डॉ पूनम बंसल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
डॉ पूनम बंसल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल के गीत संग्रह 'चांद लगे कुछ खोया खोया' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा - छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते मिठास भरे गीत’

लखनऊ की वरिष्ठ गीत-कवयित्री डाॅ. रंजना गुप्ता ने कहा है कि ‘गीत मन की रागात्मक अवस्था है। मन के सम्मोहन की ऐसी दशा जब मन परमानंद की अवस्था में लगभग पहुँच जाता है, हम ज्यों-ज्यों गीत के अनुभूतिपरक सूक्ष्म तत्वों के निकट जाते हैं त्यों-त्यों जीवन का अमूल्य रहस्य परत-दर-परत हमारी आँखों के सामने खुलने लगता है और हम एक अवर्णनीय आनंद में सराबोर होने लगते हैं।’ 

      वरिष्ठ कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ की दो ‘सरस्वती-वंदनाओं’ से आरंभ होकर ‘जो सलोने सपन’ तक के 78 गीतों से गुज़रते हुए डाॅ. पूनम बंसल के मन की रागात्मकता तथा संगीतात्मकता की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, ऐसा महसूस होता है कि ये सभी गीत गुनगुनाकर लिखे गए हैं। संग्रह के गीतों का विषय वैविध्य कवयित्री की सृजन-क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। इन गीतों में जहाँ एक ओर प्रेम की सात्विक उपस्थिति है तो वहीं दूसरी ओर भक्तिभाव से ओतप्रोत अभिव्यक्तियाँ भी हैं, हमारे त्योहारों-पर्वों के महत्व को रेखांकित करते मिठास भरे गीत हैं तो दार्शनिक अंदाज़ में जीवन-जगत के मूल्यों को व्याख्यायित करते गीत भी। कवयित्री ने शिल्पगत प्रयोग भी किए हैं जो संग्रह को महत्वपूर्ण बनाते हैं। ऐसे ही सार्थक प्रयोगों के प्रमाण स्वरूप दोहा-छंद में लिखे एक गीत ‘कल की कर चिन्ता नहीं’ में कवयित्री जीवन को सकारात्मकता के साथ जीने के संदेश को व्याख्यायित करती हैं-

कल की कर चिन्ता नहीं, कड़वा भूल अतीत

वर्तमान को जी यहाँ, जीवन तो संगीत

अनुभव की छाया तले, पलता है विश्वास

कर्मभूमि है ज़िन्दगी, होता यह आभास

दही बिलोने से सदा, मिलता है नवनीत

इसी तरह जीवन की वास्तविकताओं को शब्दायित करते हुए जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त करता संग्रह का एक अन्य गीत ‘दुख के बाद सुखों का आना’ पाठक को मंथन के लिए विवश करता है-

दुख के बाद सुखों का आना, जीवन का यह ही क्रम है

साथ नहीं कुछ तेरे जाना, क्यों पाले मन में भ्रम है

जन्म-मृत्यु दो छोर सृष्टि के, बहता यह अविरल जल है

मरकर होता पार जगत से, पाता एक नया तल है

रूप बदलकर जीव विचरता, फिर भी आँख करे नम है

हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। पन्त, बच्चन, प्रसाद, नीरज आदि की लम्बी शृंखला है जिन्होंने अपने सृजन में प्रेम को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया। प्रेम मात्र एक शब्द ही नहीं है, प्रेम एक अनुभूति है समर्पण, त्याग, मिलन, विरह और जीवन के क्षितिजहीन विस्तार को एकटक निहारने, उसमें डूब जाने की। कवयित्री के प्रेम गीतों में भावनायें अनुभूतियों में विलीन होकर पाठक को भी उसी प्रेम की मिठास-भरी अनुभूति तक पहुंचाने की यात्रा सफलतापूर्वक तय करती हैं। प्रेमगीतों के परंपरागत स्वर को अभिव्यक्त करता कवयित्री का एक हृदयस्पर्शी गीत देखिए-

चाँदनी रात में चाँद के साथ में

गीत को स्वर मिले हैं तुम्हारे लिए

रास्ते दूर तक थे कटीले बने

प्रेम के स्वप्न फिर भी सजीले बने

भावनाएँ सुगंधित समर्पित सभी

फूल मन में खिले हैं तुम्हारे लिए

इसी प्रकार प्रेम में विरह की संवेदना को कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल जब अपने गीत ‘साजन अब तो आ भी जाओ’ में गाती हैं तो लगता है कि जैसे कोई शब्दचित्र उभर रहा हो मन की सतह पर-

प्यार हमारा कहीं न बनकर रह जाये रुसवाई

साजन अब तो आ भी जाओ याद तुम्हारी आई

सपन-सलोने आँखों में आ-आकर हैं शर्माते

साँसों में घुल-मिलकर देखो गीत नया रच जाते

पर खुशियों के आसमान पर ग़म की बदरी छाई

उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति में रची-बसी वह जीवनदायिनी घुट्टी है जो पग-पग पर हर पल नई ऊर्जा देती रहती है। हमारे देश में, समाज में उत्सवों की एक समृद्ध परंपरा है, वर्ष के आरंभ से अंत तक लोकमानस को विविधवर्णी उल्लास से सराबोर रखने वाले ये उत्सव अवसाद पर आह्लाद प्रतीक होते हैं। वसन्तोत्सव का आगमन अनूठे आनंद की अनुभूति का संचार तो करता ही है। वसंतोत्सव का पर्व तन की मन की व्याधियों को भूलकर हर्ष और उल्लास के सागर में डूब जाने का पर्व है। वसंत अर्थात चारों ओर पुष्प ही पुष्प, पीली सरसों की अठखेलियां, आमों के बौर की मनमोहक महक, कोयल का सुगम गायन सभी कुछ नई ऊर्जा देने वाला पर्व। संग्रह के एक गीत ‘मन के खोलो द्वार सखी री’ में डाॅ. पूनम बंसल भी वसंत को याद करते हुए अपनी भावनाएं कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं-

मन के खोलो द्वार सखी री, लो वसंत फिर आया है

धरती महकी अम्बर महका, इक खुमार-सा छाया है

पीत-हरित परिधान पहनकर, उपवन ने शृंगार किया

प्रणय-निवेदन कर कलियों से भौंरांे ने गुंजार किया

इन प्यारे बिखरे रंगों ने, अभिनव चित्र बनाया है

वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रति पल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। सांस्कृतिक-क्षरण और मानवीय मूल्यों का पतन के रूप में आज के समय के सबसे बड़े संकट और सामाजिक विद्रूपता के प्रति अपनी चिन्ता को कवयित्री गीत में ढालकर कहती हैं-

भौतिकता ने पाँव पसारे, संस्कृति भी है भरमाई

मौन हुई है आज चेतना, देख धुंध पूरब छाई

नैतिकता जब हुई प्रदूषित, मूल्यों का भी ह्रास हुआ

मात-पिता का तिरस्कार तो मानवता का त्रास हुआ

पश्चिम की इस चकाचौंध में लाज-हया भी शरमाई

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि समर्थ गीत-कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल का व्यक्तित्व भी उनके गीतों की ही तरह निश्छल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। उनके इस प्रथम गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ में संग्रहीत उनके मिठास भरे और छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते गीत पाठक-समुदाय को अच्छे लगेंगे और हिन्दी साहित्य-जगत में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करायेंगे, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी। 



कृति - ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ (गीत-संग्रह)            

कवयित्री - डाॅ. पूनम बंसल

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-244105

प्रकाशन वर्ष - 2022

मूल्य200 ₹


समीक्षक
- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9412805981


सोमवार, 29 अगस्त 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह 'चाॅंद लगे कुछ खोया-खोया' की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा.... अनुभूतियों से वार्तालाप करती कृति - 'चाॅंद लगे कुछ खोया खोया'

