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बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष रामलाल अनजाना के कृतित्व पर केंद्रित यश भारती माहेश्वर तिवारी का महत्वपूर्ण आलेख .….समकालीन यथार्थ का दस्तावेज़ । यह आलेख अनजाना जी के वर्ष 2003 में प्रकाशित दोहा संग्रह "दिल के रहो समीप" की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ है ।


 हिंदी के वरिष्ठ गीत-कवि वीरेन्द्र मिश्र ने अपने गीतों की सृजन-प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए बहुत सारी गीत पंक्तियों का लेखन किया है। एक गीत में वे लिखते हैं, 'कह रहा हूं जो, लिखा वह ज़िंदगी की पुस्तिका में।' इसका सीधा अर्थ है कि वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि कोई भी कविता जीवन से विमुख नहीं हो सकती। गीत या कविता लेखन को वे अपना कर्तव्य ही नहीं, वरन् गीत को अतीत का पुनर्लेखन और भविष्य की आकांक्षा के स्वरूप में देखते हैं। लेखन उनकी दृष्टि में शौक़ या मन बहलाव का माध्यम अथवा पर्याय नहीं है, 'शौकिया लिखता नहीं हूं। गीत है कर्तव्य मेरा। गीत है गत का कथानक । गीत है भवितव्य मेरा।' वैसे भी सुधी विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि काव्य-सृजन ही नहीं, वरन् किसी भी तरह का कलात्मक-सृजन एक तरह से सामाजिक दायित्व का निर्वहन है। इसी दायित्व का निर्वहन तो किया है तुलसी ने, सूर ने, कबीर ने, विद्रोहिणी मीरा ने और अपनी तमाम कलात्मक बारीकियों के प्रति अतिशय सजग एवं प्रतिबद्ध बिहारी तथा घनानंद जैसे उत्तर मध्यकालीन कवियों ने।

      दोहा हिंदी का आदिम छंद है। इतिहास की ओर दृष्टिपात करें तो इस अवधारणा की पुष्टि होती है। छंद शास्त्र के इतिहास के अध्येयताओं ने इसे महाकवि कालिदास की प्रसिद्ध रचना 'विक्रमोर्वशीयम्' में तलाश किया है

मई जाणिअ मिअलोअणि णिसिअरु कोइ हरेइ
जाव णु साव तडिसामलि धारा हरु बरिसेइ

अपभ्रंश, पुरानी हिंदी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं के साहित्य में इस छंद के बहुलांश में प्रयोग मिलते हैं। हिंदी साहित्य का मध्यकाल तो इस छंद का स्वर्णकाल कहा जा सकता है, जिसमें कबीर, तुलसी, रहीम, बिहारी जैसे अनेक सिद्ध कवियों ने इस छंद को अपनाया। मध्यकाल के बाद इस छंद के प्रति रचनाकारों की रुचि कम होती गई, यद्यपि सत सर्व की परंपरा में वियोगी हरि जैसे कुछ कवियों ने इस छंद को अपनाया। द्विवेदी युग के बाद तो एक तरह छांदसिक कविता को हिंदी के जनपद से निकालने का उपक्रम आरंभ हो गया और प्रयोगवाद तथा नई कविता के आगमन के साथ तो इसे लगभग पूरी तरह ख़ारिज़ ही कर दिया गया। यह अलग बात है कि नाथों और सिद्धों ने इसे एक विद्रोही तेवर दिया, जो कबीर तक अविश्रांत गति से बना रहा। रहीम ने उसे कांता सम्मति नीति-वचनों का जामा पहनाया। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, दोहा-लेखन का स्वर्णकाल बिहारी का रचनाकाल है। मतिराम और रसलीन उसी की कड़ियां हैं।
     आज से लगभग दो-ढाई दशक पहले रचनाकारों का ध्यान फिर इस छंद की ओर गया और हिंदी-उर्दू के कई रचनाकारों ने इसको अपनाना शुरू किया। भाली, निदा फ़ाज़ली और सूर्यभानु गुप्त इस नई शुरूआत के ध्वजवाही रचनाकार हैं। अतिशय कामात्मकता और राग-बोध से आप्लावित सृजन धर्मिता से निकाल कर एक बार फिर छंद को बातचीत का लहजा दिया नए दोहा कवियों ने जनता को सीधे-सीधे उसी की भाषा में संबोधित करने का लहजा । लगभग दो दशक पूर्व हिंदी के कई छांदसिक रचनाकारों की रुचि इस छंद में गहरी हुई और जैसे ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और गीत में मुकुट बिहारी सरोज ने इन दोनों काव्यरूपों को आत्यंतिक निजता से निकालकर उसे लोक से, जन से जोड़कर उसे एक सामाजिक, राजनीतिक चेहरा दिया, उसी तरह सर्वश्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, विकल प्रकाश दीक्षित बटुक, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, भसीन, कुमार रवीन्द्र दिनेश शुक्ल, आचार्य भगवत दुबे, डा. राजेन्द्र गौतम, कैलाश गौतम, जहीर कुरैशी, यश मालवीय, विज्ञान व्रत, डा. कुंवर बेचैन, हस्तीमल हस्ती, योगेन्द्र दत्त शर्मा, भारतेन्दु मिश्र, डा. श्याम निर्मम, डा. विद्या बिंदु सिंह तथा सुश्री शरद सिंह सरीखे शताधिक गीत-नवगीत एवं ग़ज़ल के कवियों ने इस सृजन-यात्रा में अपने को शामिल किया। मुरादाबाद नगर में भी सर्वश्री बहोरन लाल वर्मा 'प्रवासी' तथा परशूराम सरीखे वरिष्ठ तथा समकालीन कवियों ने दोहा लेखन में अपनी गहरी रुचि प्रदर्शित की। सुकवि रामलाल 'अनजाना' उसी की एक आत्म सजग कड़ी हैं। वे देश के तमाम अन्य कवियों की ही तरह इस त्रययात्रा में अपना कदम ताल मिलाकर अभियान में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे हैं।
     कविवर रामलाल 'अनजाना' की यह उल्लेखनीय विशिष्टता है कि छांदसिक रचनाशीलता में सबके साथ शामिल होकर भी सबसे अलग हैं, सबसे विशिष्ट । समकालीन सोच के अत्यधिक निकट । उनमें सिद्धों, नाथों से लेकर कबीर तक प्रवहमान असहमति की मुद्रा भी है और रहीम का सर्व हितैषी नीति-निदेशक भाव भी । साथ ही साथ सौंदर्य और राग चेतना से संपन्न स्तर भी। कविवर 'अनजाना' की सृजन यात्रा कई दशकों की सुदीर्घ यात्रा है। उनका पहला काव्य-संग्रह 'चकाचौंध 1971 में प्रकाशित हुआ । उसके बाद सन् 2000 में उनके दो संग्रह क्रमशः 'गगन न देगा साथ और 'सारे चेहरे मेरे' प्रकाशित हुए।
    चकाचौंध में विविध धर्म की रचनाएं हैं कुछ तथाकथित हास्य-व्यंग्य की भी लेकिन उन कविताओं के पर्य में गहरे उतर कर जांचने परखने पर वे हास्य कविताएं नहीं, समकालीन मनुष्य और समाज की विसंगतियों पर प्रासंगिक टिप्पणियों में बदल जाती है। गगन न देगा साथ उनके दोहों और गीत -ग़ज़लों का संग्रह है, जो पुरस्कृत भी हुआ है, जिसमें उनके कवि का वह व्यक्तित्व उभर कर आता है जो अत्यंत संवेदनशील और सचेत है। तीसरा संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' उनकी लंबी छांदसिक तथा मुक्त छंद की रचनाओं का है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि उनकी मुक्त छंद की रचनाएं छंद के बंद' को खोलते हुए भी लयाश्रित है और वह लय डा. जगदीश गुप्त की अर्थ की लय नहीं है। इस संग्रह में कुछ दोहे भी हैं जो उनके दोहा लेखन की एक सूचना का संकेत देते हैं। इस संग्रह की उनकी कविताएं भाषा और कथ्य के धरातल पर उन्हें कविवर नागार्जुन के निकट ले जाकर खड़ा करती है। नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे एक पूर्णकालिक कवि की तरह काव्य-सृजन से जुड़ गए
    सुकवि रामलाल 'अनजाना' के संदर्भ में यह कहना कठिन है कि उनके मनुष्य ने उन्हें कवि बनाया अथवा कविता की तरलता ने उनके व्यक्तित्व को ऐसा निर्मित किया। हिंदी के एक उत्तर मध्यकालीन कवि ने लिखा भी है
लोग हैं लागि कवित्त बनावत ।
मोहि तो मेरे कवित्त बनावत ।।

