गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो.महेन्द्र प्रताप का गीत - जब से मन में नई प्रीति जागी है ....यह गीत लगभग 62 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है केजीके महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 1957-58 में ।



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दयानंद गुप्त की कविता ----- यह कविता दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका "भारती" के श्री दयानंद गुप्ता स्मृति विशेषांक 1983-84 से ली गई है।


:::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 29 जुलाई 2020

मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफा की कहानी --- महँगा बकरा


          ईदुलजुहा का त्योहार आने में अब चंद दिन बचे थे. कई दिन से  अखबारों में ऐसी  खबरें आ रही थी कि बरेली में बिका दो लाख का बकरा, शकील कुरेशी ने खरीदा एक लाख 60 हजार का कटरा , कुर्बानी के जानवरों के दाम बढ़े, बरबरा और  सफेद बकरों की डिमांड अधिक आदि- आदि खबरे रोज़ अखबारों की सुर्खियां बन रही थी। टी वी चैनलों पर भी इस टाइप की खबरे प्रमुखता से दिखाई जा रही थी।
   मोहल्ले के बच्चों में भी बकरों को लेकर प्रतिस्पर्धाये हो रही थींं। कोई कहता - ' मेरा बकरा सबसे तगड़ा है।'तो कोई कहता-'मेरा बकरा सबसे ऊंचा है।' तो कोई अपना बकरा महँगा होने की बात कहकर गर्व से अपना सीना फुलाता लेकिन यह सब बातें सुन सुनकर जाहिदा बेगम घुली जा रही थी गरीब जाहिदा ने अब से दो साल पहले अपने अब्बू  से बकरी का एक बच्चा लिया था  कि इसे पाल पोसकर बड़ा करेगी और साल दो साल बाद बकरीद पर अच्छे पैसों में बेचेगी  मगर अब बकरे को देख- देखकर  उसकी उम्मीद नाउम्मीदी में बदलने लगी थी। अपनी गरीबी के कारण वह बकरे की अच्छी तरह खिलाई- पिलाई नही कर सकी थी। जिससे उसका बकरा भी उसकी तरह हड्डियों का ढांचा नज़र आता था उसे यही चिन्ता खाये जा रही थी कि आखिर हड्डियों के इस ढांचे जैसे बकरे के कौन अच्छे पैसे देगा और अगर बकरा अच्छे पैसों का नही बिका तो वह बीमारी से जूझ रहे आदिल के अब्बू का इलाज कैसे कराएगी? एक साल  से अदा न कर सकी मकान का किराया कैसे अदा करेगी और आदिल  के स्कूल की फीस कैसे देगी  सब सोच सोचकर उसका कलेजा मुँह को आ रहा था।
      बुझे मन से उसने बकरे की रस्सी खोलकर आदिल को थमाते हुए कहा कि बेटा पड़ोस के गुलशन मियां साप्ताहिक पैठ बाज़ार जा रहे है तुम भी उनके साथ चले जाओ यह बकरीद से पहले का आखरी बाज़ार है जो भी पैसे मिले आज  इसे बेच ही आना क्योंकि आगे इसे पालने की हमारी हैसियत नही है बाज़ार में चारा बहुत महंगा है हम इसके लिये चारा कहाँ से ला पाएंगे? कहते हुए उसकी आंखें आंसुओ से गीली हो गई  गुलशन मियां के साथ आदिल बकरा लेकर पैठ बाजार पहुच गया।
          बाजार में एक से एक सजे धजे और मोटे ताजे बकरे नजर आ रहे थे ग्राहकों की भी भारी भीड़  थी जो कुर्बानी के लिये महंगे से महंगे दामों पर मोटे और लंबे चौड़े और ऊंचे बकरे खरीद रहे थे लेकिन उसके दुबले पतले बकरे की ओर तो लोग सिर्फ निगाह डालकर आगे निकल जाते कोई दाम तक नही पूछ रहा था। जैसे- जैसे समय बीत रहा था बाजार भी खाली होता जा रहा था आदिल का दिल बैठा जा रहा था कि बिना बकरा बेचे वह घर जाएगा तो माँ कितना दुखी होगी गुलशन मियां भी उससे घर चलने को कहने लगे थे लेकिन वह 'अंकल कुछ देर और, कुछ देर और' कहकर रोके हुए था तभी उसके पास सफेद शेरवानी पहने उसी के मोहल्ले के शिराज़ साहब आकर रुके और उसके हाथों पर नोटो की गड्डी थमाते हुए उससे बकरा उनके सुपुर्द करने को कहने लगे। हैरत से आदिल की आंखे फ़टी की फटी रह गयी उसे यकीन नही हो रहा था कि उसके दुबले पतले बकरे के कोई इतने अच्छे पैसे दे सकता है वह खुश होता हुआ घर आ गया बकरे के इतने अच्छे दाम देखकर  जाहिदा के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी उसने दोनों हाथ आसमान की ओर  उठाकर खुदा का शुक्र अदा किया।
      उधर शिराज साहब बकरा लेकर घर पहुँचे तो बकरा देखकर सब घर वालो के मुंह बन गए सायमा बोली-' पापा आप यह कितना दुबला बकरा लाये है?' अमन का कहना था -'यह तो हड्डियों का ढांचा है।' अब बारी अमन की अम्मी की थी कहने लगी-' शायद तुम्हारे पापा को किसी ने फ्री में दे दिया होगा या हजार पांच सौ में ले आये होंगे यह तो त्यौहार पर भी कंजूसी करते है.  तभी तो बकरे के दाम भी नही बता रहे' चारो तरफ से ताने तिशने सुनने के बाद शिराज साहब से रहा नही गया चीखकर बोले-' हाँ मैं कंजूस हूं! तभी  तो यह बकरा दस हजार में खरीदकर लाया हूं।' ' दस हजार का ?।'सब के मुंह से एक साथ निकला  'दो हजार का बकरा दस हजार में?' सबने हैरतजदा होते हुए पूछा शिराज साहब ने फिर बोलना शुरू किया -'हाँ दस हजार में, जानते हो क्यों?इसलिये की यह बकरा अपने ही मोहल्ले की उन जाहिदा बेगम का है जिनके शौहर काफी दिनों से बीमार है। जाहिदा बेगम खुद्दार है वह किसी गैर से मदद मांगना अपनी शान के खिलाफ समझती है बकरीद पर अल्लाह की राह में कुर्बानी दी जाती है लेकिन कुर्बानी का मतलब दिखावा नही है, अल्लाह सबकी नियत से वाकिफ है। वह सब जानता है.  सिर्फ बकरा ज़िब्ह करके उसका गोश्त खा लेना या अपने यार दोस्तो रिश्तेदारों में बांट देना ही सच्ची कुर्बानी नही है, बल्कि भूखे- प्यासों, गरीब- मोहताजों की मदद करना उनके चेहरे पर खुशी लाना ही अल्लाह की राह में सच्ची कुर्बानी है. हम इस बकरे से भी कुर्बानी अदा कर सकते है और ज्यादा पैसे में खरीदकर मैने कोई दिखावा नही किया है. बल्कि एक जरूरतमंद की इस तरह से मदद की है।' शिराज साहब की बातें सब घर वाले दम बख़ुद होकर सुन रहे थे उनकी बातें सुनकर सभी के सीने शिराज साहब को प्यार भरी नजरों से देखकर चौड़े हो रहे थे।

कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी , सम्भल
 9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा--------घर का अर्थशास्त्र


दावत से लौटते ही पुष्पा ने अपने सात साल के
बेटे नितिन को पीटना शुरू कर दिया।उसके पति
रमेश ने बीच बचाव करते हुए पूछा 'अरे,क्यों
मार रही हो बेचारे को "
''आइसक्रीम की वजह से '
"चार आइसक्रीम ही तो खाई हैं।बच्चे तो
आइसक्रीम ज्यादा खाते ही है।'
"चार ही खाई है,इसीलिए मार रही हूं।और
ज्यादा खानी चाहिए थीं।रोज आइसक्रीम की  जिद करता रहता है। वहां फ़्री की मिल रही थी तो
इससे खाई नहीं गई"
   
डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद -244001
M - 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघु कथा---सिसकियाँ


        तुमसे टाइम से तैयार भी नही हुआ जाता ,बताया था न कि शाम को पार्टी में जाना है।बिलकुल गँवार औरत ही पल्ले पड़ गयी है............चटाक चटाक ..........ज़ोरदार आवाज़ .......
उसने अपनी आँखो को गहरे काजल से सज़ा लिया पर चेहरे पर उँगलियो के निशान अब भी दिख रहे थे ।जिन्हें छुपाने के लिए मेकअप का एक कोट और लगाना पड़ा।
आ गए आप लोग ,हम सब आप दोनो का ही इंतज़ार कर रहे थे ।आप दोनो को इस पार्टी में बेस्ट कपल के लिए चुना गया है ।बहुत बहुत बधाई .........
चारों तरफ़ बधाई देने के लिए भीड़ जमा हो गयी और सिसकियाँ कही गले में ही रूँध गयी।
                   
प्रीति चौधरी
गजरौला
ज़िला-अमरोहा

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी --------जंगल..पहाड़..टीट की देवी


  ..."पैर मन मन के भारी हो रहे हैं"! ...
."अब नहीं चला जाता!! ".. ..." दाज्यू! अब तो चाय होनी चाहिए!!" 10 साल के कन्नू ने कहा... तभी जगदीश ने थैले में से चाय बनाने के लिए स्टोव ,माचिस और सामान निकाला ...
      जंगल में अंधेरा घिर आया था ... घने..
बीहड़  में.. अद्भुत दृश्य था बड़ा रहस्यमय
पक्षी और जानवर अपने- अपने ठिकानों पर चले गए थे थोड़ी देर पहले बहुत कोलाहल था परंतु अब तो उस निर्जन वन में 4 प्राणी थे जो सुबह 10:00 बजे टीट की देवी पर प्रसाद चढ़ाने के लिए घर से निकले थे 20 किलोमीटर की कठिन पैदल यात्रा !... पहाड़ पर कोई सड़क नहीं ... सिर्फ पगडंडी ऊपर से दुर्गम चढ़ाई......रास्ते में तरह-तरह की बाधाएं.... यद्यपि रास्ते में काफल ;हिसालु'; किल्मोड़ा के फलों से पेड़ लदे हुए थे और हम सभी उन फलों का रसास्वादन करते हुए चल रहे थे यात्रा बहुत सुंदर लग रही थी एक जगह बैठकर आम के अचार के साथ घर से लाए हुए पराठे खाए... झरने का शीतल जल पिया और आगे बढ़ गए फिर आया "जोंक वाला जंगल" जहां जमीन पर ,पेड़ों पर, पत्तियों पर,....सभी जगह जोंको से  भरी पड़ी थी शरीर पर चिपकी और खून चूसना शुरू जूतों के मौजों में घुस जाती और पता भी नहीं चलता साथ में नमक लेकर चल रहे थे दिलीप पंत के पैरों में जब जोर की चुभन महसूस हुई तो उसने जूता  ऊतारा देखा एक बहुत बड़ी जोंक  फूल कर मोटी हो गई थी- खून चूसते हुए ! बड़ी मुश्किल से उससे पीछा छुड़ाया नमक लगाकर मुझे भी कई जगह पर जोंक हमारे सभी के शरीर पर कई जगह खून चूस चुकी थीं.... मार्ग में आगे
    उसके बाद सीधी चढ़ाई की पगडंडी आई जरा सा पैर फिसला और हजारों फिट नीचे गहरी खाई में समा जाएंगे... परंतु फिर भी पहाड़ के सभी दृश्य बहुत खूबसूरत थे कभी-कभी साइड से दूर जंगल में हिरन और लकड़बग्घे  दिखाई दे जाते थे बहुत रोमांचक था....... "लो बन गई चाय!!!" जगदीश की आवाज पर मेरी तंद्रा भंग हुई...
.........सड़क के किनारे चाय की चुस्की लेते हुए जगदीश ने दिलीप पंत से कहा इतने बीहड़ बन में भी  "माई "अपनी भेड़ों के साथ अकेली ... "उस झोपड़ी में रहती है "!! "डर तो उसे बिल्कुल लगता ही नहीं" ! "वहां शेर भी आता है" ...."सब देवी की माया है" "शेर तो दुर्गा जी का वाहन है".... तभी अचानक पेड़ों के पीछे जोर की आहट हुई !!  फिर कन्नू के चीखने की आवाज आई....."दद्दा !जल्दीआओ" !! .... जल्दीआओ !!...आग!!!!!
.... हम तीनों डर गए तभी अंधेरे में तेज प्रकाश दिखाई दिया ....जलने की गंध भी बहुत तेज आ रही थी....!!!  हमने देखा कि वहां आग लगी है ...
     "आग कैसे लगी ?? ... स्टोव जलाने के बाद कन्नू माचिस ले गया था... बीड़ी की लत !!
"कन्नू ने बताया "मैंने जलती हुई तिल्ली पत्तों पर फेंक कर देखी थी "सोचा था  बुझा  दूंगा परंतु आग बड़ी तेजी से बढ़ती चली गई "दद्दा मुझे माफ कर दो अब ऐसा नहीं होगा".... जगदीश ने दो-चार झापड़ जड़ दिए..
      आग ने विकराल रूप धारण कर चुकी थी हम चारों ने मिलकर बुझाने का प्रयत्न किया मगर नहीं बुझा सके .....
      इन चीड़ के पेड़ों की छाल में तेल भी होता है इसलिए तेजी से आग बढ़ती चली गई!!
.... हम लोगों को ..."काटो तो ...
खून नहीं !."..ऐसी हालत हो गई वो तो अच्छा था कि रात के 7:00 बजे थे गहरा अंधेरा छा चुका था दूर-दूर तक निर्जन जंगल देवदार और चीड़ के बड़े-बड़े पेड़ छत्तर फैलाएं सीधे खड़े थे जड़ों में ढेरों पत्ते बिखरे हुए थे जिन पर शैतान कन्नू के बच्चे ने अपना यह दुर्लभ प्रयोग कर डाला ...एक तिल्ली माचिस की रगड़ी और फेंक दी ......... हम तीनों ने मिलकर बुझाने का बहुत प्रयास किया पानी भी नहीं था मिट्टी से ही कोशिश की ...परंतु आग काबू में नहीं आई ...अंत में हम ने निश्चय किया कि जल्दी जाएं..... टीट की देवी पर प्रसाद चढ़ाएं ... और सुबह अंधियारे में ही वापस घर लौट जाएं.... क्योंकि आग बढ़ती ही जा रही थी ..डर लग रहा था... पूरे जंगल को ही अपने आगोश में ना ले ले...
 ..... हम लोग पूरी तरह से थके हुए थे 15 किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे... अभी 5 किलोमीटर की यात्रा और करनी थी... जल्दी-जल्दी दौड़ जैसी चाल में तेज चलने लगे ...अब जान बचाने की पड़ी थी एक तो आग का डर .. दूसरे जंगली जानवरों का.... तीसरे बुरी तरह थक चुके थे... हिम्मत जुटाकर ऐसे चलने लगे जैसे पैरों में स्प्रिंग लग गए हों ****
         सामने जो पर्वत की चोटी दिखाई दे रही थी वहीं पर टीट की देवी का मंदिर था और मंदिर भी क्या था पहाड़ की चोटी पर एक नुकीले पत्थर की नोक  पर रखी हुई एक विशालकाय पत्थर की चट्टान ......उसी के नीचे कुछ मूर्तियां रखीं थीं । उसी स्थान का नाम टीट की देवी था... आस्था का केंद्र!
        ... जल्दी जाकर हमने झरने के पानी में लोटे से जल्दी-जल्दी स्नान किया
इतनी ऊंची चोटी पर पानी की धार!... सब कुछ अद्भुत और अकल्पनीय था .... उस पर इतना ठंडा पानी !.. ... बाप रे  !  कंपकंपी छूट रही थी.. जैसे तैसे हम उसी समय मंदिर चले गए...  माता की स्तुति की ...आरती करके प्रसाद चढ़ा कर नीचे जहां माई रहती थी एक कमरा और था जिसे धर्मशाला का नाम दिया गया था उसी में  हम आ गए  ।
     कल क्या होगा?? वन विभाग के लोग आएंगे? मैं ,दिलीप पंत ,जगदीश पांडे और कन्नू 4 लोग थे जो इस अरण्य अग्निकांड के लिए जिम्मेदार थे ... हम लोग जब दर्शन करने के लिए घर से चले थे तो कन्नू की मां ने कहा "यह तो आपका सामान उठा कर ले जाएगा ...कृपया इसको भी साथ ले जाओ बहुत दिनों से कह रहा है देवी माता के दर्शन करने के लिए"! वैसे भी लोग कहते हैं तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा ...इस करके हमने कन्नू को साथ ले लिया था !
        टीट की देवी के पहाड़ की चोटी से नैनीताल की लाइटें साफ दिखाई देती थी नींद नहीं आ रही थी ....
     ...जंगल की आग बहुत दिन तक चलती रहती है अगर एक बार लग जाए तो  बहुत सारी वन संपदा का विनाश कर देती है कितने ही जानवरों के, परिंदों के घर नष्ट हो जाते हैं ....
....... भोर के4:00 बजे होंगे हम जल्दी उठे फिर उसी बर्फीले पानी में किसी तरह स्नान किया फिर माता के दर्शन किए और तुरंत चल दिए ..... अंधेरे में हम निकल जाएंगे तो कोई जान भी नहीं पाएगा कि कौन आया था ..तभी रास्ते में वन विभाग के कुछ ऑफिसर और सिपाही वनरक्षक आते हुए हमें मिले और हमसे  पूछताछ करने लगे .... जंगल में आग कैसे लगी?? ...." आपको कुछ पता है कि कौन आया ?? कौन दुश्मन आया यहां पर ??  ...हमने साफ   झूठ बोल दिया" हमें कुछ पता नहीं!! हम तो  यहां देवी के स्थान पर 2 दिन से आए हुए थे ""!
      ....खैर वह संतुष्ट ना होते हुए भी आगे चले गए और हम उस रास्ते की पगडंडी पर तेजी से घर की ओर बढ़ चले दिल धक-धक कर रहा था उनसे बचने के बाद जान में जान आई...... परंतु ये क्या ???  ठीक जहां पर ...जंगल में आग लगी हुई थी उसी जगह पर ...एक बड़ा सा चीता बीच रास्ते में  बैठा हुआ था .... हम वहीं ठिठक कर खड़े हो गए हाथ जोड़ कर टीट की देवी माता को सच्चे मन से याद किया हे! मां दया करो तभी चमत्कार हुआ ! चीता रास्ते से चला गया !... घनघोर घटाएं... घिर आईं ... बारिश का मौसम होने लगा  हम लगभग दौड़ने से लगे ... और थोड़ी ही देर में मूसलाधार बारिश होने लगी .... हम रोमांचित और भावविभोर हो रहे थे हे ! मां !! तूने हमारी  सुन ली ...अब आग बुझ जाएगी !... जंगल बच जाएगा !! जीव जंतु बच जाएंगे !!! हम चारों को भीग रहे थे और जोर जोर से गा रहे थे ......
  "अम्बे ! तू है जगदंबे काली !! जय दुर्गे खप्पर वाली तेरे ही गुण गाएं ......!!!!!
     ‌    ‌ ..... आज भी जब याद आती है तो  रोंगटे खड़े हो जाते हैं ...ऐसी आग भी कभी नहीं देखी ..... और चमत्कार भी....

  अशोक विद्रोही
  82 12825 541
  412 प्रकाश नगर मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी -----'मजाक '


​       वह बहुत देर से अपनी स्टडी चेयर पर बैठा टेबल लैम्प पर बार बार आते औरफिर लौट जाते पतंगे को देख रहा था उसको नहीं पता की इसको पतंगा कहते हैं क्योंकिउसनेकभी इस शब्द का अर्थ जानने की चेष्टा ही नहीं की क्योंकि आजकल के बच्चों को वैसे भी एक ही बर्ड याद रहता है 'इन्सेक्ट 'उनके पास समय ही नहीं अपने इर्द गिर्द घूमती दुनियां और प्राणियों का निरीक्षण करने की जानने और समझने .
​बचपन से ही पेरेंट्स द्वारा या फिर स्कूल टीचर द्वारा उनकी कैटेगिरी निश्चित कर दी जाती है .
​टेलेंटेड ,मल्टीटेलेंटेड या फिर एवरेज वो उनके हुनरपर ध्यान न देकर सिर्फ स्कूल से प्राप्त प्राप्तांकों से निर्धारित किया जाता है .
​निशानी कई दिनों से महसूस कर रही थी की उसका बेटा रक्षक कई दिनों से उदास सा है .
​बिलकुल खामोश सा हो गया है .यह बड़ी बात है की उसको ऐसा एहसास हुआ की उसके बेटे के साथ कोई समस्या है ...वह उससे खुद से या फिर परिवार से कुछ छिपा रहा है नहीं तो आजकल सब अपनी अपनी वव्यस्ताओं में इतने व्यस्त हैं की अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं है .
​हमेशा मुस्कराता ररक्षक एकदम शांत सा हो गया गुमशुदा सा .
​जब भी निशानी कुछ पूछने की कोशिश करती वह चिढ जाता .
​"मम्मी प्लीज मुझे अकेला छोड़ दीजिये I"
​निशानी को लगता बोर्ड है इस बार इसलिए पढ़ाई का दबाब ज्यादा है इसलिए वह चुप हो जाती .
​"बेटा स्टडी में कोई प्रॉब्लम हो तो ट्यूशन वगैरह ले लो ...एग्जाम पास हैं और तुम कुछ पढ़ते ही नहीं हमेशा परेशान से रहते
​हो I"
​निशानी ने बेटे का हाथ अपने हाथ में लेकर प्यार से कहा .लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चिढ सा गया यह देखकर निशानी फिर से परेशान हो गई .
​रक्षक का इतना रूखा व्यवहार निशानी को भीतर ही भीतर खाये जा रहा था .Iइतना खुशदिल लड़का कैसा मुरझा सा गया है .
​कितने सपने देखे हैं उसने और रक्षक के पापा ने बेटे को लेकर सब धुंधलाते से प्रतीत होते हैं .
​माँ अपने बच्चे की परेशानी को एकदम भांप जाती है ऐसे में निशानी कोई अपवाद नहीं थी .
​कुछ महीनों से उसने नोट जरूर किया था की जब भी रक्षक का फोन आता वह उठकर बाहर चला जाता बात करने .नहीं तो पहले ऐसा नहीं था अक्सर उसके फ़िरेन्ड्स का फोन आता तो वह अपने मम्मी पापा के सामने ही बात करता रहता .
​धीरे धीरे उसके फोन आने बंद से हो गए थे .चूंकि वह क्लास का सबसे होशियार लड़का था ऐसे में उसके फ़िरेन्ड्स उससे कई टॉपिक्स सोल्व करने के लिए कॉल करते रहते थे .
​निशानी बैठी कोई बुक पढ़ रही थथी और रक्षक के पापा न्यूज पेपर रक्षक उनके पास आया और कहने लगा .
​"मम्मी मुझे इस बार एग्जाम नहीं देना "
​"लेकिन क्यों ?"मम्मी पापा एक साथ आश्चर्य से बोले .
​"बस मेरा मन नहीं I"
​"लेकिन कोई तो वजह होगी ?"इस बार पापा बोले .
​"मैं कुछ नहीं कर सकता ..."मैं बेकार हूँ ..."
​कहते हुए रक्षक फफक कर रो पड़ा निशानी की भी आँखें भर आईं .
​"बेटा बताओ बेटा बात क्या है तभी तो हम सबको पता चलेगा तुम्हारी हैल्प करेंगे I"Iइस बार पापा बोलै .
​"पापा वो स्नेहा है न "
​"तुम्हारी दोस्त ?"
​"जी पापा जी ...उसने मुझे धोखा ....I"कहते हुए रक्षक रो पड़ा .एक पल के लिए मम्मी पापा सन्न रह गए की उनका बीटा कितने बड़े दर्द से गुजर रहा था और उनको पता भी नहीं .
​यह उम्र का पड़ाव ही ऐसा होता है किशोरावस्था जहां बच्चे विपरीत लिंग की तरफ आकर्षित होते हैं और उस आकर्षण को प्रेम समझ बैठते हैं .यह बहुत ही नाजुक दौर होता है उम्र का .
​"पूरी बात बताओ  I"निशानी ने स्नेह से उसकी कमर पर हाथ फेरते हुए कहा तो रक्षक थोड़ा शांत हुआ .
​"मम्मी वो मुझसे कहती थी की वह मुझे बहुत चाहती है क्योंकि उसके पेरेंट्स का आपसी रिश्ता अच्छा नहीं .घर में क्लेश रहता है अगर मैंने उसका साथ नहीं दिया तो वह सूइसाइड कर लेगी Iऔर इस तरह से मैं स्टडी से अपना ध्यान हटाकर हमेशा उसी के बारे में सोचता रहता ...लेकिन !"
​"लेकिन क्या ?"
​"लेकिन अब कुछ दिनों से उसने मुझसे बात करनी बंद कर दी और फिर एक दिन उसने ममुझसे कहा की उसने अपने एक दोस्त से मुझे टॉप न कआने देने की क्लास में शर्त लगाईं थी I"रक्षक ने भर्राये गगले से कहा .सुनकर निशानी और उसके पापा सन्न रह गए .
​"वो लड़की तुम्हारी दोस्ती के काबी ही नहीं थी बेटा .तुम उसको लेकर परेशान क्यों हो जिसने तुम्हारे इमोशंस के साथ खिलबाड़ किया तुम्हारा मजाक बनाया ?"निशानी ने बेटे को समझाते हुए कहा .अब रक्षक थोड़ा और शांत हुआ .
​उसके पैरेंट्स ने उस पर और अधिक ध्यान देना और दोस्ताना व्यवहार करना बढ़ा दिया कुछ हीदिनों में रक्षक शांत हो गया .
​वह एग्जाम में बैठा और अच्छे से पढ़ाई की .
​रिजल्ट बाले दिन टॉप पर उस लड़की का फोटो देखकर वह मुस्करा दिया क्योंकि उसकी दोस्ती सफल जो हो गई थी और उस झूठी लड़की का हश्र वह खुद था .
​सच्ची दोस्ती बस दोस्त का भला चाहती है और कुछ नहीं हाँ आज भी शायद उसके मम्मी पापा के मन में उस लड़की के लिए कड़बाहट हो और शायद पूरी जिंदगी रहे .


​राशि सिंह
​मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश








मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा --------- लक्ष्मी


          जेठ जी गांव में जाकर बड़े ताव में बोले "अब,दूसरा भी बेटा हुआ है ,हमारी घर वाली बड़ी लक्ष्मी आई है।देखो ,सब अच्छा ही हो रहा है ।मकान भी बन गया ।हम शहर में भी पहुँच गए।मजे से कट रही है जिंदगी ।"रसोई में चाय बना रही अवनि अपने लक्ष्मी होने पर संशय में थी ।70हजार की उसकी महीने की कमाई और उसके पति की 72हजार की कमाई किसी की नजर में नहीं थी ।एक बेटी को जन्म देने वाली अवनि  स्वयं में लक्ष्मी होने के कुछ प्रमाण खोजने में लगी थी ।

डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की लघुकथा--------- - फूल सी बेटी

      
कई बार अखबार पढ़ कर सिहर सा जाता हूं।  बहू बेटियों की अस्मिता घर की चारदीवारी में भी सुरक्षित नहीं हैं। उम्र में बढ़ती बेटी को लेकर कभी कभी मेरे मन में भी बुरे ख्याल आने लगते थे । उसकी सुरक्षा को लेकर मैंने एक युक्ति निकाली।।      एक महीने तक घर में जो भी आगंतुक आए, उनको मैं अपने बागीचे में लेकर जाता और अपनी बेटी को उनकी  फूलों के प्रति व्यवहार को  देखने को कहता।
कुछ आगंतुक फूलों को निहारते,तो कोई दूर से देखता ,कोई देखकर उनकी तारीफ करता ,तो किसी ने फूल तोड़ा और मसलकर खुशबू सूंघी  जबकि किसी ने फूल को टहनी से तोड़कर अपने हाथ में ले लिया, तो किसी आगंतुक ने फूल की तारीफ कर यह कहा यह फूल यूं ही खिलते रहे और आपके उपवन को सुंदर बनाए रखें और तो और उन जनाब ने  मुझसे भी यह  कहा  कि आप भी इन फूलों को छूने की कोशिश ना करें ताकि फूल जब खिले तो पूरा घर उसकी खुशबू से महक उठे। इस तरीके से मेरी बेटी  पूरे महीने लगभग सारे नजदीकियों , रिश्तेदारों के फूलो के प्रति व्यवहार को देखती और परखती रही।एक महीने बाद मैंने बेटी से पूछा कि  इस एक महीने में तुम्हें किसका  कौन सा व्यवहार  सबसे ज्यादा फूलों  के प्रति  उत्तम लगा । बेटी ने दूर से फूलों को निहारने वालों की तारीफ की और उसके व्यवहार को ही उत्तम बताया।
फिर मैंने उसे समझाया  प्यारी बेटी तुम्हें अपने आप को इसी तरीके से फूल  समझना है और  उनके व्यवहार को देखते हुए तुम्हे उनसे नजदीकियां या दूरी बनाकर रखनी है।

प्रवीण राही
मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर जी लघुकथा ------ जागरूक


"पानी का कनेक्शन तो हमारा अधिकार है, हमें मिलना ही चाहिये......", आपस में इस प्रकार बात करते एवं सरकारी दफ़्तर की ओर बढ़ते कुछ जागरूक लोगों का दल, उस खुली पड़ी सरकारी टोंटी के आगे से होता हुआ निकल गया था। टोटी अब भी अपने बंद होने की प्रतीक्षा कर रही थी।

- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा ---कुछ तो लोग कहेगें


        पति सेअनेक बार पिटाई ,ताने,लातघूंंसे रोज खाने के बाद भी शिखा अपने रिश्ते को निभा रही थी। एकदिन जब उसने  शराब के नशे मे डन्डे से उसके सिर पर वार किया, खून की धार बह निकली तो खून के साथ उसके सब्र का बाँध भी बह गया।सास जिठानी दूर खड़ी रही।जैसे तैसे मोबाइल उठा 100 नम्बर पर कॉल की।पुलिस टीम मदद को पहुंची।पट्टी करवाई।उसके घरवालों को फोन किया।विधवा मां बस पकड कर पहुंची क्योकि भाई ने साथ जाने से मना कर दिया।बेटी को घायलावस्था मेही लेकर लौटी।पुलिस घरवालों को चेतावनी दे गयी क्योंकि शिखाका पति फरार हो चुका था।घर पर भइया भाभी भतीजोंं सभी ने उसकी हालत देखी।सभी को सहानुभूति थी।मगर जैसे जैसे सिर का जख्म भर रहा था वैसे वैसे भाभियोंं के तानो से दिल का जख्म गहरा हो रहा था।माँ कहती,"सब ठीक हो जायेगा।चुप रहाकर"।वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या स्त्री होना ही उसका गुनाह है?फिर एक दिन महिला थाने मे उसकी मुलाकात शशि दीदी से हुई।शशि दीदी ने उसका दाखिला एक कम्प्यूटर सेंटर पर करवाया।छह माह बाद आज वह एक कम्पनी में जाँब कर रही है।अलग कमरा किराए पर लेकर रह रही है।मगर पास पड़ोस के ताने उसका पीछा नहींं छोड़ते।वह सोच रही थी कि उसका कौन सा निर्णय गलत था,वहां न रहनेका या यहां रहने का।

डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा ------ मोहभंग


       राधा ने रिटायर्ड होते ही सोच लिया था कि अब बस ,  बहुत हुआ काम - धाम , अब थोड़ा ध्यान प्रभु सेवा में लगाएगी । सुबह पाँच बजे उठकर हड़बड़ - हड़बड़ सारे घर का काम निपटा कर , जब वो दौड़ती भागती स्कूल बस पकड़ती थी तो सामने के मंदिर से पूजा करके लौट रही पड़ोस की औरतें हाथ में पूजा की डलिया लटकाए उसे देख यूँ  मुस्कुरातीं थीं मानो वो नौकरी के लिए नहीं सिनेमा देखने के लिए निकली हो ।कोई - कोई तो कह भी देती थी भई  तुम्हारे तो मजे हैं सुबह - सुबह तैयार होकर निकल पड़ती हो , एक हम हैं सारा दिन वही चूल्हा - चौका ।   
         बस की सीट पर पीठ टिकाते हुए उसकी आँखें छलक जातीं चूल्हा - चौका क्या उससे छूट गया है । घर - बाहर की दोहरी जिम्मेदारी कभी - कभी कमर तोड़ कर रख देती थी ।अब बस , कुछ नहीं करेगी वो , बहु है , बेटियाँ हैं , उन पर कुछ जिम्मेदारियाँ डाल वो भी सुबह नहा - धोकर मंदिर जाएगी । भजन - कीर्तन करेगी , कथाएँ सुनेगी ।
        दो - चार दिन में ही नई दिनचर्या उसे बेहद सुकून देने लगी । चाहे बच्चे और पतिदेव कनखियों से उसे देख मुस्कुरा उठते थे । पर उसने परवाह नहीं की वो तो परम आनंद से अभिभूत हो रही थी । पहले अगर किसी के घर से कथा - कीर्तन का बुलावा आता तो थकान के कारण वह टाल जाती थी पर अब शाम का इंतजार बेसब्री से करती ।
       मंगलवार का दिन था , पड़ोस में सुंदर कांड का पाठ था तत्पश्चात कुछ भजन कीर्तन था । बड़े मनोयोग से तैयार हो वो समय से पहुँच गई । पाठ के मध्य कई बार पंडित जी ने झुंझलाते हुए कई महिलाओं को बातें ना करने और शांत हो पाठ करने के लिए कहा । पर पाठ के बाद तो उस वाक्पटु मंडली ने सारी हदें पार कर दीं । साड़ी से लेकर गहनों तक , बहुँओं से लेकर सासों तक उन्होंने कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा । कथा की तरफ़ किसका ध्यान जाता  ,   परनिंदा का जो अमृत रस कानों को तृप्ति दे रहा था  उस की तुलना पंडित जी के प्रवचन से हरगिज़ नहीं की जा सकती थी ।
राधा ने अपने कान बंद कर आँखें मींच भरसक प्रयत्न किया कि वह अपना ध्यान पंडित जी की बातों में लगाए पर विघ्नकर्ताओं के प्रयासों पर पानी नहीं फेर पाई । एक घंटे के अंदर ही राधा के कान और दिमाग दोनों थक गए । घर जाने के बाद भी उन बातों का असर दिमाग पर छाया रहा ।
      अगले दिन से मंदिर में भागवत सप्ताह शुरू हुआ ।  कथा वाचक ने बड़े ही सुंदर ढंग से कई प्रसंग सुनाए पर रंग में भंग डालने वाली मंडली यहाँ भी थी । कई बार टोके जाने पर भी ये नहीं मानी और आपस में तू - तू मैं - मैं और शुरू हो गई । राधा अब ऊबने लगी , कीर्तन  में बैठ भजन सुनने के बजाए घर में बैठ भजन गाने का निर्णय ले वो घर की ओर लौटने लगी ।
   

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद


मंगलवार, 28 जुलाई 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 14 जुलाई 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ पुनीत कुमार, रवि प्रकाश, दीपक गोस्वामी चिराग, प्रीति चौधरी, डॉ सुधा सिरोही, कमाल जैदी वफा , स्वदेश सिंह, सृष्टि प्रज्ञा, सीमा वर्मा , डॉ श्वेता पूठिया, डॉ प्रीति हुंकार, नृपेंद्र शर्मा सागर ,उमाकांत गुप्ता, मनोरमा शर्मा, राजीव प्रखर , मरगूब हुसैन अमरोही और आयुषी अग्रवाल की रचनाएं-----


पहन   पैंजनी   बंदरिया  ने
ठुमका      खूब     -लगाया
दौड़-दौड़ कर मस्त हवा में
चूनर        को      लहराया
        -----------------
मोहिनीअट्टम, भरतनाट्यम
कुचिपुड़ी          दिखलाया
घूम-घूम   कर उसने  सुंदर
घूमर      नाच      दिखाया
पीली-पीली बांध के पगड़ी
मस्त       भांगड़ा     पाया
पहन पैंजनी---------------

गोपी का परिधान पहनकर
रास      नृत्य     दिखलाया
कभी डांडिया करके उसने
अद्भुत        रंग     जमाया
करके लुंगी डांस सभी  को
अपना      दास      बनाया।
पहन पैंजनी---------------

पश्चिम के कल्चर में ढलकर
बैले        डांस      दिखाया
भक्ति भाव में खोकर उसने
भक्ति      नृत्य     अपनाया
सच्ची श्रद्धा और लगन का
रूप       हमें     दिखलाया
पहन पैंजनी---------------

देखा    बच्चो  बंदरिया   ने
हमको    यह     सिखलाया
तन,मन,धनसे जिसनेसीखा
कभी      नहीं      पछताया
सोनू ,मोनू ,सबने मिल कर
मंत्र       अनोखा      पाया।
पहन पैंजनी---------------
         
 वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 9719275453
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लेकर आशीर्वाद बड़ों का
दुनिया नई बसाएंगे
बड़ों से जो नहीं हुआ
बच्चे कर दिखलाएंगे

ठोकर जो भी लगती है
कुछ ना कुछ सिखलाती
निराश हो चुके मानव को
चलकर ये बतलाएंगे

निष्ठा पूर्वक काम यदि हो
मिलता है फल अच्छा
हिम्मत हार चुके जन को
मिलकर ये समझाएंगे

सुख दुख दोनों का होता
जीवन में  निश्चित क्रम
कैसे भी हो दुख के पल
रोकर नहीं बिताएंगे

डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600
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जन्मदिवस पर राजू के
जब केक एक था आया ,
केक देखकर राजू का मन
भीतर से ललचाया ।

मम्मी थीं चौके में
पापा बाहर घूम रहे थे ,
सभी अतिथि राजू के मुख को
रह -रह चूम रहे थे ।

नजर बचाकर राजू ने
उंगली से केक उठाया ,
चाटा झटपट ,मजा केक का
राजू ने फिर पाया ।

मम्मी ने जब आकर देखा
बोलीं" किसने खाया ?"
राजू घबराकर तब बोला
"यहाँ न कोई आया।"

समझ गईं मम्मी
राजू को हल्की चपत लगाई ,
बोलीं" तुमको है पसंद
इस कारण ही तो लाई।

सब्र रखो जीवन में
इसका फल मीठा पाते हैं ,
मेजबान से पहले
आए सभी अतिथि खाते हैं।।"

रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
📞 99976 15451
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ऐनक पहनी,पुस्तक खोली।
फिर गुड़िया माँ से यों बोली।
पढ़ना मांँ मुझको सिखलाओ,
अपनी प्यारी हिन्दी बोली।

है यह सबसे प्यारी भाषा।
सारे जग से न्यारी भाषा।
'अ' अनार से आरम्भ होकर
'ज्ञ' ज्ञानी बनने की आशा

क्या हैं 'स्वर-व्यंजन' समझाओ
सारे अक्षर मुझे पढ़ाओ
कैसे लिखना यह समझाना
हिज्जे बोल-बोल करवाओ

-दीपक गोस्वामी 'चिराग'
बहजोई(सम्भल)
9548812618
ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com
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शाम ढले जब घर में
घना अंधेरा फैल जाए
पापा की थी एक चिन्ता
गुड़िया मेरी पढ़ न पाए
सोच विचार कर फिर
पापा मेरे लैम्प ले आए
जिसमें डाल तेलबत्ती
चिमनी चाँदी सी चमकाए
बैठ गुड़िया पढ़ने इसमें
इधर उधर अब ध्यान न जाए
चमका देगी जीवन को तेरे
रोशनी जो पुस्तक पर आए
डटी रह तब तक मेहनत पर
जब तक अपनी मंज़िल पाए
इसके थोड़े प्रकाश से  ही
कल तू पूरा जग चमकाए
मेरी छोटी गुड़िया रानी
एक दिन बड़ी अफ़सर बन जाए
                       
 प्रीति चौधरी
 ज़िला -अमरोहा
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सिंहासन पर बैठा टमाटर,
पास खड़े हैं मूली, गाजर।
मस्ती करते गोभी, आलू,
बैंगन, शलजम, प्याज, रतालू।
लौकी, तोरी, भिन्डी,चचींडे,
मटर, लोबिया, सेम और टिंडे।
मेथी, पालक,मिर्ची न्यारी,
कद्दू कटहल की पहरेदारी।
परवल ने आवाज लगाई।
इठलाती बीन्स भी आई।
करेले को क्यों भूले भाई,
अनेक रोगों की एक दवाई।

डाॅ० सुधा सिरोही
मुरादाबाद
9457038749
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मछली रानी, मछली रानी,
कितना गहरा नदी में पानी।
राज जरा जल के खोलो                                     तुम तो हो जल की ज्ञानी।
                मछली रानी-----

जल में कौन विचरता है,
जो जल को मैला करता है।
सबक सिखा दो उसको रानी,
जो जल से करता मनमानी।
                मछली रानी-----

मछली बोली सुनो कहानी,
हाँ मै थी जल की ही रानी।
कीड़े मकौड़े खाती थी।
जल को स्वच्छ बनाती थी।   
साफ था सब नदियों का पानी
            मछली रानी-------
                                                                  शुरू हुई जल से मनमानी,                                    नदी में छोड़ा  गन्दा पानी।
नही किसी ने की निगरानी,
किसी ने मेरी बात न मानी।                 
फिर कैसे मैं जल की रानी?
जब तक साफ, हो न पानी,                                          मुझे न बोलो जल की रानी।


कमाल ज़ैदी "वफ़ा"
सिरसी (सम्भल)
9456031926
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 मेरी टीचर सबसे प्यारी
 रोजाना  मुझें पढ़ाती है

  बातें करती ज्ञान की
 कहानी-कविता सुनाती है

सदा बडों का आदर करना
 सबक हमें सिखाती है

मानवता का पाठ पढाकर
अच्छा इंसान बनाती है

आपस में सब मिलकर रहना
    सीख यही सिखाती है

  सदा ही आगे बढ़ते रहना
   हौसला हरपल बढ़ाती है

  खेल- खेल में  संग हमारे
  खुद भी बच्चा बन जाती है

   मेरी टीचर सबसे प्यारी
   इसलिए मुझको भाती है

स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
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 मैं फलों का राजा हूँ
 तपती गर्मी में आता हूँ

 बच्चें ,बड़े सब मेरे दीवाने
 खाकर मुझें झूमें मस्ताने

कच्चा रहकर आचार बनाऊँ
पकने पर सबके मन को भाऊँ

मुझसे बनते अनेक पकवान
जो खायें बन जायें बलवान

सृष्टि प्रज्ञा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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छुक - छुक रेल चली
       हम बच्चों की रेल चली
भक - भक धुआँ देती
        खट - खट चलती रहती ।।
देखो - देखो टी टी आया  ( 2 )
        अपना टिकट निकाल लो  ( 2 )
छुक - छुक  - -- - - -- -- - -
 देखो - देखो स्टेशन आया  ( 2 )
          अपना बैग संभाल लो  ( 2 )
छुक - छुक  - - - - - - - - - -
वो देखो पकौड़े वाला आया  ( 2 )
       अपने पैसे निकाल लो  ( 2 )
गरम पकौड़े खा लो  ( 2 )
छुक - छुक - - - - - - - - -
 देखो देखो गाँव आया  ( 2 )
      हरा भरा इक खेत भी आया  (2 )
खिड़की से निहार लो  ( 2 )
छुक - छुक रेल चली
           हम बच्चों की रेल चली ।।।

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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प्यारे बच्चों जल्दी आओ
मिलजुल कर  रेल बनाओ
चन्नू बनेगा इसमें इंजन
बाकी सब डिब्बे बन जाओ
रामू तुम ड्राइवर बन जाओ
गुड्डू तुम सीटी बजाओ
इस रेल को तेज दौडाओ।
छुकछुक छुकछुक रेल चली
हम बच्चों की रेल चली।।

डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
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मामा सबसे प्यारे
मां की आँख के तारे

हमको शाम की सैर कराते
नानी के घर जब हम  जाते
चाट पकोड़े जी भर खाते
हमको मस्ती खूब कराते।
लाड़ प्यार से रखते हमको
हम पर जीवन बारें।
मामा .......

रक्षाबंधन भाईदूज पर
मां को लेने आते
हमको भी उपहार मिठाई
संग में अक्सर लाते
जल्दी लेने आना हमको
होंगे ऋणी तुम्हारे
मामा ......
डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद
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कब तक बने रहे हम बच्चे,
काम सदा करते हम अच्छे।
ये सारी दुनिया झूठी है।
हम बच्चे ही हैं बस सच्चे।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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मम्मी-डैडी!यह बतलाओगे
कब जायेंगे हम स्कूल,
घर में अब तो बोर हो गये
पढ़ने में कैसे मन लागे ।

मोबाइल पर अब मे'म पढातीं
आँखे थक कर चूर हो गयीं,
कोई दोस्त नहीं अब मिलता,
सारे तो आन-लाईन हो गये।

तुम भी झुझंला जाती हम पर,
जब हम कुछ कुछ समझ न पाते ,
मोबाइल अब दोस्त हो गया
दोस्त भी जो,लड़ना ना जाने।

दादा-दादी, नानी-नाना सभी
तो अब आन-लाईन हो गये;
न मामा, न चाचा आयें,
सब के सब अनजान हो गये।

अब क्यों डांटोगी तुम  मम्मी
मोबाइल पर आन-लाइन पढूंगा
जन्मदिन उपहार अब पापा,
मोबाइल ही देना होगा।

उमाकान्त गुप्ता
मुरादाबाद
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मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की दस ग़ज़लों पर ''मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा ------



वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' श्रृंखला के अन्तर्गत  मुरादाबाद के मशहूर नौजवान  शायर ज़िया ज़मीर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले ज़िया ज़मीर द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं-

*(1)*

होंठों पे रक्खा था तबस्सुम आंखों में नमनाकी थी
अपना पागल कर देने कि यह उसकी चालाकी थी

मैंने हंसकर डांट दिया था प्यार के पहले शब्दों पर
उसने फिर कोशिश ही नहीं की, वो ख़ुद्दार बला की थी

उसके जैसे, उससे अच्छे और भी आए जीवन में
हमको जिसने दास बनाया वो उसकी बेबाकी थी

पत्थर मार के चौराहे पर इक औरत को मार दिया
सब ने मिलकर फिर यह सोचा उसने ग़लती क्या की थी

उसकी नम आंखों में हमने सैर जो की थी सारी रात
सुब्ह हुई तो ख़ुद से बोले क्या अच्छी तैराकी थी

इक बच्ची ने उस बच्चे पर अपना मफलर डाल दिया
बड़े मगर यह सोच रहे थे किसकी यह नापाकी थी

रोज़े-महशर पूछेंगे तो  उसका  क्या  मा'बूद हुआ
सारी उम्र तड़प कर हमने तुझसे एक दुआ की थी

*(2)*

दिल दुखने से आंखों में जो गहराई बनेगी
यारों  के  लिए  वज्हे - मसीहाई  बनेगी

पहले तिरे चेहरे को किया जाएगा रोशन
हैरत  के  लिए  फिर  मिरी  बीनाई  बनेगी

देखेगा  ता'ज्जुब  से  बहुत  देर  उसे  दिल
जब ज़ेहन के ख़ुश रखने को दानाई बनेगी

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम
बैठेंगे  कभी  साथ  तो  तन्हाई  बनेगी

मैं इश्क़ के हासिल की बनाऊंगा जो तस्वीर
तस्वीर  बनेगी  नहीं, रुसवाई  बनेगी

दुनिया ही लगाएगी तमाशा यहां हर रोज़
दुनिया  ही  तमाशे  की  तमाशाई  बनेगी

चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शेर कहूंगा
तख़लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया-पैमाई बनेगी

*(3)*

वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी
हाथों  में  लिए  बैठी  है  तस्वीर  हमारी

आँखों से पढ़ा करते हैं सब, और वो लड़की
होंठों  से  छुआ  करती  है  तहरीर  हमारी

जो ज़ख़्म थे सूखे हुए रिसने लगे फिर से
यह किसने हिलायी भला ज़ंजीर हमारी

वो शख़्स कि बुनियाद का पत्थर था हमारा
वो  ऐसा  गया  हिल  गयी  तामीर  हमारी

ये  ख़्वाब  हमारे  हैं  यही  दुख  हैं  हमारे
ले  जाए  कोई  हम  से  ये  जागीर  हमारी

ये शेर  जो सुनते  हो, ये जज़्बे  हैं हमारे
तुम तक भी पहुंच जाएगी तासीर हमारी

वो ख़्वाब 'ज़िया' देखा कि कहते नहीं बनता
सुनने को ग़ज़ल  आऐ थे ख़ुद 'मीर' हमारी

*(4)*

पास  मिरे  ले आए उसको
कोई ज़रा समझाए उसको

बाग़ की ख़ुन्क हवा से कहियो
और  ज़रा  महकाए  उसको

जब वो किनारे आकर बैठे
दरिया गीत सुनाए उसको

जाने क्या कहना था उससे
जाने क्या कह आए उसको

जिस शय की भी दुआ करे वो
हर वो शय मिल जाए उसको

सर्दी  में  वो  कांप  रही है
कोई पिला दे चाय उसको

है यह बस उसका ही जादू
जो  खोए  वो  पाए उसको

*(5)*

दुशमने-जाँ  है मगर  जान  से  प्यारा भी है
ऐसा इस एहद में इक शख़्स हमारा भी है

जागती आँखों ने देखे हैं तिरे ख़्वाब ऐ जाँ!
और  नींदों  में  तिरा  नाम  पुकारा  भी  है

वो बुरा वक़्त कि जब साथ न हो साया भी
बारहा  हमने  उसे  हँस  के  गुज़ारा  भी  है

जिसने मँझधार में छोड़ा उसे मालूम नहीं
डूबने वाले को तिनके का सहारा भी है

हमने हर जब्र तिरा हँस के सर-आँखों पे लिया
ज़िन्दगी तुझ  पे  ये  एहसान  हमारा  भी  है

मत लुटा देना ज़माने पे ही सारी खै़रात
मुंतज़िर हाथ में कशकोल हमारा भी है

नाम सुनकर मिरा उस लब पे तबस्सुम है 'ज़िया'
और  पलकों  पे  उतर  आया  सितारा  भी  है

*(6)*

जाने वाला कब बेज़ार रहा होगा
रोकने वाला ही लाचार रहा होगा

आंखों  की हैरानी देख के लगता है
मंज़र कितना पुर-असरार रहा होगा

हम  जो इतनी  नफ़रत पाले बैठे हैं
हम में यक़ीनन बेहद प्यार रहा होगा

एक ज़रा सी बात पे पेड़ पे झूल गया
मरने  वाला  इज़्ज़त-दार  रहा  होगा

यह जो बूढ़ा चौखट पर आ बैठा है
घर के लिए शायद बेकार रहा होगा

पेड़ की लाश पे पंछी आकर बैठ गए
यह  शायद  इनका घर-बार रहा होगा

इसकी मौत पे कोई भी ग़मगीन नहीं
लम्बे  अरसे  से  बीमार  रहा  होगा

*(7)*

इक बीमारी सोच रखी है एक मसीहा सोच रखा है
उम्र गुज़ारी की ख़्वाहिश में देखो क्या क्या सोच रखा है

वस्ल की रात में सबसे पहले क्या उससे मांगा जाएगा
उस चश्मे वाली लड़की का हमने चश्मा सोच रखा है

इश्क़ का जो अंजाम है मुमकिन उसके रद्दे-अमल में हमने
एक  उदासी  सोच  रखी है एक ठहाका  सोच  रखा  है

आंखों  के  नीचे  के   घेरे  और  भी  गहरे  लगने  लगे हैं
सोचने वाली बात को हमने कितना ज़ियादा सोच रखा है

देखें पार उतर जाने की ख़्वाहिश किसकी पूरी होगी
तुमने  सोच  रखी है  कश्ती हमने दरिया  सोच रखा है

वो जो हंसने-हंसाने वाला उठ कर जाने ही वाला है
नम आँखों ने उसके लिए बस एक इशारा सोच रखा है

इस रिश्ते में कितना सुख है और छुपा है दुख भी कितना
उसको  सोच रखा है  दरिया ख़ुद को प्यासा सोच रखा है

*(8)*

रोज़ जैसी नहीं उजलत हो तो हम तुझसे कहें
तुझको दुनिया से फ़राग़त हो तो हम तुझसे कहें

तुझसे इक बात कई रोज़ से कहनी थी हमें
हां अगर तेरी इजाज़त हो तो हम तुझसे कहें

क्या कहें तुझसे कि दिखता नहीं तुझ सा कोई
तेरे जैसी कोई  सूरत हो तो  हम तुझसे  कहें

दूसरे  इश्क़  की  ख़्वाहिश  है अगर तू चाहे
यानी तेरी भी ज़रूरत हो तो हम तुझसे कहें

ये जो दुनिया है इसे हम से शिकायत है बहुत
इसमें पोशीदा सियासत हो तो हम तुझसे कहें

जो नहीं तू ने दिया उसका बदल चाहते हैं
ऐ ख़ुदा रोज़े-क़यामत हो तो हम तुझसे कहें

*(9)*

तक रहा है तू आसमान में क्या
है अभी तक किसी उड़ान में क्या

वो जो एक तुझ को जां से प्यारा था
अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या

हो ही जाते हैं जब जुदा दोनों
फिर ताल्लुक है जिस्मो-जान में क्या

हम क़फस में हैं उड़ने वाले बता
है वही लुत्फ आसमान में क्या

हम तो तेरी कहानी लिख आए
तूने लिक्खा है इम्तहान में क्या

क्या नहीं होगी फिर मेरी तकमील
कोई तुझ सा नहीं जहान में क्या

*(10)*

अभी से इश्क़ कब अगला हमारा चल रहा है
अभी  तो  पहले वाले का ख़सारा चल रहा है

मुहब्बत में कहें क्या सुस्त रफ़्तारी का आलम
कि इक बोसे  में इक हफ्ता हमारा चल रहा है

गली  में  धीरे-धीरे  चल  रहे हैं रात में हम
हमारी चाल में छत पर सितारा चल रहा है

ये ख़्वाहिश है कि घर में हो अलग क़ुरआन अपना
है  तब  यह  बात  जब  पहला  सिपारा चल रहा है

कोई इक बात है जिसके सबब झगड़ा है ख़ुद से
सहारा  है  मगर  दिल  बेसहारा  चल  रहा  है

गयीं लेहरों के पैरों के निशां उभरे हुए हैं
नदी ख़ामोश है लेकिन किनारा चल रहा है

हमें महफ़िल से लौटे हो  चुका है वक़्त काफ़ी
मगर आखों में अब भी इक इशारा चल रहा है

इन ग़ज़लों पर चर्चा करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने चर्चा शुरू करते हुए कहा कि 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' के पटल पर मेरे प्रिय युवा शायर ज़िया ज़मीर की ग़ज़लें चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं। इतना कह सकता हूँ कि ग़ज़ल की बहुत बड़ी विरासत की वे बेहद संभावना भरी सुबह की ताज़गी भारी किरन हैं, जिससे आँगन उजालों से भर जायेगा। जिसकी शायरी पर यहाँ के तमाम हिंदी और उर्दू के कवियों तथा शायरों को नाज़ होगा।
आलमी शोहरत याफ्ता शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मुझे खुशी है कि ज़िया की ग़ज़ल में बहुत निखार आया है। उनकी फिक्र खूब रौशन हुई है।  उनका लहजा मजबूत हुआ है। उनके ख़्वाबों की विश्वसनीयता मुखर हुई है और ज़िया के प्रशंसकों में बहुत इज़ाफा हुआ है। उनके इस बौद्धिक उन्नयन के दो कारण मेरे नज़दीक बहुत उजले हैं। एक तो यह कि उनकी प्रतिभा सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं है।  उनके अंदर एक शायर के साथ एक समझदार आलोचक, एक कल्पनाशील कहानीकार और एक ज़बरदस्त मानवतावादी विचारक भी छुपा हुआ है। जो समय-समय पर जब बाहर आता है तो समाज और साहित्य में उनकी इज़्ज़त और मान्यता का गवाह बन जाता है। ज़िया ने ग़ज़ल की सदियों पुरानी परम्परा से अपनी ग़ज़ल, अपनी शब्दावली और अपनी शैली को बचाकर अपना नया रास्ता बनाने की कोशिश की है।  वो अपने ही बनाये हुए रास्ते पर बहुत हौसले के साथ चल रहे हैं।
प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि ज़िया ने कम समय में अदब के क्षेत्र में जो कमाया है, वो बड़ा ही सराहनीय है। ज़िया सौभाग्यशाली हैं कि उनके पास पिता रूप में ज़मीर दरवेश साहब जैसी अदबी व्यक्तित्व की पूंजी मौजूद है। पूंजी खरी और पर्याप्त हो तो निवेश के परिणाम भी अच्छे ही होते हैं। ज़मीर दरवेश साहब के साहित्यिक निवेश का उनके पास ज़िया रूप में सुखद परिणाम मौजूद है। ज़िया की भाषा बतियाने की भाषा है। यही भाषा सर्वाधिक हृदयग्राही रही है। यद्यपि कुछ शब्द कठिन भी प्रयोग में आए हैं। यह व्यक्ति-व्यक्ति के शब्द भंडार को भी दर्शाता है और इसका भी मोह बना ही रहता है। बात का पहुंचना ज़रूरी है, वह पहुंच रही है। मुरादाबाद की शायरी का बेहतरीन भविष्य ज़िया की खुशबू में झलकता है। नामी शायर होने की संभावनाएं उनमें दीख रही हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि ज़िया की ग़ज़लें दिल को छू गई हैं। ज़िया को पढ़ना और सुनना दोनों ही अनुभव अपने में बेमिसाल हैं। ज़िया के कलाम पर क़लम चलाना आसान नहीं है। दस ग़ज़लें दस पेज मांगती है।  हर ग़ज़ल बहुत सादगी से बड़ी बात कह देती है।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों पर कुछ लिखने के लिये मुझे स्वास्थ्य और समय के साथ-साथ ग़ज़ल के बारे में पी.एच.डी. दरकार है। ज़िया ज़मीर माशाअल्लाह अपनी उम्र से बड़े शायर हैं।  ग़जल महबूब से बात करने का नाम है और ज़िया ने ख़ूब ग़ज़ले कहीं हैं यानि महबूब से ख़ूब गुफ़्तुगू की है। उनकी गज़लों में सादगी के साथ बला की पुख़्तगी है। उनकी ग़जलों मे सादा अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल पाठक का मन मोह लेता है। शब्दों को नये साँचें में ढालने का हुनर ज़िया बख़ूबी जानते हैं और उन्होनें अपनी ग़ज़लों में ये प्रयोग ख़ूब किये हैं। आने वाला समय निश्चित रूप से इस मनभावन शायर का है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि ज़िया ज़मीर मोहब्बतों के शायर हैं। उनके यहां आसपास हो रही घटनाओं के शब्द चित्र मिलते हैं। वो जैसा देखते हैं वैसा ही अपने शेरों में बयान कर देते हैं, बग़ैर किसी लाग-लपेट के। समाज के प्रति एक रचनाकार की प्रबल ज़िम्मेदारी होती है और उस ज़िम्मेदारी का निर्वहन ज़िया ज़मीर साहब बख़ूबी कर रहे हैं। एक-दो नहीं, ऐसे बहुत से शेर हैं जो उन्हें शायरी की रिवायत से एक अलग क़तार में खड़ा करते हैं, जहां सामाजिक चिंतन की वास्तविक ऊंचाइयां मिलती हैं, जहां प्रेम मिलता है, जहां आपसी भाईचारा मिलता है। उनकी ग़ज़लें ज़िंदगी की आड़ी-तिरछी गलियों से गुज़रते हुए बहुत-से मौसमों का सामना करती हैं। कामना करता हूं कि उनकी ग़ज़लों में सामाजिक ऊंचाइयों का चिंतन इसी प्रकार बना रहे।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज ने कहा कि ज़िया ज़मीर एक बा-सलाहियत, होनहार और जवाँ-साल शायर हैं। शायरी का ज़ौक़ विरासत में उन्हें मिला। उन के वालिदे गिरामी जनाब ज़मीर दरवेश जदीद लबो लहजे के बा-वक़ार शायर हैं। ज़िया की शायरी वही इश्क़, वही मुहब्बत, वही प्यार वही अटखेलियों और वही नाज़ो-नियाज़ वाली शायरी है जिससे उर्दू ग़ज़ल इबारत है। जहाँ महबूब से गुफ़्तुगू होती है या महबूब की गुफ़्तुगू होती है। उन्होंने अपनी ग़ज़ल के लिए जो रास्ता चुना है वो बहुत खूबसूरत, बहुत पुरकशिश है।
वरिष्ठ कवि  डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि अपने शेरों के जरिए ज़िया ज़मीर सूखे हुए जख्मों को जहां हरा कर देते हैं। वहीं ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों की ओर भी बड़ी मासूमियत के साथ इशारा करते हुए सोए हुए 'ज़मीर' को जगाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। कई शेर तो वाक़ई आंखों के नीचे के घेरे और भी गहरे कर देते हैं ।आपकी शायरी पर विद्वतजनों ने इतना कुछ लिख दिया है कि अब कुछ लिखने को बाकी ही नहीं रह गया।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि ज़िया ज़मीर जी के साहित्यिक ख़ज़ाने में से दस ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। सभी एक से बढ़कर एक हैं। ज़िया जी जैसे अपने आप सहज, सरल हैं वैसे ही उनकी ग़ज़लें भी गहरी से गहरी बात को भी एकदम सहजता से कहने का सलीक़ा रखती हैं और ज़हन में उतरती चली जाती हैं। बहुत सारी गोष्ठियों में उनके साथ मंच पर सहभागिता की। उनकी प्रस्तुति, सुनाने का अंदाज़ भी एकदम अलग है और प्रभावित करता है।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों से गुज़रते हुए कुछ-कुछ ऐसा आभास होता है कि जैसे ये ग़ज़लें रूह के रू-ब-रू होने की स्थिति में ही कही गईं हैं। उनकी ग़ज़लों की यह विशेषता है कि उनकी ग़ज़लें पढ़ने में भी उतनी ही प्रभावशाली होती हैं जितनी सुनने में। उनकी ग़ज़लों में भाषाई सहजता के कारण मन को छू लेने वाले शेर देर तक मन-मस्तिष्क पर छाये रहते हैं। मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत उनकी सभी दस ग़ज़लें पाठकों को मंत्रमुग्ध तो करती ही हैं, मुरादाबाद की ग़ज़ल परंपरा के सुनहरे भविष्य का प्रमाण भी देती हैं।
समीक्षक डॉ आसिफ हुसैन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बड़ी रचनात्मक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। शायरी इन्हें घुट्टी में मिली है। इनके पिता श्री ज़मीर दरवेश साहब की गिनती उस्ताद शायरों में होती है। एक बड़ी खू़बी उनकी ज़ुबान की सादगी और सरलता है। वो आम भाषा का इस्तेमाल करते हैं और लकीर का फकी़र नहीं बना रहना चाहते, बल्कि ज़रूरत के मुताबिक़ रदीफ़ और क़ाफ़िया बना लेने की भी सलाहियत रखते हैं। दूसरी मिसाल उनकी शायरी में रोज़मर्रा का इस्तेमाल भी है जैसे- होठों पर तबस्सुम रखना, पागल कर देना, बला की खुद्दार, दास बनाना, तड़पकर दुआ करना, होठों से छूना, बुनियाद का पत्थर आदि। तीसरी खूबी यह कि वो अक्सर शब्दों की तकरार से अपने शेरों में हुस्न पैदा करते हैं। चौथी खूबी यह है कि वो अक्सर शेर के दोनों मिसरों की शुरुआत एक ही लफ़्ज़ से करते हैं। यह बात बिना झिझक कही जा सकती है की ज़िया ज़मीर साहब का अपना रंग-ओ-आहंग, अपना लहजा और अपनी फिक्र है, जो उन्हें अलग पहचान दिलाती है। इनका मुस्तक़बिल रोशन और ताबनाक है।
समीक्षक डॉ रबाब अंजुम  ने कहा कि उर्दू की चाशनी में डूबी उर्दू की ख़ुशबू और तहज़ीब से संवरी हिन्दी की सुन्दरता के साथ पेश की गईं ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की अलम-बरदार ग़ज़लें हैं, जो दिल को छू गयीं। बहुत सादगी के साथ आम मज़ामीन को ग़ज़ल के पैराए में बड़ी महारत के साथ पेश किया है ज़िया साहब ने। बहुत बहुत मुबारकबाद।
युवा शायर राहुल शर्मा   ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि जैसे कोई बंजारा सूने जंगल में रबाब के तारों पर एक बेहद मीठी धुन छेड़ता हुआ चला जा रहा है। ऐसा लगता है कि पर्वत के इस पार बैठा हुआ कोई फरहाद उस तरफ बैठी हुई शीरीं को पुरज़ोर मोहब्बत से भरे लहजे में पुकार रहा हो। असली ग़ज़ल-गोई मेरी नज़र में यहीं से शुरू होती है। नाज़ुकी और बात कहने का सलीक़ा उर्दू शायरी की एक ख़ास विशेषता है जो कि ज़िया ज़मीर के यहां पूरी खूबसूरती से पाई जाती है। ज़िया ज़मीर एक अनंत संभावनाओं वाले साहित्यकार हैं। इनकी शायरी में जितना पैनापन है, गद्य के क्षेत्र में भी उनकी कलम का तेवर अलग ही नज़र आता है।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लों की रिवायत की आत्मा से छेड़छाड़ किए बिना उन्हें अपने हुनर का जामा पहनाया है। इश्क़ उनकी ग़ज़लों का सबसे महबूब मज़्मून रहा है। लेकिन उनके यहाँ का इश्क़ अलैहदा है, संजीदा है, यह 'क्लासिकल मॉडर्न' है। ज़िया ज़मीर ने लगभग प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रचलित बह्रों में ज़ोर-आज़माइश की है और वे इसमें सफल भी हुए हैं। छोटी बह्र में भी वे उतनी ही प्रभावशीलता से अपनी बात रखते हैं जितनी कि बड़ी बह्रों में। फ़लसफ़ा, तसव्वुफ़, और तरक़्क़ीपसंद सोच के वे हामी हैं, यह बात उनकी ग़ज़लों से बख़ूबी ज़ाहिर होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर की शाइरी के अलग-अलग रंग हैं, जिनसे शराबोर होकर क़ारी यक़ीनन ही सोच के नए उफ़ुक़ पर ख़ुद को खड़ा पाएगा।
युवा शायर मनोज वर्मा मनु ने कहा कि ज़िया भाई के मुख़्तलिफ़ कलाम से उनका लहजा, उनकी फ़िक़्र, उनके जज़्बात, उनका अख़लाक़, उनकी साफ़गोई, उनके संजीदगी भरे चुटीले तड़के, और उनका हक़ीक़त पसन्द "ज़मीर", सब अपनी चमक के साथ परिलक्षित होते हैं। गोया कि शेर खुद बताते हैं कि वो ज़िया ज़मीर  के शेर हैं। मोहतरम जनाब ज़मीर दरवेश साहब की ज़ेरे-नज़र, उस आंगन में पले-बढ़े इस तरबीयत के ज़िया की शायरी में अदबी नुख़्स भूसे के ढेर से सूईं तलाशने जैसा है। अपने-अपने तरीके से उनके एक-एक शेर के कई मफ़हूम बताए जा सकते हैं।
युवा शायर फ़रहत अली फरहत अली खान  ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब को जदीद दौर के नयी पीढ़ी के बेहतरीन शायरों में शुमार किया जाता है। इनके हम-अस्र, हम-उम्र और कई बड़े शायर इन की सीनियोरिटी को तस्लीम करते हैं और इन का एहतेराम करते हैं। शेर कहने का इन्होंने अपना एक अलग अंदाज़ डेवेलप किया है जो दूसरों से जुदा है। तग़ज़्ज़ुल का दामन पकड़े-पकड़े ख़्यालों के समुंदर में ग़ोते लगाते हैं। कहीं-कहीं गहरा फ़लसफ़ा भी पिरोते हैं, मगर अक्सर अशआर दुनिया को जैसा इन्होंने देखा उसकी गहरे जज़्बात के साथ तर्जुमानी करते हैं। इस के अलावा एक अच्छे नाक़िद भी हैं, जो अपने शायर की तरह इस दौर के दूसरे नक़्क़ाद से अलग नुक़्ता-ए-नज़र रखते हैं। साथ ही अब तक मैं इन के दो अफ़साने भी पढ़ चुका हूँ। इनको दो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देख चुका हूँ। इस सिन्फ़ में भी ये बहुत उम्मीदें जगाते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि आज स्वयं इस ऐतिहासिक साहित्यिक चर्चा के सूत्रधार एवं लोकप्रिय शायर भाई ज़िया ज़मीर जी की रचनाएं पटल पर प्रस्तुत की गयी हैं। भाई ज़िया ज़मीर जी ऐसे लोकप्रिय शायरों में से एक हैं जिनकी लेखनी से निकली रचनाओं ने मुझ जैसे अल्प ज्ञानी के अन्तस को भी सदैव स्पर्श किया है। अपनी दिल जीत लेने वाली शायरी से मुरादाबाद की कीर्ति में चार चाँद लगाने वाले, शायरी के इस सशक्त हस्ताक्षर को मेरा बारम्बार प्रणाम।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में अपनी भी बात की और समाज की भी। ग़ज़लों की ख़ास बात है बह्र का बदलाव। अलग-अलग बह्र की ग़ज़लों में शब्दों का बहाव। किसी एक ग़ज़ल से कोई एक या दो शेर चुनना मुश्किल काम है। कुल मिला कर ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में ज़िंदगी की सच्चाईयों का सफर करा दिया है। दुआ है कि क़लम की रोशनाई की रंगत बढ़ती रहे और फिर इसी तरह के कलाम पढ़ने को मिलें।
युवा समीक्षक डॉ अज़ीम उल हसन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें पढ़ीं और पढ़कर यक़ीन भी हो गया कि मुरादाबाद में ग़ज़ल का मुस्तक़बिल काफ़ी रोशन है। आप ग़ज़लों में सादा ज़बान का इस्तेमाल करते हैं, जिस से शेर आसानी से ज़बान पर रवां हो जाते हैं। कहीं कहीं शेरो में तसव्वुफ़ की झलक भी नुमायां है। ग़रज़ यह कि ज़िया साहब की ग़ज़लों में इश्क़ की चाशनी के साथ-साथ ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयां भी हैं जो कहीं न कहीं आज के इंसान के ज़मीर पर तंज़ की करारी चोट करती हुई नज़र आती हैं।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट नेे कहा कि एक व्यक्ति के रूप में शालीन, खुशमिजाज़, मिलनसार और उदार सोच वाले ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें जब भी पढ़ीं, ऐसा लगा है कि ग़ज़ल हमसे बतिया रही है। सहज, सरल, दैनिक बोलचाल की भाषा में, दैनिक सन्दर्भों का प्रयोग करते हुए भी ग़ज़ल की गरिमा और क्वालिटी दोनों को बनाये रखते हुए वे न केवल पाठक के दिल में जगह बनाते हैं, बल्कि अपनी विशिष्ट कहन से चौंका भी देते हैं। अपने विशिष्ट अंदाज़े-बयां के कारण उन्हें सुनना भी सुखद होता है।
युवा कवियत्री  मीनाक्षी ठाकुर नेे कहा कि वाक़ई कई कई बार आपकी ग़ज़लें पढ़ी हैं कल से अब तक। वक़्त बीता पर आँखों में आपके लिखे शेर तैर रहे हैं। उर्दू के बेहतरीन अल्फा़ज से सजी ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें बेसाख़्ता दिल में उतरती चली जाती हैं। आपने जिस बेबाकी से ग़ज़लें कही हैं, लगता है कि आमने-सामने बैठकर गुफ्तगू हो रही है। कहीं रुमानियत तो कहीं महबूब को हँसकर धमकाने का अंदाज़ नायाब लगा। आपकी ग़ज़लों के अंदाज़ से लगता है कि आप शायरी को ओढ़ते हैं ,बिछाते हैं, शायरी ही जीते हैं। शायरी  आपके खून में है जो क़लम की स्याही बनकर कागज़ के पन्नो पर ग़ज़ल बनकर जब उतरी तो ग़ज़ब हो गयी। अलग ही भाषाई मिठास लिये हुए सादगी भरा आपका अंदाज़ श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। साफगोई की इंतिहा भीतर तक पाठकों को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। आपकी ग़ज़लों के हर शेर पर एक पन्ना लिखा जा सकता है।

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राजीव प्रखर
मुरादाबाद
मो० 9368011960