, अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था जिसमें युधिष्ठिर ने अपना नाम कंक रखा और एक ब्राह्मण सलाहकार एवं मंत्री की भूमिका में रहे, भीम ने अपना नाम बल्लभ रखकर रसोई का कार्य संभाला, अर्जुन ने बृहन्नला नाम रखकर राजा के यहां संगीत-नृत्य सिखाया, नकुल ने अपना नाम ग्रन्थीक रखते हुए अश्वसेवक के रूप में कार्य किया, सहदेव ने तंत्रिपाल नाम से चरवाहा बनकर गायों की जिम्मेदारी ली और द्रौपदी ने सैरन्द्री नाम रखकर रानी के श्रृंगार करने का काम किया।

इस तरह पांडवों ने एक वर्ष तक अपने को छुपाए रखा, वहीं के लोगों ने बताया कि भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र पर ही कीचक वध पोखर है जो कि आज भी अस्तित्व में है, जिनके संरक्षण हेतु प्रयासों की बहुत कमी है। खैर! इतिहास सहेजे रखने के लिए, ऐसे स्थलों को सुरक्षित रखना चाहिए।

अब हमारी ट्रेन का समय हो चला था हम लोग तुरन्त होटल पहुंचे और फिर "अलविदा नेपाल" कहने का समय आ गया। जैसे ही नेपाल बॉर्डर से निकलकर भारत की सीमा पर कदम रखे, दिल में कुछ अलग-सी खुशी और हलचल होने लगी। रात्रि में लहराता ऊंचा तिरंगा देखकर सीना चौड़ा हो गया और मन में अविस्मरणीय उत्साह। गाड़ी ठीक समय पर चल पड़ी, हम लोग पूरी रात और दिनभर सफर करने के बाद रात में एक बजे, इस यात्रा के परम सहयोगी कवि दीपक गोस्वामी जी के घर पहुंचकर, रात्रि विश्राम किया और सुबह दही-पराठे खाकर अपने घर को निकल पड़े।

घर पहुंचते-पहुंचते मैं भरपूर थक चुका था, हल्की झपकीं में भी रेलगाड़ी के झोंकें पीछा नहीं छोड़ रहे थे, फिर भी इतना अवश्य चाहुंगा कि साहित्य सेवा के लिए मैं कभी थकूं नहीं, रुकूं नहीं, और सतत् मेहनत करता रहूं, ऐसे पावन मौके मेरे जीवन में बार-बार आते रहें, ईश्वर से यही प्रार्थना है‌।























✍️ अतुल कुमार शर्मा

सम्भल

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-8273011742

शनिवार, 3 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की कृति ....लोकधारा 8 । यह कृति वर्ष 2022 में विश्व पुस्तक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई है। इस कृति में उनकी पूर्व प्रकाशित यात्रा वृत्त कृतियां संभावना के देश में ( दुबई– आबूधाबी), तीन कदम और (फ्रांस, स्विटजरलैंड, इटली), कैप्टन जेम्स कुक के देश में( आस्ट्रेलिया), मुस्कानों के देश में (थाईलैंड कंबोडिया वियतनाम), के देश में(नेपाल), पर्यावरण के देश में(ऑस्ट्रेलिया जर्मनी बेल्जियम नीदरलैंड) और सुमनों के देश में(भूटान) समाहित हैं...



 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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https://acrobat.adobe.com/id/urn:aaid:sc:AP:5b0a4105-1afc-444a-a61f-dfca06d53e42 

::::::::प्रस्तुति::::;::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन  नंबर 9456687822

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की कृति ....लोकधारा 7 । यह कृति वर्ष 2022 में विश्व पुस्तक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई है। इस कृति में उनकी पूर्व प्रकाशित यात्रा वृत्त कृतियां सौन्दर्य के देश में ( नार्वे– स्वीडन), कर्मवीरों के देश में (ट्रिनिडाड–टुबैगो), श्रमजीवी के देश में( ताशकंद–समरकंद), संवेदना के देश में (मॉरिशस), सदाचार के देश में(नेपाल), दशानन के देश में(श्री लंका) और अनुशासन के देश में(सिंगापुर) समाहित हैं...



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::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का गोवा यात्रा वृतांत (4-7 फरवरी 2021) ----सागर में एक लहर उठी तेरे नाम की...

      


      गोवा में सागर देखा तो पहली बार पता चला कि जलराशि कितनी विशाल हो सकती है ! बात केवल विशालता की ही नहीं है । सागर के स्वभाव से परिचय तब हुआ, जब उसके तट पर कुछ देर बैठना हुआ। सागर तो शांत बैठ ही नहीं रहा था । हम शांत बैठे हुए सागर को देख रहे थे और समुद्र निरंतर शोर करता जा रहा था ।

  एक लहर उठती थी ..दूर से आती हुई दिखती थी .. फिर धीरे-धीरे पास आती थी और पानी का उछाल बन जाती थी । इसके बाद वह तट पर आकर बिखर जाती थी । जब तक यह लहर बिखरती और लहर का शोर समाप्त होता ,ठीक उससे ही पहले एक और लहर दूर से बनती हुई नजर आ जाती थी । वह लहर पहली वाली लहर की तरह ही आगे बढ़ती थी । जल की दीवार-जैसी धार में बदल जाती थी । पानी बिखरता था और तेजी के साथ तट पर चारों तरफ फैल जाता था । यह क्रम बराबर चल रहा था। एक मिनट के लिए भी ...और एक मिनट तो बहुत देर की बात है ,एक सेकेंड के लिए भी यह क्रम नहीं रुकता था। तब यह जाना कि सागर में लहर का उठना और बिखर जाना ...फिर उठना और फिर बिखर जाना, यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । इसमें किसी भी प्रकार का विराम अथवा अर्धविराम संभव नहीं है । समुद्र अपनी गर्जना करता रहेगा । लहरों को पैदा करेगा और लहर फैलकर फिर समुद्र में ही मिल जाएगी । यही तो समुद्र की विशेषता है।


 समुद्र में लहरों का उठना और बिखर कर फिर समुद्र में मिल जाना ,यह एक तरह की समुद्र की श्वास- प्रक्रिया है । जिस तरह मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी बिना साँस लिए जीवित नहीं रह सकता ,वह बराबर साँस लेता रहता है और छोड़ता रहता है, ठीक उसी प्रकार समुद्र के गर्भ से लहरें उत्पन्न होती हैं और फिर समुद्र में ही विलीन हो जाती हैं। यही समुद्र की जीवन - प्रक्रिया है । यही समुद्र के लिए जीवन का क्रम है। समुद्र की लहरों को जीवन की शाश्वत - प्रक्रिया के रूप में मैंने देखा । आखिर एक लहर का जीवन ही कितना है ! कुछ सेकंड के लिए अस्तित्व में आई और फिर सदा - सदा के लिए समुद्र में विलीन हो गई । न लहर की कोई अपनी अलग पहचान होती है और न उसका कोई अलग से नाम होता है ।

   हर लहर अपने आप में समुद्र ही तो है ! समुद्र ही लहर बनता है । समुद्र ही लहर के रूप में आगे बढ़ता है । लहर फिर समुद्र बनकर समुद्र में ही मिल जाती है । क्या हुआ ?  कुछ भी तो नहीं ! क्या जीवन और क्या मृत्यु ? एक क्रम चल रहा है ,अविराम गति से तथा जब तक समुद्र है तब तक यह क्रम चलता रहेगा । तट पर बैठकर हम इस दृश्य को निहारते हैं और अगर हमने इसे समझ लिया तो फिर लहरों में और समुद्र में कोई अंतर नहीं रहेगा । लहर उठना और मिट जाना ,यह एक साधारण सी बात हो जाएगी ।  क्या इसी का नाम *आत्मज्ञान* है ?

