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मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य...मल्लिका और क़ब्र के मुर्दे.

       



मल्लिका शेरावत के कपड़े दो रूमालों से ही तैयार होते हैं। एक रुमाल भी अगर हो तो वह उसे कैमरे के लैंसों पर रखकर काम चला सकती है। इतना बूता बॉलीवुड कि अन्य हेरोइनों में नहीं है। उनको थोड़े बड़े वस्त्र चाहिए। किफायत उनके बस की नहीं। वे सब वैसा नहीं सोचतीं, जैसा कि उन्हें सोचने के 'पॉइंट ऑफ़ व्यू' से सोचना चाहिए कि क्या सोचें ?

        जीवन के बावन घटिया बसंत पार कर चुकने के बावजूद, जब कभी हम मल्लिका के अल्प पारदर्शी वस्त्रों की और निगाहें उठाते हैं, तो मन में एक कसक सी होती है और जिसे हम शेरो-शायरी में बयान करने कि बजाय सीधे-साधे बताये दे रहे हैं।  ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ हमारे साथ ही होता है। दुनिया बहुत बड़ी है और किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है। यह हर आदमी का निजी अधिकार है और सेंसर बोर्ड का बाप भी इसके इस्तेमाल से किसी को नहीं रोक सकता। 

        ध्यान से देखा जाये, तो लगेगा कि मल्लिका एक ख़ास क़िस्म की अदा  से हमें टी.वी. स्क्रीन के अंदर बुला रही होती है कि "आ जाओ, तो पाइप से चिपकने के बजाये तुम्हारा ही इस्तेमाल कर लें।" कई मर्तबा इस चक्कर में हम टी.वी. से सटकर भी बैठ गए कि शायद कोई तकनीकी चमत्कार ऐसा हो जाये कि हम स्क्रीन में अपने आप घुस जाएं और डांस कर रहे हीरो को चपतिया कर उसकी जगह ले लें। मल्लिका को देखकर मन उसको 'डिजिटल शेप' में देखने को आतुर हो जाता है। हर दिशा से और हर तरह से कब्रों में जाने से पहले दो बुजुर्ग मल्लिका को लेकर चर्चा कर रहे थे।

             "देख रहे हो, क्या कशिश है ?" क़ब्र  में पहले जाने को तैयार बैठे बुजुर्ग ने अख़बारी फोटो में दर्ज मल्लिका का बदन निहारते हुए यह सिद्ध कर दिया कि हौंसले जब शरीर का साथ छोड़ देते हैं, तो वे दिल में अपना स्थाई मुकाम बना लेते हैं।

         "हमारे ज़माने में कुक्कू और सुरैया कि जगह अगर यह होती, तो फिल्मों का अपना अलग ही मज़ा होता। " जूनियर बुजुर्ग ने, जो नहीं हुआ, उसके न होने का अफ़सोस ज़ाहिर किया।

           "ख़ासतौर से, जब वह किसी फलौदी पाइप के सहारे अपनी कामनायें व्यक्त करने कि कोशिश करती, तो उस ज़माने में लोग अपनी-अपनी टंकियों के पाइप उखाड़कर उसके पास भिजवाते कि लो, यह ज़्यादा मज़बूत और टिकाऊ 

है। डांस में कभी इसे भी इस्तेमाल होने का मौका दें।" सीनियर बुजुर्ग ने डरते हुए एक यथासंभव गहरी साँस यह सोचते हुए छोटी की कि कहीं यह उनकी आखिरी साँस न हो। 

         "चलो, जवानी में न सही, अब तो हसरतें पूरी कर ही लीं।" हसरतों की व्यापकता पर प्रकाश डाल बिना जूनियर बुजुर्ग ने तसल्ली दी। 

        किसी स्थानीय अख़बार के हवाले से पता चला कि 'कब्रिस्तान के पास से मल्लिका के गुजरने पर दो मुर्दे ज़िंदा होकर उसके साथ चल दिए।' इस शीर्षक के नीचे समाचार में यह भी विस्तार से बताया गया था कि उसके साथ किस कार्य से, कहाँ और कितने बजे गये थे।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल ) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....सड़कें और कमीशनख़ोरी




         "सड़क का ठेका आप ही के पास है ?" बड़े अफसर का छोटा,  मगर निहायत महत्वपूर्ण सवाल हवा में उछला।

         "जी, मेरे पास ही है।" खुद को गुनहगार न समझते हुए ठेकेदार ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।

         "कितने दिन में काम पूरा हो जायेगा ?"अफसर ने पूछा।

         "साल भर तो लग ही जायेगा, साहब !" ज़्यादा वक्त में ज़्यादा लागत का हिसाब लगाते हुए उत्तर मिला।

         "एक महीने में नहीं हो सकता?" जीवन क्षण-भंगुर है और वक्त का कुछ पता नहीं कि कब, क्या हो जाये, इस भावना के तहत अफसर ने सवाल किया।

         "हो भी सकता है, साहब लेकिन वो बात नहीं आएगी। आप हुक्म करें, तो महीने भर में करा दें ?" अफसर से आदेश पाकर कृतार्थ होने के अंदाज़ में ठेकेदार ने प्रतिपृश्न किया।

         "यही सही रहेगा।" कमीशनखोरी में अल्प वाक्यों का प्रयोग ही सही और 'सेफ' रहता है, यह सिद्ध करते हुए अफसर ने 'एकमाही सड़क-कार्यक्रम' को हरी झंडी दिखा दी।

   "सर, एक ही गुज़ारिश है कि बरसात में जब सड़क उखड़ जाये, तो अगली बार का ठेका भी हमारा ही करा दें।" कमीशनखोरी में सहभागिता के हिसाब से ठेकेदार ने आग्रह किया।

        "चिंता मत करो। मेरा ट्रांस्फर भी हो गया तो आने वाले अफसर को बता जाऊँगा कि तुम कितने 'टेलेंटेड' हो, जो साल भर का काम एक ही महीने में निपटा देते हो। हर अफसर यही पसंद करता है।" कमीशनखोरी कि सर्वव्यापकता पर अपनी टिप्पणी करते हुए अफसर ने आश्वस्त किया।

         "बस सर,आपकी कृपा दृष्टि बनी रही, तो जहाँ-जहाँ आपकी पोस्टिंग होगी, मैं वहाँ-वहाँ भी अपने इस हुनर का इस्तेमाल कर सकूंगा।" ठेकेदार ने अफसर को भावी कमीशनखोरी के अंगूर दिखते हुए एक बड़ा लिफ़ाफ़े उनके सामने रख दिया।

        "वैरी गुड। लगे रहो" लिफ़ाफ़े में रखी नोटों की गड्डियों को विश्वास नाम की चीज़ इस दुनिया में अभी भी मौज़ूद होने की वजह से अफसर ने बिना देखे अपने बैग में रखते हुए प्रोत्साहन दिया और कुछ धूल फाँक रहीं मोटी फाइलों में संभावनायें तलाशने लग गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 3 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....भैंसिया गाँव की भैंसें




         जिसकी लाठी होती है, उसके पास एक अदद भैंस भी होती है। भैंस होने के लिए लाठी का होना एक अनिवार्यता है। बिना लाठी के आप भैंस के मालिक नहीं हो सकते। भैंस खरीदने से पहले लाठी ख़रीदना ज़रूरी होता है। इसके बिना न तो आप अपनी 'भैंसियत' दिखा सकते हैं और न ही यह दावा कर सकते हैं कि यह जो भैंस आपके घर के बाहर खड़ी है, यह आपकी ही है। इसे पत्नी की तरह मानकर चलें। किसी की पत्नी को अगर यह साबित करना हो कि वह उसी की है, तो उस पत्नी के मुँह से भैंस के स्वर में यह कहलवा दें कि "मैं इन्हीं की हूँ और इन्हीं की रहूँगी।" बात ख़त्म हुई।

         यह एक विचित्र बात लगी कि भैंसियां गाँव की भैंसों में लड़ाई हुई और नौबत लाठियों तक आ पहुँची। दोनों पक्षों पर चूँकि भैंसें थीं, इसीलिए एक दूसरे पर लाठियों का होना भी लाज़मी है। लिहाज़ा भैंसों ने अपने सींगों से लड़ाई लड़ी और उनके मालिकों ने सींग न होने की वजह से अपनी लाठियाँ चलाई। जमकर युद्ध हुआ। नौ लोग घायल हुए। भैंसों को कोई हानि नहीं हुई। लड़ने के बाद वे एक तरफ खड़ी होकर आदमी की लाठियों की लड़ाई देखती रहीं। अखबारी संवाददाता ने बताया कि भैंसें आपस में हँस भी रही थीं- इस दौरान। 

          भैसों के लिए प्रसिद्ध 'भैंसिया गाँव' में भैसों के अलावा लाठियाँ रखने वाले आदमी भी रहते हैं, रहस्य की यह बात एक पुलिस अधिकारी ने बताकर हमारे हमारे ज्ञान में इज़ाफा किया। महंगाई के इस दौर में जब बीवी और बच्चों को पालना मुश्किल होता है, तो ज़रा कल्पना कीजिये कि भैंसें पालना कितना कठिन होगा। जो लोग अपनी भैंस को बीवी से अधिक महत्व देते हैं या उसे वही सम्मान देते है, जो अपनी भैंस को देते चले आये है, तो उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा पैदा होती है और इंशा अल्लाह हमेशा होती रहेगी।    

वाकया एक गाँव के परिचित का है। उनसे भेंट हुई, तो घर के हाल चाल पूछे और साथ ही यह भी कि "यार, भाभी को ले आते ?" थोड़ा सोचने के बाद वे बोले,‘’दद्दा, बाऊ को लायैं, तो भैंसियन कोऊ लाये ?"हम समझ गए की उनकी भैंसिया और बीवी में से कोई एक ही आ सकता है। दोनों का एक साथ एक वक़्त में आना बड़ा मुश्किल है। 

          हमारा देश ग्राम-प्रधान होने के आलावा भैंस-प्रधान भी कहा जा सकता है। इसके लिए यह जरुरी नहीं है कि भैंसें सिर्फ गाँव में ही हों। शहरों और कस्बों में भी भैसों का बाहुल्य होता है। तहज़ीब न होने की वजह से ये भैंसे जहाँ मन होता है, वहीं अपना गोबर छोड़ कर आगे चल देती हैं। आदमियों को लड़ने के 'प्वाइंट ऑफ़ व्यू' से इतना मुद्दा ही काफी होता है कि इन भैसों ने यह जो गोबर छोड़ा है, वह उनके दरवाज़े के सामने ही क्यों छोड़ा ?इस बात पर भी लाठियाँ चल सकती हैं। दूध की तरह खून की नदियाँ बह निकलती हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि इस मुल्क में भैसों का जो योगदान है, वो पत्नियों से भी अधिक 'इम्पोर्टेन्ट'होता है - लोगों के जीवन में।

'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाला मुहावरा यूँ ही नहीं बना है। इसके पीछे हमारे बुजुर्गों के भी बूढ़े-बुजुर्गों की 'रिसर्च' रही होगी। वरना लाठी का भैंस से क्या मतलब ? जहाँ तक लाठियाने वाले तर्क का सवाल है, तो उसके लिए तो आदमी ही काफी होते हैं। भैसों को मुद्दा बनाने कि क्या ज़रुरत है ? लाठियों का अविष्कार भैसों की वजह से नहीं हुआ था। यह एक आदमियाना साजिश है कि उसने लाठियों को भैसों के साथ जोड़ दिया। बिना भैसों के भी आदमी लोग लाठियाँ चलाते हैं। मगर भैसों को लाठिया चलते हुए कभी नहीं देखा होगा आपने। कहीं देखा हो, तो ज़रूर बतायें। किसी भी दफ़ा में उठाकर उन्हें थाने में बंद कर देगी हमारी पुलिस।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य .....सरस्वती-वंदना में दूध




 कवि-गोष्ठी की तमाम तैयारियाँ हो चुकी थीं। रामभरोसे लाल के घर की बैठक में समाजवादी परम्परा के अनुसार सभी के बैठने के लिए ज़मींन थी, जिसे विभिन स्थानों से फटी हुई ब्रिटिश कालीन दरी द्वारा सम्मानपूर्वक ढक दिया गया था। दीवार से लगा एक मसनद भी  बैठक की शोभा में कई सारे चाँद लगा रहा था। इस मसनद के सहारे बैठने के लिए एक अध्यक्ष भी तलाश लिया गया था और जिसके ज़िम्मे बाहर से आये दो-तीन नवोदित और गुमनाम कवियों के मार्ग-व्यय का भार था। यह भार उठाने में अध्यक्ष भी तलाश लिया गया था और जिसके जिम्मे बाहर से आये दो तीन नवोदित और गुमनाम कवियों के मार्ग-व्यय का भार था। यह भार उठाने में अध्यक्ष इसलिए समर्थ था कि उसका सिंथेटिक दूध का सर्वमान्य कारोबार था।

       "अध्यक्ष महोदय बस थोड़ी देर में आने ही वाले हैं। जैसी कि हमारी परम्परा रही है, कवि-गोष्ठी अपने निर्धारित समय पर ही प्रारम्भ कर दी जायेगी।" क़स्बे में बातूनी मास्टर के नाम से विख्यात संचालक ने कवियों में हो रही काव्य-पाठ की बेसब्री को भाँपते हुए उद्घोषणा की। 

        "तब तक सरस्वती-वंदना शुरू करा दीजिये। अध्यक्ष आते रहेंगे।" कवि-गोष्ठी में अध्यक्ष के होने न होने को बराबर सिद्ध करने के अंदाज़ में सरस्वती-वंदना एक्सपर्ट कवि की व्याकुलता जवाब दे रही थी।

        "आ गए भैया, हम भी आ गये।" अचानक अध्यक्ष प्रवेश करते हैं। मसनद से टिकने के बाद अध्यक्ष ने सबके अभिवादन स्वीकार किये और अपने एक कूल्हे को पच्चीस डिग्री के कोण में उठाकर एक ज़ोरदार स्वर में अपनी गैस खारिज की। कवियों ने अध्यक्ष की इस हरकत का मुस्कुराकर स्वागत किया। 

        "अब शुरू करे ?" रामभरोसे ने अध्यक्ष से अनुमति लेनी चाही। "बिलकुल !" गैस का दूसरा धमाका इस बात का संकेत देने के लिए थोड़ी मुशक़्क़त के बाद हुआ कि अगर गोष्ठी का शुभारम्भ शीघ्र नहीं हुआ, तो आगे ना जाने कैसे हालात पैदा हों ? सरस्वती वंदना गाने वाले ने शुरुआत की- 

       "सरस्वती मैया वर दे। 

कविता रूपी शुद्ध दूध से, जल का तत्व अलग कर दे।

सरस्वती मैया वर दे।"

"वाह-वाह-वाह -वाह ! क्या डिमांड की है सरस्वती मैया से। मज़ा आ गया !" कविता पर वाह-वाह करने से अध्यक्ष की योग्यता पता चलती है, यह सोचकर अध्यक्ष का स्वर इस बार उनके मुँह से निकला।

         "आगे आप सबका ध्यान चाहूँगा," सरस्वती-उपासक ने अपनी वंदना जारी रखते हुए सुनाया, 

         "सरस्वती मैया वर दे। 

         दूध, जिसे सिंथैटिक कहते,भैंसों के थन में भर दे, 

         हर कवि का सर साबुत निकले,अगर ओखली में सर दे, 

         सरस्वती मैया वर दे।"

        कवियों की यह गोष्ठी अध्यक्ष महोदय की भावनाओं के मद्देनजर देर रात तक चलती रही। कवियों ने 'दूध की नदियाँ', 'दूध का दूध, पानी का पानी'और दूध का हक़' जैसी अनेक विषयी रचनाओं का पाठ करके यह साबित कर दिया कि लक्ष्मी-पुत्र अगर किसी कवि-गोष्ठी का अध्यक्ष हो, तो सरस्वती-पुत्रों के स्वर अपने आप ही बदल जाते हैं।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 20 नवंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल ) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य .....हार जाना एक वर्ल्ड कप का



हारने के लिए किसी किस्म के प्रयास की जरूरत नहीं होती। बिना कोशिश किए आप किसी भी खेल में अपनी हार को 'हार-जीत तो लगी रहती है', जैसे तसल्ली दायक शब्दों से नवाजकर सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं। क्रिकेट वर्ल्ड कप को हारने के बाद जिन नेताओं ने जीतने के लिए इंडियन टीम को अग्रिम शुभकामनाएं दी थीं, वे अब अपने चुनाव- प्रचार में लग चुके हैं। नरेंद्र मोदी के नाम से बने स्टेडियम पर उनकी हार का ठीकरा फोड़ने वाले विपक्षी नेताओं के 'हमने तो पहले ही कहा था कि यह स्टेडियम इंडियन टीम के लिए शुभ नहीं है' जैसे भविष्यपरक लोकल बयान आने शुरू हो गये हैं। अगर अभी शुरू नहीं भी हुए हैं, तो उम्मीद है कि हमारा यह लेख पढ़ने के बाद आने शुरू हो जायेंगे। किरकिट में ऐसे लोग गिरगिट की भूमिका निभाते हैं। कल किसी और रंग का बयान दिया और आज जबकि इंडिया हार चुका है, कुछ अलग रंग के जो बयान हैं, वो अस्तित्व में आ रहे हैं।
    गिरगिट और नेता भी इतनी जल्दी रंग नहीं बदलते, जितनी जल्दी किरकिट के महारथी बदल लेते हैं। पहले ऐसा नहीं था। या तो गिरगिटों के रंग बदलने पर पाबंदी थी या वे इसमें इंटरैस्टिड नहीं थे। जो भी था, बस, था। बुद्ध और गांधी के काल में अगर किरकिट इतना लोकप्रिय होता, तो उसकी अहिंसक गतिविधियों पर पाबंदी लगाने के लिए वे लोग अन्ना हजारे की शैली में धरने प्रदर्शन कर रहे होते। गेंदों को पीटे जाने पर उनके क्या विचार होते, यह तो भावी इतिहास ही बताता, मगर इसे बंद करवाने में उनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी, इसे जरूर दर्ज किया जाता।

    बैट और बाल के आपसी रिश्ते कैसे होते हैं, भाजपा और 'इंडिया' गठबंधन की तरह यह किसी से छिपा नहीं है। हर बाल पिटने के लिए "पहले मार लिया, अबकी से मार के देख" वाले जुमले की तर्ज पर बार-बार बैट की ओर चली जाती है। यह बहुत अच्छी पोजीशन नहीं है। कई मर्तबा ऐसा भी होता है कि बैट से पिटने के बाद गेंद किसी फील्डर के हाथ में पहुंच जाती है और अपनी पृष्ठभूमि पर अपने दोनों हाथ टिकाए रहने के बावजूद 'एंपायर' नाम का कोई प्राणी अपनी एक उंगली उठाकर उसे कैच करार दे देता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पिटी हुई बाल को पकड़कर सहलाया-पुचकारा जाता है। अक्सर फील्ड में खड़े कुछ लोग, जिन्हें लोग फील्डर भी कहते हैं, पिटी हुई बाल की आबरू बचाने के लिए अपने हाथ-पैरों के टूटने की चिंता न करके बॉल को बचा लेते हैं। स्टेडियम में इस पर भी पता नहीं क्यों तालियां बजाई जाती हैं। भारत की हार पर अभी तक पाकिस्तानियों की तरह किसी किरकिट प्रेमी द्वारा अपना टीवी सैट तोड़ने की सूचना नहीं मिली है। जबकि पाकिस्तान में खिलाड़ियों के सिर न तोड़कर लोग घरों में रखे अपने पुराने और खराब टीवी सैट तोड़ देते हैं। हमारे यहां ऐसा नहीं है।

 हमारे यहां इसे 'जो हार गया, वह जीत गया' । ढाई हजार वर्ष पुराने चीनी दार्शनिक लाओत्से ने यह सूत्र वाक्य देकर भारतीय किरकिट प्रेमियों को भी प्रभावित किया है। हार के बाद वे अब इस सत्य को स्वीकार कर खामोश हो जाते हैं कि जिसने अपनी हार जीत से पहले ही स्वीकार ली हो, उसे हराने का कोई विकल्प नहीं रह जाता। विश्वास न हो, तो अपनी किरकिट टीम के कप्तान से पूछकर देख लें। अपने दार्शनिक में वे भी यही कहेंगे 'जो हार गया, वह जीत गया'। हमने कुछ गलत कहा हो ,तो बताएं ।



 ✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....रेलवे प्लेटफार्म की गतिविधियां


 रेलवे प्लेटफार्म कई सारी गतिविधियों को संपन्न करने के काम आते हैं ! ‘ गतिविधियाँ ‘ हम उन तमाम हरकतों के गतिशील बने रहने को कहते हैं, जो किसी भी नंबर के प्लेटफार्म पर किसी भी वक़्त, किसी भी रूप में की जा सकती हैं ! इसमें बिना टिकिट गाड़ी में बैठने से पहले टी टी या गार्ड से ‘ सेटिंग ‘ की गुज़ारिश के अलावा किसी वीरान और तनहा पड़े प्लेटफार्म पर किसी से इश्क फरमाने जैसी बातें शामिल हैं !इन गतिविधियों में रेलवे कर्मियों के अलावा पुलिस, यात्री या कोई भी प्रतिभागी हिस्सा ले सकता है ! इधर-उधर के मंहगे होटलों में जाने से क्या फायदा ?


    रेलवे प्लेटफार्म पर कई ऐसे भी डिब्बे खड़े दिखाई देते हैं, जो ब्रिटिश काल से वैसे ही खड़े हैं, जैसे कि अंग्रेज उन्हें छोड़ कर गए थे ! भारी होने कि वजह से वे इन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके ! ये डिब्बे अब लैलाओं और मजनूओं के सांस्कृतिक कार्यों के काम आते हैं ! यूं तो रेलवे स्टेशनों पर आपको विभिन्न किस्म के नज़ारे देखने को मिलते होंगे, मगर गौर से देखें तो भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के लिए देश-भ्रमण करने कि कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी ! सब कुछ यहीं मिल जाएगा !

    नाक पौंछकर फिर उसी हाथ से रोटी सकते बैल्डर, पागल किस्म की लड़की में विभिन्न किस्म की संभावनाएं तलाशते पुलिस वाले, बिना टिकिट-यात्री को पकड़कर उनसे मोल-भाव करते टीसी, बदबूदार पानी पीकर रेलवे को कोसते यात्री, किसी भी दशा में कहीं भी सो जाने वाले सिद्धांत में विश्वास करने वाले ग्रामीण या ज़हरखुरानी के शिकार व्यक्ति पर ज़्यादा शराब पीकर ज़मीन पर गिरे होने के आरोप लगाते रेलवे और पुलिस के न्यायशील कर्मी , जैसे सैकडों दृश्य हैं, जिमें ‘ इंडियन कल्चर ‘ तलाशी जा सकती है !

    देखने के नज़रिए हैं कि आप किसको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? टिकिट होने के बाबजूद टीसी आपको और आपकी पर्स वाली जेब को किस नज़रिए से देख रहा है या ‘ बम-चेकिंग अभियान ‘ पर निकले रेलवे पुलिस कर्मी आपकी अटैची को बैंत मार कर आपको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? या अन्य सीटें खाली होने के बाबजूद लड़कियों से सट कर बैठने वाले खूसट , मगर भाग्यशाली बूढे को वहां बैठे लड़के किस नज़रिए से देख रहे हैं आदि ऐसी अनेक बातें हैं, जो रेलवे से जुडी हैं, मगर हमारा नजरिया जो है, वो वही है, जो हमेशा से रहा है ! उसमें कोई बदलाव नहीं है ! 

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....मौसम, छतरी और उधार




        "मौसम अच्छा हो गया आज।" यह जानते हुए भी कि अच्छे मौसम में हर व्यक्ति ऐसा ही महसूस कर रहा होगा, एक दोस्त ने अपने दोस्त को बिना अंधा साबित किये अपनी बातचीत का पहला वाक्य छोड़ा।

        "हां यार, कल कितना बुरा मौसम था ? गर्मी के मारे हालत ख़राब थी।" दूसरे दोस्त ने मौसम-सम्बंधी अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए पहले दोस्त का ज्ञानवर्धन करने के लिहाज़ से कहा।

       "लगता है, बारिश होगी।" मौसम की भविष्यवाणी में अपनी माहिरी प्रदर्शित करके पहले वाले ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।  

       "बारिश हुई, तो भीगना पड़ेगा हमें।" दूसरे दोस्त ने बारिश के पानी में गीलापन होने की बुराई करते हुए जवाब दिया।

       "छतरी होती तो शायद इतना नहीं भीगते।" भीगने से पूर्व जल-रक्षक छतरी की भूमिका और फिर उसकी प्रंशसा भी बात की बात में हो गई।

      "छतरी से बैटर बरसाती रहती है। नीचे का हिस्सा भी नहीं भीगता उसमें।" स्वज्ञानजन्य  बेहतर विकल्प का तात्कालिक प्रदर्शन करते हुए दूसरे दोस्त ने चारों  दिशाओं में अपनी गर्दन घुमाकर ऐसे देखा कि अगर और लोग भी उसकी यह बात सुन रहे हों, तो 'क्या बात कही है आपने,' वाले अंदाज़ में उसकी तारीफ़ 

करें।

      "वो तो है ही। छतरी अपनी जगह है, बरसाती अपनी जगह ।" पहले दोस्त ने यह बात कुछ इस अंदाज़ से की, जैसे उसने 'प्राचीन वर्णाश्रम-व्यवस्था  में हर वर्ण का अपना अलग महत्त्व था, जैसी कोई बहुत ज्ञानपरक और गूढ़ बात कही हो और जिसकी कि तारीफ़ होनी चाहिए।

       "लेकिन बारिश के साथ अगर आँधीनुमा हवा चल पड़े, तो छतरी किसी की नहीं रहती । कई मर्तबा तो वह उल्टी भी हो जाती है । " जीवन की तरह छतरी की भी निरर्थकता को सिद्ध करने की  गरज से दूसरे दोस्त ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया ।

      "देखा जायेगा । अभी कौन सी बारिश हो रही है।" वार्ता-समापन की शैली में पहले वाला दोस्त 

बुदबुदाया।

     "और क्या। बातों-बातों में असली बात तो मैं भूल ही गया । यार, दौ सौ रुपये उधार दे दो। एक तारीख़ को लौटा दूँगा।" दूसरे ने अच्छे मौसम में अर्थदान की भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा।

      और इस तरह पहले वाले दोस्त का अच्छा-ख़ासा आंतरिक मौसम ख़राब हो गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल)निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....हमारे शहर के निराले कुत्ते...



धर्मराज युधिष्टिर ने जो सबसे गलत काम किया, वह यह था कि वे खुद तो स्वर्ग की सीड़ियां पार करके चले गए, मगर अपने उस कुत्ते को पीछे ही छोड़ गए, जिसके नाम को लेकर अभी भी एकमत होने के चक्कर में इतिहासकार एकमत नहीं हो पाए हैं. अखबारों में अपना नाम ना छापने की शर्त पर कुछ इतिहासकारों ने यह मानने का दावा किया है कि इंडिया में कुत्तों का आदि पूर्वज वही कुत्ता था और बाकी सब जो देश भर में घूम रहे हैं, वे उसके वंशज हैं. प्राचीन काल में कुत्तों को वह सम्मान प्राप्त था, जो वफादारी की कमी होने की वजह से आदमी का भी नहीं रहा होगा. बेवफाई की कसमें खाने पर लोग कहा करते थे कि "खा, अपने कुत्ते की कसम कि तूने बेवफाई नहीं की." बाद में यही बेवफाई शायरी में महबूबा के लिए इस्तेमाल की जाने लगी.

    हमारे शहर में नगर पालिका होने की वजह से कुत्तों की पैदावार भी खूब हो रही है. ऐसा क्यों है, यह रिसर्च का विषय होने के बावज़ूद अभी तक किसी शोधार्थी के गाइड के दिमाग में नहीं आ पाया है. रास्ता चलते कौन सा कुत्ता, कब काट ले, कुछ नहीं कहा जा सकता. जो लोग कुत्तों से डरते हुए साइड में निकलने की कोशिशें करते हैं, कुत्ते सबसे ज़्यादा उसी शख्स की तरफ मुखातिब हो लेते हैं और तब अपनी पैंट में मौजूद टांगों की रक्षा के लिए उसके अन्दर से भर्राई सी आवाज़ निकलती है कि "बचा लो, यार, यह किन सज्जन का कुत्ता है ?" वह आदमी इस बात को जानता है कि अगर "यह किस कमबख्त का कुत्ता है," जैसी कोई बात बोल दी, तो वह कभी भी अपने कुत्ते से कटवाए बिना बाज नहीं आएगा.

    हमारी कॉलोनी को ही ले लीजिये. ऐसी-ऐसी नस्लों के कुत्ते लोगों ने पाले हुए हैं कि वे लाख 'हट-हट' या 'शीट-शीट' जैसी ध्वनियां करने के बावज़ूद, जब तक अच्छे भले आदमी की रही सही जान नहीं ले लेंगे, उसे यूं ही घूरते रहेंगे. इन कुत्तों से डरकर भागने  की ज़रा सी बात अगर मन में भी सोच ली, तो समझें कि वे या तो शराफत से आपको आपके घर के अन्दर तक दौड़ाकर आयेंगे या बहुत मूड में हुए, तो ऐसी जगह पर काटेंगे कि आप यह बताने की पोज़ीशन में भी नहीं रहेंगे कि यहीं पर क्यों काटा, अन्य किसी उपयुक्त स्थान पर क्यों नहीं ?

    भौंकने की अवस्था में काटने के संकेत देने पर कुत्ते को चुपाने का एक ही तरीका है और जो बहुत कारगर माना जाता है. जितनी जोर से कुत्ता भौंक रहा है, उससे भी जोर से अगर भौंक दिया जाये, तो कुत्ते को थोड़ी सी तसल्ली मिल जाती है कि आदमी और कुत्ते का कॉम्बिनेशन है, इसलिए इसे ना काटा जाये तो ही सही है. ना काटे जाने वाला आदमी अपनी इस गुप्त विद्या को अपने बच्चों को भी सिखा जाता है, ताकि इंजेक्शनों का खर्चा बचाने के काम आये. अब कोई कुत्ता पागल है या नहीं है, यह जानने के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए, वरना हर कुता अपने आप को पागल समझने की गुस्ताखी के एवज़ में इस कदर काट खाता है कि इंजेक्शन लगाने लायक जगह भी ढूंढनी मुश्किल हो जाये कि अब ये कहां लगाएं ?

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 10 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का व्यंग्य .... लाल टमाटर


रसोई घर में खड़े -खड़े मैं अचानक ही अच्छे दिन के ख्यालों में खो गयीं, जब मेरे किचन में टमाटर सड़ते ..म...म..... मेरा मतलब है कि रखे रहते थे.

बीस रुपये किलो टमाटर खरीद -खरीद कर न जाने कितनी बार टमाटर की चटनी, साॅस थोक में बनाकर रखी है. रोज नये -नये व्यंजनों की खुश्बू से महकती रसोई को न जाने महँगाई डायन की कैसी नज़र लगी कि नालायक  टमाटरों को लेकर ऐसी  उड़ान  छल्ली बनी  कि नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है.

टमाटर की  चढ़ती रंगत और यौवन देखकर, घमंडी सेब -अनार तो पहले ही हीनभावना की झुर्रियों से ग्रसित होकर वृद्ध आश्रम की ओर रवाना हो चुके हैं.

उधर  रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन भोजन खा- खाकर बच्चों के मुँह उतरे हुए हैं, जिन्हें देख -देखकर कलेजा मुंँह को आ रहा है, कह रहे हैं कि हे माता जी !!आपने सावन के नाम पर सब्जी में प्याज तो पहले ही डालनी बंद कर दी थी, जीरा आठ सौ रुपये किलो बताकर सब्जी में जीरा भी नहीं डाल रहीं थीं . अब टमाटर भी बंद करके सब्जी की जीरो फिगर बना दी है.

 बार- बार ,चीख -चीखकर सवाल पूछ रहे हैं मुझसे, क्या है सब्जी  में ? लप्पू  सी सब्जी की झींगुर सी शक्ल है,इसे खायेगें हम !ऐसी सब्जी खिला-  खिलाकर हमें हीरो से जीरो  बना दिया है

उफ्फ़ ये मजबूरी !! एक एकअब इन्हें कौन समझाए  कि बेटा टमाटर के चक्कर में बजट ,कब से  घर के बाहर गेट पर ही  जीभ निकाले औंधे मुंँह पड़ा हुआ है.  हे सब्जियों के शंहशाह!, रंगबिरंगी चटनियों के  सम्राट , हे रक्ताभ ! हे !रक्त को बढ़ाने वाले.!...काहे... ?काहे गरीब का रक्त सुखाते हो? हे पिज़्ज़ा-  वर्गर की शान बढ़ाने वाले! हे !मोमोज  की नारंगी चटनी के स्वाद! !   देखिएगा !!..आपके बिना दम आलू  कैसे  बेदम होकर ज़मीन पर पड़ा अपनी अंतिम सांसे ले  रहा है, काजू -कोफ्ता आपके अभाव में अपने अस्तित्व  की रक्षा करते- करते,कब का वीरगति को   प्राप्त हो  चुका है.शाही -पनीर का शाही तख्त आपके सहारे के बिना अपने चारो पाये तुड़वाकर धड़ाम हो चुका है, गोभी- आलू को तो मानो लकवा ही मार गया और मुल्तानी छोले - चावल तो  आपके  वियोग मे  संभवतः मुल्तान को ही निकल लिये, काफी दिन से दिखाई  ही नहीं दिये.वैसे भी आजकल एक देश से दूसरे देश चोरी छिपे निकलने का नया  मौसम शुरू हो चुका है. हे सुंदर मुखड़े और खट्टे स्वाद वाले क्या  आपको ज्ञात नहीं कि दाल -मखनी  आपके  बिना वेंटिलेटर पर है और आलू- टमाटर की सदाबहार सब्जी तो मुझसे रूठकर ऐसी गयी है कि शायद अब  किसी भंडारे में ही जी भर कर मिलेगी वो भी अगर  बाँटने वाले ने पूड़ी पर रखकर  न दी तो....! वरना सारी सब्जी तो पूड़ी ही सोख लेंगीं.... !अरे जब भंडारा कर ही रहे हो तो क्यों दो चार थैली भर कर नहीं  देते लोगों को.! 

हे !सबसे बड़े महंगाई सम्मान से विभूषित, कमल के समान कांतिमान!!लाल टमाटर..!!.आपके बिना दाल -फ्राई का तड़का  लड़खड़ाते हुए अपनी अंतिम सांस तक आपको पुकारता रहा,परंतु  आपका कठोर हृदय फिर भी  नहीं पसीजा.  क्या तहरी के चावल, आलू,मटर -गोभी,   की चीखें भी आपको विचलित  नहीं कर सकीं ? आपके बिना वे किस प्रकार  दुर्गति को प्राप्त हुए ,  यह भी ज्ञात नहीं आपको?उन्हें क्या मालूम था कि आप जैसे सस्ते,हर मौसम में उपलब्ध  होने वाले ,अपनी औकात भूलकर सातवें आसमान पर जाकर ऐसा बैठ जायेगें  कि नीचे ही नहीं उतरेगें.    

टमाटरों की भारी किल्लत देखते हुए, कल  मैने अपनी दो चार पुरानी- धुरानी  कविताएँ, हिम्मत करके घर के बाहर बने  चबूतरे पर खड़े होकर  आते- जाते लोगों को सुनाने का   प्रयास भी किया ,मगर मजाल क्या ...!!किसी ने मेरी तरफ टमाटर उछालना तो दूर  ठीक से सुना भी नहीं मुझे ..., मूर्ख !!गैर साहित्यिक कहीं के...!! और तो और अपने हाथ की सब्जी का थैला दुबकाते हुए , नजरें नीची  किये चुपचाप मेरे सामने से ही निकल गये.. . !! अरे टमाटर  थैले में होते ,तभी  तो उछालते न  मेरी तरफ.....!!. कंगले कहीं के...!! हुँहहह... "

 हे सब्जियों की पवित्र आत्मा !!क्यों त्योहारों पर नाटक कर रहे हो, बात को समझो न टमाटर जी, अगर नीचे नहीं उतरे तो मेहमानों के सामने बहुत ज्यादा नाक कट जायेगी. अपनी दूर की बहनों लौकी- तोरई को देखो ज़रा... !!बेचारी कितनी सज्जन हैं, ज़रा भी भाव नहीं खातीं  कभी..!!और आज तक कभी नखरे भी नही किये उन्होंने ,..!!बेचारी हर परिस्थिति में शांत ही रहती हैं.और  बाज़ार में बैंगन के भुर्ते की आत्महत्या के बाद  तो आपके बिना बची -खुची सारी सब्जियांँ भी अज्ञात वास को चली गयीं हैं, तबसे यही लौकी तोरई रसोई घर में डटी हुई हैं.अभी टमाटर जी के चित्र के समक्ष यह  विनती चल ही रही थी कि  थी कि तभी बाहर से सब्जी वाले की आवाज आयी, 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

ले लो जिसकी जेब में माल

मैं दौड़कर गेट पर गयीं और  गेट की झिर्रियों में  टमाटरों के दिव्य दर्शन हेतु अपनी आँखें टिकायीं  ही थीं कि सब्जी वाले की पैनी निगाहें झिर्रियों को भेदते हुए, मेरी आंखों पर पड़ गयीं. उसने  कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए और ज़ोर से आवाज़ लगानी शुरू कर दी.. 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

कहाँ छुपे सारे कंगाल

मैं सकपकाकर पीछे हट गयीं.पता नहीं सब्जी वाला सब्जी बेच रहा था या जले पर नमक छिड़क रहा था,  खैर...!मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोकते हुए अंदर की ओर भागी और गुस्से में अपनी कविताओं की डायरी को  आग के हवाले कर दिया... "जाओ! दफ़ा हो जाओ!जब तुम टमाटर तक न ला सकीं तो पुरस्कार क्या खाक़ लाओगी*! और टमाटर वाले की आवाज़ दूर होती जा रही थी... टमाटर लाल, टमाटर लाल, कहाँ छुपे सारे कंगाल... ले लो जिसकी जेब में माल

✍️मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद

गुरुवार, 25 मई 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......टेलीफोन की याद


अचानक पुराने जमाने के टेलीफोन की याद आ गई । काला कलूटा था । मोटा थुलथुल शरीर । एक बार जहां टिका दिया ,सारी जिंदगी वहीं पर टिका रहा । एक इंच इधर से उधर नहीं हिलने वाला । जब कपड़ा हाथ में लेकर झाड़ने का काम होता था, तो उसको उठा दिया जाता था और फिर धूल झाड़ कर अपनी जगह रख दिया जाता था। न कहीं कोई लेकर जाता था ,न उससे चला जाता था । एक *रिसीवर* था ,जिसे मुश्किल से दो फीट दूर बात करने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता था । इस पर भी इतराना ऐसा कि जैसे कहां के राजकुमार हों ! विश्व सुंदरी का पुरस्कार जीती हुई कोई स्त्री भी ऐसा गर्व न करेगी ,जैसे हमारे कालिया साहब किया करते थे ।

यह तो मानना पड़ेगा कि श्रीमान जी जहां विराजमान होते थे ,वहां की शोभा बन जाते थे । किसी – किसी के घर ,दफ्तर और दुकान में फिक्स-टेलीफोन हुआ करते थे । दस जगह जाओ तो एक जगह श्रीमान जी के दर्शन हुआ करते थे । आज की तरह थोड़े ही कि हर आदमी के हाथ में मोबाइल रखा हुआ है और एक आदमी भी बाजार में ऐसा न मिले जिसके पंजे में मोबाइल नहीं होगा । उस समय जिसके पास टेलीफोन होता था ,वह एक विशिष्ट स्थान रखता था । उसका टेलीफोन नंबर न केवल उसके काम आता था बल्कि आस-पड़ोस के निवासियों के काम भी आता रहता था । वह अपने लेटर-पैड पर पड़ोसी का टेलीफोन नंबर *पी-पी.* लिखकर अंकित कर देते थे । इसका अर्थ यह होता था कि पड़ोसी से टेलीफोन पर बात करनी है तो अमुक नंबर पर आप टेलीफोन मिला सकते हैं । जब पड़ोसी का टेलीफोन आता था ,तब टेलीफोन करने वाले को कहा जाता था कि पड़ोसी को हम बुला कर ला रहे हैं । तब तक आप इंतजार करिए और दो मिनट के बाद टेलीफोन करने का कष्ट करें । बहुत से लोग टेलीफोन पर बात करने से हिचकते थे । वह कहते थे “आप ही बात कर लीजिए।” बड़ी मुश्किल से उनसे कहा जाता था और समझाया जाता था कि टेलीफोन पर बात करने में कोई मुश्किल नहीं होती । आसानी से यह कार्य संपन्न हो जाता है।

कुछ लोग टेलीफोन पर इतनी जोर से बोलने के आदी होते थे कि उनकी आवाज पड़ोस के घर तक जाती थी । पड़ोसी को पता चल जाता था कि इस समय हमारे पड़ोसी की टेलीफोन पर बातचीत चल रही है । पड़ोसी समझता था कि हमारे घर पर टेलीफोन नहीं है ,इसलिए हमें चिढ़ाने के लिए यह महोदय ऊंची आवाज में बात कर रहे हैं । लेकिन ऐसा नहीं होता था । कुछ की आदत ही चीख – चीख कर बात करने की होती थी। सामने की दुकान पर अगर कोई बात कर रहा है तो सड़क – पार की दुकानों तक बातचीत का स्वर पहुंच जाता था ।

स्थानीय स्तर पर टेलीफोन मिलाने के लिए टेलीफोन पर एक गोल चक्कर बना रहता था । उसमें 1 से 9 तक के अंक तथा शून्य लिखा होता था । हर अंक के बाद गोल चक्कर घुमाना पड़ता था । उस जमाने में टेलीफोन – नंबर छोटे होते थे । उदाहरण के लिए शहर में किसी का नंबर 302 है किसी का 318 ,किसी का 412 । अतः तीन बार चक्कर घुमाने से टेलीफोन मिल जाता था और बात आसानी से हो जाती थी । शहर से बाहर टेलीफोन मिलाने के लिए *ट्रंक कॉल बुकिंग* करानी पड़ती थी । टेलीफोन एक्सचेंज का नंबर घुमा कर उनसे आग्रह किया जाता था “हमें दिल्ली बात करनी है । टेलीफोन नंबर इस प्रकार है । कृपया बातचीत कराने का कष्ट करें ।”

टेलीफोन ऑपरेटर का अस्त – व्यस्त आवाज में उत्तर मिलता था “एक मिनट इंतजार करो । बात कराते हैं ।”

एक-दो मिनट के बाद टेलीफोन की घंटी बोलती थी । उधर से आवाज आती थी ” लीजिए ,दिल्ली बात करिए ।”

अब हमारा संपर्क दिल्ली के टेलीफोन नंबर से जुड़ गया । जैसे ही बातचीत के तीन मिनट पूरे हुए , टेलीफोन ऑपरेटर महोदय बीच में टपक पड़ते थे । हमसे कहते थे “तीन मिनट हो गए ।”

इसका तात्पर्य यह था कि अगर हमें आगे भी बात करनी है ,तो पैसे ज्यादा देने पड़ेंगे । ऐसे में दो ही विकल्प होते थे । या तो ऑपरेटर महोदय से आग्रह किया जाए कि तीन मिनट और दे दीजिए या फिर टेलीफोन नमस्ते करके रख दिया जाए ।

टेलीफोन में “डायल टोन” का चला जाना एक आम समस्या रहती थी । डायल टोन एक प्रकार का स्वर होता था, जो टेलीफोन के तारों में प्रवाहित होता था ।इसमें एक हल्की सी गुनगुन जैसी आवाज टेलीफोन उठाते ही रिसीवर को कान पर रखकर बजने लगती थी । इसका अभिप्राय यह होता था कि टेलीफोन सही ढंग से काम कर रहा है । कई बार “टेलीफोन डेड” हो जाता था । इसका अर्थ था कि टेलीफोन में अब करंट का आना भी समाप्त हो गया । *टेलीफोन का डेड होना* बड़ी दुखद स्थिति मानी जाती थी । एक प्रकार की रोया-पिटाई मच जाती थी । टेलीफोन मृत पड़ा है और सब उसे देखे जा रहे हैं । अब किससे बात हो पाएगी ? कहां बात होगी ? कौन हम से बात कर पाएगा ? लाइनमैन इसी दिन के लिए अच्छे संबंध बनाकर रखा जाता था ।

*लाइनमैन* के अपने जलवे होते थे। जिस बाजार से निकल जाए ,ज्यादातर बड़े-बड़े लोग उसे पहल करके नमस्कार करते थे । लाइनमैन से सभी का काम पड़ता था । बड़े-बड़े दुकानदार तथा समाचार पत्रों के संवाददाता ,अधिकारीगण अपने टेलीफोन में *एस टी डी* . रखते थे अर्थात सीधे शहर से बाहर नंबर डायल करके टेलीफोन मिला सकते थे । उन्हें लाइनमैन से काम पड़ना ही पड़ना था । वैसे तो नियमानुसार टेलीफोन एक्सचेंज में शिकायत दर्ज करा कर टेलीफोन की किसी भी परेशानी को हल करने का प्रावधान होता था ,लेकिन लाइनमैन का महत्व सुविधा शुल्क – प्रधान व्यवस्था में अपनी जगह था।

जब तक मोबाइल नहीं आया ,टेलीफोन की तूती बोलती रही । जब मुट्ठी में समा जाने वाला छोटा – सा मोबाइल आया होगा ,तब इस भारी – भरकम ,विशालकाय ,काले- कलूटे आकार के प्राणी ने सोचा होगा कि यह छम्मकछल्लो हमारा क्या बिगाड़ लेगी ? हम तो लोगों के दिलों पर पचास साल से शासन कर रहे हैं । हमारी हस्ती कभी नहीं मिटेगी । लेकिन एक दशक में ही छोटे से मोबाइल ने विशालकाय टेलीफोन के राज – सिंहासन को पलट दिया। इस तरह घर ,दुकान और दफ्तर सब जगह टेलीफोन के लिए जो स्थाई सिंहासन का स्थान दशकों से सुरक्षित रखा हुआ था ,वह समाप्त हो गया ।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

रविवार, 5 मार्च 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी वर्मा का व्यंग्य ......जरूरी है चीखना


चीखना अर्थात अपनी बात पूरे दमदार तरीके से सकारात्मक या नकारात्मक रूप में रखना। चीखना एक ऐसी कला है जो सत्य को झूठ और झूठ को सत्य में परिणत कर देता है हालांकि चीखना स्वयं में ही अनुशासनहीनता व असभ्यता का पर्याय है परंतु आजकल चीखना एक कला बन चुका है। जहां भी नजर जाती है वहां भोली भाली ,मासूम, मध्यम स्वर की मधुर आवाज को चीखता हुआ स्वर कुछ इस तरह निगल जाता है जैसे जीते जागते प्राणी को अजगर।

चीखना एक ऐसा हुनर बन चुका है, जो हर क्षेत्र में ना केवल कमाल दिखा रहा है अपितु कमाई का एक सर्वोत्तम साधन बन चुका है टीवी पर समाचारों के स्थान पर चीखने के टॉक शो चलते हैं जो जितना अधिक चीख चीख कर प्रभावी ढंग से अपनी बात रख जाता है वही शेर बन जाता है मध्यम स्वर तो कहां दब के रह जाता है सुनाई नहीं देता ।कुछ तो टीवी शो चीखने की क्षमता पर ही चल रहे हैं। राजनीति में भी चीखना अच्छी कला मानी जाने लगी है जो जितना अधिक चीख सकता है समझो उतना प्रभावशाली है ।चीखना सोशल मीडिया का एक ऐसा हथियार बन गया है कि आम नागरिक इस चीख-पुकार को सुनकर कई बार सदमे में आ जाता है जी हां.... गौर से देखिए, यह वही जगह है ,खूनी जगह,लोगो को मार देने वाली जगह जहां एक्सीडेंट हुआ था .............

समाज में भी यदि कोई चीख पुकार करने वाला व्यक्ति होता है तो वह केंद्र बिंदु में रहता है।

इसी प्रकार जानवरों में भी यह खासियत देखी गई है कुछ टीवी टॉक शो की तरह कुत्तों में भी चीखने की जैसे प्रतियोगिता सी चलती है कोई हार मानने को तैयार ही नहीं होता बशर्ते भोंक भोंक के हलक बाहर आने को तैयार हो....

 कुछ लोगों के लिए चीखना बहुत आसान काम होता है क्योंकि वह साधारण बात भी चीख–चीख कर ही कहते हैं, परेशानी तो विनम्र स्वभाव वाले की है मरता क्या न करता चीखने की कोशिश करता है परंतु आवाज हलक से बाहर ही नहीं आती अब कोई मोर को कहे सियार जैसे आवाज निकालो या कुत्ता जैसे भोंको तो यह उसकी प्रवृत्ति तो नहीं...

चीखना सीखने के लिए अपनी प्रवृत्ति छोड़ना पड़ती है जो कि असंभव सा है परंतु चीखने के युग में जी रहे हैं तो थोड़ा चीखना भी अवश्यंभावी ही है अतः चीखने की सकारात्मकता, अन्याय पर न्याय की विजय के लिए चीखना भी आवश्यक है।

✍️ मीनाक्षी वर्मा

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 1 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......क्या बताऍं शुगर हो गई



 क्या बताऍं, जब से शुगर की जॉंच हुई है और उसमें पता चला है कि हमारी शुगर सौ से ऊपर है ,जीवन का सारा रस समाप्त हो गया। जिंदगी का मजा ही जाता रहा। बस यों समझिए कि जी रहे हैं और जीने के लिए खा रहे हैं ।अब तक जो मन में आया खाते रहे। अब मन को एक तरफ रखा हुआ है और खाना सिर्फ वह खा रहे हैं जो शुगर के हिसाब से खाना चाहिए।

             मिठाईयां बंद हो गईं। कितने दुख की बात है कि अब तरह-तरह की मिठाइयां जो इस संसार की शोभा बढ़ाती रही हैं और आज भी बढ़ा रही हैं ,हमारे मुंह की शोभा नहीं बढ़ा पाएंगी। बुरा हो उस मनहूस सुबह का जब हमने हॅंसी-हॅंसी में अपना भी ब्लड शुगर टेस्ट करा लिया। हम समझते थे कि हमें आज तक शुगर नहीं हुई है, इसलिए अभी भी नहीं होगी । सोचा चलो एक सर्टिफिकेट मिल जाएगा कि तुम ठीक-ठाक हो । हाथ आगे बढ़ाया । जॉंचने वाले ने उंगली में सुई चुभाई। ब्लड की जॉंच की और शुगर सौ से ऊपर थी। बिना कुछ खाए फास्टिंग में सौ से ऊपर। सच कहूॅं हमारी तो सॉंस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे रह गई। यह क्या हो गया !

         बस उसी समय से जीवन में अंधकार छाया हुआ है। सब लोग मीठा खाते हैं और हम गम खाते हैं ।आखिर बचा ही क्या है जिन्दगी में! फलों में मिठास है, खाने की हर चीज में मिठास है, अब जब मिठास ही खाने की वस्तुओं से चली गई तो फिर जीवन में मिठास कहॉं बची ? बड़ा कड़वा हो गया है जीवन ! मेरी समझ में नहीं आता कि यह शुगर की बीमारी कहॉं से आती है ? आदमी अच्छा भला है ।एक दिन उसे कह दिया जाता है कि तुम्हारे ब्लड में शुगर है। तुम शुगर के मरीज हो।

    परहेज इतने कि कुछ पूछो मत। दहीबड़ा भी खाओ तो बगैर सोंठ के ! क्या खाए ? आदमी मुँह लटकाए हुए कुर्सी पर बैठा हुआ है । आने वाला पूछता है “क्यों भाई ! मुॅंह लटकाए कैसे हो ? “जवाब देना पड़ता है “भाई साहब, शुगर हो गई है ”

   कुछ लोग दिलासा दिलाते हैं। कहते हैं, “मन छोटा न करो । हर तीसरे आदमी को शुगर है।”

        हमारा कहना है कि वह तीसरा आदमी हम ही क्यों हैं ? जो बाकी दो रह गए हैं, वह क्यों नहीं हैं ? भगवान किसी के साथ ऐसा अन्याय न करे । जिंदगी दी है तो मिठास भी दे। अब परहेज में जिंदगी गुजरेगी।

     शुगर के चक्कर में व्यवहार बदल गया। कल मैं एक फल वाले के पास गया। अंगूर देखे ,पूछा” कैसे हैं ? “वह उत्साह में भर कर बोला “बहुत मीठे हैं।” मैंने कहा “ज्यादा मीठे नहीं चाहिए “और मैं आगे बढ़ गया। वह बेचारा सोचता ही रह गया कि आखिर उसने ऐसा क्या कह दिया कि ग्राहक ने अंगूर नहीं खरीदे ।

     लोग कहते हैं कि दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं ,एक गरीब -दूसरे अमीर । लेकिन मेरा कहना है कि दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं ,एक वे जिनको शुगर है, दूसरे वे जिनको शुगर नहीं है ।शुगर वालों का एक अलग ही संसार है। वास्तव में सच पूछो तो “शुगर पेशेंट यूनियन “की आवश्यकता है ।और अगर सारे शुगर के मरीज मिल जाए बहुत बड़ा परिवर्तन समाज में जा सकते हैं।

     हमारा सबसे पहला काम इस मानसिकता को बदलना होगा कि उपहार में केवल मिठाई का डिब्बा ही देना चाहिए । मैं मिठाई के डिब्बों को देखता हूं , उनमें कितनी मिठाई ही मिठाई भरी हुई रहती है। इसके स्थान पर अगर मठरियाँ, मट्ठी, काजू के समोसे , खस्ता और दालमोठ रखी जाए तो कितना अच्छा होगा। शगुन के लिए अगर मिठाई देना जरूरी है तो डिब्बे के कोने में नुकती के चार लड्डू बिठाए जा सकते हैं । इसी तरह दावत में देखिए ! छह – छह मिठाई के स्टालों का क्या औचित्य है ? एक तरफ जलेबी,इमरती गरम गरम निकल रही है, दूसरी तरफ गुलाब जामुन, रसगुल्ला , मालपुआ है । “एक दावत एक मिठाई” इस सिद्धांत को व्यवहार में बदलना चाहिए। एक दावत में छह छह मिठाईयां शुगर वालों को चिढ़ाना नहीं तो और क्या है ?

निवेदन है:-

मर्ज शुगर का लग गया, अब हम हैं बीमार

रसगुल्ला सब खा रहे , टपकाएं हम लार

एक जगत में वे हुए , मीठा खाते लोग

दूजे उनको जानिए , मीठा जिनको रोग


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार का व्यंग्य.....आर्ट ऑफ लीविंग


हमारे परम मित्र कविकंकर जी बहुत परेशान थे। हाथी जैसी महंगाई में, चूहे जैसी आमदनी से घर नहीं चल पा रहा था। एक दिन उनको किसी पागल कवि ने काट लिया।उनका मानसिक संतुलन ऐसा बिगड़ा कि सब कुछ छोड़ कर आध्यात्मिक गुरु बन गए।अब आर्ट ऑफ लीविंग संस्था चलाते हैं। फाइव स्टार होटलों में गुलछर्रे उड़ाते हैं।महंगे से महंगा खाना मंगाते हैं। आधा छोड़ते हैं,आधा खाते हैं।

    ‌‌उनका आध्यात्मिक चिंतन, छोड़ने पर ही टिका है। उनको खुद को भी,जो कुछ मिला है,कविता छोड़ कर मिला है। सफलता का सूत्र है..छोड़ना, छोड़ कर ही आप कुछ पा सकते हैं।विजय माल्या, नीरव मोदी आदि अगर आज खुशनुमा जीवन बिता रहे हैं,तो इसके पीछे उनका बहुत बड़ा त्याग है। उन्होंने अपने देश तक को छोड़ दिया है।

    अगर हम इतिहास पर नजर डालें,स्वतंत्रता संग्राम के मूल में भी छोड़ने की प्रवृति दिखाई देती है। महात्मा गांधी के आवाहन पर किसी ने पढ़ाई छोड़ी, किसी ने वकालत,किसी ने अपना घर और आंदोलन में कूद पड़े।इसकी परिणीति उन्नीस सौ बयालिस में भारत छोड़ो आंदोलन के रूप में हुई।

     पिछले चुनाव में,एक पार्टी के वफादार नेता,अपनी पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी में चले गए।उनके सारे पाप धुल गए और तरक्की के सारे रास्ते खुल गए। आज सरकार में एक महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल रहे हैं।उन्होंने सही समय पर सही कदम उठाया। उसूलों को छोड़ा,पार्टी को छोड़ा और बहुत कुछ पाया।

      मेरा आप सब से, हाथ छोड़ कर निवेदन है,आप इस समय जो कुछ भी कर रहे हों,चाहे आवश्यक दैनिक कार्य ही क्यों ना हों,सब छोड़ कर इस लेख को पढ़िए और छोड़ने की इस मुहिम को,यानी कि आर्ट ऑफ लीविंग को आगे बढ़ाइए। वरना आपके दोस्त ,आपको छोड़ कर आगे बढ़ जायेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉक्टर पुनीत कुमार का व्यंग्य....विकास मिल गया है


काफी खोजबीन करने के बाद विकास का पता मिला। ये खोजबीन हमारी अपनी थी। इसमें गूगल बाबा का कोई रोल नहीं था। गूगल ने विकास के एक लाख से अधिक परिणाम दिखाकर, हमको भ्रमित ही कर दिया था।अपनी सफलता पर हम फूले नहीं समा रहे थे। हमारा सीना तीस इंच से बत्तीस इंच हो गया था और हमको तसल्ली दे रहा था कि बहुत जल्द ये छप्पन इंच के जादुई स्तर को छू लेगा। हमारी स्थिति उस पॉकेटमार की तरह थी,जिसे प्लास्टिक मनी के युग में, नोटों से भरी पॉकेट मिल गई हो।हमने बिना समय गवांए,अपना कैमरा उठाया और विकास से मिलने चल दिए लेकिन हमको निराशा हाथ लगी। घर के बाहर ताला लटका था। 

       पड़ोसियों ने बताया - विकास काफी समय से बीमार था। डॉक्टर की सलाह पर, आजकल स्विट्जरलैंड में स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर रहा है। "हमारे पास लौट के बुद्धू घर को आए के अलावा कोई ऑप्शन नही था।हमने पड़ोसियों से कहा,"जब विकास वापस आ जाए,सूचित कर देना। उससे मिलने की तीव्र इच्छा है।अभी तक उसका, बस नाम सुना है, देखा नहीं है।हम मरने से पहले, ये इच्छा पूरी करना चाहते हैं।"

      पांच महीने बाद, एक पड़ोसी ने हमें फोन पर बताया ," विकास आ गया है लेकिन अब इस जगह को छोड़, नेताओं की बस्ती में रहने लगा है। "हम फौरन उससे मिलने जा पहुंचे। एक बूढ़े व्यक्ति,जिसको चलने में परेशानी हो रही थी, ने दरवाजा खोला। पता चला वही विकास है। हमने उसको अपनी छड़ी पकड़ाई। उसने हमें घूर कर देखा,"पहले मेरे पास भी ऐसी ही एक ईमानदारी की छड़ी थी‌ लेकिन वह बहुत कमजोर निकली। मैं कई बार चलते चलते गिरा। कहीं से बेईमानी की छड़ी मिल जाए तो लाना, सुना है वो बहुत मजबूत होती है।"

       हमने कहा,"पूरे देश को तुम्हारी जरूरत है,और तुम यहां छुपे बैठे हो।" विकास हंसा," मैं भी सबसे मिलना चाहता हूं ।मैने कुछ समय पहले पदयात्रा शुरू की थी लेकिन चलने की आदत ना होने के कारण, थक जाता था।एक दिन में केवल आठ दस घरों तक पहुंच पाता था। मैं इतने में भी खुश था। धीरे धीरे ही सही,एक दिन हर घर में मेरी पहुंच होगी लेकिन मेरी किस्मत खराब थी, जो नेताओं की नजर मुझ पर पड़ गई।उन्होंने सोचा, सबके घर अगर आसानी से विकास पहुंच गया, तो हमें कौन पूछेगा। हम किसके नाम पर वोट मांगेंगे। उन्होंने मुझे पकड़कर बंधक बना लिया। बस तभी से मैं इस बस्ती में,सख्त पहरे के बीच रह रहा हूं।क्या तुम मेरी कुछ सहायता कर सकते हो।"

      हमारे पास कोई जवाब नहीं था।हमें लगा, अब तो सारी जनता मिलकर ही विकास को, नेताओं के चंगुल से छुड़ा सकती है लेकिन पता नहीं,वो दिन कब आएगा।


✍️डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी रवि प्रकाश का व्यंग्य ...जाड़ों की धूप में मूॅंगफली खाना मौलिक अधिकार

   


हुआ यह कि एक सरकारी संस्थान था और उसमें पदासीन गेंदा बाबू रोजाना एक घंटा लेट आते थे । संस्थान के प्रभारी ने इस बात को तो सहन किया क्योंकि उसकी बुद्धि कहती थी कि इन छोटी-छोटी बातों में टॉंग अड़ाना अच्छी बात नहीं होती। लेकिन जब से जाड़ा शुरू हुआ गेंदा बाबू एक घंटा लेट तो आते ही थे, अब उन्होंने आने के बाद कोई कार्य करने के स्थान पर धूप में कुर्सी डालकर बैठना और मूॅंगफली खाने का कार्य और आरंभ कर दिया । 

        हफ्ते-दो-हफ्ते तो प्रभारी ने चीजों को नजरअंदाज किया लेकिन एक दिन उसकी चेतना जागृत हो गई अथवा यूं कहिए कि साठ वर्ष का होने से पहले ही उसकी बुद्धि सठिया गई और उसने गेंदा बाबू को टोक दिया -"यह आप कार्य करने के स्थान पर रोजाना धूप में कुर्सी डालकर मूंगफली खाने का कार्य नहीं कर सकते । आपको कार्य के लिए वेतन दिया जाता है।"

          बस  प्रभारी के इस भारी अपराध को गेंदा बाबू न तो क्षमा कर पाए और न ही सहन कर पाए। तत्काल उन्होंने अपने मौलिक अधिकारों की दुहाई लगाई तथा संस्थान के सभी सहकर्मियों को एकत्र कर लिया। संस्थान-प्रभारी के विरुद्ध हाय-हाय के नारे लगने लगे । 

           गेंदा बाबू ने सबके सामने खड़े होकर जोरदार भाषण दिया । अपने भाषण में उन्होंने कहा कि यह पूंजीवादी व्यवस्था है तथा निजीकरण की ओर बढ़ता हुआ प्रयास है, जिसमें किसी गरीब का धूप में बैठना और मूंगफली खाना व्यवस्था को सहन नहीं हो पा रहा है । गेंदा बाबू ने सबको बताया कि ईश्वर ने सेंकने के लिए ही धूप बनाई है तथा मूंगफली खाने की ही वस्तु है । अतः धूप में मूंगफली खाना हर कर्मचारी का मौलिक अधिकार है। इससे उसे रोका नहीं जा सकता।

              प्रभारी ने अब एक और बड़ी भारी गलती कर दी । उसने अनुशासनहीनता के आरोप में गेंदा बाबू को निलंबित कर दिया। प्रभारी की इस कार्यवाही ने आग में घी डालने का काम किया । वैसे तो मामला सुलझ जाता। थोड़ा-बहुत गेंदा बाबू कार्य करते रहते और थोड़ी-बहुत धूप सेंकते हुए मूंगफली भी खाते रहते। लेकिन कठोर कार्यवाही से मामला एक संस्थान के हाथ से निकल कर जिले-भर के सभी संस्थानों तक फैल गया ।

         मौलिक अधिकारों का प्रश्न अब मुख्य हो चला था । कार्य तो संस्थानों में होता ही रहता है, कभी कम-कभी ज्यादा । लेकिन धूप सेंकना और मूंगफली खाना -यह तो ईश्वर प्रदत्त मौलिक अधिकार है । इससे किसी को वंचित कैसे रखा जा सकता है -अब यह तकनीकी प्रश्न सबके सामने था । आंदोलन जोर पकड़ने लगा । जिले-भर के सभी संस्थानों के समस्त स्टाफ ने जिले के 'वेतन वितरण अधिकारी' को पत्र लिखकर जिले-भर के सभी संस्थानों के समस्त कर्मचारियों को निलंबित करने की मांग कर डाली और कहा कि रोज-रोज के शोषण और उत्पीड़न को सहने की अपेक्षा अच्छा यही है कि एक बार में ही सब को निलंबित कर दिया जाए । 

            अब मामला गंभीर था। 'जिला वेतन वितरण अधिकारी' ने पूरे जिले के समस्त संस्थानों के कर्मचारियों की भीड़ को देखते हुए आनन-फानन में निर्णय लिया और संबंधित समस्याग्रस्त संस्थान के प्रभारी को पत्र लिखकर चौबीस घंटे के अंदर अपने संस्थान में असंतोष को समाप्त करने का अल्टीमेटम दे डाला -"अगर आप अपने संस्थान में कर्मचारियों के असंतोष को दूर नहीं करते हैं तो आप के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाएगी ।" 

                 'जिला वेतन वितरण अधिकारी' के कठोर पत्र को पढ़कर समस्याग्रस्त संस्थान का प्रभारी चक्कर खाकर गिर पड़ा । उसकी समझ में दो मिनट में यह बात आ गई कि जाड़ों के दिनों में धूप इसीलिए निकलती है कि सब लोग उसका सेवन करें तथा मूंगफलियां तो खाने के लिए ही बनाई जाती हैं । यह एक प्रकार से परमात्मा का अलिखित आदेश है । उसने तुरंत अपनी भूल को सुधारा और गेंदा बाबू से कहा -"आपने हमें जो गहरा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया है, वह तो हमें नौकरी से रिटायरमेंट के करीब आते-आते भी कहीं से नहीं मिल पाया था । अब हम अपने चक्षु खोल सके हैं और आप धूप के सेवन तथा मूंगफली खाने के लिए स्वतंत्र हैं।" यह सुनकर गेंदा बाबू ने प्रभारी से कहा कि आप चिंता न करें, हम धूप के सेवन और मूंगफली खाने के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ कार्य संस्थान के लिए अवश्य करेंगे। आखिर हमें वेतन वितरण अधिकारी के कर-कमलों से वेतन इसी कार्य के लिए तो प्राप्त होता है ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा,

 रामपुर 

उत्तर प्रदेश ,भारत

मोबाइल 99 97 61 5451

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य...... बुरे फँसे टिकट माँगकर


 जब हमने साठ-सत्तर कविताएं लेख आदि लिख लिए तो हमारे मन में यह विचार आया कि एमएलए के चुनाव में खड़ा होना चाहिए। पत्नी से जिक्र किया। सुनते ही बोलीं" कौन सा भूत सवार हो गया ?"

     हमने कहा "भूत सवार नहीं हुआ है। वास्तव में चुनाव उन लोगों को लड़ना चाहिए जो देश और समाज के बारे में चिंतन करते हैं और देश समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।"

       पत्नी ने कहा "देश और समाज की चिंता तो केवल नेता लोग करते हैं। तुम तो केवल कवि और लेखक हो।"

       हमने कहा" कवि और लेखक ही तो वास्तव में देश के सच्चे नेता होते हैं ।"

      इसके बाद पत्नी बोलीं" जो तुम्हारे दिल में आए, तुम करो। लेकिन चुनाव लेख और कविताओं से नहीं लड़े जाते । इसके लिए नोटों की गड्डियों की आवश्यकता होती है।"

      हमने कहा "यह पुराने जमाने की बातें हैं। अब तो विचारधारा के आधार पर समाज में जागृति आती है। वोट बिना डरे वोटर देता है और जो उसे पसंद आता है उसे वोट दे देता है। इसमें पैसा बीच में कहां से आता है?"

     पत्नी बोलीं" ठीक है, जो तुम समझो करो । लेकिन मेरे पास एक पैसा भी चुनाव में उड़ाने के लिए नहीं है। तुम भी ऐसा मत करना कि घर की सारी जमा पूँजी उड़ा दो, और बाद में फिर पछताना पड़े ।"

    हमने कहा "ऐसा कुछ नहीं होगा । हमारे पास अतिरिक्त रूप से छब्बीस हजार रुपए हैं। इतने में चुनाव सादगी के आधार पर बड़ी आसानी से लड़ा जा सकता है।"

        लिहाजा हमने एक प्रार्थना पत्र तैयार किया और उसमें अपनी 60-65 कविताओं और लेखों की सूची बनाकर संलग्न की तथा पार्टी दफ्तर में जाने का विचार बनाया । टाइप करने- कराने में सत्तर रुपए खर्च हो गए फिर उसकी फोटो कॉपी बनाई उसमें भी बीस रुपए खर्च में आए । पार्टी दफ्तर के जाने के लिए ई रिक्शा से बात की ।

               "कहाँ जाना है ?"

     हमने कहा " पुराने खंडहर के पास जाना है ।"

       सुनकर रिक्शा वाले ने हमारे चेहरे को दो बार देखा और कहा "वहाँ न रिक्शा जाती है , न ई रिक्शा । वहां तो कार से जाना पड़ेगा आपको।"  

   हमें भी महसूस हुआ कि हम जो सस्ते में काम चलाना चाहते थे , वह नहीं हो सकता। खैर, एक हजार रुपए की आने -जाने की टैक्सी करी और हम पार्टी- दफ्तर में पहुंच गए  ।वहाँ पहुंचकर कार्यालय में नेता जी से मुलाकात हुई। बोले" क्या काम है ?"

   हमने कहा" चुनाव लड़ना है ! टिकट चाहते हैं।"

          नेताजी मुस्कुराने लगे। बोले" चुनाव का टिकट कोई सिनेमा का टिकट नहीं होता कि गए और खिड़की पर से तुरंत ले लिया। इसके लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है ।और फिर आपके पास तो जमा पूंजी ही क्या है ?"

   हमने कहा" यह हमारा प्रार्थना पत्र देखिए। हम ईमानदार आदमी हैं । चुनाव जीत कर दिखाएंगे । छब्बीस हजार रुपए हमारे पास कल तक थे ।आज पच्चीस हजार रुपये रह गए हैं।"

      पच्चीस हजार रुपए की बात सुनकर नेताजी का मुँह कड़वा हो गया लेकिन फिर भी बोले "आप प्रार्थना पत्र दे जाइए। जैसे और प्रार्थना पत्रों पर विचार होता है, वैसे ही आपके प्रार्थना पत्र पर भी विचार हो जाएगा।"

    हम समझ गए, यह टालने वाली बात है। हमने कहा "इंटरव्यू कब होगा ? "

     बोले" इंटरव्यू नहीं होता। जब आवश्यकता होगी, आपको बुला लिया जाएगा ।"

      नेता जी से मिलकर बाहर आकर हम थोड़ी देर घूमते रहे । फिर हमें दो छुटभैये मिले। उन्होंने इशारों से हमें एक कोने में बुलाया और पूछा" टिकट की जुगाड़ में आए हो?"

   हमने कहा " हाँ...लेकिन जुगाड़ में नहीं आए हैं ।"

       "कोई बात नहीं। हम आपको टिकट दिलवा देंगे। 2 पेटी का खर्च है। टिकट हम आपके हाथ में रख देंगे"

      हमने कहा "हमारे पास तो कुल पच्चीस हजार रुपए बचे हैं। छब्बीस हजार रुपये थे। इसमें से  एक हजार रुपए आने - जाने में खर्च हो गए"

     उन दोनों ने हमारे चेहरे की तरफ देखा और कहा" आप भले आदमी लगते हो। हम आपका काम पच्चीस हजार रुपए में ही कर देंगे।"

                       हमने कहा" पच्चीस हजार रुपए  खर्च करके अगर टिकट मिलेगा तो फिर उसके बाद हम चुनाव कहाँ से लड़ेंगे? चुनाव लड़ने के लिए भी तो हमें कार में आना- जाना पड़ेगा ?"

       दोनों छुटभैयों ने माथे पर हाथ रखा और बोले "आप कितने रुपए खर्च करना चाहते हैं?"

    हमने कहा "हम आधा पैसा टिकट लेने पर खर्च कर सकते हैं ।"

      वह.बोले "बहुत कम है, कुछ और बढ़ाइए ?"

                इसी बीच नेताजी ने हमें बुला लिया । कहा"आज ही टिकट  की मीटिंग होगी। उसमें प्रति व्यक्ति के हिसाब से बारह जनों की  तीन सौ रुपये की स्पेशल थाली आएगी । तीन हजार छह सौ रुपये का पेमेंट कर दीजिए ।"

     हमने कहा "अगर हमारा आवेदन पत्र नहीं आता ,तो क्या आप लोग भूखे रहते?"

     नेताजी बोले "आपको तो अभी टिकट भी नहीं मिला और आप इतना रूखा व्यवहार कर रहे हैं ।"

      हमने बात बिगड़ती हुई देखी तो छत्तीस सौ रुपये नेताजी के हाथ में रख दिए। कहा "हमारा टिकट पक्का जरूर कर देना "

   वह बोले "आपका ध्यान क्यों नहीं रखेंगे? जब आप स्पेशल थाली के लिए खर्च करने में पीछे नहीं हट रहे हैं, तो हम भी आपको टिकट दिलवाने का पूरा- पूरा ख्याल रखेंगे।"

      नेताजी को छत्तीस सौ रुपये  सौंपकर हम बाहर आए तो वही दोनों छुटभैये खड़े हुए थे । हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । हमें एकांत में ले गए और बोले "नेताजी के स्तर से कुछ नहीं होगा । सारा जुगाड़ हम लोगों के माध्यम से ही होना है ।"

    हमने कहा "अब तो हमारे पास छब्बीस हजार रुपये की बजाय केवल इक्कीस हजार रुपये बचे हैं ।"

     वह बोले "कोई बात नहीं । आधे अपने पास रखो तथा आधे अर्थात साढ़े दस हजार रुपये की धनराशि आप हमें दे दो । हम आप का टिकट पक्का करने की गारंटी लेते हैं।"

        हम खुश हो गए और हमने अपनी जेब से साढ़े दस हजार रुपये निकालकर दोनों छुटभैयों के हाथ में पकड़ा दिए । दोनों छुटभैये बोले" ठीक है ,अब आप परसों आ जाना। आपको हम टिकट की खुशखबरी सुना देंगे ।"

     बचे हुए साढ़े दस हजार रुपये लेकर हम अपने घर वापस आ गए। उसके बाद फिर पार्टी कार्यालय में जाकर नेताजी से  अथवा दोनों छुटभैयों से मुलाकात करने की हिम्मत नहीं हुई । कारण यह था कि छुटभैयों से तो पता नहीं मुलाकात हो या न हो, लेकिन नेताजी मिलने पर फिर यही कहेंगे " भाई साहब !  बारह  लोगों की स्पेशल थाली के तीन हजार छह सौ रुपये  जमा कर दीजिए ।आप के टिकट के लिए प्रयास जारी हैं।"

     जब एक-दो दिन हमने चुनाव न लड़ पाने का शोक मना लिया तब पत्नी ने समझाया "देखो ! तुम्हारे पास केवल छब्बीस हजार रुपये थे, जबकि चुनाव छब्बीस लाख रुपए से कम में नहीं लड़ा जाता ।  छब्बीस हजार रुपये जेब में लेकर भला कोई चुनाव लड़ने के लिए निकलता है ? यह तो वही कहावत हो गई कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने । साठ-सत्तर साल तक जोड़ना और जब छब्बीस लाख रुपये फूँकने के लिए इकट्ठे हो जाएं तब चुनाव लड़ने की सोचना।"

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश , भारत

मोबाइल 999 761 5451

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य .... लाइसेंस का नवीनीकरण

         


कार्यालय में प्रवेश करके मैंने बाबू के हाथ में दस रुपए पकड़ाए और कहा " दस वर्ष के लिए मेरे लाइसेंस का नवीनीकरण कर दो।"

     बाबू ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आया हूँ। बोला "आपको नहीं पता, अब सारा काम ऑनलाइन हो रहा है। नवीनीकरण शुल्क भी ऑनलाइन ही जमा होगा और साथ ही यह भी सुन लीजिए अब दस वर्ष का नवीनीकरण नहीं होगा। प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण हुआ करेगा । अतः आपको केवल एक रुपया ऑनलाइन जमा कराना होगा ।"

        मैं अवाक रह गया । बोला "भाई साहब ! यह ऑनलाइन की पद्धति रुपया जमा करने के मामले में कब से शुरु हो गई ? पहले हम अच्छे - भले आते थे ,आपके हाथ में दस साल के दस रुपए पकड़ा देते थे । आप रसीद काट देते थे ..."

     बाबू ने बीच में ही बात काटी । बोला" वित्तीय मामलों में पूरी पारदर्शिता रखी जा रही है। इसी दृष्टि से सरकारी पैसा ऑनलाइन जमा होगा । बाकी चीजें मेज पर ऊपर - नीचे चलती रहेंगी । "

      मैंने कहा "चलो ठीक है ! ऑनलाइन ही जमा कर देंगे लेकिन दस साल का क्यों नहीं ?  हर साल क्यों ? "

          बाबू ने अपनी बत्तीसी निकाली और मुस्कुराते हुए कहा "हमारे घर की पुताई क्या दस साल बाद हुआ करेगी ? वह तो हर साल होनी चाहिए ? अब हम "आत्मनिर्भर" बनना चाहते हैं ।"

         मैंने कहा " आत्मनिर्भर से तुम्हारा क्या तात्पर्य है ? "

           वह बोला "अब जब प्रतिवर्ष आप का नवीनीकरण होगा , तब हमारा खर्चा- पानी हर साल निकलता रहेगा और हम सरकारी वेतन पर निर्भर न होकर आप से प्राप्त चाय-पानी के खर्चे से अपना गुजर-बसर करते रहेंगे ।"

       मैंने कहा "तुमने तो आत्मनिर्भरता की परिभाषा ही बदल दी । हम लोग कितने परेशान होते हैं ,क्या तुमने कभी सोचा ?"

         बाबू गुस्से में बोला "बहस मत करो। सरकारी दफ्तर आप लोगों की परेशानियों को सुलझाने के लिए ही तो है । अगर परेशानी नहीं होगी तो फिर हम उनका समाधान कैसे करेंगे और आपसे मेज पर बैठकर किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुँचेंगे ?"

         मैंने कहा "अब मुझे क्या करना है?"

                 वह बोला "सबसे पहले तो आप ऑनलाइन पैसा जमा करिए ताकि नवीनीकरण आवेदन - पत्र आपके द्वारा भरा जा सके।"

      मैं भी गुस्सा गया । मैंने कहा "आप का दफ्तर दूसरी मंजिल पर है । मुझे दो जीने चढ़ने पड़ रहे हैं । मेरे घुटने बदलने का ऑपरेशन आठ महीने पहले हुआ था । जीना चढ़ना कठिन है ।"

     इस बार फिर बाबू का तेवर गर्म था । बोला "आप तो केवल दो जीने चढ़ने को ऐसे समझ रहे हैं ,जैसे स्वर्ग तक जाना और आना पड़ रहा हो । अरे ! सरकारी दफ्तर अनेक स्थानों पर तीसरी मंजिल पर हैं। वहाँ आप से ज्यादा बूढ़े और बीमार लोग जैसे-तैसे चलकर जाते हैं ।आप तो फिर भी हट्टे-कट्टे हैं । चलने में आपको क्या परेशानी है ? जीना चढ़ना तो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है । सरकार को धन्यवाद कहिए कि उसने आपको जीना चढ़ने की व्यवस्था करने के लिए दूसरे और तीसरे या चौथे तल पर सरकारी दफ्तर बना रखे हैं।"

            मैंने बहस करना उचित नहीं समझा और ऑनलाइन प्रक्रिया के द्वारा एक वर्ष का एक रुपया जमा कराने के लिए ऑटो में बैठ कर किसी कंप्यूटर केंद्र पर जाना उचित समझा। एक रुपया जमा करने में कितने पापड़ बेलने पड़े ,यह तो मैं ही जानता हूँ। अंततः रसीद लेकर सरकारी दफ्तर के नवीनीकरण कार्यालय में पहुंचा । उनको अपने पत्राजात  दिए तथा ऑनलाइन जमा करने की रसीद थमाई। कहा" अब नवीनीकरण कर दीजिए ।"

       इस बार दफ्तर पर बाबू की कुर्सी खाली थी , जो कि मैं जल्दबाजी में देख नहीं पाया था । एक दूसरे सज्जन जो थोड़ा बगल में कुर्सी डालकर बैठे हुए थे, कहने लगे "आप हमसे क्यों ऐसी बातें कर रहे हैं ? हम क्या आपको बाबू नजर आते हैं ? बाबू हमारे मित्र थे । वह चले गए हैं ।अब तो आपको कल या परसों मिलेंगे ।" मैंने उन सज्जन से क्षमा माँगी कि मैं आपको पहचान नहीं पाया क्योंकि दरअसल मैं बाबू से दस वर्ष बाद मिला हूँ। वह सज्जन बोले "इसीलिए तो सरकार ने हर वर्ष के नवीनीकरण की पद्धति निकाली है ताकि आप बाबू से मिलते - जुलते रहें और उसको पहचान जाएँ तथा किसी अन्य व्यक्ति को बाबू समझने की गलती कभी न करें।"

        खैर ,मरता क्या न करता । मैं ऑटो में बैठ कर फिर घर आया। शहर के एक छोर पर हमारा घर था तथा दूसरे छोर पर नवीनीकरण कार्यालय था। चालीस रुपए ऑटोवाला जाने के एक तरफ के लेता था तथा चालीस रुपए दूसरी तरफ के लेता था। इस तरह शुल्क का एक रुपया जमा करने के चक्कर में मेरे अस्सी रुपए बर्बाद हो गए । अगली तारीख पड़ गई।

         हम अगले दिन फिर पहुँचे । बाबू बैठे हुए थे । हम प्रसन्न हो गए। हमने कहा "लीजिए ! हमारे नवीनीकरण से संबंधित सारे पत्राजात आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं । अब नवीनीकरण सर्टिफिकेट हमें दे दीजिए।"

      बाबू ने हमें आश्चर्य से देखा और कहा "आप तो जब भी आते हैं ,बुलेट ट्रेन की रफ्तार से आते हैं । जबकि आपको पता है कि यह सरकारी कार्यालय है । यहाँ पैसेंजर के अतिरिक्त और कोई गाड़ी नहीं चलती। थोड़ा हल्के बात करिए । फाइल छोड़ जाइए। आपके कागजों का अध्ययन करके हम आपको सूचित कर देंगे ।"

         मैंने कहा "इसमें अध्ययन में रखा क्या है ? मेरा नाम है, पता है, दुकान का व्यवसाय है। नवीनीकरण में दिक्कत क्या है ?"

     वह बोले "जो भी दिक्कत है ,सब आपको बता दी जाएगी । आप हफ्ता -दस दिन बाद आकर मिल लीजिए।"

       मजबूर होकर मुझे घर लौटना पड़ा। बैरंग वापस आते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा था । मगर बहस करने का मतलब था, सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाना और इसके लिए भारतीय दंड संहिता की अनेक धाराएँ मेरा इंतजार कर रही थीं। अतः मैं शांतिपूर्वक अपने घर आ गया ।

      दस दिन बाद मैं फिर नवीनीकरण कार्यालय में बाबू के पास उपस्थित हुआ। अब हमारी जान - पहचान काफी बढ़ने लगी थी।

   वह मुझे देख कर मुस्कुराया बोला "आप आ गए ?"

    मैंने कहा "मुझे तो आना ही था"

         वह बोला "आपके कागजों में बड़ी भारी कमी है। आपने कहीं भी अपने जिले का नाम नहीं लिखा । इन्हें दोबारा से मेरे सामने प्रस्तुत कीजिए ताकि जब भी मैं कागज खोलूँ, तब आपका जिला मेरी समझ में आ जाए।"

     मैंने कहा "आप केवल हमारे जिले का ही कार्यालय का काम सँभालते हैं । अतः जिला नहीं लिखा है तो कौन सा आसमान टूट पड़ा !  लाइए , मैं अपने हाथ से जिला लिख देता हूँ।"

       बाबू ने मेरा हाथ  पकड़ लिया, बोला  "साहब ! कैसी बातें कर रहे हैं ? टाइप किए हुए कागज में भला हाथ से कोई जिला लिख सकता है ? आप दोबारा टाइप कर के आइए। फिर से अपने हस्ताक्षर करिए और फिर मेरे पास जिला लिखवा कर कागज प्रस्तुत करें।"

           मैंने भी भन्नाकर कहा" ठीक है ,अब आप जिले को इतना महत्व देते हैं ,तब यह काम भी पूरा कर लिया जाएगा । कब आऊँ? "

        वह बोला "अभी दो-तीन दिन तो मैं व्यस्त रहूँगा ,उसके बाद आप किसी भी दिन आ जाइए।"

       मैंने कागजों को दोबारा टाइप करवाया उसमें जिला लिखवाया और अगले सप्ताह नवीनीकरण कार्यालय जाने के लिए ऑटो पकड़ा । संयोगवश ऑटो वाला पुराना था। देखते ही बोला"नवीनीकरण दफ्तर जाना है?"

      मैंने कहा "तुम्हें कैसे पता ?"

           वह बोला "हमने धूप में बाल सफेद नहीं किए । दुनिया देखी है । जो वहाँ एक बार चला गया ,समझ लीजिए दस-बारह बार  जाता है ,तब जाकर लाइसेंस का नवीनीकरण होता है ।"

     मैं उससे क्या कहता ? मैंने कहा "चलो "।दफ्तर में गए । मगर बाबू नहीं था। एक दूसरे सज्जन ने बताया "बाबू आजकल कम आ रहे हैं । आप दोपहर को साढ़े तीन बजे के करीब एक चक्कर लगा लीजिए । शायद मिल जाएँ।" 

           मैंने मूड बिगाड़ कर कहा " यहीं पर कोई होटल का कमरा किराए पर मिल जाए तो मैं यहीं पर रहना शुरू कर दूँ। बार बार क्या घर आऊँ- जाऊँ।"

             वह सज्जन मेरे जवाब को सुनकर क्रोधित हुए । कहने लगे "क्या सरकारी बाबू को और कोई काम नहीं होता ?" सज्जन के तेवर गर्म थे । मजबूर होकर मुझे फिर घर वापस लौटना पड़ा ।

      इसी तरह से बार- बार आने- जाने में छह महीने लग गए। मैं जाता था ,दफ्तर में बाबू से अपने कार्य के बारे में जानकारी लेता था , उसकी आपत्तियों का निराकरण करता था और फिर नए कागज बनाकर उसके पास पहुँचाता था । 

          एक दिन बाबू बोला "आपके कार्यों में  मुख्य आपत्ति  यह पाई गई है  कि आपने निर्धारित प्रपत्र पर  अपना विवरण जमा नहीं किया है  । बाकी चीजें तो सही हैं लेकिन प्रपत्र तो निर्धारित ही होना चाहिए  ।"

           मैंने कहा "निर्धारित प्रपत्र क्या होता है  ? कृपया मुझे  उपलब्ध करा दीजिए ? "

          वह बोला " यह तो छह नंबर वाले बाबू जी की दराज में रखे रहते हैं  । वह फिलहाल छुट्टी पर हैं। आप उनसे मिलकर निर्धारित प्रपत्र ले लीजिए और जमा कर दीजिए । आप का नवीनीकरण हो जाएगा ।" 

         मैंने कई चक्कर काटकर मेज नंबर छह के बाबू को तलाश किया, उससे निर्धारित प्रपत्र मुँहमाँगे दाम पर अपने कब्जे में लिए , लिखा, भरा और संबंधित बाबू को उसके हाथ में देकर आया । पूछा "अब तो नवीनीकरण सर्टिफिकेट दे दो भैया ! "

        उत्तर में वही ढाक के तीन पात रहे। नवीनीकरण नहीं हो कर दिया । उसके बाद से दसियों  बार नवीनीकरण कार्यालय गया लेकिन हर बार यही जवाब मिलता है -" आपके कागजों की उच्च स्तरीय जाँच की जा रही है तथा आपत्तियाँ भेज दी जाएँगी।"

          स्टेटस-रिपोर्ट यह है कि धीरे-धीरे एक साल बीतने लगा है । एक वर्षीय नवीनीकरण शुल्क का एक रुपया सरकार के खाते में मेरे द्वारा जमा हो चुका है । मेरे सैकड़ों रुपए आने- जाने तथा दफ्तर के चक्कर काटने में बर्बाद हो गए हैं । न जाने कितने कार्य-दिवस मैं खर्च कर चुका हूँ। दो जीने उतरते -चढ़ते  अब  जीने की इच्छा ही समाप्त हो चुकी है । अभी तक नवीनीकरण नहीं हुआ ।

 ✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा 

 रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल 9997615451

बुधवार, 7 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य .....फीता काटने की कला


 फीता काटना एक कला है । जब कोई दस-बीस जगह जाकर तरह-तरह के लोगों को फीता काटते हुए देखता है और केवल देखता ही नहीं है, गहराई से उसका निरीक्षण करता है तथा अपना सारा चिंतन फीता काटने में लगा देता है, तब उसे फीता काटने के वास्तविक महात्म्य का पता चलता है । अन्यथा ज्यादातर लोग फीता काटने के लिए जाते हैं और कैंची हाथ में जैसे ही उन्हें पकड़ाई जाती है, वह फीता काट देते हैं । जबकि यह इतनी सरल और सीधी-सादी प्रक्रिया नहीं होती है ।

                 फीता काटने से पहले आदमी को चारों तरफ गर्व से सिर उठाकर देखना चाहिए । एक नजर फीते की ओर, दूसरी नजर चारों तरफ उपस्थित भीड़ की ओर । अगल-बगल-पीछे सब को देखने के बाद उसे कैंची हाथ में लेने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए अर्थात कैंची को बहुत नाजुक तरीके से हाथ में उठाना होता है । इसमें कभी भी अपनी उतावलेपन की भावना को प्रकट नहीं होने देना चाहिए । वरना मामला बिगड़ जाता है । भीतर भले ही कैंची को झटपट प्लेट से उठाकर फीता काटने की ऑंधियॉं चल रही हों, लेकिन व्यक्ति की कलात्मकता इसी में है कि वह मंद मंद मुस्कुराते हुए धीरे-धीरे कैची को प्लेट से उठाए और हल्के-हल्के फीते तक ले जाए।

          बस यहॉं आकर थोड़ा-सा रुकने की जरूरत है । अभी आपको फीता नहीं काटना है। कुछ लोग इसी समय अपना हाथ आपकी कैंची की तरफ बढ़ाने के उत्सुक होंगे । उन्हें जबरन पीछे धकेलने की कला आपको आनी चाहिए । यह बात सुनिश्चित कर लीजिए कि कैंची अकेले आपके हाथों में ही सुशोभित होनी चाहिए। अगर अगल-बगल के दो लोगों ने भी कैंची को स्पर्श कर लिया, तो समझ लीजिए कि आप का श्रेय एक तिहाई रह जाएगा। कल को जब इतिहास लिखा जाएगा, तब फोटो को सबूत के तौर पर कोई भी प्रस्तुत करके यह कह सकता है कि फीता तीन लोगों ने काटा है । तब आप क्या करेंगे ? सिवाय हाथ मलने के कुछ नहीं बचेगा ? 

            इसलिए कैंची को अपने शरीर के बीचो-बीच बिल्कुल सुरक्षित पोजीशन में रखिए । कैमरे की तरफ ध्यान अवश्य दें, लेकिन कैंची को चिंतन की धारा से बाहर न जाने दें। परोक्ष रूप से ध्यान पूर्णतः फीते पर ही रहना चाहिए । जरा सोचिए ! कितने उखाड़-पछाड़ के बाद फीता काटने का सौभाग्य जीवन में आता है ! कितने पापड़ बेले ! कितनी सिफारिशें पड़वाईं ! क्या-क्या सौदे नहीं किए ! न जाने कितने वायदों के बाद फीता काटने की मंजूरी मिल पाती है ! फीता काटने की दौड़ में अनेक प्रतियोगी लगे रहते हैं । एक अनार, सौ बीमार । जिसे फीता काटने का सौभाग्य मिल जाता है, सचमुच अपने आप को धन्य मानता है । दौड़ में एक को ही विजयश्री प्राप्त होती है । बाकी मन-मसोसकर रह जाते हैं कि यह जो फीता काटने का सौभाग्य अमुक को मिला है, काश हमें मिल जाता ! अगर दांव लग जाता तो हम भी फीता काट रहे होते! 

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

मुरादाबाद मण्डल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----अधिकारी की जय हो

 


बिना अधिकारी के मंत्री की क्या मजाल कि एक फाइल भी तैयार करके आगे बढ़ा दे ! जब मंत्री पदभार ग्रहण करता है तब अधिकारी उसे अपने कंधे का सहारा देकर मंत्रालय की कुर्सी  पर बिठाता है । झुक कर प्रणाम करता है और कहता है "माई बाप ! आप जो आदेश करेंगे ,हमारा काम उसका पालन सुनिश्चित करना है ।"

     मंत्री इतनी चमचामय भाषा को सुनकर अपने आप को डोंगा समझने लगता है और इस तरह अधिकारी चमचागिरी करके मंत्री रूपी डोंगे के भीतर तक अपनी पहुँच बना लेता है । 

           मंत्रियों की टोपी का रंग नीला , पीला ,हरा ,लाल बदलता रहता है लेकिन अधिकारी का पूरा शरीर गिरगिटिया रंग का होता है । जो मंत्री की टोपी का रंग होता है, वैसा ही अधिकारी के पूरे शरीर का रंग हो जाता है । पार्टी में दस-बीस साल तक धरना - प्रदर्शन - जिंदाबाद - मुर्दाबाद कहने वाला कार्यकर्ता भी अधिकारी के मुकाबले में नौटंकी नहीं कर सकता । कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा टोपी पहन लेगा लेकिन अधिकारी का तो पूरा शरीर ही टोपी के रंग में रँगा होता है । अधिकारी मंत्री को यह विश्वास दिला देता है कि हम आप की विचारधारा के सच्चे समर्थक हैं और हम आपकी पार्टी को अगले चुनाव में विजय अवश्य दिलाएंगे । 

             मंत्री को क्या पता कि कानून कैसे बनता है ? वह तो केवल फाइल के ऊपर लोक-लुभावने नारे का स्टिकर चिपकाने में रुचि रखता है । भीतर की सारी सामग्री अधिकारी बनाता है । मंत्री के सामने मंत्री के मनवांछित स्टिकर के साथ फाइल प्रस्तुत करता है । इसलिए फाइलों में स्टिकर बदल जाते हैं ,नारे नए गढ़े जाते हैं ,महापुरुषों के चित्रों में फेरबदल हो जाती है लेकिन सभी नियमों का प्रारूप अधिकारियों की मनमानी को पुष्ट करने वाला ही बनता है । अधिकारी अपने बुद्धि चातुर्य से कानून का ऐसा मकड़ी का जाल बनाते हैं कि जनता रूपी ग्राहक उनके पास शरण लेने के लिए आने पर मजबूर हो जाता है और फिर उनकी मनमानियों का शिकार बन ही जाता है। मंत्रियों को तो केवल उस झंडे से मतलब है जो अधिनियम की फाइल के ऊपर लहरा रहा होता है । अधिकारी घाट-घाट का पानी पिए हुए होता है । उसे मालूम है कि यह झंडे -नारे सब बेकार की चीजें हैं । इन में क्या रखा है ? 

      असली चीज है अधिनियम की ड्राफ्टिंग अर्थात प्रारूप को बनाना । उसमें ऐसे प्रावधानों को प्रविष्ट कर देना कि लोग अफसरशाही से तौबा-तौबा कर लें । अधिकारियों की तानाशाही और उनकी मनमानी के सम्मुख दंडवत प्रणाम करने में ही अपनी ख़ैरियत समझें । परिणाम यह होता है कि मंत्री जी समझते हैं कि रामराज्य आ गया ,समाजवाद आ गया ,सर्वहारा की तानाशाही स्थापित हो गई । लेकिन दरअसल राज तो अधिकारी का ही चलता है । अधिनियम में जो घुमावदार मोड़ उसने बना दिए हैं , वहाँ रुक कर अधिकारी को प्रसन्न किए बिना सर्वसाधारण आगे नहीं बढ़ सकता। अधिकारी इस देश का सत्य है । मंत्री अधिक से अधिक अर्ध-सत्य है । अर्धसत्य फाइल का कवर है । सत्य फाइल के भीतर की सामग्री है ,जो अंततः विजयी होती है । इसी को "सत्यमेव जयते" कहते हैं ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

 रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल 99976 15451