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बुधवार, 26 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के ठाकुरद्वारा निवासी साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा ....अपना बनता है

   


"यार एक डबल बैड बनवाना था, तुम्हारी कोई जानपहचान वाला हो तो बताओ जो ठीक-ठीक लगा ले और अच्छी चीज दे।" सुरेंद्र ने अपने दोस्त असद से कहा।

 "हाँ-हाँ क्यों नहीं, चलो मेरे साथ आज ही बात करवा देता हूँ।" असद ने अपनेपन से कहा और बाइक स्टार्ट कर ली।

 "देखो ये दुकान अपनी ही समझो, बहुत अच्छी चीज देगा और दाम बिल्कुल बाजिब लगाएगा।" असद ने एक दुकान के बाहर बाइक रोकते हुए कहा।

 "ठीक है यार चलो फिर देख लेते हैं कोई अच्छा सा बैड।" सुरेंद्र ने कहा।

  "तुम जाकर देखो मुझे जरा आगे कुछ काम है, मैं अभी दुकानदार से कह देता हूँ।" असद ने बिना बाइक बन्द किये कहा और तेज़ आवाज में दुकानदार से कहा, "अरे भाई क्या हाल हैं? जरा इन्हें एक अच्छा सा बेड दिखाओ और ठीक-ठीक लगा लेना अपना बन्दा है।"

  सुरेंद्र ने डबलबेड पसन्द कर लिया सौदा भी हो गया और बेड घर आ गया।

 कुछ दिन बाद उनका एक दोस्त दानिश उनसे मिलने आया और पूछने लगा, "अरे सुरेंद्र भाई ये बेड कितने का लाये?

 "बारह हजार का लिया यार, दुकानदार तो पन्द्रह से नीचे नहीं आ रहा था वो तो असद भाई ने उससे कहा कि अपना बन्दा है तब उसने बारह लिए।

 सुरेंद्र की बात सुनकर दानिश जोर-जोर से हँसने लगा।

 "क्या हुआ दानिश! तुम ऐसे हँस क्यों रहे हो?" सुरेंद्र ने हैरान होते हुए पूछा।

 "अपना बन्दा नहीं अपना बनता है बोला होगा असद ने, वह तो कमीशन एजेंट है बोले तो दलाल। यही बेड कल ही मैंने दस हज़ार का अपने भाई को दिलाया है। तुमसे दुकानदार ने दो हजार असद के ले लिए।

 क्या करें उसका बनता है यार...!" दानिश ने कहा और फिर और तेज़ हँसने लगा।


  ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

  ठाकुरद्वारा 

मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा .... प्रायश्चित


एक सप्ताह से डॉ जगदीश प्रजापति घर नहीं लौटे थे। उनकी पत्नी शकुंतला को उनकी बहुत चिंता हो रही थी। 

 "न जाने यह सरकार क्या करके छोड़ेगी, लोग बीमारियों से मर रहे हैं और सरकार ने सारे डॉक्टरों को नसबंदी के काम में लगा रखा है। ऊपर से टार्गेट भी फिक्स कर दिए हैं, अब या तो टारगेट जितनी नसबंदी करो या फिर कार्रवाई के लिए तैयार रहो। न जाने क्या होने वाला है, मेरा मन बहुत घबरा रहा है।" शकुंतला परेशानी में खुद से ही बातें कर रही थी तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।

 "कौन ??" शकुंतला ने दरवाजा खोलते हुए पूछा।

 दरवाजा खोलते ही जैसे उसकी साँस ही अटक गयीं। बाहर अस्पताल के दो कर्मचारी डॉ जगदीश को सहारा देकर खड़े थे। 

 "क्या हुआ उन्हें?? है ईश्वर दया करना।" शकुंतला ने अपने पति को ऐसे देखकर हाथ जोड़ते हुए कहा और उनके आने के लिए जगह छोड़कर खड़ी हो गयी।

 "क्या हुआ जी आपको? आप ऐसे कैसे आये हो, इन लोगों का सहारा लेकर?" जब अस्पताल वाले चले गए तो शकुंतला ने अपने पति के पास बैठते हुए पूछा।

 "शकुंतला! उस दिन नसबंदी के टारगेट में एक की कमी थी तो...", जगदीश जी ने धीरे से कहा।

 "हे भगवान! तो क्या आपने खुद की...? अभी तो हमारे कोई संतान भी नहीं हुई है और आपने अभी से...?" शकुंतला किसी अनहोनी की आशंका से लगभग बेहोश सी हो गयी थी।

 "संभालो खुद को शकुंतला, हमारे जैसे लाखों नौजवान हैं जिनकी संताने नहीं हैं, कितनों के तो विवाह तक भी नहीं हुए हैं और इस नसबंदी की आँधी उन्हें उजाड़ चुकी है। कितने तो मेरे ही हाथों..., बस उसी का प्रायश्चित करने के लिए मैं भी... अब मुझे इसी बहाने कुछ दिन की छुट्टी भी मिल जाएगी शकुंतला, मैं और पाप करने से बच जाऊँगा।" जगदीश जी ने कहा और दोनों की आंखों से आँसू बहने लगे।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

 ठाकुरद्वारा 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कविता .... गौरैया


आजा प्यारी गौरैया हम तुझको नहीं सतायेंगे।

दाने डाल टोकरी में अब तुझको नहीं फँसायेंगे।

छत पर दाना पानी रखकर हम पीछे हो जाएंगे।

छोटे छोटे घर भी तेरे फिर से नए बनाएंगे।

आजा प्यारी गौरैया अब तुझको नहीं सतायेंगे।।


हुई ख़ता क्या नन्हीं चिड़िया जो तू हमसे रूठ गयी।

या तू जाकर दूर देश में अपना रस्ता भूल गयी।

एक बार तू लौट तो आ हम सच्ची प्रीत निभाएंगे।

दूर से तुझको देख देखकर अब हम खुश हो जाएंगे।

आजा प्यारी गौरैया हम तुझको नहीं सतायेंगे।।


चीं चीं करती छोटी चिड़िया याद बहुत तू आती है।

जब कोई तस्वीर किताबों में तेरी दिख जाती है।

एक बार तू वापस आ हम फिर से रंग जमाएंगे।

सुंदर सी तस्वीर तेरी हम फिर से नई बनाएंगे।

आजा प्यारी गौरैया हम तुझको नहीं सतायेंगे।।


✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

ठाकुरद्वारा

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा .....प्रेम


"क्या आप अब मुझे बिल्कुल प्रेम नहीं करते बाबू? कितने दिन से आपने मुझे एक भी गिफ्ट नहीं दिया है।" लड़की ने अदा से इठलाते हुए लड़के की आँखों में देखते हुए पूछा।

 "प्रेम!!! मुझे लगता है मैं इतना महंगा प्रेम अफोर्ड करने की  हैसियत ही नहीं रखता बेबी। अगर हमेशा महंगे गिफ्ट देना ही प्रेम है तो सच में मैं तुमसे प्रेम नहीं करता क्योंकि मैं व्यापारी नहीं हूँ।" लड़के ने लड़की को खुद से अलग करते हुए कहा और सिर उठाकर मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गया।

✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर"

ठाकुरद्वारा

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ....शिक्षा का मंदिर


जय प्रकाश कोई बीस साल बाद गाँव लौटा तो उसके कदम अनायास की गाँव से सटे जँगल की और बढ़ गए जहाँ एक दूर तक फैला हुआ आश्रम था। आश्रम के मुख्यद्वार पर एक लकड़ी की बड़ी सी तख्ती लगी हुई थी, जिसपर मिट चुके अक्षरों में लिखा हुआ था "शिक्षाका मंदिर"।

