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मंगलवार, 27 अगस्त 2024

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का आत्मकथात्मक संस्मरण.... नारियल के खोल में छलांग मारती संवेदना


जुलाई का महीना था स्कूलों में पढ़ाई चालू हो गई थी.  मैं जिस कक्षा में था उसमें कामर्स के टीचर श्री के.के.गुप्ता जी बड़ी ही तल्लीनता से पढ़ा रहे थे. मैं सबसे आगे की सीट पर बैठा था.  मैं क्योंकि अन्य विद्यार्थियों के मुकाबले क़द में कुछ छोटा था इसलिए मुझे आगे की सीट मिली थी और ‘बाई चांस’  यह वह सीट थी जो टीचर के एक दम सामने की थी.  टीचर ज़रा सा हाथ बढ़ा दें तो उनका हाथ मेरे गाल पर झांपड़ के नाम से आसानी से अलंकृत हो सकता था.  गुप्ता जी  बहुत ही अच्छा पढ़ाते थे. पढ़ाते समय उनकी तल्लीनता किसी भी साधक से कम नही थी.  अचानक ही पढ़ाते-पढ़ाते उनकी तल्लीनता तब टूटी जब उनकी गहरी नज़र मुझ पर पड़ी और कुछ देर तक ठहरी रही . फिर  वे अचानक ही मुझ पर गुस्सा होते हुए और लगभग चीखने के स्वर में बोले ---‘कुंअर बहादुर, तुम बहुत गंदे कपडे़ पहनकर आये हो.  इतने बड़े हो गए हो, नवीं क्लास में हो, तुम्हें इतनी समझ नहीं है कि इतने गंदे कपडे़ पहनकर स्कूल नहीं आया जाता.’.... 

मैंने सजग होकर अपने कपड़ों की ओर देखा, सचमुच वे बहुत ही गंदे थे. मैं आपको बता नहीं सकता कि उस वक्त मैं अपने कपड़ों को देखकर कितना शर्मिंदा हुआ था.  गुप्ता जी ने मुझे मेरे कपड़ों को लेकर इतना डांटा, इतना डांटा कि मैं भीतर-भीतर रो उठा था. मेरी हिचकी बंध गई थी.... मुझे लगा कि मैं कक्षा में ही जोर से रो पडूंगा, अतः मैंने क्लास से बाहर जाना ही उचित समझा. मैं झट  से अपनी सीट से उठा और क्लास से बाहर चला गया. क्लास के सभी लड़कों ने मुझे जाते हुए देखा,  मेरा मुंह नीचे को लटका हुआ था और आँखें भीगी हुई थीं. श्री गुप्ता जी भी हक्के-बक्के से रह गए थे….. 

 अचानक पीछे की सीट से एक लड़का खड़ा हुआ और टीचर जी को संबोधित करते हुए बोला---‘गुरु जी, आपने कुंअर को डाटकर अच्छा नहीं किया. यह मेरा पक्का दोस्त है. हम लोग साथ-साथ ही स्कूल आते हैं और साथ-साथ ही घर लौटते हैं. बहुत मेल-जोल है हमारा ...  वह  कहता जा रहा था--‘गुरु जी, आपको नही पता कि कुंअर बिना माँ-बाप का लड़का है.  उसके पिता जी तब नही रहे थे जब ये दो महीने का था,  माँ तब नहीं रही थीं जब ये सात साल का था.  जीजी और जीजा जी के यहाँ तब आ गया था जब यह दो साल का था.  अब चार साल पहले इसकी बहन की भी मृत्यु हो गई. अब केवल यह और  जीजा जी ही साथ-साथ रहते हैं. घर में कोई महिला नहीं है. ये खुद ही खाना बनाता है. बहुत कठिनाई में रहकर मेहनत से पढ़ रहा है. आठवीं कक्षा  मिडिल स्कूल से पास की है और फर्स्ट डिवीजन पास हुआ है..... 

यह लंबा लड़का मेरा दोस्त बिजेंद्र ही था जिसकी झिझक खुली हुई थी. मैं बहुत संकोची था. वह श्री के.के.गुप्ता जी से कहता जा रहा था. –‘मास्टर जी इसके पास दो जोडी कपडे हैं. एक जोड़ी धोकर अगले दिन के लिए तैयार कर लेता है. अब कई दिनों से बारिश हो रही है तो दूसरी जोड़ी वाले कपडे सूखे नहीं थे. इसे स्वयं संकोच भी था किन्तु स्कूल का नागा भी तो नहीं करना चाहता था....

मेरा यह दोस्त मेरे बारे में सब कुछ सच ही बोल रहा था..... 


 सचमुच जब प्रथम श्रेणी में मिडिल पास कर लेने के बाद अपने शहर चंदौसी के मिडिल स्कूल को छोड़ना पड़ा था तो मैं बहुत दुखी  हुआ था.... मगर यह स्कूल तो मुझे छोड़ना ही था क्योंकि यह तो था ही आठवीं क्लास तक.  उन दिनों हमारे शहर चंदौसी में जिस हाई स्कूल का बहुत नाम था वह था  बारह्सैनी हाई स्कूल.  अब तो इसका नाम चंदौसी इंटर कालिज हो गया है.  जब हम पढ़ते थे तो यह दसवीं क्लास तक था  श्री एस आर अत्री प्रिंसिपल थे . अब बारहवीं क्लास तक है.  इस स्कूल की  पढाई और इसका रिजल्ट अन्य सभी स्कूलों के मुकाबले सबसे अच्छा रहता था.  मेरे जीजा जी श्री जंगबहादुर सक्सेना जी का मन था कि मेरा एडमीशन इसी स्कूल में हो.   उन दिनों इस स्कूल में नवीं कक्षा में एडमीशन मुश्किल से ही मिलता था.  क्योंकि इस स्कूल के छठी कक्षा से पढने वाले विद्यार्थी जब आठवीं से नवीं कक्षा में आते थे तो नवीं कक्षा की सब सीटें भरी होती थीं.  अतः दूसरे स्कूल के नए विद्यार्थियों को प्रवेश मिलने में कठिनाई होती थी.  हाँ, आठवीं कक्षा में यदि कुछ लड़के फेल हो जाते थे और उनको नवीं कक्षा में एडमिशन नहीं मिलता था तो जो उनकी जगह खाली हो जाती थी. उसी खाली जगह को दूसरे स्कूल के विद्यार्थियों का एडमिशन करके भर लिया जाता था.  उस साल आठवीँ कक्षा में कई लड़के फेल हो गए थे इसलिए मुझे और मेरे दोस्त बिजेंद्र को एडमिशन मिल गया.  बिजेंद्र और मेरा दोस्ताना मिडिल स्कूल से ही था.  मेरी और उसकी दोस्ती का मूल आधार हमारे अभाव ही थे.  उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसकी माँ बच्चों की परवरिश करने के लिए दूसरों के घरों में रोटी बनाकर अपना घर चलाती थीं.  मैं भी बिना माँ-बाप का लड़का था और जीजा जी द्वारा पालित पोषित था . बहरहाल मेरा और मेरे दोस्त बिजेंद्र का एडमिशन इस स्कूल में हो गया. ...

 उन दिनों नवीं कक्षा से ही. साइंस, आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता था. जो संपन्न घर के बच्चे होते थे वे साइंस साइड लेते थे क्योंकि उनके माता-पिता का लक्ष्य अपने बच्चे को डाक्टर बनाना होता था., जो बिलकुल सामान्य घरों के बच्चे होते थे वे आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करते थे.  उन दिनों गरीब बच्चों के संरक्षक अधिकतर अपने बच्चों को कामर्स दिलवाते थे.  उनका यह विश्वास था कि कामर्स पढ़कर उनका बच्चा कम से कम क्लर्क तो बन ही जाएगा.  रोटी खाने के लिए तो पैसे क्लर्की करने पर भी मिल ही जायेंगे.  वैसे  उन दिनों सामान्यतः  न तो बच्चे ही इतने सचेत थे और न उनके माता-पिता जोकि  बच्चे के भविष्य को देखकर उन्हें आगे पढने के लिए सही साइड का चुनाव कर सकें या करा सकें .  साइड का चुनाव बिना सोचे-समझे हुआ करता था. दोस्त ने साइंस ली तो दूसरे ने भी साइंस ले ली.  उन दिनों बच्चों की दोस्ती ही साइड के चुनाव करने का आधार थी.  हमारे साथ भी यही हुआ.  लोगों ने जीजा जी को सुझाया कि कुंवर को कामर्स दिलवा दो.  इस तरह मैंने कामर्स साइड का चुनाव किया तो मेरे दोस्त बिजेंद्र ने भी कामर्स का ही चुनाव किया.  इस स्कूल में नये-नये आये थे इसलिए न तो हमारी कक्षा में पढने वाले हमें ठीक से जानते थे और न ही हम उन्हें. इसी प्रकार यहाँ के टीचर्स के लिए भी मैं और मेरा दोस्त बिलकुल  ही नये थे.   हम क्या हैं, कैसे हैं हमारे टीचर्स को भी हमारे बारे में कोई अनुमान नहीं था....

 बचपन से ही मैं  कभी भी स्कूल जाने की नागा नहीं करता था.  जीजा जी का डर और अपना स्वभाव मुझे  स्कूल खींचकर ले ही जाता था.  आंधी-पानी-बरसात, ठण्ड-गर्मीं, धूप-घाम  इनमें से  कोई भी मेरे  स्कूल जाने के क्रम में बाधा नहीं बन सकता था..... हुआ यह कि चंदौसी में लगातार आठ दिन ऎसी बारिश हुई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. कई कच्चे मकान ढह गए थे. रास्तों में पानी भर गया था. लेकिन न तो हमारे स्कूल की छुट्टी हुई और न ही हमारे स्कूल जाने की. ...उन दिनों मुझे सफ़ेद कपड़ों को पहनने का शौक था.  दो सफ़ेद पायजामे और दो सफ़ेद कमीजें थीं मेरे पास.  उन दिनों बच्चों पर इतने ज्यादा कपडे होते भी नहीं थे.  बड़े घरों के बच्चों के पास भी दो-तीन जोडी कपड़ों से ज्यादा नहीं होते थे.... मैं स्कूल से लौटने के बाद कुए पर जाकर अपने ये कपडे धो लेता था, जब वे सूख जाते थे तो पीतल के लोटे में अंगारे डालकर मैं इन कपड़ों पर प्रेस करके अगले दिन स्कूल पहनकर जाने के लिए चारपाई पर रख देता था....

 मगर अबकी बार तो बरसात रुक ही नहीं रही थी.  धूप ने दर्शन देने ही बंद कर दिए थे. मैंने एक दिन कपडे धोये तो वे बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर टंगे हुए दो दिन तक टप टप आंसू बहाते रहे और अपने आँसुओं को सुखा ही नहीं पाए.  मेरी एक मजबूरी तो यह थी कि मुझे स्कूल जाना ही था और दूसरी मजबूरी यह  थी कि जो कपडे दो दिन से पहन रहा था उन्हीं को पहनकर स्कूल जाना पड़ रहा था... उमस भरी गरमी के कारण कमीज के कालर पर पसीने का ऐसा जमावड़ा था कि उस बेचारे शर्म के मारे को खुद के चेहरे पर लगी कालिख को मुंह छुपाने की भी जगह नहीं थी.  गोरी- चिट्टी कमीज पर बरसात की बूंदों के तथा चपल चप्पल के छींटों के ऐसे-ऐसे दाग़ लग गए थे कि कई सारे बादल धोबी बनकर उन्हें धोने की कोशिश करें तो भी वे टस से मस न हों.  दागों की यही छाप मेरे पायजामे पर भी पूरी तरह से पड गई थी.  मेरे पायजामे और कमीज की सफेदी ने काले-काले धब्बों और दागों के वे ज़ुल्म झेले थे कि बेचारे अपनी कहानी अपने मौन से ही प्रकट कर पा रहे थे.  वे कह रहे थे देखने वालो हमें  देखना है तो अभी देख लो, कल जब हम नही रहेंगे तो मत कहना कि हमने आपको अपना चेहरा नहीं दिखाया था.  अपना दर्द तुम से नहीं कहा था....

 मेरी इस व्यथा-कथा से मेरे कामर्स के टीचर अनभिज्ञ थे.  किन्तु जब मेरे दोस्त बिजेंद्र ने कक्षा में खड़े होकर मेरे जीवन के बारे में उन्हें बताया तो वे बड़े गम्भीर हो गए. चश्में से झांकती हुई आँखें खामोश हो गई थीं.  पलकों पर कुछ गीलापन और  होठों पर कुछ कम्पन-सा झलक कर शांत हो गया था.  उनके मन में कुछ चल रहा है,  यह तो महसूस हो रहा था किन्तु क्या चल रहा है यह समझ में नही आ रहा था.  वे एक मिनट को खड़े के खड़े रह गए और फिर तुरंत ही क्लास की छुट्टी करके बड़ी तेजी से अचानक ही क्लास से बाहर निकल गए. ....

 बाहर आकर वे मुझे खोजने लगे...  तेज क़दमों से चलकर वे मुझे कभी इधर और कभी उधर, कभी यहाँ और कभी वहां  खोजते  रहे.  उनकी आखें मुझे तलाश कर रही थीं.  मगर मैं उन्हें मिल ही  नहीं रहा था .. कक्षा के विद्यार्थी भी तितर-बितर हो गए थे, मेरा दोस्त बिजेंद्र भी मेरी खोज में निकल पड़ा था.  सभी ने देखा कि मेरे टीचर श्री गुप्ता जी बड़े बेचैन और व्यग्र दिख रहे हैं.   एक अजीब सी छटपटाहट थी उनमें.  उनकी हालत उस नए-नए भोले तीरंदाज़ जैसी हो रही थी जिसने तीर चलाया तो किसी टीले पर था और ग़लती से उसका तीर किसी हिरन-शावक के दिल पर जा लगा हो.  उनकी तड़प में मासूम शिकारी और घायल हिरन दोनों की तड़प आ मिली थी.  उनकी तड़प दुगुनी होकर उन्हें विचलित कर रही थी....

 आखिरकार  मैं उन्हें मिल ही गया.  मैं बरामदे  के आखिरी कमरे के बाहर,  कोने में दीवार की तरफ मुंह किये हुए रो रहा था.  मेरी हिचकी बंधी हुई थी.  मेरे गाल आँसुओं से काफी गीले हो चुके थे.  मेरा रोना रुक नही रहा था.  मुझे बार-बार यह भी ध्यान आ रहा था कि इस प्रसंग के बारे में जब जीजा जी को पता चलेगा तो उन्हें कितना दुःख होगा. वे बेचारे पांचवां दर्जा पास, एक प्रिंटिंग प्रेस में मजदूरी करने वाले और किसान आदमीं जो हमेशा श्रम के पसीने की महक में ज़िन्दगी काटते रहे थे और जिन्होंने  पसीने से तर अपने कपड़ों को कभी भी तिरस्कार की नज़र से नहीं देखा था, वे कैसे इस घटना को बर्दाश्त करेंगे. वे भले ही कैसे भी रह लें, किन्तु वे  मुझे हमेशा साफ़-सुथरा ही  देखना चाहते थे, उन बेचारों को पता भी नहीं चला कि उन बरसात के दिनों में, मैं स्कूल कौन सी बेश-भूषा में जा रहा हूँ. वे अपने प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी पर चले जाते थे और मैं स्कूल. उन्होंने मेरे कपड़ों पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था. मगर स्वयं मुझे ग्लानि हो रही थी कि अगर उन्हें इस घटना का पता चला को वे कितने शर्मिंदा होंगे.... मेरे इस रूप में रहने  और दिखने में उनकी इज्ज़त का भी तो  सवाल था !....

 जब मैं दीवार की तरफ मुंह करके रो रहा था तब अचानक दो हाथ मेरे पाँव की तरफ आ गए. जिनके ये हाथ थे उनका सर  मेरे पांवों में झुका हुआ था. उनकी आवाज़ भी मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी. वे कह रहे थे ---‘ बेटा, मुझे माफ़ कर दे. मुझसे बड़ी ग़लती हो गई.... बेटा, मुझे तेरे बारे में  कुछ पता ही नहीं था. तू इतना दुखियारा है और मैंने तुझे जाने क्या-क्या कह दिया.  बिना माँ-बाप के बच्चे  को मैंने ऐसे रुला दिया,...  बेटा, उस टाइम न जाने मुझे क्या हो गया था.  देख, मैं अपने कहे और किये पर बहुत शर्मिंदा हूँ.... मुझे माफ़ कर दे बेटा,  मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई. ...’

 मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ये मेरे टीचर श्री के.के.गुप्ता जी ही थे. उनकी आँखों में मोटे-मोटे आंसू थे. उन्होंने रोते हुए मुझे कलेजे से लगा लिया.  जब उन्होंने मुझे कलेजे से लगाया तो मैं और जोर से रो पड़ा. सचमुच संवेदना जब गले लगती है तो वेदना और तडप उठती है. मैं भी उनसे चिपक गया था. और कह रहा था---‘नहीं गुरू जी, मेरे पाँव पड़कर ऐसा अनर्थ न कीजिये. आप मेरे गुरु हैं.  आपको  पूरा हक़ है मुझसे कुछ भी कहने का. फिर आप तो मेरी भलाई के लिए ही कह रहे थे. गलती मेरी ही है गुरु जी.’

वे बोले—‘ नहीं बेटा, ग़लती मुझसे हुई है.  इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं.  इसमें गलती करने वाला ही छोटा होता है.  भले ही मैं तेरा टीचर हूँ और उम्र में भी तुझसे बड़ा हूँ किन्तु आज मैं तेरे सामने बहुत छोटा पड गया हूँ.  सच में तू मुझसे बहुत बड़ा है.  मैं तुझे समझ नहीं पाया बेटा.’...मुझसे  गले मिलते हुए मेरी कमीज़ के दाग़ उनके कपड़ों पर भी लग गए थे मगर इस बात का उन्हें आभास ही नहीं था....फिर उन्होंने पहले मेरे आंसू पोंछे और फिर अपने भी . मुझसे बोले---‘सुनो, स्कूल की छुट्टी होने के बाद मुझे यहीं खड़े मिलना. जाना नहीं जब तक मैं न आ जाऊँ. ..

 गुरु जी के इस संवेदनशील व्यवहार की घटना पर अब विचार करता हूँ तो एक बहुत ही गहरी बात मेरी समझ में  आई है कि ‘पश्चाताप’ और ‘क्षमा’ ये दो शब्द केवल उन पर ही रहते हैं जिनके दिल में प्यार और मनुष्यता रहती है.  क्षमा वही कर सकता है जिसके ह्रदय में प्रेम है और अपनी ग़लती को ग़लती मानकर सच्चे मन से पश्चाताप भी वही करता है जो भीतर से मनुष्य है. जिसमें इंसानियत है...मैं सोचता हूँ कि क्या ऐसे भी टीचर होते हैं जैसे गुप्ता जी थे. ...

 आज मैं यह भी सोचता हूँ कि बड़ों की लगाईं हुई डाट भी कितनी अच्छी होती है.  सच बात तो यह है कि सद्भावना और अच्छे मन से लगाईं हुई बड़ों की डाट और किसी मीठे रस से भरी हुई बोतल के मुंह पर लगी हुई डाट, इन दोनों का काम एक जैसा ही है. ... बोतल की डाट खुलते ही जैसे कि बोतल में भरे मीठे रस के दर्शन करा देती है, तरलता के दर्शन करा देती  हैं,  ऐसे ही बड़ों की डाट के नीचे कोई न कोई मिठास छुपा रहता है, उनके मन की  तरलता छुपी रहती है.... बस इतना है कि उस समय हमारी ये बाहरी आँखें उस डाट के नीचे की मिठास और तरलता को देख नहीं पाती हैं,  हां, कुछ बड़े होने पर केवल वह डाट ही नहीं, वरन उस डाट के अर्थ भी खुलने लगते हैं और तब उस डाट के नीचे मिठास का लहलहाता सरोवर दिखाई देता है,  जिसकी एक-एक बूँद हमें तृप्त करती चलती है....करती है न ?...

 आज ये सारी बातें सोच रहा हूँ तो बहुत अच्छा लग रहा है मगर उस दिन तो मैं बेचारा बालक 

इतनी समझ कहाँ रखता था ?... उस दिन तो बस मुझे अपने टीचर की,  अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना था . स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी तो श्रद्धेय गुप्ता जी के आदेशानुसार मैं वहीं खड़ा मिला  जहां खड़े रहने के लिए वे मुझसे कह गए थे.  कुछ देर बाद श्री गुप्ता जी  उसी स्थान पर आ गए. उन्होंने मेरा हाथ थामा और बोले अब आगे से तुम कोई चिंता मत करना, कोई परेशानीं हो तो मुझे बताना. और हाँ,  अपने जीजा जी से भी मिलवाना... ऐसा कहते हुए वे मुझे अपने घर ले गए. घर पर उन्होंने अपनी पत्नी से मिलवाया. मेरी बहुत तारीफ़ करने लेगे. उन्हें मेरी ज़िन्दगी के बारे में बताया. बोले---‘बहुत होशियार बालक है....बहुत हिम्मत वाला है.’...उस वक़्त भी मैं वही गंदे और मैले कपडे पहने था. मगर अब सब कुछ बदल चुका था. उन्होंने मुझे बिना खाना खिलाये वापस नहीं भेजा. मेरे बहुत मना करने पर भी मुझे भोजन करना ही पड़ा.  दाल-चावल सब्जी और खीर. मुझे अभी भी याद है कि वे मुझे बड़े ही चाव से खाना खिला रहे थे. उनकी पत्नी भी बार-बार आ-आकर जबरदस्ती मेरी खीर की कटोरी में और खीर डाल जाती थीं. ...

 अचानक वे अपने कमरे में गये और दो मोटी-मोटी कापियां लेकर आये और मेरे हाथों में थमा दीं. मुझसे कहा कि इन्हें भी पढ़ना.  मैंने देखा कि ये केवल कापियां नहीं थीं, पांडुलिपियाँ थीं.  वे उन दिनों कामर्स विषय से जुड़ी दो किताबें लिख रहे थे और उन्हें छपने को दे रहे थे. ये कापियां उन्हीं किताबों की बहुत मेहनत से और स्वयं उनके हाथ से बहुत सुन्दर हस्तलेख में लिखी हुईं पांडुलिपियाँ थी... वे बोले अभी तुम इन्हें अपने पास ही रख लो.  इन्हें पढ़कर तुम्हारे और भी बहुत अच्छे नंबर आयेंगे.  मैं उन्हें लेकर खुशी-खुशी उनके घर से विदा हुआ. सचमुच इन्हें पढ़कर ही हाई स्कूल में मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ.  बाद में गुप्ता जी मेरे जीजा जी से भी मिले और उनसे माफी मांगते हुए बोले— ‘एक दिन तो मैंने आपके बच्चे को बहुत ज्यादा डाट दिया था.’...जीजा जी का उत्तर पाकर वे हैरत में थे. जीजा जी ने कहा था---‘ मास्टर जी, गुरु तो भावरूप में विद्यार्थी का दूसरा पिता ही होता है.  वह अगर डाटता है तो उसी की भलाई के लिए डाटता है.’...और तब जीजा जी और आदरणीय गुप्ता जी दोनों ही भीगी हुई आँखों से एक दूसरे के गले लग गए थे.  उस दिन मेरी इन दो आँखों ने चार आँखों के चार तीर्थस्थलों को आँसुओं का झरना बहाते हुए देखा था और उस संवेदना को भी देखा था जो कठोर नारियल के खोल में मीठा और तरल जल बनकर छलांग मार रही थी.....                                  

✍️ डॉ कुँअर बेचैन

शनिवार, 1 जुलाई 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के दो नवगीत ----

(1)

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल 

गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली

वर्षा थी, यूँ अपने घर से 

धूप नहीं निकली।


आज न आई आशुलेखिका 

कोई किरण-परी

विहग-लिपिक ने

आज न खोली पंखों की छतरी

सी-सी करती पवन

पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

वर्षा थी, यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली


ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल 

कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

कुर्सी से उछली।

वर्षा थी, यों अपने घर से 

धूप नहीं निकली

(2)

है समय प्रतिकूल माना

पर समय अनुकूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥

   

घन तिमिर में इक दिये की

टिमटिमाहट भी बहुत है

एक सूने द्वार पर

बेजान आहट भी बहुत है

   

लाख भंवरें हों नदी में

पर कहीं पर कूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥

   

विरह-पल है पर इसी में

एक मीठा गान भी है

मरुस्थलों में रेत भी है

और नखलिस्तान भी है

   

साथ में ठंडी हवा के

मानता हूं धूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥


है परम सौभाग्य अपना

अधर पर यह प्यास तो है

है मिलन माना अनिश्चित

पर मिलन की आस तो है

   

प्यार इक वरदान भी है

प्यार माना भूल भी है।

शाख पर इक फूल भी है॥


-कुँअर बेचैन

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित नई दिल्ली की साहित्यकार डॉ कीर्ति काले का संस्मरणात्मक आलेख...... विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन ....


तुम ही भरी बहार से आगे निकल गए

तुम मेरे इन्तजार से आगे निकल गए

विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन जी। बहुत सारे लोग बहुत विद्वान होते हैं। विद्वत्ता का दर्प उन्हें विनम्र नहीं रहने देता और वे अहंकारी हो जाते हैं। कुछ विनम्र तो होते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश वे विद्वान नहीं होते। विरले ही होते हैं जो विद्वान और विनम्र दोनों एक साथ हों। विद्वान एवं विनम्र होने के साथ साथ व्यक्ति विचारशील भी रहे ऐसा तो दुर्लभ से भी दुर्लभतम है। गीत के शलाका पुरुष और ग़ज़ल के उस्ताद आदरणीय डॉ कुंअर बेचैन जी इसी तीसरी अति विशिष्ट श्रेणी में आते थे। अत्यन्त विद्वान,अति विनम्र एवं सतत् विचारशील।

     डॉ कुंअर बेचैन जी ऐसे चंद कवियों में से एक हैं जो कवि सम्मेलनों मे जितने सक्रिय एवं लोकप्रिय थे, प्रकाशन की दृष्टि से भी उतने ही प्रतिष्ठित थे। इनके साहित्य पर पन्द्रह से भी अधिक पी एच डी के शोधग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक गीत, नवगीत, ग़ज़ल, बाल कविता संग्रह, महाकाव्य, उपन्यास आपके प्रकाशित हो चुके हैं। आपने हिन्दी छन्दों के आधार पर ग़ज़ल का व्याकरण लिखा। यह डॉ कुंवर बेचैन जी की हिन्दी एवं उर्दू के नवोदित लेखकों के लिए महत्वपूर्ण देन है।

     मैंने जबसे कविता का कखगघ समझा तब से डॉ कुंअर बेचैन जी से परिचय है। कवि सम्मेलन जगत में आने के पश्चात हजारों यात्राएँ साथ में कीं। लाखों मंचों पर आपका सान्निध्य प्राप्त हुआ। देश विदेश में आपके साथ जाना हुआ।कवि सम्मेलनों से इतर भी सदा मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिलता रहा। जब आपके न होने का दुखद समाचार मिला था तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।आपके परम शिष्य चेतन आनन्द जी को फोन किया तो उनकेे हिचकियों भरे रुदन ने दुखद सूचना पर मुहर लगा दी।आप तो ठीक हो रहे थे न ! दो एक दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी और अचानक !

बहुत सारे दृश्य आंखों के सामने उमड़ घुमड़ रहे हैं ।

दुबई यात्रा पर जब हम साथ गए थे तब वहां इंडियन स्कूल में कवि सम्मेलन था। कवि सम्मेलन के मंच पर जब सारे कवियों के साथ मैं और डॉ कुंअर बेचैन जी पहुंचे तब स्कूल की प्रिंसिपल साहिबा दौड़ कर हमारे पास आईं और उन्होंने सबके सामने डॉ कुंअर बेचैन जी के चरण स्पर्श किए और बोला आज हमारा अहोभाग्य है कि आप के चरण हमारे विद्यालय में पड़े। शायद आपको मालूम है या नहीं, आपकी कविताएं हमारे विद्यालय के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। कई बच्चे आप की कविताएं खूब मन से गाते हैं। इतना बड़ा व्यक्तित्व डॉ कुंअर बेचैन जी का और इतने सहज कि क्या कहूं।कोई भी अच्छा काम करने पर ₹10 इनाम  देते थे। मंच पर भी इतने सरल इतने सहज। 

  कभी किसी की निंदा करते हुए मैंने देखा ही नहीं डॉ कुंवर बेचैन जी को। सदा अपने से छोटों की और अपने से बड़ों की प्रशंसा ही करते थे। छोटों का मार्गदर्शन भी करते थे तो प्रोत्साहित करते हुए। उनकी गलतियां बताते थे तो वह भी ऐसे जिससे वह हतोत्साहित ना हों। 

    एक घटना का स्मरण और हो रहा है ।अभी कुछ दिनों पहले मैं प्रेरणा दर्पण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के सिलसिले में उनसे बात कर रही थी ।बातचीत के दौरान डॉक्टर साहब ने बताया कि बहुत सारी चीजें उन्होंने शुरू कीं। जैसे पुस्तकें प्रकाशित कराईं तो पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर कवि एवं प्रकाशक का उल्लेख अवश्य किया। इसके पीछे का कारण यह है कि पुस्तके तो कई सालों तक रहती हैं। कालांतर में पुस्तकों के पृष्ठ अलग-अलग हो जाते हैं। तब बिखरे हुए पृष्ठों पर प्रकाशित सामग्री के रचयिता कौन है इस बारे में पता करना कठिन हो जाता है । हम से पूर्व अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं  जिनके पृष्ठों पर कवि का नाम प्रकाशित नहीं था। इसलिए वे रचनाएं विवादास्पद रहीं। हमने बहुत विचार करने के बाद अपनी पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर अपना नाम मुद्रित करवाया। कई लोगों ने इस बात का उपहास भी किया लेकिन बाद में इसी प्रक्रिया को उन्होंने भी अपनाया। मुझे याद आया कि जब मेरी पुस्तक  "हिरनीला मन" डॉ कुंअर बेचैन जी के मार्गदर्शन में प्रकाशित हुई थी तब उसके प्रत्येक पृष्ठ पर मेरा एवं प्रकाशक का नाम अंकित हुआ था। यह डॉ कुंअर बेचैन जी की दूरदर्शिता एवं विचार शीलता का एक उदाहरण है। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो डॉक्टर साहब की विचार शीलता को उद्घाटित करते हैं। 

    सन 2018 को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से 6 कवि जिनमें कुंअर बेचैन जी एवं मैं भी सम्मिलित थे 15 दिन की इंग्लैंड काव्य यात्रा पर गए थे। वहां डॉक्टर साहब के इतने चाहने वाले श्रोता थे कि मत पूछिए ।प्रत्येक शहर में प्रत्येक कवि सम्मेलन के बाद बहुत बड़ी संख्या में श्रोता  कुंअर बेचैन जी को घेर कर खड़े हो जाते थे और उनके ऑटोग्राफ लेने लगते थे। डॉक्टर साहब इतने सरल इतने सहज कि आकाश की ऊंचाई पर होते हुए भी सदा हमारे साथ बड़ी विनम्रता से व्यवहार करते थे। हम उनसे मजाक भी कर लेते थे साथ में खूब कविताएं सुनते सुनाते थे । आज वे दिन बहुत याद आ रहे हैं ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि कुंअर जी बहुत अच्छे चित्रकार भी थे।उनकी प्रकाशित अधिकांश पुस्तकों पर उनके द्वारा बनाए गए रेखा चित्र हैं।जब भी डॉ साहब अपनी पुस्तक किसी को भेंट करते थे तो प्रथम पृष्ठ पर शुभकामनाओं के साथ हस्ताक्षर करने से पहले बहुत सुन्दर चित्र बनाकर विशेष आशीर्वाद देते थे।

   एक बात और बताना चाहूंगी। डॉ कुंअर बेचैन जी को कोई भी लेखक, रचनाकार पुस्तक भेंट करता था तो डॉक्टर साहब उस पुस्तक की राशि लेखक को अवश्य देते थे ।वह ना लेना चाहे तब भी जबरदस्ती उसकी जेब में रख देते थे ।इसके पीछे बहुत ठोस कारण था। वे कहते थे कि आजकल कोई भी प्रकाशक बिना पैसे लिए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं करता। पुस्तक प्रकाशन में कितना परिश्रम एवं धन लगता है यह मैं भली-भांति जानता हूं। इसलिए किसी की भी पुस्तक मैं बिना मूल्य चुकाए नहीं लेता।और हाँ, मैं अपनी पुस्तक बिना मूल्य लिए देता भी नहीं हूं। मुझे याद आया जब डॉक्टर साहब ने अपना महाकाव्य "पांचाली" मुझे दिया तब अधिकार पूर्वक आदेशात्मक स्वर में मुझसे ₹500 मांगे यह कहते हुए की यह राशि मैं आपसे इसलिए ले रहा हूं जिससे आपको पुस्तकें खरीद कर पढ़ने का अभ्यास रहे।

पिछले पचास,पचपन वर्षों से डॉ कुंअर बेचैन जी हिन्दी कवि सम्मेलनों का इतिहास लिखने के लिए सामग्री एकत्रित कर रहे थे। प्रत्येक मंच पर वे कागज कलम लेकर मंच पर होने वाली हर गतिविधि को लिखते थे। जैसे शहर एवं स्थान का नाम, संयोजक, संचालक आयोजक एवं अध्यक्ष का नाम ,मंचासीन कवियों का नाम, किस कवि ने कौन सी कविता सुनाई उसकी प्रमुख पंक्तियां, कवि सम्मेलन में घटित होने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं आदि आदि। पिछले 55 वर्षों से निरंतर लिखकर बहुत बड़ी संख्या में सामग्री एकत्रित कर ली थी डॉक्टर साहब ने ।अब समय था उस एकत्रित सामग्री पर मनन करके उसे ऐतिहासिक रूप देने का। लेकिन ईश्वर ने इतना अवकाश कुंवर जी को नहीं दिया। उनके लिखे इतने सारे पृष्ठ किसी न किसी फाइल में सुरक्षित होंगे। किसी न किसी डायरी में "कवि सम्मेलन का इतिहास" की रूपरेखा अंकित होगी। हमारा दायित्व है कि हम हमारी संपूर्ण सामर्थ्य के साथ डॉक्टर साहब के अधूरे कार्य को पूर्ण करें। ईश्वर हमें शक्ति दे कि हम यह कार्य कर पाएँ। 

   हॉस्पिटल में एडमिट होने के तीन-चार दिन पहले मैंने डॉ कुंवर बेचैन जी को फोन किया और उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली। दूरदर्शन द्वारा मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक कार्यक्रम बनाने की योजना थी जिसमें कुछ व्यक्तियों को मेरे बारे में बोलने के लिए कहा गया था ।जब मैंने यह बात डॉक्टर साहब को बताई तो वह बोले देखो न कीर्ति जी मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं आप पर बहुत कुछ बोलना चाहता हूं लेकिन आज मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। गला बहुत खराब हो गया है। मैं अभी आपसे बातें भी बहुत मुश्किल से कर पा रहा हूं। मैंने कहा कोई बात नहीं डॉ साहब आप ठीक हो जाइए उसके बाद  वीडियो बना दीजिएगा ।मैं दूरदर्शन वालों को बता देती हूं। अगले दिन फिर डॉक्टर साहब का फोन आया और वे भारी मन से क्षमा मांगते हुए कहने लगे की मेरा बुखार अभी तक नहीं उतरा है ।मैं और आपकी चाचीजी अब अस्पताल में भर्ती होने जा रहे हैं ।वापस आ गए तो सबसे पहला काम आपका ही  करूंगा ।देखो ना आज कहने को बहुत कुछ है लेकिन कह नहीं पा रहा ।इतना विवश, इतना असहाय मैंने स्वयं को कभी भी महसूस नहीं किया ।मैंने बोला नहीं डॉक्टर साहब ऐसा मत कहिए। आप बिल्कुल ठीक हो कर आएंगे। हम साथ में बैठकर गोष्ठी करेंगे फिर आप जी भर कर बोलिएगा। बस डॉ कुंवर बेचैन जी से यही अंतिम बातचीत थी मेरी। आज अत्यन्त द्रवित ह्रदय से मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही हूं ।

    डॉक्टर साहब के  दुनिया भर में अनेक शिष्य हैं जिसने भी डॉ कुंअर बेचैन जी को सुना है अथवा पढ़ा है अथवा जो उनसे मिला है वो उनके आकर्षण से बच नहीं सका है। 

आपकी अनेक काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं जैसे-


जितनी दूर नयन से सपना

जितनी दूर अधर से हँसना

बिछुए जितनी दूर कुंआरे पाँव से

उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से।


नदी बोली समुन्दर से

मैं तेरे पास आई हूँ

मुझे भी गा मेरे शायर

मैं तेरी ही रुबाई हूँ।


मीठापन जो लाया था मैं गाँव से

कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।


कल स्वयं की व्यस्तताओं से निकालूंगा समय कुछ

फिर भरूंगा कल तुम्हारी माँग में सिन्दूर

मुझको माफ करना

आज तो सचमुच बहुत देर ऑफिस को हुई है।


ज़िन्दगी का अर्थ मरना हो गया है

और जीने के लिए हैं

दिन बहुत सारे।


जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

दादी की हँसुली अम्मा की पायल ने

उस पक्के घर की कच्ची दीवारों पर

मेरी टाई टँगने से कतराती है।


जिस दिन ठिठुर रही थी,कुहरे भरी नदी में,

माँ की उदास काया,लेने चला था चादर, मैं मेजपोश लाया


सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी

जब हवा चलेगी ये मिट्टी खुद अपनी धूल उड़ाएगी

इसलिए सजल बादल बनकर बौझार के छींटे देता चल

ये दुनिया सूखी मिट्टी है तू प्यार के झींटे देता चल।


ऐसी अनेक गीत पंक्तियाँ हैं डॉ साहब की जो कवि सम्मेलन में श्रोताओं को मंत्रबिद्ध कर देती थीं।

ग़ज़लें भी एक से बढ़कर एक थीं।आपकी ग़ज़लों में भी गीत जैसी तन्मयता थी,गीत जैसा तारतम्य था।


पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है

पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है

चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोग

पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है


दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना

जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना


दो चार बार हम जो कभी हँस हँसा लिए

सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

संटी तरह मुझको मिले ज़िन्दगी के दिन

मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए।


ज़िन्दगी यूं भी जली,यूँ भी जली मीलों तक

चाँदनी चार कदम धूप चली मीलों तक


ये सोचकर मैं उम्र की ऊँचाईयाँ चढ़ा

शायद यहाँ,शायद यहाँ,शायद यहाँ है तू

पिछले कई जन्मों से तुझे ढ़ूढ़ रहा हूँ

जाने कहाँ,जाने कहाँ,जाने कहाँ है तू


ग़मों की आँच पे आँसूं उबालकर देखो

बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो

तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी

थेकिसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो


साँचे में हमने और के ढ़लने नहीं दिया

दिल मोम का था फिर भी पिघलने नहीं दिया

चेहरे को आज तक भी तेरा इंतज़ार है

हमने गुलाल और को मलने नहीं दिया।


असंख्य पंक्तियाँ हैं, असीमित स्मृतियाँ हैं। क्या लिखूं और क्या छोड़ूं।


1जुलाई 1942 को मुरादाबाद जिले के उमरी नामक गाँव में जन्में डॉ कुंअर बेचैन जी ने अपने जीवन में अनेक कष्ट सहे।इनका पूरा जीवन संघर्षों का महासमर रहा।बचपन में ही सिर से माता पिता का साया उठ गया था।बड़ी बहन और जीजाजी ने  पालन-पोषण किया। फिर बहन भी स्वर्ग सिधार गई। जीजाजी इन्हें लेकर चन्दौसी आ गए।चन्दौसी में ही आगे की शिक्षा ग्रहण की।

प्रकाशित पुस्तकें

गीत/नवगीत संग्रह - पिन बहुत सारे,भीतर साँकल बाहर साँकल,उर्वर्शी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख,एक दीप चौमुखी,नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए

ग़ज़ल संग्रह - शामियाने कांच के, महावर इंतजारों का ,रस्सियाँ पानी की, पत्थर की बांसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ कागज, आग पर कंदील, आंधियों में पेड़, आठ सुरों की की बांसुरी, आंगन की अलगनी, तो सुबह हो, कोई आवाज देता है, 

कविता संग्रह -नदी तुम रुक क्यों गई, शब्द एक लालटेन, 

महाकाव्य - पांचाली 

ललित उपन्यास : मरकत द्वीप की मणि

बाल कविताएँ,हायकू,दोहे, अनेक पुस्तकों की भूमिकाएँ



✍️ डॉ कीर्ति काले 

बी702,न्यू ज्योति अपार्टमेंट सैक्टर 4 प्लॉट नंबर 27, द्वारका, नई दिल्ली, भारत

E mail : kirti_kale@yahoo.com

मोबाइल फोन नंबर 9868269259

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित कानपुर के साहित्यकार डॉ सुरेश अवस्थी का संस्मरणात्मक आलेख


" सबकी बात न माना कर
                                        
खुद को भी पहचाना कर।  

दुनियां से लड़ना है तो-                                               
अपनी ओर निशाना कर।" 

        जीवन संघर्ष के लिए ये प्रेरक पंक्तियां कोमलतम संवेदनाओं को सहजतम अभिव्यक्ति देने वाले गीतकार कीर्तिशेष डॉ कुँअर बेचैन की हैं। क्रूर कोरोना से संघर्ष में भले ही डॉ बेचैन हार गए हों पर उन्होंने अपनी गीत व ग़ज़ल रचनाओं से प्रेम, दर्शन, जीवन संघर्ष के जो सन्देश  दिये हैं वे अक्षुण्य व अमर रहेंगे। यूँ तो उनकी बहुत सी रचनाओं से मैं भरपूर परिचित हूँ पर इस गीत की शक्तिमत्ता को मुझे अमेरिका के 18 शहरों में हुए कवि सम्मेलनों में देखने व आत्मसात करने का पुण्य अवसर मिला है।

 

  मेरी अमेरिका की तीसरी साहित्यिक यात्रा में 4 अप्रैल 2013 से 5 मई 2013 के मध्य अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की ओर से श्री आलोक मिश्र के सौजन्य से विभिन्न शहरों में 18 कवि सम्मेलनों का संचालन व काव्यपाठ का अवसर मिला। यूँ तो यह यात्रा कई कारणों से विशेष रही पर डॉ कुँअर बेचैन जी के सानिध्य व संरक्षण से विशेषतम हो गयी।
    व्यंग्य कवि दीपक गुप्ता आरम्भिक काव्य पाठ कर रहे थे और समापन श्री बेचैन जी। मध्य में मैं काव्यपाठ करता था। पहले दो कवि सम्मेलनों में कुँवर जी ने हिंदी की महिमा पर केंद्रित गीत को समापन का गीत बनाया। तीसरे दिन कवि सम्मेलन मंच पर जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे एकांत में बात की। अपने अनुभवों के अनन्त महासागर से निकाले कुछ मोतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने
मुक्त मन से मन्त्रणा करके फैसला दिया हिंदी का समापन गीत समापन को उतनी ऊंचाइयां नहीं दे पा रहा जितनी अपेक्षित है। उन्होंने मेरा अभिमत जानना चाहा। सच तो यह है कि मैं भी महसूस कर रहा था कि उनके गीत-ग़ज़ल पाठ पर सुधी श्रोतागण जिस उल्लास और ऊर्जा के साथ अपनी अन्तस् खुशी प्रकट करते थे इस गीत पर वह किंचित कमजोर पड़ जाती थी। मैं इस पर पहले ही चिंतन कर चुका था पर मेरे संकोच ने मुझे जकड़ रखा था इसलिए मैं कह नहीं पाया।
      उन्होंने मेरी दोनों हथेलियां अपने हाथों में लीं तो उनकी स्नेहिल ऊष्मा से मेरा संकोच पिघल गया। मैंने प्रस्ताव रखा कि क्यों न आप समापन ' सबकी बात न माना कर ' गीत से करें। उन्होंने सहमति दी और फिर उस दिन समापन इसी गीत से किया। इस गीत की प्रस्तुति पर श्रोताओं का उल्लास ऐसा बिखरा की हम सभी मंत्रमुग्ध थे। गीत की अंतिम पंक्ति  " दुनिया बहुत सुहानी है इसको और सुहाना कर " तक पहुंचते पहुंचते प्रेक्षागार
के सभी श्रोताओं ने खड़े होकर विपुल तालियों के साथ कुँवर जी के स्वर से समवेत स्वर मिलाते हुए अभिनन्दन किया तो मैं हिंदी कविता की सामर्थ्य पर धन्य धन्य हो गया। यह सिलसिला आगे के कवि सम्मेलनों में भी चलता रहा। वे पल याद करता हूँ तो अन्तस में वही तालियां गूंज उठती हैं।
     
सच यह है कि डॉ कुँअर बेचैन ने हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने के लिए ग़ज़ल के मान्य शिल्प का पूर्ण निर्वहन करते हुए उसमें गीतात्मकता, गीत के विम्ब विधान, प्रस्तुति कला और रागात्मक भाषा को प्रतिष्ठापित किया है वह अलग से शोध का विषय हो सकता है। बाद में उन्होंने ही बताया कि ' सबकी बात न माना कर' ग़ज़ल ही थी जिसे उन्होंने बाद में गीत बनाया।
    इस यात्रा में उनके कुछ प्रसंशकों की प्रशंसा का अंदाज ही अलग मिला। मुझे शहर तो नहीं याद है पर याद है कि एक काव्यप्रेमी कार्यक्रम समाप्त होने पर कुँअर जी समीप आ कर बोले, तो बेचैन साहब जी"झूले पर उसका नाम लिखा और झूला दिया।" एक अन्य व्यक्ति ने दो उंगलियां उठा कर कहा," आती जाती सांसे दो सहेलियां हैं, वाह क्या गज़ब की बात कही। " एक महिला ने यूँ तारीफ की, डॉक्टर साहब" नदी बोली समंदर से में तेरे पास आई हूं, मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ," की नदी को साथ नहीं लाये। मैंने देखा कुँअर जी ऐसे क्षणों में बस किसी मासूम बच्चे की तरह मुस्करा देते।
 
   

विस्मित करने वाली रेखांकन कला


  डॉ कुँअर बेचैन जी की रेखाचित्र बनाने की कला में भी सिद्धहस्त थे। इस कला प्रत्यक्ष प्रदर्शन इसी अमेरिका यात्रा में देखने को मिला। 8 अप्रैल 2013 को हम लोग सिद्ध प्रसिद्ध कथाकार दीदी सुधा ओम ढींगरा के आतिथ्य में उनके शहर राले नार्थ कैरोलिना पहुंचे। हमें दो दिन इसी शहर में रहना था। इसी शहर में मेरा चचेरा भाई संकल्प अवस्थी है। हम लोग खाली दिन संकल्प के बुलावे पर उनके आवास पर गए। कुंअर जी कुछ ही समय में संकल्प , किरण (पत्नी) व उनकी बेटी (अपेक्षा) व बेटे (अथर्व) के संग आत्मीयता के साथ ऐसे घुलमिल गए कि मानों लंबे अर्से से परिचित हों। उन्होंने बेटी की कापी पर अपने पेन से आड़ी तिरछी रेखाएं खींच कर एक चित्र  उंकेरा और उस पर सुंदर हस्तलेख में तुरन्त रचा हुआ एक दोहा - (किरन,अपेक्षा,और नव प्रिय संकल्प अथर्व।यू.यस. में इनसे मिले, हुआ हमें अति गर्व) लिखा और कलात्मक हरस्ताक्षर करके  मुझसे व दीपक गुप्ता से भी हस्ताक्षर कर आशीर्वाद स्वरूप  बच्चों को थमा दिया। रेखांकन में  मुस्कराते हुए  चार चेहरे बने हुए थे। उनकी इस रेखांकन कला को देख कर हम सभी आश्चर्यचकित रह गए।
  

 

मॉरीशस में मस्ती

डॉ कुँअर बेचैन के सानिध्य में मेरी दूसरी विदेश यात्रा विश्व हिंदी सम्मेलन, मॉरीशस (18 से 20 अगस्त 2020) की हुई।संयोग से समुद्र तट के बहुत करीब बने खूबसूरत होटल हैल्टन में मेरा और डॉक्टर साहब का कमरा आमने सामने था। हम  साथ साथ ही जाते। उस दिन मैं तैयार होने के लिए पैन्ट, शर्ट, सदरी, रुमाल, व प्रयोग किये मोजे बेड पर इधर उधर फेंक कर अभी बाथरूम में घुस ही रहा था कि समय के बेहद पाबंद कुंअर जी रूम में मुझे बुलाने आ गए। बोले, ' अरे अभी तैयार नहीं हुए?' मैं ' सिर्फ दो मिनट' कह कर बाथरूम में घुस गया। दो मिनट में लौटा तो देखा कि कुँअर जी मेरी खुली अटैची से मेरे लिए अपनी पसंद की पोशाक निकाल चुके थे। मैने उनके द्वारा चयनित पोशाक पहनी। उन्होंने तुरंत मोबाइल से एक फोटो क्लिक किया।
मुझे अपनी अस्त व्यस्तता पर खुद से शर्मिंदगी हुई। मैने उस दिन समय का पाबंद रहना सीखा।वहाँ हम लोगों ने उनके साथ खूब आनंद उठाया।


मेरा पहला कवि सम्मेलन कुँअर जी के सानिध्य में...


यह सुखद संयोग है कि काव्य साहित्य की वाचिक परम्परा कवि सम्मेलन से जिस कार्यक्रम से मेरा परिचय हुआ, वही मेरा पहला कवि सम्मेलन बना जिसमे मैने काव्यपाठ किया। सुखद है कि पहले ही कवि सम्मेलन में मुझे डॉ कुंअर बेचैन जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। जहां तक मुझे स्मरण है कि सितंबर 1979 में कानपुर में गीतकार श्री शिव कुमार सिंह कुँवर के संयोजन में रोडवेज वर्कशाप में कवि सम्मेलन हुआ था जिसका सन्चालन श्री उमाकांत मालवीय जी कर रहे थे। मैं पहली बार कवि सम्मेलन सुन रहा था। मैंने साथ बैठे मित्र अनुपम निगम से कहा कि जैसे ये लोग कविता पढ़ रहे हैं, मैं भी पढ़ सकता हूँ। उन्होंने मेरा नाम आयोजक मंडल के पास भेज दिया। चमत्कार हुआ और दूसरे चक्र में डॉ कुँअर बेचैन के बाद मुझे बुलाया गया। चूंकि मैं उन दिनों रामलीला में वाणासुर का पाठ करता था और कविताएं लिखा करता था, इसलिए मुझे मंच व माइक का भय नहीं था। मैंने उन दिनों स्वतंत्रता दिवस पर कविता लिखी थी। वही कविता मैने पूरे तेवर के साथ प्रस्तुत की। खूब वाह वाह हुई। कार्यक्रम खत्म होने पर जिस कवि ने सबसे पहले मुझे नोटिस में लेकर पीठ थपथपाई वह कुँअर जी थे। सिर पर रखा उनका आशीर्वाद का हाथ मैं अभी भी महसूस करता हूँ। ' मानस मंच ', राष्ट्रीय पुस्तक मेला, दैनिक जागरण के कवि सम्मेलनों, लाल किला, देश के कई शहरों सहित तमाम कवि सम्मेलनों व पुस्तक लोकार्पण समारोहों में उनके साथ मंच साझा करने के पुण्य अवसर मिले। मानस मंच,कानपुर के आयोजन में उन्होंने मेरे आग्रह पर सम्मान भी स्वीकार किया।डॉ कुअँर बेचैन ने एक अन्य आत्मीय यात्रा में बताया कि बचपन में ही माता पिता को खो देने के बाद बड़ी बहन के संरक्षण व निर्देशन मे उन्होंने कितने संघर्षों से इस मुकाम तक पहुंचा हूं। मैंने सीखा कि साधन ' से नहीं 'साधना' से मिलती है सफलता।

आज भी प्रेरणा देता है मेरे जन्मदिन पर लिखा प्रत्येक शब्द 


डॉ कुँअर बेचैन ने अमेरिका यात्रा के बाद मेरे जन्मदिन 15 फरवरी को उन्होंने मेरे लिए जो लिखा उसका शब्द शब्द में स्नेह से पगा हुआ और प्रेरक है...
"आज प्रसिद्ध पत्रकार, कवि,संचालक , संयोजक एवं चिंतक डॉ. सुरेश अवस्थी जी का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं । सुरेश जी के साथ मुझे कई कविसम्मेलनों में जाने का अवसर मिला। विशेष रूप से उस यात्रा का ज़िक्र करना चाहूंगा जो अमेरिका की यात्रा थी। अमेरिका के 18 नगरों में हम लोगों का काव्य-पाठ था। कहा जाता है कि अगर किसी के स्वभाव की मूल प्रवृति की पहचान करनी हो तो उसके साथ कुछ दिनों यात्रा करो। डॉ. सुरेश ने इस यात्रा के दौरान जिस आत्मीयता का परिचय दिया, जितना मेरा ध्यान रखा,  जितना मुझे प्रेम और सम्मान दिया वह अविस्मरणीय है। उनकी प्रबंधन-क्षमता भी अनुकरणीय है।
      मैं उनके जन्मदिन के सुअवसर पर उनके उत्तम स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ। वे दीर्घजीवी हों। - कुँअर बेचैन


काश! उनके हाथों में सौंप पाता पुस्तकें...

डॉ कुंअर बेचैन जी ने मेरे ग़ज़ल संग्रह " दीवारें सुन रही हैं" व दोहा संग्रह " बन कर खिलो गुलाब " में मेरी रचनाधर्मिता पर उदारतापूर्वक आलेख लिखे। कोरोना महामारी के चलते ये दोनों पुस्तकें समय पर न आ सकीं। अब जब कि दोनों पुस्तकें आ गईं हैं तो जीवन भर मलाल रहेगा कि काश! मैं ये पुस्तकें उनके हाथों में सौंप पाता?
  

 शिष्यों की लंबी सूची

डॉ  बेचैन जी के रचनाधर्मी शिष्यों की लंबी सूची है। उन्हीं में से एक गीतकार ग़ज़लकार मेरे अनुजवत डॉ दुर्गेश अवस्थी हैं । उन्होंने कई बार अपने गुरुदेव डॉ कुँअर जी के गुरुत्वभाव, सदाशयता, स्नेह , उदारता, सहयोग आदि की मुझसे कई बार चर्चा की। मुझे याद है कि जब मैंने डॉ दुर्गेश को मानस मंच, कानपुर के कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया तो उन्होंने काव्यपाठ से पूर्व अपने गुरुदेव का स्मरण करके उनकी ही पंक्तियों से उन्हें प्रणाम किया और फिर अपनी रचनाएं पढ़ीं। उनके महाप्रस्थान से बेहद भावुक व दुखी दुर्गेश जी ने बताया कि हाल ही में डॉ बेचैन जी ने उनकी पुस्तक की भूमिका लिखी है। उनके द्वारा लिखी यह भूमिका अंतिम भूमिका है। जाते जाते वह मुझे आशीर्वाद का महाप्रसाद दे गए। उनके प्रति वह जीवनपर्यंत ऋणी रहेंगे।
    

मेरा मानना है कि कालजयी रचनाओं के रचनाकार देह से भले ही हमारे बीच से चले जाएं पर अपनी रचनाओं से हमेशा रहते हैं क्योंकि उनकी मृत्यु नहीं होती, रूपांतरण होता है। डॉ कुंअर बेचैन अपने प्रसंशकों व अपने दुर्गेश जी जैसे प्रतिभासंपन्न शिष्यों में रूपांतरित हुए हैं।इसलिए अनन्त स्मृतियां, अपार स्नेह, अप्रतिम रचनाधर्मिता, आनंदकारी प्रस्तुति, अभिभूत करने वाली लोकप्रियता, अद्भुत शालीनता, अपार बड़प्पन, अक्षुण्य धैर्य, अभूतपूर्व वाणी संयम, अलौकिक रागात्मकता, अमर काव्य साधना, अगम सकारात्मकता व अनन्तिम सौहार्द्र ।

✍️ डॉ.सुरेश अवस्थी    
117/L / 233 नवीन नगर
कानपुर.208925
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9336123032,      9532834750    
मेल::::: drsureshawasthi@gmail.com

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

मुरादाबाद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृति शेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित दिल्ली के साहित्यकार डॉ हरीश नवल का सारगर्भित आलेख ...... रोशन रहेंगे शब्द जिनके


'ये दुनिया सूखी मिट्टी है 

तू प्यार के छींटे देता चल।'

कम शब्दों में इतनी बड़ी बात कहने वाले डॉ. कुंअर बेचैन एक बड़े साहित्यकार तो थे ही, एक बड़े इंसान भी थे। सदा मुस्कराते रहने वाले डॉ. कुंअर भीतर से कितने बेचैन थे, यह केवल वे ही जानते थे। उनके जीवन के संघर्ष उन्हें बहुत बड़ा कवि हृदय दे सके थे। उनके गीत उनके सामाजिक सरोकारों के दर्पण हैं। मेरा सौभाग्य मुझे उनका साथ लगभग पैंतीस वर्ष मिला, यद्यपि एक श्रोता के रूप में मैंने उन्हें पचास साल से अधिक सुना।

     सन् 1985 की गर्मियों में अचानक मेरी मुलाक़ात बेचैन जी से मंसूरी के नीलम रेस्टोरेंट में हो गई जहाँ के परांठे बहुत प्रसिद्ध थे । परांठों के साथ-साथ डॉ बेचैन से गीत, अगीत, प्रगीत और नवगीत पर जानदार चर्चा हुई। हम दोनों ही हिंदी प्राध्यापक थे और अन्य विषयों के अलावा काव्यशास्त्र भी पढ़ाते थे। तब नवगीत नया-नया ही था। उसके विषय में डॉ बेचैन से कुछ नवीन व्याख्याएँ सौगात के रूप में मुझे मिलीं। रेस्टोरेंट से हम दोनों की विदाई एक बहुत अच्छे सूक्त वाक्य से हुई, जब उन्होंने कहा – “नीलम किसी किसी को सूट करता है पर आज यह हम दोनों को कर गया।"

      डॉ. बेचैन से संक्षिप्त मिलाप प्रायः कवि सम्मेलनों के आरंभ होने से पहले अथवा समापन के बाद मिलता था, जब वे औरों से भी घिरे होते थे। हाँ गोष्ठियों में भले ही कम मिलना होता था किंतु भरपूर होता था। विशेषकर लखनऊ के माध्यम गोष्ठियों में रहना, खाना-पीना साथ होता था। दिल्ली के हंसराज कॉलेज में उन्हें खूब बुलाया जाता था। वहाँ के आयोजक डॉ प्रभात कुमार मुझे हिंदू कॉलेज से बेचैन जी से मिलने के लिए आमंत्रित किया करते थे। प्रभात जी से भी उनकी बहुत बनती थी। डॉ बेचैन गुणग्राहक थे और प्रभात जी की सैन्स ऑफ ह्यूमर के प्रशंसक थे जिस कारण हम तीनों की हँसी दूर-दूर तक गुंज जाती थी। एक दिन मैं और डॉ प्रभात, डॉ. बेचैन के घर गाजियाबाद गए। ट्राफियों, सम्मान पत्रकों और केभाभी जी की गरिमा से भरा घर मेरे मन में घर कर गया। उसके बाद मैं अपनी पत्नी स्नेह सुधा के साथ दो बार गाजियाबाद गया। स्नेह सुधा चित्रकार हैं और कविता भी लिखती हैं यह बात कुंअर जी को बहुत भाती थी। वे स्वयं एक बड़े चित्रकार थे जिनके रेखाचित्रों की धूम सर्वत्र है। प्रियजन को अपनी पुस्तक भेंटते हुए वे एक अद्भुत रेखाचित्र क्षण भर में उस पर बना देते थे। मेरे पास भी उनकी कविता और चित्रकला के बहुत से संग्रहणीय साक्षी हैं।

      मैंने एक बार डॉ० बेचैन से मेरे कॉलेज में हो रहे कवि सम्मेलन हेतु अनुरोध किया। वे बोले, "हिंदू कॉलेज में बुला रहे हो तो मुझे कवि सम्मेलन की जगह साहित्यिक संगोष्ठी में बुलाओ, कविताएँ तो मैं सुनाता ही रहता हूँ मुझसे किसी साहित्यिक विषय पर चर्चा करवाओ।" अवसर की बात है कि लगभग एक महीने बाद ही हिंदू कॉलेज में तीन दिवसीय गोष्ठी हुई जिसमें एक दिन डॉ० बेचैन के नाम हुआ वे 'साहित्य के प्रदेय' विषय पर बोले और बहुत प्रभावी बोले जिसमें विद्यार्थियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के भी उन्होंने सम्यक् उत्तर दिए। विद्यार्थी बहुत ख़ुश हुए और समापन के बाद उनसे आटोग्राफ लेने के लिए भीड़ में बदल गए। डॉ. साहब ने सभी को अपने हस्ताक्षर के साथ-साथ संदेश भी दिए। मैंने पाया कि विद्यार्थियों से भी अधिक प्रसन्न हुए और संतुष्ट कुंअर जी स्वयं थे क्योंकि उन्हें अपने मन की बातें कहने का भरपूर अवसर मिला था, ऐसा उन्होंने मुझे बताया ।

   ग़ज़ल के व्याकरण संबंधित भी उनकी पुस्तक और उनकी एक पत्रिका के दो अंक मेरे पास है। दुष्यंत कुमार के बाद मेरी समझ से डॉ बेचैन ने निरंतर हिंदी ग़ज़ल को विकसित और प्रसारित किया। उनके काव्य अवदान में जहाँ नौ गीत संग्रह है वहीं ग़ज़ल के पंद्रह संग्रह हैं। कविता की अन्य शैलियों में उनके दो कविता संग्रह, एक हाइकु संग्रह एक दोहा संग्रह और एक महाकाव्य भी है। उन्होंने दो उपन्यास भी लिखे जिनमें जी हाँ मैं ग़ज़ल हूँ मेरी पुस्तक संपदा में है। अत्यंत सरस शैली में डॉ. बेचैन ने मिर्ज़ा ग़ालिब की कथा लिखी है जिसमें गजल का मानवीकरण किया है। बेमिसाल है यह उपन्यास |

        जब मैं 'गगनांचल' का संपादन कर रहा था, मैंने बेचैन जी से एक विशेष अंक के लिए उनकी तीन गजलें मांगी जिसपर उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि 'गगलांचल में उनके संस्मरण छपें ताकि विदेश में भी पता चले कि मैं गद्य भी लिखता हूँ। मैंने सहर्ष दो कड़ियों में उनसे संस्मरण लिए जिनमें से जब एक प्रकाशित हुआ इसकी प्रशंसा में बहुत से पाठकों के पत्र आए, उनमें से अधिकतर नहीं जानते थे कि कुंअर जी गद्य भी लिखते हैं। इस संस्मरण का शीर्षक था 'मैं जब शायर बना' इसमें उन्होंने अपने कॉलेज की एक फैन्सी ड्रैस प्रतियोगिता का जिक्र किया था जिसमें वे शायर बने थे और वे अपने घर से ही एक शायर के गेटअप में पान चबाते दाढ़ी लगाए, सिगरेट का धुआँ उड़ाते, छड़ी लिए सभागार में संयोजक के पास पहुँचे और उन्होंने कुंअर जी को सम्मान देते हुए अपने साथ बिठा लिया और कहा कि मुशायरा तो रात आठ बजे से है अभी तो फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता चल रही है, आप प्रतियोगिता देखिए आपका नाम जान सकता हूँ। कुंअर जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा, "जनाब मुझे कासिम अमरोहिणी कहते है सीधे अमरोहा से ही आ रहा हूँ, गजलें और नज्में कहता हूँ ।

      फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता समाप्त हुई तीन पुरस्कार दिए गए। प्रोग्राम समाप्त होने वाला था कि कुंअर जी ने संयोजक से कहा कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ। संयोजक ने घोषणा कर दी कि आदरणीय कासिम अमरोहवी साहब इस प्रतियोगिता के बारे में अपने विचार रखना चाहते है। कुंअर जी ने माइक संभाला और प्रतियोगिता की सराहना करते हुए कहा कि आपने गौर नहीं किया कि एक शख्स और भी है जिसने फैन्सी ड्रेस में हिस्सा लिया लेकिन उसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। यह कहकर उन्होंने अपनी दाढ़ी मूंछे हटा दी। वे पहचान लिए गए और निर्णय बदला गया। ज़ाहिर है उन्हें प्रथम घोषित किया गया।

    डॉ. बेचैन की आदत थी जो मेरी भी थी कि गोष्ठियों में हम दोनों नोट्स लेते थे। मैं उन्हें बोलने के बाद नष्ट कर देता था लेकिन डॉ. बेचैन उन्हें फाइल में रखते थे। उन्होंने पाँच हजार से ज्यादा कवि सम्मेलनों में भाग लिया था। इन नोट्स में कवि सम्मेलन का इतिहास अंकित है जिनके आधार पर उन्होंने दो हज़ार पृष्ठ खुद ही टाइप कर लिए थे। संभवतः आने वाले किसी समय उनकी कवि सम्मेलन महागाथा एक ग्रंथ के रूप में प्रकट हो जाए।

    बहुत सी और भी यादें उनसे जुड़ी हुई हैं। 22 दिसंबर, 2013 डॉ. बेचैन को हिंदी भवन में संवेदना सम्मान प्रदान करने के लिए हिंदी भवन में एक समारोह हुआ जिसकी अध्यक्षता श्री बालस्वरूप राही की थी। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, कृष्ण मित्र, मंगल नसीम और प्रवीण शुक्ल के वक्तव्य थे और मुझे मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। जब अन्यों के भाषण चल रहे थे, डॉ. बेचैन ने मुझे पर्ची पर लिखकर आदेशात्मक आग्रह किया कि मैं जब बोलूं तो केवल उनके काव्य कर्म का ही विश्लेषण करूँ। मैंने ऐसा ही किया था जिससे डॉ. बेचैन बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हुए। उनका कहना था कि प्रायः वक्ता 'कुंअर बेचैन' पर बोलते हैं, कुंअर बेचैन' के काव्य कर्म पर नहीं।

      मुझे उनका एक ऐसा संस्मरण ध्यान आ रहा है जिसमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक आयाम उद्घाटित हुए थे। दिसंबर 2008 में जापान में उर्दू, हिंदी पढ़ाने के सौ वर्ष मनाए गए थे, जिसमें जापान भारत और पाकिस्तान के कवियों का सम्मेलन भी था जिसमें कुंअर बेचैन जी को अध्यक्षता करनी थी। मुझ सहित पाँच प्रतिभागी और थे। पाकिस्तान के दल ने हम भारतीयों की अवहेलना करते हुए बड़ी निर्लज्जता से घोषित अध्यक्ष के स्थान पर पाकिस्तान के तहसीन फिराकी को अध्यक्ष पद पर बैठा दिया। मैंने विरोध में खड़े होकर कुछ कहना चाहा, तो बेचैन ने मेरा हाथ पकड़ मुझे बिठा दिया और बोले, “उन्हें मनमानी करने दो औक़ात पद से नहीं प्रतिभा से जानी जाती है। कुछ न कहो।" मैं चुप होकर बैठ गया। पाकिस्तान के दल ने कवि सम्मेलन के संचालन का दायित्व भी स्वयं हथिया लिया। सम्मेलन आरंभ हुआ पहले पाकिस्तान के कवियों ने अपना रचना पाठ किया, फिर भारत की बारी आई। एक-एक कर सुरेश ऋतुपर्ण, हरजिन्दर चौधरी, लालित्य ललित और मैंने कविताएँ प्रस्तुत की। समापन कवि के रूप में कुंअर बेचैन ने एक ग़ज़ल और एक कविता प्रस्तुत की और बैठने लगे, लेकिन श्रोताओं ने जिनमें पाकिस्तान के कवि भी थे उन्हें बैठने न दिया और एक-एक कर डॉ० बेचैन जी की अनेक रचनाएँ सुनी। सभी उपस्थित जन देर तक खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। पाकिस्तानी दल भी तालियाँ पीट रहा था। अब अध्यक्ष जनाब हसीन फिराकी का उद्बोधन था जिसमें उन्होंने कहा कि वे बहुत शर्मिन्दा हैं कि उनके देश की कविता अभी तक इश्क, हुसन और जुल्फों में ही अटकी हुई है और भारत की कविता ग़रीबी, माँ-पिता, नदी, पेड़ पत्तियाँ और इंसानियत जैसे विषयों को अनेक अर्थ देकर समेटती है; विशेषकर कुंअर बेचैन साहब की रचनाएँ। उन्होंने भी बाकायदा नोट्स बना रखे थे और कुंअर जी की कविताओं को बहुत से उदाहरण देते हुए उनका यशोगान किया।

      बात यहीं नहीं रुकी पाकिस्तान ने डॉ० कुंअर बेचैन का अभिनंदन करने के लिए टोक्यो के एक पाँच तारा होटल में अभिनंदन समारोह और भव्य डिनर आयोजित किया। कुंअर जी के कारण उनके साथ-साथ हम भारतीय साहित्यकारों का ही नहीं अपितु पूरे भारत का अभिनंदन हुआ। कुंअर बेचैन जी का मानना था कि 'शब्द एक लालटेन' है जिसे आप अपने हाथ में लेकर अँधेरा दूर करते चल सकते हो। उन्होंने जीवन भर इस लालटेन को थामे रखा और उनके शब्दों की लालटेन ऐसी है जो कभी भी बुझेगी नहीं, रोशनी देती रहेगी।


✍️ डॉ हरीश नवल

65 साक्षरा अपार्टमेंटस, ए-3 पश्चिम विहार

नई दिल्ली-110063 

मोबाइल फोन नंबर 9818999225 

मेल ::: harishnaval@gmail.com


रविवार, 25 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के प्रथम ग़ज़ल संग्रह “गुनगुनी धूप“ में प्रकाशित डा. कुँअर बेचैन द्वारा लिखी गई भूमिका...."संवेदना की धरती पर आँखों देखे हाल का आलेख हैं कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें।" इस संग्रह का प्रथम संस्करण वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण आठ वर्ष पश्चात 2010 में गुंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ ।




कहा जाता है कि सच्ची कविता अपने युग की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, उनकी विडंबनाओं पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए शाश्वत सत्यों और उन्नत जीवन-मूल्यों की खोज करती है। कवि अपने समय के प्रति जागरूक रहता है, तो भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी करता चलता है। जैसे पुष्प सामने दिखाई देता है, किंतु उसकी सुगंध हवाओं में समाहित होकर दूर तक फैलती है, युगीन कविता भी उसी प्रकार जो सामने है, उस वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उसकी व्यंजनाओं को आगत के लिए सुरक्षित रखती चलती है। इस दृष्टि से इस संकलन के सुकवि श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें सफल और सार्थक ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लें आज की ग़ज़लें हैं, जो पुरानी शैली में लिखी हुई ग़ज़लों से कई अर्थों में भिन्न हैं। उनका कथ्य अब केवल प्रेम और सौंदर्य नहीं है, वरन् आज के इंसान का दुख-दर्द भी है। आज के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक परिवेश पर भी 'नाज़' की ग़ज़ल टिप्पणी करती चलती है। उनमें भाषा की नवीनता है, प्रतीक और बिंब भी नये हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें बिल्कुल नयी हैं। इश्क की शायरी से हटकर उनकी ग़ज़लें आम आदमी की मजबूरियों को संवेदनात्मक स्तर पर समझते हुए चिंता में डूबी ग़ज़लें लगती हैं।

कुम्हलाई फ़स्लें तो खुश हैं, बादल जल बरसायेंगे 

सोच रहे हैं टूटे छप्पर, वो कैसे बच पायेंगे

यही नहीं, उनका ध्यान उन अधनंगे बच्चों पर भी जाता है, जो कूड़े के ढेर में से पन्नी चुनने को मजबूर हैं, क्योंकि ये चुनी हुई पन्नियां ही उनको कुछ पैसे दिला पायेंगी, जिससे वे अपना पेट भर सकेंगे

कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे

पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है

आर्थिक दृष्टि से समाज में कितनी विषमता है। यह देश जिसके कानून की नींव 'समाजवादी ढाँचे का समाज' होने पर रखी गई है, उसी देश में एक ओर ऊँची अट्टालिकाएँ हैं तो दूसरी ओर झोंपड़ियाँ।  कवि 'नाज़' ने इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए कितना प्यारा शेर कहा है

किसी के जिस्म को ऐ 'नाज़' चिथड़ा तक नहीं हासिल 

किसी की खिड़कियों के परदे भी मख़मल के होते हैं

और इसी समाज में जो बड़े लोग हैं, वे छोटों को शरण देने के बजाय उन्हें लील जाते हैं। यह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक ऊँच-नीच छोटों को अस्तित्व-विहीन बनाने में संलग्न है। 'सर्वाइवल आफ़ फ़िटेस्ट' में जो बड़े हैं, उन्हें ही 'फिटेस्ट' माना जाता है। छोटी मछली, बड़ी मछली के प्रतीक के माध्यम से कवि ने यह बात ज़ोरदार तरीके से कही है

निगल जाती है छोटी मछलियों को हर बड़ी मछली

नियम-कानून सब लागू यहाँ जंगल के होते हैं

आज जीवन-मूल्यों का इतना पतन हुआ है कि वे लोग जो अच्छे हैं, सच्चे हैं, वे ही दुखी हैं। झूठ तथा ऐसी ही अन्य नकारात्मक स्थितियाँ सच्चाई तथा ऐसे ही अन्य सकारात्मक मूल्यों पर विजय प्राप्त करती नज़र आ रही हैं। सच की राह पर चलने वाले लोगों की हालत बिगड़ी हुई है

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 

सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है

जब घर का मुखिया ठंडा चूल्हा देखता है, खाली बर्तन देखता है, बच्चों की भूख और उनके नंगे जिस्मों को देखता है, तब आखिर सच की राह पर चलना उसके लिए सचमुच ही नामुमकिन हो जाता है। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने जीवन मूल्यों के पतन के पीछे छिपे 'गरीबी' के तथ्य को ठीक से समझा है और इसी कारण को ख़ास तौर से रेखांकित किया है।

आज महँगाई का बोझ और काम का बोझ व्यक्ति को कितना तोड़ रहा है, कवि की दृष्टि उधर भी गई है। वेतनभोगी, निम्न-मध्यवर्गीय या मध्यम वर्ग के लोगों की कठिनाइयों को एक बहुत ही सुंदर शेर में अभिव्यक्त किया है

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं

हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

भौतिक सभ्यता का प्रभाव आज के व्यक्ति के ज़हन में इस क़दर घर कर गया है कि वह चाहे भीतर-भीतर कितना ही टूटा हुआ हो, बाहर से ठीक-ठाक दिखाई देना चाहता है। वह अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छुपाने में लगा है

घर की खस्ताहाली को वो कुछ इस तौर छुपाता है 

दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें चिपकाता है

आज आम आदमी के सम्मुख रोटी का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। रात हो या दिन, हर समय उसे यही चिंता है कि उसके परिवार वालों को कोई कष्ट न हो। इसी चिंता में नींदें भी गायब हो गई हैं

पेट की आग बुझा दे मेरे मालिक, यूँ तो 

भूख में नींद भी आते हुए कतराती है।

बड़ी कविता वह होती है जिसमें कवि जीवनानुभवों को चिंतन और भाव की कसौटी पर कसकर दुनिया के सामने लाता है और उसमें उसके अभिव्यक्ति-कौशल की क्षमताएँ दिखाई देती हैं। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने विभिन्न जीवनानुभवों को बड़े ही खूबसूरत ढंग से नज़्म किया है। इस अभिव्यक्ति में उन्होंने सुंदर प्रतीकों को माध्यम बनाया है। संसार में सबसे कठिन कार्य है सबको साथ लेकर चलना,क्योंकि कहा भी गया है- 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नः'। सबके अलग-अलग विचार होते हैं, उनमें एकरूपता उत्पन्न करना कोई हँसी-खेल नहीं है। 'नाज़' साहब ने इस बात को एक सच्ची हकीकत, जो रोज़ देखने में आती है, के माध्यम से व्यक्त किया है

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़' 

एक कदम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

दुनिया में यह भी देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति का अहंकार नहीं रहा है। जो अपनी औकात से बढ़ता है, उसे भी उसके किये की सज़ा मिलती जरूर है। इस बात को जिस उदाहरण द्वारा कवि कृष्ण कुमार ने समझाया है, वह काबिले तारीफ़ है

अपनी औकात से बढ़ने की सज़ा पाती है 

धूल उड़ती है तो धरती पे ही आ जाती है

सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जब हमें किसी विशेष स्थिति या बात की आवश्यकता होती है, तब ही जिससे हमें कुछ प्राप्त करना होता है, उसके नखरे बढ़ जाते हैं। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को कवि ने विभिन्न संदर्भों एवं आयामों से जोड़कर इस प्रकार व्यक्त किया है 

नहाते रेत में चिड़ियों को जब देखा तो ये जाना

ज़रूरत हो तो नखरे और भी बादल के होते हैं

व्यक्ति तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छिपाता है। सच बात तो यह है कि यदि हममें हौसला होता है तो 'थकन' आदि कुछ भी अपना अस्तित्व नहीं रख पाती हैं। जब हम हौसला हार जाते हैं, तब ही सारी चीजें मुसीबतें बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं

थकन तो 'नाज़' है केवल बहाना

हमारे हौसले ही में कमी है

कृष्ण कुमार 'नाज' की गजलें सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी गजलों में सौंदर्य और प्रेम का अहसास नहीं है। सच तो यह है कि अहसास के स्तर पर भी एक गहन आलोक छोड़ जाती हैं। इसी रंग के दो शेर देखें

काग़ज़ के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए

 लिपटी हुई है एक महक फूलदान से

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है साथ अपना कई जनमों पुराना 

तू कागज़ है, मैं तेरा हाशिया हूँ

इस प्रकार आज के ग़ज़लकारों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले एक सलीके के गजलकार श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें जहाँ एक ओर अपने युग का चित्रण हैं, वहीं उसके रंग और रूप कुछ ऐसा संकेत भी देते चलते हैं, जो युग को केवल चित्र ही नहीं बने रहने देते, वरन् मानवतावादी दृष्टि, संवेदना और शाश्वत मूल्यों की रक्षा के संकल्प की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करते हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें एक ओर भाषा की सरलता एवं 'कहन' की सहजता से सुसज्जित हैं, तो दूसरी ओर अपने गूढ़ार्थों को कुछ इस प्रकार छिपाये रखती हैं कि वे स्पष्ट भी होते चलते हैं। यदि वे एक ओर संवेदना की धरती की गंध से आवेशित हैं, तो दूसरी ओर उनमें जागरूक विचारों का गौरवशाली स्पर्श भी है। यदि वे एक ओर बंद आँखों से देखा गया 'आलोक' हैं, तो दूसरी ओर खुली आँखों से देखा हुआ वह 'आलेख' भी, जो आम आदमी के मस्तक की रेखाओं से झाँकता है। उनकी गज़लें वह मानसरोवर हैं, जिसमें मुक्त विचारों के हंस तैरते हैं, वह नदी हैं जिसमें भावनाएँ बहती हैं, वह सागर हैं जिसका ज्वार अनेक समस्याओं के जहाज़ों को पार लगाने का साधन बन सकता है।




✍️ डा. कुँअर बेचैन 




शनिवार, 14 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कृति ' इतनी ऊंची मत छोड़ो' में प्रकाशित गाजियाबाद के साहित्यकार( मूल निवासी मुरादाबाद जनपद ) स्मृतिशेष डॉ कुँअर बेचैन का आलेख --- 'कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें अर्थात् मानवता की पहरेदारी'। यह कृति पुस्तकायन नयी दिल्ली द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित हुई ।


इन दिनों हिन्दी कविता के क्षेत्र में ग़ज़ल ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया है। इधर हिन्दी में अनेक कवि ग़ज़लें कह रहे हैं। किंतु हास्य कवियों में बहुत ही कम ऐसे कवि हैं, जिन्होंने ग़ज़ल विधा में अपनी बात को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करके और ग़जल में 'ग़ज़लियत' को सुरक्षित रखते हुए कहा हो; किंतु हास्य रचनाकार हुल्लड़ मुरादाबादी ने हिन्दी कविता की अन्य विधाओं और रूप-पद्धतियों में तो अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल भारत में वरन् भारत के बाहर भी लोगों के मन को गुदगुदाया है और प्रफुल्लित किया है, वरन् अपनी ग़ज़लों के माध्यम से भी उन्हें आनन्दित किया है। उन्हें ग़ज़ल की अच्छी पकड़ है। 'शे'रियत' पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। वे हास्य और व्यंग्य के कवि हैं, अतः वे व्यंग्य को मीठी चाशनी में लपेटकर अपने अशआर को कुछ उस ढंग से सौंपते हैं, जिसे पाकर कोई भी आनन्दित और उल्लसित हो उठे।

       गंभीर रूप से ग़ज़ल-लेखन से जुड़े ग़ज़लकारों ने सामान्यतः अपनी शायरी को 'प्रेम' पर ही केन्द्रित रखा या फिर वह 'इश्क मिज़ाजी' से होते हुए 'इश्क हक़ीक़ी' की तरफ बढ़ी, किंतु बाद के ग़ज़लकारों ने आम ज़िन्दगी की समस्याओं को भी अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया, जिनमें राजनीति, धर्म और संस्कृति, समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और साहित्यिक वातावरण भी मुख्य हैं। दुष्यन्त और उनसे पहले भी हिन्दी-ग़ज़ल में प्रेम की आँच के साथ-साथ उस आग का भी जिक्र हुआ जिसकी लपटें आम आदमी को किसी-न-किसी प्रकार से झुलसा रही हैं। 'ग़मे जानाँ' से 'ग़मे दौरां' तक ग़ज़ल की यात्रा हुई। विभिन्न सोपानों एवं राहों से निकलते हुए ग़ज़ल का अनुभव बढ़ा। उसने अनेक दशाओं एवं दिशाओं को आत्मसात किया। हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़ले भी भारतीय समाज की मनः स्थितियों में प्रवेश करके, उनमें टहलकर, घूम फिरकर और 'फिक्र' से जुड़कर अपनी बात कहती है।

       वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की बड़ी दुर्दशा हुई है। राजनीतिज्ञ राजनीति में से नीति को निकालकर बाहर फेंक चुके हैं। नैतिकता ढूँढे नहीं मिलती। इसी कारण राजनेता जो कभी आदर के पात्र थे, अब व्यंग्य के विषय बन गये हैं। उनकी फ़ितरत में धोखेवाजी और स्वार्थपरता आकर समा गई हैं। हुल्लड़ मुरादाबादी ने यों तो बहुत-से अशआर वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों पर कहे हैं, किंतु जो शे'र यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, वह व्यंग्य-विधा की दृष्टि से बड़ा ही पुष्ट और अनूठा है

"दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटरों के लिए

इसको कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा" 

       उक्त शेर में दो बातें दृष्टव्य है। एक तो 'दुम हिलाने की प्रक्रिया और दूसरी "भेड़िया हो जाने की बात 'दुम हिलाने की प्रक्रिया से जो चित्र उभरता है, वह कुत्ते का है और भेड़िया तो भेड़िया है ही -खुंखार और कपटपूर्ण व्यवहार करने का प्रतीक। जो लोग चित्रकला में 'कार्टून विधा से परिचित हैं, वे लोग जानते होंगे कि 'कार्टूनिस्ट' जब किसी व्यक्ति का कार्टून बनाता है तो उसके भीतरी स्वभाव को पशुओं की आकृति को सांकेतिक छवियों से भी चित्रित करता है। अच्छे व्यंग्यकारों को भी इसकी समझ होती है। हुल्लड़ मुरादाबादी व्यंग्य के इस साधन से भलीभाँति परिचित है। इसी कारण उन्होंने इस शेर में राजनीतिज्ञों का शाब्दिक 'कार्टून बनाने का प्रयास ही नहीं किया, वरन बड़ी ही सफलता से उसे चित्रित भी किया है। राजनीतिज्ञों के चेहरे में भेड़ियों का चेहरा उभर आना, अपने आप में इस बात का प्रमाण भी है। राजनीतिज्ञों और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कुछ और भी अच्छे शेर कहे है

"लीडरों के इस नगर में है तेरी औकात क्या

अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायेगा"


बात करते हो तुम सियासत की 

वो तो पक्की छिनाल है दद्दा

       राजनीतिज्ञों द्वारा आम जनता के शोषण की बात को जिस ढंग से और जिस शब्दावली में हुल्लड़ जी ने कहा है वह भी अत्यंत रोचक, किंतु गंभीर है। व्यंग्य के साधनों में अच्छे व्यंग्यकार श्लेष से भी काम लेते हैं। हुल्लड़ जी ने इस एक शेर में इसी पद्धति से अच्छा काम लिया है। वे कहते हैं

"यह तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना

 फ़िक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं"

       यहाँ 'आम जनता' में 'आम' शब्द का प्रयोग दुतरफा है। 'आम' फल भी है जिसे चूसा जाता है और 'आम जनता' भी जिसे चूसा जा रहा है। यहाँ श्लेष प्रयोग की पद्धति से हुल्लड़ जो ने इस शेर को व्यंग्य की दृष्टि से बहुत ऊँचाई दे दी है। शब्दावली ऐसी जो हंसाए और शब्दों के अर्थ में ऐसी करुणा कि आदमी भीतर-ही भीतर रो उठे। यहीं यह बात भी कहना चाहूँगा कि व्यंग्य का वास्तविक आधार करुणा है। वह तो आंसू को हंसी बनाकर पेश करता है, या यों कहें कि हँसी के भीतर आँसू को इस तरह से विठाता है कि हंसी का पर्दा हटते ही आँसू दिखाई दे जाये। आज के समय में देश की अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है। महँगाई फन फैलाए खड़ी है। आम आदमी ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहा कवि हुल्लड़ का काम केवल हंसाना ही नहीं है, वरन मर्मस्पर्शी स्थितियों का साक्षात्कार कराना भी है। आज के आम आदमी या निम्न-मध्यवर्गीय परिवार को संबोधित करते हुए वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कितनी अधिक अनुभव को सच्चाई और विवशतापूर्ण छटपटाहट है

"जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू

रोज़ ही क्यों सर मुंडाना चाहता है।"

      यहाँ सर मुंडाने के प्रचलित मुहावरे से कवि ने आर्थिक शोषण को समझाने का प्रयास किया है। यह व्यवस्था मांसाहारी है, शाकाहारी नहीं। यह खून पीने में विश्वास रखती है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए हुल्लड़ जी इस प्रकार शेर कहते हैं

"यह व्यवस्था खून चूस लेगी तुम्हारा

शेर को ककड़ी खिलाना चाहता है" 

     यहाँ भी वही बात। उन्होंने 'व्यवस्था' शब्द में 'मानवीकरण' का प्रयोग किया है और इस प्रकार व्यवस्था को एक इनसान का रूप दिया गया है, और बाद में उस व्यवस्था के चेहरे में 'शेर' के चेहरे का भी रेखांकन किया गया है। यहाँ भी कार्टून शैली में ही अभिव्यक्ति हुई है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ एक नये मुहावरे का भी गठन किया है-'शेर को ककड़ी खिलाना'। अच्छे रचनाकार बात-बात में ही नये मुहावरे गढ़ जाते हैं और उन्हें स्वयं पता भी नहीं चलता कि वह नया मुहावरा गढ़ गए। इस शेर के साथ भी यही हुआ है।

     हुल्लड़ जी का ध्यान आज की व्यवस्था (Administration) और उसकी विद्रूपताओं पर भी गया है। आजकल समाज व्यवस्था को 'माफिया' व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा शासन व्यवस्था भी धीरे-धीरे माफियाओं के हाथों में आती जा रही है। इस सम्बंध में हुल्लड़ जी का एक शे'र देखें

"हर तरफ हिंसा, डकैती, हो रहे हैं अपहरण

रफ्ता-रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा" 

     पूरे समाज में 'रिश्वतखोरी', 'भाई भतीजावाद' का बोलबाला है। इस सच्चाई की ओर भी कवि का ध्यान गया है और वह साफ शब्दों में कह उठता है

"बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को

 क्यों नदी में घर बनाना चाहता है"

ग़ज़ल के शे'र में शे रियत तब पैदा होती है जब उसे सही मिसाल (उपमा) मिल जाय-ऐसी उपमा जो कथ्य को उभारकर बाहर ले आये। सिफ़ारिश के बिना नौकरी मिलने की नामुमकिन कहानी को नदी में घर बनाने की मिसाल देकर स्पष्ट किया है। साहित्यिक क्षेत्र में होने वाली अवमाननाओं और अवमूल्यनों पर दृष्टिपात करते हुए संकेत से उधर भी इशारे किए गए हैं। आजकल कवि-सम्मेलनों में अधिकतर हास्य कवि घिसे-घिसाए पुराने चुटकुलों के सहारे जमे बैठे हैं, जबकि कविता से उनका दूर-दूर का भी सम्बंध नहीं है। हुल्लड़ जी ऐसे कवियों पर और ऐसे मंचों पर सीधी चोट करने हुए कहते हैं

"गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यूमर, सेटायर आजकल"

यह तो रही अलग-अलग परिस्थितियों की बात किंतु हुल्लड़ जी ने मानव-मात्र पर भी व्यंग्य किए हैं जो कहने को तो बहुत सभ्य हो गया है, किंतु आज भी उसकी फितरत वही है जब वह बंदर था। क्योंकि आदमी जितना आदमी के खून का प्यासा हुआ है, जानवर भी नहीं है। हुल्लड़ जी कहते हैं—

“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी 

है हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल"

       हुल्लड़ जी ने, वर्तमान समाज में जो मूल्य-विघटन हुआ है, नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है, उसे भी अच्छी प्रकार से देखा और समझा है और इसलिए । और आह के साथ वो कह उठते हैं कराह

"क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे 

उम्रभर क्या घास खाना चाहता है"

     आज के समय में सिद्धांत किसी का पेट नहीं भरते। उल्टे उसे मूर्ख साबित करते हैं। यदि हुल्लड़ जी चाहते तो उक्त शे'र में कहीं भी 'गधे' शब्द का प्रयोग करके गधे का लाक्षणिक अर्थ 'मूर्ख' व्यक्त करने में सफल हो जाते, किंतु जगह-जगह पर 'गधा', 'उल्लू' आदि कहने से एक बड़ा घिसा-पिटापन आ जाता है। अतः उन्होंने इस शब्द का प्रयोग न करके ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जिससे 'गधे' का ही अर्थ निकलता है। 'उम्रभर क्या घास खाना चाहता है' में घास खाने की प्रक्रिया विशेष रूप से 'गधे' से जुड़ी है, अतः कवि का अभिप्राय समझ में आ जाता है कि क्या तू हमेशा "गधा' ही बना रहना चाहता है ? साथ ही घास खाने वाली बात के माध्यम से अनजाने ही एक प्रसंग जुड़ जाता है और वह है महाराणा प्रताप का प्रसंग, जिन्होंने अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए घास की रोटी खाना स्वीकार किया था। इस कथा से भी यही व्यंजना निकलती है। जब कवि सिद्ध हो जाता है तब ही इस प्रकार की शब्दावली और व्यंजनाओं का प्रयोग कर पाता है। और यह सत्य है कि कविवर हुल्लड़ में यह सिद्धहस्तता है।

     ग़ज़ल के शेर जितने ही अनुभव के करीब होते हैं, उतने ही वे बड़े और महान होते जाते हैं तथा उद्धरण देने योग्य भी। हुल्लड़ की ग़ज़लो में अधिकतर अशआर उन्हें अनुभव की विरासत से ही मिले हैं। कुछ उदाहरण देखें

दोस्तों को आजमाना चाहता हैं

घाव पर फिर घाव खाना चाहता है।


जो कि भरता है ज़ख्म दिल के भी

 वक्त ही वो 'डिटॉल' है दद्दा


 घाव सबको मत दिखाओ तुम नुमाइश की तरह

यह अकेले में सही है गुनगुनाने के लिए। 


 देखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोई 

 लोग मौका ढूंढते हैं काट खाने के लिए


इतनी ऊँची मत छोड़ो गिर पड़ोगे धरती पर 

क्योंकि आसमानों में सीढ़ियाँ नहीं होतीं। 

हुल्लड़ मुरादाबादी ने ग्रामीण बोध से हटते हुए लोगों और महानगरीय संवेदनाओं में फंसे हुए इनसानों एवं उनकी फितरतों पर भी टिप्पणी की है

“यह तो पानी का असर है तेरी ग़लती कुछ नहीं 

बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा "

  यहाँ 'बम्बई' महानगर सम्पूर्ण महानगरों की परिस्थितिजन्य विवशताओं की ओर संकेत करता है और उसी में महानगरीय संस्कृति पर भी व्यंग्य करता है। हुल्लड़ जी ने यों तो बहुत से अच्छे शेर कहे हैं, किंतु जो शेर शायद लोगों की जुबान से कभी नहीं हटेगा और लोगों के ज़ेहन में हमेशा रहेगा वह यह दार्शनिक शे'र है 

  "सबको उस रजिस्टर में हाज़िरी लगानी है। 

  मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं"

        लगता है जैसे कि यह शेर कोई हास्य का कवि नहीं, वरन् कोई ‘फ़िलॉसफर कह रहा है। ऐसे अशआर सुनकर या इसी प्रकार की कविताओं को पढ़ या सुनकर हो शायद कवि के बारे में यह कहा गया है वह फ़िलॉसफ़र भी होता है। हुल्लड़ के व्यक्तित्व में खुद्दारी का गुण अपना एक विशेष गुण है। अतः उनको खुद्दारी से जुड़ा हुआ एक और शे'र भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है

 “मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का

  मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए"

   हुल्लड़ जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि हैं। अतः उन्होंने शिल्प की दृष्टि से अपने कथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए ग़ज़ल का चुनाव करने पर भी, ऐसी शब्दावली को नहीं छोड़ा है जो स्वतः हास्य की प्रेरणा देती है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में यों तो स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द सहज रूप से आने दिए हैं, जिनमें से हास्य की किरणें फूटती हैं, किंतु मुख्यतः रदीफ़ तथा काफ़िया के स्थान पर ऐसे शब्दों के प्रयोग से यह हास्य की छटा और भी अधिक निखरी है; उस दृष्टि से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-- 


 "जोकि भरता है जख्म दिल के भी 

 वक्त ही वो डिटॉल है दद्दा "


 “आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल "


मेरे शेरों में आग है हुल्लड़ 

उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा'


इसी प्रकार उपर्युक्त शेरों में रेखांकित( बोल्ड ) शब्दों पर गौर कीजिये। निश्चय ही ये शब्द ऐसे हैं जिन्हें सुनकर और पढ़कर रसिकों को हँसी आ जाएगी। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी ऐसा हुआ है। एक ग़ज़ल में 'भानजे' शब्द का रदीफ़ लेकर महाभारत 'शकुनि' का चित्र और उसकी चालों की ओर संकेत किया है और हँसी हंसी में व्यंग्य की पैनी धार को भी आने दिया है।

इस प्रकार कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें एक ओर ग़ज़लों के व्याकरण उनके क़ायदे-कानूनों पर खरी उतरती हैं तो दूसरी ओर वे व्यंग्य की दृष्टि से बहुत सफल और सार्थक हैं। वे कभी 'कैरिकेचर' द्वारा व्यंग्य की सृष्टि करती हैं, तो कभी 'उपहास-शैली' की सशक्त परम्परा का निर्वाह करके उसे नये आयाम देती हैं, कभी विडम्बन (irony) द्वारा किसी सामाजिक या अन्य विषयक विकृति को उकेरती हैं, कभी 'श्लेष-पद्धति' द्वारा हास्य पैदा करके व्यंग्य के विभिन्न सोपानों पर ऊँचाइयाँ पा रही हैं। व्यंग्य के शिल्प से हुल्लड़ जी भलीभांति परिचित हैं, अतः उन्होंने जहाँ जिस प्रकार की व्यंग्य-शैली और व्यंग्य-भाषा की आवश्यकता है, वहाँ वैसी ही भाषा और शैली प्रयोग किया है और यह प्रयोग बड़ी सफलता से किया है। इन ग़ज़लों द्वारा कवि हुल्लड़ जी ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर इन ग़ज़लों के द्वारा वे अच्छे ग़ज़लकारों में अपना नाम लिखवा रहे हैं तो दूसरी ओर इन ग़ज़लों द्वारा एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार की छवि भी बनाने में सफल हुए हैं। उनकी ग़ज़लें आज के समाज व यथार्थ चित्र हैं—ऐसा यथार्थ चित्र जो एक ओर तो हमारे हृदय को भीतर-ही-भीतर उद्वेलित करता है तो दूसरी ओर हमें यह प्रेरणा भी देता है कि हम अपने-आप सुधारें और पूरा समाज से उन विकृतियों को हटाएँ जो हमारी सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को रोग-ग्रस्त कर रही हैं। कविवर हुल्लड़ की ये ग़ज़लें सचमुच ही अंधकार में टहलती हुई चिंगारी की तरह हैं; वे मानवता की पहरेदारी करते हुए उसे जीवित रखने संकल्प हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी श्रेष्ठ और उद्देश्यपूर्ण ग़ज़लों का पाठक भरपूर स्वागत करेंगे।



✍️ कुँअर बेचैन 

 2 एफ-51 नेहरूनगर

 ग़ाज़ियाबाद


:::::::::::प्रस्तुति:::::::::


डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का नवगीत ---बहुत प्यारे लग रहे हो-


 _                

बहुत प्यारे लग रहे हो 

ठग नहीं हो, किन्तु फिर भी 

हर नजर को ठग रहे हो 

                         बहुत प्यारे लग रहे हो


दूर रहकर भी निकट हो 

प्यास मैं, तुम तृप्ति घट हो 

मैं नदी की, इक लहर हूँ

तुम नदी का, स्वच्छ तट हो

सो रहा हूँ किन्तु मेरे 

स्वप्न में तुम जग रहे हो 

                        बहुत प्यारे लग रहे हो


देह मादक, नेह मादक

नेह का मन गेह मादक 

और यह मुझ पर बरसता 

नेह वाला मेह मादक 

किन्तु तुम डगमग पगों में,

एक संयत पग रहे हो 

                       बहुत प्यारे लग रहे हो 


अंग ही हैं सुधर गहने

हो बदन पर जिन्हें पहने 

कब न जाने आऊँगा मैं

यह जरा-सी बात कहने

यह कि तुम मन की अंगूठी के

अनूठे नग रहे हो 

                      बहुत प्यारे लग रहे हो

✍️ डॉ कुंअर बेचैन

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का गीत ----बेटियाँ- पावन-ऋचाएँ हैं बात जो दिल की, कभी खुलकर नहीं कहतीं...... यह गीत उन्होंने 11 अप्रैल 1987 को लिखा था ।

                         


 बेटियाँ-

शीतल हवाएँ हैं

जो पिता के घर

 बहुत दिन तक नहीं रहती

ये तरल जल की परातें हैं

लाज़ की उज़ली कनातें हैं

है पिता का घर हृदय-जैसा

ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं

बेटियाँ-

पावन-ऋचाएँ हैं

बात जो मन की, 

कभी खुलकर नहीं कहतीं

हैं तरलता प्रीति- पारे की

और दृढता ध्रुव-सितारे की

कुछ दिनों इस पार हैं लेकिन

नाव हैं ये उस किनारे की

बेटियाँ-

ऐसी घटाएँ हैं

जो छलकती हैं, 

नदी बनकर नहीं बहतीं

✍️ डॉ कुंअर बेचैन

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का सन 1975 में लिखा गीत ---- जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने, दादी की हँसुली ने माँ की पायल ने, उस कच्चे घर की सच्ची दीवारों पर, मेरी टाई टँगने से कतराती है !


जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने 

दादी की हँसुली ने माँ की पायल ने 

उस कच्चे घर की सच्ची दीवारों पर

मेरी टाई टँगने से कतराती है !


माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी

एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना

यह अन्तर ही सम्बंधों की गलियों में

ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना

जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने

बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने

उन दीवारों पर टँगने से पहले ही 

पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है !


जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने

छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती

तब से लिपे आँगनों से, दीवारों से 

बन्द नाक को सोधी गंध नहीं आती

जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने 

सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने

पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी

उस घर को घर कहने में शरमाती है !


साड़ी-टाई बदलें या ये घर बदलें 

प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता

कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम

तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता

जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने 

खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने 

उन संकेतों वाले भावुक घूंघट पर 

दरवाजे की 'कॉल बेल' हँस जाती है !

✍️ डॉ कुंअर बेचैन