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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर राजीव सक्सेना का आलेख ...बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी । यह आलेख श्री दिग्गज जी के जीवन काल में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित मेरी कृति ’समय की रेत पर’ में प्रकाशित हुआ है।



बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी

मुख्य धारा के प्रसिद्ध कवि डा० हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि अच्छा बाल साहित्य वह रच सकेगा जो बच्चा बन सके यानी बाल मन में प्रविष्ट हो सके। बाल साहित्य की इस कसौटी पर जो बाल कवि खरे उतरते है वे हैं 'दिग्गज' मुरादाबादी ।
'दिग्गज' जी को न केवल बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ है बल्कि उनके मनोजगत या कल्पना जगत में भी गहरी पैठ है। वयस्क होने के बावजूद स्वयं 'दिग्गज' जी के भीतर  बालपन अभी विद्यमान है।उनके भीतर का यह बालपन या बालक जब सक्रिय होता है तभी किसी अन्त: प्रेरणा के वशीभूत हो उनका बाल कवि वाला व्यक्तित्व भी सक्रिय हो जाता है। दरअसल, 'दिग्गज' मुरादाबादी स्वयं को बालकवि सिद्ध करने के लिए नहीं बल्कि बच्चों के कल्पना जगत में झांकने की कौतूहलता के कारण बालगीत या कविताएं रचने के लिए विवश होते हैं।
    5 जनवरी सन् 1930 को जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर में जन्मे 'दिग्गज' मुरादाबादी का वास्तविक नाम प्रकाशचन्द्र सक्सेना है। उनके पिता मुन्शी रामचन्द्र सहाय सक्सेना एक रियासत के दीवान थे। 'दिग्गज' जी ने काव्य शास्त्र का ज्ञान अपने समय के प्रसिद्ध शायर अब्र हसन गुन्नौरी से प्राप्त किया। 'दिग्गज' जी की उर्दू साहित्य पर भी गहरी पकड़ है और उन्होंने बाल कविताओं के अलावा बहुत से गीत, नज्म और गज़लें भी लिखी है। आध्यात्मिक रूझान के कारण दिग्गज जी ने 'सीता का अन्तर्द्वन्द' और 'करवा चौथ' शीर्षक से काव्य प्रबन्धों की रचना भी की है।
    बाल कविताएं रचने की प्रेरणा 'दिग्गज' जी को प्रसिद्ध बाल कवि निरंकार देव 'सेवक' से प्राप्त हुई। यद्यपि सेवक जी से साक्षात्कार होने के पहले ही 'दिग्गज' जी बाल काव्य के क्षेत्र में निष्णात हो चुके थे तथा एक बाल कवि के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे। तथापि 'सेवक' जी का सान्निध्य प्राप्त होने पर 'दिग्गज' जी को उनसे बाल काव्य की अनेक बारीकियां समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सरसता, प्रवाहमयता और विलक्षण शब्द चयन के कारण 'दिग्गज' जी अपने समकालीन बाल कवियों से ही नहीं बल्कि अपने पूर्ववर्ती कवियों से भी श्रेष्ठतर जान पड़ते है तथापि वे विनम्रता पूर्वक अपने को निरंकार देव 'सेवक' का शिष्य स्वीकार करते है।

निरंकार 'देव' सेवक ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बालगीत साहित्य' (इतिहास एवं समीक्षा) में 'दिग्गज' मुरादाबादी का उल्लेख बड़े आदर के साथ किया है 'सेवक' जी का यह ग्रन्थ आज बालगीत साहित्य के प्रामाणिक शोध ग्रन्थ के रूप में समादृत है और ऐसे ग्रन्थ में उल्लेख मात्र भी सचमुच किसी बाल कवि के लिए गौरव का विषय है। 'सेवक' जी ने 'दिग्गज' जी की बाल कविता 'दीवाली' का उल्लेख विशेष रूप से अपनी पुस्तक में किया है।

"लो फिर से दीवाली आई,
साथ अनेकों खुशियां लाई ।
खीलें और बताशे लाई,
बढ़िया खेल तमाशे लाई ।
छूट रही हैं आतिशबाजी,
सब प्रसन्न है सब है राजी ।
घर बाहर की हुई सफाई,
कहीं रंगाई कहीं पुताई ।
हर घर में पकवान बनें हैं,
बड़े बड़े सामान बने है ।
आज कहीं भी नही अंधेरा,
हुआ रात में दिन का फेरा ।
दीवाली की रात सुहानी,
है सारी रातों की रानी ।

'दिग्गज' जी की शब्दों और छंद पर गहरी पकड़ होने के कारण ही 'सेवक' जी ने यह टिप्पणी की है कि 'दिग्गज' जी को छंद में कहने की आदत सी बन गयी है। 'दिग्गज' जी की निर्विवाद काव्य प्रतिभा को सिद्ध करने के लिए यह टिप्पणी पर्याप्त है। सरल और छंदबद्ध होने के कारण उनकी बाल कविताओं / गीतों में अद्भुत गेयता है और बच्चे उन्हें सहज ही गुनगुना सकते है।

"दिग्गज' जी की बाल कविताएं बाल मनोभावों और संवेदना की अभिव्यक्ति साथ-साथ चित्रात्मकता की दृष्टि से भी अद्भुत है। दरअसल 'दिग्गज' जी बच्चों के मनोजगत से एक ऐसा अन्तवैयक्तिक तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहते है कि उनकी बाल कविताएं / बालगीत, भाषा एवं शिल्प के स्तर पर भी अनोखे जान पड़ते है। 'दिग्गज' जी की बाल कविताओं में भाषा विषय के अनुरूप स्वयं को गढ़ती हुई चलती है। बालपन से उनका यह विलक्षण तादात्म्य या विशिष्ट भाषा शैली ही उन्हें समकालीन बाल कवियों से पृथक एक पहचान प्रदान करती है। विज्ञापन शैली में लिखी उनकी लोकप्रिय और लम्बी बालकविता "सरकस' की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य है
ये तो थे जलथल के प्राणी,
आगे है इस तरह कहानी।
दस हाथी, बाईस घोड़े हैं।
सत्रह बाघों के जोड़े है।
पन्द्रह ऊँट, रीछ है ग्यारह,
बबर शेर हैं पूरे बारह ।
शुतरमुर्ग है अफ्रीका का
अड़ियल गैडा अमरीका का ।
कंगारू, जिराफ, जेबरा ।
मगरमच्छ, घड़ियाल कोबरा ।

'दिग्गज' जी ने बाल कवियों के परम्परागत और प्रिय विषयों के अलावा सोच के स्तर पर मौलिक एवं आधुनिक विषयों पर केन्द्रित बाल
कविताओं की रचना भी की है। उनकी कविता 'तारे' सचमुच बालकवि 'दिग्गज' के आधुनिक दृष्टिकोण का परिचय हमें कराती है।
ये असंख्य टिमटिमा रहे जो ।
तारे नभमण्डल में ।
ये धरती से भी विशाल हैं।
निज स्वरूप निज बल में।
किन्तु आज तक की खोजों में।
जीवन कहीं न पाया।
यह सुख यह अनुभव केवल ।
अपने हिस्से में आया।

'दिग्गज' जी ने छोटी बड़ी दो सौ से भी अधिक बाल कविताओं / बालगीतों की रचना की है। इनमें से अनेक का प्रकाशन बच्चों की प्रसिद्ध 'नंदन', 'बाल भारती' 'पराग' और 'सुमन सौरभ' सरीखी पत्रिकाओं में हो चुका है। बाल साहित्य में उनका स्थान हेंस क्रिश्चियन एंडरसन, इनिड ब्लाइटन या आर्कादी गाइदार जैसा भले ही न हो लेकिन वे हिन्दी के अप्रतिम बाल कवि तो है ही।


✍️ राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शिव अवतार रस्तोगी सरस की बाल कविताओं पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख .....बच्चों से बतियाती कविताएं । उनका यह आलेख "मैं और मेरे उत्प्रेरक" (श्री शिव अवतार सरस जी की जीवन यात्रा ) ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है ।

 


कुछ कवि केवल बच्चों के कवि होते हैं और कुछ बच्चों के साथ-साथ बड़ों के भी। शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' जी ऐसे ही बाल कवि हैं, जिनकी रचनाएं बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी उपयोगी होती हैं। उनकी बाल-कविताएं बच्चों के अन्तर्मन को तो छूती ही हैं, बड़ों के भीतर किसी कोने में बैठे बालक को भी सहज ही गुदगुदाती रहती हैं। 'सरस' जी की कविताओं में बच्चों, बड़ों सभी को समान रूप से रसानुभूति होती है और यही उनकी बाल कविताओं की सबसे बड़ी शक्ति है। सरस जी की बाल कविताएं केवल बाल मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण ही नहीं हैं, अपितु वे हमारे बचपन का 'टोटल रिकॉल' हैं क्योंकि इनमें बचपन की वापसी होती दिखायी पड़ती है या फिर हम बार-बार बचपन की ओर लौटते हैं।

      अपने काव्य-संग्रह में सरस जी ने ऐसी ढेरों कविताएं प्रस्तुत की हैं, जो बालकों के अन्तर्जगत की मन मोहक छवियों को तो निर्मित करती ही हैं, वह घरातल भी प्रदान करती हैं जिनमें बचपन पल्लवित होता है। सरस जी की बाल कविताओं का रचना आकाश भी बड़ा व्यापक है और बचपन, उनमें कल्पना की ऊँची उड़ानें भरता हुआ ही नहीं, बल्कि सतरंगे सपने बुनता हुआ भी दिखायी पड़ता है। सरस जी की बाल कविताओं में बचपन के लगभग सभी शेड उपस्थित हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो उनका सम्पूर्ण संकलन बचपन का एक सम्मोहक आभा दर्पण है ।

     इस संकलन की ख़ास बात यह है कि इसमें कवि ने बच्चों के इर्द-गिर्द मौजूद सूरज, चन्दा, बादल, झरना, पेड़ जैसे प्राकृतिक उपादानों के ऊपर कई रोचक और मोहक कविताएं रची हैं। इन कविताओं में प्रकृति के प्रति एक सहज लगाव या जुड़ाव तो परिलक्षित होता ही है, प्रकृति के प्रति संवेदना और उसे बचाये रखने के लिए एक आग्रह भी स्पष्ट तौर पर लक्ष्य किया जा सकता है। प्रकृति के बिना बचपन बेमानी है, इस तथ्य को यदि मौजूदा दौर में किसी बाल-कवि ने सर्वाधिक प्रमाणिक ढंग से स्थापित किया है, तो वे बस सरस जी ही हैं। ऐसे समय में, जबकि प्रकृति बाल-काव्य तो क्या, स्वयं मुख्य धारा की हिन्दी कविता से भी लगातार बेदखल और काफी हद तक अदृश्य होती जा रही है, प्रकृति के प्रति सरस जी का यह रचनात्मक कदम सचमुच श्लाघनीय है। दरअसल, उनकी बाल कविताएं प्रकृति की बाल-काव्य की वापसी तो हैं ही, वे एक ऐसा प्रस्थान-बिन्दु भी उपस्थित करती हैं जिनमें भविष्य के बाल-कवि भी अपनी राह खोज सकते हैं।

       अगर बाल कविताओं के बहाने प्रकृति सरस जी की चिन्ता का केन्द्र-बिन्दु है, तो बालकों के आस-पास मौजूद जीव-जगत भी उन्हें एक व्यापक चेतना से जोड़ता है। शायद यूँ ही बया और बन्दर, शेर और चूहा, कौआ, मुर्गा, खरगोश, बिल्ली और गौरैया सहित अनेक जीवों एवं प्राणियों को भी अपनी चिन्ता के केन्द्र में रखते हुए मौलिक कविताएं रचकर अपनी रचना-धर्मिता के संग बाल-कविता को भी नये आयाम प्रदान किए हैं। सरस जी की इन कविताओं की खूबी यह भी है कि ये बेहद रोचक शैली में और पय-कथाओं के रूप में रची गयी हैं और बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी खासा गुदगुदाती हैं। 'चूहे चाचा, चुहिया चाची',  शीर्षक की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

"बिल्ली मौसी पानी लाने, को सरिता तक जब निकली ।

सरिता में काई ज्यादा थी काई में बिल्ली फिसली।

मौका पाकर चूहे चाचा, चाची को लेकर भागे ।

चाची दौड़ रही थीं पीछे - चाचा थे आगे-आगे” 

सरस जी की बाल-कविताओं में यह हास्य अक्सर उपस्थित होता है, लेकिन उनकी बाल-कविताओं का हास्य शिष्ट है, उनमें भद्दापन बिल्कुल नहीं है और यही विशेषता उन्हें समकालीन हिन्दी बाल-कवियों के मध्य एक अभिजात्यता के साथ-साथ रचनात्मक वैशिष्ट्य भी प्रदान करती है। इन बाल कविताओं में ग़ज़ब की गेयता है, उन्हें किसी के द्वारा भी सहज ही गाया-गुनगुनाया जा सकता है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सरस जी की कविताएं छन्द, यति-गति की दृष्टि से 'परफेक्ट' हैं। उनका शब्द चयन भी विलक्षण है और प्रसिद्ध बालकवि 'दिग्गज मुरादाबादी' जैसा सटीक है। एक ऐसे दौर में, जबकि कविता, विशेषकर बाल-कविता, छन्द से दूर होती जा रही है और बाल-काव्य के नाम पर प्रभूत मात्रा में फूहड़ बाल-कविताओं का सृजन हो रहा है, सरस जी बाल-काव्य में 'छान्दसिकता के नये प्रतिमान' रच रहे हैं। सरस जी की बालोपयोगी कविताएं बालकाव्य में छन्द की वापसी का जीवंत प्रमाण हैं। उनकी बाल कविताओं के बारे में इस तथ्य का उल्लेख भी समीचीन होगा कि उनमें केवल गेयता ही नहीं, बल्कि अभिनेयता का तत्व भी विद्यमान है। इसके बरबस यह भी उल्लेखनीय है कि सरस जी की बाल कविताएं नाटक का कोई एकालाप (ब्रामेटिक नहीं हैं, बल्कि बच्चों से संवाद करती, बतियाती या खेल-खेल में कुछ सिखाती कविताएं हैं। सरस जी ने बाल काव्य के प्रतिमानों के अनुरूप और बाल साहित्य के अपरिहार्य तत्वों का समावेश करते हुए बालकों को कोई भी सीधा संदेश, उपदेश या प्रवचन देने से प्रायः परहेज किया है और वे शिक्षक की मुद्रा धारण करते हुए कभी बालकों पर तर्जनी उठाते दिखायी नहीं पड़ते, बल्कि स्वयं एक बच्चा बनकर बाल-मानस या बालकों की भीतरी दुनिया में प्रवेश कर उसके अनूठ बिम्ब प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास अवश्य करते हैं। शायद यूँ ही प्रस्तुत संग्रह की कविताएं बाल-मानस या बच्चों की दुनिया की एक सच्ची और काफी हद तक यथार्थ परक झाँकी प्रस्तुत करती हैं। वे अपनी बाल-कविताओं के ज़रिये बालकों के लिए आदर्श-परक किन्तु अव्यवहारिक किस्म की परिस्थितियाँ नहीं रचते हैं, न ही कोई 'यूटोपिया' प्रस्तुत करते हैं, बल्कि बच्चों की व्यावहारिक दुनिया को प्रतिबिम्बित करते हैं, जिसमें बालक सामान्य तौर पर निवास करते हैं। अपनी इसी खूबी के कारण सरस जी की बाल-कविताएं बच्चों के ही नहीं, बल्कि स्वयं बचपन के भी काफी करीब हैं। इसके अतिरिक्त कवि सरस जी इन कविताओं में बचपन को आधुनिक बाल-परिवेश और नये सन्दर्भों में भी रचने गढ़ने में सफल रहे हैं। लगातार लुप्त होते पक्षी गौरैया के प्रति कवि सरस जी की यह चिन्ता आधुनिक बाल-परिवेश और नये सन्दर्भों के प्रति उनकी रुचि और जुड़ाव को ही दर्शाती है

      भारतीय समाज में यह उक्ति बहुत प्रचलित है कि बच्चे हमारा भविष्य हैं, किन्तु वे भविष्य से कहीं ज्यादा हमारा वर्तमान भी हैं। दरअसल, भविष्य भी वर्तमान की नींव पर ही टिका होता है। अगर हम बच्चों का वर्तमान सँवारेंगे, तभी भविष्य सँवरेगा। सरस जी की कविताओं में इसी वर्तमान के प्रति एक आग्रह स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होता है और वे बच्चों को बड़े सलीके या तरीके से संस्कारों की शिक्षा देते हुए उन्हें भविष्य के योग्य नागरिकों के रूप में रचना-गढ़ने की चेष्टा करते हैं। वे बाल काव्य के ज़रिये न तो स्वयं के लिए और न ही बच्चों के लिए कोई वायवी या बहुत दूर के लक्ष्य निर्धारित करते हैं। समग्र रूप में सरस जी की बाल कविताएं एक ऐसा सम्मोहक माया दर्पण हैं, जिसमें बच्चे तो अपना अक्स ढूँढ ही सकते हैं, स्वयं बचपन के भी ढेरों विम्ब पूरी भव्यता के साथ उपस्थित हैं। बाल कविता के इस माया दर्पण के दुर्निवार आकर्षण से बच्चों का तो क्या, बड़ों का भी बच पाना मुश्किल है। 


✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना की बाल कहानी..... असफलता । उनकी यह कहानी बालपत्रिका -देवपुत्र के नवंबर-2022 के अंक में प्रकाशित हुई है।

     


"बच्चों ! तुम्हें पता है... भारत अंतरिक्ष में अपने यात्री भेजने वाला है....।" सुधीर आचार्य जी ने कक्षा में विज्ञान पढ़ाते हुए अपने छात्रों को जानकारी देते हुए कहा।

" आचार्य जी ! हमने यह भी सुना है कि हमारे वैज्ञानिक शीघ्र ही चन्द्रमा पर अपना अभियान करने वाले हैं।" रचित ने बीच में बोलते हुए कहा।

"हाँ बिल्कुल ठीक यही नहीं इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) मंगल पर भी दूसरा यान भेजने में जुटा है। सही बात तो यह है कि दुनिया के सभी विकसित देशों के बीच अपने यान अंतरिक्ष में भेजने की प्रतिस्पर्धा लगी है। हमारा भारत भी पीछे नहीं है। लेकिन बच्चों समय रहते तुम्हें भी विज्ञान में रुचि लेनी होगी जिससे हमें योग्य वैज्ञानिक और इंजीनियर मिल सकें। नहीं तो हमारा देश पिछड़ ने जायेगा।" सुधीर आचार्य जी ने कुछ गंभीर होकर कहा।

"आचार्य जी! मुझे तो विज्ञान पढ़ना बहुत पसंद है। मुझे यह बड़ा रोचक लगता है।" सार्थक ने कहा। "मुझे तो वैज्ञानिकों और उनके आविष्कारों की कहानियाँ पढ़ना पसन्द है।" इस बार संकेत बोला।

"अंतरिक्ष यात्रा बड़ी मजेदार होती है। मैं तो बड़ा होकर अंतरिक्ष यात्री बनूँगा। एलियनों अर्थात अंतरिक्ष वासियों से भेंट करूँगा।" तुषार बोला। "मैं तो वैज्ञानिक बनूँगा, बड़ा होकर आविष्कार करूँगा।" सजल ने कहा। 

सुधीर आचार्यजी की कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे विज्ञान के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे थे। सुधीर आचार्य जी बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे थे। सारी कक्षा

में एक भी छात्र ऐसा नहीं था जिसकी 

विज्ञान में रुचि न हो । दरअसल, सुधीर आचार्य जी का विज्ञान पढ़ाने का अंदाज ही निराला था । विज्ञान

जैसे नीरस और कुछ कठिन लगने वाले विषय को भी वे इतने रोचक ढंग से पढ़ाते थे कि सभी की रुचि इसमें बनी रहती थी और कोई भी छात्र उनकी कक्षा में अनुपस्थित नहीं रहना चाहता था।

"बच्चों ! अंतरिक्ष के बारे में जानने की जिज्ञासा तुम्हारे अंदर बनी रहे और तकनीक से तुम्हें जोड़ने के लिए अगले महीने 'रॉकेट बनाओ' प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है, जिसमें शहर के सभी विद्यालयों को आमंत्रित किया गया है। आप अपने बनाये रॉकेट का प्रदर्शन उसे उड़ाकर प्रतियोगिता में कर सकते हैं बढिया रॉकेट बनाने वाले बच्चों को पुरस्कार दिया जायेगा.. हाँ, एक बात और रॉकेट बनाने के लिए आप इन्टरनेट या बड़ों की सहायता भी ले सकते हैं। इस प्रतियोगिता का जीवंत प्रसारण भी किया जायेगा।" आचार्य जी ने कहा।

"वाह! मैं भी एक नन्हा रॉकेट बनाऊँगा।" चंचल ने चहकते हुए कहा।

अनुभव को छोटे रॉकेट या उनके नन्हें मॉडल बनाने का बड़ा शौक था। शहर के ही एक पटाखे बनाने वाले से उसने रॉकेट बनाने के गुर सीखे थे। इसके अलावा वह नेट पर भी रॉकेट बनाने के तरीके सीखता रहता था। राकेट बनाना अनुभव की धुन थी। मित्र और सहपाठी भी अनुभव की इस धुन को अच्छी तरह जानते थे। तभी वे उसे 'रॉकेट मैन' कहकर पुकारते थे। संभव तो अक्सर कहता था- "अनुभव! मुझे लगता है बड़ा होकर तू अवश्य ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जैसा राकेट वैज्ञानिक बनेगा। " उस दिन जब सुधीर आचार्यजी ने विद्यालय में आयोजित होने वाली 'रॉकेट बनाओ' प्रतियोगता के बारे में बताया तो मित्रों ने अनुभव से कहा "अनुभव! तुम्हारे लिये तो यह स्वर्णिम अवसर है। तुम अवश्य यह प्रतियोगिता जीतोगे।" अनुभव भी मन ही मन प्रतियोगिता के लिए रॉकेट बनाने को तैयार हो गया।

किन्तु अब समस्या यह थी कि कैसा रॉकेट बनाया जाए। यह तो तय था कि दूसरे बच्चे भी नेट से सहायता लेकर रॉकेटों के एक से एक उत्तम प्रादर्श बनाकर उनका प्रदर्शन करेंगे।

"मुझे सबसे हटकर कुछ अनोखे प्रकार का मॉडल रॉकेट बनाना होगा जैसा किसी ने न बनाया हो।" अनुभव विचार करने लगा। लेकिन यह आसान काम नहीं था। समय खिसकता जा रहा था। खिसक क्या रहा था बल्कि तेजी से पंख लगाकर उड़ रहा था।

अनुभव के भीतर रॉकेट प्रतियोगिता को लेकर गहरी उधेड़बुन चल रही थी। अनुभव को विज्ञान और तकनीक से जुड़ी खबरें देखने-पढ़ने का भी शौक था।

एक दिन ज्यों ही अनुभव ने अपना टी.वी. खोला स्क्रीन पर एलन मस्क का चेहरा दिखायी दिया। टी. वी. पर एलन मस्क का साक्षात्कार दिखाया जा रहा था मस्क ने साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार से कहा "हमारा कॉरपोरेशन ऐसे रॉकेट के प्रोटोटाइप पर काम कर रहा है जिसे अंतरिक्ष में उड़ान भरने के लिए ईंधन की आवश्यकता ही न हो यानि बिना ईंधन का रॉकेट।'

'बिना ईंधन का रॉकेट ? यह सचमुच एक नयी बात थी। अभी तक दुनिया में बिना ईंधन का रॉकेट बनाने में किसी को सफलता नहीं मिली थी। "मैं प्रतियोगिता के लिए ऐसा ही रॉकेट बनाऊँगा। बिना ईंधन का रॉकेट।" टी. वी. पर एलन मस्क का साक्षात्कार देखते ही जैसे अनुभव को राह मिल गयी। वह एक नये उत्साह से भर गया। जो काम बड़े-बड़े वैज्ञानिक नहीं कर पाये थे वह एक किशोर या बच्चे के लिए आसान कैसे हो सकता था? मुझे अरुण चाचा की सहायता लेनी होगी अनुभव ने मन ही मन विचार किया।

अरुण के चाचा इंजीनियर थे जब अनुभव ने उनसे बिना ईंधन वाला रॉकेट बनाने का उल्लेख किया तो वे बोले "रॉकेट को उड़ान भरने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होगी। यह ऊर्जा कोई भी हो सकती है- विद्युत ऊर्जा, ध्वनि ऊर्जा या फिर प्रकाश ऊर्जा।"

"यदि मैं प्रकाश से चलने वाला रॉकेट बनाऊँ तो कैसा रहेगा। बस, इसके लिए मुझे कुछ फोटो सेल की ही तो आवश्यकता होगी।"

अचानक एक जोरदार सूझ भरा विचार बिजली की तरह अनुभव के मन में कौंध गया। बस, फिर क्या था।

अनुभव एकदम हवा-हवाई हो गया। वह फोटो सेल से उड़ने वाला यानी फोटान रॉकेट बनाने में जुट गया। अरुण चाचा ने भी रॉकेट के लिए फोटो सेल बनाने में उसकी खूब सहायता की।

आखिर प्रतियोगिता के लिए अनुभव का रॉकेट बनकर तैयार हो गया। कुछ-कुछ हवाई जहाज जैसा दिखने वाला अनुभव का यह रॉकेट बिल्कुल अलग या अनोखे किस्म का था।

    प्रतियोगिता वाले दिन दूसरे बच्चे अनुभव का यह अजीबो-गरीब आकृति वाला रॉकेट देखकर हैरान थे।

प्रतियोगिता प्रारंभ हुई। "नौ... आठ... सात... चार... दो... एक...शून्य।"

आचार्यजी ने 'काउन्ट डाउन' यानी उल्टी गिनती शुरू की तो शून्य पर पहुँचते ही दर्जनों रॉकेट दनदनाते हुए हवा में ऊँची उड़ान भरते हुए चले गये। अनुभव का रॉकेट बस बीस-तीस मीटर ऊँचा ही उड़ पाया और फिर एकाएक औंधे मुँह मैदान में नीचे गिरकर मिट्टी में धँस गया।

हो...हो...हो...हो...। अनुभव के रॉकेट की यह दशा देखकर आस पास खड़े दर्शकों, अध्यापकों और सहपाठियों के मुँह से हँसी का एक फव्वारा ही छूट पड़ा।

वे व्यंग्य भरी दृष्टि से उसे देख रहे थे। "कहो रॉकेट मैन! तुम्हारा रॉकेट तो फुस्स हो गया।" संभव ने व्यंग्यपूर्वक कहा। पता नहीं एकाएक क्या हुआ!

अनुभव की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसका महीने भर का परिश्रम धूल में मिल गया। वह जोर-जोर से सुबकने लगा और साथ आये अपने पिता जी से लिपटकर रोने लगा।

"रोओ मत अनुभव! तुम हारे नहीं हो। अगली बार फिर प्रयत्न करना।" पिता जी ने दिलासा देते हुए कहा।

मॉडल रॉकेट बनाने के लिए पुरस्कार मिलना तो दूर किसी ने अनुभव को शाबाशी तक नहीं दी। अनुभव ने मैदान में गिरा अपना रॉकेट उठाया और पिता जी के साथ चुपचाप घर चला आया।

किन्तु यह कहानी का अंत नहीं था। एक दिन अनुभव के पिता जी को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी 'इसरो' की ओर से एक ई-मेल प्राप्त हुआ। संगठन के चेयरमैन ने अनुभव के बनाये रॉकेट को अपनी प्रयोगशाला में जाँच के लिए मँगाया था। इसरो के वैज्ञानिकों ने अनुभव के प्रोटोटाइप में रुचि दिखायी थी।

अनुभव और उसके पिताजी तो क्या स्वयं सुधीर आचार्य जी के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। दरअसल इसरो के वैज्ञानिकों ने 'रॉकेट बनाओ'

प्रतियोगिता का प्रसारण देखा था। अनुभव ने अपना अधजला रॉकेट बेंगलुरू के अंतरिक्ष मुख्यालय भेज दिया।

कुछ ही दिनों बाद अनुभव को इसरो के चेयरमैन की ओर से फिर संदेश प्राप्त हुआ। इस बार उन्होंने अनुभव को उसके पिता जी के साथ अंतरिक्ष मुख्यालय में भेंट के लिए बुलाया था।

इसरो के चेयरमैन स्वयं देश के बड़े रॉकेट वैज्ञानिक थे। जब अनुभव पिताजी के साथ मुख्यालय पहुँचा तो उन्होंने स्वागत करते हुए कहा- "अनुभव! तुमने गजब का रॉकेट बनाया है, वैज्ञानिक जिसका लम्बे समय से सपना देख रहे हैं- फोटान रॉकेट इसके लिए तुम्हें एक विशेष पुरस्कार दिया जा रहा है... बिल्कुल अभी।" क्षणभर के लिए तो अनुभव और उसके पिता जी को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।

अनुभव कुछ अचकचाकर बोला- "लेकिन, मेरा रॉकेट तो असफल हो गया था। मैं प्रतियोगिता जीतने में असफल रहा।"

"कौन कहता है तुम असफल रहे ? तुम्हारा रॉकेट भी असफल नहीं हुआ था। तीस मीटर ही सही लेकिन तुम्हारा यह रॉकेट जिसे मैं 'फोटान रॉकेट' कहूँगा लगभग तीस मीटर उड़ने में सफल रहा। हमने इसकी गहराई से जाँच की है। डाटा का विश्लेषण करने से पता चला है कि रॉकेट की प्रणाली शार्ट सर्किट हो जाने के कारण इसके फोटो सेल जल गये और अपेक्षित थ्रस्ट न बन पाने के कारण रॉकेट अधिक ऊँची उड़ान नहीं भर पाया लेकिन तुम्हारे इस रॉकेट ने हमारी राह आसान कर दी है। इसरो ने तुम्हारे मॉडल के आधार पर विशालकाय फोटान रॉकेट बनाने की दिशा में काम शुरू कर दिया है। वह दिन दूर नहीं जब बिना ईंधन वाले भारतीय रॉकेट गहन अंतरिक्ष में उड़ान भरेंगे।" "ल... ल... लेकिन... ।

    "लेकिन वेकिन कुछ नहीं अनुभव तुम्हारा रॉकेट असफल हुआ था, तुम नहीं। अब जरा देखो महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडीसन ने हजार बार से अधिक बल्ब का फिलामेंट बनाया था तब कहीं वह बल्ब बन पाया जो आज हमें रोशनी देता है। माइकल फैराडे ने सैकड़ों बार प्रयत्न किया तब कहीं वे बिजली का पहला डायनमो बना पाये थे ऐसे और भी उदाहरण हैं विज्ञान की दुनिया में ध्यान रहे, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। हर असफलता के पीछे एक सफलता छिपी होती है। हमें असफलता से डरना नहीं चाहिए बल्कि उससे सबक लेना चाहिए।"

"आओ! मेरे साथ एक सेल्फी हो जाए।" चेयरमैन ने अनुभव को पुरस्कार देते हुए कहा तो उसके पिताजी का छाती गर्व से चौड़ी हो गई और स्वयं अनुभव के चेहरे पर एक मुस्कान खेलने लगी।

✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत













शनिवार, 29 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ----गंगा के गायक- -सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी ।

 


किशोरावस्था की बहुत सी स्मृतियां कौधती हैं, यादों का प्रोजेक्टर छाया डालता है- मुरादाबाद नगर में हर साल होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे में मैं उपस्थित हूँ एक सुकुमार से दिखने वाले कवि मंच संचालक द्वारा कविता पाठ के लिए आमंत्रित किये जाने पर मंथर गति से मंच पर प्रकट होते है। पंडाल में उपस्थित श्रोताओं को हास्य रस में खूब सराबोर कर अपना स्थान ग्रहण करते है। खूब तालियां बजती है, खूब वाहवाही मिलती है।

     प्रोजेक्टर अपनी छाया डालकर चुप हो जाता है। ये है मुरादाबाद के प्रसिद्ध कवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यद्यपि उनका निवास अधिकतर जनपद की तहसील चन्दौसी में ही रहा है किन्तु उनकी पहचान मुख्यतया मुरादाबाद के प्रमुख हास्य-कवि के रूप में ही है और 'हुल्लड़' मुरादाबादी की तरह काव्य मंच पर मुरादाबाद का प्रतिनिधित्व करते है।

    किन्तु अपने सुदीर्घ रचनाकाल में मिश्र जी ने केवल हास्य-रस की कविताएं ही नहीं रची है, काव्य की दूसरी विधाओं विशेषकर गीत को भी उन्होंने पर्याप्त समृद्ध किया है। काव्य रचना के अलावा मिश्र जी ने नाटक भी लिखे है। पुरातत्व और इतिहास पर भी उन्होंने काफी लिखा है। वे निरे कवि नहीं है बल्कि गद्य लेखन में भी खासे निष्णात हैं। सही बात तो यह है कि साहित्यकार के रूप में मिश्र जी के विविध रूप है। 'पवित्र पंवासा' शीर्षक ऐतिहासिक खण्ड-काव्य की भूमिका में प्रख्यात गीतकार शचीन्द्र भटनागर, मिश्र जी के बारे में लिखते है " श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के गीतकार, व्यंग्यकार, पुरातत्वविद, लेखक, नाटककार आदि रूपों से मेरा परिचय विगत तीस-पैतीस वर्षों में समय-समय पर होता रहा है उनकी समर्थ लेखनी जिधर मुड़ी उधर ही उसने नये प्रतिमान स्थापित कर दिए।" यूँ मिश्र जी की पहचान मुख्यतया एक व्यंग्य कवि के रूप में ही अधिक है किन्तु उनके अन्दर बैठा कवि वास्तव में तभी हमारे सामने अपनी पूरी ‘फार्म' में आता है जब वे 'पवित्र पंवासा' जैसे ऐतिहासिक खण्ड-काव्य में अपनी ओजपूर्ण भाषा में हुंकार लगाते हैं।

     "है समर प्रयाण, वीर चल पड़े,

      छोड़ के कमान तीर चल पड़े, 

      शत्रु- सैन्य थी जहाँ दहाड़ती, 

      रक्त पान को अधीर चल पड़े।

      तेग चल पड़ीं, दुधार चल पड़े, 

      ढाल चल पड़ी, कुठार चल पड़े, 

      लौह के कवच, बदन सजे हुए,

       राजपूत धारदार चल पड़े। 

       केसरी निशान हाथ में लिए, 

       आखिरी प्रयाण हाथ में लिए,

        सिंह-पूत सिंह से निकल पड़े, 

        चंचला कृपाण हाथ में लिए । "

ऐसा कौन पाठक या श्रोता होगा जिसकी शिराओं में इन पंक्तियों के अवगाहन के बाद रक्त न खौल उठे। दरअसल, मिश्र जी जब वीर रस के काव्य की रचना कर रहे होते है तब वे जाने-अनजाने मध्ययुगीन चंदवरदाई, जगनिक या भूषण जैसे कवियों की परम्परा का अनुसरण ही नहीं कर रहे होते बल्कि उनके समीप खड़े दिखाई पड़ते है। मिश्र जी कथ्य की दृष्टि से ही नहीं बल्कि यति गति, लय या छन्द की दृष्टि से भी मध्ययुगीन कवियों से कमतर नहीं है। बल्कि कहीं-कहीं तो वे वीरगाथा काल के कवियों से भी ज्यादा मौलिक और विशिष्ट दिखाई पड़ते है। वीरगाथा काल के कवियों ने जहाँ अधिकांश काव्य रचना राज्याश्रय प्राप्त करने, आजीविका चलाने या अपने स्वामी शासक को प्रसन्न करने के लिए की है वही मिश्र जी ने ऐसी किसी बाध्यता के बिना निर्द्वन्द्व भाव से साहित्य रचना की है और उन्होंने स्थानीय इतिहास, लोक कथाओं या किवदंतियों को प्रश्नय दिया है। 

    मिश्र जी उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है। उनके 'चरित्र काव्य' का मुख्य आधार स्थानीय इतिहास रहा है। वृन्दावन लाल वर्मा जैसे महान साहित्यकारों ने जहाँ उपन्यासों के जरिये झांसी या बुन्देलखण्ड क्षेत्र के इतिहास को उजागर किया है वहीं मिश्र जी ने गंगा या राम गंगा के तीर पर बसे प्राचीन नगरों के इतिहास को अपने साहित्य सृजन का आधार बनाया है। ऐतिहासिक कथाओं पर साहित्य रचने वाले अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों से मिश्र जी इस दृष्टि से भी बिल्कुल अलग है कि उनमें से अधिकांश ने गद्य और पद्य दोनों में से किसी एक विधा में ही साहित्य रचना की है। किन्तु मिश्र जी ने गद्य-पद्य दोनों ही विधाओं में पर्याप्त मात्रा में साहित्य रचा है। एक ओर जहाँ उन्होंने 'पवित्र पंवासा' और 'मुरादाबाद अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी' जैसी पुस्तकें काव्य में रची है वहीं 'शहीद मोती सिंह' गद्य में रचा ऐतिहासिक उपन्यास है। उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त उन्होंने "इतिहास के झरोखे से संभल' और 'मुरादाबाद का स्वतंत्रता संग्राम' जैसी कृतियां भी रची है।

    स्थानीय इतिहास या जनपदीय इतिहास को मिश्र जी के समग्र लेखन के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। दरअसल, स्थानीय इतिहास, लोककथाएं, किवंदंतियां मिश्र जी के साहित्य की 'लाइफलाइन' हैं और इनके बिना उनके साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थानीय इतिहास पर मिश्र जी का कार्य शोध के महत्व का है। अमर उजाला और दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके लेखों से न केवल रोचक ऐतिहासिक जानकारियां प्राप्त होती है बल्कि अतीत को खंगालने के मिश्र जी के एकल और भगीरथ प्रयासों और भीष्म संकल्प का भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है।

    यद्यपि मिश्र जी का इतिहास अधिकांशतया जनश्रुतियों पर आधारित है किन्तु उनका साहित्य असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है। पंवासा के राजा कमाल सिंह और राग केसरी, कैथल के बड़गूजर, संभल के रुस्तम खाँ और शहीद मोती सिंह कोई मिथकीय या काल्पनिक पात्र नहीं है बल्कि इतिहास है। हाँ, जब मिश्र जी इस इतिहास में कल्पना का समावेश कर देते हैं तब यह अतिरंजित भले ही लगता हो किन्तु यह उत्कृष्ट साहित्य का रूप अवश्य ले लेता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि मिश्र जी का रचा साहित्य अतिरंजना है। दरअसल, इतिहास और कल्पना दो ऐसे सूत्र है जो मिश्र जी के साहित्य में कुछ इस तरह गुँथे हुए है कि उन्हें पृथक चिह्नित किया जाना संभव नहीं है।

महान अंग्रेज साहित्यकार सर वाल्टर स्काट का नाम आज विश्व साहित्य में यदि आदर के साथ लिया जाता है तो वह इसलिए कि उन्होंने अपनी कृतियों में स्काटलैंड और इंग्लैण्ड के इतिहास, समकालीन जनजीवन, लोककथाओं, लोकपरम्पराओं, किवंदंतियों को पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ दर्ज़ कर प्रस्तुत किया है। ठीक यही काम मिश्र जी भी व्यापक स्तर पर न सही क्षेत्रीय अथवा स्थानीय स्तर पर करते रहे हैं। अब यदि ऐतिहासिक कथाओं और आख्यानों के गायन के लिए विलियम शेक्सपियर को 'वार्ड आफ एवन' और सर वाल्टर स्काट को 'विजर्ड आफ द नार्थ' कहा जा सकता है तो सुरेन्द्र मोहन मिश्र को भी 'गंगा का गायक' कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में गांगेय क्षेत्र का विशद वर्णन किया है।

   तथ्य तो यह है कि लगभग दर्जन भर कृतियों के रचनाकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी का सही आकलन आज तक नहीं किया गया है। लोग उन्हें एक हास्य कवि के रूप में ही जानते हैं। एक इतिहासकार और पुराशास्त्री के रूप में उनका आकलन किया जाना बाकी है। यह हिन्दी जगत का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े कद के रचनाकार का समुचित मूल्यांकन तक नहीं हुआ है। यदि मिश्र जी अंग्रेजी भाषा में साहित्य रच रहे होते तो निश्चित ही उनका स्थान टामस ग्रे सरीखे कवियों के समकक्ष होता और उन पर दर्जनों शोध हो गये होते। किन्तु मिश्र जी ने इन सब बातों की कभी परवाह नहीं की है। 'एकला चलो' की तर्ज पर वे निरन्तर सृजनरत हैं और नयी पीढ़ी को तकनीक के घटाटोप से बाहर लाकर एक बार अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों यानी अपने इतिहास से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं। 

( यह आलेख उस समय लिखा गया था जब श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य साधना में रत थे )

✍️ राजीव सक्सेना

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

मथुरा , उत्तर प्रदेश, भारत



शनिवार, 11 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो महेंद्र प्रताप पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- हिन्दी के श्लाका पुरुष - स्व महेंद्र प्रताप। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।

 


यदि मुरादाबाद के हिन्दी साहित्य जगत की चर्चा की जाए तो यह महेन्द्र प्रताप जी के उल्लेख के बिना अधूरी ही रहेगी। दरअसल, वे अपने जीवनकाल में ही इतने अपरिहार्य बन चुके थे कि उनकी गरिमामयी उपस्थिति के बिना किसी आयोजन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। यदि कोई व्यक्ति सचमुच इतना अपरिहार्य बन जाए तो उसके व्यक्तित्व की ऊँचाई की सहज कल्पना की जा सकती है।

       गौरवर्ण, प्रशस्त भाल, आँखों पर मोटा चश्मा, होठों पर मंद-मधुर मुस्कान और धवल वस्त्रों में सजे सहज-सरल महेन्द्र प्रताप जी दूर से ही देखने पर एक साहित्यकार नजर आते थे- निराला, प्रसाद या प्रेमचन्द की पीढ़ी के न सही किन्तु नामवर सिंह या काशीनाथ सिंह सरीखे तो वे थे ही। हिन्दी साहित्य जगत के अनेक नक्षत्रों से उनका व्यक्तिगत परिचय था। वे अनेक नामचीन साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में रहे। छात्र जीवन में ही उन्हें प्रसाद जैसे महाकवि का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था। किन्तु पता नहीं किन परिस्थितियोंवश महाकवि का आशीर्वाद फलीभूत नहीं हो सका।

    इसे मुरादाबाद के साहित्यिक जगत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दशकों तक अध्ययन अध्यापन और साहित्यिक कार्यक्रमों में आजीवन उपस्थिति के बावजूद स्वयं महेन्द्र प्रताप जी का सृजन उनकी प्रतिभा को देखते हुए बहुत कम है। उनके साहित्यिक सृजन के नाम पर बस कुछ गीत-गज़ले ही आज उपलब्ध हैं जो संभवतया उन्होंने अपनी युवावस्था में रची थीं। रोमानी भावनाओं से परिपूर्ण इन गीत-गजलों के आधार पर उनके साहित्यिक प्रतिभा का सही-सही अनुमान लगा पाना संभव नहीं है। महेन्द्र जी के गीत-गज़ल उनकी प्रतिभा के साथ ठीक-ठीक न्याय नहीं करते। 

    ऐसा नहीं है कि महेन्द्र प्रताप जी की साहित्य सृजन में कोई रुचि नहीं थी या उनमें इसकी क्षमता नहीं थी। न ही वे इसे गौण या हेय कार्य समझते थे। दरअसल, साहित्य सृजन विशेषकर काव्य रचना के प्रति उनकी वितृष्णा का मुख्य कारण यह था कि वे भक्तिकालीन कवियों, विशेषकर तुलसीदास से बहुत ज्यादा प्रभावित थे और उनकी श्रेणी का या उससे बेहतर काव्य रचने में स्वयं को असमर्थ पाते थे। अतः उन्होंने स्वेच्छा से साहित्य रचना से संन्यास या यूँ कहे कि अवकाश ले लिया था। हाँ, उनकी गीत-गज़लों की शब्दावली और छन्द विधान को देखकर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि महेन्द्र प्रताप जी ने पूर्ण समर्पण के साथ साहित्य रचना की होती तो उनका साहित्य निश्चित ही एक निधि होता। किन्तु अब जबकि उनका साहित्य सृजन ही पर्याप्त मात्रा में नहीं है अतः उनके कृतित्व के इतर पहलुओं पर ही अधिक चर्चा की जा सकती है।

    महेन्द्र प्रताप जी ने भले ही विपुल मात्रा में साहित्य सृजन न किया हो किन्तु वे अनन्य हिन्दी प्रेमी और हिन्दी सेवी अवश्य थे। हिन्दी से जुड़ा कोई कार्यक्रम हो और महेन्द्र जी को उनमें आमंत्रित किया जाए तो वे आयोजकों के समक्ष बिना कोई शर्त रखे ससमय कार्यक्रम के अंत तक उपस्थित रहते थे। उनकी गरिमामयी उपस्थिति से ही कार्यक्रम प्राणवान हो जाते थे और उनके बिना गोष्ठियों की जीवंतता ही समाप्त हो जाती थी। हिन्दी से जुड़ी नगर की प्रत्येक संस्था उनकी उपस्थिति के जरिये अपनी प्रतिवद्धता सिद्ध करना चाहती थी। उनकी उपस्थिति के बिना हिन्दी सेवी संस्थाओं की प्रामाणिकता ही संदिग्ध हो जाती थी।

     स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी अपने स्तर से आजीवन हिन्दी की सेवा करते रहे। साहित्यिक संस्था 'अंतरा' और 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' के जरिये उन्होंने हिन्दी जगत की अविस्मरणीय सेवा की। 'अंतरा' की गोष्ठियों के जरिये न केवल हिन्दी जगत को अनेक समर्थ रचनाकार प्राप्त हुए बल्कि अनेक महत्वपूर्ण कृतियां भी प्रकाश में आयी। माह के प्रत्येक पक्ष में आयोजित होने वाली 'अंतरा' की गोष्ठियां इस मायने में सचमुच अनूठी कही जायेंगी कि उनमें साहित्यिक कृतियों पर न केवल विस्तार से चर्चा होती थी बल्कि सदस्य रचनाकारों की कृतियों की विस्तृत चीर-फाड़ भी होती थी ताकि रचनाएँ अपने परिष्कृत रूप में पाठकों के सामने आएं। महेन्द्र प्रताप जी मूलतः समालोचक थे अतः साहित्यालोचना में विशेष आस्वाद मिलने के कारण ही वे इस कर्म की ओर प्रवृत्त हुए थे। 'अंतरा' के जरिये साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के परिष्कार को ही उन्होंने अपना ध्येय बनाया था। ज्ञान का तो जीता-जागता भण्डार थे वे। बस एक बार कोई साहित्यिक चर्चा उनके सामने शुरु हो जाए फिर तो उनके ज्ञान का पिटारा खुलता ही चला जाता था और उसका कोई अंत ही नजर नहीं आता था। ज्ञान चर्चा उन्हें सदैव प्रिय थी, प्राध्यापक होने के नाते वे श्रोता समुदाय को छात्रवत् समझते थे और अपना समस्त ज्ञान उंडेलने को आतुर रहते थे। अपनी बात को सन्दर्भों-अवांतर प्रसंगों के जरिये विस्तार पूर्वक समझाने का यल करते थे और कभी-कभी तो बात में से इतनी बात निकलती जाती थी कि मुख्य सूत्र ही कहीं छूटते नजर आते थे। जीवन की सांध्य बेला में हृदयाघातों के कारण चिकित्सकों ने यद्यपि उन्हें अधिक बोलने से परहेज करने को कहा था तथापि उनका प्राध्यापक मन और उनके अन्दर बैठा साहित्यकार व्यक्तित्व उन्हें सतत् संवाद के लिए प्रेरित करता रहता था। दरअसल वे 'संवाद' में विश्वास रखते थे और जीवन भर वे संवाद ही करते रहे- कभी अपने छात्रों से तो कभी व्यक्तियों और समाज से, तो कभी व्यापक स्तर पर अपने समय से ।

 महेन्द्र जी केवल अपने समय और समाज से ही संवाद नहीं करते थे बल्कि स्वयं से भी संलाप करते थे। किन्तु स्वयं से संलाप कभी एकालाप नहीं रहा। वह सभी के लिए एक संदेश रहा है। जैसा कि उनके प्रसिद्ध गीत 'ऐसी प्यास से कहाँ से लाऊँ' की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट है -

“ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ 

जिससे मानस तपे, क्षुब्ध

होकर जागे उसकी गहराई, 

सीमा की लघुता घुल जाये, 

पड़े अकूल अलक्ष्य दिखाई 

 जो आँखों का मृग जल पीकर 

 फिर विदग्धता का प्रकाश दे

जिसकी ज्वाला का कल्मष भी 

विमल नयन अंजन बन जाये 

ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ।"

तुलसी साहित्य महेन्द्र जी का प्रिय विषय था। उनका प्रयास होता था कि कोई भी चर्चा घूम-फिरकर तुलसी साहित्य पर अवश्य आ जाए। तुलसी साहित्य पर उनका अध्ययन व्यापक था और वे फादर कामिल बुल्के की तरह ही तुलसी साहित्य अनुरागी थे। तुलसी साहित्य पर वे बुरी तरह मुग्ध थे और युवा पीढ़ी में इसके प्रति घटती रूचि पर किंचित रूष्ट भी।

  हाँ, समकालीन साहित्य और रचनाकारों के प्रति उनकी जानकारी कोई विशेष नहीं थी। इसके पीछे शायद यही कारण था कि समकालीन साहित्य को वे स्तरहीन समझते थे और इसमें उनकी रूचि भी नहीं थी।

   महेन्द्र प्रताप जी के व्यक्तित्व के कुछ दूसरे पहलू भी है जिन पर शायद ही कभी चर्चा होती है। बहुत कम लोग जानते हैं कि जितनी उच्च कोटि के वे साहित्य मनीषी थे उतने ही बड़े संगीत विशारद भी। संगीत, नाटक या रंगमंच की कोई भी गतिविधि महेन्द्र प्रताप जी के बिना अधूरी रहती थी। समाज सेवी तो वे थे ही। सही बात तो यह है कि महेन्द्र प्रताप जी एक श्लाका पुरुष थे और उनका नाम करीब-करीब एक किंवदंती बन चुका है।



✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

बुधवार, 24 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- "साहित्य के शंकर - स्व० शंकर दत्त पाण्डेय"। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।


मनुष्य के रूप में हम जीवन भर एक सत्य की तलाश में रहते है। यह सत्य हमें कभी-कभी मिलता भी है किन्तु टुकड़ों में पूर्ण सत्य या यथार्थ से हमारा साक्षात्कार जरा कम ही होता है। एक लेखक या साहित्यकार भी जीवन भर सत्य की खोज में लगा रहता है। वह अपने समय के यथार्थ को साहित्य के माध्यम से खोजने का यत्न करता है। वह न केवल सत्य या यथार्थ के विदूपों और भंगिमाओं को चीन्हने की कोशिश करता है बल्कि उन्हें रेखांकित भी करता है और पाठकों को इसमें सहभागी भी बनाता है।

      साहित्य के माध्यम से यथार्थ को चीन्हने वाले एक ऐसे ही समर्थ रचनाकार थे स्व शंकर दत्त पांडे। पांडे जी ने न केवल अपने समय के यथार्थ को शब्दों के माध्यम से जीया था बल्कि इसको उद्घाटित करने के क्रम में एक विराट रचना संसार की सृष्टि भी की थी। पांडे जी के लेखन के विविध आयाम थे। वे समकालीन साहित्य के एक बड़े हस्ताक्षर थे। नयी कहानी आन्दोलन के एक प्रणेता निर्मल वर्मा की तरह बेहद विनम्र, मितभाषी बल्कि कहा जाए ज्यादातर खामोश रहने वाले एक प्रतिभाशाली रचनाकार। उनका आभामण्डल कुछ ऐसा था कि वे स्वयं ही चुप नहीं रहते थे बल्कि उनके आस-पास और कभी-कभी तो उनकी उपस्थिति मात्र से भी अनायास एक सन्नाटा बुन जाता था। किन्तु यह सन्नाटा ओढ़ा हुआ या कृत्रिम नहीं था। व्यक्तिगत जीवन में पांडे जी भले ही कम बोलते हो किन्तु अपने रचना जगत में वे उतने ही मुखर दिखायी पड़ते है। वे साहित्यिक सन्नाटे के बीच अक्सर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराते थे। उनकी कृतियां इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं। 

      बेहद धीमे बोलने वाले अक्सर अपनी ही दुनिया में खोये रहने वाले शंकर दत्त पांडे एक बहुआयामी सर्जक थे। एक कुशल चितेरे की भाँति उन्होंने एक बड़े कैनवस पर जीवन के लगभग सभी विम्ब उकेरे हैं और स्पेक्ट्रम के सभी रंग उनके सृजन में पूरी भव्यता के साथ उपस्थित हैं। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं के आगार पर्याप्त समृद्ध किये हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानियां, कविताएं, गीत, नाटक, निबन्ध, हास्य-व्यंग्य, बाल साहित्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज सहित हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में सृजन किया है। सही बात तो यह है कि शंकर दत्त पांडे ने जब भी लेखनी उठायी हिन्दी की जिस विधा में चाहा पूरे अधिकार के साथ सृजन किया। नगर में सम्भवतः दुर्गादत्त त्रिपाठी प्रभृति रचनाकार ने भी इतनी विधाओं में शायद साहित्य नहीं रचा है। दरअसल, पांडे जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार थे और यथानाम तथा गुण वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए साक्षात कलाओं के आदि स्वरूप नटराज के मानवीय प्रतिरूप थे। यही उनकी प्रतिभा का अंत नहीं था। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी पर्याप्त साहित्य रचा था और मौलिक सृजन के अलावा कई चर्चित कृतियों और पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया था। उर्दू भाषा पर भी पांडे जी को गज़ब का अधिकार था। उन्होंने उर्दू में भी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में लिखी थीं। सही बात तो यह है कि पांडे जी जैसी विलक्षण भाषाई या साहित्यिक प्रतिभा के धनी हिन्दी जगत में तो क्या विश्व साहित्य में भी बिरले ही हुए होंगे। हिन्दी में स० ही० वात्स्यायन अज्ञेय और जयशंकर प्रसाद शायद सर्वाधिक प्रतिभाशाली साहित्यकार कहे जा सकते है जिन्होंने गद्य और पद्य की लगभग समस्त विधाओं में पर्याप्त साहित्य सृजन किया था। किन्तु पाण्डेय जी सम्भवतः  इन दोनों कालजयी रचनाकारों से भी इसलिए आगे खड़े महसूस होते हैं कि बहुधा गौण या दोयम दर्जे का साहित्य समझे जाने वाले बाल साहित्य की भी उन्होंने रचना की थी। बाल साहित्य में भी पांडे जी ने एकाध पुस्तक की नहीं बल्कि करीब आधा दर्जन पुस्तकों की रचना की थी। 'लाल फूलों का देश', 'बारह राजकुमारियां', 'पीला देव', 'जादू की अंगूठी', 'रोम का शिशु नरेश' और 'जादू का किला' उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां है।

      जैसा कि उपरोक्त कृतियों के नाम से ही स्पष्ट है पांडे जी की अधिकांश बाल कथाएं जादू या फंतासी से ओतप्रोत है। अपनी बाल कृतियों में पांडे जी ने कल्पना को नये आयाम प्रदान किये है। कहानियों में रोचकता इतनी है कि पाठक मंत्रबद्ध और सम्मोहित हो आद्योपान्त इन्हें पढ़ने के लिए विवश हो जाते है। उनकी कहानियां फंतासी के मामले में पश्चिम के ख्यातिप्राप्त बाल साहित्यकारों हेंस क्रिश्चियन एंडरसन और इनिड ब्लाइटन से जरा भी कमतर नहीं है। सही बात तो यह है कि पांडे जी का बाल साहित्यकार के रूप में कभी समुचित आकलन नहीं हुआ। उनका बालसाहित्य समालोचकों की उपेक्षा का शिकार तो हुआ ही साथ ही वह मुख्य धारा के कथित झण्डाबरदारों की साजिश का भी शिकार हुआ। यदि पांडे जी के बाल साहित्य का सम्यक मूल्यांकन किया जाए तो न केवल उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के नये आयाम उद्घाटित होंगे बल्कि बाल साहित्य भी संभवतया अपने एक यशस्वी रचनाकार का परिचय पा सकेगा।

   पांडे जी से मेरा परिचय बहुत प्रगाढ़ और पुराना नहीं था, यद्यपि मैं उनके नाम ओर काम दोनों से परिचित था। गाहे-बगाहे नगर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं से मैं उनके कृतित्व की झलक पाता रहा। कतिपय गोष्ठियों में उनके गीत या कविताएं सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ, किन्तु सदैव उनके एक 'कोकून' में आवृत्त रहने के कारण और कतिपय स्वयं मेरे संकोच के कारण व्यक्तिगत संवाद की स्थितियां निर्मित न हो सकीं। बहुत बाद में उनके जीवन की सांध्य बेला में भाई 'पुष्पेन्द्र' वर्णवाल के जन्मदिन पर आयोजित एक निजी गोष्ठी में उनसे संवाद का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शायद पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच एक सेतु निर्मित करने का प्रयास था यह। पुष्पेन्द्र जी के निवास पर आयोजित गोष्ठी में पांडे जी ने प्रकम्पित कण्ठ से एक अत्यन्त भावप्रवण गीत सुनाया भरी स्मृति में कहीं टंक सा गया। मैं भीतर ही भीतर उनसे प्रभावित हो गया और मन सहसा विचारों से आलोड़ित हो गया। लगभग संझवाती तक चली यह गोष्ठी गंभीर वातावरण में समाप्त हुई और गोष्ठी में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ दे गयी। यह पांडे जी से मेरे साक्षात्कार का अन्तिम अवसर था। फिर वे मेरी नजरों से प्रायः ओझल हो गये और अंतिम तिरोधान तक लगभग अदृश्य ही रहे। किन्तु उनके देहावसान के बाद आज तक मैं शंकर दत्त पांडे जी को दृश्यमान करने की कोशिश करता हूँ तो न केवल उनके महान सर्जक व्यक्तित्व से अभिभूत हो जाता हूँ बल्कि एक विराट शून्य या रिक्तता का भी तीव्रता से आभास होता है जिसे भर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। सही बात तो यह है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए शायद यह विश्वास कर पाना भी कठिन होगा कि नगर मुरादाबाद में एक ऐसा विलक्षण साहित्यकार हुआ था जो हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में समान गति से विचरण करता था।

      यहाँ उनके कुछ काव्य साहित्य की चर्चा करना समीचीन होगा। उनके काव्य में छायावादी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। दरअसल, वे जिस पीढ़ी के रचनाकार थे उस पर छायावाद का स्वाभाविक रूप से गहरा प्रभाव था। तब प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी वर्मा का चतुष्ट्य केवल साहित्य को ही प्रभावित नहीं कर रहा था बल्कि समकालीन युवा रचनाकारों की संवेदना के तारों को भी पर्याप्त झंकृत कर रहा था। पाण्डेय जी की रचना में भी दूसरे रचनाकारों की तरह प्रकृति वर्णन, शृंगारिकता रहस्यात्मकता और रोमानी अनुभवों के दर्शन होते हैं किन्तु उनकी रचनाओं में एक व्यापक दृष्टि और युगबोध के भी दर्शन होते हैं। उनके एक गीत की ये पंक्तियां दृष्टव्य है

"जब उस निष्ठुर का नाम कभी, 

आया इन होंठों के ऊपर । 

दुख की दर्दीली रेखायें,

उभरी मानस पट के ऊपर ।। 

मैं अवहेला की घड़ियों में, 

पलकें खारे जल से घोता, 

सोचा करता हूँ जीवन में 

उत्थान-पतन प्रतिपल होता ।"

       वास्तव में यही उनकी जीवन दृष्टि थी। जीवन में प्रतिपल आने वाले उतार चढ़ाव से निस्संग होकर पांडे जी आजीवन सृजनरत रहे। दरअसल, शंकर दत्त पांडे का सम्पूर्ण साहित्य मानवीयता की गाथा है जिसे वे अपनी स्वर्ण लेखनी के माध्यम से अंत तक कहते रहे।


✍️ राजीव सक्सेना, 

डिप्टी गंज, 

मुरादाबाद244001 ,उत्तर प्रदेश, भारत  

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- लोकाचार के कवि --ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी।


 आज जबकि अधिकांश शब्दकार निजी प्रचार, धन और यश अर्जित करने की कामना के साथ साहित्य सृजन कर रहे हैं। साथ ही स्वयं की 'अर्ध-देवता' (डेमी गाड) सरीखी छवियाँ निर्मित कर रहें और समाज पर अपनी कुण्ठाएं, हताशाएं, अतार्किक और अवैज्ञानिक विचार आरोपित कर रहे हैं। ईश्वर चन्द्र गुप्त 'ईश' जी एक ऐसे शब्द शिल्पी हैं जो पूर्णतया निस्पृह, निष्पक्ष और समर्पण भाव के साथ मौन रहकर अपनी शब्द यात्रा जारी रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष की आयु में भी 'ईश' जी जिस उत्साह और आशावादिता के साथ सृजनरत हैं वह निश्चित ही साहित्य और समाज के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं व्यक्ति के लिए भी एक स्वस्थ सकारात्मक संदेश है। 'ईश' जी धन और यश की कामना से नहीं बल्कि समाज को लगातार बेहतर बनाने और मानव जाति का परिष्कार करने की दृष्टि से सृजनरत हैं।

      मुझे पहली बार उनसे साक्षात्कार का सुयोग अग्रज पुष्पेन्द्र वर्णवाल के निवास पर दो-तीन वर्ष पहले आयोजित एक कवि गोष्ठी में प्राप्त हुआ जिसमें नगर के लगभग सभी वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे। इसमें मैंने 'ईश' जी की कविता को ध्यान पूर्वक सुना। जनकल्याण की भावना से प्रेरित स्वांत: सुखाय लिखी गयी यह कविता अतीत और वर्तमान का जीता जागता चलचित्र था। प्रकम्पित कण्ठ से पढ़ी गयी कविता उपस्थित कवि समुदाय पर कितना प्रभाव छोड़ सकी यह तो मैं नहीं जानता किन्तु खादी के साधारण वस्त्र और गांधी टोपी धारण किये इस कवि के सरल व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना मैं न रह सका। उनका यह ऋजुरेखीय व्यक्तित्व ठीक उनके साहित्य में भी प्रतिबिंबित होता है ।

      उनकी रचनाओं में साहित्यिक कलाबाजियाँ अधिक दिखायी नहीं पड़ती। भाषा और शिल्प भी सहज-सरल और एक साधारण पाठक के लिए ग्राह्य है। अपने साहित्य में वैचारिक स्तर पर वे हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार विष्णु प्रभाकर या फिर पत्रकार लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी या कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' सरीखे नजर आते है। दरअसल, वे उस पीढ़ी के हैं भी जिसके मानस या अवचेतन पर गांधी जैसे युग पुरुष के व्यक्तित्व और विचारों की गहरी छाप है। 'ईश' जी के साहित्य में गांधी वादी विचारों के सूत्र ढूँढ पाना किसी भी सुधि पाठक के लिए बेहद सरल है। किन्तु 'ईश' जी निरे गांधीवादी भी नहीं हैं। साहित्यकार के तौर पर वे टामस मोर के 'यूटोपिया' के काफी करीब नजर आते हैं और समाज की विसंगतियों पर ड्राइडेन और पोप की तरह पैने व्यंग्य करते रहते हैं। दरअसल, एक 'यूटोपिया' उन्हें बराबर 'हांट' करता रहता है। यूटोपिया से आक्रांत होने के कारण उनका समूचा सृजन समाज सुधार की भावना से ओतप्रोत है।

यद्यपि 'ईश' जी का रचनाकाल सुदीर्घ है तथापि उनकी बहुत अधिक कृतियां प्रकाशित नहीं हुई हैं। उनकी अब तक पांच-छः कृतियां प्रकाशित हुई हैं। जिनमें 'ईश गीति ग्रामर' और 'चा का प्याला' मुख्य हैं। 'चा का प्याला' सर्वाधिक उल्लेखनीय कृति है। 'चा का प्याला आधुनिक लोकाचार की सब से प्रमाणिक कृति भी है जो लोकप्रिय कवि बच्चन की 'मधुशाला' की तर्ज पर रची गयी है। यदि बच्चन जी की 'मधुशाला' हालावाद पर आधारित है तो 'चा का प्याला' प्यालावाद से प्रेरित है। इस दृष्टि से ईश जी हालावाद के समानान्तर प्यालावाद के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। आधुनिक जीवन में लोकाचार और काफी सीमा तक शिष्टाचार का पर्याय बन चुकी चाय के महत्व पर काव्य कृति का सृजन कर ईश जी ने सचमुच एक नया और विलक्षण प्रयोग किया है। 'चा का प्याला' के बहाने 'ईश' जी ने समकालीन समय की नब्ज को पकड़ने का प्रयास तो किया ही है कथित सभ्य समाज और आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विद्रूपों पर भी खुलकर कठोर प्रहार किये है। 'चा का प्याला' का मुख्य स्वर व्यंग्य है और यह अलेक्जेंडर पोप के 'रेप ऑव द लाक' की तरह काव्य, विशेषकर छन्द में रचा गया व्यंग्य महाकाव्य (माक एपिक) है जिस तरह अर्वाचीन इंग्लैण्ड में कॉफी को बेदखल कर चाय बुद्धिजीवियों और राज परिवार सहित कथित कुलीन वर्ग का पसन्दीदा पेय बनती जा रही थी और महलों में आयोजित होने वाली चाय दावतों की पोप ने जमकर भर्त्सना की थी उसी शैली में 'ईश' जी ने चाय के लोकाचार, शिष्टाचार और भ्रष्टाचार का अंग बनने और भारतीयों के इसके प्रति रुझान का जमकर उपहास किया है। बस अन्तर यही है कि जहाँ पोप की व्यंग्योक्तियाँ कटु और अधिक तीखी हो गयी है वहीं 'ईश' जी ने कहीं सभ्यता और शिष्टता का दामन नहीं छोड़ा है। उनका व्यंग्य अभिव्यक्ति के मामले में बिल्कुल 'मृदु', संयत और शालीन है। व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की मृदुता, शिष्टता और शालीनता आधुनिक व्यंग्य काव्य में दुर्लभ है। साथ ही, श्रमसाध्य भी। इस दृष्टि से ईश जी एक बड़े और समर्थ रचनाकार नजर आते हैं। जब 'ईश' जी लिखते हैं,

" आदत पड़ जाने पर तो यह ! 

तन-मन तक बेकल करती। 

शकल मुहर्रम बन जाए पर,

 इसके बिना न कल पड़ती।।

रक्खा क्या संध्या नमाज में, 

इसका चुम्बन कर डाला। 

उन्हें 'ईश' खुद ही मिल जाते,

 मिलता जब चा का प्याला

तब वे केवल चाय जैसे लोकाचार की सार्वभौमिकता को ही स्वीकार नहीं कर रहे होते बल्कि परोक्ष रूप से एक सहज मानवीय वृत्ति का भी उद्घाटन कर रहे होते हैं। 'चा का प्याला' साहित्य का एक ऐसा स्पेक्ट्रम है जिसमें जीवन का हर रंग अपने मनोहारी रूप में प्रतिबिम्बित होता है।

     'चा का प्याला' की भूमिका में विद्वान समीक्षक ने ठीक ही लिखा है "चा के प्याले के माध्यम से समूचे परिप्रेक्ष्य की मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करने में कवि का शिल्प विधान अपूर्व रूप से सहायक हुआ है। अनुभूति में रागात्मकता, शब्दों में कोमलता, विचारों में सम्प्रेषणीयता, अभिव्यक्ति में ऋजुता तथा व्यंग्योक्तियों में मर्मस्पर्शिता कवि के रूप सज्जा और शिल्प विधान की उल्लेखनीय खूबियां हैं। कवि ने परम्परागत शब्दावली से निकलकर ऐसी शब्दावली का वरण किया है जिसमें सामान्य विषयों से सम्बद्ध गहन अनुभूतियों की अपूर्व क्षमता है।

     'चा का प्याला' कवि 'ईश' जी का आधुनिक समय, समाज और भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में दिया गया साहित्यिक वक्तव्य ही नहीं है बल्कि लोकाचार की शोकांतिका भी है। इसके निहितार्थ व्यापक है। और समीक्षकों के लिए भी इसे ठीक व्याख्यायित- परिभाषित कर पाना कठिन है। एक कवि रूप में अभी 'ईश' जी का समुचित आकलन नहीं हुआ है। यदि किसी ने ऐसा किया तो निश्चित ही कवि 'ईश' के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ अनछुए आयाम उद्घाटित होंगें ।

(यह आलेख उस समय प्रकाशित हुआ था जब श्री ईश जी साहित्य साधना कर रहे थे )


✍️ राजीव सक्सेना 

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

 मथुरा

रविवार, 25 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- हिन्दी के विनम्र सेवक-डॉ० भूपति शर्मा जोशी। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।



वे प्राचीन ऋषियों जैसे दिखाई देते हैं-श्वेत श्मश्रू और धवल दाढ़ी छोटा कद, तेजस्वी चेहरा और मुस्कराती हुई आँखें। जब वे वेदमंत्रों का पाठ करते है या किसी साहित्यिक समागम की अध्यक्षता कर रहे होते हैं। तो अगस्त्य के कलियुगी संस्करण सरीखे जान पड़ते हैं। साक्षात सरस्वती ही उनकी जिह्वा पर विराजमान रहती हैं। ये हैं डॉ० भूपति शर्मा जोशी | अगस्त्य जैसे संकल्प और इच्छा शक्ति के धनी ।

    उन्होंने आजीवन हिन्दी प्रचार-प्रसार का व्रत धारण किया है और आयु के नवे दशक में भी पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ वे इसका निर्वाह कर रहे हैं। जैसे कभी अगस्त्य ने विंध्य के पार द्रविड़ और आर्येतर सभ्यताओं के मध्य वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया था ठीक उसी तरह डॉ० भूपति शर्मा जोशी ने देश-विदेश में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर इसे विश्वसनीय स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

    हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में जोशी जी का योगदान अप्रतिम है। आज जबकि भारत की सीमाओं के परे हिन्दी के प्रसार के लिए निर्मल वर्मा, बटरोही, अभिमन्यु अनत तथा विश्वयात्री प्रो० कामता कमलेश का उल्लेख किया जा सकता है, इन सबके बहुत पहले जोशी जी ने हिन्दी की कीर्ति पताका समस्त भूमण्डल में फहराने का 'कोलम्बस प्रयास किया था।

 दक्षिण अमेरिका के चिली, कोलम्बिया, अर्जेण्टीना, पेरू और पनामा में, साथ ही उत्तरी अमेरिका के संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको में न केवल भारतवंशियों के बीच बल्कि हिस्पानी सभ्यताओं में देवभाषा और देवसंस्कृति का प्रचार जोशी जी ने किया और उन्हें हिन्दी का सम्यक ज्ञान कराया। उन्होंने आर्य होने के दंभ में जीने वाले जर्मन और साहसी डचों को भी हिन्दी का ज्ञान कराया हिन्दी प्रसार के लिए इन देशों की यात्रा करते हुए जोशी जो अनेक यूरोपिय विद्वानों और भारत विद्यानुरागी लोगो के सम्पर्क में आये। हिन्दी के लिए अपनी विश्वयात्राओं के संस्मरण जोशी जी आज भी बड़े चाव से साहित्यिक आयोजनों के मध्य सुनाते हैं।

     डॉ० जोशी ने हिन्दी के लिए पीढ़ियां तैयार की हैं। उन्होंने विदेशियों को न केवल हिन्दी का अक्षर ज्ञान कराया है बल्कि इसकी वैज्ञानिकता और व्यवहारिकता से भी पाश्चात्य जगत को अवगत कराया है। यह जोशी जी के भगीरथ प्रयासों का ही सुफल है जो डॉ० लोढार लुत्शे सहित अनेक विश्वविश्रुत विद्वान हिन्दी ज्ञानार्जन के साथ-साथ साहित्य सृजन के लिए भी प्रेरित हुए। आज विदेशियों द्वारा भी विपुल मात्रा में हिन्दी का साहित्य रचा गया है। कभी हिन्दी के नाम पर नाक-भौह सिकोड़ने वाले और इसे एक समय गंवारों या जाहिलों की भाषा समझने वाले अमेरिकी लोग भी अब इसे सीखने के लिए विवश हो गये है।

    डॉ० जोशी ने विदेशियों के साथ-साथ देश में भी हिन्दी अध्यापकों की पूरी खेप तैयार की है। वे लम्बे समय तक भारत के उत्तर पूर्वी प्रान्तों में अधिकारियों को हिन्दी सिखाते रहे है। उन्होंने कोचीन और डिब्रूगढ़ में बड़ी संख्या में अधिकारियों को हिन्दी भाषा का व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया है। दरअसल, भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग का बीजारोपण जोशी जी के भीतर बचपन में ही हो गया था जो आज एक विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। संकल्प के धनी जोशी जी ने बाल्यकाल में हिन्दी को विश्वजनीन भाषा का रूप देने का संकल्प किया था, वह आज फलीभूत हो चुका है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जोशी जी आजीवन एक कार्यपुरुष रहे है, उन्होंने 'वार्तापुरुष' जैसा व्यवहार कभी नहीं किया है।

       जोशी जी केवल हिन्दी के विनम्र सेवक ही नहीं है। उनके विराट किन्तु सरल व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। डॉ० जोशी में हिन्दी प्रचार-प्रसार और शिक्षण के साथ अनुवाद जैसा उपेक्षित और प्रायः गौण समझा जाने वाला काम भी किया है। जोशी जी बंगला, असमिया और मलयालम जैसी दुरुह भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन कर कतिपय प्रमुख कृतियों का अनुवाद कर हिन्दी जगत से इनका परिचय कराया है। उन्होंने प्रसिद्ध असमिया उपन्यास 'सपोन जोतिया माँगे, बंगला के पद्य नाटक

'मीरा 'बाई' और मलयालम की कतिपय कविताओं का पद्यानुवाद कर अपनी विलक्षण मेधा का परिचय दिया है।

   जोशी जी बहुभाषाविद होने के साथ-साथ स्वयं भी उच्च कोटि के मौलिक सर्जक हैं। उन्होंने हिन्दी में अनेक गीतों का प्रणयन किया है जो न केवल छन्द या शिल्प की दृष्टि से बल्कि कथ्य के स्तर पर भी अद्वितीय है। उन्होंने लोकजीवन, लोकआख्यानों और लोकपरम्पराओं पर आधारित अनेक मौलिक गीतों का सृजन किया है और कृष्ण की बाललीलाओं का अपनी पद्य रचनाओं में सजीव और मनोहारी चित्रण किया है।

   जोशी जी ने बालगीतों में भी अभिनव प्रयोग किये है। उनके बालगीत रुढ़ अर्थों में रचे गये बाल गीतों से अलग है। जोशी जी के बालगीत केवल बालकों के लिए नहीं है बल्कि बड़े भी समान रूप से उनसे रस ग्रहण कर सकते है। दरअसल, जोशी जी के बालगीत बड़ों की दृष्टि से बच्चों को लक्ष्य करके लिखे गये गीत है। यहाँ उनका एक 'नन्हा मुन्ना गीत' दृष्टव्य है

" जिन्हें मनुहार मान कर गाया । .

जिनमें दूर कपट छल माया ।

मेरे नन्हे-मुन्ने गीत ।

याद तो आते होंगे मीत । " 

जोशी जी स्वयं एक वेदज्ञ और ऋषि व्यक्तित्व होने के कारण भारत के स्वर्णिम अतीत से खासे प्रभावित रहे है। उनका सदैव यह विश्वास रहा है कि एक दिन आर्य संस्कृति या वैदिक संस्कृति पुनः अपने भव्य रूप में वापस आयेगी। शायद यूँ ही उनके गीतों में वैदिक कालीन सभ्यता और संस्कृति का विशद और सजीव चित्रण यत्र-तत्र विद्यमान है। दरअसल, भारत के स्वर्णिम अतीत का वर्णन करते हुए वे सामवेद के उद्गाता सरीखे दिखाई पड़ते हैं। उनका यह उद्गाता इस गीत में स्पष्ट मुखर हुआ है

"आओ बैठे उस धरती पर जहाँ यज्ञ का राज्य रहा है। अश्वमेध औं राजसूय के अग्निकुण्ड में आज्य बहा है। देवों के सहयोगी हम थे देव हमारे सहयोगी ।

सत्य अहिंसा वीरभाव युक्त का साम्राज्य रहा है। "

  मूलतया ऋषि व्यक्तित्व होने के कारण और काफी हद तक भारत की प्राचीन वाचिक परम्परा से जुड़े होने के कारण जोशी जी ने अधिक मात्रा में साहित्य सृजन नहीं किया है। संभवतया उन्हें अपने व्यस्त जीवन में इसके लिए पर्याप्त अवकाश नहीं मिल सका। यद्यपि वे इतने समर्थ सर्जक है कि यदि चाहते तो दर्जनों ग्रन्थों का प्रणयन कर सकते थे। किन्तु उन्होंने 'स्वांतः सुखाय' जो भी रचा है उससे उनके 'क्लास' और व्यापक जीवन दृष्टि का परिचय तो मिल ही जाता है।

  वयोवृद्ध होने के बावजूद डॉ० भूपति शर्मा जोशी आज भी युवकोचित ऊर्जा और उत्साह से भरपूर हैं। वे सदैव क्रियाशील और गतिमान रहते हैं नगर के साहित्यिक आयोजनों का वे लगभग एक स्थायी 'फीचर' है। सफल साहित्यिक आयोजनों के लिए उनकी उपस्थिति अनिवार्य और अपरिहार्य समझी जाती है। दरअसल, वे हिन्दी साहित्य जगत के 'प्राण' तत्व है। 

(प्रस्तुत आलेख उस समय लिखा व प्रकाशित हुआ था जब डॉ भूपति शर्मा जोशी जी जीवित थे )

✍️ राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत


मंगलवार, 22 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी पर केंद्रित डॉ राजीव सक्सेना का आलेख ---- प्रेम और पीड़ा के कवि - स्व प्रवासी जी । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।

 


नगर के दो प्रमुख साहित्यकारों का निधन हो गया था और उनकी स्मृति में श्री शिव अवतार 'सरस' के निवास पर शोक सभा थी। दिवंगत साहित्यकार थे श्री शंकर दत्त पाण्डे और श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी।इनमें से पांडे जी से तो मेरा व्यक्तिगत परिचय था किन्तु 'प्रवासी' जी से साक्षात्कार का सौभाग्य मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ।यद्यपि मैं उनके रचनाकर्म से भली-भांति अवगत था। प्रवासी जी के व्यकितगत जीवन के बारे में  कुछ न जानते भी मैं उनके प्रति एक अदृश्य आकर्षण अनुभव कर रहा था। तभी 'सीपज' मेरे हाथ आयी। आद्योपान्त पढ़ गया और यह इच्छा बलवती हुई कि काश प्रवासी जी की कुछ और पुस्तकें पढ़ने को मिली होती। यह कवि 'प्रवासी' जी से मेरा मानसिक साक्षात्कार था।

      फिर तो प्रवासी जी के बारे में जानने की उत्कण्ठा तीव्र हो गयी। उनके व्यक्तित्व के कई आयाम उद्घाटित होने लगे और उनके प्रति मेरा आदरभाव गहरा हो गया। पतला दुबला लम्बा शरीर, स्वर्णिम काया, तेजोद्दीप्त नेत्रों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, कुर्ता-पाजामा और चप्पलें कुल मिलाकर 'प्रवासी' जी की आकृति बड़ी भव्य थी। वे दूर से देखने पर पूरे गांधीवादी दिखायी पड़ते थे। स्वभाव से अत्यन्त विनम्र किन्तु पूरे सिद्धान्तवादी । अनुचित को कभी सहन नहीं किया और अन्याय के प्रति अपनी वाणी से ही नहीं कलम से भी आजीवन संघर्षरत रहे। एक विचित्र किस्म का अक्खड़पन भी उनमें था ठीक वैसा ही जैसा धूमिल में था। व्यवस्था की विसंगतियों से भिड़ने को सदैव तत्पर। नगर के लोग जो 'प्रवासी' जी को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं वे उनके बारे में ऊँची राय रखते हैं।

किन्तु मैं तो उनके साहित्यकार व्यक्तित्व से ही परिचित हो सका हूँ। जहाँ तक उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की बात है वे निश्चित ही ऊँचे दर्जे के साहित्यकार, विशेषकर कवि थे। यद्यपि उनका लेखन स्वांतः सुखाय ही था किन्तु वे ऐसे साहित्य को निरर्थक मानते थे जो जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर न रचा गया हो। शायद यूँ ही उन्होंने एक जगह यह बात कही है

हो न कल्याण भावना जिसमें 

काव्य ऐसा असार होता है ।

 निज दृगों में पराश्रु भरने से

  हर्ष मन में अपार होता है ।


वस्तुतः 'प्रवासी' जी अपने जीवनकाल में गांधी जी से काफी प्रभावित थे। गांधी दर्शन का प्रभाव केवल उनके आचार-व्यवहार पर ही नहीं बल्कि साहित्य पर भी परिलक्षित होता है। दरअसल, 'प्रवासी' जी उस पीढ़ी के साहित्यकार थे जिसने स्वाधीनता के संघर्ष में स्वयं भाग लिया था बल्कि राष्ट्र के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता को भी अनुभव कर लिया था। तभी उन्होंने अपनी एक लम्बी कविता में लिखा है

यहाँ मन्दिरों में चलता है नित अर्जन पूजन

यहाँ मस्जिदों में अजान का होता मृदु गुंजन ।। गुरुद्वारों-गिरजाओं से नित मधुरम ध्वनि आती। 

सुन जिसको सानन्द प्रकृति, निजमन में हर्षाती।। आते यहीं विश्वपति धर तन, शत शत नमन करो।

 यह धरती सुरपुर सी पावन, शत-शत नमन करो ।।


'सीपज' 'प्रवासी' जी का चर्चित काव्य संग्रह है। यूँ उनकी 'प्रवासी सतसई', 'हिन्दी शब्द विनोद', 'बच्चों की फुलवारी' और 'मंगला' शीर्षक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु 'सीपज' अद्वितीय है। यह उनकी हिन्दी-उर्दू गज़लों का संग्रह है। 'सीपज' के जरिये प्रवासी जी ने हिन्दी कविता में एक विलक्षण प्रयोग किया है जो उनसे पहले शायद किसी ने नहीं किया है। 'सीपज' में 'प्रवासी' जी ने पूरी हिन्दी शब्दावली या हिन्दी वाक्यों का उपयोग करते हुए विशुद्ध हिन्दी गज़लें लिखी है। यूँ हिन्दी में गजल लिखने की परम्परा भी दशकों पुरानी हो चली है और गोपाल दास 'नीरज' जैसे गीतकार 'गीतिका' नाम से गज़ले कहते रहे हैं। स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी गीत-गजल के नाम से एक मिश्रित विधा का

उपयोग काव्य सृजन के लिए करते रहे हैं। अन्य हिन्दी कवियों ने भी विपुल मात्रा में गज़लें लिखी हैं। लेकिन दूसरे कवियों में जहाँ गजल के नाम पर उर्दू गजल की भोंडी नकल की है और उर्दू शब्दों का जमकर उपयोग किया है वही 'प्रवासी' जी की हिन्दी गज़लों में उर्दू के शब्द न केवल दुर्लभ हैं बल्कि छन्दशास्त्र की दृष्टि से भी वे एकदम 'परफेक्ट' है। जहाँ हिन्दी के कवियों ने गजल लिखते समय उर्दू के गज़लकारों की तरह इश्क, आशिक या महबूब जैसे परम्परागत प्रतीकों को अपनी आधार वस्तु बनाया है वहीं प्रवासी जी की हिन्दी गज़लें इन सबसे काफी दूर जान पड़ती हैं और वे सामान्य तौर पर हिन्दी गजलों में पाये जाने वाले दोषों से मुक्त है। यद्यपि "सीपज' में प्रवासी जी की उर्दू गजलें भी संग्रहीत हैं किन्तु हिन्दी गज़लों की दृष्टि से प्रवासी जी हिन्दी के कथित गज़लकारों के लिए न केवल एक मानक हैं बल्कि उनके आदर्श भी सिद्ध हो सकते हैं। अपनी एक गज़ल में प्रवासी जी ने लिखा है


'काव्य कहलाता वही जो गेय है,

छंद, यति गति हीन, रचना हेय है।

 निज प्रगति तो जीव सब ही चाहते। 

 किन्तु जग उन्नति मनुज का ध्येय है ।।


ऐसी बात गज़ल के जरिये और वह भी विशुद्ध हिन्दी शब्दावली में कहने की सामर्थ्य 'प्रवासी' जी में ही हो सकती है। यदि संक्षेप में 'प्रवासी जी के साहित्य को रेखांकित करना हो तो इसे सहज ही 'प्रेम, पीड़ा और आँसुओं का साहित्य' कहा जा सकता है। निज मन की पीड़ा उनके काव्य विशेषकर गज़लों का मुख्य स्वर रहा है। जैसे मोती सीपी से जन्म लेता है उसी तरह 'सीपज' 'प्रवासी' जी के उर की घनीभूत पीड़ा के परिणाम स्वरूप दृग-सीपियों से जन्मा है। जीवन के अभावों और विश्वासघातों ने कवि को शायद इतनी पीड़ा दी है कि दुख या अवसाद उनका स्थायी 'मूड' बन गया है। महान अंग्रेज कवि शैली की तरह 'मैलानकोली' सदैव उनके अवचेतन और सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर हावी रहा है। शायद यूँ ही जीवन संध्या पर शैली द्वारा रची गयी प्रसिद्ध कविता 'स्टेन्जास रिटेन इन डिजेक्शन नियर नेपल्स' की तर्ज पर प्रवासी जी लिखते हैं 

पीर बढ़ती जा रही है क्या करें।

सुधि कभी की आ रही है, क्या करें ।।

स्वर हुये नीलाम, वीणा बिक गयी। 

गीत पुरवा गा रही, क्या करें ।। 

आज जन का विषमयी स्वर पान कर।

 ' साँस घुटती जा रही है, क्या करें।


महीयसी महादेवी वर्मा की 'मै नीर भरी दुख की बदली' की तरह 'प्रवासी' जी के काव्य में भी पीड़ा और अश्रुओं की बार-बार अभिव्यक्ति हुई है और हृदय की वेदना 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान' की तर्ज पर कविता के रूप में निःसृत हुई है। " सांत्वना दे दे हृदय को बींध जाता कौन है। विष बुझे स्वर्णिम चषक से मधु पिलाता कौन है।" इस दृष्टि से मन की पीर प्रवासी जी के लिए वरदान भी सिद्ध हुई है, क्योंकि अगर मन में पीड़ा न होती तो वे इतने समर्थ कवि कैसे बन पाते ?

'प्रवासी' जी ने बच्चों के लिए भी बहुत सी रचनाएं लिखीं। 'प्रवासी सतसई', 'बच्चों की फुलवारी' और 'बाल गीत मंजरी' (अप्रकाशित) उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां हैं, किन्तु 'प्रवासी' जी की बाल साहित्यकार के रूप में पहचान नहीं है। न ही बाल साहित्य के दृष्टिकोण से उनका मूल्यांकन किया गया है। यदि उनकी बाल रचनाओं का सम्यक मूल्यांकन किया जा सके तो कवि रूप में हम उनके एक और नये आयाम से परिचित हो सकेंगे।

 


✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 14 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डा. रमेश कृष्ण के साहित्य पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख । यह आलेख प्रकाशित हुआ है डा रमेश कृष्ण की वर्ष 2006 में प्रकाशित पुस्तक "मैं और मेरी साहित्य साधना " में ।


 महान् कृष्णानुरागी एवं कृष्ण विद्या-विशारद के रूप में आचार्य डा. रमेश 'कृष्ण' समूचे भारत ही नहीं, बल्कि विदेश में भी ख्यात है। युगों से जन-जन में लोकप्रिय भारत के कालपुरुष भगवान कृष्ण के यह मानस-पुत्र आज कलयुग में उनकी कीर्ति-पताका को शाब्दिक एवं वाचिक रूप से दिग्-दिगन्त तक फहरा रहे हैं। कृष्ण भावना के जिस कार्य को गोलोकवासी अभय चरण भक्ति वेदान्त श्रील प्रभुपाद अधूरा छोड़ गए हैं, उसे आचार्य कृष्ण अपने ढंग से सम्पादित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 'श्रीकृष्ण पराक्रम- परिक्रमा' और 'श्रीकृष्ण कीर्तिकथा' जैसे कालजयी ग्रन्थ उनकी इस प्रतिबद्धता के जीवंत प्रमाण हैं। कृष्ण भावना से आपाद मस्तक ओतप्रोत एवं अद्वितीय सृजनात्मक प्रतिभा के धनी डा. रमेश कृष्ण ज्ञानमूर्ति डा. वासुदेव शरण अग्रवाल से प्रेरित रहे हैं। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल की तरह ही डा. रमेश 'कृष्ण' की भी प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं शोधवृत्ति में गहरी रुचि रही है। शोधवृत्ति के कारण ही डा. साहब ने ऐसे विलक्षण ग्रन्थों की रचना की है, जो काल का अतिक्रमण करते हुए समकालीन साहित्य की निधि बन चुके हैं। इस दृष्टि से वे अपने प्रेरणास्रोत डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के समरूप और कहीं-कहीं उनसे भी आगे जान पड़ते हैं।

     अपने मौलिक चिन्तन के ज़रिये डा. रमेश 'कृष्ण' ने अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर अनेक नई स्थापनायें प्रस्तुत की हैं। डा. कृष्ण की यह दृढ़ मान्यता है कि इस्राइल के यहूदी मूलतया भारत की संतान हैं और यदुवंशी हैं। 'श्रीकृष्ण कीर्तिकथा' (भाग प्रथम- पंचम अध्याय) में वे बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न एवं 'मेदिनीकोष' का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'राजा सगर की आज्ञा से यवनों ने जिस पल्ली स्थान में निवास किया था, वही पेलेस्टाइन हो गया और यवन शब्द का ही विकास (यवन जोन) 'जू' है। इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि यदुवंशी क्षत्रिय ही राजा सगर के द्वारा यवन करके निकाले गये, जो पेलेस्टाइन में जा बसे। यही बात बाइबिल और पोकाक के वचनों से भी सिद्ध होती है। बाइबिल का नूह का वर्णन भी मनु के तूफान की सूचना देता है। अतएव यहूदियों के आर्य होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि वे भारत से ही जाकर वहाँ बसे हैं।

    नन्द भवन के नाम पर 'निनबीह', वृन्दावन के नाम पर बेबीलोन, गोकुल के नाम पर गालील, मगध के नाम पर मैगीडो या मैगडाला, यमुना (जमुना) के नाम पर जमनिया, मथुरा के नाम पर बैथेल, नन्दघर के नाम पर नाजरथ, यमुना के नाम पर यरदन और गोवर्धन के नाम पर गबर के स्रोत भी भारतीय हैं। 'श्रीकृष्ण कीर्ति कथा' में डा. कृष्ण लिखते हैं 'महाराज ययाति के पुत्रों यदु तुवर्सु, अनु, दहयु तथा पुरु ने सम्पूर्ण भारत में तथा भारत से बाहर चीन, जापान, यूनान, अमेरिका आदि में अपने राज्य स्थापित किए तथा भारतीय सभ्यता संस्कृति को विश्वव्यापी बनाया।'

    डा. रमेश यादव 'कृष्ण' के केवल पौराणिक तथ्यों या सन्दर्भों के आधार पर ही मौलिक उद्भावनायें / स्थापनायें प्रस्तुत नहीं करते हैं, बल्कि इनकी पुष्टि भौगोलिक एवं भाषा वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी करते हैं। ये सारे सूत्रों को संजोकर कुछ इस तरह तारतम्य स्थापित करते हैं कि यहुदियों के भारत के पहले एवं मान्यताओं को कपोलकल्पित मानकर  अस्वीकार नहीं किया जा सकता, न ही उनसे असहमत हुआ जा सकता है। डा. रमेश यादव 'कृष्ण' ने तार्किक आधार पर महाभारत की अनेक भ्रांत धारणाओं का जोरदार खण्डन किया. है। उदाहरणार्थ, उन्होंने यह सिद्ध किया है कि द्रोपदी केवल अर्जुन की भार्या थीं न कि पांचों पांडवों की। आगे चलकर उन्हें इसमें भी परिवर्तन करना पड़ा और द्रौपदी महाराज युधिष्ठिर की पत्नी सिद्ध हुई। डा. यादव लिखते हैं कि युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के साथ पत्नी के रूप में द्रौपदी का भी अभिषेक हुआ तथा वे ही सम्राज्ञी बनीं और उन्होंने ही अवभृथ स्नान किया। इसी अधिकार से युधिष्ठिर ने द्रौपदी को जुए में दाँव पर लगाया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि डा. यादव अपनी मान्यताओं को स्वयं भी समय-समय पर इतिहास एवं न्याय की तुला पर तोलते रहते हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण और विष्णु पुराण के सन्दर्भों के आधार पर उन्होंने प्रमाणित किया है कि कृष्ण के जीवन में राधा का कोई अस्तित्व नहीं था और यदि वे थी भी तो कृष्ण की प्रेयसी तो बिल्कुल नहीं थीं। डा. साहब ने श्रीकृष्ण द्वारा विदुरजी के यहाँ केले के छिलके चाटने एवं रूखा साग खाने की घटना को भी कपोल-कल्पित बताया है और ऐसा कहने के पीछे ठोस आधार भी है। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि विदुर जी तत्कालीन भारत के एक प्रभावशाली साम्राज्य के मंत्री पद पर आसीन थे। अतः वे निश्चित ही साधन सम्पन्न थे और उनके दीन-हीन या निर्धन होने का प्रश्न ही नहीं उठता। उक्त तथ्यों के आलोक में यह स्वीकार करना कि भगवान कृष्ण ने विदुरजी के घर केले के छिलके या रूखा साग खाया होगा, सचमुच कठिन है।

  'श्रीकृष्ण कीर्तिकथा' के षष्ठक भाग में डा. रमेश कृष्ण ने महाभारत के कालजयी पात्रों का सविस्तार उल्लेख किया है। अतिरथी अभिमन्यु, पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, महात्मा विदुर, शकुनि, अश्वत्थामा, युधिष्ठिर, भीमसेन, दुर्योधन, दानवीर कर्ण और अर्जुन के उदात्त चरित्र और जीवन प्रसंगों का उन्होंने रोचक वर्णन किया है। पितामह भीष्म का उल्लेख करते हुए डा. रमेश कृष्ण एक रोचक तथ्य का उद्घाटन करते हैं। वे लिखते हैं कि एक बार विश्ववन्द्य स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था- 'अपने सारे जीवन में बुद्ध का प्रशंसक रहा हूँ, किन्तु मैं उनके चरित्र का प्रशंसक हूँ, उनके सिद्धान्तों का नहीं। यही बात श्रीकृष्ण और भीष्म पर चरितार्थ होती है। श्रीकृष्ण भीष्म पितामह के चरित्र, अथाह ज्ञान एवं महिमामय व्यक्तित्व के प्रशंसक हैं, किन्तु ये उनके सिद्धान्तों के प्रशंसक नहीं है। श्रीकृष्ण के ही शब्दों में हम भीष्म जी की आलोचना सुनें- 'कुरुकुल के सभी बड़े-बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बैठाकर अब इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं। कुछ ऐसी ही बात गुरु द्रोणाचार्य के सन्दर्भ में

कही गई है- दुर्योधन के अनुचित कार्यों का मौखिक विरोध भले ही द्रोण करते थे, किन्तु क्रियात्मक रूप से वे उसके कार्यों में सहयोग देते थे। द्रोणाचार्य पुरुष को अर्थ का दास बताते हुए अपने को दुर्योधन के अर्थ से बंधा हुआ असहाय प्राणी बताते हैं। अपने को नपुंसक कहते हैं। उस समय उनका चरित्र श्रद्धा का पात्र नहीं रह जाता। आचार्य द्रोण ने साधारण सैनिकों पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके युद्ध के नियमों का उल्लंघन किया और अनैतिकता का मार्ग प्रशस्त किया। महर्षियों ने उनकी भर्त्सना की और स्पष्ट कहा कि तुमने अधर्मपूर्वक युद्ध किया है। जब हम पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के चरित्र के इन पहलुओं से अवगत होते हैं, तब निश्चित ही इन विभूतियों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाता है।

   जो स्त्री-विमर्श आज समकालीन साहित्य का मुख्य स्वर है, वह डा. रमेश कृष्ण के साहित्य में सर्वत्र परिलक्षित होता है। डा. रमेश कृष्ण ने प्राचीन भारत या महाभारत के प्रमुख स्त्री पात्रों को नये आयामों का स्पर्श देकर उत्कर्ष तक पहुँचाया है और उन्हें वैभव प्रदान किया है। यह डा. कृष्ण की स्वर्ण लेखनी का ही सुफल है कि शर्मिष्ठा, देवयानी, शकुन्तला, कुन्ती और द्रौपदी जैसे मिथकीय पात्र हमें वायवीय नहीं, बल्कि वास्तविक प्रतीत होते हैं। आचार्य जी ने अपनी 'कृष्ण कथा में महाभारत के स्त्री पात्रों का कुछ ऐसी कुशलता और प्रामाणिकता के साथ चित्रण किया है कि उनकी इयत्ता और ऐतिहासिकता पर तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता। डा. राममनोहर लोहिया ने लिखा है- 'भारतीय साहित्य (इतिहास) में द्रोपदी जैसी तेजस्विनी नारी अन्य नहीं है। वे विदुषी हैं। धीर-गम्भीर वीर हैं। विपत्तियों का आलिंगन करने और उन्हें पराजित करने में सक्षम हैं। उनका सारा जीवन दुख-कष्ट और चुनौतियों से भरा है। डा. रमेश कृष्ण अपने स्त्री पात्रों को 'ग्लोरीफाई' अवश्य करते हैं, किन्तु कुछ इस तरह कि उनमें आम भारतीय नारी के बिम्ब भी सरलतापूर्वक रेखांकित किए जा सकते हैं।

    डा. रमेश कृष्ण आद्यगुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती सरीखे भारत के प्रज्ञा पुरुषों से भी ख़ासे प्रभावित रहे हैं। इनके दर्शन चिन्तन की छाप डा. कृष्ण पर साफ परिलक्षित होती है। शिकागो की धर्मसंसद में भारत की कीर्ति पताका फहराने वाले स्वामी विवेकानन्द से डा. रमेश कृष्ण विशेष रूप से प्रभावित हैं। तभी वे अपने ग्रन्थ 'ज्ञानपयोधि स्वामी विवेकानन्द' में लिखते हैं- स्वामी दयानन्द का कार्य वेद प्रतिपादित धर्म का रक्षण एवं पोषण करना था, किन्तु स्वामी विवेकानन्द का कार्य अधिक व्यापक था। उन्हें सृष्टि से अब तक चले आने वाले सम्पूर्ण हिन्दुत्व की रक्षा करना था। विधाता ने इस कार्य को सम्पादित करने के लिए ही धरती पर नरों में 'इन्द्र' नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को भेजा था, जिनमें इस गुरुतर भार को उठाने के लिए विवेक भी था और आनन्द (उत्साह) भी।

    डा. रमेश कृष्ण स्वयं प्रज्ञा-पुरुष हैं- घनीभूत वैचारिक ऊर्जा के जीते-जागते पुंज। भारत के महापुरुषों पर रचे गए अनकरीब दर्जनभर मौलिक ग्रन्थ उनकी विलक्षण मेघा के परिचायक हैं। इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होता कि उनके भीतर ज्ञान का महासागर लहराता हैं। किन्तु वे इस ज्ञान को केवल अपने भीतर ही नहीं संजोये रहते, बल्कि इसे उड़ेलने को सदैव तत्पर रहते हैं। बस, पात्र के भीतर इसे समेटने की सामर्थ्य होनी चाहिए।

   डा. रमेश 'कृष्ण' का एक और रूप भी है- वह है उनका छवि भंजक रूप। डा. रमेश 'कृष्ण' ने स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा हिन्दू शब्द के अपमानजनक पर्याय बताने को अनुचित कहा है। स्वामी दयानन्द ने कवि कालिदास, संत कबीर, नानक, तुलसी, सहजानन्द, आचार्य वल्लभ जैसे महापुरुषों पर अशोभनीय कटाक्ष किया है, इनके ग्रन्थों को भी पढ़ना निषिद्ध घोषित किया। यद्यपि डा. कृष्ण ने स्वामी जी की सायास निन्दा या भर्त्सना नहीं की है, तथापि कतिपय आर्यसमाजी उनसे खासे कुपित हो गये हैं, क्योंकि इससे स्वामी जी की पूर्व निर्मित छवि को संभवतया आघात पहुँचा है। डा. रमेश कृष्ण बड़े सत्यान्वेषी हैं। दरअसल, उनका समूचा साहित्य ही सत्य का अन्वेषण है। अपने अन्वेषण में वे जहाँ भी कुछ अनुचित पाते हैं, उस पर तर्जनी उठाने से नहीं चूकते। ऐसा करते हुए वे न केवल अपनी रचनाधर्मिता का, बल्कि लेखकीय दायित्व का भी निर्वाह कर रहे होते हैं। अतः शुचितावादियों को इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

  अपने आदर्श, आराध्य एवं उपास्य श्रीकृष्ण की चर्चा करते हुए डा. रमेश कृष्ण ने अद्भुत वाङ्मय का सृजन किया है, जिसे सहज ही 'कृष्ण पुराण' की संज्ञा दी जा सकती है। स्वयं डा. कृष्ण आधुनिक पुराणकार हैं। उनके द्वारा सृजित 'कृष्ण वाङ्मय' का अवगाहन करने पर एक अनिर्वचनीय आनन्द या आहलाद की अनुभूति होती है। कोई सुधी पाठक इसमें बार-बार उतरना पैठना चाहेगा, दरअसल, डा. कृष्ण के अंतस में प्राचीन भारतीय संस्कृति को पुनर्स्थापित करने की चिर अभिलाषा रही है। इस दृष्टि से उनका साहित्य गौरवमयी भारतीय संस्कृति का बखान ही नहीं, बल्कि शब्दों में रची गयी मानवीय उत्कर्ष की महागाथा है।


✍️ राजीव सक्सेना

 मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 4 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना की कविता --- मृत्यु का कहर

 

  यह कैसा दौर है?

   यह कैसी हवा?

   पगलाई एम्बुलेंस में सिसकतेप

   अस्पतालों में 

   बेड पर दम तोड़ते

   विवश-निरुपाय इंसान हैं,

   बीमारों को नहीं है दवा।

   लोभी मानव 

   बने हैं दानव

   महंगाई की जय-जयकार है,

   अंत्येष्टि व्यापार है।

   गरीबी बेजार है।

   तार-तार मानवता की

   हृदयहीन खबरों से भरे

   चैनल और अखबार हैं।

  निरर्थक हैं प्रार्थनाएं,

  नग्न नर्तन करता कोरोना शैतान है।

   उसका पैशाचिक अट्टहास है,

   प्रकृति उदास है।

   साँसों में घुला जहर है

   और सन्नाटे की चादर में 

  लिपटा मेरा शहर है।

   मन में  फन काढ़े

   नागफनी आशंकाएं हैं।

   रक्तिम विषदंती चिंताएं हैं

   और भय की लहर है।

   चहुँ ओर करुण नाद है

  और तक्षक -सी डसती

   मृत्यु का कहर है। 

   श्मशानों में धधकती चिताएं हैं,

   अदृश्य रक्तबीज के यज्ञ में

   समर्पित मानव समिधाएं हैं।

  कंधों पर हरदम सवार

   एक अगिया बेताल है

   और दुनिया की बिगड़ी चाल है।

   आखिर इस दौर का

   कोई अंत तो होगा?

   तिमिर घनेरा ही सही

   धरती की कोख में

   कोई उजाला तो लिखा होगा।

   

✍️ राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज,

मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास पर केंद्रित डॉ राजीव सक्सेना का आलेख ---- एक भूला - बिसरा कवि--स्व. मदन मोहन व्यास । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।


यह मेरे नगर की विडम्बना रही है कि इसमें जितने भी साहित्यकारों को जन्म दिया। वे उनमें से अधिकांश उपेक्षित रह गये हैं या फिर विस्मृति के गर्त में डूब गये है। यूं उनके अपवाद भी हैं जैसे जिगर मुरादाबादी एवं हुल्लड़ मुरादाबादी। किन्तु इन अपवादों को छोड़कर शेष की नियति उपेक्षा, निराशा और अपवंचना ही रही है। मुरादाबाद के विस्मृत साहित्यकारों में से एक हैं- स्व० मदन मोहन व्यास। यद्यपि एक समय था जब हर किसी की जुबान पर एक नाम चढ़ा था व्यास जी का, लेकिन अब स्थिति विपरीत है। युवा पीढ़ी में से बहुतेरे तो यह भी नहीं जानते होंगे कि उनके नगर में मदन मोहन व्यास नामक कोई सरस्वती पुत्र भी हुआ था। दरअसल, यह केवल युवा पीढ़ी का दोष नहीं, बल्कि वे कथित साहित्यकार भी दोषी हैं जो अपने आप को व्यास जी के बहुत निकट होने का दम भरते हैं। इन कथित साहित्यकारों ने कभी युवा पीढ़ी को व्यास जी के बारे में या उनके कृतित्व से परिचित कराने की आवश्यकता ही न समझी।

       व्यास जी, जैसा कि सर्वविदित है, मुरादाबाद के प्रसिद्ध व्यास घराने के सदस्य थे। यह परिवार अपनी साहित्य और संगीत साधना के लिए बड़ा प्रसिद्ध रहा है। कई प्रतिभाशाली लोगों ने इस परिवार में जन्म लिया है  जिनमें प्रमुख हैं प्रसिद्ध फिल्मकार व रामकथा के विद्वान श्री नरोत्तम व्यास एवं स्वयं श्री मदन मोहन व्यास। व्यास जी एक उच्च कोटि के कवि और विद्वान अध्यापक थे। साहित्य के अलावा वे संगीत के क्षेत्र में भी दखल रखते थे। एक कवि के तौर पर भी व्यास जी का पदार्पण लगभग उस समय हुआ जब हिन्दी काव्य में छायावादी काव्य रचा जा रहा था। स्पष्ट है कि व्यास जी पर भी छायावाद का प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उन्होंने जो गीत व कविताएं लिखी उनमें स्वत: ही छायावाद के तत्वों का समावेश हो गया । उनकी कविता में प्रकृति के प्रति अनुराग और रहस्यवाद को स्पष्ट तौर पर  देखा जा सकता है।

   यूँ तो व्यास जी के काव्य में बहुत से गुण और बहुत से तत्व खोजे जा सकते हैं। किन्तु एक तत्व उनकी कविताओं में प्रमुख तौर पर दृष्टि गोचर होता है जो उन्हें अन्य कवियों की अपेक्षा विशिष्टता प्रदान करता है। व्यास जी एक संगीतकार भी थे, अत: उनका संगीतकार व्यक्तित्व उनके कवि व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता था। उनका संगीत स्वत: उनकी कविताओं व गीतों में समाविष्ट हो जाता था। यही कारण है कि उनके सम्पूर्ण काव्य में संगीत तत्व की प्रधानता है जो संगीतात्मकता और गेयता उनकी रचनाओं में है वह अब दुर्लभ है। मैं समझता हूँ कि व्यास जी काव्यात्मक संगीत के मामले में अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवियों शैली और स्विनबर्न के समकक्ष थे।

     व्यास जी से अपनी वार्तालापों के जरिये मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि वे काव्य में छन्दबद्धता के हिमायती थे। वे कहते थे कि काव्य सृजन का असली आनन्द व कवि का प्रयास छन्द में ही निहित है। यद्यपि वे छन्द व काव्य के पक्षधर थे, तथापि अकविता के प्रति भी उनकी अरुचि न थी। जब व्यास जी की जीवन संध्या निकट थी मुझे एक-दो बार उनके श्रीमुख से कुछेक यथार्थवादी कविताएं सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

      कविता के बारे में व्यास जी के विचार बड़े स्पष्ट थे। उनकी मान्यता थी कि काव्य आदमी के अन्दर एक प्रकार का सौंदर्यबोध (एस्थेटिक सेंस) जाग्रत करता है। उनका कहना था कि काव्य में आनन्द लेना और आनन्द के लिए काव्य रचना प्रत्येक सुसंस्कृत व्यक्ति के क्रिया-कलाप का साधारण अंग होना चाहिए। वे कहते थे कि काव्य का प्राथमिक उद्देश्य आनन्द की सृष्टि या मनोरंजन प्रदान करना है, शेष सारे उद्देश्य गौण हैं।

      काम्पटन रिकेट ने एक जगह लिखा है - 'जो शब्दों की दुनिया में प्रविष्ट होता है उसे आजीवन गरीब रहने की प्रतिज्ञा करनी होती है।' अन्य साहित्यकारों की भांति व्यास जी को भी आजीवन संघर्षरत रहना पड़ा। वे संघर्ष करते ही रहे-कभी अपने मूल्यों के लिए तो कभी व्यक्ति और समाज के लिए, जब तक वे स्वयं टूट नहीं गये लेकिन संघर्षमय जीवन को गाकर, हंसी-खुशी काटने में विश्वास रखते थे। प्रसिद्ध कवि बच्चन के अनुसार व्यास जी की मान्यता थी- 'संघर्ष में जुटे हुए, चिंताकुल घड़ियों के भार को हलका करने के लिए, थकान मिटाने के लिए, आगे कार्य करने की प्रेरणा पाने के लिए कुछ गा लिया जाए तो बुरा क्या है। यहीं, इसी तरह से गाना ठीक है। जिन को गाने के सिवा कोई काम नहीं वे मुझे बीमार लगते हैं।

 वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों

में पड़े जो गीत अपना मिनमिनाते

गीत लिखने के लिए जो जी रहे हैं 

काश, जीने के लिए वे गीत गाते ।

व्यास जी की अपने समकालीन समाज पर तो गहरी पकड़ थी ही वे एक स्वप्नद्रष्टा और दूरदृष्टि सम्पन्न कवि भी थे। जो दलित विमर्श और नारी विमर्श आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रमुख स्वर है व्यास जी ने दशकों पहले अपनी कृति 'हमारी घर' में 'हृदय से दो सब को सम्मान' शीर्षक में उसे अभिव्यक्ति दी है।

 दान दो नहीं चाहिए भीख

सभी को जीने का अधिकार ।

तुम्हारा यह पवित्र कर्तव्य

न समझो इसको तुम उपकार । 

हृदय के सौदे की यह बात

हृदय से दो सब को सम्मान ।

करो श्रम-धन-धरती का दान ।

यह बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि व्यास जी एक सिद्धहस्त बालगीतकार भी थे। उन्होंने रमा शंकर जैटली 'विश्व' के बाद मुरादाबाद से प्रकाशित होने वाले बाल मासिक 'बाल विनोद' का सम्पादन किया था। व्यास जी ने बच्चों के लिए कई सरस बाल गीतों की रचना की थी जो आज भी बालकों को कण्ठस्थ हैं। व्यास जी के गीत प्रवाहमयता और छन्द की दृष्टि से उत्कृष्ट है इसलिए बच्चों को सहज ही याद हो जाते हैं। यद्यपि व्यास जी द्वारा रचित बाल साहित्य आज प्रायः उपलब्ध नहीं हैं किन्तु कतिपय संकलनों में आज भी उनके बाल गीत उपलब्ध हैं।

व्यास जी के बाल साहित्य के प्रति रुझान और उनके योगदान को प्रसिद्ध बाल साहित्यकार निरंकार देव 'सेवक' ने भी स्वीकार किया था और अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'बाल गीत साहित्यः इतिहास एवं समीक्षा' में उनका सम्मान सहित उल्लेख भी किया था। व्यास जी का एक प्रसिद्ध बाल गीत दृष्टव्य है।

"इस मिट्टी के बेटे हम,

 इस मिट्टी पर लेटे हम,

 इस मिट्टी पर बड़े हुए, 

 लोटपोट कर खड़े हुए,

 इसकी आन निभायेंगे,

 इस पर जान गवांयेंगे,

 इसकी सीमाओं के रक्षक,

 वीर जवान जिन्दाबाद।

 हिन्दुस्तान जिन्दाबाद ।"

व्यास जी के दो ही काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'भाव तेरे शब्द मेरे' और 'हमारा घर'। *अब आवश्यकता इस बात की है कि उनकी सभी अप्रकाशित रचनाओं को संकलित कर प्रकाशित किया जाए ताकि युवा पीढ़ी उनसे परिचित हो सके और साहित्य में उन्हें स्थान दिलाया जा सके।


✍️ डॉ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना के पत्र के उत्तर में प्रख्यात साहित्यकार गोपाल दास नीरज का यादगार पत्र । यह पत्र उन्होंने सत्रह वर्ष पूर्व 30 सितंबर 2003 को लिखा था ....…

 स्मृतिशेष महाकवि गोपालदास नीरज युवा साहित्यकारों को पत्रों के उत्तर  कम ही देते थे फिर भी मुरादाबाद के प्रसिद्ध कवि एवं बालसाहित्यकार दिग्गज मुरादाबादी जी के विशेष आग्रह पर मैंने  सन 2003 में एक पत्र उन्हें लिख ही दिया।दरअसल,नीरज जी की कश्मीर पर एक कविता पांचजन्य में छपी थी जिसमें छंद के कई दोष थे और छान्दसिक कविता के महारथी दिग्गज जी ने उन दोषों को  पकड़ लिया था । नीरज जी और छंद दोष,यह  मेरे  लिए भी एक हतप्रभ कर देने वाली बात थी।दिग्गज जी का आग्रह था कि इस कविता और उसके छान्दसिक दोषों को लेकर  मैं  नीरज जी को सीधे एक पत्र लिखूँ।बड़े संकोच और हीला हवाली के बाद आखिर  मैंने  नीरज जी को पत्र लिख ही दिया जिसका उन्होंने 30.09.03 को उत्तर भी मुझे भेज दिया।पत्र के आरंभ में नीरज जी ने अपनी कमी को स्वीकार नहीं किया किन्तु आखिर में चुपके से मान भी लिया।इसे  मैं एक बड़े कवि और शायद अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कवि की महानता ही कहूंगा ।वरना आज तो  नवोदित कवि भी अपनी गलती कहाँ स्वीकार करते हैं?यहां प्रस्तुत हैं नीरज जी द्वारा मुझे लिखे गए पत्र की दो छवियां------



:::::::प्रस्तुति::::::::::
राजीव सक्सेना, मुरादाबाद

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना की छात्र जीवन के दौरान लिखी कविता

साहित्यकार  राजीव सक्सेना जी जब हिन्दू कालेज  मुरादाबाद में एम ए  अंग्रेजी के छात्र थे तब लिखी थी उन्होंने यह कविता और प्रकाशित हुई थी कालेज की पत्रिका कल्पलता संयुक्तांक 1982-83 तथा 1983-84 में -----