जेपी जी हाँ अब जयप्रकाश को शहर में लोग इसी नाम से जानते थे, ने अपना बचपन और अपनी प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में प्राप्त की थी।

पण्डित बलदेव प्रसाद शास्त्री जी ने अपनी कोई चार एकड़ जमीन में यह आश्रम बनाया था जहाँ वे अपनी पत्नी सहित बच्चों को संस्कार युक्त शिक्षा देते थे।

उनके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने के लिए आते थे।

आश्रम में बच्चों के रहने और खाने की भी बहुत उत्तम व्यवस्था थी।

सभी बच्चों को स्वावलंबी बनाने की पण्डित जी की प्राथमिकता रहती थी।

आश्रम से पढ़े अनखों बच्चे देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे।

  जेपी भी शहर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुख्य अधिशासी के पद पर कार्य कर रहा था।

  जेपी को आश्रम को उजड़ा देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था। वह द्वार पर उग आयी जंगली लताओं को हटाकर द्वार के अंदर जाने लगा।

अभी उसने कदम बढ़ाया ही थी कि उसने पीछे से एक आवाज सुनी, "कहाँ जा रहे हो साहब जी? अब यहाँ कोई नहीं रहता।

"लेकिन ये आश्रम...?" जेपी ने पलटते हुए पूछा।

जेपी ने देखा पीछे एक बूढ़ा आदमी लाठी पकड़े खड़ा था।

"हाँ साहब आये थे एक संत स्वभाव के पण्डित जी जिन्होंने अपना सबकुछ लगाकर ये मंदिर बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में लोगों को ये संस्कारशाला अच्छी लगनी बन्द हो गयी।

और जब सन्त ने देखा कि लोगों को संस्कार और जीवन मूल्य सीखने से अधिक रुचि पाश्चत्य चीजों में हो रही है तो वे अंदर से आहत हो गए और एक दिन चले गए सबको छोड़कर। माता जी भी उनसे बिछोह सह नहीं पायीं और तीसरे ही दिन वे भी देह छोड़ गयीं।

बाकी रही बात आश्रम की तो साहब सन्त की माया थी जो उनके ही साथ चली गयी।

  आश्रम में छात्र तो ऐसे भी ना के बराबर ही रहते थे जो उनके जाते ही चले गए थे।

किसी ने भी गुरु के काम को आगे बढ़ाकर इस आश्रम को संभालने की कोशिश नहीं कि।

तो साहब 'अब यहाँ कोई नहीं रहता।" बूढ़े ने कहा और  लाठी खटखटाता एक ओर चल दिया।

जेपी का दिल जैसे बैठ सा गया था।

वह आश्रम को पुनः संचालित करने की योजना अपने दिमाग में बना रहा था। उसके कानों में बार-बार बूढ़े के शब्द गूँज रहे थे, "अब यहाँ कोई नहीं रहता साहब"

✍️ नृपेंद्र शर्मा सागर 

ठाकुरद्वारा, 

मुरादाबाद 

उत्तर प्रदेश, भारत


गुरुवार, 28 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर का एकांकी ....मुखबिर । यह एकांकी ’साहित्यिक मुरादाबाद’ द्वारा आयोजित लघु नाटिका / एकांकी प्रतियोगिता के कनिष्ठ वर्ग में द्वितीय स्थान पर रहा ।


पात्र
-

1-सुरेश उम्र 16/17 वर्ष

2-महेश उम्र 15 वर्ष

3-गणेश उम्र 14/15 वर्ष

4-शंकर  उम्र 14 वर्ष

5- भोला उम्र 12 वर्ष

6- मुरारी गौशाला का सेवक उम्र 40/45 साल


दृश्य 1

( शाम का समय है गाँव से बाहर गोशाला का दृश्य है।शाम के झुकमुके में कुछ बच्चे गौशाला के अंदर आते दिखाई देते हैं। अंदर चार लोग आकर ईंट और पत्थर के टुकड़ों पर बैठे हुए हैं इनकी उम्र 12 से 16 वर्ष के बीच है। इनके बदन पर हाथ के सिले चाक वाले बनियान और कमर में फ़टी पुरानी आधी धोती बंधी हुई है। एक लड़का जो उम्र में 16/17 वर्ष का दिखाई दे रहा है पतला दुबला इकहरा बदन। चेहरे पर बहुत गम्भीरता। चाक का कुर्ता और धोती पहने हुए एक ऊँचे मिट्टी के ढेर पर बोरी बिछा कर उनके मुखिया की तरह बैठा हुआ है। उसके सामने चार लड़के बैठे बहुत गम्भीरता से उसके कुछ बोलने का इंतजार कर रहे हैं। इन सभी की भावभंगिमा इतनी दृढ़ है कि ये सभी बहुत परिपक्व नज़र आ रहे हैं।)

 सुरेश- साथियों, जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं कि नेता जी आजकल हमारे देश को इन गोरों से आज़ाद करवाने के लिए एक सेना बना रहे हैं और उन्होंने उसका नाम रखा है 'आज़ाद हिंद फौज'।कल शाम को मैंने रेडियो पर उनका संदेश सुना जिसमें वे कह रहे थे 'प्यारे देशवासियों आज़ादी दी नहीं जाती बल्कि ली जाती है। कोई भी अपने गुलाम को स्वेच्छा से कभी मुक्त नहीं करना चाहता। किन्तु परिस्थितियों का निर्माण करके उसे मुक्त करने पर विवश किया जा सकता है। आज हमारे अंदर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए, मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके; एक शहीद की मौत मरने की इच्छा ताकि स्वतंत्रता का मार्ग शहीदों के खून से प्रशस्त हो सके।ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का मोल अपने खून से चुकाएं। हमें अपने बलिदान और परिश्रम से जो आज़ादी मिलेगी, हमारे अंदर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए।

" तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूँगा" 

मेरे प्यारे युवाओं, ये आज़ादी एक महायज्ञ है और इसमें सभी को यथासंभव आहूति देनी ही होगी। तो आओ, आगे बढ़ो और हमारे साथ इस महायज्ञ में जुड़ों।

भोला- लेकिन हम तो अभी बच्चे हैं! हमारे अंदर कितना खून होगा? क्यों महेश होगा मेरे अंदर एक सेर खून? हाँ इतना तो ज़रूर होगा…! तो तय रहा सुरेश भैया मैं अपना पाव सेर खून देने के लिए तैयार हूँ। लो निकाल लो (मुट्ठी बाँध कर हाथ आगे बढ़ाते हुए) लेकिन सुई आराम से घुसाना, वैसे  तो मैं बहुत बहादुर हूँ। बस, इस दवा वाली सुई से डर लगता है।

 (उसकी बात सुनकर सारे जोर से हँसते हैं और भोला और ज्यादा भोला चेहरा बनाकर उनको देखता है।)

 महेश- बुद्धू, ये खून निकालकर देने की बात नहीं हो रही। तूने वह कहावत नहीं सुनी 'खून पसीने की कमाई' बस ऐसे ही ये आज़ादी भी हमें खून पसीने से कमानी होगी। इसका अर्थ ये है कि हमें मरने मारने के लिए तैयार रहना होगा। तभी तो ये गोरे लोग डरकर हमारे देश से भागेंगे।

शंकर - हाँ, यही बात है और पसीना तो गांधी जी और उनके साथी कांग्रेसी बहा ही रहे हैं। हमें तो क्रांतिकारियों की राह पर चलकर अपने प्राण रूपी लहू की आहुति देनी है।

(भोला पूरी गम्भीरता से उनकी बात सुनता है और समझ जाने के अंदाज़ में सिर हिलाता है।)

गणेश- हमारे गाँव और आसपास के क्षेत्र में भी कुछ लोग हैं जो नेताजी के विचारों से सहमत हैं और अपनी-अपनी तरह से अंग्रेजों को नुकसान पहुंचा रहे  हैं। हम लोगों को उनसे संपर्क करके उनके दिशानिर्देशों में काम करना चाहिए या फिर किसी तरह सम्पर्क जुटाकर आज़ाद हिन्द फौज से जुड़ना चाहिए तभी हमारा आज़ादी की लड़ाई का संकल्प साकार रूप ले पायेगा और लोग हमें जानेंगे।

भोला- बात ठीक है गणेश भाई की, ऐसे भी हम तो बच्चे हैं। हमें अपने साथ एक मार्गदर्शन करने वाला बड़ा आदमी भी चाहिए जो हमें सही और गलत की सलाह दे सके।

सुरेश- लोग हमें जाने या ना जाने गणेश किन्तु हमने अब आज़ादी के ये अपनी आहुति देने का संकल्प ले लिया है। अब हमने अपने तरीके से काम करना शुरू भी कर दिया है। और जहाँ तक किसी बड़े का सवाल है तो मुरारी काका तो हैं ही हमारे साथ। उनके कुछ क्रांतिकारियों से भी सम्पर्क हैं। वे बता रहे थे की कई बार क्रांतिकारी लोग अंग्रेजों से छिपने के लिए इस गौशाला का सहारा लेते हैं। मुरारी काका अपनी सेवा इसी रूप में दे रहे हैं कि वे क्रांतिकारियों को यहाँ सुरक्षित शरण देते हैं और उनके भोजनादि की व्यवस्था करते हैं। उन्होंने मुझे कहा था कि आज कुछ क्रांतिकारी लोग यहाँ आने वाले हैं। मैंने आज तुम सभी को इसीलिए यहाँ बुलाया है ताकि तुम लोग भी उनसे मिल सको और आज मैं उनसे हम लोगों को भी उनके साथ शामिल करने की प्रार्थना करने वाला हूँ। तुम लोग भी इसमें मेरा साथ देना, उन्हें पूरा भरोसा होना चाहिए कि हम लोग पूरे मन से इसके लिए तैयार हैं।

 (सभी एक स्वर में बोलते हैं।)" हम सभी तैयार हैं, हम देश की आज़ादी के महायज्ञ में अपने खून की आखिरी बून्द तक की आहुति देने को तत्पर रहेंगे।" 

(तभी किसी के कदमों की तेज आवाज आती है मानो कोई तेज़ी से दौड़कर आ रहा हो। सभी बच्चे झपटकर चारा पानी और सफाई में लग जाते हैं मानो सभी गौशाला में काम करने वाले सेवक हों। मुरारी बदहवास दौड़ता हुआ इनके पास पहुँचता है।मुरारी एक कमज़ोर शरीर वाला छोटे कद का काला से व्यक्ति है उसने आधी धोती को कमर में बांध रखा है, ऊपर नङ्गे बदन है। उसके सिर पर एक अंगोछा बंधा हुआ है और हाथ में लाठी पकड़ी हुई है।)

सुरेश- क्या हुआ काका आप इतने परेशान क्यों दिख रहे हो? सब ठीक तो है?

मुरारी- गज़ब हो गया बच्चो, हमारे क्रांतिकारियों की किसी ने मुखबिरी कर दी। तीन लोगों को पुलिस ने पकड़ लिया और अब बाकियों की तलाश में जगह-जगह छापेमारी हो रही है।

महेश- क्या, मुखबिर का पता लगा?

मुरारी- पता तो नहीं लेकिन लोगों को सुबहा है कि रायबहादुर ही इस मुखबिरी के लिए जिम्मेदार है। पर किसी के पास भी इस बात का कोई सबूत नहीं है कि रायबहादुर ही मुखबिर है।

गणेश- बात ठीक ही है सुरेश भाई, क्योंकि रायबहादुर अंग्रेजों का खास आदमी है। वह उनका नमक खाता है तो उनकी वफादारी तो ज़रूर निभाता होगा।

सुरेश-  ठीक है काका आप जाओ और आसपास नज़र रखो, अगर कुछ भी असुरक्षित लगे तो कोयल की आवाज करके हमें सचेत कर देना।

मुरारी-  ठीक है बच्चों लेकिन जो भी करना पूरी सावधानी से करना क्योंकि अब अंग्रेजों की सतर्कता इस क्षेत्र में बढ़ गयी है।

महेश - आप चिंता ना करें काका जी हम सावधान रहेंगे।

(मुरारी धीरे-धीरे चला जाता है। बच्चे फिर अपनी-अपनी जगह बैठ जाते हैं।)

शंकर-  भाई सुरेश, अगर ये मुखबिर ना होते तो हम लोग कबके इन गोरों का मुँह काला करके भारत से बाहर भगा चुके होते। लेकिन, क्या करें इस मुखबिरी के चक्कर में कितने ही क्रांतिकारी पकड़े जाते हैं और फाँसी चढ़ा दिए जाते हैं। ये मुखबिरी करने वाले बिके हुए लोग चन्द सिक्कों के बदले अपनी माँ का आँचल बेचने में भी परहेज नहीं करेंगे। उसपर ये दुःख की लोग केवल इनपर सन्देह ही करते हैं। कोई भी पक्के विश्वास से किसी भी मुखबिर को पकड़कर कभी उसे सजा नहीं देता।

भोला (जो बहुत देर से शान्त बैठा सारी बात सुन रहा था-) ये मुखबिर कौन होता है भाई?

महेश-  मुखबिर वो मुआ होता है जो किसी की चुगली करके उसकी खबर उसके दुश्मनों को देता है। जैसे कि किसी मुखबिर ने हमारे छिपे हुए क्रांतिकारी साथियों की खबर हमारे शत्रु अंग्रेजों को दे दी और अब अंग्रेज हमारे देश के उन सेवकों को पकड़कर ले गए। अब उनपर मुकदमा होगा और उन्हें फाँसी पर लटकाकर मार दिया जाएगा।

भोला- भाई सुरेश अभी आप बता रहे थे ना कि आजादी के लिए हमें खून देना होगा? 

सुरेश- हाँ कहा था।

भोला- तो क्यों ना हम मुखबिर का खून आज़ादी की देवी को चढ़ा दें? क्यों न हम कोई ऐसा उपाय करें जिससे सही-सही पता लग जाये कि कौन मुखबिर है जिसने हमारे आज़ादी के सिपाहियों को अंग्रेजों के हाथ पकड़ा दिया। और फिर हम उसका खून चढाकर आज़ादी के सिपाहियों के रास्ता साफ कर दें?

(सुरेश, महेश, गणेश और शंकर एक स्वर में, "वाह भोला तेरे छोटे दिमाग ने तो बड़ी बात कर दी आज।)

सुरेश-  साथियों, अब हमें अपना लक्ष्य मिल गया है। अब हम एक युक्ति लगाएंगे और मुखबिर को पहचान कर उसे सजा देकर आज़ादी की इस लड़ाई में अपना योगदान सुनिश्चित करेंगे।

(बाकी लोग एक स्वर में) "ज़रूर करेंगे हम मां भारती की शपथ लेते हैं।

शंकर- लेकिन सुरेश भाई इसके लिए कोई सटीक योजना है आपके पास?

सुरेश- हाँ है, आओ बताता हूँ।

(सभी लोग सिर जोड़कर कुछ देर बात करते हैं और फिर मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाकर चले जाते हैं।)

दृश्य-2 समय दोपहर का

स्थान जँगल के बीच एक बड़े बरगद से कुछ दूर एक झाड़ी के झुरमुट में।

(सुरेश और महेश बरगद की ओर टकटकी लगाए बैठे हुए हैं तभी चार अंग्रेजी सिपाही कुदाल लिए आते दिखाई देते हैं और बरगद की ओर बढ़ रहे हैं।)


सुरेश- वो देखो गोरे, और हाथ में खोदने के औजार भी। इसका मतलब मुखबिर का संदेह सही था। रायबहादुर ही मुखबिर है। लेकिन, हम लोगों के जाल में पहले इन्हें फँसने दो।

महेश-  सही कहते हो भाई, इस स्थान पर क्रांतिकारियों के गोला बारूद छिपे हैं इसकी खबर हम लोगों ने केवल रायबहादुर के ही कान तक पहुंचाई थी और ये गोरे उसे निकालने भी आ गए।

(अभी ये लोग बातें कर ही रहे थे कि अंग्रेजी सिपाहियों की चीख गूंज उठी और वे चारों लहराते हुए घास-फूंस से ढके एक पुराने कुएं में गिर गए।)

सुरेश-  इनकी बलि तो चढ़ गई, अब चलो रायबहादुर का इलाज सोचा जाए।


  दृश्य-3 

शाम का समय 

स्थान गौशाला

(सारे बच्चे अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए हैं।)

गणेश- सुरेश भाई क्या ये स्पष्ट हो गया कि रायबहादुर ही मुखबिर है?

सुरेश- हाँ दोस्तों ये बात सच है कि रायबहादुर ही वह मुखबिर है जिसकी वजह से हमारे देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी पकड़े गए।हमने जँगल में बारूद छिपी होने की बात और जगह की खबर केवल रायबहादुर के कानों तक ही पहुँचायी थी और आज अंग्रेजों के सिपाही उसे खोजने भी पहुंच गए। इस बात से साफ हो गया कि वही इस मुखबिरी का एकमात्र अपराधी है।

महेश-( हँसते हुए) बेचारे अंग्रेजों के सिपाही…! चले थे बारूद खोजने लेकिन हमारे बिछाए जाल में फँसकर मौत के कुँए कर कैद हो गए हैं।

शंकर- लेकिन अब उस रायबहादुर का क्या करना है साथियों ?

सुरेश- (मुस्कुराते  हुए) वही जो उसने किया था, उसने क्रांतिकारियों की खबर अंग्रेजों को दी थी और हमने उसकी खबर क्रांतिकारियों को दे दी। मुरारी काका बस आते ही होंगे।

(तभी कदमों की आवाज़ आती है, सभी लोग उठकर काम की और दौड़ने का उपक्रम करते हैं लेकिन सुरेश उन्हें हाथ से इशारा करके रोक लेता है।अभी ये लोग सुरेश की ओर देख ही रहे  होते हैं तभी सामने से मुरारी और उनके पीछे 4 आदमी आते दिखाई देते हैं।)

आगन्तुक1-  मुझे गर्व है भारत के बच्चों पर। आज आप लोगों ने सिद्ध कर दिया कि भारत का भविष्य सशक्त और बुद्धिमान है। चारों अंग्रेजी सिपाही अपने अंजाम तक पहुँच चुके हैं और आज ही की रात मुखबिर का खून भी आज़ादी पर चढ़ जाएगा।

सभी लोग एक साथ जयघोष करते हैं, "भारत माता की जय। आज़ादी लेकर रहेंगे।

वन्देमातरम।।

✍️ नृपेंद्र शर्मा सागर

ठाकुरद्वारा 

जिला मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 9045548008

रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की रचना ---पिता जगत की धुरी हैं


 नीर पनघट सा नयन में,

छलके ना पर बून्द भी।

भावनाएं लाख मन में,

छिपी रहती हों सभी।

कुम्भकार ज्यूँ संभाले,

है पिता भी बस वही।।


हाथ भीतर प्रेम का हो

बाहर दृष्टि में क्रोधपुट।

हृदय में कोमल लहर हो

वाणी में हो कड़कपन।

पिता ही देते दिशा,

किधर जाए लड़कपन।


पिता ईश्वर का स्वरूप

पिता की उपमा नहीं।

पिता की हृदय व्यथा को,

कोई भी समझा नहीं।

पिता जगत की धुरी हैं।

पिता को करते नमन।।

✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा,मुरादाबाद

बुधवार, 18 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की कहानी ---- दादी


चिंटू अरे ओ चिंटू,,,, 

अस्सी बरस की रामकली बिस्तर पर लेटे लेटे अपने पोते को पुकार रही है। 

रामकली बूढी अवश्य हो गई है किंतु जीवन जीने की आशा ने उसे कभी जीर्ण होने नहीं दिया। खाल सिकुड़ अवश्य गई है किंतु मन की तरुणाई कहीं उसके मनन करते मन के किसी कोने में अभी भी जीवित है और जीवन की इसी आशा ने कभी उसके हाथ पांव को जड़ करने की जुर्रत नहीं की लेकिन अब हाथ पांव में कम्पन अवश्य होने लगा है। 

क्या हुआ जो चन्द कदम चलने के प्रयास में साँस चढ़ जाती है। इस से उसके मन के दौड़ते मनोभावों को तो विराम नहीं लगता। 

वह पुनः अपनी खटिया में लेट कर मन की कल्पना के अश्व पर सवार हो चल पड़ती है, अपनी विचार यात्रा पर। 

उसका साठ साल का बेटा रामधन जो खुद भी बूढ़ा हो चला है , किन्तु माँ की दृष्टि उसे अभी भी तरुण ही समझती है , और अपनी नसीहत न मानने पर ,मन ही मन खीझती है।

रामकली की कल्पना कभी उसे खेत पर ले जाती है जहाँ, रामधन अपने खुद की तरह जीर्ण होते बैलों के कंधे पर जुआ रखे, उसमे हल बांधे  इनके पीछे-पीछे हाथ में लकड़ी लिए कभी पुचकरता कभी भद्दी गालियां देता कभी मारता हुआ चल रहा है। 

रामकली सोचती कितने निकम्मे बैल हो गए हैं । मार से भी नहीं बढ़ते ,बेचारा 'रामधन' इस गति से कैसे इतने बड़े खेत को जोत पायेगा ,अभी तो तीन हिस्सा बाकी है। 

यही बैल रामधन के बापू की एक हांक पर कैसे हवा से आंधी बन जाते थे और आज देखो,,,!!!

रामधन के बापू का ख्याल आते ही रामकली के झुर्रियो भरे गाल लाल हो गए और कुछ क्षण के लिए झुर्रियों के बीच से बीस वर्ष की लजाती हुई सोहनलाल को छिप कर देखती हुई रामकली प्रकट हो गई। 

जो दोपहर को मटकती लहराती रोटी की पोटली बांधे पतली मेड़ो से होकर रास्ता छोटा करते हुए खेत पर जा रही है। उसे मन मीत से मिलने की शीघ्रता है या उन्हें जल्दी खाना खिलाने की लालसा ये तो उसका मन ही बेहतर जाने।

इसे दूर से आता देख सोहन भी बैलों को हल से मुक्त कर पेड़ के नीचे घास पर बैठ जाता।

बैल भी शायद उसके आने से प्रसन्न हो जाते ,ये कार्य मुक्ति की प्रसन्नता है,,, 

"नहीं नहीं" रामकली बैलों के लिए गुड़ के ढेले लेकर आती है उसी लालच में बैल पूंछ पटकते हैं। 

सोहन जब तक भोजन करता रामकली उसके मुख को तकती लजाती रहती। कितना प्यार करते थे रामधन के बापू उसे।

और वह खो जाती प्रेम मिलन की उस अद्भुत कल्पना में जिसमेंं उसके पूरे बदन में जोश और लज्जा के साझा रक्त संचार से ,कुछ पल को जवान रामकली लौट जाती। उस कल्पना में रामकली कभी मुस्कुराती कभी लजाती कभी खुद में ही सिमट जाती कितने भाव उसके मुख की भाव भंगिमा की बदलते रहते। 

अब रामकली अपने मन की कल्पना के घोड़े को एड लगाती चली जाती मोहन की दुकान पर । 

मोहन रामकली का पोता और रामधन का लड़का है ,पैंतीस बरस का मजबूत सुंदर जवान। 

रामकली को उसमेंं सोहन की छवि दिखती है वो उसे देख कर बलिहारी जाती है ।

जुग-जुग जिए मेरा मोहन बिलकुल अपने दादा पर गया है। आज अगर बो होते तो देखते रत्ती भर का बी फर्क नई पडा सूरत में बोही नयन नक्शा बैसे ही चौड़े कंधे।

काश !!!  वह होते आज ,,,

सोचकर रामकली की आँखे गीली हो गईं ।

यही मोहन दो बरस का था जब इसे बरसात की उस  रात उलटी दस्त लग गए थे । 

गांव के हकीम जी ने कहा सोहन शहर ले जा बच्चे को यहाँ इलाज़ ना है अब इस बीमारी का। सारे गांव में बीमारी फैली है साफ सफाई बी ना है गांव में जल्दी कर । 

और सोहन रात में ही मोहन की छाती से लगाए दौड़ गया था शहर की और ।

कोई सवारी का साधन नहीं था बस बही बैल गाड़ी। और सोहन ने कहा बैलगाड़ी से जल्द तो मैं पहुंच जाऊंगा बटिया से दौड़ कर ।  भीगते भागते दौड़ते उसने मोहन को तो बचा लिया, शहर ले जा कर, लेकिन खुद को मियादी बुखार से न बचा पाया ,और छोड़ गया रामकली को बेसहारा । 

तब से मोहन को रामकली ने अपना साया देकर पाला । अपनी सारी शक्ति अपना सारा सुख और मन के सारे कोमल भाव लगा दिए रामकली ने परिवार को पालने में।

चिंटू उसी मोहन का सात बरस का बेटा है। आजकल रामकली सोच रही है रामधन के बापू ने जन्म लिया है चिंटू के रूप में और अपना संपूर्ण वात्सल्य लुटा रही है ,अपने इस पड़पोते पर। 

आज कोई उसे लड्डू दे गया था सुबह बस वही पल्लू के कोने में बांधे पुकार रही है,, चिंटू अरे ओ चिंटू कहाँ है रे,,, 

तभी कहीं से चिंटू लौट आया,, क्या है दादी,, ?

हर वक्त चिंटू- चिंटू बोल क्या काम है,,??

ये वात्सल्य के परदे से बंद आँखे सब अनदेखा करती टटोल कर पल्लू खोलती लड्डू निकलती है।

हैं !!लड्डू,, 

कहाँ से लाई दादी ,

मेरी प्यारी दादी कहते हुए चिन्टू उसकी गोद में घुसकर लड्डू में मुँह मारने लगता है।

✍️ नृपेन्द्र शर्मा "सागर",ठाकुरद्वारा




गुरुवार, 5 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा --बेकार नोट


आज एक पुरानी डायरी पढ़ते समय अचानक पाँच सौ का पुराना नोट सुमित की गोद में आ गिरा।

ये वही नोट था जो उसे उसकी प्रेमिका ने एक हज़ार रुपये लेकर उसके लाख मना करने पर भी यह कहकर वापस कर दिया था कि उसे बस पाँच सौ की ही जरूरत है।

और उसने शरारत से उस नोट पर "आई लव यू सुमित" लिखकर नीचे अपना नाम भी लिखा था।

सुमित ने अपनी प्रेम की कविताओं की डायरी में इसे बहुत सहेज कर रख दिया था जिसमें हर कविता के नीचे उसने अपनी प्रेमिका का नाम लिखा था।

नोट बन्दी से ठीक चार घण्टे पहले ही तो उनका ब्रेकअप हुआ था किसी छोटी सी बात को लेकर।

"अब ना ये नोट किसी काम का है और ना ही इसपर लिखा नोट", सुमित ने धीरे से कहा और उस नोट के टुकड़े कर दिए।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की कहानी ----सूखे सोत का भूत

 


बात कोई बीस साल पुरानी है मैं और मेरा मित्र अर्जुन सिंह मेरे मामा के घर जा रहे थे, मेरे माना का घर कालागढ़ के पहाड़ी की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है।

गांव तक जाने के लिए बस से उतर कर लगभग तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था और हमारे यहां से लगभग साठ किलोमीटर बस से जाना पड़ता था।

घर से हम चाहे कितनी भी सुबह चलें, तीन बसें बदलकर वहाँ पहुचने में दोपहर हो ही जाती थी।

हम दोनों ठीक 12 बजे बस से उतरे और चल दिये पैदल गांव की ओर।

क्यों ना लंबे रास्ते के बजाए सूखे सोत (पहाड़ से बरसात का पानी लाने वाली एक गहरी नदी जैसी संरचना) से चलें जहां से हमे गांव जाने के लिए आधी दूरी (यही कोई दो किलोमीटर) ही चलना पड़ेगा,किन्तु उस रास्ते में तो जंगली जानवर??? अर्जुन ने कहा।

जंगली जानवर सदा अकेले आदमी पर हमला करते हैं, मैने समझाया।

और चोर खले का छलाबा??,अर्जुन फिर डरते हुए बोला।

अरे यार उस जगह का तो नाम ही चोर खला है वहाँ भूत का छलाबा नहीं रहता बल्कि चोर रहते हैं जो लोगों को डराकर उन्हें लूट लेते हैं, मैंने उसे बताया।

और हम दोनों आधा किलोमीटर सड़क पर चलकर सोत में उतर गए ये सोत मुख्य सड़क से लगभग दस मीटर गहरा और बीस मीटर चौड़ा किसी नदी के जैसा ही था जिसमें सुखी सफेद रेत भरी रहती थी और उसके दोनों किनारों पर घनी झाड़ियां तथा ऊंचे पेड़ लगे थे।

जून की भरी दोपहरी में भी उसके अंदर छाया के कारण अच्छी ठंडक हो रही थी।

हम दोनों लोग मज़े में चले जा रहे हे तभी हमने देखा चोर खले के पास (लगभग दस मीटर दूर) एक सरदार अजीब सी हरकते कर रहा था।

मैंने इशारे से अर्जुनसिंग को चुप रहते हुए रुकने का इशारा किया और सामने देखने को कहा।

वह सरदार डर से कांप रहा था वह अचानक जोर से गिर गया, ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसे मार रहा है और वह अपने हाथ सामने करके बचने की कोशिश कर रहा है।

अचानक वह रेत में जोर से लुढका जैसे किसी ने उसे फेंका हो।

क्या है वहाँ?? अर्जुन ने पूछा ।

छलावा,, मैंने सामने देखते हुए कहा।

क्या ये सरदार छलावा है? अर्जुन ने फिर पूछा।

नहीं छलावा इसके सामने है।

फिर हमें क्यों नही दिख रहा? अर्जुन ने फिर पूछा।

तभी सरदार अपनी गर्दन अपने दोनों हाथों से पकड़ कर किसी से छुड़ाने के प्रयास में खुद ही दबाने लगा।

आओ अर्जुन, मैने अर्जुन का हाथ पकड़कर उधर दौड़ लगा दी और अपनी बोतल का पानी जोर से उसके मुंह पर फेंक दिया।

पानी पड़ते ही सरदार जैसे नींद से जगा हो, वह चोंकते हुए बोला , कहाँ गया भूत??

तुम लोग कौन हो?? 

हम हैं अर्जुन और पंडित,मैने हँसते हुए कहा।

आपको क्या हुआ था?? अर्जुन ने पूछा।

भ, ,, भूत था यहाँ, मैं जैसे ही यहां आया वह इस खले(पाइप लाइन दबाने के लिए बने बड़े गड्ढे) से निकलकर अचानक मेरे सामने आ खड़ा हुआ ओर हंसते हुए बोला आगे जाना है तो मुझे कुश्ती में हरा कर जाओ।

मैने उसके सामने हाथ जोड़ दिए कि वह मुझे जाने दे मैं उसके मुकाबले बहुत कमजोर हूँ।

लेकिन वह मुझे उठा उठा कर पटकने लगा, वह तो मुझे गला दबाकर मार ही डालता अगर तुम दोनों मुझे बचा नहीं लेते।

आपको भूत नहीं आपका डर मार रहा था, अगर आपने हिम्मत करके उससे कहा होता कि आजा लड़ ले फिर वह चुपचाप भाग गया होता मैंने हंसते हुए कहा ।

आपको कहाँ जाना है आइये चलिए हमारे साथ अर्जुन बोला और हम हँसते हुए अपनी मंज़िल की ओर चल दिए।

✍️ नृपेन्द्र शर्मा 'सागर', ठाकुरद्वारा


बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की कहानी ------ और वह मर गयी


नदी किनारे गांव के एक छोर पर एक छोटे से घर में रहती थी गांव की बूढी दादी माँ। घर क्या था ,उसे बस एक झोंपडी कहना ही उचित होगा। गांव की दादी माँ, जी हां पूरा गांव ही यही संबोधन देता था उन्हें। नाम तो शायद ही किसी को याद हो।

70/75 बरस की नितान्त अकेली अपनी ही धुन में मगन। कहते हैं पूरा परिवार था उनका नाती पोते वाली थीं वो। लेकिन एक काल कलुषित वर्षा की अशुभ!! रात की नदी की बाढ़ ,,, उनका सब समां ले गई अपने उफान में । 

उसदिन सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कि, वो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ बच्चा होने की खुशियां मनाने गई हुई थीं। कौन जानता था कि वह मनहूस रात उनके ही नाती बेटों को उनसे दूर कर, उन्हें ही जीवन भर के गहन दुःख देने को आएगी। 

उसी दिन से सारे गांव को ही उन्होंने अपना नातेदार बना लिया, और गांव वाले भी उनका परिवार बन कर खुश थे।किसी के घर का छोटे से छोटा उत्सव भी उनके बिना न शुरू होता न ख़तम। गांव की औरतें भी बड़े आदर से पूछती," अम्मा "ये कैसे करें वो कैसे होता है और अम्मा बड़े मनुहार से कहती इतनी बड़ी हो गई इत्ती सी बात न सीख पाई अभी तक । सब खुश थे सबके काम आसान थे । किसी के यहां शादी विवाह में तो अम्मा 4 दिन पहले से ही बुला ली जाती थीं।हम बच्चे रोज शाम जबतक अम्मा से दो चार कहानियां न सुन ले न तो खाना हज़म होता और न नींद ही आती। अम्मा रोज नई नई कहानियां सुनाती राजा -रानी, परी -राक्षस, चोर -डाकू ऐंसे न जाने कितने पात्र रोज अम्मा की कहानियों में जीवंत होते और मारते थे।

समय यूँही गुजर रहा था और अम्मा की उम्र भी। आजकल अम्मा बीमार आसक्त हैं उनको दमा और लकवा एक साथ आ गया। चलने फिरने में असमर्थ , ठीक से आवाज भी नहीं लगा पाती । कुछ दिन तो गांव वाले अम्मा को देखने आते रहे, रोटी पानी दवा अदि पहुंचते रहे। लेकिन धीरे धीरे लोग उनसे कटने लगे बच्चे भी अब उधर नहीं आते कि, कहीं अम्मा कुछ काम न बतादे। 

वो अम्मा जिसका पूरा गांव परिवार था अब बच्चों तक को देखने को तरसती रहती।

वही लोग जिनका अम्मा के बिना कुछ काम नहीं होता था , अब उन्हें भूलने लगे। 

औरते अब बच्चो को उधर मत जाना नहीं तो बीमारी लग जाएगी की शिक्षा देने लगी। 

अम्मा बेचारी अकेली उदास गुनगुना रही है- 

सुख में सब साथी दुःख में न कोई। 

अब तो कोई उधर से गुजरता भी नहीं । अम्मा आवाज लगा रही है अरे कोई रोटी देदो। थोड़ा पानी ही पिला दो।।।।!!

नदी किनारे रहकर भी अम्मा पानी के घूँट को तरसती उस रात मर गई। 

सुबह किसी ने देखा और गांव में खबर फैली कि बुढ़िया जो नदी किनारे रहती थी आज मर गई।

लोग आये दो चार बूँद आंसू गिराये औरतों में चर्चा थी बेचारी सब के कितना काम आती थी,और आज मर गई।

कुछ देर में बुढ़िया का शरीर आग के घेरे में पड़ा था। लोग अपने घर लौट रहे थे और अब कहीं चर्चा नहीं थी कि वह मर गई। 

यही दुनिया है यही इसकी रीत है। जीवित हैं तो सबके हैं । मर गए तो भूत हैं। और कोई याद तक नहीं करता कि वह मर गई।

,✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर"

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा---- -सरकारी अनाज


"नहीं नहीं आपके गेहूं का ये रेट नहीं मिलेगा, आपके गेहूं में बहुत कबाड़ है। आपको 20 परसेंट काट कर रेट मिलेगा", सरकारी तौल पर अधिकारी ने किसान से ऊँची आवाज में कहा।

"लेकिन हुज़ूर इस बोरी में तो वह गेहूं है जो हर महीने राशन कोटे से हमें मिलता है।

पिछले चार महीने से यही गेहूं मिल रहा है राशन में, और इसे घर में सबने खाने  से मना कर दिया; जबकि हम किसानों का अनाज तो तीन तीन बार छान कर भी 10 से 20 परसेंट काट कर रेट दिया जाता है", किसान ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा---- लापरवाही

 


"कितने गड्ढे हो गए हैं सड़क में, सरकार भी ना जाने किस गम्भीर हादसे के इंतज़ार में आँखे मूँदे बैठी रहती है", सड़क के छोटे से गड्ढे से एक बड़ा पत्थर उखाड़ कर जैक के नीचे लगाकर, पंक्चर हुए टायर को घूरते हुए अब्दुल बड़बड़ाया और जैक का लीवर हिलाने लगा।

✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद

बुधवार, 30 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा --बिन बुलाई मुसीबत

 


रोहन जँगल में जोर-जोर से गिनता हुआ जा रहा था,

"एक....दो...तीन...,

आठ...नौ.. दस.."

जैसे ही उसके मुंह से निकला "दस" 

अचानक एक भयंकर काला नाग उसके सामने प्रकट हो गया।

उसे देखकर रोहन के तो जैसे प्राण ही गले में आ गए, फिर भी वह हिम्मत करके हाथ जोड़ते हुए बोला, "जय हो नाग देवता की, किन्तु आप अचानक कैसे प्रकट हो गए? 

आप देव हैं मैं एक नन्हा बालक, आप कृपा करके मेरा मार्ग छोड़ दीजिए।

"अभी तुमने ही तो मुझे बुलाया है डसने के लिए, और अब जाने को कहते हो।

अब तो मैं तुम्हे डसकर ही जाऊँगा", नाग हँसते हुए मनुष्य की आवाज में बोला।

"मैं.... मैंने कब बुलाया आपको नागराज?" रोहन की घिग्गी बन्ध गयी।

"अच्छा  अभी तुमने कहा नहीं कि डस", नाग उसे याद दिलाते हए बोला।

"अर्रे वह तो मैं गिनती...", रोहन याद करते हुए बोला।

"हाँ तो जब भी कोई यहाँ आकर 'डस' बोलता है मैं आकर उसे डस लेता हूँ", नाग ने कहा।

"लेकिन आप हो कौन?", रोहन ने पूछा।

"मैं एक प्यासी रूह हूँ, मुझे बहुत भूख लगती है लेकिन मैं एक वचन में बंधा हुआ हूँ कि जबतक की मुझे खुद डसने को ना कहे मैं किसी को नहीं डस सकता। आज बहुत दिन बाद तुमने यहां आकर 'डस' कहा है । नाग उसपर झपट्टा मारते हुए बोला।

"रुको!! तनिक ठहरो। मैंने 'डस' नहीं 'दस' कहा था तुम मुझे नहीं दस सकते", रोहन जोर से बोला।

"डस ही बोला था तुमने अन्यथा मैं यहां आता ही नहीं", नाग फुफकारते हुए बोला।

अब रोहन बहुत घबरा गया, वह बचने की कोई युक्ति सोच रहा था तभी उसके दिमाग ने कुछ संकेत किया।

"लेकिन मैंने तो 'नहीं डस' बोला था तुमने पूरी बात सुनी ही नहीं", रोहन बोला।

"लेकिन तुमने 'नहीं' कब कहा था तुमने तो नो...दस.. कहा था", नाग एकदम से कह गया।

"वही तो मैने तो दस कहा था तुमने डस कैसे सुन लिया", रोहन मुस्कुरा कर बोला।

नाग खुद की बातों में फंस चुका था अतः चुपचाप झाड़ी में सरक गया और रोहन भी चुपचाप आगे बढ़ गया। 

उसकी धड़कने अभी भी शोर मचा रही थीं।


✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद

बुधवार, 23 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा ----- नर पिशाच


 "अरे! देखो ये पिशाच लड़के को खा रहा है, उसका खून पी रहा है",

जमा होती भीड़ में से कोई चिल्लाया।

लड़के के जिस्म पर झुके उस आदमी ने झटके से अपना सर ऊपर उठाया,

उसके मुँह से खून टपक रहा था और उसके हाथों ने लड़के के पैर को पिंडली पर कसकर पकड़ा हुआ था। उसने इस जुटती हुई भीड़ को उपेक्षा से देखा और फिर अपना मुँह लड़के की पिण्डली से बहते खून पर लगा दिया।

"तेरी इतनी हिम्मत शैतान-नर पिशाच!! कि तू हमारे बेटे का खून पिये", कहकर ठाकुर साहब ने पिस्तौल निकाली और धाँय!! धाँय!!! दो फायर उस आदमी की खोपड़ी में झोंक दिए।

"अब आपका बेटा खतरे से बाहर है ठाकुर साहब, उसे बहुत जहरीले नाग ने डसा था लेकिन भला हो आपके उस शुभ चिंतक का जिसने अपने दाँतों से डंक वाले स्थान को काटकर उसका खून निकाल दिया जिसके साथ लगभग सारा जहर भी बाहर निकल गया। वर्ना हम आज आपके बेटे को नहीं बचा पाते।

वैसे वह शख्स किस हालत में है जिसने ये जोखिम उठाया? क्या वह आपका कोई खास परिचित है?", डॉक्टर साहब बोलते जा रहे थे और ठाकुर साहब का शरीर सुन्न होता जा रहा था।

अचानक ठाकुर साहब ने अपने सर पर हाथ रखा और जमीन पर बैठ गए। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ---डर


आधी रात बीत चुकी थी, देवेंद्र अपनी रेंजर से बहुत तेजी से पैडल मरते हुए घर लौट रहा था उसे आज अपनी प्रेमिका की बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा।
उसने पहले अपनी प्रेमिका को उसके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर चल दिया।
आज की रात और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी ऊपर से  हवा की तेरी सूखे पत्तों को सहलाकर हँसा रही थी जिनकी हँसी की
खर्र..! खर्र.. चकककक चरर्त्तत...!!
की कर्कश ध्वनि वातावरण में अलग ही भय उतपन्न कर रही थी।
माहौल इतना डरावना था कि गर्मी में भी देवेंद्र के जिस्म का हर रोंया खड़ा था जैसे किसी डर को देखकर शेर की गर्दन के बाल खड़े ही जाते हैं साही के कांटे खड़े हो जाते हैं।
अभी देवेंद्र काली नदी के पुल के बीच में ही पहुँचा था कि उसे सामने किसी के होने का अहसास हुआ उसे डर तो पहले से ही लग रहा था लेकिन अब तो उसकी साँसे राजधानी  की रफ्तार से चलने लगीं।
देवेंद्र ने अपनी रेंजर की गति को बढ़ाने में अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगा दी तभी वह साया उसे ठीक सामने खड़ा नज़र आया, उसके हाथ ब्रेक लीवर पर केस गए, रेंजर चिर्रर.... र्रर!! की आवाज करती हुई उस साये से एक फुट की दूरी पर रुक गयी।
देवेंद्र समने खड़े अजनबी को देखने लगा उसकी बड़ी बड़ी आंखे थी सर पर टोपी पहने हुए था।
लेकिन उसके चेहरे का कोई भी हिस्सा नज़र नहीं आ रहा था वहां बिल्कुल स्याह अँधेरा था।
देवेंद्र उसे देखकर बहुत डर गया उसके मुंह से अचानक तेज चीख निकली,
भ...उ...त...!
तभी उस साये ने कहा, कहाँ घूम रहे हो इतनी रात को? तुम्हे पता नही देश मे कोरोना के चलते इमरजेंसी के हालात हैं , पूरे देश में कर्फ्यू लगा हुआ है और तुम सायकल पर आधी रात को हवा खोरी कर रहे हो इस बार तो चेतावनी देकर छोड़ रहा हूँ।अगली बार दिखे तो 144 में अंदर कर दूंगा।
तब देवेंद्र ने ठीक से देखा वह साया एक काला मास्क पहने हुए पुलिस वाला था।
देवेंद्र भाई चुपचाप लौट आये क्योंकि वह जानते हैं कि भूतों को तो फिर भी समझाया जा सकता है किंतु पुलिस......

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा ----- शहीद


"ये जवान जो बॉर्डर पर लड़ते हुए शहीद हुआ है, ये हमारे गाँव का गौरव है। हम इसके नाम पर गाँव के विकास के लिए योजनाएं लाएँगे।" एक नेता जी ने तिरंगे में लिपटे फौजी के शव की ओर इशारा करके कहा।
"ये  फौजी हमारी कौम का था, हमारी कौम का नाम रौशन किया है इसने। हम इसके नाम से बड़ा स्मारक बनवाएंगे।" तभी दूसरे नेताजी खड़े होकर बोले।
"अरे मंत्री जी आ गए...", तभी एक शोर उठा।
"ये जवान जो पड़ोसी मुल्क से की जा रही गोलाबारी का सामना बहादुरी से करते हुए शहीद हुआ है, ये हमारे क्षेत्र का है। जिसने हमारे क्षेत्र का मान बढ़ाया है। मैं सरकार में मन्त्री होने के नाते ये घोषणा करता हूँ इनके घर की तरफ आने वाली सड़क को चौड़ा करके मुख्य मार्ग से जोड़ा जाएगा और इस रोड का नाम इस शहीद के नाम पर होगा।
और जैसा कि हमारे साथी विपक्षी नेता जी ने अभी कहा था तो मैं इनके घर को स्मारक बनाने के लिए फंड दिलाने का आश्वासन देता हूँ।"
नेता जी की जय, मंत्रीजी जिंदाबाद के नारों के बीच बेटे के कफ़न-दफन का इंतज़ाम करता उसका बाप अब मन ही मन अपने रहने के इंतज़ार के बारे में भी सोच रहा था।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा -----साम्प्रदायिकता


"क्या हो रहा है ये सब? सम्प्रदायिकता का इतना बड़ा बम फोड़ने पर भी वोटर हमारी तरफ नहीं झुका ऐसा कैसे चलेगा चंदू?" नेताजी ने अपने चमचों को गुस्से से देखते हुए कहा।
"क्या करें हुज़ूर! अब हर मजहब हर जात में लोग पढ़ लिख गए हैं तो जल्दी बहकाने में नहीं आते", चंदू ने  धीरे से कहा।
"हुँह!! लगता है सरकारी स्कूलों की सिर्फ हालत बिगाड़ने से काम नहीं चलेगा। इन्हें बन्द ही करवाना पड़ेगा", नेता जी सर ठोककर बड़बड़ाते हुए चले गए।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा -------दिल का मैल


"अजी सुनते हो? इस बार सावन मनाने क्या गीता बीबीजी को नहीं बुलाओगे?" सरिता ने अपने पति सागर से पूछा।
"क्यों?? तुम्हारा पिछले झगड़े से पेट नहीं भरा क्या, जो फिर उसे बुलाकर घर में महाभारत करवाना चाहती हो।
अभी तीन चार महीने पहले ही तो आयी थी वह जयदाद में हिस्सा माँगने। कितनी बातें सुनाई उसने हमें तरह-तरह की। और तुम्हे तो अपनी हर परेशानी के लिए जिम्मेदार तक ठहरा दिया", सागर ने थोड़ा उदास होकर कहा। उस समय अनायास ही उसकी नज़र अपनी कलाई की ओर चली गयी।
"अरे छोड़ो उन बातों को, भाई-बहन और भाई-भाई में ऐसी नोक-झोंक होना कोई नई बात नहीं है। और फिर अगर उन्होंने कुछ कह भी दिया तो अपना समझकर ही कहा होगा। कोई किसी गैर से तो इतने अधिकार से झगड़ भी नहीं सकता", सरिता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
"ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी! तुम ही  उसे फोन कर लेना", सागर ने सपाट स्वर में कहा और ऑफिस के लिए निकल गया।
दोपहर में सारे काम से फुर्सत पाकर सरिता ने गीता को फोन लगाया-
"हैलो… हेल्लो.. मैं सरिता"
"नमस्ते भाभी कैसे हो और भैया कैसे हैं?" उधर से गीता की धीमी आवाज आई।
"सब ठीक है गीता बीबी जी, आपको तो हमारी याद भी नहीं आती अब", सरिता ने उलाहना दिया।
"ऐसी बात नहीं है भाभी.. वो घर के कामों में…!" गीता ने बात टाली।
"गीता बीबी जी सावन शुरू हुए कितने दिन हो गए आप आयी नहीं अपने घर?" सरिता ने बड़े अधिकार से कहा।
"मेरा घर? मेरा घर तो यही है भाभी। अब उस घर से मेरा क्या नाता रहा गया है", गीता ने धीरे से कहा।
"क्यों?? लाठी मारकर क्या पानी अलग होता है? और फिर अगर यहाँ कोई गैर है तो वह मैं हूँ। आप भाई-बहन का रिश्ता मेरी वजह से खराब हो रहा है। लेकिन क्या मेरी बजह से तुम राखी पर अपने भाई की कलाई सूनी रखोगी?" सरिता ने उदास होकर कहा।
"न..न..नहीं भाभी लेकिन भैया..!" गीता अटकते हुए बोली।
"हाँ तुम्हारे भैया ही कहकर  गए हैं कि तुमसे पूछ लूँ, खुद आएगी या कान पकड़ कर लेने आना पड़ेगा? देखो तीज से पहले ही आ जाना और सलूनो करके ही बापस जाना।
बाकी रही बात झगड़े की, तो उसके लिए सावन के अलावा भी ग्यारह महीने बाकी पड़े हैं", सरिता ने हँसकर कहा।
"भाभी…!!" गीता की हिलकी भर गयी।
इधर सरिता की आँखे भी नम हो आयीं थीं।
तभी आसमान में काली घटाएं घिर आयीं और बारिश की तेज बौछारें पड़ने लगीं मानों बादल भी दिलों पर जमी मैल को धोने के लिए बरस रहे हों।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
उत्तरप्रदेश

बुधवार, 5 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा --------गरीब का स्कूल


"हम भी अपने बच्चों को मान्टेसरी स्कूल में पढ़ाएंगे", सुमन ने अपने पति राधेश्याम से गम्भीर होकर कहा।
"अरे सुमन ये स्कूल नहीं विद्या की दुकानें हैं। वहाँ किताब से लेकर कपड़े तक सब स्कूल में ही बिकते हैं। और पढ़ाई...!! उसके लिए तो बच्चों को टूशन पढ़ना पड़ता है। इस बड़े व्यापार की दुकान से हम कुछ खरीद सकें ये हम गरीबों के बस की बात नहीं है सुमन ये तो अमीरों के चोचले हैं", राधेश्याम ने समझाते हुए कहा।
"फिर क्या हमारे बच्चे अनपढ़ ही रह जाएंगे जी?" सुमन ने उदास होकर सवाल किया।
"अनपढ़ क्यों रह जाएंगे? हमारे लिए सरकार ने खोले हैं ना कितने सारे स्कूल। और फिर शिक्षा प्रतिभा होने से हासिल की जाती है पैसे से खरीदा हुआ हुनर कभी वक़्त पर काम नहीं आता", राधेश्याम ने कहा और दोनों अपनी बेबसी पर जबरदस्ती मुस्कुरा दिए।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद