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रविवार, 7 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... पृथ्वीलोक क्यों जाना चाहते हो पितृ..?

 


-सर। हमारे श्राद्ध आ रहे हैं। हम ही नहीं होंगे तो श्राद्ध कैसे होंगे?

मतलब क्या है? सीधे सीधे बोलो।

-सर। हम पृथ्वीलोक जाना चाहते हैं। 15 दिन की ही तो बात है। आ जाएंगे।

पृथ्वीलोक क्यों जाना चाहते हो? यहां अब कुछ तो है! 

-यह बात नहीं सर। आपकी कृपा से सब कुछ है। लेकिन पृथ्वी लोक तो पृथ्वी लोक है।

अगर हम यहीं से सब दिखा दें तो..?

-दिखा दीजिए। लेकिन हम जाना चाहते हैं। 

वहां ऐसा है क्या, जो जाना चाहते हो? नारद जी का भी यहां मन नहीं लगता?

-सर। आपको नहीं पता। वहां बहुत सुविधाएं हैं। 

कैसे? 

-सर। हम सीनियर सिटीजन होकर मरे या यमराज जबरदस्ती ले आए। मरे न आखिर।

हां

-वहां वाईफाई है। चैनल हैं। चैलेंज हैं। तकरार है। प्यार है। इजहार है। दुत्कार है। राजनीति है। 

यह क्या अच्छी बात है?

-न हो। मन तो लगता है वहां। टीवी पर संसद देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। 

हां। मैने भी देखा। लोग मेरे नाम पर दुकान चला रहे हैं। लेकिन हे पितृ! तुमको वहां अब कुछ नहीं मिलेगा। तुम निष्प्राण हो।

-यह सब भी आपकी कृपा से है। हम कोई अपने आप मरे?

नहीं। तुमको दुनिया ने मारा। अपनों ने मारा। तुम्हारा सब कुछ हजम कर गए।

-सर जी। बातों में मत उलझाओ। जाने दो।

ठीक है। जाओ। मगर हालात बदल गए हैं। 

तुम खुद देख लेना। तुमको काले तिल, दूध और पानी भी नहीं मिलेगा? तर्पण भूल गए हैं लोग।

-ऐसा नहीं होगा। मेरे अपने ऐसा नहीं कर सकते।

और सुनो। कुत्तों को पूरी सड़क पर खिला नहीं सकते। कोर्ट का ऑर्डर है। कौए गायब हो चुके हैं। गाय ? नारायण की आंखों में आंसू आ गए।

-सर जी। प्लीज जाने दो। इमोशनल न करो।

ठीक है। जाओ। 


सीन 2

पितृ पृथ्वी लोक में आ गए। लेकिन यह क्या? सब कुछ वैसा ही चल रहा है। कोई हमको याद नहीं कर रहा। कहीं श्राद्ध हो रहा है। ज्यादातर नहीं। सब बिजी हैं। कहते हैं, पितृ अमावस्या पर कर देंगे ! 

मेरे अपनों ने पंडित जी को बोल दिया..आपको पेमेंट कर देंगे। आप कर देना।किसी ने बरसी पर सब निबटा दिया।

मेरे अपनों को यह भी नहीं पता, मेरी मोक्ष तिथि क्या है? 

नारायण! आपने सच कहा। दुनिया बदल चुकी है। परदादा, परनाना के नाम की क्या कहें? दादा नाना के नाम लोगों को याद नहीं। इनको जीएसटी की छूट याद है। हमारी नहीं।

सब संस्कारों का तर्पण कर चुके हैं। ॐ शांति।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य.....कल्लू के बाल और सवाल

 


गांव में सर्वे हुआ। कितने बच्चे पढ़ना चाहते हैं। बीस बच्चे निकले। यह कम थे। फिर सर्वे हुआ। अबकी बार 18 निकले। दो घट गए। फिर सर्वे हुआ...बच्चे क्यों घट रहे हैं। स्कूल है। इमारत है। मास्टर हैं। बच्चे क्यों नहीं आ रहे। मास्टर पांच थे। बच्चे 18..। कोटा दिया। हर मास्टर पांच बच्चे लेकर आए। फिर सर्वे हुआ..बच्चे चाहते नहीं या अंदर से इच्छा शक्ति नहीं है।  पता लगा..पहले चाहते थे। अब नहीं चाहते। माथा ठनका। इसका मतलब..पढ़ाई ठीक नहीं। मास्टर जी का टेस्ट लो। 

अब मास्टर जी टेस्ट दे रहे हैं। बच्चों को फिर भी "टेस्ट" नहीं आ रहा। पहले मुर्गा बनते थे। अब खुद मुर्गा बन रहे हैं। गांव का कल्लू बहुत होशियार था। हर सवाल का जवाब देना उसके बाएं हाथ का खेल था। गांव के स्कूल में निरीक्षण हुआ। कल्लू से पूछा गया..कौन सी ऐसी चीज है जो रहती तो वही है लेकिन उसका स्थान बदलते ही नाम चेंज हो जाता है। कल्लू उस्ताद बताते गए। सिर के बाल। कान के बाल। नाक के बाल। पलकों के बाल। बगल के बाल। सीने के बाल। कल्लू कुछ और बोलता। निरीक्षक ने रोक दिया। स्कूल पास। पहली शिक्षक पात्रता परीक्षा मास्टर जी ने पास कर ली।

मास्टर जी ने कल्लू को बुलाया। "सुन। मैं तो तुझको उल्लू समझता था। यह तूने तो कमाल कर दिया ? "

कल्लू बोला..मास्टर जी! छोटी सी तो बात थी। कह दी।

बाल में से बाल निकल सकता है तो खाल क्यों नहीं निकल सकती ? कुछ दिन बाद कल्लू के मास्टर जी, हेड मास्टर हो गए। कल्लू बोला..आपकी किस्मत ही खराब है। मुझे और बोलने देते तो आज प्रिंसिपल होते।

शिक्षक। निरीक्षण। स्कूल। ये 19 का पहाड़ा है। अच्छी तरह याद नहीं होता। कल्लू बड़ा होकर इंटर कॉलेज में गया। वहां कोई निरीक्षण नहीं था। कोई पहाड़ा नहीं पूछता था।

बोर्ड की परीक्षा थी। गारंटी थी..फेल तू होगा नहीं। कल्लू 99% से टॉपर। कल्लू यूनिवर्सिटी पहुंचा। सज धज कर। उसको तो अपना प्राइमरी स्कूल याद था। 

गेट पर ही उसके मुंह से निकला.. वाह। उसको बताया गया। यहां आने जाने की पूरी छूट है। आओ चाहे ना आओ। निरीक्षण की टेंशन मत लो। बड़े लेवल के निरीक्षण होते हैं। सब मैनेज हो जाते हैं। 

कल्लू बचपन से मास्टर बनना चाहता था। दिक्कत दो थी। एक वो गांव का था। दूसरे उसके बालों से सरसों का तेल निकलता था। कल्लू होनहार था। उसने बहुत डिग्री ले ली।  लेकिन कल्लू पात्र नहीं था। उसको उसके बाल वाले मास्टर जी ने सलाह दी..टीईटी करनी होगी। 

कल्लू की क्वालिफिकेशन इससे ज्यादा थी। उसने गूगल बाबा से पूछा..शिक्षक कैसे बनें? गूगल बाबा ने लिस्ट थमा दी...ये करो। वो करो।

कल्लू ने फिर पूछा..शिक्षक बनने के लिए क्या जरूरी है। जवाब मिला...मेहनत, ईमानदारी, आत्म विश्वास, समर्पण। आप युग निर्माता है।

कल्लू तो कल्लू था। समझ गया। मुर्गा बनाया जा रहा है। जब टीईटी करानी थी तो बीएड क्यों कराया ? मास्टरों की योग्यता कौन मापेगा ? बहरहाल। गूगल बाबा के रस्ते पर चलकरकल्लू की नौकरी लग गई। अब वह डेली हनुमान चालीसा का पाठ करता है। आते जाते हर वक्त वही रटता है... भूत पिशाच निकट नहीं  आवे...संकट कटे मिटे सब पीरा। 

कल्लू की सैलरी अच्छी थी। बस आराम नहीं था। टेंशन बहुत थी। यह करो। वो करो। कभी यह भरो। कभी वह भरो। यह चुनाव कराओ। वो कराओ। 

कल्लू को अपने जीवन का पहला सवाल याद आ गया.. वही कौन सी ऐसी चीज है..जो स्थान  बदलने पर नाम बदल देती है लेकिन रहती वही है। तब उसने बाल बताया था। आज उसके मुंह से निकला..मास्टर।

प्राइमरी स्कूल में मास्टर, गुरुकुल में गुरु, माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक या अध्यापक, डिग्री कॉलेज में टीचर, असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रोफेसर, डीन आदि आदि। कल्लू बोला..एक शिक्षक...इतने सारे नाम। 

समय बदलते देर नहीं लगती। कुछ दिन पहले कल्लू ने प्रियंका चोपड़ा का इंटरव्यू पढ़ा। कैसे वो काली थी। लोग उसे चिढ़ाते थे। फिर कैसे वो सुंदरी बन गई। बॉलीवुड हॉलीवुड पर छा गई। कल्लू राजनीति में आ गया। कल्लू जान गया...बेंत, स्टूल, सीट, मुर्गा का दौर गया। मुर्गा बनना नहीं, बनाना है। मुर्गा जब मटन हो सकता है। तो कल्लू "केएल" क्यों नहीं हो सकता? कल्लू के अब कई कॉलेज और प्राइवेट यूनिवर्सिटी है। वह कुलाधिपति है। 

कल्लू के बालों से अब सरसों का तेल नहीं निकलता।  कल्लू के दो बच्चे हैं। स्कूल जाते हैं। पीटीए होती है। उसकी मम्मी पीटीए में झगड़कर आ जाती है।" टीचर को कुछ नहीं आता। बताओ, कोई बात हुई ...मासूम से बच्चे को डांट दिया।"

कल्लू को अपनी पुरानी बेंत याद आ गई। जिसने कल्लू को केएल बनाया। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... गड़ा मुर्दा उखड़ गया..जी!

