मंगलवार, 31 अगस्त 2021

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) के फेसबुक पर संचालित समूह सुमन साहित्यिक परी की ओर से रविवार 29 अगस्त2021 को आयोजित ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी


मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) के फेसबुक पर संचालित समूह सुमन साहित्यिक परी की ओर से रविवार 29 अगस्त 2021 को  स्ट्रीम यार्ड पर, गीत और नवगीत विधाओं पर आधारित "रसभरे  व अलबेले गीत-नवगीत" शीर्षक से ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका प्रसारण समूह के पेज दीपिका माहेश्वरी 'सुमन'  पर लाइव किया गया। मुरादाबाद के युवा रचनाकार राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माँ सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए  कार्यक्रम में विभिन्न रचनाकारों ने अपने गीतों/ नवगीतों के माध्यम से अलबेली छटा बिखेरी। संचालन दीपिका माहेश्वरी 'सुमन' ने किया।

काव्य पाठ करते हुए मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने व्यंग्य के पैने तीर छोड़ते हुए कहा--- 

"स्वाभिमान भी गिरवीं 

रख नागों के हाथ। 

भेड़ियों के सम्मुख

टिका दिया माथ। 

इस तरह होता रहा 

अपना चीरहरण।" 

मुरादाबाद के युवा रचनाकार राजीव प्रखर ने पारिवारिक मूल्यों का स्मरण करते हुए कहा - 

"वही पुरानापन आपस का, 

वापस लायें। 

चौके में पहले सी पाटी, 

चलो बिछायें।" 

नजीबाबाद की कवयित्री तथा समूह संस्थापिका दीपिका माहेश्वरी 'सुमन' (अहंकारा) ने अपने गीत को विरह का रंग दिया - 

"अश्रुधारा क्यों है भरी,

इन आंखों में बोलो प्यारी। 

पीड़ा कहो कुछ हम से

अब पद्मन के खोलो प्यारी ॥"

लखनऊ के उदय भान पाण्डेय 'भान' की प्रस्तुति इस प्रकार रही -  

"मीत, तुझे  कैसे  समझाऊँ...

मैं हूँ इक आवारा बादल,

तेरे ढिग  कैसे  मैं  आऊँ।। 

मीत, तुझे कैसे समझाऊँ... । 

खण्डवा (म. प्र.) के सुप्रसिद्ध नवगीतकार श्याम सुंदर तिवारी ने आयोजन की रंगत बढ़ाते हुए कहा  - 

"आँच है अब भी अलावों में। 

रहेंगे कब तक अभावों में।। 

पूस के घर रात ठहरी है। 

रोशनी अंधी है बहरी है।

बन्द हैं सपने तनावों में।।" 

कोलकाता से उपस्थित हुए वरिष्ठ कवि कृष्ण कुमार दुबे ने गीत प्रस्तुत किया-

"प्यार जब से मिला है तुम्हारा प्रिये, 

सूने मन को हमारे सदाएँ मिलीं। 

दो दिलों का परस्पर मिलन हो गया, 

बंध अनुबंधी नूतन कथाएँ मिलीं।" 

जबलपुर से उपस्थित हुए वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने कार्यक्रम को और भी ऊँचाई पर ले जाते हुए नवगीत से कुछ इस प्रकार मंच को सुशोभित किया-

"मानव !क्यों हो जाते, 

जीवन संध्या में एकाकी?" 

कानपुर के रचनाकार विद्याशंकर अवस्थी पथिक ने गीत में देशभक्ति का रंग उड़ेला-

"आज मैं प्यारे भारत की एक गौरव गाथा गाता हूं। अमर शहीद उन वीरों की तुमको कथा सुनाता हूं॥"

जयपुर  से सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोप कुमार मिश्र दद्दू ने अपने गीत का रंग कुछ इस प्रकार घोला- 

"अश्रुधार की मुस्कानों में,

बचपन लिखता गजब कहानी। 

जज्ब हुए जज्बात बन गये, 

ढुलक गया वो बहता पानी।।" 

जबलपुर से सुप्रसिद्ध रचनाकार बसंत कुमार शर्मा की सुंदर अभिव्यक्ति इस प्रकार रही -

"सूरज से की जल की चाहत, 

कैसी हमसे भूल हो गई। 

आशाओं की दूब झुलसकर, 

धरती की पग धूल हो गई." 

जबलपुर से ही उपस्थित साहित्यकार  मिथिलेश बडगैया ने सुंदर गीत से समां बांधा -

"मैं संध्या का वंदन हूंँ , 

मैं प्रत्यूषा का स्वागत हूंँ। 

नदियों के कल-कल निनाद से,  

झंकृत हूंँ, मैं भारत हूंँ।" 

लखनऊ से सुप्रसिद्ध साहित्यकार नरेन्द्र भूषण ने कहा -

 "सुनते नहीं और की बस अपनी ही बात सुनाते लोग।। 

अर्थों के भी अर्थ पुनः उसके भी अर्थ लगाते लोग।।" 

लखनऊ से ही प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कुलदीप नारायण सक्सेना  ने गांव की याद दिलाते हुए गीत मैं गांव की मिट्टी का रंग उड़ेला- 

"खेल रहा था यहीं कहीं पर 

खोजो, मेरा गांव खो गया। " 

लखनऊ से वयोवृद्ध साहित्यकार देवकीनंदन शांत ने सुरमय गीत की छटा कुछ इस प्रकार बिखेरी - 

"फूल अपना जवाब माँगे है! 