बारीकी से देखा जाए, तो यह बात कविवर 'अनजाना' पर भी शतशः घटित होती है। अपनी कविताओं के प्रति संसार की चर्चा करते हुए अपने संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' की भूमिका में उन्होंने लिखा है, 'अस्मिता लहूलुहान है, महान आदर्शों और महान धर्मात्माओं के द्वारा। असंख्य घड़ियाल पल रहे हैं इनके गंदे और काले पानी में असंख्य पांचालियां, सावित्रियां, सीताएं और अनुसुइयाएं | दुष्ट दुःशासनों के द्वारा निर्वस्त्र की जा रही हैं और उनकी अस्मिता ध्वस्त की जा रही है। दया, करुणा, क्षमा, त्याग, ममता और सहयोग प्रायः लुप्त हो चुके हैं।' यही उनकी कविताओं और उनके  व्यक्ति की चिंताओं-चिंतनों तथा सरोकारों से जुड़े हैं। यहां यही  बात ध्यान देने की है कि 'अनजाना' कबीर की तरह सर्वथा  विद्रोही मुद्रा के कवि तो नहीं हैं, लेकिन जीवन में जो अप्रीतिकर है, मानव विरोधी है, उससे असहमति की सर्वथा अर्थवान मुद्रा है।। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनमें कबीर और रहीम के व्यक्तित्व का परस्पर घुलन है।
      अपनी जीवन यात्रा के दौरान 'अनजाना' ने जो भोगा, जो जीने को मिला, जो देखा, मात्र वही लिखा है। ठीक कबीर की तरह 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन देखी। 'अनजाना' की कविता में भी कागद की लेखी बहुत कम है। शायद नहीं के  बराबर। इसी ओर अपने पाठकों का ध्यान खींचते हुए तीसरे संग्रह की भूमिका में एक जगह लिखा है- 'हर ओर अंधे, गूंगे, बहरे और पंगू मुर्दे हैं, जिनके न तो दिल हैं, न दिमाग़ हैं, न गुर्दे हैं। जो जितने कुटिल हैं, क्रूर हैं, कामी है, छली हैं, दुराचारी हैं, वे उतने ही सदाचारी, धर्माचार्य, परम आदरणीय और परम श्रद्धेय की पद्मश्री से विभूषित हैं। पहरूए मजबूर हैं, पिंजड़े में बंद पक्षियों की तरह।' इस आत्मकथ्य की आरंभिक पंक्तियां पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियों बरबस कौंच जाती है- 'यहाँ पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग रहते है' कविवर 'अनजाना' के नए संग्रह 'दिल के रहो समीप' के दोहों को इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जा सकता है ...
नफरत और गुरूर तो देते हैं विष घोल ।
खुशियों को पैदा करें मधुर रसीले बोल ।।
जीवन के पथ पर चलो दोनों आंखें खोल ।
दुखे न दिल कोई कहीं, बोलो ऐसे बोल।।

    कड़वाहट, अहंकार और घृणा से उपजती है और मिठास चाहे वह व्यवहार की हो अथवा वाणी की, इस कड़वाहट को समाप्त कर जीवन को आनंदप्रद तथा सहज, तरल बनाती है। कविवर 'अनजाना' अपने रचना संसार में जाति तथा संप्रदायगत संकीर्णता, जो मनुष्य को मनुष्य से विभाजित करती है, उससे लगातार अपनी असहमति जताते हुए इस मानव विरोधी स्थिति पर निरंतर चोट करते हैं
पूजा कर या कथा कर पहले बन इंसान।
हुआ नहीं इंसान तो जप-तप धूल समान।।

     इसी तरह वे आर्थिक गैर बराबरी को भी न केवल समाज और सभ्यता के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए अस्वीकार्य ठहराते हैं
    कोई तो धन को दुखी और कहीं अंबार ।
    जीवन शैली में करो कुछ तो यार सुधार।।

प्रसिद्ध चिंतक क्रिस्टोफर कॉडवेल ने लिखा है कि पूंजी सबसे पहले मनुष्य को अनैतिक बनाती है। कवि 'अनजाना' भी लिखते हैं....
पैसा ज्ञानी हो गया और हुआ भगवान ।
धनवानों को पूजते बड़े-बड़े विद्वान ।।

पूंजी के प्रति लोगों के लोग के दुष्परिणाम उजागर करते हुए वे आगे भी लिखते है....
पैसे ने अंधे किए जगभर के इंसान।
पैसे वाला स्वयं को समझ रहा भगवान ।।

इतना ही नहीं, वे तो मानते हैं
मठ, मंदिर, गिरजे सभी हैं पैसे के दास।
बिन पैसे के आदमी हर पल रहे उदास।।
लूटमार का हर तरफ मचा हुआ है शोर।
पैसे ने पैदा किए भांति-भांति के चोर।।
जन्में छल, मक्कारियां दिया प्यार को मार।
पैसे से पैदा हुआ जिस्मों का व्यापार ।।

श्रम ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जीवन की मूल्यवान पूंजी है, इसे सभी सुधीजनों ने स्वीकार किया है। श्रम की प्रतिष्ठा की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने लिखा है ....
मेहनत को मत भूलिए यही लगाती पार
कर्महीन की डूबती नाव बीच मझधार।।

मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है, प्रसंग नहीं है, जिसकी ओर कविवर 'अनजाना' की लेखनी की दृष्टि नहीं गई है। फिर वह पर्यावरण हो अथवा नेत्रदान। नारी की महिमा-मर्यादा की बात हो अथवा सहज मानवीय प्यार की। पर्यावरण पर बढ़ते हुए संकट की ओर इशारा करते हुए वनों-वनस्पतियों के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है....
बाग़ कटे, जीवन मिटे, होता जग वीरान ।
जीवन दो इंसान को, होकर जियो महान।।

यही नहीं वकील, डाक्टर, शिक्षक किसी का भी अमानवीय आचरण उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है ....
लूट रहे हैं डाक्टर, उनसे अधिक वकील।
मानवता की पीठ में ठोंक रहे हैं कील।।
पिता तुल्य गुरु भी करें अब जीवन से खेल।
ट्यूशन पाने को करें, वे बच्चों को फेल।।

अन्यों में दोष दर्शन और उस पर व्यंग्य करना सरल है, सहज है। सबसे कठिन और बड़ा व्यंग्य है अपने कुल - गोत्र की असंगतियों पर चोट करना। 'अनजाना' इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं और समकालीन समाज, विशेष रूप से मंचीय कवियों और उनकी कविताओं में बढ़ती पतनशीलता से अपनी मात्र असहमति और विक्षोभ को ही नहीं दर्ज कराते, वरन् अपनी गहरी चिंता के साथ चोट भी करते हैं उस पर। उनकी चिंता यह है कि जिनकी वाणी हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है आज उन कवियों ने भी अपने दायित्व तथा धर्म को बिगाड़ लिया है। वे सर्जक नहीं, विदूषक बन गए हैं
कहां-कहां किस ठौर का मेटें हम अंधियार ।
कवियों ने भी लिया है अपना धर्म बिगाड़।।
रहे नहीं रहिमन यहां, तुलसी, सूर कबीर ।
भोंडी अब कवि कर रहे कविता की तस्वीर।। 

महाकवि प्रसाद ने जिसके लिए लिखा है- 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' अथवा कविवर सुमित्रा नंदन पंत ने जिसे 'मां, सहचरि, प्राण कहा है, उसके प्रति 'अनजाना' भी कम सजग नहीं हैं। जीवन में जो भी सुंदर है, प्रीतिकर है, सुखकर है, कवि उसके कारक के रूप में नारी को देखता है
ठंढी-ठंढी चांदनी और खिली-सी धूप ।
खुशबू, मंद समीर सब हैं नारी के रूप।।
झरने, बेलें, वादियां, सागर, गगन, पठार।
नारी में सब बसे हैं मैंने लिया निहार।।

नारी के ही कुछ सौंदर्य और चित्र दृष्टव्य हैं- यहां नारी जीवन का छंद है।
नारी कोमल फूल-सी देती सुखद सुगंध।
जीवन को ऐसा करे ज्यों कविता को छंद ।।

इतना ही नहीं, वे तो नारी को ही सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में स्वीकारते हैं। उसमें भगवत स्वरूप के दर्शन करते हैं तथा उसके बदले करोड़ों स्वर्गों के परित्याग की भी वकालत करते हैं। यहां यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि बहुत सारे उत्तर  मध्यकालीन कवियों की तरह यहां रूपासक्ति अथवा देहभोग नहीं। गहरा आदरभाव है। पूजा का भाव ।
    कविवर रामलाल ‘अनजाना' एक मानवतावादी कवि हैं। सहज, सरल, संवेदनशील व्यक्ति और कवि । विकारहीन आम हिंदुस्तानी आदमी जिसके पास एक सौंदर्य दृष्टि भी है और विचारशील मेधा भी। उनके व्यक्तित्व से अलग नहीं है उनकी कविता, वरन् दोनों एक-दूसरे की परस्पर प्रतिक्रियाएं हैं। इसीलिए उनकी काव्य भाषा में भी वैसी ही सहजता और तरल प्रवाह है जो उनकी रचनाओं को सहज, संप्रेष्य और उद्धरणीय बनाता है। वे सजावट के नहीं, बुनावट के कवि हैं। ठीक कबीर की तरह। उनकी कविता से होकर गुज़रना अपने समय के यथार्थ के बरअक्स होना है यू और कविता इस यथार्थ से टकराकर ही उसे आत्मसात कर महत्वपूर्ण बनती है। वे मन के कवि हैं। उनकी बौद्धिकता उनके अत्यंत संवेदनशील मन में दूध-मिसरी की तरह घुली हुई है। जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, उनको पढ़ना अपने समय को, समकालीन समाज और मनुष्य को बार-बार पढ़ने जैसा है। उनकी रचनाएं विविधवर्णी समकालीन स्थितियों-परिस्थितियों को प्रामाणिक दस्तावेज हैं, जिनमें एक बेहतर मनुष्य, बेहतर समाज सभ्यता की सदाकांक्षा की स्पष्ट झलक मिलती है।
      मुझे विश्वास है कि उनके पूर्व संग्रहों की ही तरह इस नये संग्रह 'दिल के रहो समीप' का भी व्यापक हिंदी जगत में स्वागत होगा। उनका यह संग्रह विग्रहवादी व्यवहारवाद से पाठकों को निकालकर सामरस्य की भूमि पर ले जाकर खड़ा करेगा और हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में सहायक होगा।
शुभेस्तु पंथानः ।

✍️ माहेश्वर तिवारी
'हरसिंगार'
ब/म-48, नवीन नगर
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष रामलाल अनजाना के चौदह मुक्तक । ये हमने लिए हैं उनकी वर्ष 2000 में प्रकाशित काव्य कृति "सारे चेहरे मेरे से"


कभी न छीनो किसी हाथ से, रोटी सबको खाने दो, 

जो भूले-भटके हों राही, उन्हें राह पर आने दो! 

आसमान की नहीं ये सारी धरती की हैं सन्तानें, 

धरती माता की दौलत को, इन सब में बंट जाने दो।


बैर करने को अशुभ है, हर महूरत हर घड़ी, 

प्यार करने को मगर हर एक पल है शुभ घड़ी। 

खिल उठें दिल जब मिलें, खुशबू बनो तुम प्यार की, 

कौन जाने साँस की, टूटे न जाने कब - लड़ी।


छोड़ दो अभिमान यारो, प्यार की बातें करो, 

झोलियों में नफरतों के, पत्थरों को मत भरो ! 

हर किसी को एक दिन, जाना पड़ेगा सोच लो, 

मत किसी की खुशी छीनों, समय से तो कुछ डरो !


भुला भी दो उन्हें जो भी हुईं तकरार की बातें, 

किबाड़ें खोलकर मन की, करो मनुहार की बातें । 

सफर में कौन जाने, कब कहाँ यह साँस रुक जाये, 

अभी कुछ और पल हैं शेष कर लो प्यार की बातें।


प्यार ही तो धर्म है, कर्त्तव्य हैं, अधिकार है, 

यदि न दिल में प्यार हो तो जिन्दगी बेकार है ।

 किसलिए नफरत की बांधे पोटली तुम फिर रहे,

 जिन्दगी का तो यहाँ पर, प्यार ही आधार है।


जिंदगी बहुत सुन्दर है, मगर छोटी कहानी हैं, 

इमारत है यह माटी की, यह माटी में समानी है। 

समय से भी डरो अज्ञान राही, यों न इतराओ, 

न कोई चीज दुनिया की, तुम्हारे साथ जानी है।


बुराई बैर वाली हैं, सभी बेकार की बातें। 

जिंदगी चाहती है, आज करना प्यार की बातें। 

बनाओ लीक कुछ ऐसी, दिलों के फासले कम हों,

 प्यार है सार जीवन का, करो मनुहार की बातें।


दिखाये राह लोगों को, वही इन्सान होता है, 

गिराये राह से वह आदमी शैतान होता है। 

बुराई बैर मेटे प्यार घोले जो हवाओं में, 

आदमी, आदमी के रूप में भगवान होता है।


कीमती है कहीं यदि रत्न तो वह जिंदगानी है, 

चली यों ही गई तो फिर कभी वापस न आनी है। 

बना पाये नहीं कोई कहीं पद चिह्न धरती पर, 

तो जीवन व्यर्थ है, यह जिंदगी झूठी कहानी है।


आदमी श्रेष्ठ है, इस सृष्टि का शृंगार होता है, 

कर्म से यदि गिरे तो वह धरा पर भार होता है। 

यही शैतान रावण है, यही है कंस-दुस्शासन, 

यही यदि आदमी बन जाये तो अवतार होता है।


समझते क्यों नहीं समझो, बड़े ही ध्यान से समझो, 

समझना है अगर भगवान तो इन्सान को समझो। 

निगाहों से जो गिरता है, कभी उठ ही नहीं पाता, 

न तुम विश्वास को खोओ तनिक ईमान को समझो।


उजाला तो यहाँ भी है, आदमी किन्तु अन्धा है, 

सफर के वास्ते रस्ता मगर हर एक गन्दा है । 

लुटी-सी रो रही है अब दुखी मजबूर लाचारी, 

यहाँ कमजोरियों के वास्ते फाँसी का फन्दा है।


धूल धरती पर उड़ाता जा रहा है आदमी, 

रोज़ रातों में समाता जा रहा है आदमी । 

मैं अंधेरों की शिकायत भी करूँ तो क्यों करूँ, 

अब उजालों से बहुत घबरा रहा है आदमी ।।


बहुत गहरे में यहाँ यह गिर गया है आदमी, 

जानें क्यों इस आदमी का मर गया है आदमी 

लग रहा है वंश ही विश्वास का हो मिट गया, 

इस कदर इस आदमी से डर गया है आदमी।

✍️ राम लाल अनजाना


::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष राम लाल अनजाना पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख

 


रामलाल अंजाना का जन्म 20 जून 1939 को ग्राम व पोस्ट खुनक जिला बदायूं में हुआ था। वह मार्च 1982 में मुरादाबाद आए थे और यहीं की होकर रह गए। उनके पिता का नाम हीरालाल और माता का नाम प्रेमवती था।
बचपन में स्कूल की शिक्षिका द्वारा पिटाई किए जाने पर उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया था और उनमें शिक्षा के प्रति अरुचि हो गई। परिजनों के काफी प्रयासों के पश्चात जब वह पढ़ने को स्कूल नहीं गए तो उनके माता-पिता ने उन्हें उनके नाना के पास भेज दिया। उनके नाना की परचून की दुकान थी साथ ही वे सिलाई का कार्य भी करते थे । वह वहीं पर सिलाई का कार्य सीखने लगे। एक दिन गांव में रामायण पाठ हुआ। वहां उन्होंने एक किशोर बाबूराम द्वारा रामायण की चौपाइयों का गायन सुना, जिसे सुनकर उन्हें लगा कि यदि वे भी पढ़े लिखे होते तो रामायण को इसी तरह पढ़ सकते थे। बस, यहीं से उनके मन में पढ़ने लिखने की इच्छा जागृत हो गई और उन्होंने चुपचाप अपने बराबर के लड़कों तथा गांव के पढ़े लिखे लोगों से पढ़ना लिखना सीख लिया। धीरे-धीरे वह पूरी तरह किताबें पढ़ने लगे। पहाड़े और अंग्रेजी अक्षरों का भी उन्हें ज्ञान हो गया।
एक साल गांव के कई लड़कों का प्रवेश शहर के स्कूल में होना था। जून का महीना था। अनजाना जी के मामा और गांव के ही जगनराम पाली श्रीकृष्ण इंटर कालेज बदायूं में अध्यापक थे। अनजाना जी के नाना की दुकान में काफ़ी जगह थी जिन लड़कों का प्रवेश होना था, उनकी परीक्षा ली जा रही थी। सबसे पहले सामूहिक इमला बोला गया, फिर एक-एक करके कापियों की जांच की गई। किसी-किसी का तो हर शब्द गलत था और किसी-किसी की कुछ कम गलतियां थीं। अनजाना जी मशीन की कुर्सी पर बैठे एकटक देख रहे थे। इधर-उधर दुकान के भीतर-बाहर बहुत से बच्चे और लोग खड़े इस दृश्य का आनंद ले रहे थे। अनजाना जी अपनी गांव की शैली में बोल पड़े। इतने आसान इमले में इतनी सारी गलतियां हैं। ये क्या पढ़े-लिखे हैं। इनके मामा जो अध्यापक थे, वे बोले कि क्या तुम लिख लोगे। अनजाना जी कहने लगे और क्या नहीं लिख लेंगे। हम तो इससे भी कठिन लिख लेंगे। मामा समझे कि झूठ बक रहा है। यह बिना पढ़ा कैसे लिख लेगा। अनजाना जी कहने लगे, लाते क्यों नहीं कोई कठिन सी किताब, इमला बोलने के लिए। अनजाना जी के मामा साहित्य-सरिता मिडिल की किताब उठा लाये और पेंसिल दी गई, अनजाना जी फटाफट लिखते चले गए, जिसमें कोई भी गलती नहीं थी। फिर उन्हें सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दिया गया, उसे भी जितना बताया गया, बेहिचक पढ़कर सुना दिया। यह देखकर सब दंग रह गए। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति कोई करिश्मा कर रही है। सभी आश्चर्यचकित थे, सोच रहे थे कि जिसे पढ़ाने की हर कोशिश बेकार हो गई थी, वह विद्वानों की तरह से सत्यार्थप्रकाश को पढ़ रहा है। इसने कब और कहां पढ़ना लिखना सीख लिया। इसी प्रकार गणित के प्रश्न सभी को गुणा-भाग के दिए गए, इनसे कहा गया कि तुम भी इन्हें हल करो। अनजाना जी बोले कि यह लोग तो लिखकर सवाल हल करेंगे, हम ऐसे ही जवाब बताएंगे और सही उत्तर बता दिए। इस प्रकार उन्हें हर परीक्षा में सबसे आगे देखकर उनके मामा ने फैसला लिया कि इसे दसवीं कक्षा में प्रवेश करा दिया जाए। इस पर श्री जगनराम पाली ने सलाह दी कि यदि इसे पढ़ाना ही है तो नींव मजबूत होनी चाहिए। इसलिए आठवीं कक्षा में प्रवेश कराओ। अनजाना जी का जुलाई से कक्षा आठ में सीधे-सीधे टीचर्स-वार्ड में प्रवेश करा दिया गया। इसके बाद उनका मन पूरी तरह पढ़ाई में रम गया और उन्होंने इंटर तक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। काफी समय बाद उन्होंने  बी कॉम की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली।
      लगभग 18-19 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया। उनकी पत्नी का नाम उर्मिला देवी है। वर्तमान में वह अपने पुत्र के साथ बरेली में निवास कर रही हैं। उनके चार पुत्र रजनीश, राजीव, अवनीश, राजेंद्र कुमार और एक पुत्री रजनी है।
      अनजाना जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षों में ही रहा। उन्होंने लगभग पांच माह तहसील में चपरासी की नौकरी भी की। मंडी में गजक भी बेची, आढ़त पर नौकरी की, रजा टैक्सटाइल्स की ब्रांच ज्वाला फ्रेबरेस रामपुर में नौकरी की। इसके बाद तीस रुपया महीने के वेतन पर विज्ञानंद वैदिक इंटर कॉलेज बदायूं में अस्थाई तौर पर शिक्षक हो गए। इसी बीच मिशन स्कूल में बाबू का पद रिक्त हुआ था। कुछ साल उन्होंने इस पद पर कार्य किया। 1965 में राजकीय सेवा हेतु शिक्षा विभाग के लिए लिपिकों के पद के आवेदन पत्र आमंत्रित किए गए। उन्होंने भी आवेदन कर दिया और उनकी नियुक्ति आर आई जी एस बरेली के कार्यालय में हो गई। मुरादाबाद मंडल बनने के बाद मार्च 1982 को उनका स्थानांतरण मुरादाबाद हो गया और वे यहीं के निवासी हो गए। जिला विद्यालय निरीक्षक मुरादाबाद के कार्यालय अधीक्षक पद से वह सेवानिवृत्त हुए।
      अंजाना जी 9-10 वर्ष की उम्र से ही तुकबंदी करने लगे थे। कबीर-रहीम और निराला जी से बहुत प्रभावित थे। इनका कोई काव्य गुरु नहीं था। बचपन में जो कोर्स की किताबें पढ़ते, उन्हीं के आधार पर लिखा करते थे । वर्ष 1971 में उनका  प्रथम काव्य संग्रह "चकाचौंध" प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात वर्ष 2000 में उनके दो काव्य संग्रह "गगन ना देगा साथ" और "सारे चेहरे मेरे" का प्रकाशन हुआ । वर्ष 2003 में उनका दोहा संग्रह "दिल के रहो समीप" प्रकाशित हुआ। वर्ष 2009 में उनकी काव्य कृति "वक्त ना रिश्तेदार किसी का" प्रकाशित हुई। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मोहन राम मोहन की कृति " मानव मूल्य और रामलाल अनजाना" का प्रकाशन वर्ष 2006 में हुआ।
      जनकवि पं. भूपराम शर्मा 'भूप' पुरस्कार समिति, बदायूं द्वारा उन्हें विधानसभा अध्यक्ष श्री केशरीनाथ त्रिपाठी के कर कमलों से रु. 11001/- से सम्मानित भी किया गया। इसके अतिरिक्त 'रचना' बहजोई द्वारा 'लोकरत्न' सम्मान, अ.भा. साहित्य कला मंच, चांदपुर द्वारा 'साहित्य श्री' सम्मान, बदायूं क्लब बदायूं द्वारा नागरिक अभिनंदन, सागर तरंग प्रकाशन, मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2001 के 'सर्वोच्च शब्द' सम्मान से सम्मानित, संस्कार भारती द्वारा संस्कार भारती सम्मान 2001 से सम्मानित, आकार मुरादाबाद द्वारा शब्द श्री सम्मान, परमार्थ संस्था द्वारा शब्द भूषण, आर्य समाज मुरादाबाद द्वारा आर्य भूषण सम्मान, हिन्दी साहित्य संगम द्वारा हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान से विभूषित किया गया।
      उनका निधन 27 जनवरी 2017 को हुआ ।



✍️डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822