 


मुर्दा जब गड़ गया। फिर उसको उखाड़ने की क्या जरूरत थी। इसके पीछे दो कारण होंगे। पोस्ट मार्टम न कराया हो। या ठीक से न गड़ा हो। पोस्ट मार्टम पहले होता नहीं था। सो, पहली बात गलत है। ठीक से न गड़ा हो?  यह हो नहीं सकता। हजारों लोग जनाजे में थे। सबने चेक किया था। फिर गड़ा मुर्दा बाहर आया तो कैसे आया? शायद उसको कोई बात बुरी लगी होगी। किसी ने गाली दी होगी। मुर्दे को बदला लेना होगा। कोई अंतिम इच्छा पूरी न हुई हो। लोग कफन डाल गए। उसको ठंड लग रही हो। वगैरह वगैरह। 

जब मुहावरा बना होगा। मुर्दा उखड़ा होगा। वरना...? मुहावरे के महान रचयिता को क्या पता.. मुर्दा उखड़ा। उस वक्त चैनल होते तो ब्रेकिंग न्यूज होती। बेचारा मुर्दा। कितनी बड़ी अपॉर्च्युनिटी मिस कर गया। 

मुर्दा उखड़े न उखड़े। एक दिन उखड़ता जरूर है। क्या मुर्दे की तरह पड़ा है? मुर्दे में जान आ गई? क्यों मुर्दे को गाली देते हो? वो चाहे तो मुर्दे में भी जान डाल दे। देखो..मुर्दा अकड़ गया। चिता बहुत "अच्छी जली"। मुर्दे ने जरा भी तंग नहीं किया। आराम से जल गई। ये..ऊंची लपटें! एक मुर्दा, सौ रूप।

हम बिस्तर पर पड़े थे। अम्मा आई...क्या मुर्दे की तरह पड़ा है, कुछ करता धरता क्यों नहीं? अब अम्मा को कौन कहे..हम दुनिया का सबसे नेक काम कर रहे हैं... रील्स देख रहे हैं। 

मुर्दे की बात छोड़ो। यह वाइड डिस्कशन का विषय है। उखाड़ने और उखड़ने पर आते हैं। यह एक आर्ट है। यह हर किसी को नहीं आती। किसी को उखाड़ना आसान भी नहीं होता। बड़ा आदमी कभी नहीं उखड़ता। किसी की हिम्मत भी नहीं जो उसको उखाड़ दे।

 इसको उदाहरण के साथ समझिए। कवि सम्मेलन में जमता कौन है? बड़ा कवि। उखड़ता कौन है? छोटा कवि या विरोधी कवि। क्यों? बड़े कवि ने संचालक को देखा। कनखियों में बात हुई। मकसद साफ। बहुत तैश खाता है। अपने को उस्ताद समझता है...उखाड़ दो। बस शतरंज की चौपाल बिछ गई। सबसे पहले उसको खड़ा कर दिया। निबट गया। वीर रस के बाद असहाय रस डाल दिया। निबट गया। संचालक इसमें निपुण होता है। उसको पता  है,  कब किसको क्यों और कैसे उखाड़ना है। 

हम सब जीवन के कवि सम्मेलन में हैं। रोज यही करते हैं। हमारे मन का मुर्दा उखड़ कर हमसे पूछता है..क्या हुआ? वो उखड़ा क्या ? नहीं उखड़ा तो? हम जमेंगे कैसे?  कुछ करो। कुछ उखाड़ो।

लगता है, यहीं से पोस्ट मार्टम की नींव पड़ी। पीएम रिपोर्ट बताती है..मुर्दा क्यों गड़ा और क्यों उखड़ा ? वह मरा तो क्यों मरा? 

गड़े मुर्दे उखाड़ना समय, काल, परिस्थितियों और सियासत के लिए जरूरी है। वो क्या है न...इससे पुरानी बातें रिकॉल हो जाती हैं। याद बनी रहनी चाहिए। मुर्दा  और वोट दोनों बाहर। 

पितृ पक्ष आ रहा है जी। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

बुधवार, 3 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... बत्ती चली गई


बत्ती कभी भी जा सकती है। बत्ती जाना और बत्ती निकालना दोनों का ही महत्व है। बत्ती के कई रूप हैं। वह वीआईपी में पावर है। पावर ऑफ एनर्जी। मध्यम वर्ग में बिजली। निम्न आय वर्ग में बत्ती। उच्च शुद्ध समुदाय में विद्युत।

विद्युत आ गई। विद्युत चली गई। इस जैसे मुहावरे को सिर्फ बिजली विभाग समझता है। इसका सामाजिक महत्व नहीं है। बहुत सी चीजें चलन से बाहर हुईं हैं। इसमें विद्युत भी है। जिन चीजों से करंट लगे या आउट डेटेड हों उनको चलन से बाहर कर देना चाहिए यथा घूंघट, चुनरी, चरण स्पर्श आदि। 

शर्मा जी की बिजली चली गई (गलत मत सोचो, घर की लाइट चली गई। पत्नी घर में ही है)। शर्मा जी ने हेल्प लाइन नंबर पर फोन किया। वो सर्विस से बाहर था। बिजली घर फोन किया। नहीं मिला। टू टू की आवाज आती रही। शर्मा जी भी थके नहीं। बिजली आए या न आए...आज बिजली वालों का फोन उठाकर ही मानूंगा।

तीन घंटे हो गए। टू टू होती रही। अरे....मुबारक हो....उठ गया। 

बिजली कब आएगी? शर्मा जी ने पूछा।

"अच्छा। लाइट। ऊपर से गई है। फोन कट।"

शर्मा जी छत पर गए। बिजली वाले झूठ क्यों बोलेंगे? ऊपर से ही गई होगी। चारों तरफ अंधेरा। अंधेर नगरी चौपट राजा। कुछ देर बाद लाइट आ गई। फिर चली गई। 

बिजली जाना कोई खबर नहीं है। बिजली आना खबर है। रोज रोज की दिक्कत। शर्मा जी ने सोचा...बिजली कटवा दूं। पीडी ( परमानेंट डिस्कनेक्शन) हो जाएगा तो सोलर लगवा लूंगा।

"आप पीडी क्यों कराना चाहते हैं।"

लाइट नहीं आती।

"तो इसमें पीडी की क्या जरूरत। पत्नी मायके चली जाए तो क्या उसे छोड़ देंगे?"

नहीं साब। हमको बिजली चाहिए ही नहीं।

ठीक है। यह फॉर्म भर दो। जेई चेक करेगा। कटनी चाहिए या नहीं। ( जेई वो प्राणी है जो हर जगह पाया जाता है। नाना रूप धरे ये जेई।)

कई बार फोन करने पर जेई शुभ मुहूर्त में आया। मुस्कुराया। मलाई के कोफ्ते के मानिंद नमस्कार किया। शर्मा जी को अंकल कहा। "अंकल जी, काम हो जाएगा। आजकल बहुत दिक्कत हो रही है। सब परेशान हैं। हम और भी परेशान हैं। कोई बिजली ठीक करने को नहीं कहता। सबको कटवानी है।"

"अंकल जी। आपका बिल तो बहुत आरा होगा?"

अरे भाई। हम दो ही तो प्राणी हैं। बच्चे बाहर हैं।  100 यूनिट भी नहीं आती।

"ऐसा क्यों अंकल! ( इस बार उसने जी नहीं लगाया। समझ गया। मुर्गी फंस गई।) 

आपके एसी है? पंखा है? फ्रिज है? टीवी है? फिर भी 100 यूनिट।"

शर्मा जी देखते रह गए। जेई ने मीटर शंट की रिपोर्ट दे दी। एक लाख की। जुर्माना लग गया।

"छी छी छी। सुना तुमने। शर्मा जी के यहां छापा पड़ा! बिजली चोरी पकड़ी गई।" पड़ोसी ने कहा।

दूसरा पड़ोसी-"वही तो मैं कहूं, अंकल आंटी कई इतनी बिजली फूंक रहे थे।"

शर्मा जी ने ऊपर कंप्लेंट की। गुरुत्वाकर्षण का  नियम है। ऊपर फेंकी चीज नीचे आती है। वहीं हुआ। दन दनादन फोन तो बहुत आए। जांच जेई पर ही आ गई। 

"शर्मा जी! ( अब अंकल भी नहीं बोला) ! आपने शिकायत की थी। बताइए, क्या कहना है?"

भैया! हमको कुछ नहीं कहना। शर्मा जी ने जैकेट में से पेंशन के रुपए निकाले। पांच सौ रुपए थमाए। 

"अंकल जी। अब बात ऊपर पहुंच गई है। अब तो...! " शर्मा जी जेब हल्की करते गए। बात बिजली गुल से शुरू हुई थी। कहां पहुंच गई। दीमक कभी घर छोड़ती है? नहीं न। बिजली आ रही है तो भगवान का धन्यवाद दीजिए। चली जाए तो धन्यवाद दीजिए। यह व्यवस्था है। इसका कुछ नहीं होने वाला। फ्यूज बल्ब कभी रोशनी नहीं देते।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

रविवार, 31 अगस्त 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... खूब चढ़ी कढ़ाई


खूब चढ़ी कढ़ाई में आपका स्वागत है। आज हम आपको बिल्कुल नई रेसिपी बताते है। पहले भी यह मार्केट में आई थी। तब से यह मार्केट में है। रिस्पॉन्स अच्छा है।  रेसिपी में बदलाव करते रहना चाहिए। इससे डिमांड बनी रहती है। रेसिपी टेस्टी होती है।


रेसिपी स्टेप-1

आपको बाहर से कोई आइटम नहीं मंगवाना। हम घर के आइटम से ही रेसिपी बनाएंगे। मेड इन इंडिया। यह वीडियो बनाने तक हम 140 करोड़ हैं। जब तक रेसिपी तैयार होगी। बढ़ सकते हैं। तो आइए, रेसिपी तैयार करते हैं। 

स्टेप 2

एक नई कढ़ाई लीजिए। आपके पास नई न हो तो पुरानी भी ले सकते हैं। लेकिन इसमें वोट चोरी का अंदेशा होता है। आपके घर में एक थाली होगी। एक चम्मच होगी। उसको बजाइए। ठीक वैसे ही जैसे कोरोना में बजाई थी। यह काम घर के अंदर मत कीजिए। आप अपनी बालकनी में आ जाइए। फिर बजाइए। जितने बर्तन बजेंगे, सेहत के लिए अच्छा होगा। पड़ोस को पता होना चाहिए कि किस घर में बर्तन बज रहे हैं। इससे दो लाभ होंगे। पड़ोस में बर्तन खटकेंगे। नंबर दो.. तांक झांक बंद हो जाएगी। 

स्टेप 3 

अब थाली को लेकर किचिन में आ जाइए। गैस जलाइए।  कढ़ाई लीजिए। अभी एक नंबर पर ही जलाइए क्यों कि सिलेंडर महंगा है। अब उसमें थोड़ा सा घी डालिए। घी जल जाए तो कोई बात नहीं, दुबारा डालिए। आग में जितना घी डालोगे, रेसिपी उतनी टेस्टी बनेगी।

स्टेप 4

आपके पास बासी मलाई होगी। ताजी हो तो भी चलेगी। ताजी मलाई में स्वाद नहीं आता। बासी मलाई को अच्छी तरह फेंट लें। 

अब एक लौकी ले। चाकू लें। चाकू तेज होना चाहिए। आजकल चाकू तेज नहीं आते। अब हम चाकू से लौकी की ऊपर की हरी परत उतारेंगे। यह दो मिनट में उतर जाती है। किसी की भी उतारनी हो, दो मिनट ही लगते है। गोल गोल पीस कर लीजिए। लीजिए लौकी कट गई। 

कटने में टाइम नहीं लगता है।  बनने में देर लगती है। खाने में दो मिनट लगते हैं। 

स्टेप 5

अब लौकी को ऐसे ही रहने दें। एक कटोरे में एक चम्मच जीरा, एक चम्मच अजवाइन, कड़ी पत्ता, थोड़ी सी हल्दी लीजिए। लौकी को इस मसाले में मिक्सड कीजिए। अब महीन महीन राजनीतिक मुद्दों की तरह प्याज काटिए। प्याज जितनी महीन होगी उतने ही लोग कहेंगे वाह। 

लौकी को घी या तेल में फ्राई कर ले। फ्राई हल्के हल्के कीजिए। मसाला मिक्सड कर लीजिए। अब कढ़ाई में फ्राई कीजिए। मुद्दे बाहर आ जाएंगे।

स्टेप 6

लीजिए। रेसिपी तैयार हो गई। अब लौकी पर दही डालिए। और झट से सर्व कर दीजिए। एक बात और। लौकी खाने के दो फायदे हैं। पेट दुरुस्त होता है। हाजमा ऐसा कि ईडी को भी पता नहीं चलता। नंबर दो, लौकी से भाग्य बनता है। कारोबार फैलता है ।

मिसेज शर्मा जी ने पूछा.. आंटी जी मलाई का क्या करें ? 

"उसका कुछ नहीं करना। और बासी होने दीजिए। विपक्ष के काम आयेगी। "

लौकी को फ्राई कितनी गैस पर करें? एक नंबर पर?

"ओह नो। फ्लेम तेज कर दें। जब तक आग नहीं भड़केगी, लौकी नहीं गलेगी।"

मिसेज शर्मा ने दही की जगह बासी मलाई मिलाई और  मिस्टर शर्मा जी को परोस दी। 

याद रखिए, हर रेसिपी लोकतंत्र का हिस्सा है। घर और राजनीति में कोई चीज बेकार नहीं जाती। घर की रसोई में पड़ी पन्नियां कभी न कभी काम आ जाती हैं। पन्नियां वो राजनीतिक दल हैं जिनकी बड़े दलों को कभी न कभी जरूरत पड़ती ही है।

मिलते हैं, अगली रेसिपी पर। देखते रहिए - खूब चढ़ी कढ़ाई। यह रेसिपी अच्छी लगी हो तो चैनल को सब्सक्राइब करें। लाइक करें। शेयर करें। 

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


31.08.2025

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल की व्यंग्य कहानी .....दीक्षा-गाथा । व्यंग्य संग्रह बाबू झोलानाथ(1994) और गिरिराज शरण अग्रवाल रचनावली खंड 8 (व्यंग्य समग्र –एक) में संकलित यह व्यंग्य कहानी मुंबई के श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विश्वविद्यालय (एसएनडीटी) के स्नातक तृतीय वर्ष के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की गई है।

 




उस दिन वे मिले तो मधु घोलते हुए। 

तपाक से हाथ मिलाया, हाल-चाल पूछा, घर-गृहस्थी की चर्चा की। मैंने सोचा, चलो कोई तो आत्मीयता दिखाने वाला मिला। नई जगह पर परिचित व्यक्ति जरूरी होता है।

जब मैंने डिपार्टमेंट में प्रवेश किया तो किसी तेज तंबाकू की सुगंध मेरे नथुनों में जबरदस्ती घुसने की जिद करने लगी। मेरी निगाह उसी ओर घूम गई।

पतली मोरी की पैंट पर खद्दर की कमीज धारण किए हुए एक महाशय बनारसी स्टाइल में बीड़ा चबा रहे थे। लगता था कि इसके साथ ही वे सारे परिवेश को पीने की ख़ास कोशिश कर रहे थे।

नमस्कार-निवेदन के बाद मैंने अपना परिचय दिया तो वे चहक उठे,‘वाह, वाह आप ही हैं। आइए-आइए, बैठिए-बैठिए। बड़ी ख़ुशी हुई आपके आने पर। एक साथी बढ़ गया।’

उनके वार्तालाप से ही पता चल गया कि वे भी यहीं की तोड़ रहे हैं और मुझसे सीनियर है।

मैं नतमस्तक हो गया।

बोले,‘कोई परेशानी हो तो बताइएगा। मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?’और इसके साथ ही उन्होंने विद्यालय के संपूर्ण भूगोल, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र पर सेवापूर्व दीक्षा-भाषण दे डाला। दीक्षांत भाषण तो मैंने डिग्री लेते हुए कई बार अनमने मन से सुने थे, किंतु इस भाषण को पता नहीं क्यों, ध्यानपूर्वक सुनता रहा।

दीक्षांत समारोह के विशाल पंडाल में जगमगाती हुई रोशनी से दिया जाने वाला औपचारिक भाषण मुझे सदैव उबाता रहा है। वही औपचारिक शपथ बी॰ए॰ से लेकर पी-एच॰डी॰ की डिग्री तक बार-बार दुहराता रहा और फिर सम्मानित मुख्य अतिथि का लिखा भाषण, जिसकी छपी प्रतियाँ पहले भी बँट जाती थीं, बड़ा बोर करता था। लगता था कि इसका जीवन से कहीं से कहीं तक संबंध नहीं है और प्रायः मैं पंडाल में औपचारिकता निभाने के ख़याल से ही बैठा रहता था, अन्यथा मन तो भविष्य के सपने सजाने में सोने की तैयारी में लगा रहता था।

किंतु पता नहीं इस भाषण में क्या आकर्षण था कि मंत्रमुग्ध-सा सुनता रहा। अब मैं धनुषाकार हो गया था। यदि वहाँ जगह होती तो साष्टांग करने की इच्छा पूरी कर लेता। इतने में ही किसी दूसरे विभाग के प्राध्यापक भी वहाँ आ गए थे। इसलिए यह अवसर मेरे हाथ से निकल गया। तभी मन ने कहा-‘अच्छा ही हुआ। पहली भेंट में इतना ही काफ़ी है।’

वे दोनों काफ़ी देर तक विद्यालय का भूगोल डिस्कस करते रहे। समाजशास्त्र में चलती हुई गाड़ी राजनीति के स्टेशन पर आकर सीटी देने लगी। अभी तक मैं निस्पृह भाव से आगे की सोच रहा था, किंतु अब मेरे कान भी खड़े हो गए। मैंने पहली बार समझा कि भूगोल और समाज से बचकर निकला जा सकता है, किंतु राजनीति के दरवाजे ऑटोमेटिक हैं और इनमें भारी पावर का चुंबक भी लगा है। ये हमारे तन-मन को अपनी ओर खींचकर एकदम बंद हो जाते हैं। बचो बच्चू! कैसे बचोगे?

मुझे एहसास हुआ कि नुक्कड़वाले की चाय की दुकान से लेकर कालेज की कैंटीन तक सभी राजनीतिज्ञ हैं। जो इससे अलग है, वह संसार का सबसे व्यर्थ व्यक्ति है। अपने अस्तित्व के लिए किसी के साथ जुड़ना और किसी से कटना जरूरी है। बीच में नहीं रह सकते। होता होगा मध्यम मार्ग। चलते होंगे साधक उन पर भी, किंतु अब तो राजनीति की मोटर आपको घायल करती हुई निकल जाएगी। फिर तो पोस्टमार्टम के लिए भी पुलिस ही उठाएगी। भीड़ तो अपने रास्ते निकल जाती है।

मन में कैसी-कैसी कड़वाहट भर गई। मैं बड़ी घुटन-सी महसूस कर रहा था। पंखे की खर्र-खर्र में भी मेरी साँस मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी। मुझसे वहाँ न रुका गया। मैं वहाँ से उठ आया।

एक सप्ताह बीत गया। एक कहावत है-नया मुल्ला अल्ला-अल्ला पुकारता है। मैं छात्रों पर अपना प्रथम प्रभाव डालने में व्यस्त था। पता नहीं छात्रों को एक ही बार पंडित बनाने का भूत क्यों सवार हुआ?(अब तो मैं स्वयं भूत बन चुका हूँ) मुझे इस बात का भी ध्यान न रहा कि विद्यालय में प्राचार्य नाम का भी जीव रहता है और कभी-कभी उसके दर्शन करने अनिवार्य हैं। भगवान की एक क्वालिटी के विषय में मैं सदैव से आश्वस्त रहा हूँ कि तुम उसे भले ही याद न करो, वह तुम्हें अवश्य याद कर लेता है।

लायब्रेरी के एक कोने में कुर्सी पर आसीन मुझको किसी की आवाज ने चौंका दिया। गर्दन उठाई तो मेरे सामने चपरासी रूपी देवदूत (यमदूत भी कह सकते हैं।) एक कागज लिए हुए खड़ा था। अबू बेन ऐदम के समान मैं उससे उस लिस्ट के विषय में पूछने ही वाला था कि ‘हे देवदूत, इस पर किनके नाम लिखे हैं? क्या तुम भी अच्छे आदमियों के नाम नोट कर रहे हो?’ पर कुछ सोचकर रुक गया।

उसने अपनी स्वाभाविक वक्रता के साथ पूछा,‘आप ही अग्रवाल साब हैं?’ कहना तो चाहता था कि मिस्टर, तुम्हें बंदर या लंगूर दिखाई दे रहा हूँ? किंतु अपने चेहरे का ख़याल करके चुप रह गया। फिर इस चपरासी नामक जाति का बहुत नहीं तो थोड़ा-बहुत अनुभव अवश्य है, यह विशिष्ट प्राणी अपने को सबका बॉस समझता है।

एक बार की बात है। मैं इंटर में पढ़ता था। जाड़ों के दिन थे। प्रधानाचार्य महोदय धूप में बैठे चारों ओर का निरीक्षण कर रहे थे। वे अपने पास दूसरी कुर्सी रखना अपना अपमान समझते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति उनके पास आकर खड़े-खड़े बात करे। चांस की बात, उनका साला विद्यालय में ही चला आया। उन्होंने चपरासी को कुर्सी लाने के लिए आवाज लगाई। मंगू ने खचेडू को खचेडू ने कूड़ेसिंह और कूड़ेसिंह ने कल्लू को कुर्सी लाने का आदेश दिया और शांति के साथ अपने-अपने स्थान पर खड़े रहे। चारों ओर ‘कुर्सी-कुर्सी’ का शोर मच गया,किंतु कुर्सी न आई।

ऐसा सोचकर मैंने कहा,‘कहिए, क्या काम है?’

‘आपको प्रिंसिपल साब ने याद किया है।’ वह गंभीरता के साथ बोला।

‘कोई विशेष बात है?’ मैंने सवाल किया।

‘उनसे ही पूछिए।’ मानो वह प्रिंसिपल नहीं तो उन जैसा ही कुछ हो।

मुझे याद आया। मैंने अभी तक उनके आफ़िस के द्वार पर सिजदा नहीं किया है। एक फुरहरी-सी मेरे शरीर में दौड़ गई। जैसे किसी ने बर्फ़ का एक टुकड़ा मेरे कॉलर में डाल दिया हो।

प्राचार्य के आफ़िस में पूछकर जाने का रिवाज था। हड़बड़ी में मैं इस रिवाज का ध्यान न रख पाया। छात्रें को इस सांस्कृतिक कार्यक्रम से छूट मिली हुई थी। प्रिंसिपल साहब ने बिना मुँह उठाए पूछा, ‘कहो-कहो, क्या काम है? एप्लीकेशन लाए होगे। लाओ-लाओ।’ मैं मन-ही-मन ख़ुश हुआ कि हमारा प्राचार्य बड़ा दयालु और मिष्टभाषी है।

मैंने कहा,‘सर, मैं कोई एप्लीकेशन नहीं लाया। आपने---।’

नीचे कागज पर दृष्टि गड़ाए हुए ही उन्होंने कहा,‘क्या, क्या कहा, मैंने क्या?’

‘सर, आपने मुझे बुलाया था। मेरा नाम अग्रवाल। हिंदी विभाग में।’

प्राचार्य की मुखमुद्रा बदली होगी, उस पर सिलवटें भी पड़ी होंगी, मुँह पर कसैलापन भी उभरा होगा, दृष्टि भी वक्र हुई होगी, मुझे नहीं पता। मेरी दृष्टि तो नीचे की ओर थी। मैंने तो केवल इतना ही सुना, ‘ठीक है, ठीक है। किंतु आपको पता है, मैं एक जरूरी काम कर रहा हूँ। आपको प्राचार्य के पास आने के मैनर्स भी पता नहीं? महोदय, आगे से ध्यान रखिएगा। आप जा सकते हैं।’

मैं सर पर पैर रखकर भागा। मुझे फिर अहसास हुआ कि टुकड़ा डालने वाला रोब दिखाता ही है। चाहे छात्र हो अथवा प्राचार्य। यह अपनी-अपनी शक्ति पर निर्भर है कि हाथ से छीन भी लो और गुर्राओं भी अथवा पूँछ हिलाते हुए तलुवे चाटा करो।

मेरा मुँह एक बार फिर कड़वा हो गया।

पंद्रह दिन बीत गए। कोई हलचल नहीं हुई।

सारा कार्यक्रम बख़ैरियत चलता रहा। कभी-कभी अपने सीनियर मित्र से सलाह-मशवरा लेना अपना धर्म समझता था। उनकी वरीयता इस बात की डिमांड भी करती थी कि मैं बार-बार अपने जूनियर होने का भरोसा दिलाता रहूँ। मन को यह कहकर दिलासा दिलाता-‘फिक्र न करो, तुम्हारा क्या जाता है। चुप रहो, बोलना और मुँह खोलना अपने पाँव में ख़ुद कुल्हाड़ी मारना है।’ दिल ही तो था, कोई छात्र तो नहीं, इस नाजायज दबाव को मान लेता।


क्लासरूम में घुसा और हाजिरी रजिस्टर की पूँछ काटनी शुरू की। कितना उबाऊ काम है हाजिरी लेना। पचास सिंह और पच्चीस पुरुषवाचक रानियों की सूची का हनुमान चालीसा रोज पढ़ना पड़ता है। इस छात्र-स्वतंत्रता के युग में जेलर की हाजिरी परेड का औचित्य ही क्या है?‘न आने वालों’ को कौन बुला सकता है और जानेवालों को कौन रोक सकता है? है किसी में हिम्मत उनको परीक्षा में बैठने से रोक सके। इतना सोचते-सोचते रजिस्टर बंद कर दिया। आखि़री नाम जो आ गया था।

व्याकरण भी क्या बला है? छात्रों के सिर पर तलवार-सी लटकती रहती है। दुर्भाग्य से मैं इसकी राह का राहगीर बना दिया गया हूँ। मेरा वश चलता तो अपनी टाँग तोड़े पड़ा रहता। वह तो भविष्य का ख़्याल करके चुप रह जाता हूँ।

मेरे खड़े होते ही एक छात्र ने सवाल किया,‘सर आपने कहा था ‘निर’ उपसर्ग जिस शब्द में लग जाता है, उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है जैसे निर्दोष, जिसमें दोष न हो, निर्बल जिसमें बल न हो, निरंकुश जिस पर अंकुश न हो।’

बात ठीक थी माननी पड़ी।

फिर सर,‘निर्माता’ का अर्थ क्या हुआ?

मेरे बोलने से पहले ही एक दूसरा छात्र बोल पड़ा,‘जिसके माता न हो, सर।’

क्लासरूम में हँसी का बम बिस्फोट हो चुका था और मैं घुग्घू की भाँति सबको टाप रहा था। सारी व्याकरण धरी रह गई। लगा सैकड़ों गधे एक साथ मेरे कानों पर रेंक रहे हों।

विषय से हटकर मैं समाज की चर्चा करने लगा। मुझे सबके भविष्य की चिता एक साथ सताने लगी। देर तक उनकी सफलता के गुर बताता रहा। परीक्षा से फैलती-फैलती दीक्षा-गाथा जीवन और जगत् तक पहुँच गई।

मुझे एक अहसास हुआ कि असफलता व्यक्ति को दार्शनिक बना देती है और मैं दुनिया-भर के दार्शनिकों की जीवन-कथाओं को दोहराने लगा था। 

✍️ डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल 

ए 402, पार्क व्यू सिटी 2

सोहना रोड, गुरुग्राम 

78380 90732


मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य...मल्लिका और क़ब्र के मुर्दे.

       



मल्लिका शेरावत के कपड़े दो रूमालों से ही तैयार होते हैं। एक रुमाल भी अगर हो तो वह उसे कैमरे के लैंसों पर रखकर काम चला सकती है। इतना बूता बॉलीवुड कि अन्य हेरोइनों में नहीं है। उनको थोड़े बड़े वस्त्र चाहिए। किफायत उनके बस की नहीं। वे सब वैसा नहीं सोचतीं, जैसा कि उन्हें सोचने के 'पॉइंट ऑफ़ व्यू' से सोचना चाहिए कि क्या सोचें ?

        जीवन के बावन घटिया बसंत पार कर चुकने के बावजूद, जब कभी हम मल्लिका के अल्प पारदर्शी वस्त्रों की और निगाहें उठाते हैं, तो मन में एक कसक सी होती है और जिसे हम शेरो-शायरी में बयान करने कि बजाय सीधे-साधे बताये दे रहे हैं।  ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ हमारे साथ ही होता है। दुनिया बहुत बड़ी है और किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है। यह हर आदमी का निजी अधिकार है और सेंसर बोर्ड का बाप भी इसके इस्तेमाल से किसी को नहीं रोक सकता। 

        ध्यान से देखा जाये, तो लगेगा कि मल्लिका एक ख़ास क़िस्म की अदा  से हमें टी.वी. स्क्रीन के अंदर बुला रही होती है कि "आ जाओ, तो पाइप से चिपकने के बजाये तुम्हारा ही इस्तेमाल कर लें।" कई मर्तबा इस चक्कर में हम टी.वी. से सटकर भी बैठ गए कि शायद कोई तकनीकी चमत्कार ऐसा हो जाये कि हम स्क्रीन में अपने आप घुस जाएं और डांस कर रहे हीरो को चपतिया कर उसकी जगह ले लें। मल्लिका को देखकर मन उसको 'डिजिटल शेप' में देखने को आतुर हो जाता है। हर दिशा से और हर तरह से कब्रों में जाने से पहले दो बुजुर्ग मल्लिका को लेकर चर्चा कर रहे थे।

             "देख रहे हो, क्या कशिश है ?" क़ब्र  में पहले जाने को तैयार बैठे बुजुर्ग ने अख़बारी फोटो में दर्ज मल्लिका का बदन निहारते हुए यह सिद्ध कर दिया कि हौंसले जब शरीर का साथ छोड़ देते हैं, तो वे दिल में अपना स्थाई मुकाम बना लेते हैं।

         "हमारे ज़माने में कुक्कू और सुरैया कि जगह अगर यह होती, तो फिल्मों का अपना अलग ही मज़ा होता। " जूनियर बुजुर्ग ने, जो नहीं हुआ, उसके न होने का अफ़सोस ज़ाहिर किया।

           "ख़ासतौर से, जब वह किसी फलौदी पाइप के सहारे अपनी कामनायें व्यक्त करने कि कोशिश करती, तो उस ज़माने में लोग अपनी-अपनी टंकियों के पाइप उखाड़कर उसके पास भिजवाते कि लो, यह ज़्यादा मज़बूत और टिकाऊ 

है। डांस में कभी इसे भी इस्तेमाल होने का मौका दें।" सीनियर बुजुर्ग ने डरते हुए एक यथासंभव गहरी साँस यह सोचते हुए छोटी की कि कहीं यह उनकी आखिरी साँस न हो। 

         "चलो, जवानी में न सही, अब तो हसरतें पूरी कर ही लीं।" हसरतों की व्यापकता पर प्रकाश डाल बिना जूनियर बुजुर्ग ने तसल्ली दी। 

        किसी स्थानीय अख़बार के हवाले से पता चला कि 'कब्रिस्तान के पास से मल्लिका के गुजरने पर दो मुर्दे ज़िंदा होकर उसके साथ चल दिए।' इस शीर्षक के नीचे समाचार में यह भी विस्तार से बताया गया था कि उसके साथ किस कार्य से, कहाँ और कितने बजे गये थे।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल ) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....सड़कें और कमीशनख़ोरी




         "सड़क का ठेका आप ही के पास है ?" बड़े अफसर का छोटा,  मगर निहायत महत्वपूर्ण सवाल हवा में उछला।

         "जी, मेरे पास ही है।" खुद को गुनहगार न समझते हुए ठेकेदार ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।

         "कितने दिन में काम पूरा हो जायेगा ?"अफसर ने पूछा।

         "साल भर तो लग ही जायेगा, साहब !" ज़्यादा वक्त में ज़्यादा लागत का हिसाब लगाते हुए उत्तर मिला।

         "एक महीने में नहीं हो सकता?" जीवन क्षण-भंगुर है और वक्त का कुछ पता नहीं कि कब, क्या हो जाये, इस भावना के तहत अफसर ने सवाल किया।

         "हो भी सकता है, साहब लेकिन वो बात नहीं आएगी। आप हुक्म करें, तो महीने भर में करा दें ?" अफसर से आदेश पाकर कृतार्थ होने के अंदाज़ में ठेकेदार ने प्रतिपृश्न किया।

         "यही सही रहेगा।" कमीशनखोरी में अल्प वाक्यों का प्रयोग ही सही और 'सेफ' रहता है, यह सिद्ध करते हुए अफसर ने 'एकमाही सड़क-कार्यक्रम' को हरी झंडी दिखा दी।

   "सर, एक ही गुज़ारिश है कि बरसात में जब सड़क उखड़ जाये, तो अगली बार का ठेका भी हमारा ही करा दें।" कमीशनखोरी में सहभागिता के हिसाब से ठेकेदार ने आग्रह किया।

        "चिंता मत करो। मेरा ट्रांस्फर भी हो गया तो आने वाले अफसर को बता जाऊँगा कि तुम कितने 'टेलेंटेड' हो, जो साल भर का काम एक ही महीने में निपटा देते हो। हर अफसर यही पसंद करता है।" कमीशनखोरी कि सर्वव्यापकता पर अपनी टिप्पणी करते हुए अफसर ने आश्वस्त किया।

         "बस सर,आपकी कृपा दृष्टि बनी रही, तो जहाँ-जहाँ आपकी पोस्टिंग होगी, मैं वहाँ-वहाँ भी अपने इस हुनर का इस्तेमाल कर सकूंगा।" ठेकेदार ने अफसर को भावी कमीशनखोरी के अंगूर दिखते हुए एक बड़ा लिफ़ाफ़े उनके सामने रख दिया।

        "वैरी गुड। लगे रहो" लिफ़ाफ़े में रखी नोटों की गड्डियों को विश्वास नाम की चीज़ इस दुनिया में अभी भी मौज़ूद होने की वजह से अफसर ने बिना देखे अपने बैग में रखते हुए प्रोत्साहन दिया और कुछ धूल फाँक रहीं मोटी फाइलों में संभावनायें तलाशने लग गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 3 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....भैंसिया गाँव की भैंसें




         जिसकी लाठी होती है, उसके पास एक अदद भैंस भी होती है। भैंस होने के लिए लाठी का होना एक अनिवार्यता है। बिना लाठी के आप भैंस के मालिक नहीं हो सकते। भैंस खरीदने से पहले लाठी ख़रीदना ज़रूरी होता है। इसके बिना न तो आप अपनी 'भैंसियत' दिखा सकते हैं और न ही यह दावा कर सकते हैं कि यह जो भैंस आपके घर के बाहर खड़ी है, यह आपकी ही है। इसे पत्नी की तरह मानकर चलें। किसी की पत्नी को अगर यह साबित करना हो कि वह उसी की है, तो उस पत्नी के मुँह से भैंस के स्वर में यह कहलवा दें कि "मैं इन्हीं की हूँ और इन्हीं की रहूँगी।" बात ख़त्म हुई।

         यह एक विचित्र बात लगी कि भैंसियां गाँव की भैंसों में लड़ाई हुई और नौबत लाठियों तक आ पहुँची। दोनों पक्षों पर चूँकि भैंसें थीं, इसीलिए एक दूसरे पर लाठियों का होना भी लाज़मी है। लिहाज़ा भैंसों ने अपने सींगों से लड़ाई लड़ी और उनके मालिकों ने सींग न होने की वजह से अपनी लाठियाँ चलाई। जमकर युद्ध हुआ। नौ लोग घायल हुए। भैंसों को कोई हानि नहीं हुई। लड़ने के बाद वे एक तरफ खड़ी होकर आदमी की लाठियों की लड़ाई देखती रहीं। अखबारी संवाददाता ने बताया कि भैंसें आपस में हँस भी रही थीं- इस दौरान। 

          भैसों के लिए प्रसिद्ध 'भैंसिया गाँव' में भैसों के अलावा लाठियाँ रखने वाले आदमी भी रहते हैं, रहस्य की यह बात एक पुलिस अधिकारी ने बताकर हमारे हमारे ज्ञान में इज़ाफा किया। महंगाई के इस दौर में जब बीवी और बच्चों को पालना मुश्किल होता है, तो ज़रा कल्पना कीजिये कि भैंसें पालना कितना कठिन होगा। जो लोग अपनी भैंस को बीवी से अधिक महत्व देते हैं या उसे वही सम्मान देते है, जो अपनी भैंस को देते चले आये है, तो उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा पैदा होती है और इंशा अल्लाह हमेशा होती रहेगी।    

वाकया एक गाँव के परिचित का है। उनसे भेंट हुई, तो घर के हाल चाल पूछे और साथ ही यह भी कि "यार, भाभी को ले आते ?" थोड़ा सोचने के बाद वे बोले,‘’दद्दा, बाऊ को लायैं, तो भैंसियन कोऊ लाये ?"हम समझ गए की उनकी भैंसिया और बीवी में से कोई एक ही आ सकता है। दोनों का एक साथ एक वक़्त में आना बड़ा मुश्किल है। 

          हमारा देश ग्राम-प्रधान होने के आलावा भैंस-प्रधान भी कहा जा सकता है। इसके लिए यह जरुरी नहीं है कि भैंसें सिर्फ गाँव में ही हों। शहरों और कस्बों में भी भैसों का बाहुल्य होता है। तहज़ीब न होने की वजह से ये भैंसे जहाँ मन होता है, वहीं अपना गोबर छोड़ कर आगे चल देती हैं। आदमियों को लड़ने के 'प्वाइंट ऑफ़ व्यू' से इतना मुद्दा ही काफी होता है कि इन भैसों ने यह जो गोबर छोड़ा है, वह उनके दरवाज़े के सामने ही क्यों छोड़ा ?इस बात पर भी लाठियाँ चल सकती हैं। दूध की तरह खून की नदियाँ बह निकलती हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि इस मुल्क में भैसों का जो योगदान है, वो पत्नियों से भी अधिक 'इम्पोर्टेन्ट'होता है - लोगों के जीवन में।

'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाला मुहावरा यूँ ही नहीं बना है। इसके पीछे हमारे बुजुर्गों के भी बूढ़े-बुजुर्गों की 'रिसर्च' रही होगी। वरना लाठी का भैंस से क्या मतलब ? जहाँ तक लाठियाने वाले तर्क का सवाल है, तो उसके लिए तो आदमी ही काफी होते हैं। भैसों को मुद्दा बनाने कि क्या ज़रुरत है ? लाठियों का अविष्कार भैसों की वजह से नहीं हुआ था। यह एक आदमियाना साजिश है कि उसने लाठियों को भैसों के साथ जोड़ दिया। बिना भैसों के भी आदमी लोग लाठियाँ चलाते हैं। मगर भैसों को लाठिया चलते हुए कभी नहीं देखा होगा आपने। कहीं देखा हो, तो ज़रूर बतायें। किसी भी दफ़ा में उठाकर उन्हें थाने में बंद कर देगी हमारी पुलिस।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य .....सरस्वती-वंदना में दूध




 कवि-गोष्ठी की तमाम तैयारियाँ हो चुकी थीं। रामभरोसे लाल के घर की बैठक में समाजवादी परम्परा के अनुसार सभी के बैठने के लिए ज़मींन थी, जिसे विभिन स्थानों से फटी हुई ब्रिटिश कालीन दरी द्वारा सम्मानपूर्वक ढक दिया गया था। दीवार से लगा एक मसनद भी  बैठक की शोभा में कई सारे चाँद लगा रहा था। इस मसनद के सहारे बैठने के लिए एक अध्यक्ष भी तलाश लिया गया था और जिसके ज़िम्मे बाहर से आये दो-तीन नवोदित और गुमनाम कवियों के मार्ग-व्यय का भार था। यह भार उठाने में अध्यक्ष भी तलाश लिया गया था और जिसके जिम्मे बाहर से आये दो तीन नवोदित और गुमनाम कवियों के मार्ग-व्यय का भार था। यह भार उठाने में अध्यक्ष इसलिए समर्थ था कि उसका सिंथेटिक दूध का सर्वमान्य कारोबार था।

       "अध्यक्ष महोदय बस थोड़ी देर में आने ही वाले हैं। जैसी कि हमारी परम्परा रही है, कवि-गोष्ठी अपने निर्धारित समय पर ही प्रारम्भ कर दी जायेगी।" क़स्बे में बातूनी मास्टर के नाम से विख्यात संचालक ने कवियों में हो रही काव्य-पाठ की बेसब्री को भाँपते हुए उद्घोषणा की। 

        "तब तक सरस्वती-वंदना शुरू करा दीजिये। अध्यक्ष आते रहेंगे।" कवि-गोष्ठी में अध्यक्ष के होने न होने को बराबर सिद्ध करने के अंदाज़ में सरस्वती-वंदना एक्सपर्ट कवि की व्याकुलता जवाब दे रही थी।

        "आ गए भैया, हम भी आ गये।" अचानक अध्यक्ष प्रवेश करते हैं। मसनद से टिकने के बाद अध्यक्ष ने सबके अभिवादन स्वीकार किये और अपने एक कूल्हे को पच्चीस डिग्री के कोण में उठाकर एक ज़ोरदार स्वर में अपनी गैस खारिज की। कवियों ने अध्यक्ष की इस हरकत का मुस्कुराकर स्वागत किया। 

        "अब शुरू करे ?" रामभरोसे ने अध्यक्ष से अनुमति लेनी चाही। "बिलकुल !" गैस का दूसरा धमाका इस बात का संकेत देने के लिए थोड़ी मुशक़्क़त के बाद हुआ कि अगर गोष्ठी का शुभारम्भ शीघ्र नहीं हुआ, तो आगे ना जाने कैसे हालात पैदा हों ? सरस्वती वंदना गाने वाले ने शुरुआत की- 

       "सरस्वती मैया वर दे। 

कविता रूपी शुद्ध दूध से, जल का तत्व अलग कर दे।

सरस्वती मैया वर दे।"

"वाह-वाह-वाह -वाह ! क्या डिमांड की है सरस्वती मैया से। मज़ा आ गया !" कविता पर वाह-वाह करने से अध्यक्ष की योग्यता पता चलती है, यह सोचकर अध्यक्ष का स्वर इस बार उनके मुँह से निकला।

         "आगे आप सबका ध्यान चाहूँगा," सरस्वती-उपासक ने अपनी वंदना जारी रखते हुए सुनाया, 

         "सरस्वती मैया वर दे। 

         दूध, जिसे सिंथैटिक कहते,भैंसों के थन में भर दे, 

         हर कवि का सर साबुत निकले,अगर ओखली में सर दे, 

         सरस्वती मैया वर दे।"

        कवियों की यह गोष्ठी अध्यक्ष महोदय की भावनाओं के मद्देनजर देर रात तक चलती रही। कवियों ने 'दूध की नदियाँ', 'दूध का दूध, पानी का पानी'और दूध का हक़' जैसी अनेक विषयी रचनाओं का पाठ करके यह साबित कर दिया कि लक्ष्मी-पुत्र अगर किसी कवि-गोष्ठी का अध्यक्ष हो, तो सरस्वती-पुत्रों के स्वर अपने आप ही बदल जाते हैं।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 20 नवंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल ) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य .....हार जाना एक वर्ल्ड कप का



हारने के लिए किसी किस्म के प्रयास की जरूरत नहीं होती। बिना कोशिश किए आप किसी भी खेल में अपनी हार को 'हार-जीत तो लगी रहती है', जैसे तसल्ली दायक शब्दों से नवाजकर सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं। क्रिकेट वर्ल्ड कप को हारने के बाद जिन नेताओं ने जीतने के लिए इंडियन टीम को अग्रिम शुभकामनाएं दी थीं, वे अब अपने चुनाव- प्रचार में लग चुके हैं। नरेंद्र मोदी के नाम से बने स्टेडियम पर उनकी हार का ठीकरा फोड़ने वाले विपक्षी नेताओं के 'हमने तो पहले ही कहा था कि यह स्टेडियम इंडियन टीम के लिए शुभ नहीं है' जैसे भविष्यपरक लोकल बयान आने शुरू हो गये हैं। अगर अभी शुरू नहीं भी हुए हैं, तो उम्मीद है कि हमारा यह लेख पढ़ने के बाद आने शुरू हो जायेंगे। किरकिट में ऐसे लोग गिरगिट की भूमिका निभाते हैं। कल किसी और रंग का बयान दिया और आज जबकि इंडिया हार चुका है, कुछ अलग रंग के जो बयान हैं, वो अस्तित्व में आ रहे हैं।
    गिरगिट और नेता भी इतनी जल्दी रंग नहीं बदलते, जितनी जल्दी किरकिट के महारथी बदल लेते हैं। पहले ऐसा नहीं था। या तो गिरगिटों के रंग बदलने पर पाबंदी थी या वे इसमें इंटरैस्टिड नहीं थे। जो भी था, बस, था। बुद्ध और गांधी के काल में अगर किरकिट इतना लोकप्रिय होता, तो उसकी अहिंसक गतिविधियों पर पाबंदी लगाने के लिए वे लोग अन्ना हजारे की शैली में धरने प्रदर्शन कर रहे होते। गेंदों को पीटे जाने पर उनके क्या विचार होते, यह तो भावी इतिहास ही बताता, मगर इसे बंद करवाने में उनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी, इसे जरूर दर्ज किया जाता।

    बैट और बाल के आपसी रिश्ते कैसे होते हैं, भाजपा और 'इंडिया' गठबंधन की तरह यह किसी से छिपा नहीं है। हर बाल पिटने के लिए "पहले मार लिया, अबकी से मार के देख" वाले जुमले की तर्ज पर बार-बार बैट की ओर चली जाती है। यह बहुत अच्छी पोजीशन नहीं है। कई मर्तबा ऐसा भी होता है कि बैट से पिटने के बाद गेंद किसी फील्डर के हाथ में पहुंच जाती है और अपनी पृष्ठभूमि पर अपने दोनों हाथ टिकाए रहने के बावजूद 'एंपायर' नाम का कोई प्राणी अपनी एक उंगली उठाकर उसे कैच करार दे देता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पिटी हुई बाल को पकड़कर सहलाया-पुचकारा जाता है। अक्सर फील्ड में खड़े कुछ लोग, जिन्हें लोग फील्डर भी कहते हैं, पिटी हुई बाल की आबरू बचाने के लिए अपने हाथ-पैरों के टूटने की चिंता न करके बॉल को बचा लेते हैं। स्टेडियम में इस पर भी पता नहीं क्यों तालियां बजाई जाती हैं। भारत की हार पर अभी तक पाकिस्तानियों की तरह किसी किरकिट प्रेमी द्वारा अपना टीवी सैट तोड़ने की सूचना नहीं मिली है। जबकि पाकिस्तान में खिलाड़ियों के सिर न तोड़कर लोग घरों में रखे अपने पुराने और खराब टीवी सैट तोड़ देते हैं। हमारे यहां ऐसा नहीं है।

 हमारे यहां इसे 'जो हार गया, वह जीत गया' । ढाई हजार वर्ष पुराने चीनी दार्शनिक लाओत्से ने यह सूत्र वाक्य देकर भारतीय किरकिट प्रेमियों को भी प्रभावित किया है। हार के बाद वे अब इस सत्य को स्वीकार कर खामोश हो जाते हैं कि जिसने अपनी हार जीत से पहले ही स्वीकार ली हो, उसे हराने का कोई विकल्प नहीं रह जाता। विश्वास न हो, तो अपनी किरकिट टीम के कप्तान से पूछकर देख लें। अपने दार्शनिक में वे भी यही कहेंगे 'जो हार गया, वह जीत गया'। हमने कुछ गलत कहा हो ,तो बताएं ।



 ✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....रेलवे प्लेटफार्म की गतिविधियां


 रेलवे प्लेटफार्म कई सारी गतिविधियों को संपन्न करने के काम आते हैं ! ‘ गतिविधियाँ ‘ हम उन तमाम हरकतों के गतिशील बने रहने को कहते हैं, जो किसी भी नंबर के प्लेटफार्म पर किसी भी वक़्त, किसी भी रूप में की जा सकती हैं ! इसमें बिना टिकिट गाड़ी में बैठने से पहले टी टी या गार्ड से ‘ सेटिंग ‘ की गुज़ारिश के अलावा किसी वीरान और तनहा पड़े प्लेटफार्म पर किसी से इश्क फरमाने जैसी बातें शामिल हैं !इन गतिविधियों में रेलवे कर्मियों के अलावा पुलिस, यात्री या कोई भी प्रतिभागी हिस्सा ले सकता है ! इधर-उधर के मंहगे होटलों में जाने से क्या फायदा ?


    रेलवे प्लेटफार्म पर कई ऐसे भी डिब्बे खड़े दिखाई देते हैं, जो ब्रिटिश काल से वैसे ही खड़े हैं, जैसे कि अंग्रेज उन्हें छोड़ कर गए थे ! भारी होने कि वजह से वे इन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके ! ये डिब्बे अब लैलाओं और मजनूओं के सांस्कृतिक कार्यों के काम आते हैं ! यूं तो रेलवे स्टेशनों पर आपको विभिन्न किस्म के नज़ारे देखने को मिलते होंगे, मगर गौर से देखें तो भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के लिए देश-भ्रमण करने कि कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी ! सब कुछ यहीं मिल जाएगा !

    नाक पौंछकर फिर उसी हाथ से रोटी सकते बैल्डर, पागल किस्म की लड़की में विभिन्न किस्म की संभावनाएं तलाशते पुलिस वाले, बिना टिकिट-यात्री को पकड़कर उनसे मोल-भाव करते टीसी, बदबूदार पानी पीकर रेलवे को कोसते यात्री, किसी भी दशा में कहीं भी सो जाने वाले सिद्धांत में विश्वास करने वाले ग्रामीण या ज़हरखुरानी के शिकार व्यक्ति पर ज़्यादा शराब पीकर ज़मीन पर गिरे होने के आरोप लगाते रेलवे और पुलिस के न्यायशील कर्मी , जैसे सैकडों दृश्य हैं, जिमें ‘ इंडियन कल्चर ‘ तलाशी जा सकती है !

    देखने के नज़रिए हैं कि आप किसको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? टिकिट होने के बाबजूद टीसी आपको और आपकी पर्स वाली जेब को किस नज़रिए से देख रहा है या ‘ बम-चेकिंग अभियान ‘ पर निकले रेलवे पुलिस कर्मी आपकी अटैची को बैंत मार कर आपको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? या अन्य सीटें खाली होने के बाबजूद लड़कियों से सट कर बैठने वाले खूसट , मगर भाग्यशाली बूढे को वहां बैठे लड़के किस नज़रिए से देख रहे हैं आदि ऐसी अनेक बातें हैं, जो रेलवे से जुडी हैं, मगर हमारा नजरिया जो है, वो वही है, जो हमेशा से रहा है ! उसमें कोई बदलाव नहीं है ! 

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 14 अक्टूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....मौसम, छतरी और उधार




        "मौसम अच्छा हो गया आज।" यह जानते हुए भी कि अच्छे मौसम में हर व्यक्ति ऐसा ही महसूस कर रहा होगा, एक दोस्त ने अपने दोस्त को बिना अंधा साबित किये अपनी बातचीत का पहला वाक्य छोड़ा।

        "हां यार, कल कितना बुरा मौसम था ? गर्मी के मारे हालत ख़राब थी।" दूसरे दोस्त ने मौसम-सम्बंधी अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए पहले दोस्त का ज्ञानवर्धन करने के लिहाज़ से कहा।

       "लगता है, बारिश होगी।" मौसम की भविष्यवाणी में अपनी माहिरी प्रदर्शित करके पहले वाले ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।  

       "बारिश हुई, तो भीगना पड़ेगा हमें।" दूसरे दोस्त ने बारिश के पानी में गीलापन होने की बुराई करते हुए जवाब दिया।

       "छतरी होती तो शायद इतना नहीं भीगते।" भीगने से पूर्व जल-रक्षक छतरी की भूमिका और फिर उसकी प्रंशसा भी बात की बात में हो गई।

      "छतरी से बैटर बरसाती रहती है। नीचे का हिस्सा भी नहीं भीगता उसमें।" स्वज्ञानजन्य  बेहतर विकल्प का तात्कालिक प्रदर्शन करते हुए दूसरे दोस्त ने चारों  दिशाओं में अपनी गर्दन घुमाकर ऐसे देखा कि अगर और लोग भी उसकी यह बात सुन रहे हों, तो 'क्या बात कही है आपने,' वाले अंदाज़ में उसकी तारीफ़ 

करें।

      "वो तो है ही। छतरी अपनी जगह है, बरसाती अपनी जगह ।" पहले दोस्त ने यह बात कुछ इस अंदाज़ से की, जैसे उसने 'प्राचीन वर्णाश्रम-व्यवस्था  में हर वर्ण का अपना अलग महत्त्व था, जैसी कोई बहुत ज्ञानपरक और गूढ़ बात कही हो और जिसकी कि तारीफ़ होनी चाहिए।

       "लेकिन बारिश के साथ अगर आँधीनुमा हवा चल पड़े, तो छतरी किसी की नहीं रहती । कई मर्तबा तो वह उल्टी भी हो जाती है । " जीवन की तरह छतरी की भी निरर्थकता को सिद्ध करने की  गरज से दूसरे दोस्त ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया ।

      "देखा जायेगा । अभी कौन सी बारिश हो रही है।" वार्ता-समापन की शैली में पहले वाला दोस्त 

बुदबुदाया।

     "और क्या। बातों-बातों में असली बात तो मैं भूल ही गया । यार, दौ सौ रुपये उधार दे दो। एक तारीख़ को लौटा दूँगा।" दूसरे ने अच्छे मौसम में अर्थदान की भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा।

      और इस तरह पहले वाले दोस्त का अच्छा-ख़ासा आंतरिक मौसम ख़राब हो गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल)निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....हमारे शहर के निराले कुत्ते...



धर्मराज युधिष्टिर ने जो सबसे गलत काम किया, वह यह था कि वे खुद तो स्वर्ग की सीड़ियां पार करके चले गए, मगर अपने उस कुत्ते को पीछे ही छोड़ गए, जिसके नाम को लेकर अभी भी एकमत होने के चक्कर में इतिहासकार एकमत नहीं हो पाए हैं. अखबारों में अपना नाम ना छापने की शर्त पर कुछ इतिहासकारों ने यह मानने का दावा किया है कि इंडिया में कुत्तों का आदि पूर्वज वही कुत्ता था और बाकी सब जो देश भर में घूम रहे हैं, वे उसके वंशज हैं. प्राचीन काल में कुत्तों को वह सम्मान प्राप्त था, जो वफादारी की कमी होने की वजह से आदमी का भी नहीं रहा होगा. बेवफाई की कसमें खाने पर लोग कहा करते थे कि "खा, अपने कुत्ते की कसम कि तूने बेवफाई नहीं की." बाद में यही बेवफाई शायरी में महबूबा के लिए इस्तेमाल की जाने लगी.

    हमारे शहर में नगर पालिका होने की वजह से कुत्तों की पैदावार भी खूब हो रही है. ऐसा क्यों है, यह रिसर्च का विषय होने के बावज़ूद अभी तक किसी शोधार्थी के गाइड के दिमाग में नहीं आ पाया है. रास्ता चलते कौन सा कुत्ता, कब काट ले, कुछ नहीं कहा जा सकता. जो लोग कुत्तों से डरते हुए साइड में निकलने की कोशिशें करते हैं, कुत्ते सबसे ज़्यादा उसी शख्स की तरफ मुखातिब हो लेते हैं और तब अपनी पैंट में मौजूद टांगों की रक्षा के लिए उसके अन्दर से भर्राई सी आवाज़ निकलती है कि "बचा लो, यार, यह किन सज्जन का कुत्ता है ?" वह आदमी इस बात को जानता है कि अगर "यह किस कमबख्त का कुत्ता है," जैसी कोई बात बोल दी, तो वह कभी भी अपने कुत्ते से कटवाए बिना बाज नहीं आएगा.

    हमारी कॉलोनी को ही ले लीजिये. ऐसी-ऐसी नस्लों के कुत्ते लोगों ने पाले हुए हैं कि वे लाख 'हट-हट' या 'शीट-शीट' जैसी ध्वनियां करने के बावज़ूद, जब तक अच्छे भले आदमी की रही सही जान नहीं ले लेंगे, उसे यूं ही घूरते रहेंगे. इन कुत्तों से डरकर भागने  की ज़रा सी बात अगर मन में भी सोच ली, तो समझें कि वे या तो शराफत से आपको आपके घर के अन्दर तक दौड़ाकर आयेंगे या बहुत मूड में हुए, तो ऐसी जगह पर काटेंगे कि आप यह बताने की पोज़ीशन में भी नहीं रहेंगे कि यहीं पर क्यों काटा, अन्य किसी उपयुक्त स्थान पर क्यों नहीं ?

    भौंकने की अवस्था में काटने के संकेत देने पर कुत्ते को चुपाने का एक ही तरीका है और जो बहुत कारगर माना जाता है. जितनी जोर से कुत्ता भौंक रहा है, उससे भी जोर से अगर भौंक दिया जाये, तो कुत्ते को थोड़ी सी तसल्ली मिल जाती है कि आदमी और कुत्ते का कॉम्बिनेशन है, इसलिए इसे ना काटा जाये तो ही सही है. ना काटे जाने वाला आदमी अपनी इस गुप्त विद्या को अपने बच्चों को भी सिखा जाता है, ताकि इंजेक्शनों का खर्चा बचाने के काम आये. अब कोई कुत्ता पागल है या नहीं है, यह जानने के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए, वरना हर कुता अपने आप को पागल समझने की गुस्ताखी के एवज़ में इस कदर काट खाता है कि इंजेक्शन लगाने लायक जगह भी ढूंढनी मुश्किल हो जाये कि अब ये कहां लगाएं ?

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 10 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का व्यंग्य .... लाल टमाटर


रसोई घर में खड़े -खड़े मैं अचानक ही अच्छे दिन के ख्यालों में खो गयीं, जब मेरे किचन में टमाटर सड़ते ..म...म..... मेरा मतलब है कि रखे रहते थे.

बीस रुपये किलो टमाटर खरीद -खरीद कर न जाने कितनी बार टमाटर की चटनी, साॅस थोक में बनाकर रखी है. रोज नये -नये व्यंजनों की खुश्बू से महकती रसोई को न जाने महँगाई डायन की कैसी नज़र लगी कि नालायक  टमाटरों को लेकर ऐसी  उड़ान  छल्ली बनी  कि नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है.

टमाटर की  चढ़ती रंगत और यौवन देखकर, घमंडी सेब -अनार तो पहले ही हीनभावना की झुर्रियों से ग्रसित होकर वृद्ध आश्रम की ओर रवाना हो चुके हैं.

उधर  रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन भोजन खा- खाकर बच्चों के मुँह उतरे हुए हैं, जिन्हें देख -देखकर कलेजा मुंँह को आ रहा है, कह रहे हैं कि हे माता जी !!आपने सावन के नाम पर सब्जी में प्याज तो पहले ही डालनी बंद कर दी थी, जीरा आठ सौ रुपये किलो बताकर सब्जी में जीरा भी नहीं डाल रहीं थीं . अब टमाटर भी बंद करके सब्जी की जीरो फिगर बना दी है.

 बार- बार ,चीख -चीखकर सवाल पूछ रहे हैं मुझसे, क्या है सब्जी  में ? लप्पू  सी सब्जी की झींगुर सी शक्ल है,इसे खायेगें हम !ऐसी सब्जी खिला-  खिलाकर हमें हीरो से जीरो  बना दिया है

उफ्फ़ ये मजबूरी !! एक एकअब इन्हें कौन समझाए  कि बेटा टमाटर के चक्कर में बजट ,कब से  घर के बाहर गेट पर ही  जीभ निकाले औंधे मुंँह पड़ा हुआ है.  हे सब्जियों के शंहशाह!, रंगबिरंगी चटनियों के  सम्राट , हे रक्ताभ ! हे !रक्त को बढ़ाने वाले.!...काहे... ?काहे गरीब का रक्त सुखाते हो? हे पिज़्ज़ा-  वर्गर की शान बढ़ाने वाले! हे !मोमोज  की नारंगी चटनी के स्वाद! !   देखिएगा !!..आपके बिना दम आलू  कैसे  बेदम होकर ज़मीन पर पड़ा अपनी अंतिम सांसे ले  रहा है, काजू -कोफ्ता आपके अभाव में अपने अस्तित्व  की रक्षा करते- करते,कब का वीरगति को   प्राप्त हो  चुका है.शाही -पनीर का शाही तख्त आपके सहारे के बिना अपने चारो पाये तुड़वाकर धड़ाम हो चुका है, गोभी- आलू को तो मानो लकवा ही मार गया और मुल्तानी छोले - चावल तो  आपके  वियोग मे  संभवतः मुल्तान को ही निकल लिये, काफी दिन से दिखाई  ही नहीं दिये.वैसे भी आजकल एक देश से दूसरे देश चोरी छिपे निकलने का नया  मौसम शुरू हो चुका है. हे सुंदर मुखड़े और खट्टे स्वाद वाले क्या  आपको ज्ञात नहीं कि दाल -मखनी  आपके  बिना वेंटिलेटर पर है और आलू- टमाटर की सदाबहार सब्जी तो मुझसे रूठकर ऐसी गयी है कि शायद अब  किसी भंडारे में ही जी भर कर मिलेगी वो भी अगर  बाँटने वाले ने पूड़ी पर रखकर  न दी तो....! वरना सारी सब्जी तो पूड़ी ही सोख लेंगीं.... !अरे जब भंडारा कर ही रहे हो तो क्यों दो चार थैली भर कर नहीं  देते लोगों को.! 

हे !सबसे बड़े महंगाई सम्मान से विभूषित, कमल के समान कांतिमान!!लाल टमाटर..!!.आपके बिना दाल -फ्राई का तड़का  लड़खड़ाते हुए अपनी अंतिम सांस तक आपको पुकारता रहा,परंतु  आपका कठोर हृदय फिर भी  नहीं पसीजा.  क्या तहरी के चावल, आलू,मटर -गोभी,   की चीखें भी आपको विचलित  नहीं कर सकीं ? आपके बिना वे किस प्रकार  दुर्गति को प्राप्त हुए ,  यह भी ज्ञात नहीं आपको?उन्हें क्या मालूम था कि आप जैसे सस्ते,हर मौसम में उपलब्ध  होने वाले ,अपनी औकात भूलकर सातवें आसमान पर जाकर ऐसा बैठ जायेगें  कि नीचे ही नहीं उतरेगें.    

टमाटरों की भारी किल्लत देखते हुए, कल  मैने अपनी दो चार पुरानी- धुरानी  कविताएँ, हिम्मत करके घर के बाहर बने  चबूतरे पर खड़े होकर  आते- जाते लोगों को सुनाने का   प्रयास भी किया ,मगर मजाल क्या ...!!किसी ने मेरी तरफ टमाटर उछालना तो दूर  ठीक से सुना भी नहीं मुझे ..., मूर्ख !!गैर साहित्यिक कहीं के...!! और तो और अपने हाथ की सब्जी का थैला दुबकाते हुए , नजरें नीची  किये चुपचाप मेरे सामने से ही निकल गये.. . !! अरे टमाटर  थैले में होते ,तभी  तो उछालते न  मेरी तरफ.....!!. कंगले कहीं के...!! हुँहहह... "

 हे सब्जियों की पवित्र आत्मा !!क्यों त्योहारों पर नाटक कर रहे हो, बात को समझो न टमाटर जी, अगर नीचे नहीं उतरे तो मेहमानों के सामने बहुत ज्यादा नाक कट जायेगी. अपनी दूर की बहनों लौकी- तोरई को देखो ज़रा... !!बेचारी कितनी सज्जन हैं, ज़रा भी भाव नहीं खातीं  कभी..!!और आज तक कभी नखरे भी नही किये उन्होंने ,..!!बेचारी हर परिस्थिति में शांत ही रहती हैं.और  बाज़ार में बैंगन के भुर्ते की आत्महत्या के बाद  तो आपके बिना बची -खुची सारी सब्जियांँ भी अज्ञात वास को चली गयीं हैं, तबसे यही लौकी तोरई रसोई घर में डटी हुई हैं.अभी टमाटर जी के चित्र के समक्ष यह  विनती चल ही रही थी कि  थी कि तभी बाहर से सब्जी वाले की आवाज आयी, 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

ले लो जिसकी जेब में माल

मैं दौड़कर गेट पर गयीं और  गेट की झिर्रियों में  टमाटरों के दिव्य दर्शन हेतु अपनी आँखें टिकायीं  ही थीं कि सब्जी वाले की पैनी निगाहें झिर्रियों को भेदते हुए, मेरी आंखों पर पड़ गयीं. उसने  कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए और ज़ोर से आवाज़ लगानी शुरू कर दी.. 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

कहाँ छुपे सारे कंगाल

मैं सकपकाकर पीछे हट गयीं.पता नहीं सब्जी वाला सब्जी बेच रहा था या जले पर नमक छिड़क रहा था,  खैर...!मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोकते हुए अंदर की ओर भागी और गुस्से में अपनी कविताओं की डायरी को  आग के हवाले कर दिया... "जाओ! दफ़ा हो जाओ!जब तुम टमाटर तक न ला सकीं तो पुरस्कार क्या खाक़ लाओगी*! और टमाटर वाले की आवाज़ दूर होती जा रही थी... टमाटर लाल, टमाटर लाल, कहाँ छुपे सारे कंगाल... ले लो जिसकी जेब में माल

✍️मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद

गुरुवार, 25 मई 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......टेलीफोन की याद


अचानक पुराने जमाने के टेलीफोन की याद आ गई । काला कलूटा था । मोटा थुलथुल शरीर । एक बार जहां टिका दिया ,सारी जिंदगी वहीं पर टिका रहा । एक इंच इधर से उधर नहीं हिलने वाला । जब कपड़ा हाथ में लेकर झाड़ने का काम होता था, तो उसको उठा दिया जाता था और फिर धूल झाड़ कर अपनी जगह रख दिया जाता था। न कहीं कोई लेकर जाता था ,न उससे चला जाता था । एक *रिसीवर* था ,जिसे मुश्किल से दो फीट दूर बात करने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता था । इस पर भी इतराना ऐसा कि जैसे कहां के राजकुमार हों ! विश्व सुंदरी का पुरस्कार जीती हुई कोई स्त्री भी ऐसा गर्व न करेगी ,जैसे हमारे कालिया साहब किया करते थे ।

यह तो मानना पड़ेगा कि श्रीमान जी जहां विराजमान होते थे ,वहां की शोभा बन जाते थे । किसी – किसी के घर ,दफ्तर और दुकान में फिक्स-टेलीफोन हुआ करते थे । दस जगह जाओ तो एक जगह श्रीमान जी के दर्शन हुआ करते थे । आज की तरह थोड़े ही कि हर आदमी के हाथ में मोबाइल रखा हुआ है और एक आदमी भी बाजार में ऐसा न मिले जिसके पंजे में मोबाइल नहीं होगा । उस समय जिसके पास टेलीफोन होता था ,वह एक विशिष्ट स्थान रखता था । उसका टेलीफोन नंबर न केवल उसके काम आता था बल्कि आस-पड़ोस के निवासियों के काम भी आता रहता था । वह अपने लेटर-पैड पर पड़ोसी का टेलीफोन नंबर *पी-पी.* लिखकर अंकित कर देते थे । इसका अर्थ यह होता था कि पड़ोसी से टेलीफोन पर बात करनी है तो अमुक नंबर पर आप टेलीफोन मिला सकते हैं । जब पड़ोसी का टेलीफोन आता था ,तब टेलीफोन करने वाले को कहा जाता था कि पड़ोसी को हम बुला कर ला रहे हैं । तब तक आप इंतजार करिए और दो मिनट के बाद टेलीफोन करने का कष्ट करें । बहुत से लोग टेलीफोन पर बात करने से हिचकते थे । वह कहते थे “आप ही बात कर लीजिए।” बड़ी मुश्किल से उनसे कहा जाता था और समझाया जाता था कि टेलीफोन पर बात करने में कोई मुश्किल नहीं होती । आसानी से यह कार्य संपन्न हो जाता है।

कुछ लोग टेलीफोन पर इतनी जोर से बोलने के आदी होते थे कि उनकी आवाज पड़ोस के घर तक जाती थी । पड़ोसी को पता चल जाता था कि इस समय हमारे पड़ोसी की टेलीफोन पर बातचीत चल रही है । पड़ोसी समझता था कि हमारे घर पर टेलीफोन नहीं है ,इसलिए हमें चिढ़ाने के लिए यह महोदय ऊंची आवाज में बात कर रहे हैं । लेकिन ऐसा नहीं होता था । कुछ की आदत ही चीख – चीख कर बात करने की होती थी। सामने की दुकान पर अगर कोई बात कर रहा है तो सड़क – पार की दुकानों तक बातचीत का स्वर पहुंच जाता था ।

स्थानीय स्तर पर टेलीफोन मिलाने के लिए टेलीफोन पर एक गोल चक्कर बना रहता था । उसमें 1 से 9 तक के अंक तथा शून्य लिखा होता था । हर अंक के बाद गोल चक्कर घुमाना पड़ता था । उस जमाने में टेलीफोन – नंबर छोटे होते थे । उदाहरण के लिए शहर में किसी का नंबर 302 है किसी का 318 ,किसी का 412 । अतः तीन बार चक्कर घुमाने से टेलीफोन मिल जाता था और बात आसानी से हो जाती थी । शहर से बाहर टेलीफोन मिलाने के लिए *ट्रंक कॉल बुकिंग* करानी पड़ती थी । टेलीफोन एक्सचेंज का नंबर घुमा कर उनसे आग्रह किया जाता था “हमें दिल्ली बात करनी है । टेलीफोन नंबर इस प्रकार है । कृपया बातचीत कराने का कष्ट करें ।”

टेलीफोन ऑपरेटर का अस्त – व्यस्त आवाज में उत्तर मिलता था “एक मिनट इंतजार करो । बात कराते हैं ।”

एक-दो मिनट के बाद टेलीफोन की घंटी बोलती थी । उधर से आवाज आती थी ” लीजिए ,दिल्ली बात करिए ।”

अब हमारा संपर्क दिल्ली के टेलीफोन नंबर से जुड़ गया । जैसे ही बातचीत के तीन मिनट पूरे हुए , टेलीफोन ऑपरेटर महोदय बीच में टपक पड़ते थे । हमसे कहते थे “तीन मिनट हो गए ।”

इसका तात्पर्य यह था कि अगर हमें आगे भी बात करनी है ,तो पैसे ज्यादा देने पड़ेंगे । ऐसे में दो ही विकल्प होते थे । या तो ऑपरेटर महोदय से आग्रह किया जाए कि तीन मिनट और दे दीजिए या फिर टेलीफोन नमस्ते करके रख दिया जाए ।

टेलीफोन में “डायल टोन” का चला जाना एक आम समस्या रहती थी । डायल टोन एक प्रकार का स्वर होता था, जो टेलीफोन के तारों में प्रवाहित होता था ।इसमें एक हल्की सी गुनगुन जैसी आवाज टेलीफोन उठाते ही रिसीवर को कान पर रखकर बजने लगती थी । इसका अभिप्राय यह होता था कि टेलीफोन सही ढंग से काम कर रहा है । कई बार “टेलीफोन डेड” हो जाता था । इसका अर्थ था कि टेलीफोन में अब करंट का आना भी समाप्त हो गया । *टेलीफोन का डेड होना* बड़ी दुखद स्थिति मानी जाती थी । एक प्रकार की रोया-पिटाई मच जाती थी । टेलीफोन मृत पड़ा है और सब उसे देखे जा रहे हैं । अब किससे बात हो पाएगी ? कहां बात होगी ? कौन हम से बात कर पाएगा ? लाइनमैन इसी दिन के लिए अच्छे संबंध बनाकर रखा जाता था ।

*लाइनमैन* के अपने जलवे होते थे। जिस बाजार से निकल जाए ,ज्यादातर बड़े-बड़े लोग उसे पहल करके नमस्कार करते थे । लाइनमैन से सभी का काम पड़ता था । बड़े-बड़े दुकानदार तथा समाचार पत्रों के संवाददाता ,अधिकारीगण अपने टेलीफोन में *एस टी डी* . रखते थे अर्थात सीधे शहर से बाहर नंबर डायल करके टेलीफोन मिला सकते थे । उन्हें लाइनमैन से काम पड़ना ही पड़ना था । वैसे तो नियमानुसार टेलीफोन एक्सचेंज में शिकायत दर्ज करा कर टेलीफोन की किसी भी परेशानी को हल करने का प्रावधान होता था ,लेकिन लाइनमैन का महत्व सुविधा शुल्क – प्रधान व्यवस्था में अपनी जगह था।

जब तक मोबाइल नहीं आया ,टेलीफोन की तूती बोलती रही । जब मुट्ठी में समा जाने वाला छोटा – सा मोबाइल आया होगा ,तब इस भारी – भरकम ,विशालकाय ,काले- कलूटे आकार के प्राणी ने सोचा होगा कि यह छम्मकछल्लो हमारा क्या बिगाड़ लेगी ? हम तो लोगों के दिलों पर पचास साल से शासन कर रहे हैं । हमारी हस्ती कभी नहीं मिटेगी । लेकिन एक दशक में ही छोटे से मोबाइल ने विशालकाय टेलीफोन के राज – सिंहासन को पलट दिया। इस तरह घर ,दुकान और दफ्तर सब जगह टेलीफोन के लिए जो स्थाई सिंहासन का स्थान दशकों से सुरक्षित रखा हुआ था ,वह समाप्त हो गया ।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

रविवार, 5 मार्च 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी वर्मा का व्यंग्य ......जरूरी है चीखना


चीखना अर्थात अपनी बात पूरे दमदार तरीके से सकारात्मक या नकारात्मक रूप में रखना। चीखना एक ऐसी कला है जो सत्य को झूठ और झूठ को सत्य में परिणत कर देता है हालांकि चीखना स्वयं में ही अनुशासनहीनता व असभ्यता का पर्याय है परंतु आजकल चीखना एक कला बन चुका है। जहां भी नजर जाती है वहां भोली भाली ,मासूम, मध्यम स्वर की मधुर आवाज को चीखता हुआ स्वर कुछ इस तरह निगल जाता है जैसे जीते जागते प्राणी को अजगर।

चीखना एक ऐसा हुनर बन चुका है, जो हर क्षेत्र में ना केवल कमाल दिखा रहा है अपितु कमाई का एक सर्वोत्तम साधन बन चुका है टीवी पर समाचारों के स्थान पर चीखने के टॉक शो चलते हैं जो जितना अधिक चीख चीख कर प्रभावी ढंग से अपनी बात रख जाता है वही शेर बन जाता है मध्यम स्वर तो कहां दब के रह जाता है सुनाई नहीं देता ।कुछ तो टीवी शो चीखने की क्षमता पर ही चल रहे हैं। राजनीति में भी चीखना अच्छी कला मानी जाने लगी है जो जितना अधिक चीख सकता है समझो उतना प्रभावशाली है ।चीखना सोशल मीडिया का एक ऐसा हथियार बन गया है कि आम नागरिक इस चीख-पुकार को सुनकर कई बार सदमे में आ जाता है जी हां.... गौर से देखिए, यह वही जगह है ,खूनी जगह,लोगो को मार देने वाली जगह जहां एक्सीडेंट हुआ था .............

समाज में भी यदि कोई चीख पुकार करने वाला व्यक्ति होता है तो वह केंद्र बिंदु में रहता है।

इसी प्रकार जानवरों में भी यह खासियत देखी गई है कुछ टीवी टॉक शो की तरह कुत्तों में भी चीखने की जैसे प्रतियोगिता सी चलती है कोई हार मानने को तैयार ही नहीं होता बशर्ते भोंक भोंक के हलक बाहर आने को तैयार हो....

 कुछ लोगों के लिए चीखना बहुत आसान काम होता है क्योंकि वह साधारण बात भी चीख–चीख कर ही कहते हैं, परेशानी तो विनम्र स्वभाव वाले की है मरता क्या न करता चीखने की कोशिश करता है परंतु आवाज हलक से बाहर ही नहीं आती अब कोई मोर को कहे सियार जैसे आवाज निकालो या कुत्ता जैसे भोंको तो यह उसकी प्रवृत्ति तो नहीं...

चीखना सीखने के लिए अपनी प्रवृत्ति छोड़ना पड़ती है जो कि असंभव सा है परंतु चीखने के युग में जी रहे हैं तो थोड़ा चीखना भी अवश्यंभावी ही है अतः चीखने की सकारात्मकता, अन्याय पर न्याय की विजय के लिए चीखना भी आवश्यक है।

✍️ मीनाक्षी वर्मा

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 1 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......क्या बताऍं शुगर हो गई



 क्या बताऍं, जब से शुगर की जॉंच हुई है और उसमें पता चला है कि हमारी शुगर सौ से ऊपर है ,जीवन का सारा रस समाप्त हो गया। जिंदगी का मजा ही जाता रहा। बस यों समझिए कि जी रहे हैं और जीने के लिए खा रहे हैं ।अब तक जो मन में आया खाते रहे। अब मन को एक तरफ रखा हुआ है और खाना सिर्फ वह खा रहे हैं जो शुगर के हिसाब से खाना चाहिए।

             मिठाईयां बंद हो गईं। कितने दुख की बात है कि अब तरह-तरह की मिठाइयां जो इस संसार की शोभा बढ़ाती रही हैं और आज भी बढ़ा रही हैं ,हमारे मुंह की शोभा नहीं बढ़ा पाएंगी। बुरा हो उस मनहूस सुबह का जब हमने हॅंसी-हॅंसी में अपना भी ब्लड शुगर टेस्ट करा लिया। हम समझते थे कि हमें आज तक शुगर नहीं हुई है, इसलिए अभी भी नहीं होगी । सोचा चलो एक सर्टिफिकेट मिल जाएगा कि तुम ठीक-ठाक हो । हाथ आगे बढ़ाया । जॉंचने वाले ने उंगली में सुई चुभाई। ब्लड की जॉंच की और शुगर सौ से ऊपर थी। बिना कुछ खाए फास्टिंग में सौ से ऊपर। सच कहूॅं हमारी तो सॉंस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे रह गई। यह क्या हो गया !

         बस उसी समय से जीवन में अंधकार छाया हुआ है। सब लोग मीठा खाते हैं और हम गम खाते हैं ।आखिर बचा ही क्या है जिन्दगी में! फलों में मिठास है, खाने की हर चीज में मिठास है, अब जब मिठास ही खाने की वस्तुओं से चली गई तो फिर जीवन में मिठास कहॉं बची ? बड़ा कड़वा हो गया है जीवन ! मेरी समझ में नहीं आता कि यह शुगर की बीमारी कहॉं से आती है ? आदमी अच्छा भला है ।एक दिन उसे कह दिया जाता है कि तुम्हारे ब्लड में शुगर है। तुम शुगर के मरीज हो।

    परहेज इतने कि कुछ पूछो मत। दहीबड़ा भी खाओ तो बगैर सोंठ के ! क्या खाए ? आदमी मुँह लटकाए हुए कुर्सी पर बैठा हुआ है । आने वाला पूछता है “क्यों भाई ! मुॅंह लटकाए कैसे हो ? “जवाब देना पड़ता है “भाई साहब, शुगर हो गई है ”

   कुछ लोग दिलासा दिलाते हैं। कहते हैं, “मन छोटा न करो । हर तीसरे आदमी को शुगर है।”

        हमारा कहना है कि वह तीसरा आदमी हम ही क्यों हैं ? जो बाकी दो रह गए हैं, वह क्यों नहीं हैं ? भगवान किसी के साथ ऐसा अन्याय न करे । जिंदगी दी है तो मिठास भी दे। अब परहेज में जिंदगी गुजरेगी।

     शुगर के चक्कर में व्यवहार बदल गया। कल मैं एक फल वाले के पास गया। अंगूर देखे ,पूछा” कैसे हैं ? “वह उत्साह में भर कर बोला “बहुत मीठे हैं।” मैंने कहा “ज्यादा मीठे नहीं चाहिए “और मैं आगे बढ़ गया। वह बेचारा सोचता ही रह गया कि आखिर उसने ऐसा क्या कह दिया कि ग्राहक ने अंगूर नहीं खरीदे ।

     लोग कहते हैं कि दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं ,एक गरीब -दूसरे अमीर । लेकिन मेरा कहना है कि दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं ,एक वे जिनको शुगर है, दूसरे वे जिनको शुगर नहीं है ।शुगर वालों का एक अलग ही संसार है। वास्तव में सच पूछो तो “शुगर पेशेंट यूनियन “की आवश्यकता है ।और अगर सारे शुगर के मरीज मिल जाए बहुत बड़ा परिवर्तन समाज में जा सकते हैं।

     हमारा सबसे पहला काम इस मानसिकता को बदलना होगा कि उपहार में केवल मिठाई का डिब्बा ही देना चाहिए । मैं मिठाई के डिब्बों को देखता हूं , उनमें कितनी मिठाई ही मिठाई भरी हुई रहती है। इसके स्थान पर अगर मठरियाँ, मट्ठी, काजू के समोसे , खस्ता और दालमोठ रखी जाए तो कितना अच्छा होगा। शगुन के लिए अगर मिठाई देना जरूरी है तो डिब्बे के कोने में नुकती के चार लड्डू बिठाए जा सकते हैं । इसी तरह दावत में देखिए ! छह – छह मिठाई के स्टालों का क्या औचित्य है ? एक तरफ जलेबी,इमरती गरम गरम निकल रही है, दूसरी तरफ गुलाब जामुन, रसगुल्ला , मालपुआ है । “एक दावत एक मिठाई” इस सिद्धांत को व्यवहार में बदलना चाहिए। एक दावत में छह छह मिठाईयां शुगर वालों को चिढ़ाना नहीं तो और क्या है ?

निवेदन है:-

मर्ज शुगर का लग गया, अब हम हैं बीमार

रसगुल्ला सब खा रहे , टपकाएं हम लार

एक जगत में वे हुए , मीठा खाते लोग

दूजे उनको जानिए , मीठा जिनको रोग


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451