अपनी खुशबू गुलाब माँगे है !!" 

समूह संस्थापिका तथा कार्यक्रम-संचालिका दीपिका माहेश्वरी 'सुमन' ने आभार-अभिव्यक्त किया।

 

सोमवार, 30 अगस्त 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । इस आयोजन में समूह में शामिल साहित्यकार अपनी हस्तलिपि में चित्र सहित अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं । रविवार 29 अगस्त 2021 को आयोजित 267 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों की रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में ......













मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार त्यागी अशोक कृष्णम का गीत ....भारत मां सा चेहरा तेरा मन है पाकिस्तानी


नहीं चाहिए हमें किसी का घोड़ा गाड़ी कोठी 

हम तो खुश हैं खाकर दैय‌्या इज्जत की दो रोटी

कितनी कसकर तुझको बांधू करता है शैतानी

मैंने लाख कहीं तुझसे पर तैने  एक न मानी


ताका झांकी इधर उधर की गंदी बातें राजा

मैं हूं घर में अनमनी सी तू भी लौट के आजा

छोटी मोटी बातों पे क्यों छोड़े दाना पानी

मैंने लाख कहीं तुझसे पर तैने एक न मानी


हम हैं तेरी जान के दुश्मन दुश्मन तेरे याडी

कुर्ता लगता तुझे पजामा चुनर लगती साड़ी

दो और दो मत आठ बतावै चार हैं राजा जानी

मैंने लाख कहीं तुझसे पर तैने एक न मानी


जोड़ें और जगोडे मेरे तैने खूब लुटाए

यारों के संग चोरी चुपके जमकर मजे उड़ाए

भारत मां सा चेहरा तेरा मन है पाकिस्तानी

मैंने लाख कहीं तुझसे पर तैने एक न मानी


दो चुल्लू के चक्कर में क्यों पहुंच गया तू दिल्ली 

बिल्ली ने काटा है रास्ता निकल जाएगी किल्ली

उतरिया लाल किले से नीचे तेरी मर जाएगी नानी

मैंने लाख कहीं तुझसे पर तैने एक न मानी


सुन ना पाई मैं तेरी तू समझ ना पाया मुझको

 मैं हूं तेरी पूर्णमासी चंदा भाया मुझको

 तेरा मेरा कैसा झगड़ा कैसी खींचम तानी

मैंने लाख कहीं तुझसे पर तैने एक न मानी


✍️ त्यागी अशोका कृष्णम‌्, कुरकावली संभल, उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 29 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की प्रथम नाट्य कृति - छत्रपति शिवाजी । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1958 में सफलता पुस्तक भंडार, रेती स्ट्रीट ,मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। द्वितीय संस्करण वर्ष 1990 में प्रकाशित हुआ । इस कृति की प्रशंसा प्रख्यात साहित्यकार राम कुमार वर्मा और वृन्दालाल वर्मा जी ने भी की है ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरी कृति

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:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शनिवार, 28 अगस्त 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा ---सच्चा तोहफा

"उफ्फ न जाने कब तक आएंगी आपकी दीदी मैं लेट हो रही हूं अपने भाई को जाकर रखी बांधने के लिए...कल का भी पूरा दिन बाजार में उनके लिए गिफ्ट लेने में गुजर गया बेकार ही और आज ...।" नेहा ने बेचैनी से कमरे में चहलकदमी करते हुए पति निखिल से कहा ।

"हां आ ही रही होंगी दीदी ...अभी कॉल करता हूं कहां हैं ।"निखिल ने फोन मिलाते हुए कहा ।

"हेलो दीदी कहां हो ?"

"सरप्राइज ।"मालती दीदी ने घर में घुसते ही हंसते हुए कहा लेकिन नेहा के चेहरे पर अभी भी गुस्सा के ही भाव थे ।

"देखा मैने कहा न था कि दीदी आएंगी जरूर ।"निखिल ने बच्चों की तरह खुश होते हुए कहा ।

"दीदी पानी लीजिए ।"नेहा ने पानी की ट्रे में पर रखते हुए कहा वह बार बार घड़ी की तरफ देखती जा रही थी ।

"अरे नेहा तुमको भी रखी बांधनी है न अपने भाई के ...जाओ जाओ जल्दी तैयार हो जाओ मैं इसके अभी रखी बांधती हूं ।"मालती दीदी ने मुस्कराते हुए कहा ।

"दीदी आप आई हो तो मैं कैसे जा सकता हूं अभी और नेहा भी ...?"

"अरे कैसी बात कर रहा है निखिल नेहा का भी भाई है और वह भी इंतजार कर रहा होगा तेरी तरह ।"मालती दीदी ने अपने भाई के रखी बांधते हुए डपटकर कहा ।

नेहा की आंखें भर आईं कितना नकारात्मक सोच रही थी वह अपनी ननद के बारे मे इस साल ही तो उसका विवाह हुआ था इसलिए रिश्तों से अनजान थी ।

नेहा ने गिफ्ट अपनी ननद की तरफ बढ़ाया तो मालती दीदी ने कहा 

"देखी कर दिया न मुझे पराया मुझे गिफ्ट की नहीं बस तुम दोनो ऐसे ही रहना मुझे कभी मम्मी पापा की कमी का एहसास नहीं होने देना ।"मालती ने भरी आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा तो निखिल और नेहा दोनों ही अपनी दीदी से लिपट गए ।


✍️ राशि सिंह, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश , भारत


मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----अधिकारी की जय हो


बिना अधिकारी के मंत्री की क्या मजाल कि एक फाइल भी तैयार करके आगे बढ़ा दे ! जब मंत्री पदभार ग्रहण करता है तब अधिकारी उसे अपने कंधे का सहारा देकर मंत्रालय की कुर्सी  पर बिठाता है । झुक कर प्रणाम करता है और कहता है "माई बाप ! आप जो आदेश करेंगे ,हमारा काम उसका पालन सुनिश्चित करना है ।"

     मंत्री इतनी चमचामय भाषा को सुनकर अपने आप को डोंगा समझने लगता है और इस तरह अधिकारी चमचागिरी करके मंत्री रूपी डोंगे के भीतर तक अपनी पहुँच बना लेता है । 

           मंत्रियों की टोपी का रंग नीला , पीला ,हरा ,लाल बदलता रहता है लेकिन अधिकारी का पूरा शरीर गिरगिटिया रंग का होता है । जो मंत्री की टोपी का रंग होता है, वैसा ही अधिकारी के पूरे शरीर का रंग हो जाता है । पार्टी में दस-बीस साल तक धरना - प्रदर्शन - जिंदाबाद - मुर्दाबाद कहने वाला कार्यकर्ता भी अधिकारी के मुकाबले में नौटंकी नहीं कर सकता । कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा टोपी पहन लेगा लेकिन अधिकारी का तो पूरा शरीर ही टोपी के रंग में रँगा होता है । अधिकारी मंत्री को यह विश्वास दिला देता है कि हम आप की विचारधारा के सच्चे समर्थक हैं और हम आपकी पार्टी को अगले चुनाव में विजय अवश्य दिलाएंगे । 

             मंत्री को क्या पता कि कानून कैसे बनता है ? वह तो केवल फाइल के ऊपर लोक-लुभावने नारे का स्टिकर चिपकाने में रुचि रखता है । भीतर की सारी सामग्री अधिकारी बनाता है । मंत्री के सामने मंत्री के मनवांछित स्टिकर के साथ फाइल प्रस्तुत करता है । इसलिए फाइलों में स्टिकर बदल जाते हैं ,नारे नए गढ़े जाते हैं ,महापुरुषों के चित्रों में फेरबदल हो जाती है लेकिन सभी नियमों का प्रारूप अधिकारियों की मनमानी को पुष्ट करने वाला ही बनता है । अधिकारी अपने बुद्धि चातुर्य से कानून का ऐसा मकड़ी का जाल बनाते हैं कि जनता रूपी ग्राहक उनके पास शरण लेने के लिए आने पर मजबूर हो जाता है और फिर उनकी मनमानियों का शिकार बन ही जाता है। मंत्रियों को तो केवल उस झंडे से मतलब है जो अधिनियम की फाइल के ऊपर लहरा रहा होता है । अधिकारी घाट-घाट का पानी पिए हुए होता है । उसे मालूम है कि यह झंडे -नारे सब बेकार की चीजें हैं । इन में क्या रखा है ? 

      असली चीज है अधिनियम की ड्राफ्टिंग अर्थात प्रारूप को बनाना । उसमें ऐसे प्रावधानों को प्रविष्ट कर देना कि लोग अफसरशाही से तौबा-तौबा कर लें । अधिकारियों की तानाशाही और उनकी मनमानी के सम्मुख दंडवत प्रणाम करने में ही अपनी ख़ैरियत समझें । परिणाम यह होता है कि मंत्री जी समझते हैं कि रामराज्य आ गया ,समाजवाद आ गया ,सर्वहारा की तानाशाही स्थापित हो गई । लेकिन दरअसल राज तो अधिकारी का ही चलता है । अधिनियम में जो घुमावदार मोड़ उसने बना दिए हैं , वहाँ रुक कर अधिकारी को प्रसन्न किए बिना सर्वसाधारण आगे नहीं बढ़ सकता। अधिकारी इस देश का सत्य है । मंत्री अधिक से अधिक अर्ध-सत्य है । अर्धसत्य फाइल का कवर है । सत्य फाइल के भीतर की सामग्री है ,जो अंततः विजयी होती है । इसी को "सत्यमेव जयते" कहते हैं ।

✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) भारत, मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा --प्रेरणा


"ये तुमने बहुत अच्छा किया।आखिरकार तुमको मेरी बात समझ आ ही गई और तुमने भीख मांगना छोड़ अपना काम करना शुरू कर दिया।" देवेश ने खुश होकर दीपक से कहा। दीपक,जो पिछले चार साल से,मंदिर के बाहर भीख मांगता था,आज फूल मालाएं बेच रहा था।

   " यह सब पवन भैया की प्रेरणा से संभव हुआ है। "दीपक ने सामने खड़े युवक की और इशारा किया।

   देवेश ने देखा,सामने एक दिव्यांग,जिसके एक  टांग नही थी, वैसाखियों पर अपने आप को संभाले, गुब्बारे बेच रहा था। उसके चेहरे पर आत्मसम्मान और आत्मविश्वास, दोनों की मिली जुली चमक थी।


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

आदर्श कॉलोनी रोड

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल के साहित्यकार (वर्तमान में मेरठ निवासी) सूर्यकांत द्विवेदी की चार घनाक्षरी

(1)
नया हर दिन रहे, नई हर प्यास रहे

भोर के क्षितिज का, अभिराम कीजिये

मन में तरंग रहे, तन में उमंग रहे

घेरे न उदासी फिर, राम राम कीजिए

दूर दूर ये दिशायें, कहतीं कुछ खास जी

चलते रहो निशिदिन, न आराम  कीजिए

राम सा चरित्र रख, कृष्ण सा पवित्र दिख

आये हो जगत में तो, नेक काम कीजिए।।

(2)

चंदा से चकोर गाल, सुरभित उच्च भाल

गोल गोल मुखड़े पे, वारी वारी श्याम जी

शीश पे मुकुट सज, देखा पँख मोर ने तो

झूम झूम नाचे फिरा, पूरे ग्राम ग्राम जी

दृश्य देख गोपियों ने, किया खुद से ही बैर

आग लगे सावनवां, गये कहाँ धाम जी

राधे राधे रट रहे,अपने तो घनश्याम

सांवरी सुरतिया पे, बलिहारी राम जी।।

(3)

कारे कारे कजरारे, अलकाएँ श्याम मुख

देख देख गोपियों का, मन भरमात है

सागर यह प्यार का,मन के ही त्योहार का

बदरी बैरन भई , काहे ललचात है

घोर घोर गरजना, अधरों पे है अर्चना

पड़े बूंद एक भी न, कैसी बरसात है

सावन की प्यास लिए, भादो की भी आस लिए

झूम झूम मनवा रे, श्याम श्याम गात है।।








शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग के 22 गीत .....। ये गीत वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब पर योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा प्रस्तुत किये गए थे ।.


 






















::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ----प्यारी बहना

   


कोरोना की विभीषिका में कितने ही घर उजड़ गए ....राहुल का दोस्त सुबोध अच्छा भला सॉफ्टवेयर इंजीनियर था, जिस पर घर की सारी जिम्मेदारी थी, असमय ही काल गाल में चला गया । राहुल ने ही इस त्रासदी में उसके परिवार को संभाला मां और बहन सारिका को ढांढस बंधाया ! 

     वह सुबोध की कमी को तो पूरी नहीं कर सकता था परन्तु सारिका की शादी धूम धाम से तय तारीख पर ही सम्पन्न कराई.....।

 ******* 

.........रक्षाबंधन की रौनक बाजारों में हर ओर दिखाई दे रही थी। दुकानों पर जगह-जगह राखियां लगी थीं.....हर ओर रक्षाबंधन के गीत गूंज रहे थे....."ये राखी बंधन है ऐसा..."

..... आज रक्षाबंधन है सभी बहनें सज धज कर भाइयों को राखी बांधने जा रहीं हैं सब ओर बड़ी चहल पहल है तभी राहुल का ध्यान अपनी सूनी कलाई की ओर गया वह ख्यालों में डूबता चला गया और..... पांच साल पहले हुई घटना का एक-एक दृश्य सजीव होकर सामने आने लगा.....

***

...... "दीदी दो माह हो गए जमीन की रजिस्ट्री किए हुए हैं बाकी के तीन लाख रुपए अभी तक नहीं मिले अच्छा होता आप  हरिओम से कह कर  रुपए हमें भिजवा देतीं........

.. चेक बाउंस होने से पांच सौ रुपए की चपत अलग से और लग गयी....!"राहुल ने फोन पर याद दिलाते हुए मुन्नी दीदी से कहा ।

प्रत्युत्तर में राहुल ने जो कुछ सुना उसकी उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी....."तुम्हारी जमीन ही कम थी! कैसे पैसे ! भूल जाओ! और भविष्य में फिर कभी इस विषय पर कोई बात मत करना "!

   "अरे दीदी आपके कहने पर मैंने पहले ही तीन लाख रुपया छोड़ दिया था,, ऐसा नहीं कहो मुझे अपना लोन भी तो चुकाना है!"

परंतु उत्तर में उसे पैसे तो नहीं मिले बल्कि और भी अधिक बुरी-भली, जली-कटी सुनने को मिलीं......आपस में दूरियां बढ़ती ही चली गईं.....

   राहुल ने हमेशा ही अपनी दीदी के बच्चों की तन मन धन से मदद की थी उसने सपने में भी नहीं सोचा था उसकी सगी दीदी व भांजा उससे ऐसा सलूक करेंगे ! और यह जमीन का सौदा इतना महंगा पड़ने वाला है। ज्यादा कहने सुनने से रिश्ते में और अधिक खटास बढ़ती गई यहां तक कि लड़ाई झगड़ा भी राहुल के साथ हो गया.... आज पांच साल हो गए..... हाथ पर बहन की राखी तक  भी नहीं बंधी! सोचते सोचते राहुल की रुलाई फूट पड़ी....!

    ......तभी घंटी बजी सारिका ने अपने  छोटे बच्चे के साथ भैया... भैया! कहते हुए घर में प्रवेश किया.... हाथ में राखी का थाल था और काजू वाली बर्फी भी... छोटा युग मामा!...मामा!! कहते हुए राहुल से लिपट गया .... 

........"क्या हुआ मेरे प्यारे राहुल भैया को ?" सारिका भावुक होते हुए बोली....

राहुल का कंठ अवरुद्ध हो गया एक बारगी स्वर नहीं फूटे..... फिर आंखें पौछीं और राखी के लिए अपनी कलाई आगे करते हुए  अनायास ही मुंह से निकल पड़ा..........

...... प्यारी बहना!!

✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नम्बर - 82 188 25 541

   

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार का संस्मरण---- जब स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास जी ने मुझसे कहा -- ... जो चाहते हो,उसे हिम्मत के साथ करोगे, तभी आगे बढ़ पाओगे


मैं आजकल जो कुछ लिख रहा हूं, उसमें आदरणीय पंडित मदन मोहन व्यास जी का महत्वपूर्ण योगदान है। मैंने कक्षा 6 से 12 तक की शिक्षा, पार्कर इंटरमीडिएट कॉलेज में प्राप्त की। आदरणीय व्यासजी वहां हिंदी पढ़ाया करते थे। यह मेरा परम सौभाग्य था, कि कक्षा 9 और 10 में मुझे आदरणीय व्यासजी से हिंदी पढ़ने और समझने का अवसर मिला।  मैं उस समय तक छोटी मोटी तुकबंदियां करने लगा था। लेकिन संकोची स्वभाव के कारण,अपने तक ही सीमित था।इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि मेरे अंतस में उमड़ रही काव्य घटाओं को, आदरणीय व्यासजी के मार्ग दर्शन और प्रेरणा से ही बरसने का मौका मिला।

     पार्कर कॉलेज में उन दिनों,हर वर्ष,फर्स्ट डिविजनर्स डे मनाया जाता था,जिसमे ईसाई समुदाय के, बरेली मंडल के प्रमुख,जिनको बिशप कहा जाता था, मुख्य अतिथि होते थे। कई दिन पहले से इस कार्यक्रम की तैयारी की जाती थी। यह शायद 1972 या 73 की घटना है। बिशप महोदय के स्वागत में,एक स्वागत गीत,आदरणीय व्यासजी के निर्देशन में,तैयार किया जा रहा था। यह गीत लिखा भी आदरणीय व्यास जी ने था । उसके मुख्य बोल थे --- " खुश है धरती गगन ,आपके स्वागत में"
मैंने उस गीत की एक पैरोडी बना डाली,जिसकी
दो पंक्तियां मुझे आज भी याद हैं
"स्कूल का पुता भवन,आपके स्वागत में
पढ़ना ,लिखना दफन,आपके स्वागत में"

आस पास बैठे साथियों को इसका पता चल गया और उन्होंने आदरणीय व्यासजी तक,ये बात पहुंचा दी।अगले दिन उन्होंने,मुझे स्टाफ रूम में बुलाया। मैं डरते डरते उनके पास गया।," ये तुमने लिखा है" उन्होंने कड़क आवाज में पूछा। मैंने कांपते हुए, स्वीकृति में सिर हिलाया।" लिखते हो तो डरते क्यों हो .... जो चाहते हो,उसे हिम्मत के साथ करोगे, तभी आगे बढ़ पाओगे।" इतना कह कर उन्होंने, मेरी पीठ थपथपाई। मेरी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े।आज, लगभग 50 साल बाद भी,जब परिस्थितिजन्य व्यथाओं से मन विचलित होता है,उनके ये शब्द, मुझे संतुलन प्रदान करते हैं।


✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
आदर्श कॉलोनी रोड
मुरादाबाद 244001
मोबाइल फोन नम्बर 9837189600

     

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- लोकाचार के कवि --ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी।


 आज जबकि अधिकांश शब्दकार निजी प्रचार, धन और यश अर्जित करने की कामना के साथ साहित्य सृजन कर रहे हैं। साथ ही स्वयं की 'अर्ध-देवता' (डेमी गाड) सरीखी छवियाँ निर्मित कर रहें और समाज पर अपनी कुण्ठाएं, हताशाएं, अतार्किक और अवैज्ञानिक विचार आरोपित कर रहे हैं। ईश्वर चन्द्र गुप्त 'ईश' जी एक ऐसे शब्द शिल्पी हैं जो पूर्णतया निस्पृह, निष्पक्ष और समर्पण भाव के साथ मौन रहकर अपनी शब्द यात्रा जारी रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष की आयु में भी 'ईश' जी जिस उत्साह और आशावादिता के साथ सृजनरत हैं वह निश्चित ही साहित्य और समाज के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं व्यक्ति के लिए भी एक स्वस्थ सकारात्मक संदेश है। 'ईश' जी धन और यश की कामना से नहीं बल्कि समाज को लगातार बेहतर बनाने और मानव जाति का परिष्कार करने की दृष्टि से सृजनरत हैं।

      मुझे पहली बार उनसे साक्षात्कार का सुयोग अग्रज पुष्पेन्द्र वर्णवाल के निवास पर दो-तीन वर्ष पहले आयोजित एक कवि गोष्ठी में प्राप्त हुआ जिसमें नगर के लगभग सभी वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे। इसमें मैंने 'ईश' जी की कविता को ध्यान पूर्वक सुना। जनकल्याण की भावना से प्रेरित स्वांत: सुखाय लिखी गयी यह कविता अतीत और वर्तमान का जीता जागता चलचित्र था। प्रकम्पित कण्ठ से पढ़ी गयी कविता उपस्थित कवि समुदाय पर कितना प्रभाव छोड़ सकी यह तो मैं नहीं जानता किन्तु खादी के साधारण वस्त्र और गांधी टोपी धारण किये इस कवि के सरल व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना मैं न रह सका। उनका यह ऋजुरेखीय व्यक्तित्व ठीक उनके साहित्य में भी प्रतिबिंबित होता है ।

      उनकी रचनाओं में साहित्यिक कलाबाजियाँ अधिक दिखायी नहीं पड़ती। भाषा और शिल्प भी सहज-सरल और एक साधारण पाठक के लिए ग्राह्य है। अपने साहित्य में वैचारिक स्तर पर वे हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार विष्णु प्रभाकर या फिर पत्रकार लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी या कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' सरीखे नजर आते है। दरअसल, वे उस पीढ़ी के हैं भी जिसके मानस या अवचेतन पर गांधी जैसे युग पुरुष के व्यक्तित्व और विचारों की गहरी छाप है। 'ईश' जी के साहित्य में गांधी वादी विचारों के सूत्र ढूँढ पाना किसी भी सुधि पाठक के लिए बेहद सरल है। किन्तु 'ईश' जी निरे गांधीवादी भी नहीं हैं। साहित्यकार के तौर पर वे टामस मोर के 'यूटोपिया' के काफी करीब नजर आते हैं और समाज की विसंगतियों पर ड्राइडेन और पोप की तरह पैने व्यंग्य करते रहते हैं। दरअसल, एक 'यूटोपिया' उन्हें बराबर 'हांट' करता रहता है। यूटोपिया से आक्रांत होने के कारण उनका समूचा सृजन समाज सुधार की भावना से ओतप्रोत है।

यद्यपि 'ईश' जी का रचनाकाल सुदीर्घ है तथापि उनकी बहुत अधिक कृतियां प्रकाशित नहीं हुई हैं। उनकी अब तक पांच-छः कृतियां प्रकाशित हुई हैं। जिनमें 'ईश गीति ग्रामर' और 'चा का प्याला' मुख्य हैं। 'चा का प्याला' सर्वाधिक उल्लेखनीय कृति है। 'चा का प्याला आधुनिक लोकाचार की सब से प्रमाणिक कृति भी है जो लोकप्रिय कवि बच्चन की 'मधुशाला' की तर्ज पर रची गयी है। यदि बच्चन जी की 'मधुशाला' हालावाद पर आधारित है तो 'चा का प्याला' प्यालावाद से प्रेरित है। इस दृष्टि से ईश जी हालावाद के समानान्तर प्यालावाद के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। आधुनिक जीवन में लोकाचार और काफी सीमा तक शिष्टाचार का पर्याय बन चुकी चाय के महत्व पर काव्य कृति का सृजन कर ईश जी ने सचमुच एक नया और विलक्षण प्रयोग किया है। 'चा का प्याला' के बहाने 'ईश' जी ने समकालीन समय की नब्ज को पकड़ने का प्रयास तो किया ही है कथित सभ्य समाज और आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विद्रूपों पर भी खुलकर कठोर प्रहार किये है। 'चा का प्याला' का मुख्य स्वर व्यंग्य है और यह अलेक्जेंडर पोप के 'रेप ऑव द लाक' की तरह काव्य, विशेषकर छन्द में रचा गया व्यंग्य महाकाव्य (माक एपिक) है जिस तरह अर्वाचीन इंग्लैण्ड में कॉफी को बेदखल कर चाय बुद्धिजीवियों और राज परिवार सहित कथित कुलीन वर्ग का पसन्दीदा पेय बनती जा रही थी और महलों में आयोजित होने वाली चाय दावतों की पोप ने जमकर भर्त्सना की थी उसी शैली में 'ईश' जी ने चाय के लोकाचार, शिष्टाचार और भ्रष्टाचार का अंग बनने और भारतीयों के इसके प्रति रुझान का जमकर उपहास किया है। बस अन्तर यही है कि जहाँ पोप की व्यंग्योक्तियाँ कटु और अधिक तीखी हो गयी है वहीं 'ईश' जी ने कहीं सभ्यता और शिष्टता का दामन नहीं छोड़ा है। उनका व्यंग्य अभिव्यक्ति के मामले में बिल्कुल 'मृदु', संयत और शालीन है। व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की मृदुता, शिष्टता और शालीनता आधुनिक व्यंग्य काव्य में दुर्लभ है। साथ ही, श्रमसाध्य भी। इस दृष्टि से ईश जी एक बड़े और समर्थ रचनाकार नजर आते हैं। जब 'ईश' जी लिखते हैं,

" आदत पड़ जाने पर तो यह ! 

तन-मन तक बेकल करती। 

शकल मुहर्रम बन जाए पर,

 इसके बिना न कल पड़ती।।

रक्खा क्या संध्या नमाज में, 

इसका चुम्बन कर डाला। 

उन्हें 'ईश' खुद ही मिल जाते,

 मिलता जब चा का प्याला

तब वे केवल चाय जैसे लोकाचार की सार्वभौमिकता को ही स्वीकार नहीं कर रहे होते बल्कि परोक्ष रूप से एक सहज मानवीय वृत्ति का भी उद्घाटन कर रहे होते हैं। 'चा का प्याला' साहित्य का एक ऐसा स्पेक्ट्रम है जिसमें जीवन का हर रंग अपने मनोहारी रूप में प्रतिबिम्बित होता है।

     'चा का प्याला' की भूमिका में विद्वान समीक्षक ने ठीक ही लिखा है "चा के प्याले के माध्यम से समूचे परिप्रेक्ष्य की मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करने में कवि का शिल्प विधान अपूर्व रूप से सहायक हुआ है। अनुभूति में रागात्मकता, शब्दों में कोमलता, विचारों में सम्प्रेषणीयता, अभिव्यक्ति में ऋजुता तथा व्यंग्योक्तियों में मर्मस्पर्शिता कवि के रूप सज्जा और शिल्प विधान की उल्लेखनीय खूबियां हैं। कवि ने परम्परागत शब्दावली से निकलकर ऐसी शब्दावली का वरण किया है जिसमें सामान्य विषयों से सम्बद्ध गहन अनुभूतियों की अपूर्व क्षमता है।

     'चा का प्याला' कवि 'ईश' जी का आधुनिक समय, समाज और भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में दिया गया साहित्यिक वक्तव्य ही नहीं है बल्कि लोकाचार की शोकांतिका भी है। इसके निहितार्थ व्यापक है। और समीक्षकों के लिए भी इसे ठीक व्याख्यायित- परिभाषित कर पाना कठिन है। एक कवि रूप में अभी 'ईश' जी का समुचित आकलन नहीं हुआ है। यदि किसी ने ऐसा किया तो निश्चित ही कवि 'ईश' के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ अनछुए आयाम उद्घाटित होंगें ।

(यह आलेख उस समय प्रकाशित हुआ था जब श्री ईश जी साहित्य साधना कर रहे थे )


✍️ राजीव सक्सेना 

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

 मथुरा

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) की साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ---अदना


 मैले कुचैले चिथड़ों में लिपटा हुआ.... एक नन्हा सा लड़का उम्र यही कोई दस या ग्यारह वर्ष रही होगी..... डेली आ जाता था दरवाज़े पर......  मैं भी दया और सहानुभूति भाव से उसे रोजाना दस या पांच रुपए दे देती थी । जब मैं उसे कुछ भी देती तो वह काफ़ी देर तक ऊपर को घूरता सा रहता था..... मुझे बहुत ही अजीब लगता था, आख़िर मैंने पूछ ही लिया कि "मैं रोज़ाना तुम्हें कुछ तो देती ही हूं और फिर भी तुम चुपचाप ऊपर की ओर ताकते रहते हो"। 

     वह मुस्कुराया.... और बोला--  मांजी, मैं ऊपर वाले से कहता हूं कि जिसने मुझे दिया है तू! उसे और दे... ।यह सुनकर..... मैं सोचती रही कि वह कहां 'अदना' है....., जो अपने लिए कुछ भी नहीं मांगता हमारे लिए मांगता है।


✍️ रेखा रानी, विजय नगर, गजरौला, जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश,भारत।

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी- मेथी-आलू की भुजिया!


पेशकार, पंडित राम भरोसे लाल दीक्षित तैयार होकर नाश्ते के इंतज़ार में बैठे थे।यकायक उन्हें ख़याल आया कि आज तो घर पर कोई है ही नहीं।घर के सभी सदस्य करीबी रिश्तदार की शादी में शामिल हेने दिल्ली गए हुए हैं।

    दीवार पर टंगी घड़ी को देखा तो उसमे पूरे नौ बज रहे थे।जब कि उनको साढ़े दस बजे तक कचहरी पहुंचना भी जरूरी था।

   गांव से मुख्य सड़क तक आने के लिए शार्टकट रास्ता बाल्मीकि बस्ती से होकर ही जाता।

    दीक्षित जी ने झट-पट फाइलों का थैला उठाया और ताला डालकर घर से निकल लिए।तेज कदमों से चलते हुए कुछ ही पलों में बाल्मीकि बस्ती के नुक्कड़ तक पहुंच गए।

    थोड़ा सा आगे बढ़े ही थे कि हरिया बाल्मीकि की पत्नी अतरी देवी जो लोहे की कढ़ाई में मेथी-आलू की भुजिया बना रही थी।जिसकी सुगंध घर के  बाहर  तक  अपना असर छोड़ रही थी।

    पंडित रामभरोसे लाल दीक्षित को देखकर हरिया की पत्नी अतरी देवी ने आवाज़ लगाकर कहा देवर जी कहाँ जा रहे हो।बड़ी जल्दी में लग रहे हो। हाँ भाभी,साढ़े दस बजे तक कचहरी जो पहुंचना है।अतरी ने पुनः प्रश्न किया पेशकार जी कुछ नाश्ता-वास्ता भी कर लिया है या ऐसे ही भूखे पेट भागे जा रहे हो।मुझे पता है घर पर कोई नहीं है।नाश्ता भी किसने कराया होगा।

    मैंने तो मेथी-आलू की भुजिया बनाई है।गेंचनी की हाथ पानी की रोटी भी सेक रही हूँ।अगर एतराज न हो तो खाकर ही चले जाते।परंतु कंजूस स्वभाव दीक्षित जी भूख से व्याकुल तो थे।परंतु जाति-बिरादरी की लोकशंका से व्यथित होना भी स्वाभाविक ही था।

     चलते-चलते उन्होंने सोचा  कि इतने प्यार से कौन किसको बुलाता है।भाभी ने खाने के लिए आवाज़ दी है तो कुछ अपना समझकर ही दी होगी।

    फिर हाथ धोकर ही सब्ज़ी काटी होगी,काटी हुई सब्ज़ी की भी कई बार धोया होगा।तेल भी शुद्ध सरदों का डाला होगा,इसके साथ ही वही मसाले,धनियां,नामक -मिर्च,हल्दी डाली होगी जो हम अपने घर पर भी रोज़ खाते हैं। साफ सुथरी लोहे की कढ़ाई में खूब अच्छी तरह ढंग से पकाकर भुजिया बनाई होगी।ऊपर से गेंचनी की रोटी चूल्हे पर खूब करारी सेक कर ही तो मुझे खाने को देगी।इसमें अतरी भाभी का क्या दोष।

    पंडित जी ने अतरी से पूछा भाभी नहा धोकर ही तो रसोई बना रही होगी। अतरी बोली और क्या, बिना नहाए धोए,गंदे-संदे ही खाना बनाएंगे।आप मुझे ऐसी-वैसी मत समझना।मैं तो बिना पूजा करे चाय तक भी नहीं पीती, देवर जी।

    मैंने तो इंसानियत के नाते  पूछ लिया आगे आपकी इच्छा।मैं तो फिर कहूंगी खा लो,,पेट पड़े गुन देगी।

       अच्छा भाभी जब तुम इतना कह रही हो तो ,,,,मना करना भी अच्छा नहीं लगता।

पंडित जी ने इधर-उधर देखा और घर के अंदर जाकर चारपाई पर जा बैठे। और खाना आने का इन्तज़ार करने लगे।तभी चमचमाती थाली में सुगंधित मेथी-आलू की सब्ज़ी वह भी घी से तरबतर।गेंचनी की हाथ की मोटी-मोटी चार रोटी साथ में पुदीने की चटनी की महक भी भूख को दोगुना कर रही थी।

    जल्दी से दीक्षित जी ने अतरी के हाथ से थाली लेकर  मंत्रोच्चारण के पश्चात खाना प्रारंभ कर दिया।शीघ्र ही भोजन समाप्त करके संतुष्टि की डकार के साथ ही भाभी जी के स्वादिष्ट खाने की प्रसंशा करए हुए धन्यवाद दिया।

 अब तक घड़ी भी दस बजने का स्पष्ट संकेत दे रही थी।पंडित जी भी तेज कदमों के साथ कार्य स्थल के लिए प्रस्थान कर गए।

जाते-जाते सोचने लगे कि खाना बनाना और प्यार से खिलाना भी एक कला है।जो सबके पास नहीं मिलती।इस खाने में प्यार भी था,विश्वास भी था,वात्सल्य और समर्पण  भी था।इसके साथ मिठास भरा अपनापन भी तो कम नहीं था।

     पर इस भेदभाव के लिए कोई और नहीं हम स्वयं ही दोषी हैं।परहेज मनुष्य से नहीं और ना ही उसकी दरिद्रता से करना चाहिए,बल्कि अपने कुसंस्कारों,मिथ्या अहम और हैवानियत से करना चाहिए।

    यही परमपिता परमात्मा की सच्ची उपासना है।

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद,उप्र, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

              

                     

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का नवगीत ---बहुत प्यारे लग रहे हो-


 _                

बहुत प्यारे लग रहे हो 

ठग नहीं हो, किन्तु फिर भी 

हर नजर को ठग रहे हो 

                         बहुत प्यारे लग रहे हो


दूर रहकर भी निकट हो 

प्यास मैं, तुम तृप्ति घट हो 

मैं नदी की, इक लहर हूँ

तुम नदी का, स्वच्छ तट हो

सो रहा हूँ किन्तु मेरे 

स्वप्न में तुम जग रहे हो 

                        बहुत प्यारे लग रहे हो


देह मादक, नेह मादक

नेह का मन गेह मादक 

और यह मुझ पर बरसता 

नेह वाला मेह मादक 

किन्तु तुम डगमग पगों में,

एक संयत पग रहे हो 

                       बहुत प्यारे लग रहे हो 


अंग ही हैं सुधर गहने

हो बदन पर जिन्हें पहने 

कब न जाने आऊँगा मैं

यह जरा-सी बात कहने

यह कि तुम मन की अंगूठी के

अनूठे नग रहे हो 

                      बहुत प्यारे लग रहे हो

✍️ डॉ कुंअर बेचैन