      आर्ट ऑफ लिविंग के कार्यक्रमों में इन पंक्तियों को हमने न जाने कितनी बार गाया और दोहराया होगा : 

 सागर में एक लहर उठी तेरे नाम की

 तुझे मुबारक खुशियाँ आत्मज्ञान की

          पर जब तक सागर प्रत्यक्ष न देखो और लहरों का दर्शन कुछ देर ठहर कर न करो ,कुछ भी समझ में नहीं आएगा । सारा मामला ही अनुभूतियों का है । अनुभूतियों की समृद्धि ही हमें धनवान बनाती है । इसी में जीवन का सारा सार छिपा हुआ है । समुद्र के तट पर सागर और लहर को देखकर जीवन का सार समझ में थोड़ा-थोड़ा आने लगा । थोड़ा-थोड़ा इसलिए क्यों कि न समुद्र की गहराई का हमें पता है और न इसकी विशालता का। जैसे आसमान अनंत है ,वैसे ही ज्ञान भी अनंत है । हम उसके किसी भी ओर -छोर का पता नहीं लगा सकते ।


 समुद्र के तट पर चार फरवरी 2021 को पहुँचते ही हमने पहली फुर्सत में सूर्यास्त के दर्शन किए । डूबता हुआ सूरज देखना स्वयं में एक खुशी का अनुभव होता है । लाल बहता हुआ अंगारे के समान सूर्य जब धीरे-धीरे नीचे आता है और समुद्र के जल में मानो विलीन हो जाता है ,तब पता चलता है कि जैसे समुद्र का पानी सूर्य की तेजस्विता को सोख कर और भी धनवान हो गया । लेकिन फिर यह बिखरी हुई ठंडी रोशनी का नजारा धीरे-धीरे गायब होने लगता है और अंधेरा फैलने लगता है ।

       अंधेरा होने से पहले ही सूर्यास्त की बेला में मैंने दो कुंडलियाँ ,जो यात्रा के दौरान लिखी थीं, पढ़कर तट पर सुनाईं और उन्हें मेरी पुत्रवधू ने वीडियो - रिकॉर्डिंग के द्वारा कैमरे में सुरक्षित कर लिया । एक कुंडलिया का शीर्षक था  'आओ प्रिय गोवा चलें' तथा दूसरी कुंडलिया का शीर्षक 'सागर और लहर' था

           समुद्र के जल से पैरों का स्पर्श होना एक विद्युत प्रवाह की घटना महसूस हुई । अपनी जगह मैं तो खड़ा रहा। मगर  समुद्र चलकर मेरे पैरों के पास आया । हल्का - सा झटका लगा ...और फिर सब कुछ सामान्य । समुद्र की ओर मैं थोड़ा और आगे बढ़ा । इस बार लहरों का प्रवाह कुछ तेजी के साथ महसूस हुआ । पैरों को समुद्र ने न केवल धोया बल्कि पैरों की मालिश भी की। मैं थोड़ा और आगे बढ़ा । इस बार लहरें एक दीवार की तरह सामने से आती हुई बिल्कुल निकट थीं। घुटनों तक उन्होंने मुझे भिगो दिया । मैं नेकर पहने हुए था । वह भी हल्का - सा भीग गया। पानी नमकीन था । मैंने दो बूँद चखकर देखा।

          सागर चरण पखारे --किसी कवि के कहे गए यह भाव दिमाग में गूँज रहे थे। मन ने किसी कोने से आवाज देकर कहा "अरे नादान ! यह तो किनारे पर खड़े हुए हो, इस कारण सागर तुम्हारे चरणों को धो रहा है। अन्यथा कहाँ तुम और कहाँ बलशाली समुद्र ! अगर टकरा गए तो फिर कहीं के नहीं रहोगे । छह फुट का आदमी सागर की अनंत गहराइयों के मुकाबले में कहाँ दिखेगा ? "

      मैंने दूर से ही सागर को प्रणाम करने में भलाई समझी । हमारे धन्य भाग्य जो हम तट पर आए और सागर स्वतः प्रक्रिया के द्वारा हमारे स्वागत के लिए अपने जल के साथ हमारे चरणों को धोने के लिए उपस्थित हो गया ।


    समुद्र के तट पर सूर्योदय का अनुभव भी अद्भुत रहा । हम सुबह - सुबह तट पर पहुँचे । सोचा ,आज सुबह की सुदर्शन क्रिया और ध्यान समुद्र के तट पर ही करेंगे । वहां पहुँचकर तब बहुत खुशी हुई जब देखा कि लगभग एक दर्जन व्यक्ति गोल घेरा बनाकर काफी दूर पर बैठे हुए थे तथा कुछ ऐसी क्रियाएँ कर रहे थे ,जिसका संबंध कहीं न कहीं किसी उत्साहवर्धक योग - साधना से जुड़ता है । मेरा अनुमान सही था। जब हम अपनी क्रिया पूरी करके समुद्र तट से वापस जाने के लिए मुड़े ,लगभग उसी समय योगाभ्यासियों का समूह भी वापस जा रहा था । एक तेजस्वी महिला ग्रुप में पीछे रह गई थीं अथवा यूँ कहिए कि वह पीछे- पीछे चल रही थीं। आयु पैंतीस-चालीस वर्ष रही होगी । चेहरे पर तेज था । मैंने पूछा " मैं यहाँ आर्ट ऑफ लिविंग की सुदर्शन क्रिया कर रहा था । क्या यहाँ आप लोग योग करने के लिए उपस्थित हुए हैं ? "

            वह कहने लगीं " हम लोग योग नहीं कर रहे थे बल्कि कोर्स कर रहे थे । हम लोग सूफी - मेडिटेशन कराते हैं । तीन - चार दिन का कोर्स रहता है । अगर आप कोर्स करने में रुचि लें तो हमसे संपर्क कर सकते हैं ।"

       इसके बाद न तो मैंने कोर्स करने की इच्छा प्रकट की और न उन्होंने अधिक बातचीत करने में दिलचस्पी दिखाई । बाद में वह महिला हमारे होटल/रिसॉर्ट में ही फिर दिखाई दीं। दरअसल जिस समुद्र तट की मैं बात कर रहा हूँ, वह हमारे होटल " बैलेजा बॉय द बीच " का ही समुद्र तट है । रिसॉर्ट के पास समुद्र का तट है तथा रिसॉर्ट से समुद्र तट तक जाने के लिए मुश्किल से पाँच मिनट का पैदल का रास्ता है ,जो खूबसूरत पेड़ों से घिरा हुआ तथा पक्के फर्श का बना हुआ है।


    समुद्र के तट पर मैंने अपनी सुदर्शन क्रिया तथा प्राणायाम आदि को दोहराया , जिन्हें मैं सितंबर वर्ष दो हजार सात से प्रतिदिन घर पर करता रहा हूँ। ध्यान में इस बार विशेष आनंद आया । ध्यान जल्दी लगा , अच्छा लगा और नारंगी रंग का प्रकाश बंद आंखों के सामने सौम्यता से खिलता हुआ उपस्थित था। यह प्रकाश जितना नजदीक नजर आ रहा था ,उतना ही दूर - दूर तक फैला हुआ था । मध्य में कभी ऐसा लगता था कि कुछ खालीपन है और कभी सब कुछ नारंगी प्रकाश से भरा हुआ लगता था । प्रकाश में किसी प्रकार की उत्तेजना अथवा चकाचौंध नहीं थी । अत्यंत शांत मनोभावों को यह नारंगी प्रकाश उत्पन्न कर रहा था । संसार से थोड़ा कटकर और थोड़ा जुड़े रहकर स्थिरता का यह भाव पता नहीं कितनी देर तक रहा । पाँच मिनट ..दस मिनट ..बीस मिनट ..कह नहीं सकता ? फिर उसके बाद सृष्टि की विराटता और भी निकट आ गई थी । सूफी मेडिटेशन की शिक्षिका से संवाद सुदर्शन क्रिया करने के बाद ही हुआ था ।

       समुद्र तट पर दस-बारह स्त्री-पुरुषों का एक अलग जमावड़ा थोड़ी दूर पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था । यह पचास-पचपन साल के व्यक्तियों का समूह था ,जिसमें कुछ लोग पैंसठ वर्ष के भी जान पड़ते थे । गोवा के समुद्र तट पर यह लोग भी हमारी तरह ही घूमने आए थे।

         पालोलिम और कोल्बा के समुद्र तटों पर भीड़भाड़ और चहल-पहल बहुत ज्यादा थी । कोल्बा के समुद्र तट पर हम दोपहर को गए थे । सिर पर हैट तथा आँखों पर धूप के चश्मे ने हमें सूरज की तेज गर्मी से बचा लिया अन्यथा आँखों का बुरा हाल हो जाता । यद्यपि नेकर पहने हुए थे फिर भी गर्मी सता रही थी । अधिक देर तक तट पर बैठना कठिन हो रहा था । समुद्र और जल के कारण कुछ ठंडक रहती होगी लेकिन उसका आभास न के बराबर था। जितनी देर समुद्र में पैर पड़े रहते थे, ठीक-ठाक लगता था । रेत पर आकर फिर वही झुलसती हुई गर्मी ! मगर सब आनन्द से घूम रहे थे । सबके चेहरे पर मस्ती और मौज का भाव था ।


 पालोलिम का समुद्री तट तो एक मेले के समान था । थोड़ी-बहुत एक बस्ती और बाजार बसा हुआ था । छोटा-मोटा शहर इसे कह सकते हैं । समुद्र का जल तो एक जैसा ही होता है ,लेकिन बेलेजा रिसोर्ट के समुद्र तट का जल कुछ ज्यादा साफ नजर आया। हो सकता है ,यहाँ भीड़ - भाड़ न होने के कारण अथवा मोटरबोट न चलने के कारण सफाई कुछ ज्यादा रहती हो। जो भी हो , समुद्र के तट का आनन्द समुद्र की लहरों में विराजमान होता है । यह लहरों का गर्जन ही इसे आकर्षण प्रदान करता है।

 गोवा यात्रा के दौरान आनन्द और मस्ती के क्षणों कुछ कुंडलियों की भी रचना हुई । प्रस्तुत हैं ---- 13 कुंडलियाँ

🌷  *(1) आओ प्रिय गोवा चलें* 🌷

आओ  प्रिय  गोवा चलें ,सागर तट के पास 

मैं तुममें मुझ में करो ,तुम खुद का आभास

तुम  खुद  का आभास ,सिंधु की फैली राहें

जितनी  दिखें  विराट , एक  दूजे  को  चाहें

कहते रवि कविराय , गीत लहरों सँग गाओ

रहो   सदा   स्वच्छंद ,  घूमने   गोवा  आओ

🌻 *(2) सागर और लहर* 🌻

सागर तट पर जब दिखा ,मस्ती का अंदाज

मैंने  पूछा  सिंधु  से ,  क्या  है  इसका  राज 

क्या  है  इसका  राज , सिंधु ने यह बतलाया

लहरें   मेरी  मुक्त ,  व्यक्त   करती  हैं  काया

कहते रवि कविराय , लहर हर खुद में गागर

सागर का प्रतिबिंब , समझिए  इसको सागर

🌸 *(3) वायुयान की सैर* 🌸

आओ  करते   हैं   चलें , वायुयान  की   सैर

ऊपर  से  धरती  लगे , लोक  एक  ज्यों  गैर

लोक  एक  ज्यों  गैर , बादलों  से  उठ  जाते 

नीचे   बादल  यान ,  उच्च  की   सैर   कराते

कहते  रवि कविराय ,सात लोकों तक जाओ

बादल  सारे  चीर , घूम  कर  वापस   आओ

🌹 *(4) सागर* 🌹

सागर  को  केवल  पता , होता  क्या तूफान

किसको  कहते  ज्वार  हैं ,आते  तुंग समान

आते  तुंग   समान ,  नदी   सागर  से  छोटी

झील  और   तालाब ,  खेलते  कच्ची  गोटी 

कहते रवि कविराय ,शेष सब समझो गागर 

जल अथाह भंडार ,नील -  नभ होता सागर

 *तुंग* =पहाड़

🍁 *(5) लहर में पाँव भिगोएँ* 🍁

तट  पर सागर के चलें ,सुनें सिंधु का शोर 

मैं  देखूंँ  तुमको  प्रिये , तुम प्रिय मेरी ओर 

तुम  प्रिय  मेरी ओर ,लहर में पाँव भिगोएँ

नयन - नयन  में  डाल , एक दूजे में खोएँ

कहते रवि कविराय ,नेह की भाषा रटकर

हम  पाएँ  उत्कर्ष , सिंधु के पावन तट पर

🏵️  *(6)मादक अपरंपार* 🏵️

आकर  गोवा  में  जिओ ,मस्ती का संसार

शहद  हवा  में ज्यों घुला ,मादक अपरंपार

मादक   अपरंपार ,  मधुर   रंगीन   अदाएँ

घने  नारियल वृक्ष , लहर  सागर  की पाएँ

कहते रवि कविराय ,सुहाना मौसम पाकर

 पहनो नेकर  रोज , स्वर्ग - गोवा में आकर

🍃🍂 *(7) सागर तट पर*🍂🍃 

परिचय सागर ने दिया ,कर के चरण पखार

बोला   बंधु   पधारिए ,  स्वागत   मेरे   द्वार 

स्वागत  मेरे  द्वार , कहा  हमने  बस काफी

आलिंगन  का  अर्थ ,  नहीं   पाएँगे   माफी 

कहते  रवि कविराय ,जिंदगी का होता क्षय

बलवानों  के  साथ , मित्रता  दुष्कर परिचय

🟡 🪴 *(8)लहर* 🪴 🟡

बहती जैसे  है  नदी , सदा - सदा अविराम

वैसे  ही  क्षण-भर कहाँ ,सागर को आराम

सागर  को   आराम ,  हमेशा  नर्तन  करता

घुमा-घुमा कर पेट , सिंधु आलस सब हरता

कहते रवि कविराय ,लहर सागर की कहती

मैं सागर की  साँस , जिंदगी  बनकर  बहती

✳️ *(9)देखा गोवा* ✳️

देखा गोवा हर जगह ,खपरैलों का भाव

संरक्षण  प्राचीन  का , भवनों  में है चाव

भवनों  में  है  चाव ,मनुज हरियाली गाते

वृक्ष नारियल बहुल , हर जगह पाए जाते

कहते रवि कविराय ,सिंधु है जीवन-रेखा

मस्ती का  अंदाज ,  अनूठा  तुझ में देखा

🌸 *(10)कैसीनो में लोग* 🌸

आते   पैसा  जीतने  ,  कैसीनो   में   लोग

गोवा में अद्भुत दिखा , किस्मत का संयोग

किस्मत  का  संयोग ,अंक पर दाँव लगाते

हर  चक्कर  के  साथ ,जुआरी खोते - पाते

कहते  रवि कविराय ,स्वप्न - नगरी में जाते

सैलानी   स्थानीय ,  रात   मस्ती   में  आते 

🌻 *(11)सिंधु गरजता* 🌻

सिंधु  गरजता  हर  समय , नदी  बह रही शांत

अपने-अपने भाव  हैं , दोनों  कभी  न  क्लांत

दोनों  कभी  न  क्लांत , एक  को शोर मचाना

दूजे  को  प्रिय  मौन ,  सत्य  जाना - पहचाना

कहते रवि कविराय ,सुकोमल पर चुप सजता

उच्छ्रंखल  बलवान , रात - दिन  सिंधु गरजता

*क्लांत* = थका हुआ

🟡 *(12) लहरें पहरेदार* 🟡

पहरेदारी    कर   रहीं ,  लहरें   चारों   ओर

सागर   में   घुसने   नहीं , पाए   कोई  चोर

पाए  कोई   चोर , शोर  हर  समय  मचातीं

सदा  सजग   मुस्तैद  , घूमती  पाई   जातीं

कहते रवि कविराय ,जागना हर क्षण जारी

पाओ   इनसे   ज्ञान ,  सीख  लो  पहरेदारी

🟡 *(13)आओ कैसीनो चलें*  🟡

व्याख्या जीवन की यही ,जीवन है टकसाल

आओ   कैसीनो   चलें ,  खेलें   कोई   चाल

खेलें   कोई   चाल , जीतकर   बाजी   आएँ

कुर्सी  पर  फिर  बैठ ,अंक  पर   दाँव लगाएँ

कहते रवि कविराय ,जिंदगी की यह आख्या

जुआ मस्तियाँ मौज ,मधुर साँसों की व्याख्या

*टकसाल* = जहाँ सिक्के ढलते हैं

✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल फोन नम्बर  99976 15451