एक आदर्श व सक्षम रचनाकार जब भावों के अथाह महासागर में चहलक़दमी करके बाहर आता है, तो उसकी लेखनी कुछ ऐसा अवश्य समेट कर लाती है, जो एक उत्कृष्ट कृति में ढलकर, सहज ही पाठकों व‌ श्रोताओं से वार्तालाप करने लगती है। डॉ. पूनम बंसल की उत्कृष्ट लेखनी से साकार हुआ गीत-संग्रह 'चाॅंद लगे कुछ खोया-खोया' ऐसी ही उल्लेखनीय कृति है जो कुल 78 मनमोहक गेय रचनाओं से सुसज्जित होकर यह स्पष्ट करती है कि कवयित्री ने मात्र लिखने के लिये ही नहीं लिखा अपितु, अनुभूतियों के इस अथाह महासागर में उतर कर उनसे साक्षात्कार भी किया है। चाहे ये अनुभूतियाॅं अध्यात्म से ओत-प्रोत हों अथवा जीवन की विभिन्न चुनौतियों से जूझते संघर्ष की गाथाएं, प्रत्येक रचना में कवयित्री अपने मनोभावों को, उत्कृष्टता से स्पष्ट करने में सफल रही हैं। कृति का आरम्भ पृष्ठ 31 पर उपलब्ध, माॅं शारदे को समर्पित हृदयस्पर्शी रचना से हुआ है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाॅं ही हृदय को भक्ति-भाव से ओत-प्रोत कर जाती हैं, पंक्तियाॅं देखें -

"इन पावन चरणों में कर ले, आज नमन स्वीकार माॅं।

ज्योतिर्मय हों सभी दिशाएं, और मिटे ॲंधियार माॅं।"

कुछ इसी प्रकार की कामना, पृष्ठ-32 पर उपलब्ध रचना में भी दिखाई देती है, पंक्तियाॅं देखें -

"ज्ञान के सूरज उगा, हे धवल वसना शारदे।

हो नया स्वर्णिम सवेरा, वो मधुर झंकार दे।"

आध्यात्मिक रचनाओं से शुभारंभ करने वाली यह कृति आगे बढ़ती हुई, जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों को भी स्पर्श करने लगती है। इसी क्रम में जीवन का दर्द समेटे एक रचना पृष्ठ 36 पर, 'क़दम-क़दम पर दर्द भरा जब' शीर्षक से आती है।‌ इस मर्मस्पर्शी रचना की कुछ पंक्तियाॅं -

"क़दम-क़दम पर दर्द भरा जब, पीना है विष का प्याला।

फिर कैसे कह दें हम बोलो, जीवन अमृत की हाला।"

इसी प्रकार मातृ-भक्ति को साकार करती, 'माॅं गंगा की धार है' (पृष्ठ 39), जनकल्याण की भावना से अभिप्रेरित, 'दूर हो यह धरा का ॲंधेरा सभी' (पृष्ठ 40), प्रकृति से गलबहियाॅं करती 'ओ सावन के मेघ बरस जा' (पृष्ठ 41), 'पिया मिलन की रुत आई' (पृष्ठ 55), 'झूला झूलें राधा रानी' (पृष्ठ 96) आदि रचनाएं हैं, जिनके माध्यम से कवयित्री ने जीवन के प्रत्येक पहलू को पाठकों के सम्मुख उकेरा है।

व्यक्तिगत रूप से मैं इस निष्कर्ष पर पहुॅंचा हूॅं कि इस उत्कृष्ट गीत-संग्रह के केंद्र में, अंतस में छिपी व आकुल व्यथा एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर से एकाकार हो जाने की उत्कण्ठा ही है, जिसके इर्द-गिर्द, अन्य अनेक अनुभूतियाॅं निरंतर चहलकदमी करती हैं, जिन्हें अभिव्यक्त करने में कवयित्री की लेखनी तनिक भी विलंब नहीं करती। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में रची-बसी एक संघर्षरत परन्तु जीवट की धनी नारी, संघर्षों से जूझते हुए भी आशा का संचार कर जाती है। पृष्ठ 119 पर उपलब्ध रचना इसी आशावादी दृष्टिकोण को अभिव्यक्ति दे रही है। 'बदल रहा कश्मीर है' शीर्षक वाली इस रचना की पंक्तियाॅं देखें -

"महक उठी है केसर-वादी, उड़ा गुलाल अबीर है।

धारा के हटने से देखो, बदल रहा कश्मीर है।"

जीवन के विविध पहलुओं को साकार करती यह गीत-यात्रा पृष्ठ-125 पर उपलब्ध 'जो सलोने सपन' शीर्षक रचना के साथ विश्राम लेती है। निराशा से आशा की ओर बढ़ती इस रचना की कुछ पंक्तियाॅं -

"जो सलोने सपन ऑंसुओं में पले,

आस बन कर सभी जगमगाते रहे।

लालिमा से गगन है अभी बे-ख़बर,

बादलों में छिपा है कहीं भास्कर।

पंछियों की तरह सुरमई साॅंझ में,

प्रीत के गीत हम गुनगुनाते रहे।"

यद्यपि, हिंदी एवं उर्दू दोनों के शब्दों का सुंदर संगम लिये इस कृति में, कहीं-कहीं भाषाई अथवा टंकण सम्बंधी त्रुटियाॅं, कवयित्री के इस सारस्वत अभियान में बाधा डालने का असफल प्रयास करती प्रतीत हुई हैं एवं कुछ आलोचक बंधु भी अपनी अभिव्यक्ति के लिये इसमें पर्याप्त संभावनाएं तलाश सकते हैं परन्तु, यह उत्कृष्ट कृति इन सभी चुनौतियों से पार पाते हुए, पाठकों के अंतस को स्पर्श करने में पूर्णतया सक्षम है, ऐसा मैं मानता हूॅं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि, सरल व सहज भाषा-शैली के साथ, आकर्षक सज्जा एवं सजिल्द स्वरूप में तैयार यह गीत-संग्रह, गीत-काव्य जगत में अपना उल्लेखनीय स्थान बनायेगा। 



कृति
: चाॅंद लगे कुछ खोया-खोया (गीत संग्रह)

रचनाकार : डॉ पूनम बंसल 

प्रकाशन वर्ष : 2022 मूल्य : 200 ₹

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद


समीक्षक
: राजीव 'प्रखर' 

डिप्टी गंज, मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


रविवार, 28 अगस्त 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में रविवार 28 अगस्त 2022 को आयोजित कवयित्री डॉ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह "चाँद लगे कुछ खोया-खोया" का लोकार्पण समारोह

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में  कवयित्री डॉ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह "चाँद लगे कुछ खोया-खोया" का लोकार्पण रविवार 28 अगस्त 2022 को सिविल लाइंस मुरादाबाद स्थित दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय के सभागार में किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने की, मुख्य अतिथि के रूप में गजरौला से विख्यात कवयित्री डॉ. मधु चतुर्वेदी तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में उच्च शिक्षा आयोग के पूर्व सदस्य डॉ. हरवंश दीक्षित, इं० उमाकांत गुप्त, सिंभावली के साहित्यकार राम आसरे गोयल एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामानंद शर्मा उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा किया गया। कार्यक्रम का आरंभ युवा कवि मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ। 

     इस अवसर पर लोकार्पित कृति "चाँद लगे कुछ खोया-खोया" से रचनापाठ करते हुए डॉ. पूनम बंसल ने गीत सुनाये- "दूर हो ये धरा का अँधेरा सभी/आज फिर इक नया अवतरण चाहिए/प्रेम के फूल ही हर तरफ़ हों खिले/हम लगा लें गले राह में जो मिले/हर जहाँ से हसीं हो हमारा जहाँ/चेतना का विमल जागरण चाहिए"। उनके एक और गीत की सबने तारीफ की- "भौतिकता ने पाँव पसारे, संस्कृति भी है भरमाई/मौन हुई है आज चेतना, देख धुंध पूरब छाई/नैतिकता जब हुई प्रदूषित, मूलें का भी ह्रास हुआ/मात-पिता का तिरस्कार तो मानवता का त्रास हुआ/पश्चिम की इस चकाचैंध में लाज-हया भी शरमाई"।

   लोकार्पित गीत संग्रह पर आयोजित चर्चा में प्रख्यात साहित्यकार माहेश्वर तिवारी ने कहा- "डॉ. पूनम बंसल शुद्ध अर्थों में  अंतरंग रागचेतना और बाह्य प्रकृति के समन्वय से निर्मित गीत कवयित्री हैं जिनकी काव्य-भाषा आम बोलचाल की भाषा है, जिसमें हिंदी के तत्सम शब्दों के साथ-साथ उर्दू का पुट भी मिलता है।"

        वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार नाज़ ने कहा- "पूनम जी के गीत यूँ तो विविध रंगों में सजे हुए शब्दचित्र हैं, लेकिन उनके यहाँ श्रृंगार की प्रधानता पाई जाती है। उसमें भी वियोग श्रृंगार की प्रबलता है। आम बोलचाल की भाषा में लिखे गए गीत सबका मन मोह लेते हैं।"

     नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- "डाॅ. पूनम बंसल के गीतों में मन की रागात्मकता तथा संगीतात्मकता की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, ऐसा महसूस होता है कि ये सभी गीत गुनगुनाकर लिखे गए हैं। संग्रह के गीतों का विषय वैविध्य कवयित्री की सृजन-क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। इन गीतों में जहाँ एक ओर प्रेम की सात्विक उपस्थिति है तो वहीं दूसरी ओर भक्तिभाव से ओतप्रोत अभिव्यक्तियाँ भी हैं।"

     कृति के संबंध में अपने विचार रखते हुए महानगर के रचनाकार राजीव प्रखर ने कहा - कवयित्री डॉ. पूनम बंसल ने मात्र लिखने के लिए ही नहीं लिखा अपितु, अनुभूतियों के अथाह सागर में उतर कर उनसे साक्षात्कार भी किया है। यही कारण है कि वह संग्रह की प्रत्येक रचना में अपने मनोभावों को सशक्त रूप से स्पष्ट करने में सफल रही हैं।        कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने पुस्तक के संबंध में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए कहा  - डॉ पूनम बंसल जी के गीतों से गुजरते हुए हम सहजता से पीड़ा के घने जंगलों को पार कर मुस्कानों व उम्मीदों की डगर पर बढ़ते हुए प्रेम की सुन्दर नगरी में प्रवेश करते हैं जहाँ मन की चिड़िया फुर्र से उड़ती है।

डॉ. पूनम बंसल के रचनाकर्म के संबंध में अन्य वक्ताओं में डॉ सुधीर अरोरा, डॉ. आर. सी. शुक्ल, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, डॉ. अजय अनुपम, देवकीनंदन जैन, हरिनंदन जैन, प्रदीप बंसल,  डॉ अंबरीश गर्ग, काव्य सौरभ रस्तोगी, बाल सुंदरी तिवारी आदि प्रमुख रहे। 

       कार्यक्रम में ओंकार सिंह ओंकार,  फक्कड़ मुरादाबादी, श्रीकृष्ण शुक्ल, डॉ. मनोज रस्तोगी, धवल दीक्षित, ज़िया ज़मीर, रामदत्त द्विवेदी, राकेश जैसवाल, मनोज मनु, वीरेन्द्र ब्रजवासी, ज़िया ज़मीर, नकुल त्यागी, शिव मिगलानी, डॉ अर्चना गुप्ता, डॉ पंकज दर्पण, शिव ओम वर्मा, नकुल त्यागी, संतोष गुप्ता, जितेन्द्र  जौली, रामसिंह निशंक, राजीव शर्मा, दुष्यंत बाबा, माधुरी सिंह, अभिव्यक्ति, अमर सक्सेना, मुस्कान आदि उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति अंशिका बंसल ने व्यक्त की। 










































रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का मुक्तक ----अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है

 


बनी है मीत साँसों की, परम वायु बहाती है। 

नहीं कुछ मोल लेती है, ख़जाने ये लुटाती है। 

करें इसको सुरक्षित हम, समय है जाग जाएं अब 

अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है।। 

✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद