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डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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::::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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निकेत बड़े श्रद्धा भाव से पूजा पाठ की तैयारियों में लगा है…और पत्नी रसोई में विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में व्यस्त है…श्वसुर की पसंद का मटर पनीर, कोफ्ते, बूंदी का रायता,मेवे पड़ी मखाने की खीर, शुद्ध गोघृत का सूजी का हलवा,उड़द की दाल की कचोड़ियां आदि आदि।
मां का कमरा रसोई से कुछ दूर है। उच्च रक्तचाप व मधुमेह की रुग्णा मां की दो कदम चलने में ही श्वास फूलने लगती है। बार-बार कण्ठ शुष्क हो जाता है और बार बार प्यास लगती है। और थोड़ी-थोड़ी देर में मूत्र त्याग की इच्छा होने लगती है। अन्य दिनों में तो बेटा अथवा पौत्र उन्हें शौचालय ले जाकर मूत्र विसर्जन करा लाते थे…परंतु आज तो कोई भी उनके समीप नहीं आया…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…जिन्हें मरे हुए आज पूरे पांच वर्ष हो चुके हैं…प्रति वर्ष उनका श्राद्ध मनाया जाता है…सुस्वादु व्यंजन उनके नाम पर पंडित और कौए को खिलाए जाते हैं। पंडित पूजा पाठ का उपक्रम करता है, दक्षिणा लेता है और सामान की पोटली बांधकर घर ले जाता है…बस हो गया श्राद्ध…
वह अलग की बात है कि जब तक वे जीवित रहे तब तक पुत्र और पुत्रवधू दोनों ही उनकी घोर उपेक्षा करते रहे। उनकी पसंद के सुस्वादु व्यंजन तो क्या सामान्य भोजन के लिए भी तरसाया जाता था…
मधुमेह की रुग्णा होने के कारण मां को भूख सहन नहीं हो पाती…हर दो घण्टे पर उन्हें कुछ न कुछ खाने के लिए चाहिए, वरना उन्हें कमजोरी और चक्कर महसूस होने लगते हैं।
लेकिन आज तो उन्हें सुबह से कुछ भी नहीं मिला…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…बेटा और बहू तैयारियों में व्यस्त हैं न…श्राद्ध के विधि विधान में कोई कमी न रह जाए…किसी भी तरह पितर न रुष्ट होने पाएं…
भूख बड़ी तेजी से सता रही है उन्हें…टकटकी बांधे वे निरंतर रसोई की ओर निहार रही हैं…हर आहट पर उन्हें लगता है कि कुछ खाने को मिलने वाला है…इस मध्य हांफती-कांपती वे कई बार शौचालय हो आयी हैं और लौटते हुए तिर्यक दृष्टि से वे रसोई में भी झांक आयी हैं।
जब उन्हें लगा कि यदि कुछ देर उन्हें खाने को कुछ न मिला तो रक्त शर्करा शून्य हो जाएगी और वे मूर्छित हो जाएंगी। तो उन्हें बहू से याचना भाव से कहना ही पड़ा– "बहू!भूख सहन नहीं हो रही…रात का ही कुछ रखा हो तो वही खाने के लिए दे दे!"
बहू की त्योरियां चढ़ गयीं – "मां जी कुछ तो धीरज रखा करो!आज पिताजी का श्राद्ध है तो बिना पूजा पाठ किए, बिना पंडित जी को भोग लगाए आपसे कैसे झुठला दें? पुण्य कार्य में विघ्न बाधा डालकर क्यों अनर्थ करने पर तुली हुई हो?"
पौत्र को उनसे कुछ सहानुभूति हुई तो वह उन्हें आश्वस्त करने आ पहुंचा – "अम्मा! पापा पंडित जी को बुलाने गये हैं बस आने ही वाले होंगे। जैसे ही पंडित जी को भोग लगाया जाएगा वैसे ही सबसे पहले मैं आपका थाल लेकर आऊंगा।"
उनके मन में आशा की एक नन्ही सी किरण जगी । और वे अपने बिस्तर पर लेटी मुख्य द्वार की ओर अनिमेष निहारने लगीं…पुत्र के पंडित जी के साथ आने की प्रतीक्षा में…
किंतु पुत्र अकेला ही बाहर से ही तीव्र स्वर में कहते हुए भीतर घुसा चला आया – "पंडित जी को आने में कुछ देर लगेगी क्योंकि वे अन्य घरों का श्राद्ध निपटाने गये हैं।इन लोगों के लिए कोई एक घर तो होता नहीं जो सुबह से ही जाकर जम जाएं,दस घर जाना होता है। कहीं चेले चपाटों को भेज देते हैं कहीं खुद जाते हैं। हमारे घर तो वे स्वयं ही आएंगे,हमारा श्राद्ध कर्म अच्छी तरह जो निपटाना है। यहां से उन्हें दक्षिणा भी अच्छी मिलती है।"
मां जी के मन में टिमटिमा रहा आशा का नन्हा दीप भी बुझ गया…पता नहीं पंडित जी कब आएंगे?...कब तक उन्हें इस भूख से तड़पना होगा?
साहस जुटा कर वे किसी भिक्षुणी की भांति पुत्र के सामने गिड़गिड़ाने लगीं – "बेटा!तू मेरे मरने के बाद भी तो मेरा श्राद्ध कर्म करेगा ही न,तो वह श्राद्ध मेरे जीते जी कर ले! बेटा बहुत जोर की भूख लगी है,बस तू मुझे दो सूखी रोटी दे दे! चाहे मेरे मरने के बाद मुझे कुछ मत देना खाने के लिए।"
पुत्र की भृकुटि वक्र हो गयी– "अम्मा! तुम भी हर समय कैसी कुशुगनी की बातें करती रहती हो? पंडित जी को जिमाने से पहले तुम्हें कैसे जिमां दें? क्यों हमसे घोर पाप कराने पर तुली हो? जब इतनी देर रुकी हो तो थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं क्या?"
मां जी की आंखों में अश्रु छलछला आए…अपने रक्तांश से ऐसे तिरस्कार की तो उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं थी।
लड़खड़ाते बोझिल से कदमों से वे अपनी कोठरी में घुसीं और निढाल सी, निष्प्राण सी ओंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ीं।सिकुड़ी आंखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित हो पड़ी…और पता नहीं कब तक होती रही?
कुछ समय उपरांत पंडित जी बाहर से ही शोर मचाते हुए घर में प्रविष्ट हुए – "जल्दी करो भाई! मुझे और घरों में भी जाना है।"
पूजा पाठ की औपचारिकता पूर्ण होते ही पंडित जी के सामने सारे व्यंजनों से सजा थाल लाया गया तो उन्होंने क्षणिक दृष्टिपात थाल पर करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा –"ऐसा करो यजमान!इसे खाने का मेरे पास वक्त नहीं है,अभी और भी घर निपटाने हैं। इसमें दक्षिणा रखकर इसे मेरे घर दे आओ! भगवान तुम्हारे पिता की आत्मा को संतृप्त रखे।"
पंडित जी के जाने के बाद मां जी को सुस्वादु व्यंजनों से भरा भोजन थाल पहुंचाया गया…
किंतु यह क्या?...मां जी तो तब तक उसे ग्रहण करने की स्थिति में ही नहीं रही थीं…शायद उन्हें मधुमेही संज्ञाशून्यता ने आ दबोचा था।
✍️ डॉ अशोक रस्तोगी
अफजलगढ़, बिजनौर
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल 8077945148
मन का केवल भेद चाहिए
षड्यंत्रों की कमी नहीं है
चौसर पर हैं हम सब यारों
शकुनि पासा फेंक रहा है
कह द्रोपदी लाज की मारी
कलियुग आंखें सेंक रहा है
कहे क्या मन का दुर्योधन
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।
दूं क्या परिचय तुमको
क्या मैं इतिहास सुनाऊं
नाम, पता, आयु, शिक्षा
संप्रति की आस जगाऊं
पड़े हैं सांसों पर ताले
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।
इस बस्ती में अंगारों की
निंदा, छल, कपट खड़े हैं
आग, आग है इस सीने में
तन कर सभी तन खड़े हैं
रक्त सभी के खौल रहे हैं
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।।
(2)
कैसे कहें घनघोर तम है
सुनें व्यंजना मन है पल है
कौंध रहीं जो बिजली सारी
गरजा, बरसा, बिखरा जल है।
प्रतिध्वनि में ये गूंज किसकी
देख,भर रहा है कौन सिसकी
थाल आरती का लाई बदरी
फिर भी यहाँ उथल पुथल है।
बजती घण्टी, नाद शँख का
अंग अंग प्रतिदान अंक का
कह रही क्यों चारों दिशाएं
रिक्त आचमन, तल ही तल है।।
लबों पर सजी है अर्चना
तोड़ दी हैं सारी वर्जना
देख रहा यूँ हरि भी नभ से
धरती पर तो कल ही कल है।।
कोलाहल में फिर क्यों कौंधे
बिजलियाँ यहाँ मन की तन की
सबकी अपनी, यही व्यथा है
प्यासी धरती, नयन सजल है।।
(3)
मत पूछो किस तरह जिया हूं ।
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
इस दीपक के दस दीवाने
सबकी चाहत ओ’ उलाहने
जर्जर काया, पास न माया
कैसे कह दे धूप न साया
घर कहता है नई कहानी
बूढ़ी आंखें, सुता सयानी
मत पूछो किस तरह जिया हूं
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
मेरे राज़ हवा ही जाने
मेरे काज दवा पहचाने
नापी धरती, देखे सपने
उखड़ी सांसें, रूठे अपने
अब पैरों पर जगत खड़ा है
देखो तो, बीमार पड़ा है
मत पूछो किस तरह जिया हूं
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
गंगा मेरे तट पर आई
देख मुझे, रोई बलखाई
बोली-बोली हे ! गंगाधर
उलझे-उलझे क्यों ये अक्षर
मुझसे ले तू छीन रवानी
जीवन तो है बहता पानी
मत पूछो किस तरह जिया हूं।
कदम-कदम पर गरल पिया हूं।।
(4)
क्या कर लेगा कोई तुम्हारा, अड़े रहो
आकाशी बूँदों का, अस्तित्व नहीं होता
रात रात भर, जाग जाग कर
नयन क्यों खोवै
पल दो पल की नींद तुम्हारी
सपन क्यों बोवै
लेनी है यदि साँस धरा पर, अड़े रहो
रातों में सूरज का, तेजत्व नहीं होता।
जीती तुमने जंग हजारों
अपने कौशल से
अब क्यों हारा थका बैठा है
भीगे आँचल से
यही मिली है सीख हमें तो, डटे रहो
रण में कभी भीरु का, वीरत्व नहीं होता
छोड़ भी दे तू अब यह कहना
प्रभु की इच्छा
क्या गीता क्या रामायण, बस
मन की इच्छा
क्या कर लेगा काल तुम्हारा, खड़े रहो
आकाशी बूँदों का, सतीत्व नहीं होता।।
(5)
स्वर लपेटे व्यंजना के, गीत नहीं भाते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते
लेकर नागफनियां हमने, पीर बहुत गाई
गए जहां भी हम बंजारे, नीर बहुत पाई
उदासी के द्वार सजे हैं, मीत नहीं आते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।
आंसू भूले नैन की भाषा, कैसी बदरी है
चादर खींचे लाज-धर्म, कैसी गठरी है
मर्यादा के जंगल में अब, रीत नहीं बातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।.
लघु बहुत है तेरा-मेरा, नाता दुनिया का
भूल गये सब छंद यारा, गाना मुनिया का
गर्म-गर्म हैं सांसे अपनी, शीत नहीं रातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।।
(6)
अंकपत्र सा है यह जीवन
अंक सभी तो तोल रहे हैं
यहीं कमाया यहीं गंवाया
कोष सभी के बोल रहे हैं।
कॉपी में जीरो जब आया
ठिठका माथा, मन घबराया
अम्मा का था दूध बताशा
फिर क्या था, तू देख तमाशा
बनें यहीं जीरो से हीरो
पर अब कुछ भी याद नहीं है
जयति जयति बोल रहे हैं।।
अंकों की सब माया जननी
धन दौलत वो और चवन्नी
दो आने के दही बड़े थे
हलवा पूरी सभी पड़े थे
अब कार्ड में जीवन सारा
क्रेडिट क्रेडिट खोल रहे हैं।
अंक सभी अंकों से रूठा
घर का खाना, रूखा रूखा
इनकम सबकी बड़ी बड़ी है
फिर भी मुश्किल आन पड़ी है
आओ अपनी उम्र लगाएँ
थोड़ा तो हिसाब लगाएँ
रहा पहाड़ा सौ का जीवन
सब अपने में डोल रहे हैं।।
(7)
फट गया लो मेघ सावन
आ गया लो मेघ आंगन
कह रही चारों दिशाएं
यह कभी टिकता नहीं है
रूपसी तो रूप की है
यह कली तो धूप सी है
आज है पर कल नहीं है
कल भी एक पल नहीं है
पकड़े रहना आशाएं
वक़्त फिर मिलता नहीं है
बरसेगा इक दिन सावन
बोलेगा तुझको साजन
बूँद का इतिहास मन है
सर सर सर बहता तन है
भीगी भीगी अलकाएँ
जल वहाँ रुकता नहीं है।
देख ले तू चाँद यारा
मेघ में भी और प्यारा
यात्रा रुकती नहीं है
मात्रा गिनती नहीं है
तोड़ दे तू वर्जनाएं
मन कभी मरता नहीं है।।
(8)
कभी कभी तो आया कर
कभी कभी तो जाया कर
कहती विपदा, रात गई
नग़मे अपने गाया कर।।
अपने में ही मस्त रहा
सपने में ही त्रस्त रहा
दाना पानी, घर दफ्तर
जीवनभर यूँ व्यस्त रहा।।
खुद को भी समझाया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
कुछ पाना ,कुछ खोना क्या
समय समय को रोना क्या
रात कहे, तू सो जा री
तारों का फिर जगना क्या
जी को भी बहलाया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
छोड़ उदासी आगे बढ़
अपने हाथों क़िस्मत गढ़
जैसे रवि लिखे कहानी
ढूंढे शशि अमर जवानी
सागर सा लहराया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
(9)
जब मन्दिर में दीप कोई, आशा का भरता है
तेल, बाती, घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
थाल लेकर चले आस्था, वर्जित तन अभिमान
मैं बन जाऊं दीप शिखा, ज्योति ज्योति का दान
एक यही तो दीपक अपना, रोज मरता है
तेल बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
शुक्ल कृष्ण पक्ष मेरे द्वारे अतिथि बन ठहरे
उजले उजले वसन थे उनके, घाव बहुत गहरे
कौन समझाए इस दीप को, रोज बिखरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
अर्चना के जंगल में, शंख ध्वनि कैसी
मोर पंख ले नज़र उतारें, ग्रह दशा कैसी
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का, बाजार संवरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
(10)
लिख लेते हैं थोड़ा थोड़ा
कह लेते हैं थोड़ा थोड़ा
मत मानो तुम हमको कुछ भी
जी लेते हैं थोड़ा थोड़ा।।
दीप शिखा सी जले जिंदगी
खोने कभी और पाने को
बाहर बाहर करे उजाला
अंधियारा सब पी जाने को
मत मानो तुम उसको कुछ भी
जल लेते हैं थोड़ा थोड़ा
बस्ती बस्ती है शब्दों की
पढ़ी इबारत, मंजिल देखी
कुछ अंगारी, कहीं उदासी
आते जाते नस्लें देखीं
मत मानो तुम उनका कहना
पढ़ लेते हैं थोड़ा थोड़ा ।।
अभी वक्त है, थोड़ा सुन लो
अभी वक्त है, थोड़ा बुन लो
पल दो पल की प्राण प्रतिष्ठा
चली चांदनी, चंदा रूठा
मत मानो तुम इसको गहना
सज लेते हैं थोड़ा-थोड़ा ।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
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अब हम खुद बाबा-दादी हैं
कल आदेश दिया करते थे, आज हो गए फ़रियादी हैं
माँ से जन्म, पिता से पालन, नई फसल को व्यर्थ हो गया
संयम को बंधन कहते हैं, भोग प्यार का अर्थ हो गया
दो पल के आकर्षण को ही जन्म-जन्म की प्रीति समझते
जाने किसने ऐसी बातें इन बच्चों को समझा दी हैं
भीषण कोलाहल के भीतर असमय सोना, असमय खाना
मोबाइल से कान लगाए यहाँ खड़े हों वहाँ बताना
अपने को ही भ्रम में रखना, सच को हौले से धकियाना
छोटे-बड़े सभी की इसमें देख रहे हम बरबादी हैं।
आना-जाना, सैर-सपाटा, गाड़ी से भरना फ़र्राटा
अपने लिये न सीमा व्यय की, घर माँगे तो कहना घाटा ,
सब कुछ जिन्हें दे दिया, उनको पलभर का भी समय नहीं है
हमने ही उलझनें हमारी, खुद अपने सर पर लादी हैं
2.....परिवर्तन तो परिवर्तन है
आएगा ही परिवर्तन तो परिवर्तन है
अब कुत्ते- बंदर आपस में मित्र हो गए
भाषा में गाली के शब्द पवित्र हो गए
चाहो या मत चाहो सुनना है मजबूरी
बोल सिनेमा रहा, लोक- प्रत्यावर्तन है
जैसा देख रहे पर्दे पर, वही करेंगे
कोमल मन में जब अनियंत्रित भाव भरेंगे
देह मात्र उपभोग्य रहेगी, कहना क्या है ,
जो जैसा है वही दिखा देता दरपन है
अंतरिक्ष में खोज रहे हैं नए धरातल
गढ़ता है विज्ञान सोच में नित्य हलाहल
ईश्वर दृश्य-अदृश्य कर्मफल ही अवश्य है
जीवन नश्य, यही कहता भारत दर्शन है
3......दुनिया सोने की
मिट्टी से भी कमतर है दुनिया सोने की
संबंधों का अर्थ किसी को क्या समझाना
बिखरा-बिखरा है सामाजिक ताना-बाना
घर जिससे घर है, उसका अनमना हुआ मन
पति-पत्नी के बीच विवशता है ढोने की
कल की आशा में संसार जुटा है सारा
घर आकर सब सुख पाते, बाबू, बंजारा
पिता देख बच्चों की हरकत को घुटता है
माँ को आशंका रहती बेटा खोने की
शिक्षा, नैतिकता सब कुछ व्यापार हो गया
अस्थिर हुए चरित्र, निभाना भार हो गया
रहे मनीषी खोज कि हम सुधरें, जग सुधरे
क्या संभव है, संभावना कहाँ होने की
4.......सबमें ऐसी डील हुई
नेता- पुलिस-प्रशासन, सबमें ऐसी डील हुई
कर्फ्यू में बारह से दो तक की ही ढील हुई
गेंद और पाली के पीछे दो लड़के झगड़े
उलझ गए छुटभैये, टोपी वाले ग्रुप तगड़े
रोज़गार रुक गया, आ लगी नौबत फ़ाक़ों की
जिसमें बच्चे पढ़ते थे, वह बैठक सील हुई
बदचलनी में धरे गए हैं दर्जी- पनवाड़ी
ब्राउन शुगर बेधड़क बेचे अंधा गुनताड़ी
पुलिस माँगती हफ्ता, नेता लगा उगाही में
शांति न होगी भंग, किसी पर कहाँ दलील हुई
बड़े दिनों में हत्या के नोटिस तामील हुए
बच्चे-बूढ़े, मर्द-औरतें, सभी ज़लील हुए
बरसों चली जाँच को जाने किसने लीक किया
बीती आधी सदी, कोर्ट में पुनः अपील हुई
5......हाथों से निकली जाती बाज़ी है
जागो रे ! हाथों से निकली जाती बाज़ी है
हर बेटे को अपने पापा से नाराज़ी है
जिसको देखो रोना रोता है महँगाई का
पर सबका खर्चा सुन्दरता पर चौथाई का
सबकी चिंता बना प्रदूषण है लेकिन फिर भी
त्योहारों पर खूब फूटती अतिशबाज़ी है
महानगर में चौबीसों घंटे चलते होटल
आमदनी से ज़्यादा घर के खर्चे का टोटल
कपड़ों या चरित्र दोनों की रही न गारंटी
दो दिन पहले कटी हुई सब्जी भी ताज़ी है
हुआ कमाई का धंधा है अब बीमारी भी
कुर्सी जैसी अब बिकती है रिश्तेदारी भी
राजनीति की तरह सभी के पास मुखौटे हैं
हँसकर ‘हाय-हलो' करना भी अब अल्फ़ाज़ी है
6.......बिना तेल के कब चलती है
बिना तेल के कब चलती है गाड़ी भी सरकार
दो थानों की सीमाओं में फूल रही है लाश
जब तक हुई काम्बिंग तब तक दूर गए बदमाश
रपट लिखाने से डरता है अब तो चौकीदार
जब तक ढूँढे जाते अफ़सर, दफ्तर और वकील
दीवारों पर कोर्ट कराता नोटिस की तामील
जब मिलती तारीख़, दरोगा हो जाता बीमार
बिकता मंगलसूत्र, कलाई के कंगन, पाज़ेब
हर दिन भरती ही जाती है मुंशी जी की जेब
सीट मलाई वाली पाते मंत्री जी हर बार
7.......किसे पता है
किसे पता है क्यों, कब देगा कंधा कौन किसे
बदल रहे हैं नई सदी में सब रिश्ते-नाते
राम-राम बंदगी न होती अब आते-जाते
अर्थ-स्वार्थ की चक्की में सारे संबंध पिसे
कहने-सुनने की बातें आपस में बंद हुईं
स्वर बहके, मर्यादा की कंदीलें मंद हुईं
सहमे कौतूहल लज्जा के जर्जर वस्त्र चिसे
अपनेपन का पानी आँखों से भी उतर गया
अहंकार का चूहा मुस्कानें तक कुतर गया
कतरन से घर भरे, ढूँढती ममता उसे-इसे
✍️ डॉ अजय अनुपम
विश्रान्ति 47, श्रीराम विहार, कचहरी मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन : 9761302577
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डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
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पहुंचे एक सरोवर पर
तिनके लाए चुन-चुनकर
और बनाया अपना घर
देख-देखकर ख़ुश होते
बना एक सुन्दर-सा घर
उसमें वे अंडे रखते
जिन्हें प्यार से वे सेते
अंडों से बच्चे निकले
प्यारे-प्यारे लगते थे
लड़ते थे न झगड़ते थे
गीत सुरीले गाते थे
मीठी तान सुनाते थे
खेल निराले करते थे
चूं-चूं करते रहते थे
और कबूतर भी दिनभर
दाने लाते चुन-चुनकर
बच्चों की चोंचों में भर
उन्हें खिलाते जी भरकर
और कबूतर ख़ुश होकर
गुटर-गुटर गूं करते थे
पंख निकलने पर बच्चे
फुर-फुरकर उड़ जाते थे
मात-पिता को वे बच्चे
चले छोड़कर जाते थे
कहीं दूर फिर वे जाकर
अपना नीड़ बनाते थे
नहीं समझ कुछ आता है
कैसा अजब तमाशा है।
✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार'
1-बी/241 बुद्धि विहार, मझोला,
मुरादाबाद 244103
उत्तर प्रदेश, भारत
इक दिन आकर सूना हो जायेगा
ये मातृभाषा गौरव है भारत का
इक दिन दुनिया में माना जायेगा
ये तिरंगे की रगों में है लहलहाता
मातृभूमि को वन्दन कर है झूमता
इसकी पद्चाप है हमारी संस्कृति
हमारी पहचानऔर है भाग्य विधाता
सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का उद्घोषक
ये आशाओं का गुनगुनाता संगीत है
हमारे विश्वास को दस्तक देता ये
भारत माँ के माथे काजगमग सिन्दूर है
क्यों हम अनुकरण करें पाश्चात्य का
क्यों न हम ही अनुकरणीय हों जायें
अपनी मातृभाषा का परचम लहराकर
हिमालय की चोटियों को भी गुदगुदायें।
✍️ सरिता लाल
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
..............................
सागर की गहराई से जो हर पल डरता आया I
सिंधु तीर की तलछट से वो बस पत्थर चुन पाया II
जो गहरे में उतर गया, उसने ही मोती पाया I
सोच ज़रा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया II
तू मंजिल तक पहुँच गया था, फिर कैसे तू अटका I
मंजिल पर टिकने के बदले, अहंकार में भटका II
नियति जिसे उलझाती उसको कृष्ण न सुलझा पाया I
सोच ज़रा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया II
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
....................................
✍️ अशोक विश्नोई
..........................…...
एक दीपक नाम उनके, भी जरा रखना ,
प्रहरी बनकर सरहदों पर,, जो खड़े तत्पर।
सर्दी,गर्मी,बर्फ,बर्षा की न परवाह की,
गोलियों से शत्रुओं संग, जो लड़ें डट कर।
एक दीपक नाम उनके,भी जरा रखना,
खुद न्योछावर हो गये जो मातृ भूमि पर।।
न कभी सुख चैन पाया दूर हो मां बाप से,
त्याग कर घर-द्वार निकले देश की खातिर।
एक दीपक नाम उनके भी जरा रखना,
रच गये इतिहास खूं से, जो अमर होकर।
हो निहत्थे भी न हारे, शत्रु से रण में,
सर कटे धड़ भी लड़े थे देर तक डट कर
✍️ अशोक विद्रोही
412 प्रकाश नगर
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
......................................
सच की कीमत एक ही, ठोक बजाकर जान।
गिरगिट जैसे झूठ का, घटता-बढ़ता मान।।
कमियाँ हममें लाख हैं, भीतर ऐब हजार।
फिर भी हम तुझसे नहीं, सुन ले झूठे यार।।
जी, भरकर निंदा करे, चाहे सकल जहान।
कभी नहीं घटता मगर, सद्कर्मों का मान।।
लेन-देन, घाटा नफा, लिखकर नकद उधार।
चौराहों पर सज रहा, रिश्तों का बाजार।।
अपनी तो हरदम रही, डंडा ठोकी बात।
झुठला दे जो सत्य को, किसकी है औकात।।
तुलना का प्रारंभ है,अपनेपन का अंत।
खो जाता आनंद तब,पीड़ा मिले अनंत।।
सीधे सच्चे प्यार के, झूठे कौल करार।
कृष्णम् माथा पीटते, रिश्तों के आधार।।
✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्
कुरकावली, संभल
उत्तर प्रदेश, भारत
................................
अक्सर
रात को
मैं शहर में टहलता हूं
टहलते टहलते
जब देखता हूँ
काली-पसरी और
गड्ढेदार सड़क
तो अहसास होता है
मुझे किसी
बंधुआ मजदूर का
जो दिन भर की थकन
उतारने को
पसर गया हो
और
मालिक की तरह
भौंकते हुए कुत्ते
उसकी नींद में
खलल डाल रहे हों
सड़क के दोनों ओर
फुटपाथ पर
बच्चों को
सोता हुआ देख
मुझे ध्यान आता है
बच्चे,
भगवान होते हैं.
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नं -9456687822
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सुख-सुविधा तो सब है फिर भी
जीवन लगता नहीं सरल क्यों
भाग्य बड़ा या कर्म बड़ा है
कुछ प्रश्नों के मिले न हल क्यों
मन से मन यदि जुड़ा न होता
तो फिर होते नयन सजल क्यों
मिटे शत्रुता पलभर में ही
पर तुम करते नहीं पहल क्यों
कथ्य-शिल्प यदि सुदृढ़ न होता
सुनते मन से लोग ग़ज़ल क्यों
'व्योम' खोखली बुनियादों पर
गर्व कर रहे शीशमहल क्यों
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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निशिदिन है चेता रहा, घटता जल-भण्डार।
प्यासी धरती का मनुज, चुकता करो उधार।।
कहती ढलकर काव्य में, मेरे मन की पीर।
बढ़ राही तू अब कभी, होना नहीं अधीर।।
चाहे इसका ज़ोर हो, या उसकी सरकार।
प्यासा देखे दूर से, फव्वारे की धार।।
जारी रखने के लिए, प्रेम भरे वो सत्र।
चल दोनों मिलकर पढ़ें, आज पुराने पत्र।।
कुछ हम-तुम मसरूफ़ हैं, कुछ मौसम बेजान।
चल इनमें से भी चुनें, थोड़ी सी मुस्कान।।
हाल-चाल भी पूछना, हो जाये दुश्वार।
मुझे न करना व्यस्तता, तू इतना लाचार।।
दाना चुगते देखकर, तुमको अरसे बाद।
प्यारी चीं-चीं आ गई, हमको मम्मी याद।।
ॲंधियारे अब ऐंठना, है बिल्कुल बेकार।
झिलमिल दीपक फिर गया, तेरी मूॅंछ उतार।।
आकर मेरी नाव में, हे जग के करतार।
मुझको भी अब ले चलो, भवसागर से पार।।
✍️राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
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भोर पहर जब लगी बरसने
जगती कितना है अलसायी
सूर्य किरण को रोक बीच में
गगन सदन में है लहरायी ।
बैठ दुपहरी सोच रही यह
क्यों अब तक मेघा ठहरे हैं
सावन भादो जी भर बरसे
भर दिये सरोवर गहरे हैं ।
भरी रात भी चैन नहीं है
वह रिमझिम लोरी गाती है
चाँद सितारे छिपा अंक में
जग अंधेरा कर जाती है ।
✍️ डॉ रीता सिंह
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
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पत्तल को वनवास हो गया
कुल्हड़ हैं बेचारे
मस्त बफे के फैशन में सब
पंगत राह निहारे
खुशियों की शूटिंग तो होती
पर गायब खुशहाली
चैती मेले जाना लगता
शहरों को देहाती
गेहूँ की बाली भी अब तो
बैसाखी कब गाती
विदा करा दी किसने रौनक
चौपालें सब ठाली
ढोलक भी गीतों से गुपचुप
करती कानाफूसी
सोहर, मंगल गाना लगता
अब तो दकियानूसी
डीजे के सम्मुख नतमस्तक
कल्चर भोली-भाली
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
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✍️ अतुल कुमार शर्मा
सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल: 8273011742
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जीने का संघर्ष जारी आज भी,
बेबसी में यूँ फंसी है जिंदगी।
है अजादी पास लेकिन, पर बंधे
धर्म जाती ने कसी है जिंदगी।
उठ सकी इंसानियत ना आज भी
नफरतों से यूँ सनी है जिंदगी।
जश्ने आजादी मनाते हम सभी,
लगता पर कोई कमी है जिंदगी।
✍️ इन्दु रानी
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
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उसने अब तक सहेज रक्खी है
ख़ास है कुछ तेरी निशानी में
राम का नाम सिर्फ़ नाम नहीं
संग भी तैरते हैं पानी में
इतना क़ाफ़ी है जान लो ख़ुद को
चार ही दिन हैं ज़िंदगानी में
पात्र मिलते हैं और बिछड़ते हैं
ज़िंदगी की हसीं कहानी में
हँसते-हँसते मिटी वतन पर जो
बात कुछ तो थी उस जवानी में
✍️ सुमित सिंह 'मीत'
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इन्हीं पेड़ों पर,सावन के महीने में झूले पड़ जाते, जो लगभग पूरे महीने चलते, भले ही त्योहार केवल एक दिन का होता ,यानिकि हरियाली तीज के दिन मनाया जाने वाला, महिलाओं का विशेष पर्व।
उधर जब कभी खेतों की जुताई होती और पटेला लगने की बारी आती तो ताऊ जी के पैरों के बीच बैठकर पटेला की सवारी ,हमारी खुशियों को कई गुना बढ़ा देती। ताऊ के लिए खेत पर पहुंची ताई के हाथ की पनपथी रोटी में कभी-कभी हम ताऊ का हिस्सा चट कर जाते, इस तरह ताई की रोटी और ताऊ के प्यार के बीच बीता बचपन, पूरी जिंदगी के लिए किसी प्रशिक्षण से कम नहीं था। मेरी सरलता और कम बोलने का गुण, शायद मुझे सबका प्यार दिलाने में सहायक होता।संयुक्त परिवार में होने के कारण ही, मैं सबका प्यारा था लेकिन फोकट में मिलने वाले उस प्यार का ,मैंने कभी गलत फायदा नहीं उठाया। तीन बड़ी बहनों द्वारा चिढ़ाना,कभी दुलारना, कभी मेरे पीछे उनकी दौड़ या कभी उनके पीछे मेरा दौड़ना,योगा जैसी पूर्ति तो आसानी से कर ही देता था। घर से खेत की दूरी अधिक न होने के कारण ,दिन में कई चक्कर लग जाते,जो कि मॉर्निंग वॉक और ईवनिंग वॉक की सारी कमी दूर कर देता।
खेत के रास्ते में एक मोड़ पर, इकलौता सुनार परिवार रहता, जिसके घर में बड़ा-सा नीम का पेड़ था। जिसका नामकरण, शायद गांव वालों ने ही किया होगा,नाम था- "सुनारों वाला नीम" । लेकिन समय बीतने पर एक दिन वह किसी बेदर्द तूफान का कोपभाजन बन गया, जो बहुत बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन की आपूर्ति जरूर करता रहा होगा, लेकिन यह ज्ञान हमें उस समय तो बिल्कुल था ही नहीं।उसके खत्म होने से हमें केवल इतना दुख था कि गर्मियों में पेड़ के नीचे खड़े होने वाले तरबूज-खरबूज के ठेले, आइसक्रीम-कुल्फी वाला या फिर सांपों और रीछ का खेल दिखाने वाले ,अब वहां नहीं ठहर पाएंगे और हम इन सुविधाओं से वंचित रह जाएंगे ,हालांकि बड़े होकर ऐसी सुख-सुविधाओं से हम स्वतः ही दूर होते चले गए।
आखिर हम भी पढ़ाई के लिए शहर में बसे तो जरूर, लेकिन मन आज भी गांव में बसता है, क्योंकि आज भी गांव में प्रेम ,सहानुभूति, सम्मान, सहयोग और परस्पर रिश्तों की पवित्रता का कोई तोड़ नहीं है, बल्कि शहर का आदमी, गांववासियों की अपेक्षा अधिक जोड़-तोड़,प्रतिस्पर्धा ,फैशन के नाम पर नंगेपन की होड़ में, दिशाविहीन होकर, अनियंत्रित स्थिति में, निरंतर दौड़ रहा है ,और पैसे की चाहत में भटकते हुए, इन्सान इंसानियत को छोड़ रहा है।
✍️ अतुल कुमार शर्मा
सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल:8273011742
धर्म को लेकर बहस
और मारपीट के
दृश्य आ रहे थे
सब अपने धर्म को
दूसरे के धर्म से
बेहतर बता रहे थे
हमने सोचा
अपने सीमित ज्ञान को
बढ़ाते हैं
धर्म के ठेकेदारों के
पास जाकर
धर्म वास्तव में क्या है
पता लगाते हैं
पहले एक पुजारी के पास गए
उसने बताया धर्म होता है
सुबह शाम पूजा आरती,
घंटा बजाना
कभी कभी उपवास रखना
और पंडितों को खाना खिलाना
मौलवी ने बताया
दिन में पांच बार नमाज पढ़ना
रमजान में रोजा रखना
काफिरों का नाश करना
कुछ ऐसी है
हमारे धर्म की परिकल्पना
पादरी बोले
चर्च में फादर के सामने
अपनी गलतियां स्वीकारना
कैंडल जलाना
बस धर्म यही है
प्रेयर और दुआ में हाथ उठाना
ग्रंथी ने कहा धर्म है
गुरुद्वारे में मत्था टेकना
लंगर छकना
निस्वार्थ भाव से
सबकी सेवा करना
हमें सबकी बातों ने
उलझा दिया
हमने कुछ आम
लोगों से पता किया
जवान ने कहा
मातृभूमि की सेवा से बड़ा
कोई कर्म नहीं है
देश के लिए मिटने से बड़ा
कोई धर्म नही है
किसान बोला
जाड़ा गर्मी बरसात
चाहें कैसे हो हालात
खेती है हमारा
एकमात्र सहारा
खेतों में काम करना ही
धर्म है हमारा
नेता का जवाब था
कुर्सी ही हमारा धर्म है
हम अपने धर्म का
बेशर्मी से
पालन करते हैं
इस पर टिके रहने को
खुद तक की नजर में
बार बार गिरते हैं
व्यापारी ने समझाया
हम करते हैं व्यापार
व्यापार में पैसा कमाना
एकमात्र धर्म है होता
इसके लिए चाहें
झूठ बोलना पड़े
या किसी को देना पड़े धोखा
अध्यापक ने बताया
हमारा धर्म है
पढ़ना और पढ़ाना
डॉक्टर के हिसाब से
धर्म का मतलब था
मरतो को बचाना
जोकर के लिए धर्म था
रोतों को हंसाना
श्रवण जैसे पुत्र ने कहा
धर्म होता हैं
माता पिता की सेवा में
अपना समय बिताना
सबकी अपनी परिभाषा
सबका अपना तर्क था
लेकिन ध्यान से देखने पर
इनमे कोई ना फर्क था
जिसका जो भी विचार था
उसके मूल में
उसका स्वार्थ और रोजगार था
मेरे विचार से
भगवान ने अपने स्वरूप से
सबको सजाया है
वो परमात्मा है
उसने हमें आत्मा बनाया है
हमने
भौतिकता की अंधी दौड़ में
उस पर अहंकार
और प्रति अहंकार का
मुल्लम्मा चढ़ा दिया है
मानवता ही
हम सब मानवों का धर्म है
इस तथ्य को भुला दिया है
अगर हम सब
मानव बनकर रहेंगे
मानवता को अपना धर्म कहेंगे
सबके दिलों से
प्यार के झरने बहेंगे
मैने कविता सुना कर
अपना कवि धर्म
निभा दिया है
एक अच्छे श्रोता का धर्म
तुम भी निभाओ
कुछ और नहीं
कर सकते हो
तालियां ही बजाओ ।
✍️ डॉ.पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
मुरादाबाद 244001
M 9837189600
अर्पित और उसकी पत्नी शैला भी जागरण में जाने की तैयारी कर रहे थे…ऐसे ख्याति प्राप्त गायक सुनने को कहां मिल पाते हैं…और विभिन्न प्रकार की झांकियां…कभी मयूर नृत्य,कभी राधा कृष्ण का नृत्य,कभी काली माई की झांकी,कभी शिव स्तोत्र पर तांडव नर्तन…भरपूर मनोरंजन के साथ-साथ अध्यात्म की अनुभूति भी…माता की पूजा में तो अगाध श्रद्धा उनकी थी ही।
एक कोठरी में चारपाई पर पड़ी बीमार वृद्ध वयस मां को तो उन्होंने भनक भी नहीं लगने दी थी…वह भी साथ चलने की अभिलाषा व्यक्त कर सकती थी।
लेकिन बहू को सजते-संवरते श्रंगार करते देखकर मां ने स्वयं ही अनुमान लगा लिया कि पति को साथ लेकर वह कहीं जा रही है…कहां जा रही होगी?...शिव मंदिर में इतना सुन्दर इतना भव्य मां का दरबार सजाया गया है तो फिर वहीं जा रही होगी…
मां भगवती में तो उसकी भी अगाध श्रद्धा थी।वह भी जीवन भर नवदुर्गे और नवरात्रों के पूरे व्रत निष्ठा और नियम पूर्वक रखती आयी थी। और जब तक देह की सामर्थ्य रही कहीं भी मां का जागरण अथवा भजन कीर्तन उसने छोड़ा नहीं था। श्रद्धा होती भी क्यों नहीं,भगवती मां ने उसकी मनोकामना भी तो पूर्ण की थी…अर्पित को उसके अंक में डालकर…अर्पित को पाने के लिए उसने कितने जप तप, कितने व्रत अनुष्ठान किये थे , उम्र के इस अन्तिम पड़ाव पर कुछ भी तो स्मरण नहीं।
मां के दरबार में अपनी श्रद्धा की देवी की एक झलक पाने के लिए उसका भी मन ललचा उठा। उसने साहस कर बहू को आवाज लगा दी– "बहू!जरा मेरे पास तो आ!... तुम लोग आज जा कहां रहे हो?"
बहू ने सुनकर भी अनसुना कर दिया तो उसने बेटे को पुकारा।बेटा वहीं से चीखा– "क्या है मां?यह कितनी गन्दी आदत है तुम्हारी कि हम जब भी कहीं जाने को तैयार होते हैं तुम हमें परेशान करने लगती हो!... चुपचाप नहीं लेटी रह सकतीं क्या?"
मां सहम गयी…जब अपनी कोख से जना बेटा ही कोई बात सुनने को तैयार नहीं तो फिर बहू पर ही क्या अधिकार?...उसका भी क्या विश्वास कि वह कोई बात मान ही लेगी?
लेकिन देवी मां के चरणों में शीश नवाने की अदम्य लालसा ने उसमें साहस भर दिया । लाठी के सहारे वह उठी और बहू के सामने पहुंचकर धीरे से ससंकोच बोली – "बहू क्या मां के जागरण में जा रही हो? मेरा भी बहुत मन था मां के चरणों में मत्था टेकने का।सोच रही थी कि आज हूं कल का क्या पता रहूं न रहूं? अन्तिम बार मां के दिव्य दर्शन कर लेती तो हृदय को बड़ी शांति मिल जाती…"
बहू की भृकुटी वक्र हो गयी– "मां जी! आपसे कितनी बार कहा है कि हमारे काम में अड़ंगा मत लगाया करो! न कहीं आते जाते समय हमें रोका-टोका करो! पर सठिया गयी हो न, मान कैसे सकती हो?... अच्छा खासा मूड खराब कर दिया…दो कदम तो तुमसे चला नहीं जाता, जागरण में जाओगी?... भीड़ की रेलमपेल में कहीं कुचल कुचला गयीं तो और हमारी जान को मुसीबत खड़ी हो जाएगी। वैसे भी हम कौन सा मंदिर जा रहे हैं, इनके दोस्त की मां बीमार है उसे देखने जा रहे हैं आधे घण्टे में लौट आएंगे।"
बहू से निराश होकर बूढ़े नेत्रों में याचना भाव लिये वह बेटे की ओर मुड़ गयी– "बेटा! मैं तुम दोनों के काम में बिल्कुल भी अड़ंगा नहीं लगाऊंगी।बस तू मुझे मंदिर तक पहुंचा आ! उसके बाद तुम दोनों को जहां जाना हो वहां चले जाना और उधर से लौटते समय मुझे भी लेते आना। अंतिम समय में एक बार मां के दर्शन हो जाएं तो समझ लूंगी कि मैंने सारे तीरथ कर लिये।"
पुत्र ने क्षणार्ध भर को पत्नी की ओर देखा…पत्नी ने आंखों ही आंखों में उसे कोई संकेत किया तो वह आवेश में आ आ गया – "अम्मा! तुम पागल हो गयी हो। बीसियों बीमारियां तुम्हारे शरीर में घुसी पड़ी हैं।पता है तुम्हें कुछ,कितना खर्च आ रहा है तुम्हारी दवाइयों पर? मंदिर की भीड़ में तुम्हें चोट वगैरह लग गयी तो कैसे करा पाएंगे तुम्हारा इलाज? इतना धन आएगा कहां से? …दो कदम चलने में तुम्हारी सांस फूलने लगती है मंदिर तक कैसे चल पाओगी? या तुम्हें कन्धे पर बैठाकर ले जाऊं?"
वृद्धा मां उपहास की हंसी हंस पड़ी – "ना बेटा ना! तू क्यों ले जाएगा मुझे अपने कंधों पर बैठाकर? वह तो मैं ही थी कि जब तू छोटा था तब बीमार होने पर भी तुझे अपने कंधों पर बैठाकर माता के दरबार में ले जाती थी और तेरा मत्था टिकवाती थी। क्योंकि मैं मां हूं न। तू क्या जाने मां की ममता का मूल्य?बेटा तू अब भी कहे तो मैं अब भी तुझे अपनी पीठ पर लादकर घिसटती-घिसटती मां के दरबार तक ले ही जाऊंगी। और बेटा तुझे याद है न कि तेरे कालेज की फीस भरने के लिए मैंने अपना सारा जेवर बेच दिया था…और तू कहता है कि इलाज का खर्च कहां से आएगा?... वाह बेटा वाह!..."
लेकिन पुत्र मां की बात सुनने के लिए रुका नहीं। पत्नी का हाथ पकड़ कर तत्काल बाहर की ओर निकल गया…मां के जागरण में शीश नवाने के लिए…ताकि मां सारी मनोकामनाएं पूर्ण कर सके।
इधर श्रद्धा की यह विडंबना देखकर बूढ़े नेत्रों से जलधार बह चली…बेटा और बहू घर में विद्यमान जीवन्त देवी मां का तिरस्कार कर जागरण में कृत्रिम देवी मां को शीश झुकाने गये थे।
✍️ डॉ अशोक रस्तोगी
अफजलगढ़, बिजनौर
"ये हमारी जंगल की व्यवस्था को बदनाम करने की साजिश है।हम इसका पुरजोर विरोध करते हैं।" शेर ने दहाड़ते हुए कहा।
बाद में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर, ऐसी बात कहने वाले व्यक्ति को,एक साल के जंगलावास की सजा सुना दी गई।
✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
आदर्श कॉलोनी रोड
मुरादाबाद 244001
M 9837189600
बाबू ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आया हूँ। बोला "आपको नहीं पता, अब सारा काम ऑनलाइन हो रहा है। नवीनीकरण शुल्क भी ऑनलाइन ही जमा होगा और साथ ही यह भी सुन लीजिए अब दस वर्ष का नवीनीकरण नहीं होगा। प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण हुआ करेगा । अतः आपको केवल एक रुपया ऑनलाइन जमा कराना होगा ।"
मैं अवाक रह गया । बोला "भाई साहब ! यह ऑनलाइन की पद्धति रुपया जमा करने के मामले में कब से शुरु हो गई ? पहले हम अच्छे - भले आते थे ,आपके हाथ में दस साल के दस रुपए पकड़ा देते थे । आप रसीद काट देते थे ..."
बाबू ने बीच में ही बात काटी । बोला" वित्तीय मामलों में पूरी पारदर्शिता रखी जा रही है। इसी दृष्टि से सरकारी पैसा ऑनलाइन जमा होगा । बाकी चीजें मेज पर ऊपर - नीचे चलती रहेंगी । "
मैंने कहा "चलो ठीक है ! ऑनलाइन ही जमा कर देंगे लेकिन दस साल का क्यों नहीं ? हर साल क्यों ? "
बाबू ने अपनी बत्तीसी निकाली और मुस्कुराते हुए कहा "हमारे घर की पुताई क्या दस साल बाद हुआ करेगी ? वह तो हर साल होनी चाहिए ? अब हम "आत्मनिर्भर" बनना चाहते हैं ।"
मैंने कहा " आत्मनिर्भर से तुम्हारा क्या तात्पर्य है ? "
वह बोला "अब जब प्रतिवर्ष आप का नवीनीकरण होगा , तब हमारा खर्चा- पानी हर साल निकलता रहेगा और हम सरकारी वेतन पर निर्भर न होकर आप से प्राप्त चाय-पानी के खर्चे से अपना गुजर-बसर करते रहेंगे ।"
मैंने कहा "तुमने तो आत्मनिर्भरता की परिभाषा ही बदल दी । हम लोग कितने परेशान होते हैं ,क्या तुमने कभी सोचा ?"
बाबू गुस्से में बोला "बहस मत करो। सरकारी दफ्तर आप लोगों की परेशानियों को सुलझाने के लिए ही तो है । अगर परेशानी नहीं होगी तो फिर हम उनका समाधान कैसे करेंगे और आपसे मेज पर बैठकर किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुँचेंगे ?"
मैंने कहा "अब मुझे क्या करना है?"
वह बोला "सबसे पहले तो आप ऑनलाइन पैसा जमा करिए ताकि नवीनीकरण आवेदन - पत्र आपके द्वारा भरा जा सके।"
मैं भी गुस्सा गया । मैंने कहा "आप का दफ्तर दूसरी मंजिल पर है । मुझे दो जीने चढ़ने पड़ रहे हैं । मेरे घुटने बदलने का ऑपरेशन आठ महीने पहले हुआ था । जीना चढ़ना कठिन है ।"
इस बार फिर बाबू का तेवर गर्म था । बोला "आप तो केवल दो जीने चढ़ने को ऐसे समझ रहे हैं ,जैसे स्वर्ग तक जाना और आना पड़ रहा हो । अरे ! सरकारी दफ्तर अनेक स्थानों पर तीसरी मंजिल पर हैं। वहाँ आप से ज्यादा बूढ़े और बीमार लोग जैसे-तैसे चलकर जाते हैं ।आप तो फिर भी हट्टे-कट्टे हैं । चलने में आपको क्या परेशानी है ? जीना चढ़ना तो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है । सरकार को धन्यवाद कहिए कि उसने आपको जीना चढ़ने की व्यवस्था करने के लिए दूसरे और तीसरे या चौथे तल पर सरकारी दफ्तर बना रखे हैं।"
मैंने बहस करना उचित नहीं समझा और ऑनलाइन प्रक्रिया के द्वारा एक वर्ष का एक रुपया जमा कराने के लिए ऑटो में बैठ कर किसी कंप्यूटर केंद्र पर जाना उचित समझा। एक रुपया जमा करने में कितने पापड़ बेलने पड़े ,यह तो मैं ही जानता हूँ। अंततः रसीद लेकर सरकारी दफ्तर के नवीनीकरण कार्यालय में पहुंचा । उनको अपने पत्राजात दिए तथा ऑनलाइन जमा करने की रसीद थमाई। कहा" अब नवीनीकरण कर दीजिए ।"
इस बार दफ्तर पर बाबू की कुर्सी खाली थी , जो कि मैं जल्दबाजी में देख नहीं पाया था । एक दूसरे सज्जन जो थोड़ा बगल में कुर्सी डालकर बैठे हुए थे, कहने लगे "आप हमसे क्यों ऐसी बातें कर रहे हैं ? हम क्या आपको बाबू नजर आते हैं ? बाबू हमारे मित्र थे । वह चले गए हैं ।अब तो आपको कल या परसों मिलेंगे ।" मैंने उन सज्जन से क्षमा माँगी कि मैं आपको पहचान नहीं पाया क्योंकि दरअसल मैं बाबू से दस वर्ष बाद मिला हूँ। वह सज्जन बोले "इसीलिए तो सरकार ने हर वर्ष के नवीनीकरण की पद्धति निकाली है ताकि आप बाबू से मिलते - जुलते रहें और उसको पहचान जाएँ तथा किसी अन्य व्यक्ति को बाबू समझने की गलती कभी न करें।"
खैर ,मरता क्या न करता । मैं ऑटो में बैठ कर फिर घर आया। शहर के एक छोर पर हमारा घर था तथा दूसरे छोर पर नवीनीकरण कार्यालय था। चालीस रुपए ऑटोवाला जाने के एक तरफ के लेता था तथा चालीस रुपए दूसरी तरफ के लेता था। इस तरह शुल्क का एक रुपया जमा करने के चक्कर में मेरे अस्सी रुपए बर्बाद हो गए । अगली तारीख पड़ गई।
हम अगले दिन फिर पहुँचे । बाबू बैठे हुए थे । हम प्रसन्न हो गए। हमने कहा "लीजिए ! हमारे नवीनीकरण से संबंधित सारे पत्राजात आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं । अब नवीनीकरण सर्टिफिकेट हमें दे दीजिए।"
बाबू ने हमें आश्चर्य से देखा और कहा "आप तो जब भी आते हैं ,बुलेट ट्रेन की रफ्तार से आते हैं । जबकि आपको पता है कि यह सरकारी कार्यालय है । यहाँ पैसेंजर के अतिरिक्त और कोई गाड़ी नहीं चलती। थोड़ा हल्के बात करिए । फाइल छोड़ जाइए। आपके कागजों का अध्ययन करके हम आपको सूचित कर देंगे ।"
मैंने कहा "इसमें अध्ययन में रखा क्या है ? मेरा नाम है, पता है, दुकान का व्यवसाय है। नवीनीकरण में दिक्कत क्या है ?"
वह बोले "जो भी दिक्कत है ,सब आपको बता दी जाएगी । आप हफ्ता -दस दिन बाद आकर मिल लीजिए।"
मजबूर होकर मुझे घर लौटना पड़ा। बैरंग वापस आते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा था । मगर बहस करने का मतलब था, सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाना और इसके लिए भारतीय दंड संहिता की अनेक धाराएँ मेरा इंतजार कर रही थीं। अतः मैं शांतिपूर्वक अपने घर आ गया ।
दस दिन बाद मैं फिर नवीनीकरण कार्यालय में बाबू के पास उपस्थित हुआ। अब हमारी जान - पहचान काफी बढ़ने लगी थी।
वह मुझे देख कर मुस्कुराया बोला "आप आ गए ?"
मैंने कहा "मुझे तो आना ही था"
वह बोला "आपके कागजों में बड़ी भारी कमी है। आपने कहीं भी अपने जिले का नाम नहीं लिखा । इन्हें दोबारा से मेरे सामने प्रस्तुत कीजिए ताकि जब भी मैं कागज खोलूँ, तब आपका जिला मेरी समझ में आ जाए।"
मैंने कहा "आप केवल हमारे जिले का ही कार्यालय का काम सँभालते हैं । अतः जिला नहीं लिखा है तो कौन सा आसमान टूट पड़ा ! लाइए , मैं अपने हाथ से जिला लिख देता हूँ।"
बाबू ने मेरा हाथ पकड़ लिया, बोला "साहब ! कैसी बातें कर रहे हैं ? टाइप किए हुए कागज में भला हाथ से कोई जिला लिख सकता है ? आप दोबारा टाइप कर के आइए। फिर से अपने हस्ताक्षर करिए और फिर मेरे पास जिला लिखवा कर कागज प्रस्तुत करें।"
मैंने भी भन्नाकर कहा" ठीक है ,अब आप जिले को इतना महत्व देते हैं ,तब यह काम भी पूरा कर लिया जाएगा । कब आऊँ? "
वह बोला "अभी दो-तीन दिन तो मैं व्यस्त रहूँगा ,उसके बाद आप किसी भी दिन आ जाइए।"
मैंने कागजों को दोबारा टाइप करवाया उसमें जिला लिखवाया और अगले सप्ताह नवीनीकरण कार्यालय जाने के लिए ऑटो पकड़ा । संयोगवश ऑटो वाला पुराना था। देखते ही बोला"नवीनीकरण दफ्तर जाना है?"
मैंने कहा "तुम्हें कैसे पता ?"
वह बोला "हमने धूप में बाल सफेद नहीं किए । दुनिया देखी है । जो वहाँ एक बार चला गया ,समझ लीजिए दस-बारह बार जाता है ,तब जाकर लाइसेंस का नवीनीकरण होता है ।"
मैं उससे क्या कहता ? मैंने कहा "चलो "।दफ्तर में गए । मगर बाबू नहीं था। एक दूसरे सज्जन ने बताया "बाबू आजकल कम आ रहे हैं । आप दोपहर को साढ़े तीन बजे के करीब एक चक्कर लगा लीजिए । शायद मिल जाएँ।"
मैंने मूड बिगाड़ कर कहा " यहीं पर कोई होटल का कमरा किराए पर मिल जाए तो मैं यहीं पर रहना शुरू कर दूँ। बार बार क्या घर आऊँ- जाऊँ।"
वह सज्जन मेरे जवाब को सुनकर क्रोधित हुए । कहने लगे "क्या सरकारी बाबू को और कोई काम नहीं होता ?" सज्जन के तेवर गर्म थे । मजबूर होकर मुझे फिर घर वापस लौटना पड़ा ।
इसी तरह से बार- बार आने- जाने में छह महीने लग गए। मैं जाता था ,दफ्तर में बाबू से अपने कार्य के बारे में जानकारी लेता था , उसकी आपत्तियों का निराकरण करता था और फिर नए कागज बनाकर उसके पास पहुँचाता था ।
एक दिन बाबू बोला "आपके कार्यों में मुख्य आपत्ति यह पाई गई है कि आपने निर्धारित प्रपत्र पर अपना विवरण जमा नहीं किया है । बाकी चीजें तो सही हैं लेकिन प्रपत्र तो निर्धारित ही होना चाहिए ।"
मैंने कहा "निर्धारित प्रपत्र क्या होता है ? कृपया मुझे उपलब्ध करा दीजिए ? "
वह बोला " यह तो छह नंबर वाले बाबू जी की दराज में रखे रहते हैं । वह फिलहाल छुट्टी पर हैं। आप उनसे मिलकर निर्धारित प्रपत्र ले लीजिए और जमा कर दीजिए । आप का नवीनीकरण हो जाएगा ।"
मैंने कई चक्कर काटकर मेज नंबर छह के बाबू को तलाश किया, उससे निर्धारित प्रपत्र मुँहमाँगे दाम पर अपने कब्जे में लिए , लिखा, भरा और संबंधित बाबू को उसके हाथ में देकर आया । पूछा "अब तो नवीनीकरण सर्टिफिकेट दे दो भैया ! "
उत्तर में वही ढाक के तीन पात रहे। नवीनीकरण नहीं हो कर दिया । उसके बाद से दसियों बार नवीनीकरण कार्यालय गया लेकिन हर बार यही जवाब मिलता है -" आपके कागजों की उच्च स्तरीय जाँच की जा रही है तथा आपत्तियाँ भेज दी जाएँगी।"
स्टेटस-रिपोर्ट यह है कि धीरे-धीरे एक साल बीतने लगा है । एक वर्षीय नवीनीकरण शुल्क का एक रुपया सरकार के खाते में मेरे द्वारा जमा हो चुका है । मेरे सैकड़ों रुपए आने- जाने तथा दफ्तर के चक्कर काटने में बर्बाद हो गए हैं । न जाने कितने कार्य-दिवस मैं खर्च कर चुका हूँ। दो जीने उतरते -चढ़ते अब जीने की इच्छा ही समाप्त हो चुकी है । अभी तक नवीनीकरण नहीं हुआ ।
✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल 9997615451
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति द्वारा हिन्दी दिवस पर बुधवार 14 सितंबर 2022 को जंभेश्वर धर्मशाला लाइनपार मुरादाबाद में काव्य गोष्ठी एवं सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। समारोह में ओज के उभरते कवि "प्रशांत मिश्र" को सम्मानित किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें अंग वस्त्र, स्मृति चिह्न और सम्मान पत्र प्रदान किया गया । अध्यक्षता योगेंद्र पाल विश्नोई ने की।
मुख्य अतिथि डॉ महेश दिवाकर ने कहा -
आओ मिलकर हम करें हिंदी का उत्थान
हिंदी भाषा देश की करे विश्व कल्याण
विशिष्ट अतिथि ओंकार सिंह " ओंकार " ने कहा -
अरुण को सवेरे नमन कर रहा हूं,
मैं उर्जित स्वयं अपना तन कर रहा हूं
वरिष्ठ कवि रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ ने कहा-
अब नहीं मिलता,सरल अंत:करण है।
हर कोई ओढ़े हुए एक आवरण है
वरिष्ठ कवि राम दत्त द्विवेदी ने कहा -
छोड़ो हिंदी कविता में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग
क्योंकि हमें अपनी हिंदी को मुक्त करना है
के.पी सिंह सरल ने कहा
मात-पिता पूजे नहीं अब पूजे है काग
क्यों झूठे ही गा रहा श्राद्ध पक्ष के राग
वीरेंद्र सिंह बृजवासी ने पढ़ा-
सब की बड़ी बहन है हिंदी,
सच्ची सरल कहन है हिंदी।
काव्य गोष्ठी का संचालन करते हुए अशोक विद्रोही ने कहा .....
मेरा प्यारा देश महान
आज है सारे जग की शान!
गूंज रहा है गौरव गान
हिन्दी! हिन्दू!! हिन्दुस्तान!!!
राम सिंह निशंक ने कहा -
अपनी प्यारी भाषा हिंदी,गरिमा इसकी है न्यारी
विश्व पटल पर इसका दिखना किसे नहीं अच्छा लगता
योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा -
जीवन की परिभाषा हिंदी !
जन-जन की अभिलाषा हिंदी
डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा -
महकी आकाश में चांदनी की गंध
अधरों की देहरी लांघ आये छंद
राहुल शर्मा ने कहा ---
खाली थी मेरी जेब परेशान तो मैं था
ये क्या हुआ कि आपके तेवर बदल गए
राजीव प्रखर ने कहा -
मानो मुझको मिल गये, सारे तीरथ-धाम।
जब हिंदी में लिख दिया,मैंने अपना नाम।
मनोज वर्मा 'मनु ने कहा -
हिंदी यदि पाती रहे जन मन में आकार।
निज भाषा उत्थान के सपने हों साकार।।
शुभम कश्यप ने कहा-
समाई बैठी है शब्दों की चासनी हिंदी ।
हमारे देश के लोगों की है मृदुभाषिनी हिंदी।
गोष्ठी में चिंतामणि, नकुल त्यागी, एल एस तोमर आदि कवियों ने भी काव्यपाठ किया। योगेंद्रपाल विश्नोई एवं रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ ने आभार अभिव्यक्त किया।
✍️ अशोक विद्रोही
अध्यक्ष
राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत