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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष क़मर मुरादाबादी के सत्रह शेर

 


हम सिखादेंगे हरेक क़तरे को तूफां होना 

बे अदब हमसे न ऐ गरदिशे दौरां होना


कहीं फ़रेबे नज़र था कहीं तिलिस्मे जमाल 

कहां से बच के गुज़रते कहां ठहर जाते


जुस्तजू का हमें शऊर नहीं 

वरना मनज़िल कहीं से दूर नहीं


बारहा गरदिशे हालात पे आई है हंसी 

बारहा गरदिशे हालाता पे रोना आया


जलवे जुदा-जुदा सही हुस्न जुदा-जुदा नहीं 

एक अदा खिज़ा में है इक अदा बहार में


दौरे मय बन्द करो साज़ के नगमे रोको

अब हमें तज़करये दरदे जिगर करना है


रहेगा याद ये दौरे हयात भी हमको 

के ज़िन्दगी में तरस्ते हैं ज़िन्दगी के लिये


एक ज़र्रे में महो- अन्जुम नज़र आने लगे 

जब नज़र अपने पे डाली तुम नज़र आने लगे


कहाँ ढूंढोगे दीवानों का अपने 

मुहब्बत का कोई आलम नहीं है


न वो गुल हैं न वो गुन्चे, न वो बुलबुल न वो नग़मे बहारों में ये आलम है, ख़िज़ा आई तो क्या होगा


नज़रों से ज़रा आगे कुछ दूर खयालों से

 मैंने तुम्हे देखा है इक बार कहाँ पहले


साक़िया तन्ज़ न कर, चश्मे करम रहने दे 

मेरे साग़र में अगर कम है तो कम रहने दे


हौसले बढ़ गये मौजों का सहारा पाकर

 ज़िन्दगी और जवां हो गई तूफां के करीब


अपनी ही आग में जलता हूं ग़ज़ल कहता हूं- 

शमआ की तरह पिघलता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ


जब तेरा इन्तज़ार होता है 

फूल नज़रो पे बार होता है


क़मर हम ज़माने से गुज़रे 

लेकिन अपना ज़माना बनाकर


याद करेंगे मुददतों शाना व आईना कमर 

बज़्म से उठ रहे हैं हम जुलफे़ ग़ज़ल संवार कर


✍️ क़मर मुरादाबादी