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रविवार, 16 मार्च 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल की काव्य कृति ....एक छोटा आदमी बड़ा हो ही नहीं सकता की राजीव सक्सेना द्वारा की गई समीक्षा ....कविताओं के जरिए बिखरे सामाजिक यथार्थ की पड़ताल

 पुरुष कितना भी बड़ा हो जाये

  स्त्री से छोटा ही रहेगा

  स्त्री उसकी माँ है .....

  इन कालजयी पंक्तियों के रचनाकार हैं मुरादाबाद  के वरिष्ठ कवि -   डॉ राजेश चन्द्र शुक्ल। हिंदी -अंग्रेजी में अनक़रीब बीस कविता संग्रहों के  रचनाकार  शुक्ल जी केवल पीतल नगरी के ही नहीं बल्कि देश के उन चुनिंदा कवियों में से हैं जो अपने विशद रचनाकर्म के जरिये एक बड़े कैनवास पर 'यथार्थ की रचना  और पुनर्रचना ' करते हैं। इसका जीवंत प्रमाण है उनका सद्य प्रकाशित कविता संकलन --'एक छोटा आदमी कभी बड़ा हो ही नहीं सकता'

  संकलन की कविताओं में शुक्ल जी एक 'जेनुइन' अथवा खाँटी कवि के तौर पर हमारे आसपास के यानी समाज के बिखरे हुए और प्रायः अनचीन्हे यथार्थ की व्यापकता और गहनता से  ही नहीं बल्कि क्वांटम स्तर पड़ताल करते हैं। दरअसल,कविता केवल यथार्थ की पड़ताल ही नहीं हैं बल्कि उसकी रचना और पुनर्रचना भी है।प्रस्तुत संकलन  में  सर्वत्र यही प्रयत्न कवि शुक्ल जी ने पूरी ईमानदारी से किया है। तभी उन्होंने  अपनी अधिकांश कविताओं के विम्ब अपने आसपास के परिवेश और सामान्य जनजीवन से उठाए हैं।प्रस्तुत संकलन की कविताओं के विम्ब और विषय किसी वायवी या रहस्यलोक की सृष्टि नहीं है बल्कि हमारे सामने के यथार्थलोक की सृष्टि ही अधिक हैं। संकलन की भूमिका में कवि शुक्ल जी स्वयं कहते हैं --"कवि के रूप में मैंने चील की तरह ऊँचे आकाश में उड़ने का प्रयास कभी नहीं किया है..."

  कवि शुक्ल कविता संकलन की एक कविता में समाज की विसंगतियों , विद्रूपों  और मनुष्य की नियति पर निर्ममतापूर्वक प्रहार करते हुए कहते हैं --

 कथावाचक खूब सुनाते हैं ऐसी कहानियां

 कि पूजा --पाठ करने से

बदल सकती है आदमी की हैसियत

किन्तु यह सच नहीं है

अंधविश्वासों की मदिरा 

पिलाई जा रही है गरीबों को सदियों से....

  संकलन की संभवतया सबसे तीखी कविता--'रिक्शावाला ' में शुक्ल जी एक विचलित कर देने वाले यथार्थ को उद्घाटित करते हुए कहते हैं--

  तुम हर वक्त

  जूझते रहते हो ऐसे प्रश्नों से

  जिनका कोई हल

  नहीं है तुम्हारे पास

  रिक्शावाला प्रश्न नहीं करता

  किसी मुसीबत के आने पर .....

  अगर कवि शुक्ल जी ने निरंतर क्षरणशील समाज और उसके छिन्न -भिन्न  हो रहे ताने -बाने को अपनी कविताओं का विषय बनाया है तो  अपनी स्त्री विषयक कविताओं में'पछाड़ खाती स्त्री ' को  एक नए आलोक और जीवन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर स्त्री विमर्श और उसकी मूल संवेदना की अनदेखी भी नहीं की है।स्त्री को लेकर कवि शुक्ल जी ने सचमुच अनूठे विम्ब रचे हैं।

  कभी कथाकार राजेन्द्र यादव ने 'कविता के अंत ' की घोषणा की थी किन्तु प्रभात प्रकाशन प्रकाशन बरेली से प्रकाशित कवि राजेश चन्द्र शुक्ल का यह कविता संकलन न केवल कविता की जययात्रा में सृजनात्मकता के नए प्रस्थान बिंदु उपस्थित करता है अपितु कविता में एक आम पाठक की रुचि और उसके विश्वास को भी  बहाल करता है।कुछ नया पढ़ने और  कुछ क्षण ठहरकर सोचने की दृष्टि से यह काव्य संकलन  पाठकों को निराश नहीं करेगा।



कृति :  एक छोटा आदमी बड़ा हो ही नहीं सकता (काव्य संग्रह)

कवि : आर सी शुक्ल

प्रकाशन वर्ष : 2024

मूल्य : 550₹ 

प्रकाशक : प्रकाश बुक डिपो, बड़ा बाजार, बरेली 243003 

समीक्षक: राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत। मोबाइल फोन नंबर 94126 77565 ई - मेल -rajjeevsaxenaa @ gmail.com

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख....कक्षा बनी चौपाल

   


 बात उन दिनों की है जब महाराजा हरिश्चन्द्र महाविद्यालय में मैंने स्नातक कक्षा में नया -नया प्रवेश लिया था।

    कक्षाएं शुरू होने का पहला दिन था।हिंदी साहित्य का पीरियड था।जैमिनी साहब  हमारे अध्यापक थे।मैं और मेरे सहपाठी उनसे पहली बार रूबरू होने जा रहे थे।सभी बड़े रोमांचित थे। तभी जैमिनी साहब ने कक्षा में प्रवेश किया।उनके सुदर्शन व्यक्तित्व से सभी प्रभावित थे।

  अपने सभी छात्रों का परिचय प्राप्त करने के बाद वे बोले --"आज हम हिंदी साहित्य के इतिहास पर चर्चा करेंगे ।पहले यह बताइए आप में से किस -किसने आल्हा पढ़ा -सुना है ?" 

   दरअसल, जगनिक का लिखा 'आल्हखंड 'हमारे पाठ्यक्रम में था और हिंदी साहित्य के इतिहास यानी वीरगाथाकाल की चर्चा इसी ग्रंथ से शुरू होनी थी।

  बहरहाल, जैमिनी साहब द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कई हाथ ऊपर उठ गए ।हाथ उठाने वाले छात्रों में मैं भी शामिल था।

  जैमिनी सर ने सभी पर एक दृष्टिपात किया।उन्होंने फिर कहा --"अच्छा, कोई आल्हा की दो  -चार पंक्तियाँ सुनाएगा?" 

   अब तो पूरी कक्षा में एकदम सन्नाटा खिंच गया।

  "अरे,जब आप सभी ने आल्हा सुना है तो एक-दो पंक्तियाँ तो याद होंगी ही।अच्छा ,यह बताइए  कि गांव से कौन -कौन हैं ? शहर वालों ने तो आल्हा शायद न भी सुना हो ...." 

   प्रत्युत्तर में फिर कई हाथ ऊपर उठ गये ।

  "आप लोग सुनाइये आल्हा ..."

   लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से आये छात्रों को तो जैसे काठ ही मार गया था। एक तो पहला दिन और ऊपर से हिंदी साहित्य का पहला पीरियड ! ग्रामीण क्षेत्र के छात्र चुप बैठे रहे।जैमिनी सर ने उनके असमंजस और हिचकिचाहट को जैसे भांप लिया।

    वे बोले --"कोई बात नहीं ,  मैं सुनाता हूँ --

    "आल्हा -ऊदल बड़े लड़इया

     इनकी मार सही न जाय,

     एक को मारैं ,दुइ मार जावैं

     तीसरा खौफ खाय मर जाय.."

 जैमिनी सर ने बड़ी लय में और किसी प्रोफेशनल अल्हैत की शैली में जो आल्हा सुनाया तो एकदम समां बंध गया।

  बस , फिर क्या था!

  अभी तक संकोचवश चुप बैठे ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों के हाथ भी एक -एककर ऊपर उठने लगे --"सर , हम सुनाएं, सर हम सुनाएं ..."

  "हाँ- हाँ ...सभी सुनेंगें ...."

   

ग्रामीण छात्रों का सारा संकोच एकदम हवा हो गया।फिर तो एक -एककर  कई छात्रों ने अपने -अपने अंदाज में आल्हा शुरू कर दिया। 

    अल्हैती के सारे रिकॉर्ड टूट गए,कुछ समय के लिए हिंदी साहित्य की हमारी कक्षा जैसे गांव की चौपाल बन गयी। वीररस की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी।सभी ने आल्हा गायन का खूब आनंद लिया।

  जैमिनी सर यही तो चाहते थे --छात्र निस्संकोच अपनी बात कहना सीखें।आल्हा  तो एक बहाना था।

  अगले दिन जब जैमिनी सर ने वीरगाथा काल के बारे में  बताना शुरू किया तो सभी छात्रों ने इसमें बड़ी रुचि ली।मेरे जो सहपाठी हिन्दी साहित्य और इसके इतिहास को एक नीरस विषय मानते थे उनके लिए यह अनायास ही एक रोचक विषय बन गया।

 यह सन अस्सी की बात है ।अब से करीब तैंतालीस साल पुरानी   यह घटना मेरे छात्र जीवन की एक यादगार घटना बन गयी।यह हम छात्रों के लिए तो एक प्यारा सबक थी ही उन अध्यापकों के लिए भी एक सबक थी जो हिंदी साहित्य जैसे रोचक विषय को भी बेहद नीरस ढंग से या  फिर अकादमिक शैली में पढ़ाते हैं

  एक लंबा कालखंड व्यतीत होने के बाद आज जब मैं इस घटना का 'टोटल रिकॉल ' करता हूँ तो बरबस ही मेरे होठों पर एक मुस्कान आ जाती है और जैमिनी सर की याद एक मीठा दंश देने लगती है 


✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001,

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल -9412677565

सोमवार, 18 मार्च 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख....कुएं के मेंढक


यह सर्दियों की एक उजली दोपहर थी।यत्र-तत्र सुनहली धूप छिटकी हुई थी।मैं छत पर कुर्सी पर बैठा धूप सेंक रहा था।

 तभी दरवाजे पर लगी डोरबेल जोर से घनघना उठी।

  मैंने नीचे झांककर देखा --यह मधुकर जी थे जो मेरे पड़ोस के एक प्रिंटर के यहाँ जरूरी काम से आये थे।

  वे बिना किसी पूर्व सूचना के अयाचित मेरे घर पधारे थे।साहित्यकार विशेषकर कवि स्नेहवश इस तरह आपस में मुलाकात करते ही रहते हैं।

 जब साहित्य से जुड़े दो रचनाधर्मी साथ बैठे हों तब उनके बीच साहित्यिक चर्चा होना स्वाभाविक है ।सो चर्चा घूम -फिरकर मुरादाबाद नगर के  साहित्यिक परिदृश्य पर आकर टिक गई।

  मैं नगर के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य से बिल्कुल संतुष्ट नहीं था और इसमें कुछ बदलाव चाहता था।

 मैंने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कुछ खिन्न स्वर में कहा--"भाईसाहब,शहर में कुछ नया नहीं हो रहा है।सारी साहित्यिक गतिविधियां बस गीत -नवगीत या फिर ग़ज़ल तक सीमित होकर रह गयी हैं।कविता को ही साहित्य का पर्याय मान लिया गया है..." 

  उन्होंने मेरे आशय को समझ लिया क्योंकि उनकी मेरी वेवलेंथ काफी मिलती थी।

 वे बोले --"आप सही कह रहे हैं।क्या करें, शहर के साहित्यकार कुएं के मेंढक बने हुए हैं...."

  इस 'कुएँ के मेंढक 'शब्द की मेरे ऊपर एकदम प्रतिक्रिया हुई और मैं बेसाख्ता हँस पड़ा।

 मैंने कहा -"चलिये, कुछ नया करते हैं...."

  "क्या करेंगे?"

 "बहुत हुई कवि गोष्ठियां...अब एक कथा -गोष्ठी का आयोजन करेंगे।"मैंने कहा।

  "हाँ, यह ठीक रहेगा ।हमारे शहर में कथा गोष्ठी की परंपरा एक नई  शुरुआत होगी।"उन्होंने अपनी सहमति व्यक्त की।

  बस, फिर क्या था!

  जल्दी ही हमारी पहल पर मेरे निवास पर एक कथा गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मधुकर जी,अशोक विश्नोई जी, योगेंद्र कुमार और मैंने अपनी कहानियों का पाठ किया।

 शिशुपाल जी भी पीछे न रहे।जल्दी ही इसी कड़ी में उन्होंने भी अपने घर एक कथा गोष्ठी आयोजित की जिसमें ओंकार सिंह 'ओंकार ' मुशर्रफ हुसैन और मुझ सहित नगर के दूसरे रचनाकारों ने भी प्रतिभाग किया।फिर तो यह सिलसिला बढ़ने लगा।मेंढक कुएं के बाहर आने लगे।कवि गोष्ठियों के समानांतर कथा गोष्ठियां भी आयोजित होने लगीं और इसका पूरा श्रेय मधुकर जी को ही था जिनकी नगर के समकालीन साहित्यिक परिदृश्य के संदर्भ में की गई -'कुएं के मेंढक' वाली टिप्पणी  कुछ व्यंग्यात्मक अवश्य थी किंतु इसने हमारी रचनाधर्मिता और साहित्यिक परिदृश्य में बदलाव लाने  हेतु एक उत्प्रेरक का कार्य किया।

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख...सभी का स्वागत है


यह गर्मियों की एक कासनी सांझ थी।

गांधीनगर पब्लिक स्कूल के एक बड़े सभागार में नगर की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था --'संकेत' के  बैनर तले  एक बड़ा सारस्वत कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसमें नगर के लगभग सभी साहित्यकार उपस्थित थे।संस्था के अध्यक्ष अशोक विश्नोई जी के निमंत्रण पर मैं भी कार्यक्रम में उपस्थित था।जहां तक मुझे याद है इस कार्यक्रम में संकेत द्वारा आयोजित नगर के सभी साहित्यकारों पर केंद्रित संदर्भ ग्रंथ का विमोचन होना था।विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर हापुड़ की कवयित्री कमलेश रानी अग्रवाल मंच पर अपने पति सहित उपस्थित थीं।

  विश्नोई जी माइक संभालकर संचालन कर रहे थे।

  साहित्यकारों की जबरदस्त उपस्थिति से प्रोत्साहित विश्नोई जी ने तभी किसी बात पर किंचित आवेश में कहा --"मैं अपनी दुकान के सामने किसी दूसरे की दुकान नहीं सजने दूँगा ..."

 यह कहते हुए विश्नोई जी के चेहरे पर क्रोध की एक हल्की छाया भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी जिसे सभागार में उपस्थित साहित्यकारों को लक्ष्य करते देर न लगी।

 कुछ क्षणों के लिए सभागार में एक सन्नाटा -सा  छा गया।

सभी  साहित्यकारों के चेहरे पर एक बेचैनी अथवा अकुलाहट झलकने लगी । मुझे भी लगा कि  विश्नोई जी के इस वक्तव्य के बाद कहीं कार्यक्रम बिगड़ न जाये ।

  कुछ अप्रिय घटित होता इसके पहले ही शिशुपाल मधुकर जी  संकटमोचक के तौर पर अवतरित हुए जो उस समय विश्नोई जी के सहयोगी के तौर पर उनके पार्श्व में खड़े थे ।

 मधुकर जी ने माइक थामते हुए कहा --' सभी साहित्यकार हमारे सम्मानित हैं, कार्यक्रम  में  सभी का स्वागत है, यह आपका अपना कार्यक्रम है...."

 कुछ तो मधुकर जी के सौम्य चेहरे और मधुर स्वभाव का या फिर मृदु भाषा में दिए गए उनके वक्तव्य का ही यह प्रभाव था कि  सभी जल्दी ही सहज हो गए। फिर कोई भी अप्रिय बात नहीं हुई और कार्यक्रम सुचारू रूप से सम्पन्न हुआ।

  मधुकर जी थे ही कुछ ऐसे --एक जेनुइन कवि होने के अलावा एक सहज इंसान भी थे और उनका यह व्यकितत्व ही लोगों से जुड़कर  उन्हें अपना बना लेता था।

 मधुकर जी के इस व्यवहार का जादू -सा असर हुआ।मुझे उन्हें अपना मित्र बनाने  और उनसे बतियाने की आवश्यकता अनुभव हुई।

  कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद मेरा उनका परस्पर परिचय हुआ।

  इस संक्षिप्त परिचय के बाद फिर तो मेरी उनकी वेवलेंथ खासी मिलने लगी और यह परिचय निरन्तर प्रगाढ़ होता गया और  जल्दी ही वह दिन भी आया जब गांधीनगर पब्लिक स्कूल में ही आयोजित उनके कविता संकलन --'अजनबी चेहरों के बीच ' के लोकार्पण में मुझे विशिष्ट अतिथि के तौर पर अपना बीज वक्तव्य देने का अवसर भी प्राप्त हुआ और हम साहित्य की नई -नई योजनाएं बनाने लगे ।

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख...कैंटीन में कवि गोष्ठी

 


उन दिनों मेरी नियुक्ति बुलंदशहर में थी।छुट्टी मिलने पर घर के ढेरों काम निष्पादित करने पड़ते थे।

   मुरादाबाद न होने के कारण कई महीनों से फोन के बिल का भुगतान मैं नहीं कर पाया था।सो छुट्टी मिलने पर मैं सीधे टेलीफोन एक्सचेंज मधुकर जी के पास जा पहुंचा। उनके होते भला कैसी चिंता ?

  ज्यों ही मैंने उन्हें अपना बिल और उसकी धनराशि थमाई उन्होंने तत्काल अपना एक अनुचर काउंटर पर भेजकर भुगतान जमा करा दिया और प्राप्ति की रसीद मेरे हाथ में थमा दी।

  रसीद लेकर मैं चलने लगा तो उन्होंने कहा --"राजीव जी, यह बात नहीं मानी।इतने दिनों बाद तो आप मिले हो ।चाय पिये बिना नहीं जाने दूँगा... कुछ समय तो मेरे पास बैठना ही होगा।"

  मधुकर जी ने साधिकार आग्रह किया तो मैं इनकार न कर सका और उनके बगल में रखी कुर्सी पर बैठ गया।

  कुछ देर की रस्मी बातों और गप्पबाज़ी के बाद उन्होंने कहा--

  "और सुनाइये, आजकल लिखना-पढ़ना कैसा चल रहा है?"

  "कुछ खास नहीं,बाल साहित्य समालोचना पर कुछ करने की सोच रहा हूँ।"मैंने कहा।

  "कोई कविता बगैरह...चलिये ,आज अपनी कोई कविता ही सुना दीजिए ...."

  मैं मूलतया स्वयं को गद्य लेखक मानता हूँ तो कविता पाठ में  मेरी कोई खास रुचि नहीं थी।

  मैंने  टालने के इरादे से कहा --"भाईसाहब, लंबे समय से कोई कविता भी नहीं लिखी है...."

  "तो कोई पुरानी कविता ही सुना दीजिए ..." मधुकर जी ने मुझे निरस्त्र कर दिया और मेरी कोई बहानेबाजी नहीं चलने दी।

  अब कवितापाठ मेरी बाध्यता थी।

  मैंने अपनी कविताओं का पाठ अभी शुरू ही किया था कि मधुकर जी के सहयोगी एस .के सिंह भी अपने कुछ साथियों के संग आ पहुंचे। मुझ पर नज़र पड़ते ही बड़े उत्साह के साथ बोले --"अच्छा तो राजीव जी आये हुए हैं।भाई हम भी सुनेंगे इनकी कविता  .." 

  सिंह साहब मेरे भी परिचित थे और साहित्यिक कार्यक्रमों में बड़े उत्साह से सम्मिलित भी होते रहते थे।

  बस , फिर क्या था!

  कुछ देर पहले की हमारी गप्प -गोष्ठी अनायास ही एक छोटी -मोटी कवि गोष्ठी में बदल गयी।

  उनके कार्यालय में अजीब नज़ारा बन गया --कार्यालय का काम तो ठप्प हो गया और मधुकर जी के सहयोगी मेरी कविता सुनने लगे।

   मैंने अपना कविता पाठ बीच में रोककर कहा --"भाईसाहब, कार्यालय में कविता पाठ उचित नहीं रहेगा .."

  लंच का समय हो गया था।

  मधुकर जी को मेरी बात ठीक लगी।उन्होंने मेरा सुझाव मानते हुए कहा--"ऐसा करते हैं कि कैंटीन में चलते हैं , वहाँ चाय भी पीएंगे और कविता पाठ भी होगा।"

  सभी लोग केंटीन की ओर चल पड़े ।कुर्सियों पर जमने के बाद मेरा कविता पाठ फिर शुरू हुआ। केंटीन में उपस्थित सभी लोग बड़ी उत्सुकता से कविता पाठ सुनने लगे।

 मधुकर जी भी भला कहाँ पीछे रहने वाले थे ?उन्होंने भी कई जानदार और फड़कती हुई कविताएं एक -एककर सुना डालीं।यहां तक कि बीच में कई शौकिया कवि या शायर भी अपने शेर लेकर  फांद पड़े । केंटीन में आने वाले लोग ही नहीं बल्कि दरवाजे के बाहर खड़े लोग भी बड़ी दिलचस्पी के साथ इस कवि -गोष्ठी का हिस्सा बन गए और दत्तचित्त होकर कविताएं सुनने लगे। केंटीन में कथित श्रोताओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी।

  उधर मधुकर जी बार -बार चाय का ऑर्डर देते  परेशान थे।वे ज्यों  ही एक बार ऑर्डर देते कुछ निकट सहयोगियों के आगमन पर उन्हें फिर पुकार लगानी पड़ती --"अरे भाई, दो चाय और बढ़ा देना  "

  ऐसा  कम से कम दो -तीन बार हुआ जब उन्हें चाय बढ़ाने के लिए कहना पड़ा।

 सबसे दिलचस्प बात  तो तब हुई जब कविता सुनने की जिज्ञासा के कारण केंटीन का मालिक भी अपना काउंटर छोड़कर खिसकते -खिसकते ठीक हमारी कुर्सियों के पास ही आ खड़ा हुआ और बड़ी तल्लीनता से कवियों को सुनने लगा।

  कवि गोष्ठी से केंटीन में समा बंध गया।सरकारी कार्यालय की जड़ता और नीरसता  एकदम भंग हो गयी और वातावरण में एक  नई ऊर्जा व्याप्त हो गयी।

  उत्साहित होकर मधुकर जी बोले --"राजीव जी, लगता है अब जल्दी ही एक बड़ा कार्यक्रम दफ्तर में कराना होगा ।"

  मैं किसी  पूर्व योजना के  बिना और अकस्मात आयोजित हुई इस कवि गोष्ठी की ढेरों  सुनहरी यादें लेकर घर वापस आया।फिर यह गोष्ठी सदैव के लिए मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी

✍️राजीव सक्सेना 

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का शिशुपाल मधुकर पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख....विराट रूप


  "पापा, मुझे वीडियो गेम के लिए तेज स्पीड वाला इंटरनेट चाहिए। हमें जल्दी ऑप्टिकल फाइबर लगवाना होगा...."

  एक दिन मेरे पुत्र ने मेरे सामने फरमाइश की।

   तब मेरी नियुक्ति बुलंदशहर में थी।घर से दूर होने के कारण मैं तत्काल कुछ नहीं कर सकता था।सो,ऐसे में मुझे मधुकर जी की याद आयी।भारत संचार निगम से जुड़ी किसी भी समस्या के लिए वे ही हमारे संकटमोचक थे।वैसे भी वे हमेशा दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते थे।जमीन से जुड़े व्यक्ति और मजदूर आंदोलनों अथवा कामगार संगठनों के संघर्षों में सहभागिता तथा अपनी मार्क्सवादी-जनवादी  विचारधारा के चलते वे जुझारू प्रवृत्ति के तो थे ही अन्याय का विरोध करने के लिए वे पंगा लेने से चूकते भी नहीं थे।

  उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष को उजागर करने वाली ऐसी एक घटना का साक्षी  मैं तब बना जब पुत्र के अनुरोध पर मैंने मधुकर जी से मेरे घर ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन लगवाने हेतु दूरभाष पर बात की।मैंने कहा--"भाईसाहब,ईशान ने फरमाइश की है-घर पर जल्दी ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन लगना है।"

  "लगेगा, क्यों नहीं लगेगा...सबसे पहले लगेगा ।"मधुकर जी ने कहा।

  तब मेरे निवास स्थल यानी डिप्टी गंज में ऑप्टिकल फाइबर  का बस एक ही कनेक्शन वह भी नया -नया लगा था।

  दिन पंख लगाकर गुजर रहे थे और कनेक्शन का दूर -दूर तक नामो निशान नहीं था।

  मैं छुट्टी में घर मुरादाबाद आया तो पुत्र ने आक्रोश में कहा --"पापा, अभी तक कनेक्शन नहीं लगा है।कितने दिन हो गए हैं,आप मधुकर अंकल से आज ही बात कीजिये। मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता..."

  अब मेरे पीछे दीवार आ गयी थी।

  मैं तुरन्त मधुकर जी के कार्यालय पहुंचा। मैंने शिकायती लहजे में कहा--" भाईसाहब, आपके कहने के बावजूद अभी तक ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन नहीं लगा है....."

  बस , फिर क्या था! 

  जरूरी फाइलें छोड़कर मधुकर जी उठ  खड़े हुए ।बोले --"आइए एस .डी .ओ के पास चलते हैं..मैं देखता हूँ आज कैसे नहीं लगता है कनेक्शन।"

  वे किसी सामुराई के अंदाज़ में दनदनाते हुए मेरे साथ सीधे एस. डी. ओ के कक्ष में जा पहुंचे और मेरा परिचय देते हुए  कहा --"इतने दिन बीत गए और अभी तक राजीव जी के घर कनेक्शन क्यों नहीं लगा....."

  एस. डी. ओ काम में अड़ंगा लगाने की कला में माहिर था।मधुकर जी के तेवर देखकर एकदम अचकचा गया और लगभग मिमियाते हुए बोला ---"टीम गयी थी...डिप्टी गंज में कुछ दिक्कत आ रही है।दो करोड़ की मशीन है ,अभी खाली नहीं है....."

  "तो दो करोड़ की मशीन क्या देखने के लिए है...अगर कोई कस्ट्मर कनेक्शन लगवाना चाहेगा तो क्या आप उसे  मना कर देंगे?एस. डी .ओ साहब ,साफ -साफ सुन लीजिए --राजीव जी मेरे अभिन्न मित्र हैं।उनका बेटा मेरा भतीजा है।यह कनेक्शन समझिये मेरे घर लगना है।अगर मेरे या मेरे मित्र के घर कनेक्शन नहीं लगेगा तो फिर कहीं नहीं लगेगा...."मधुकर जी ने गरजते हुए कठोर शब्दों में कहा तो एस .डी. ओ को एकाएक कुछ न सूझा। 

  मधुकर जी का यह विराट रूप देखकर बेचारा एस. डी .ओ स्तब्ध और हैरान था।मैंने भी मधुकर जी को इससे पहले कभी कुपित होते या क्रोध करते नहीं देखा था।वे अधिकांशतया संयत रहते थे और शायद ही किसी ने उन्हें संयम खोते देखा होगा।किंतु मधुकर जी का यह विराट रूप मेरे लिए भी एक  अनोखा अनुभव था।

   एस. डी. ओ के इर्द -गिर्द मौजूद लोग दम साधे मधुकर जी का यह विराट रूप देख रहे थे।

  मधुकर जी के सामने एस. डी. ओ को समर्पण करना पड़ा।वह बोला --"ठीक है, अभी टीम भेजकर कनेक्शन कराता हूँ...."

  उसी दिन शाम तक ऑप्टिकल फाइबर का कनेक्शन मेरे घर लग गया वह भी बिना कोई सुविधा शुल्क दिए।मधुकर जी ने स्वयं अपनी देखरेख में अपने सामने कनेक्शन लगवाया।

  कनेक्शन लगने के बाद मधुकर जी ने पूछा--"क्यों ईशान , अब तो खुश ..."

  प्रत्युत्तर में ईशान भी मुस्करा दिए। फिर तो दोनों के बीच इंटरनेट से लेकर साइबर टेक्नोलॉजी   तक खूब बातें हुईं और मैं अहमकों की तरह  मुंह बाए उनका वार्तालाप सुनता रहा।

  बाद में मैंने कहा --"भाईसाहब, आज तो आपने सचमुच  एस. डी. ओ को अपने विराट रूप के दर्शन करा दिये..."

  "राजीव जी,अगर मैं विराट रूप न दिखाता तो फिर आज कनेक्शन भी न लगता।"

   उनकी बात बिल्कुल सही थी।

 तो ऐसे थे --हमारे शिशुपाल 'मधुकर ' जी।अपनों के लिए किसी से भी  किसी भी सीमा तक लड़ने या  भिड़ जाने वाले एक अप्रतिम योद्धा ।अन्याय का प्रतिकार करने की यह शक्ति उन्हें भीतर से और अपनी परोपकार की भावना से प्राप्त होती थी ।

✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 23 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का संस्मरणात्मक आलेख ..... स्मृतियों की छाँह में---दिग्गज मुरादाबादी


यह जेठ की एक भरी दोपहरी थी ---इतवार का एक अलसाया दिन ---मैं गहरी नींद में सोया था।

  "राजीव जी, राजीव जी ...."

अचानक डोरबेल जोर से घनघना उठी।

 मेरी निद्रा भंग हो गयी।

 मैंने उठकर दरवाजा खोला।द्वार पर मेरे पड़ोसी और नगर के प्रसिद्ध बालसाहित्यकार शिव अवतार सरस जी खड़े थे।

  "क्या कर रहे हैं?" शिव अवतार जी ने सवाल दागा।

 "कुछ नहीं,सो रहा था ..."

"आइए, आज आपको बालसाहित्य की एक हस्ती  से मिलवाता हूँ ..." सरस जी ने कुछ पहेली बुझाने वाले अंदाज में कहा।

  "बालसाहित्य की हस्ती ?

  "हाँ, बाल साहित्य की हस्ती! जल्दी चलिए... वे आपका इंतज़ार कर रहे हैं।"

 मैं बिना  चूं -चपड़ किये झटपट कपड़े बदलकर सरस जी के साथ हो लिया।

 जब भी कोई साहित्यकार सरस जी के घर आते वे उनसे मेरी मुलाकात अवश्य कराते थे। पहले भी वे कई साहित्यकारों से मिलवा चुके थे।

 बैठक में एक ऊँचे -लम्बे दृढ़काय और भव्य व्यक्तित्व वाले वृद्ध सोफे पर विराजमान थे।मैंने उनके ऊपर दृष्टिपात किया।

 "दादा ,ये हैं राजीव सक्सेना --बच्चों के लिए कथाएं और विज्ञान लिखते हैं।बहुत छपते हैं ...." सरस जी ने कहा ।फिर दिग्गज जी की ओर संकेत करते हुए कहा --"आप हैं शहर के नामचीन कवि --दिग्गज मुरादाबादी जी ...."

  "अरे मैं राजीव जी के बारे में अच्छी तरह से जानता हूँ,इनकी रचनाएं आजकल खूब छप रही हैं।शहर में इनकी बड़ी चर्चा है। मैं दिग्गज मुरादाबादी ..'

  यह कहकर दिग्गज जी ने मुझे गले लगा लिया।

 "हाँ, दादा !मैंने भी आपका नाम खूब सुना है।आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी जो आज पूरी हो गयी...." मैंने कहा।

 सरस जी कुछ क्षणों के लिए अंदर चले गए। दिग्गज जी बोले --"राजीव जी,आजकल क्या लिख रहे हैं ? कुछ सुनाइये... कोई बाल कविता ?"

 "दादा!मैं बालकविताएँ नहीं लिखता ।हाँ, किशोरावस्था में कुछ लिखी थीं, कुछ छपी भी हैं बड़ी पत्रिकाओं में,कुछ अमरउजाला में सेवक जी के साथ ..." 

 "हाँ-हाँ ,वही सुनाइये ..."

 मैंने दिग्गज जी के आग्रह पर अपनी एक दो बाल -कविताएं उन्हें सुनाईं।

 सुनकर दिग्गज जी बोले --"बढिया हैं,मजेदार भी और बालमनोभावों के अनुरूप भी।बस , कुछ छंद दोष है...." 

 "हाँ, दादा! दरअसल,ये कविताएं मैंने किशोरावस्था में रची थीं।तब छंद का ज्ञान मुझे नहीं था।अब मैं गद्य लिखता हूँ।" 

 फिर मैंने उनसे अपनी बालकविताएँ सुनाने का आग्रह किया।

 बस, फिर क्या था ! 

 जैसे मैंने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया या फिर किसी असाध्य वीणा के तार को छूकर साहस झंकृत कर दिया।

 "तो सुनिए...."

  एक के बाद एक बालकविताओं का पाठ शुरू हो गया।उन्होंने अपनी प्रसिद्ध बालकविता --'सर्कस' और 'दीवाली' सहित अनेक कविताओं का पाठ एक सांस में कर डाला।एक के बाद एक कविता।दिग्गज जी रौ में बहते हुए कविता पाठ कर रहे थे और में कुछ स्तब्ध  और ठगा -सा या कहूँ कि सम्मोहित -से उनका काव्य पाठ सुन रहा था।

  जल्दी ही एक  'ट्रांस 'मेरे ऊपर हावी होने लगी।समय कुछ क्षणों के लिए जैसे ठहर गया।एक पल के लिए तो मुझे लगा कि  शायद महाप्राण कवि निराला की आत्मा न सही तो उनकी छाया अवश्य दिग्गज जी के चेहरे पर आ विराजी है।कविता पाठ करते हुए उनका चेहरा एक अनोखी आभा से उद्दीप्त हो उठा था।

 मेरे लिए दिग्गज जी को सुनना सचमुच एक आह्लादकारी अनुभव था,एक कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव।

  दिग्गज जी का कविता पाठ समाप्त हुआ। हम जैसे किसी आभासी दुनिया से निकलकर वापस अपनी दुनिया में आये।

 दिग्गज जी ने केवल बालकविताएँ ही नहीं बल्कि अपने चुनिंदा गीत भी सुनाए--सब एक से बढ़कर एक,कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेमिसाल।सचमुच दिग्गज जी एक सच्चे कवि थे,कृत्रिमता या आडंबर से बिल्कुल दूर।अंदर बाहर से बिल्कुल एक।

 कविता पाठ समाप्त हुआ तो उन्होंने पूछा --"कहिए,राजीव जी!कैसी लगीं मेरी कविताएं?"

 "दादा,शब्द नहीं मिल रहे हैं मुझे यह बताने के लिये।"

  फिर तो मेरे उनके बीच खूब साहित्यिक चर्चा हुई,विशेषकर नगर के कुछ कथित गीतकारों के बारे में और नगर के साहित्यिक परिदृश्य पर भी। 

 यह दिग्गज जी से मेरा पहला साक्षात्कार था -उनके कवि से पहला परिचय जिसका श्रेय निश्चित ही सरस जी को जाता है।

 मेरी और दिग्गज जी की तरंग -दै धर्य मिल गई।मेरी और उनकी सोच और चिंताएं बालसाहित्य को लेकर समान थीं।

  फिर तो दिग्गज जी से अनगिनत बार मिलना हुआ।जल्दी ही वे मेरे परिवार के सदस्य बन गए --बिल्कुल अपने और घर के बुजुर्ग जैसे।मेरे घर में उनका सम्मान मेरे पिता से भी ज्यादा था और मेरी जीवन संगिनी सुनीता राजीव  उन्हें अपने ससुर यानी मेरे पिता से भी ज्यादा सम्मान देती थीं जबकि पुत्र ईशान भी उनसे खूब बतियाता था।ईशान के आग्रह पर उन्होंने न केवल कई बालकविताएँ रची थीं बल्कि बहुधा वह उनकी नई बालकविताओं का प्रथम श्रोता भी होता था।अगर रोजाना न सही तो प्रत्येक इतवार को उनका आगमन मेरे घर होता था।वे हमारे लिए एक ऐसे अतिथि थे  जिनके आगमन की बड़ी उत्कंठा से प्रतीक्षा रहती थी और मेरा परिवार सदैव उनके स्वागत को तत्पर रहता था --दिग्गज जी का व्यक्तित्व  था ही कुछ ऐसा -विराट किन्तु स्नेहिल और निरभिमानी।

 दिग्गज जी से बालसाहित्य के विभिन्न पहलुओं को लेकर बड़ी घनघोर और विचारोत्तेजक चर्चाएं होती थीं जिसमें हम दोनों ही नहीं बल्कि कभी -कभी मेरा परिवार यानी मेरी पत्नी पुत्र भी सक्रिय रूप से भाग लेते थे।जिससे बालसाहित्य के प्रति हमारी 'आइडियोलॉजी'और दृष्टि का भी विस्तार हुआ और अपनी रचनाधर्मिता को नई धार या नए तेवर देने में सहायता मिली।

  तो यह थी दिग्गज जी से मेरी पहली मुलाकात  जो सदैव के लिए मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी।

 यूं दिग्गज जी से जुड़ी ढेरों यादें हैं जो मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं-जिन्हें मैं पटल पर गाहे -बगाहे साझा करता रहूँगा।

एक तुम ही तो वाणासुर हो....

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एक रविवार --मैं घर में कुछ अनमना और उदास बैठा था।

 "ईशान.....!"

तभी घर के दरवाजे पर दिग्गज जी की धीमी आवाज सुनाई पड़ी। 

 आवाज पहचानते ही मेरी सारी उदासी एकदम उड़न -छू हो गयी।दिग्गज जी का सान्निध्य मिलने और उनसे बतियाने की बात सोचते ही मैं एक अनोखे उत्साह  से भर उठा।

 देर तक गप्पबाज़ी यानी साहित्यिक चर्चा  के बाद दिग्गज जी बोले --"राजीव जी,मुरादाबाद में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष, जो प्रदेश शासन के मुखिया भी हैं , आ रहे हैं।उनका आगमन पर एक विशाल जनसभा होगी।मुखिया जी जनसभा को संबोधित करेंगे।पार्टी के ज़िला अध्यक्ष ने मुझसे आग्रह किया है कि कवि जी नेता जी के आगमन पर आपको भी जनसभा में कविता पाठ करना है।फिर नेता जी द्वारा आपको सम्मानित किया  जाएगा।बताइए,आपका क्या कहना है?मुझे नेता जी की जनसभा में जाना चाहिए या नहीं?"

 "हाँ -हाँ, दादा!जरूर जाना चाहिए...भला , हज़ारों की भीड़ और प्रदेश के मुखिया के सामने कविता पाठ करने का इससे बढिया मौका और कब मिलेगा !आप नेता जी की जनसभा में जरूर जाइये ..."

 "तो इसका मतलब यह कि आपकी सहमति है ?!"

 "हाँ, दादा ..."

  दिग्गज जी जब भी कोई नया काम करते मुझसे विचार -विमर्श अवश्य करते ।यद्यपि मैं उनकी संतान की उम्र का था तथापि वे मेरा बहुत सम्मान करते थे और  अपने प्रत्येक निर्णय में सम्मिलित अवश्य करते थे।

  आखिर नेता जी की जनसभा का दिन आ पहुंचा।

 भव्य मंच सजा था।जनसभा में हज़ारों की भीड़ नेता जी को सुनने के लिए आयी थी।दिग्गज जी भी मंच पर मौजूद थे।ज़िला अध्यक्ष ने उन्हें भी मंच पर बैठाया था।

  नेता जी का भाषण शुरू हुआ।

 नेता जी खूब हड़के -भड़के ।अपनी जांघों पर ताल ठोककर लोगों को हड़काने के अंदाज में खूब गरजे -बरसे । परशुराम जैसी उनकी भाव-भंगिमाएं देखकर उपस्थित जन समुदाय चकित और हैरान था।

 नेता जी के इस कोप का एक कारण था।दरअसल,उन दिनों नेता जी की प्रेस यानी मीडिया से पंगेबाजी चल रही  थी। उनकी पार्टी के गुंडों ने मीडिया संस्थानों के दफ्तरों में जमकर नेताजी के समर्थन में तोड़फोड़ और मीडिया कर्मियों से अभद्रता भी की थी ।उधर मीडिया ने भी नेता जी के प्रति मोर्चा खोल रखा था।

  इस पृष्ठभूमि में नेता जी ने लोगों को जलील करने के अंदाज में खूब अपनी भड़ास निकाली थी।

  नेता जी का भाषण समाप्त हुआ तो ज़िला अध्यक्ष को  दिग्गज जी की याद आयी ।

 ज़िला अध्यक्ष ने मंच से दिग्गज जी से नेता जी के सम्मान में कविता पाठ का आग्रह किया।

 "नहीं-नहीं,नेता जी का भाषण हो चुका है।अब मेरे कविता पाठ का कोई औचित्य नहीं है ..."दिग्गज जी ने विनम्रतापूर्वक कहा।

  "आइए तो,कोई कविता सुनाइए। नेता जी भी आपकी कविता सुनना चाहते हैं।" दिग्गज जी को संकोच करते देखा तो ज़िला अध्यक्ष ने पुनः दिग्गज जी से आग्रह किया।

 "आइये -आइये ,कवि जी।हम भी आपकी कविता सुनेंगे।कोई भी कवि जी की कविता सुने बिना नहीं जाएगा।सभी लोग बैठे रहें..." इस बार नेता जी ने स्वयं माइक थामकर घोषणा की तो लोग उत्कण्ठवश दिग्गज जी की कविता सुनने के लिए ठहर गए। 

 उधर दिग्गज जी कुछ असमंजस में थे कि कविता  सुनाएं या न सुनाएं?

  दरअसल,दिग्गज जी को नेता जी का ताल ठोंककर जनता को ललकारने वाले और जलील करने वाले पहलवानी अंदाज में भाषण देना मन ही मन अखर गया था।

 दिग्गज जी बेहद संवेदनशील किस्म के व्यक्ति तो थे ही कुछ -कुछ आशुकवि भी थे।जिस समय नेता जी भाषण दे रहे थे उनकी भाव -भंगिमा को लक्ष्य कर दिग्गज जी ने मंच पर बैठे -बैठे ही एक बेहद धारदार और तीखी व्यंग्य कविता रच डाली थे किंतु वे इसे नेता जी के सामने सार्वजनिक रूप से सुनाने के इच्छुक नहीं थे।

  दिग्गज जी ने नेता जी का कविता सुनाने का आग्रह विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया। 

  इस बार नेता जी कुछ तल्ख अंदाज में बोले --"कवि जी ,हम कह रहे हैं।आप सुनाइये अपनी कविता।सब आपकी कविता सुनेंगे।"

  "ठीक है,सुनाता हूँ" यह कहकर दिग्गज जी ने कविता आरंभ की --"नेता जी चिंघाड़ रहे थे

   एक -एक को मारूंगा,

  जो भी मेरे आड़े आया 

  उसको ही संहारूंगा....."

   बस, दिग्गज जी का इन पंक्तियों के उच्चारण करना था कि नेता जी के कान खड़े हो गए ।वे मन ही मन ही कुछ आशंकित हो गए --'पता नहीं यह कवि अब आगे क्या कहेगा?इसका क्या भरोसा -क्या कह दे?जरूर यह मेरे बारे में ही कविता पढ़ रहा है..." 

  नेता जी जब तक दिग्गज जी की मंशा भाँपते तब तक दिग्गज जी ने अपनी कविता आगे बढ़ा दी --

 "भीड़ में से कोई बोला-

वाह नेता जी ,क्या कहने हैं 

एक तुम ही तो वाणासुर हो

बाकी सब चूड़ी पहने हैं..."

  दिग्गज जी ने ज्यों ही ये पंक्तियां सुनायीं नेता जी के चेहरे पर स्याही बिखर गई।मंच को तो जैसे सांप सूंघ गया।कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया।

 दिग्गज जी ने अपनी कविता के जरिये अपना काम कर दिया था।उन्होंने एक सजग और निर्भीक साहित्यकार होने का दायित्व निभाते हुए सत्ता के मुंह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया था वह भी अपने अंदाज में और प्रदेश शासन के मुखिया के मुंह पर और भरे मंच पर।

 जनता ने दिग्गज जी की कविता का खूब आनंद लिया और जोरदार करतल ध्वनि कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।कुछ शोहदों ने जोरदार सीटियां भी बजायीं। 

 आखिर दिग्गज जी ने जनता के मन की बात कविता के जरिये और वह भी बेहद सारगर्भित और सटीक ढंग से कह दी थी।उन्होंने लेटिन अमेरिकी कवि पाब्लो नेरुदा के अंदाज में एक सच्चे जनकवि के तौर पर जान आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दी थी और सत्ता के असली चरित्र को भी कुछ ही क्षणों में उजागर कर दिया था।

 बस , फिर क्या था।!

 कुछ क्षणों के लिए मंच पर अफरा-तफरी मच गई।नेता जी अपनी धोती संभालकर फुर्ती से मंच से नीचे की ओर भागे।

  दिग्गज जी ने अपनी एक छोटी -सी कविता से ही नेता जी के करीब एक घंटे के भाषण पर पानी फेर दिया ।यह होती है कविता की शक्ति और एक सच्चे ,प्रखर और निर्भीक कवि की पहचान।

 जनसभा समाप्त हुई और दिग्गज जी सीधे मेरे कार्यालय आये।

 उन्होंने मुझे सारा घटनाक्रम विस्तारपूर्वक सुनाया।

 "राजीव जी,कहीं मेरे खिलाफ कोई कार्रवाई तो नहीं होगी?मुझे बंद तो नहीं कर देंगे?"उनके चेहरे पर घबराहट साफ दिखाई दे रही थी।


 "नहीं दादा।आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा।अगर आपके खिलाफ कोई कार्रवाई की भी गयी तो यह अपने लिये गड्ढा खोदने वाली बात होगी ...आप चिंता न करें।चाय पियें और मेरे साथ घर  चलें।" मैंने कहा तो उन्हें ढांढ़स बंधा और वे मेरे साथ मेरे घर चले  आये।

 मीडिया ने इस घटना पर खूब चुटकी ली।अगले दिन कई समाचार पत्रों ने दिग्गज जी की इस छोटी कविता से ही पंक्तियां लेकर सुर्खियां बना दीं --

 "एक तुम ही तो वाणासुर हो -कवि ने दिखाया आईना"

 "बाकी सब चूड़ी पहने हैं --दिग्गज मुरादाबादी"

  सभी अखबारों ने करीब इसी तरह के शीर्षक टिकाए थे।

  यह घटना यादगार बन गयी।

  बाद में मैं और दिग्गज जी ही नहीं बल्कि मेरे परिवारीजन भी इस घटना को लेकर बहुत दिनों तक आनंदित होते रहे।जो साहस दिग्गज जी ने दिखाया था वह आज सचमुच दुर्लभ है, कम से कम साहित्यकारों के लिए तो दुर्लभ है ही।

नीरज जी को पत्र

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एक दिन की बात ---दिग्गज जी बड़े उत्साह के साथ मेरे घर आये।

 "राजीव जी,राजीव जी!आप नीरज जी को एक पत्र लिखिये...अभी...."दिग्गज जी ने काफी उत्तेजित स्वर में कहा।

 "कौन नीरज जी दादा?" मैंने पूछा।

 "अरे वही अपने गोपालदास नीरज...."

 "लेकिन उन्हें पत्र क्यों दादा?"

 "यह देखिये...."उन्होंने अपने छोटे -से बैग में संभालकर रखा एक कागज मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा।

 "यह पांचजन्य अखबार में छपी नीरज जी की कविता -'कश्मीर'है...इसमें छंद की ढेरों अशुद्धियां हैं...."

 नीरज जी और छंद दोष !यह बात सचमुच मेरी कल्पना के बाहर थी।

  "दादा ,यह कैसे हो सकता है?भला नीरज जी जैसा देश का सबसे बड़ा गीतकार छंद की गलती कैसे कर सकता है ?जरूर प्रिंट में गलती हुई होगी..."

  "नहीं,ये प्रिंट की गलती नहीं है।नीरज जी ने इस कविता में मात्राओं की भारी गड़बड़ की है।उनसे मात्राएं गिनने में गलती हुई है।आप उन्हें इस विषय में पत्र लिखिए..."

  दिग्गज जी ने पांचजन्य अखबार के उस पृष्ठ पर छपी कविता पर  जगह -जगह पेंसिल से निशान लगा रखे थे जहां नीरज जी से मात्राओं की गलती यानी छंद दोष हुआ था।

 प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है?मैं हतप्रभ था। 

  "आप उन्हें पत्र लिखिए ..."इस बार दिग्गज जी ने एक पोस्टकार्ड मेरी ओर बढाते हुए कहा।वे पोस्टकार्ड भी अपने साथ लाये थे।

  "म.म..मैं ..भला मैं क्यों लिखूँ नीरज जी को पत्र?आप क्यों नहीं लिखते उन्हें पत्र ?"मैंने सहज प्रश्न किया।

  दरअसल ,मैं नीरज जी जैसे देश के शीर्षस्थ  कवि/गीतकार  को उनके छंद दोष को इंगित करते हुए पत्र लिखने में मन ही मन खासा हिचकिचा रहा था ।मुझे डर था कि कहीं वे मुझसे कुपित न हो जाएं।आखिर वे  समकालीन साहित्यजगत की सबसे बड़ी हस्ती थे।

  "बात दरअसल यह है कि लिखते हुए मेरे हाथ हिलते हैं,मेरा  राइटिंग भी अच्छा नहीं है।आपका राइटिंग सुंदर और संतुलित है और आपके पास बढिया भाषा भी है..."दिग्गज जी ने कहा।

  कुछ क्षणों के लिये मैं सोच में डूब गया।यह बात सही थी कि कुछ भी लिखते हुए वृद्धावस्था के कारण  दिग्गज जी के हाथों में कंपन होता था।वे लंबा ड्राफ्ट नहीं लिख सकते  थे।

  मैं बड़े असमंजस में था--दिग्गज जी को इनकार भी नहीं करना चाहता था और नीरज जी को उनके छंद दोष के बारे में पत्र लिखते हुए मुझे संकोच भी हो रहा था।

  "ठीक है दादा ,लिख दूँगा नीरज जी को पत्र ..किन्तु आज नहीं कुछ दिन बाद।'

 मैंने उन्हें टालने की गरज से कहा।

  बेचारे दिग्गज जी!कुछ क्षणों के लिए उदास हो गए।

  बात आई -गयी हो गयी।लेकिन दिग्गज जी ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा।वे जब भी मिलते मुझे कश्मीर कविता के विषय में नीरज जी को पत्र लिखने के लिए प्रेरित करते। 

  आखिर बहुत हीला-हवाली और ना -नुकर के बाद मैंने एक दिन नीरज जी को पत्र लिख ही डाला।

  अपने पत्र में मैंने विचलित कर देने वाली किन्तु संयत और शालीन भाषा का उपयोग किया था --ऐसी भाषा कि नीरज जी मेरे पत्र का उत्तर देने के लिए विवश हो जाएं।

 यह पत्र भी मैंने दिग्गज जी सामने ही लिखा था।

 दिन गुजर रहे थे।इस बीच दिग्गज जी  मुझसे  बराबर नीरज जी के पत्रोत्तर की जानकारी करते रहे।

  आखिर एक दिन इंतजार खत्म हुआ।नीरज जी ने मुझे पत्र का उत्तर भेज ही दिया।

  नीरज जी ने प्रारम्भ में तो कश्मीर कविता के विषय में जान -बूझकर अनभिज्ञता प्रकट करने की कोशिश की किन्तु अंत में चुपके से गलती को बड़ी सहजता से स्वीकार भी कर लिया।

  आखिर दिग्गज जी सही  साबित हुए।

 मैंने उन्हें नीरज जी का पत्र दिखाया तो उनके चेहरे पर अनायास ही एक वक्र  मुस्कान तैर गयी--एक विजयी मुस्कान!

  मैं इसे नीरज जी का बड़प्पन या महानता ही कहूंगा कि देश का शीर्षस्थ कवि होने के बावजूद उन्होंने मुझे पत्र का उत्तर दिया अन्यथा आज का कोई अहंकारी कवि तो इतनी जहमत भी न करता।

 अस्तु ,दिग्गज जी और नीरज जी से जुड़ी ये घटना एक यादगार बन गई और नीरज जी का उनके स्वयं के हस्तलेख में लिखा पत्र मेरे साहित्यिक खजाने की एक  अमूल्य  निधि बन गया जो आज भी  मैंने बड़े यत्न से संजो रखा है।

भरत मिलाप

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 इतवार का दिन और शाम का समय था।

  पूरा दिन निकला जा रहा था और दिग्गज जी का कहीं अता -पता नहीं था।मेरा मन ढेरों आशंकाओं से घिरा हुआ था --'क्या हुआ दिग्गज जी आज क्यों नहीं आए?कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है.....'

  मैं चिंतित -सा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

   ठीक तभी दरवाजे पर लगी घंटी घनघना उठी।

  'आ गए दिग्गज जी ।'सोचता हुआ में उत्कंठापूर्वक दरवाजे की ओर भागा।

  यह क्या !

  दरवाजे पर शहर के पुरानी पीढ़ी के कवि /गीतकार राजेंद्रमोहन शर्मा 'श्रृंग' जी खड़े थे।

  मैं कुछ क्षणों के लिए चकित -सा उन्हें देखता रहा।दरअसल,श्रृंग जी अयाचित मेरे घर आये थे--बिना किसी कोई पूर्व सूचना के और वह भी पहली बार।

  औपचारिक अभिवादन और रस्मी बातचीत के बाद श्रृंग जी ने पूछा --"और ...दिग्गज जी से कब से मुलाकात नहीं हुई है?"

 "दादा ,यूं तो उन्हें आज ही आना था ,लेकिन पता नहीं अभी तक क्यों नहीं आये हैं?कहीं नाराज हो गए हों तो कह नहीं सकता।वैसे आज तक ऐसा हुआ नहीं है..."

  वैसे दिग्गज जी चाहे सारी दुनिया से  नाराज हो जाएं लेकिन मुझसे कभी नहीं रूठे।फिर भी 'क्षणे रुष्टा ,क्षणे तुष्टा' वाले उनके स्वभाव को दृष्टिगत करते हुए  मैंने श्रृंग जी से कह दिया ।

 तभी दरवाजे पर  धीमी  आवाज सुनाई दी --'"ईशान !

  आवाज पहचानते मुझे देर न लगी ।यह सचमुच दिग्गज जी ही थे।

  दिग्गज जी ने ज्यों ही श्रृंग जी को देखा तो उनके चेहरे पर एक भली मुस्कान तैर गयी --"अरे श्रृंग जी आप !आजकल कहाँ रह रहे आप ?"

  "यही सवाल में आपसे करूंगा दादा...मुझे आपसे बड़ी शिकायत है... आप मिलते ही नहीं है  कहीं शहर में।मैंने कहाँ -कहाँ नहीं ढूंढा आपको ...कई बार आपके घर भी गया लेकिन मेरा दुर्भाग्य आपके दर्शन ही नहीं हुए।फिर पता चला कि आप रविवार को राजीव जी के घर अवश्य जाते है सो आज मैं यह सोचकर चला आया की कम से कम यहां तो आपसे मुलाकात हो ही जाएगी।आप नहीं जानते दादा की में आपसे मिलने के लिए कितना व्यग्र और परेशान रहा हूँ..."

  "मैं भी आपसे मिलने को बेताब था....अब शिकायत दूर कर लेते हैं...आइए गले मिलते हैं...."

  यह कहकर दिग्गज जी ने श्रृंग जी को गले लगा लिया।

  फिर दोनों के सब्र का बांध  जैसे टूट पड़ा। दोनों कवियों की आंखों से अनायास ही आंसू बहने लगे।

' एक-दूसरे से मिलने की इतनी उत्कंठा,इतनी व्यग्रता!' 

 दोनों कुछ क्षणों तक यूं ही एक -दूसरे के गले लगे रहे।

  "दादा,यूं इतने दिनों तक दूर न रह करो...आपकी बहुत याद आती है।" श्रृंग जी ने कुछ लरजते हुए स्वर  या भर्राई हुई -सी आवाज में कहा।

 "अब मिलते रहेंगे..." 

 मैं हतप्रभ -सा मुंह बाए  शहर के दो बूढ़े कवियों का यह भरत मिलाप देख रहा था।यह सचमुच मेरे लिए बिल्कुल नया और अनोखा अनुभव था।कुछ क्षणों के लिए मुझे भी कुछ न  सूझा। सही बात तो यह है कि यह अप्रत्याशित भरत मिलाप देखकर मैं स्वयं भी स्तब्ध था।दिग्गज जी और श्रृंग जी ,दोनों की आयु मेरे पिता से भी ज्यादा थी और दोनों यूं गले लगे थे जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों के मेले में बिछुड़े दो भाई बहुत लंबे अरसे बाद मिल रहे हों।

 "पापा, मम्मी पूछ रही हैं कि कितने कप चाय बनेगी?" मेरे बेटे  ने बैठक में प्रवेश करते हुए पूछा तो दोनों संयत होकर अलग हो गए। 

   क्या बेमिसाल पीढ़ी थी ! 

 एक दूसरे -से मिलने , बोलने -बतियाने की यह व्यग्रता भला अब लोगों में कहां दिखाई पड़ती है?

    बरसों गुजरने के बाद आज जब स्वयं को 'साहित्यकार ' कहने वाले लोगों को अपने चेहरे पर मुखौटे चढ़ाए और मुस्कानों का जाल बिछाए  भीतरघात करते देखता हूँ तो उन दो बूढ़े कवियों (दिग्गज जी और श्रृंग जी) के भरत मिलाप की  यह घटना बरबस  मुझे याद आ जाती है जिसका  मैं अनायास ही साक्षी बना।फिर यादों का प्रोजेक्टर मेरे मानस पटल पर अपनी गहरी छाया डालने के बाद चुप हो जाता है 


✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मो0-9412677565

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर राजीव सक्सेना का आलेख ...बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी । यह आलेख श्री दिग्गज जी के जीवन काल में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित मेरी कृति ’समय की रेत पर’ में प्रकाशित हुआ है।



बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी

मुख्य धारा के प्रसिद्ध कवि डा० हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि अच्छा बाल साहित्य वह रच सकेगा जो बच्चा बन सके यानी बाल मन में प्रविष्ट हो सके। बाल साहित्य की इस कसौटी पर जो बाल कवि खरे उतरते है वे हैं 'दिग्गज' मुरादाबादी ।
'दिग्गज' जी को न केवल बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ है बल्कि उनके मनोजगत या कल्पना जगत में भी गहरी पैठ है। वयस्क होने के बावजूद स्वयं 'दिग्गज' जी के भीतर  बालपन अभी विद्यमान है।उनके भीतर का यह बालपन या बालक जब सक्रिय होता है तभी किसी अन्त: प्रेरणा के वशीभूत हो उनका बाल कवि वाला व्यक्तित्व भी सक्रिय हो जाता है। दरअसल, 'दिग्गज' मुरादाबादी स्वयं को बालकवि सिद्ध करने के लिए नहीं बल्कि बच्चों के कल्पना जगत में झांकने की कौतूहलता के कारण बालगीत या कविताएं रचने के लिए विवश होते हैं।
    5 जनवरी सन् 1930 को जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर में जन्मे 'दिग्गज' मुरादाबादी का वास्तविक नाम प्रकाशचन्द्र सक्सेना है। उनके पिता मुन्शी रामचन्द्र सहाय सक्सेना एक रियासत के दीवान थे। 'दिग्गज' जी ने काव्य शास्त्र का ज्ञान अपने समय के प्रसिद्ध शायर अब्र हसन गुन्नौरी से प्राप्त किया। 'दिग्गज' जी की उर्दू साहित्य पर भी गहरी पकड़ है और उन्होंने बाल कविताओं के अलावा बहुत से गीत, नज्म और गज़लें भी लिखी है। आध्यात्मिक रूझान के कारण दिग्गज जी ने 'सीता का अन्तर्द्वन्द' और 'करवा चौथ' शीर्षक से काव्य प्रबन्धों की रचना भी की है।
    बाल कविताएं रचने की प्रेरणा 'दिग्गज' जी को प्रसिद्ध बाल कवि निरंकार देव 'सेवक' से प्राप्त हुई। यद्यपि सेवक जी से साक्षात्कार होने के पहले ही 'दिग्गज' जी बाल काव्य के क्षेत्र में निष्णात हो चुके थे तथा एक बाल कवि के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे। तथापि 'सेवक' जी का सान्निध्य प्राप्त होने पर 'दिग्गज' जी को उनसे बाल काव्य की अनेक बारीकियां समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सरसता, प्रवाहमयता और विलक्षण शब्द चयन के कारण 'दिग्गज' जी अपने समकालीन बाल कवियों से ही नहीं बल्कि अपने पूर्ववर्ती कवियों से भी श्रेष्ठतर जान पड़ते है तथापि वे विनम्रता पूर्वक अपने को निरंकार देव 'सेवक' का शिष्य स्वीकार करते है।

निरंकार 'देव' सेवक ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बालगीत साहित्य' (इतिहास एवं समीक्षा) में 'दिग्गज' मुरादाबादी का उल्लेख बड़े आदर के साथ किया है 'सेवक' जी का यह ग्रन्थ आज बालगीत साहित्य के प्रामाणिक शोध ग्रन्थ के रूप में समादृत है और ऐसे ग्रन्थ में उल्लेख मात्र भी सचमुच किसी बाल कवि के लिए गौरव का विषय है। 'सेवक' जी ने 'दिग्गज' जी की बाल कविता 'दीवाली' का उल्लेख विशेष रूप से अपनी पुस्तक में किया है।

"लो फिर से दीवाली आई,
साथ अनेकों खुशियां लाई ।
खीलें और बताशे लाई,
बढ़िया खेल तमाशे लाई ।
छूट रही हैं आतिशबाजी,
सब प्रसन्न है सब है राजी ।
घर बाहर की हुई सफाई,
कहीं रंगाई कहीं पुताई ।
हर घर में पकवान बनें हैं,
बड़े बड़े सामान बने है ।
आज कहीं भी नही अंधेरा,
हुआ रात में दिन का फेरा ।
दीवाली की रात सुहानी,
है सारी रातों की रानी ।

'दिग्गज' जी की शब्दों और छंद पर गहरी पकड़ होने के कारण ही 'सेवक' जी ने यह टिप्पणी की है कि 'दिग्गज' जी को छंद में कहने की आदत सी बन गयी है। 'दिग्गज' जी की निर्विवाद काव्य प्रतिभा को सिद्ध करने के लिए यह टिप्पणी पर्याप्त है। सरल और छंदबद्ध होने के कारण उनकी बाल कविताओं / गीतों में अद्भुत गेयता है और बच्चे उन्हें सहज ही गुनगुना सकते है।

"दिग्गज' जी की बाल कविताएं बाल मनोभावों और संवेदना की अभिव्यक्ति साथ-साथ चित्रात्मकता की दृष्टि से भी अद्भुत है। दरअसल 'दिग्गज' जी बच्चों के मनोजगत से एक ऐसा अन्तवैयक्तिक तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहते है कि उनकी बाल कविताएं / बालगीत, भाषा एवं शिल्प के स्तर पर भी अनोखे जान पड़ते है। 'दिग्गज' जी की बाल कविताओं में भाषा विषय के अनुरूप स्वयं को गढ़ती हुई चलती है। बालपन से उनका यह विलक्षण तादात्म्य या विशिष्ट भाषा शैली ही उन्हें समकालीन बाल कवियों से पृथक एक पहचान प्रदान करती है। विज्ञापन शैली में लिखी उनकी लोकप्रिय और लम्बी बालकविता "सरकस' की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य है
ये तो थे जलथल के प्राणी,
आगे है इस तरह कहानी।
दस हाथी, बाईस घोड़े हैं।
सत्रह बाघों के जोड़े है।
पन्द्रह ऊँट, रीछ है ग्यारह,
बबर शेर हैं पूरे बारह ।
शुतरमुर्ग है अफ्रीका का
अड़ियल गैडा अमरीका का ।
कंगारू, जिराफ, जेबरा ।
मगरमच्छ, घड़ियाल कोबरा ।

'दिग्गज' जी ने बाल कवियों के परम्परागत और प्रिय विषयों के अलावा सोच के स्तर पर मौलिक एवं आधुनिक विषयों पर केन्द्रित बाल
कविताओं की रचना भी की है। उनकी कविता 'तारे' सचमुच बालकवि 'दिग्गज' के आधुनिक दृष्टिकोण का परिचय हमें कराती है।
ये असंख्य टिमटिमा रहे जो ।
तारे नभमण्डल में ।
ये धरती से भी विशाल हैं।
निज स्वरूप निज बल में।
किन्तु आज तक की खोजों में।
जीवन कहीं न पाया।
यह सुख यह अनुभव केवल ।
अपने हिस्से में आया।

'दिग्गज' जी ने छोटी बड़ी दो सौ से भी अधिक बाल कविताओं / बालगीतों की रचना की है। इनमें से अनेक का प्रकाशन बच्चों की प्रसिद्ध 'नंदन', 'बाल भारती' 'पराग' और 'सुमन सौरभ' सरीखी पत्रिकाओं में हो चुका है। बाल साहित्य में उनका स्थान हेंस क्रिश्चियन एंडरसन, इनिड ब्लाइटन या आर्कादी गाइदार जैसा भले ही न हो लेकिन वे हिन्दी के अप्रतिम बाल कवि तो है ही।


✍️ राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शिव अवतार रस्तोगी सरस की बाल कविताओं पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख .....बच्चों से बतियाती कविताएं । उनका यह आलेख "मैं और मेरे उत्प्रेरक" (श्री शिव अवतार सरस जी की जीवन यात्रा ) ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है ।

 


कुछ कवि केवल बच्चों के कवि होते हैं और कुछ बच्चों के साथ-साथ बड़ों के भी। शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' जी ऐसे ही बाल कवि हैं, जिनकी रचनाएं बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी उपयोगी होती हैं। उनकी बाल-कविताएं बच्चों के अन्तर्मन को तो छूती ही हैं, बड़ों के भीतर किसी कोने में बैठे बालक को भी सहज ही गुदगुदाती रहती हैं। 'सरस' जी की कविताओं में बच्चों, बड़ों सभी को समान रूप से रसानुभूति होती है और यही उनकी बाल कविताओं की सबसे बड़ी शक्ति है। सरस जी की बाल कविताएं केवल बाल मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण ही नहीं हैं, अपितु वे हमारे बचपन का 'टोटल रिकॉल' हैं क्योंकि इनमें बचपन की वापसी होती दिखायी पड़ती है या फिर हम बार-बार बचपन की ओर लौटते हैं।

      अपने काव्य-संग्रह में सरस जी ने ऐसी ढेरों कविताएं प्रस्तुत की हैं, जो बालकों के अन्तर्जगत की मन मोहक छवियों को तो निर्मित करती ही हैं, वह घरातल भी प्रदान करती हैं जिनमें बचपन पल्लवित होता है। सरस जी की बाल कविताओं का रचना आकाश भी बड़ा व्यापक है और बचपन, उनमें कल्पना की ऊँची उड़ानें भरता हुआ ही नहीं, बल्कि सतरंगे सपने बुनता हुआ भी दिखायी पड़ता है। सरस जी की बाल कविताओं में बचपन के लगभग सभी शेड उपस्थित हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो उनका सम्पूर्ण संकलन बचपन का एक सम्मोहक आभा दर्पण है ।

     इस संकलन की ख़ास बात यह है कि इसमें कवि ने बच्चों के इर्द-गिर्द मौजूद सूरज, चन्दा, बादल, झरना, पेड़ जैसे प्राकृतिक उपादानों के ऊपर कई रोचक और मोहक कविताएं रची हैं। इन कविताओं में प्रकृति के प्रति एक सहज लगाव या जुड़ाव तो परिलक्षित होता ही है, प्रकृति के प्रति संवेदना और उसे बचाये रखने के लिए एक आग्रह भी स्पष्ट तौर पर लक्ष्य किया जा सकता है। प्रकृति के बिना बचपन बेमानी है, इस तथ्य को यदि मौजूदा दौर में किसी बाल-कवि ने सर्वाधिक प्रमाणिक ढंग से स्थापित किया है, तो वे बस सरस जी ही हैं। ऐसे समय में, जबकि प्रकृति बाल-काव्य तो क्या, स्वयं मुख्य धारा की हिन्दी कविता से भी लगातार बेदखल और काफी हद तक अदृश्य होती जा रही है, प्रकृति के प्रति सरस जी का यह रचनात्मक कदम सचमुच श्लाघनीय है। दरअसल, उनकी बाल कविताएं प्रकृति की बाल-काव्य की वापसी तो हैं ही, वे एक ऐसा प्रस्थान-बिन्दु भी उपस्थित करती हैं जिनमें भविष्य के बाल-कवि भी अपनी राह खोज सकते हैं।

       अगर बाल कविताओं के बहाने प्रकृति सरस जी की चिन्ता का केन्द्र-बिन्दु है, तो बालकों के आस-पास मौजूद जीव-जगत भी उन्हें एक व्यापक चेतना से जोड़ता है। शायद यूँ ही बया और बन्दर, शेर और चूहा, कौआ, मुर्गा, खरगोश, बिल्ली और गौरैया सहित अनेक जीवों एवं प्राणियों को भी अपनी चिन्ता के केन्द्र में रखते हुए मौलिक कविताएं रचकर अपनी रचना-धर्मिता के संग बाल-कविता को भी नये आयाम प्रदान किए हैं। सरस जी की इन कविताओं की खूबी यह भी है कि ये बेहद रोचक शैली में और पय-कथाओं के रूप में रची गयी हैं और बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी खासा गुदगुदाती हैं। 'चूहे चाचा, चुहिया चाची',  शीर्षक की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

"बिल्ली मौसी पानी लाने, को सरिता तक जब निकली ।

सरिता में काई ज्यादा थी काई में बिल्ली फिसली।

मौका पाकर चूहे चाचा, चाची को लेकर भागे ।

चाची दौड़ रही थीं पीछे - चाचा थे आगे-आगे” 

सरस जी की बाल-कविताओं में यह हास्य अक्सर उपस्थित होता है, लेकिन उनकी बाल-कविताओं का हास्य शिष्ट है, उनमें भद्दापन बिल्कुल नहीं है और यही विशेषता उन्हें समकालीन हिन्दी बाल-कवियों के मध्य एक अभिजात्यता के साथ-साथ रचनात्मक वैशिष्ट्य भी प्रदान करती है। इन बाल कविताओं में ग़ज़ब की गेयता है, उन्हें किसी के द्वारा भी सहज ही गाया-गुनगुनाया जा सकता है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सरस जी की कविताएं छन्द, यति-गति की दृष्टि से 'परफेक्ट' हैं। उनका शब्द चयन भी विलक्षण है और प्रसिद्ध बालकवि 'दिग्गज मुरादाबादी' जैसा सटीक है। एक ऐसे दौर में, जबकि कविता, विशेषकर बाल-कविता, छन्द से दूर होती जा रही है और बाल-काव्य के नाम पर प्रभूत मात्रा में फूहड़ बाल-कविताओं का सृजन हो रहा है, सरस जी बाल-काव्य में 'छान्दसिकता के नये प्रतिमान' रच रहे हैं। सरस जी की बालोपयोगी कविताएं बालकाव्य में छन्द की वापसी का जीवंत प्रमाण हैं। उनकी बाल कविताओं के बारे में इस तथ्य का उल्लेख भी समीचीन होगा कि उनमें केवल गेयता ही नहीं, बल्कि अभिनेयता का तत्व भी विद्यमान है। इसके बरबस यह भी उल्लेखनीय है कि सरस जी की बाल कविताएं नाटक का कोई एकालाप (ब्रामेटिक नहीं हैं, बल्कि बच्चों से संवाद करती, बतियाती या खेल-खेल में कुछ सिखाती कविताएं हैं। सरस जी ने बाल काव्य के प्रतिमानों के अनुरूप और बाल साहित्य के अपरिहार्य तत्वों का समावेश करते हुए बालकों को कोई भी सीधा संदेश, उपदेश या प्रवचन देने से प्रायः परहेज किया है और वे शिक्षक की मुद्रा धारण करते हुए कभी बालकों पर तर्जनी उठाते दिखायी नहीं पड़ते, बल्कि स्वयं एक बच्चा बनकर बाल-मानस या बालकों की भीतरी दुनिया में प्रवेश कर उसके अनूठ बिम्ब प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास अवश्य करते हैं। शायद यूँ ही प्रस्तुत संग्रह की कविताएं बाल-मानस या बच्चों की दुनिया की एक सच्ची और काफी हद तक यथार्थ परक झाँकी प्रस्तुत करती हैं। वे अपनी बाल-कविताओं के ज़रिये बालकों के लिए आदर्श-परक किन्तु अव्यवहारिक किस्म की परिस्थितियाँ नहीं रचते हैं, न ही कोई 'यूटोपिया' प्रस्तुत करते हैं, बल्कि बच्चों की व्यावहारिक दुनिया को प्रतिबिम्बित करते हैं, जिसमें बालक सामान्य तौर पर निवास करते हैं। अपनी इसी खूबी के कारण सरस जी की बाल-कविताएं बच्चों के ही नहीं, बल्कि स्वयं बचपन के भी काफी करीब हैं। इसके अतिरिक्त कवि सरस जी इन कविताओं में बचपन को आधुनिक बाल-परिवेश और नये सन्दर्भों में भी रचने गढ़ने में सफल रहे हैं। लगातार लुप्त होते पक्षी गौरैया के प्रति कवि सरस जी की यह चिन्ता आधुनिक बाल-परिवेश और नये सन्दर्भों के प्रति उनकी रुचि और जुड़ाव को ही दर्शाती है

      भारतीय समाज में यह उक्ति बहुत प्रचलित है कि बच्चे हमारा भविष्य हैं, किन्तु वे भविष्य से कहीं ज्यादा हमारा वर्तमान भी हैं। दरअसल, भविष्य भी वर्तमान की नींव पर ही टिका होता है। अगर हम बच्चों का वर्तमान सँवारेंगे, तभी भविष्य सँवरेगा। सरस जी की कविताओं में इसी वर्तमान के प्रति एक आग्रह स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होता है और वे बच्चों को बड़े सलीके या तरीके से संस्कारों की शिक्षा देते हुए उन्हें भविष्य के योग्य नागरिकों के रूप में रचना-गढ़ने की चेष्टा करते हैं। वे बाल काव्य के ज़रिये न तो स्वयं के लिए और न ही बच्चों के लिए कोई वायवी या बहुत दूर के लक्ष्य निर्धारित करते हैं। समग्र रूप में सरस जी की बाल कविताएं एक ऐसा सम्मोहक माया दर्पण हैं, जिसमें बच्चे तो अपना अक्स ढूँढ ही सकते हैं, स्वयं बचपन के भी ढेरों विम्ब पूरी भव्यता के साथ उपस्थित हैं। बाल कविता के इस माया दर्पण के दुर्निवार आकर्षण से बच्चों का तो क्या, बड़ों का भी बच पाना मुश्किल है। 


✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना की बाल कहानी..... असफलता । उनकी यह कहानी बालपत्रिका -देवपुत्र के नवंबर-2022 के अंक में प्रकाशित हुई है।

     


"बच्चों ! तुम्हें पता है... भारत अंतरिक्ष में अपने यात्री भेजने वाला है....।" सुधीर आचार्य जी ने कक्षा में विज्ञान पढ़ाते हुए अपने छात्रों को जानकारी देते हुए कहा।

" आचार्य जी ! हमने यह भी सुना है कि हमारे वैज्ञानिक शीघ्र ही चन्द्रमा पर अपना अभियान करने वाले हैं।" रचित ने बीच में बोलते हुए कहा।

"हाँ बिल्कुल ठीक यही नहीं इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) मंगल पर भी दूसरा यान भेजने में जुटा है। सही बात तो यह है कि दुनिया के सभी विकसित देशों के बीच अपने यान अंतरिक्ष में भेजने की प्रतिस्पर्धा लगी है। हमारा भारत भी पीछे नहीं है। लेकिन बच्चों समय रहते तुम्हें भी विज्ञान में रुचि लेनी होगी जिससे हमें योग्य वैज्ञानिक और इंजीनियर मिल सकें। नहीं तो हमारा देश पिछड़ ने जायेगा।" सुधीर आचार्य जी ने कुछ गंभीर होकर कहा।

"आचार्य जी! मुझे तो विज्ञान पढ़ना बहुत पसंद है। मुझे यह बड़ा रोचक लगता है।" सार्थक ने कहा। "मुझे तो वैज्ञानिकों और उनके आविष्कारों की कहानियाँ पढ़ना पसन्द है।" इस बार संकेत बोला।

"अंतरिक्ष यात्रा बड़ी मजेदार होती है। मैं तो बड़ा होकर अंतरिक्ष यात्री बनूँगा। एलियनों अर्थात अंतरिक्ष वासियों से भेंट करूँगा।" तुषार बोला। "मैं तो वैज्ञानिक बनूँगा, बड़ा होकर आविष्कार करूँगा।" सजल ने कहा। 

सुधीर आचार्यजी की कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे विज्ञान के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे थे। सुधीर आचार्य जी बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे थे। सारी कक्षा

में एक भी छात्र ऐसा नहीं था जिसकी 

विज्ञान में रुचि न हो । दरअसल, सुधीर आचार्य जी का विज्ञान पढ़ाने का अंदाज ही निराला था । विज्ञान

जैसे नीरस और कुछ कठिन लगने वाले विषय को भी वे इतने रोचक ढंग से पढ़ाते थे कि सभी की रुचि इसमें बनी रहती थी और कोई भी छात्र उनकी कक्षा में अनुपस्थित नहीं रहना चाहता था।

"बच्चों ! अंतरिक्ष के बारे में जानने की जिज्ञासा तुम्हारे अंदर बनी रहे और तकनीक से तुम्हें जोड़ने के लिए अगले महीने 'रॉकेट बनाओ' प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है, जिसमें शहर के सभी विद्यालयों को आमंत्रित किया गया है। आप अपने बनाये रॉकेट का प्रदर्शन उसे उड़ाकर प्रतियोगिता में कर सकते हैं बढिया रॉकेट बनाने वाले बच्चों को पुरस्कार दिया जायेगा.. हाँ, एक बात और रॉकेट बनाने के लिए आप इन्टरनेट या बड़ों की सहायता भी ले सकते हैं। इस प्रतियोगिता का जीवंत प्रसारण भी किया जायेगा।" आचार्य जी ने कहा।

"वाह! मैं भी एक नन्हा रॉकेट बनाऊँगा।" चंचल ने चहकते हुए कहा।

अनुभव को छोटे रॉकेट या उनके नन्हें मॉडल बनाने का बड़ा शौक था। शहर के ही एक पटाखे बनाने वाले से उसने रॉकेट बनाने के गुर सीखे थे। इसके अलावा वह नेट पर भी रॉकेट बनाने के तरीके सीखता रहता था। राकेट बनाना अनुभव की धुन थी। मित्र और सहपाठी भी अनुभव की इस धुन को अच्छी तरह जानते थे। तभी वे उसे 'रॉकेट मैन' कहकर पुकारते थे। संभव तो अक्सर कहता था- "अनुभव! मुझे लगता है बड़ा होकर तू अवश्य ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जैसा राकेट वैज्ञानिक बनेगा। " उस दिन जब सुधीर आचार्यजी ने विद्यालय में आयोजित होने वाली 'रॉकेट बनाओ' प्रतियोगता के बारे में बताया तो मित्रों ने अनुभव से कहा "अनुभव! तुम्हारे लिये तो यह स्वर्णिम अवसर है। तुम अवश्य यह प्रतियोगिता जीतोगे।" अनुभव भी मन ही मन प्रतियोगिता के लिए रॉकेट बनाने को तैयार हो गया।

किन्तु अब समस्या यह थी कि कैसा रॉकेट बनाया जाए। यह तो तय था कि दूसरे बच्चे भी नेट से सहायता लेकर रॉकेटों के एक से एक उत्तम प्रादर्श बनाकर उनका प्रदर्शन करेंगे।

"मुझे सबसे हटकर कुछ अनोखे प्रकार का मॉडल रॉकेट बनाना होगा जैसा किसी ने न बनाया हो।" अनुभव विचार करने लगा। लेकिन यह आसान काम नहीं था। समय खिसकता जा रहा था। खिसक क्या रहा था बल्कि तेजी से पंख लगाकर उड़ रहा था।

अनुभव के भीतर रॉकेट प्रतियोगिता को लेकर गहरी उधेड़बुन चल रही थी। अनुभव को विज्ञान और तकनीक से जुड़ी खबरें देखने-पढ़ने का भी शौक था।

एक दिन ज्यों ही अनुभव ने अपना टी.वी. खोला स्क्रीन पर एलन मस्क का चेहरा दिखायी दिया। टी. वी. पर एलन मस्क का साक्षात्कार दिखाया जा रहा था मस्क ने साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार से कहा "हमारा कॉरपोरेशन ऐसे रॉकेट के प्रोटोटाइप पर काम कर रहा है जिसे अंतरिक्ष में उड़ान भरने के लिए ईंधन की आवश्यकता ही न हो यानि बिना ईंधन का रॉकेट।'

'बिना ईंधन का रॉकेट ? यह सचमुच एक नयी बात थी। अभी तक दुनिया में बिना ईंधन का रॉकेट बनाने में किसी को सफलता नहीं मिली थी। "मैं प्रतियोगिता के लिए ऐसा ही रॉकेट बनाऊँगा। बिना ईंधन का रॉकेट।" टी. वी. पर एलन मस्क का साक्षात्कार देखते ही जैसे अनुभव को राह मिल गयी। वह एक नये उत्साह से भर गया। जो काम बड़े-बड़े वैज्ञानिक नहीं कर पाये थे वह एक किशोर या बच्चे के लिए आसान कैसे हो सकता था? मुझे अरुण चाचा की सहायता लेनी होगी अनुभव ने मन ही मन विचार किया।

अरुण के चाचा इंजीनियर थे जब अनुभव ने उनसे बिना ईंधन वाला रॉकेट बनाने का उल्लेख किया तो वे बोले "रॉकेट को उड़ान भरने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होगी। यह ऊर्जा कोई भी हो सकती है- विद्युत ऊर्जा, ध्वनि ऊर्जा या फिर प्रकाश ऊर्जा।"

"यदि मैं प्रकाश से चलने वाला रॉकेट बनाऊँ तो कैसा रहेगा। बस, इसके लिए मुझे कुछ फोटो सेल की ही तो आवश्यकता होगी।"

अचानक एक जोरदार सूझ भरा विचार बिजली की तरह अनुभव के मन में कौंध गया। बस, फिर क्या था।

अनुभव एकदम हवा-हवाई हो गया। वह फोटो सेल से उड़ने वाला यानी फोटान रॉकेट बनाने में जुट गया। अरुण चाचा ने भी रॉकेट के लिए फोटो सेल बनाने में उसकी खूब सहायता की।

आखिर प्रतियोगिता के लिए अनुभव का रॉकेट बनकर तैयार हो गया। कुछ-कुछ हवाई जहाज जैसा दिखने वाला अनुभव का यह रॉकेट बिल्कुल अलग या अनोखे किस्म का था।

    प्रतियोगिता वाले दिन दूसरे बच्चे अनुभव का यह अजीबो-गरीब आकृति वाला रॉकेट देखकर हैरान थे।

प्रतियोगिता प्रारंभ हुई। "नौ... आठ... सात... चार... दो... एक...शून्य।"

आचार्यजी ने 'काउन्ट डाउन' यानी उल्टी गिनती शुरू की तो शून्य पर पहुँचते ही दर्जनों रॉकेट दनदनाते हुए हवा में ऊँची उड़ान भरते हुए चले गये। अनुभव का रॉकेट बस बीस-तीस मीटर ऊँचा ही उड़ पाया और फिर एकाएक औंधे मुँह मैदान में नीचे गिरकर मिट्टी में धँस गया।

हो...हो...हो...हो...। अनुभव के रॉकेट की यह दशा देखकर आस पास खड़े दर्शकों, अध्यापकों और सहपाठियों के मुँह से हँसी का एक फव्वारा ही छूट पड़ा।

वे व्यंग्य भरी दृष्टि से उसे देख रहे थे। "कहो रॉकेट मैन! तुम्हारा रॉकेट तो फुस्स हो गया।" संभव ने व्यंग्यपूर्वक कहा। पता नहीं एकाएक क्या हुआ!

अनुभव की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसका महीने भर का परिश्रम धूल में मिल गया। वह जोर-जोर से सुबकने लगा और साथ आये अपने पिता जी से लिपटकर रोने लगा।

"रोओ मत अनुभव! तुम हारे नहीं हो। अगली बार फिर प्रयत्न करना।" पिता जी ने दिलासा देते हुए कहा।

मॉडल रॉकेट बनाने के लिए पुरस्कार मिलना तो दूर किसी ने अनुभव को शाबाशी तक नहीं दी। अनुभव ने मैदान में गिरा अपना रॉकेट उठाया और पिता जी के साथ चुपचाप घर चला आया।

किन्तु यह कहानी का अंत नहीं था। एक दिन अनुभव के पिता जी को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी 'इसरो' की ओर से एक ई-मेल प्राप्त हुआ। संगठन के चेयरमैन ने अनुभव के बनाये रॉकेट को अपनी प्रयोगशाला में जाँच के लिए मँगाया था। इसरो के वैज्ञानिकों ने अनुभव के प्रोटोटाइप में रुचि दिखायी थी।

अनुभव और उसके पिताजी तो क्या स्वयं सुधीर आचार्य जी के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। दरअसल इसरो के वैज्ञानिकों ने 'रॉकेट बनाओ'

प्रतियोगिता का प्रसारण देखा था। अनुभव ने अपना अधजला रॉकेट बेंगलुरू के अंतरिक्ष मुख्यालय भेज दिया।

कुछ ही दिनों बाद अनुभव को इसरो के चेयरमैन की ओर से फिर संदेश प्राप्त हुआ। इस बार उन्होंने अनुभव को उसके पिता जी के साथ अंतरिक्ष मुख्यालय में भेंट के लिए बुलाया था।

इसरो के चेयरमैन स्वयं देश के बड़े रॉकेट वैज्ञानिक थे। जब अनुभव पिताजी के साथ मुख्यालय पहुँचा तो उन्होंने स्वागत करते हुए कहा- "अनुभव! तुमने गजब का रॉकेट बनाया है, वैज्ञानिक जिसका लम्बे समय से सपना देख रहे हैं- फोटान रॉकेट इसके लिए तुम्हें एक विशेष पुरस्कार दिया जा रहा है... बिल्कुल अभी।" क्षणभर के लिए तो अनुभव और उसके पिता जी को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।

अनुभव कुछ अचकचाकर बोला- "लेकिन, मेरा रॉकेट तो असफल हो गया था। मैं प्रतियोगिता जीतने में असफल रहा।"

"कौन कहता है तुम असफल रहे ? तुम्हारा रॉकेट भी असफल नहीं हुआ था। तीस मीटर ही सही लेकिन तुम्हारा यह रॉकेट जिसे मैं 'फोटान रॉकेट' कहूँगा लगभग तीस मीटर उड़ने में सफल रहा। हमने इसकी गहराई से जाँच की है। डाटा का विश्लेषण करने से पता चला है कि रॉकेट की प्रणाली शार्ट सर्किट हो जाने के कारण इसके फोटो सेल जल गये और अपेक्षित थ्रस्ट न बन पाने के कारण रॉकेट अधिक ऊँची उड़ान नहीं भर पाया लेकिन तुम्हारे इस रॉकेट ने हमारी राह आसान कर दी है। इसरो ने तुम्हारे मॉडल के आधार पर विशालकाय फोटान रॉकेट बनाने की दिशा में काम शुरू कर दिया है। वह दिन दूर नहीं जब बिना ईंधन वाले भारतीय रॉकेट गहन अंतरिक्ष में उड़ान भरेंगे।" "ल... ल... लेकिन... ।

    "लेकिन वेकिन कुछ नहीं अनुभव तुम्हारा रॉकेट असफल हुआ था, तुम नहीं। अब जरा देखो महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडीसन ने हजार बार से अधिक बल्ब का फिलामेंट बनाया था तब कहीं वह बल्ब बन पाया जो आज हमें रोशनी देता है। माइकल फैराडे ने सैकड़ों बार प्रयत्न किया तब कहीं वे बिजली का पहला डायनमो बना पाये थे ऐसे और भी उदाहरण हैं विज्ञान की दुनिया में ध्यान रहे, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। हर असफलता के पीछे एक सफलता छिपी होती है। हमें असफलता से डरना नहीं चाहिए बल्कि उससे सबक लेना चाहिए।"

"आओ! मेरे साथ एक सेल्फी हो जाए।" चेयरमैन ने अनुभव को पुरस्कार देते हुए कहा तो उसके पिताजी का छाती गर्व से चौड़ी हो गई और स्वयं अनुभव के चेहरे पर एक मुस्कान खेलने लगी।

✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत













शनिवार, 29 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ----गंगा के गायक- -सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी ।

 


किशोरावस्था की बहुत सी स्मृतियां कौधती हैं, यादों का प्रोजेक्टर छाया डालता है- मुरादाबाद नगर में हर साल होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे में मैं उपस्थित हूँ एक सुकुमार से दिखने वाले कवि मंच संचालक द्वारा कविता पाठ के लिए आमंत्रित किये जाने पर मंथर गति से मंच पर प्रकट होते है। पंडाल में उपस्थित श्रोताओं को हास्य रस में खूब सराबोर कर अपना स्थान ग्रहण करते है। खूब तालियां बजती है, खूब वाहवाही मिलती है।

     प्रोजेक्टर अपनी छाया डालकर चुप हो जाता है। ये है मुरादाबाद के प्रसिद्ध कवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यद्यपि उनका निवास अधिकतर जनपद की तहसील चन्दौसी में ही रहा है किन्तु उनकी पहचान मुख्यतया मुरादाबाद के प्रमुख हास्य-कवि के रूप में ही है और 'हुल्लड़' मुरादाबादी की तरह काव्य मंच पर मुरादाबाद का प्रतिनिधित्व करते है।

    किन्तु अपने सुदीर्घ रचनाकाल में मिश्र जी ने केवल हास्य-रस की कविताएं ही नहीं रची है, काव्य की दूसरी विधाओं विशेषकर गीत को भी उन्होंने पर्याप्त समृद्ध किया है। काव्य रचना के अलावा मिश्र जी ने नाटक भी लिखे है। पुरातत्व और इतिहास पर भी उन्होंने काफी लिखा है। वे निरे कवि नहीं है बल्कि गद्य लेखन में भी खासे निष्णात हैं। सही बात तो यह है कि साहित्यकार के रूप में मिश्र जी के विविध रूप है। 'पवित्र पंवासा' शीर्षक ऐतिहासिक खण्ड-काव्य की भूमिका में प्रख्यात गीतकार शचीन्द्र भटनागर, मिश्र जी के बारे में लिखते है " श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के गीतकार, व्यंग्यकार, पुरातत्वविद, लेखक, नाटककार आदि रूपों से मेरा परिचय विगत तीस-पैतीस वर्षों में समय-समय पर होता रहा है उनकी समर्थ लेखनी जिधर मुड़ी उधर ही उसने नये प्रतिमान स्थापित कर दिए।" यूँ मिश्र जी की पहचान मुख्यतया एक व्यंग्य कवि के रूप में ही अधिक है किन्तु उनके अन्दर बैठा कवि वास्तव में तभी हमारे सामने अपनी पूरी ‘फार्म' में आता है जब वे 'पवित्र पंवासा' जैसे ऐतिहासिक खण्ड-काव्य में अपनी ओजपूर्ण भाषा में हुंकार लगाते हैं।

     "है समर प्रयाण, वीर चल पड़े,

      छोड़ के कमान तीर चल पड़े, 

      शत्रु- सैन्य थी जहाँ दहाड़ती, 

      रक्त पान को अधीर चल पड़े।

      तेग चल पड़ीं, दुधार चल पड़े, 

      ढाल चल पड़ी, कुठार चल पड़े, 

      लौह के कवच, बदन सजे हुए,

       राजपूत धारदार चल पड़े। 

       केसरी निशान हाथ में लिए, 

       आखिरी प्रयाण हाथ में लिए,

        सिंह-पूत सिंह से निकल पड़े, 

        चंचला कृपाण हाथ में लिए । "

ऐसा कौन पाठक या श्रोता होगा जिसकी शिराओं में इन पंक्तियों के अवगाहन के बाद रक्त न खौल उठे। दरअसल, मिश्र जी जब वीर रस के काव्य की रचना कर रहे होते है तब वे जाने-अनजाने मध्ययुगीन चंदवरदाई, जगनिक या भूषण जैसे कवियों की परम्परा का अनुसरण ही नहीं कर रहे होते बल्कि उनके समीप खड़े दिखाई पड़ते है। मिश्र जी कथ्य की दृष्टि से ही नहीं बल्कि यति गति, लय या छन्द की दृष्टि से भी मध्ययुगीन कवियों से कमतर नहीं है। बल्कि कहीं-कहीं तो वे वीरगाथा काल के कवियों से भी ज्यादा मौलिक और विशिष्ट दिखाई पड़ते है। वीरगाथा काल के कवियों ने जहाँ अधिकांश काव्य रचना राज्याश्रय प्राप्त करने, आजीविका चलाने या अपने स्वामी शासक को प्रसन्न करने के लिए की है वही मिश्र जी ने ऐसी किसी बाध्यता के बिना निर्द्वन्द्व भाव से साहित्य रचना की है और उन्होंने स्थानीय इतिहास, लोक कथाओं या किवदंतियों को प्रश्नय दिया है। 

    मिश्र जी उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है। उनके 'चरित्र काव्य' का मुख्य आधार स्थानीय इतिहास रहा है। वृन्दावन लाल वर्मा जैसे महान साहित्यकारों ने जहाँ उपन्यासों के जरिये झांसी या बुन्देलखण्ड क्षेत्र के इतिहास को उजागर किया है वहीं मिश्र जी ने गंगा या राम गंगा के तीर पर बसे प्राचीन नगरों के इतिहास को अपने साहित्य सृजन का आधार बनाया है। ऐतिहासिक कथाओं पर साहित्य रचने वाले अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों से मिश्र जी इस दृष्टि से भी बिल्कुल अलग है कि उनमें से अधिकांश ने गद्य और पद्य दोनों में से किसी एक विधा में ही साहित्य रचना की है। किन्तु मिश्र जी ने गद्य-पद्य दोनों ही विधाओं में पर्याप्त मात्रा में साहित्य रचा है। एक ओर जहाँ उन्होंने 'पवित्र पंवासा' और 'मुरादाबाद अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी' जैसी पुस्तकें काव्य में रची है वहीं 'शहीद मोती सिंह' गद्य में रचा ऐतिहासिक उपन्यास है। उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त उन्होंने "इतिहास के झरोखे से संभल' और 'मुरादाबाद का स्वतंत्रता संग्राम' जैसी कृतियां भी रची है।

    स्थानीय इतिहास या जनपदीय इतिहास को मिश्र जी के समग्र लेखन के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। दरअसल, स्थानीय इतिहास, लोककथाएं, किवंदंतियां मिश्र जी के साहित्य की 'लाइफलाइन' हैं और इनके बिना उनके साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थानीय इतिहास पर मिश्र जी का कार्य शोध के महत्व का है। अमर उजाला और दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके लेखों से न केवल रोचक ऐतिहासिक जानकारियां प्राप्त होती है बल्कि अतीत को खंगालने के मिश्र जी के एकल और भगीरथ प्रयासों और भीष्म संकल्प का भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है।

    यद्यपि मिश्र जी का इतिहास अधिकांशतया जनश्रुतियों पर आधारित है किन्तु उनका साहित्य असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है। पंवासा के राजा कमाल सिंह और राग केसरी, कैथल के बड़गूजर, संभल के रुस्तम खाँ और शहीद मोती सिंह कोई मिथकीय या काल्पनिक पात्र नहीं है बल्कि इतिहास है। हाँ, जब मिश्र जी इस इतिहास में कल्पना का समावेश कर देते हैं तब यह अतिरंजित भले ही लगता हो किन्तु यह उत्कृष्ट साहित्य का रूप अवश्य ले लेता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि मिश्र जी का रचा साहित्य अतिरंजना है। दरअसल, इतिहास और कल्पना दो ऐसे सूत्र है जो मिश्र जी के साहित्य में कुछ इस तरह गुँथे हुए है कि उन्हें पृथक चिह्नित किया जाना संभव नहीं है।

महान अंग्रेज साहित्यकार सर वाल्टर स्काट का नाम आज विश्व साहित्य में यदि आदर के साथ लिया जाता है तो वह इसलिए कि उन्होंने अपनी कृतियों में स्काटलैंड और इंग्लैण्ड के इतिहास, समकालीन जनजीवन, लोककथाओं, लोकपरम्पराओं, किवंदंतियों को पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ दर्ज़ कर प्रस्तुत किया है। ठीक यही काम मिश्र जी भी व्यापक स्तर पर न सही क्षेत्रीय अथवा स्थानीय स्तर पर करते रहे हैं। अब यदि ऐतिहासिक कथाओं और आख्यानों के गायन के लिए विलियम शेक्सपियर को 'वार्ड आफ एवन' और सर वाल्टर स्काट को 'विजर्ड आफ द नार्थ' कहा जा सकता है तो सुरेन्द्र मोहन मिश्र को भी 'गंगा का गायक' कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में गांगेय क्षेत्र का विशद वर्णन किया है।

   तथ्य तो यह है कि लगभग दर्जन भर कृतियों के रचनाकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी का सही आकलन आज तक नहीं किया गया है। लोग उन्हें एक हास्य कवि के रूप में ही जानते हैं। एक इतिहासकार और पुराशास्त्री के रूप में उनका आकलन किया जाना बाकी है। यह हिन्दी जगत का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े कद के रचनाकार का समुचित मूल्यांकन तक नहीं हुआ है। यदि मिश्र जी अंग्रेजी भाषा में साहित्य रच रहे होते तो निश्चित ही उनका स्थान टामस ग्रे सरीखे कवियों के समकक्ष होता और उन पर दर्जनों शोध हो गये होते। किन्तु मिश्र जी ने इन सब बातों की कभी परवाह नहीं की है। 'एकला चलो' की तर्ज पर वे निरन्तर सृजनरत हैं और नयी पीढ़ी को तकनीक के घटाटोप से बाहर लाकर एक बार अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों यानी अपने इतिहास से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं। 

( यह आलेख उस समय लिखा गया था जब श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य साधना में रत थे )

✍️ राजीव सक्सेना

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

मथुरा , उत्तर प्रदेश, भारत



शनिवार, 11 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो महेंद्र प्रताप पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- हिन्दी के श्लाका पुरुष - स्व महेंद्र प्रताप। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।

 


यदि मुरादाबाद के हिन्दी साहित्य जगत की चर्चा की जाए तो यह महेन्द्र प्रताप जी के उल्लेख के बिना अधूरी ही रहेगी। दरअसल, वे अपने जीवनकाल में ही इतने अपरिहार्य बन चुके थे कि उनकी गरिमामयी उपस्थिति के बिना किसी आयोजन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। यदि कोई व्यक्ति सचमुच इतना अपरिहार्य बन जाए तो उसके व्यक्तित्व की ऊँचाई की सहज कल्पना की जा सकती है।

       गौरवर्ण, प्रशस्त भाल, आँखों पर मोटा चश्मा, होठों पर मंद-मधुर मुस्कान और धवल वस्त्रों में सजे सहज-सरल महेन्द्र प्रताप जी दूर से ही देखने पर एक साहित्यकार नजर आते थे- निराला, प्रसाद या प्रेमचन्द की पीढ़ी के न सही किन्तु नामवर सिंह या काशीनाथ सिंह सरीखे तो वे थे ही। हिन्दी साहित्य जगत के अनेक नक्षत्रों से उनका व्यक्तिगत परिचय था। वे अनेक नामचीन साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में रहे। छात्र जीवन में ही उन्हें प्रसाद जैसे महाकवि का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था। किन्तु पता नहीं किन परिस्थितियोंवश महाकवि का आशीर्वाद फलीभूत नहीं हो सका।

    इसे मुरादाबाद के साहित्यिक जगत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दशकों तक अध्ययन अध्यापन और साहित्यिक कार्यक्रमों में आजीवन उपस्थिति के बावजूद स्वयं महेन्द्र प्रताप जी का सृजन उनकी प्रतिभा को देखते हुए बहुत कम है। उनके साहित्यिक सृजन के नाम पर बस कुछ गीत-गज़ले ही आज उपलब्ध हैं जो संभवतया उन्होंने अपनी युवावस्था में रची थीं। रोमानी भावनाओं से परिपूर्ण इन गीत-गजलों के आधार पर उनके साहित्यिक प्रतिभा का सही-सही अनुमान लगा पाना संभव नहीं है। महेन्द्र जी के गीत-गज़ल उनकी प्रतिभा के साथ ठीक-ठीक न्याय नहीं करते। 

    ऐसा नहीं है कि महेन्द्र प्रताप जी की साहित्य सृजन में कोई रुचि नहीं थी या उनमें इसकी क्षमता नहीं थी। न ही वे इसे गौण या हेय कार्य समझते थे। दरअसल, साहित्य सृजन विशेषकर काव्य रचना के प्रति उनकी वितृष्णा का मुख्य कारण यह था कि वे भक्तिकालीन कवियों, विशेषकर तुलसीदास से बहुत ज्यादा प्रभावित थे और उनकी श्रेणी का या उससे बेहतर काव्य रचने में स्वयं को असमर्थ पाते थे। अतः उन्होंने स्वेच्छा से साहित्य रचना से संन्यास या यूँ कहे कि अवकाश ले लिया था। हाँ, उनकी गीत-गज़लों की शब्दावली और छन्द विधान को देखकर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि महेन्द्र प्रताप जी ने पूर्ण समर्पण के साथ साहित्य रचना की होती तो उनका साहित्य निश्चित ही एक निधि होता। किन्तु अब जबकि उनका साहित्य सृजन ही पर्याप्त मात्रा में नहीं है अतः उनके कृतित्व के इतर पहलुओं पर ही अधिक चर्चा की जा सकती है।

    महेन्द्र प्रताप जी ने भले ही विपुल मात्रा में साहित्य सृजन न किया हो किन्तु वे अनन्य हिन्दी प्रेमी और हिन्दी सेवी अवश्य थे। हिन्दी से जुड़ा कोई कार्यक्रम हो और महेन्द्र जी को उनमें आमंत्रित किया जाए तो वे आयोजकों के समक्ष बिना कोई शर्त रखे ससमय कार्यक्रम के अंत तक उपस्थित रहते थे। उनकी गरिमामयी उपस्थिति से ही कार्यक्रम प्राणवान हो जाते थे और उनके बिना गोष्ठियों की जीवंतता ही समाप्त हो जाती थी। हिन्दी से जुड़ी नगर की प्रत्येक संस्था उनकी उपस्थिति के जरिये अपनी प्रतिवद्धता सिद्ध करना चाहती थी। उनकी उपस्थिति के बिना हिन्दी सेवी संस्थाओं की प्रामाणिकता ही संदिग्ध हो जाती थी।

     स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी अपने स्तर से आजीवन हिन्दी की सेवा करते रहे। साहित्यिक संस्था 'अंतरा' और 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' के जरिये उन्होंने हिन्दी जगत की अविस्मरणीय सेवा की। 'अंतरा' की गोष्ठियों के जरिये न केवल हिन्दी जगत को अनेक समर्थ रचनाकार प्राप्त हुए बल्कि अनेक महत्वपूर्ण कृतियां भी प्रकाश में आयी। माह के प्रत्येक पक्ष में आयोजित होने वाली 'अंतरा' की गोष्ठियां इस मायने में सचमुच अनूठी कही जायेंगी कि उनमें साहित्यिक कृतियों पर न केवल विस्तार से चर्चा होती थी बल्कि सदस्य रचनाकारों की कृतियों की विस्तृत चीर-फाड़ भी होती थी ताकि रचनाएँ अपने परिष्कृत रूप में पाठकों के सामने आएं। महेन्द्र प्रताप जी मूलतः समालोचक थे अतः साहित्यालोचना में विशेष आस्वाद मिलने के कारण ही वे इस कर्म की ओर प्रवृत्त हुए थे। 'अंतरा' के जरिये साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के परिष्कार को ही उन्होंने अपना ध्येय बनाया था। ज्ञान का तो जीता-जागता भण्डार थे वे। बस एक बार कोई साहित्यिक चर्चा उनके सामने शुरु हो जाए फिर तो उनके ज्ञान का पिटारा खुलता ही चला जाता था और उसका कोई अंत ही नजर नहीं आता था। ज्ञान चर्चा उन्हें सदैव प्रिय थी, प्राध्यापक होने के नाते वे श्रोता समुदाय को छात्रवत् समझते थे और अपना समस्त ज्ञान उंडेलने को आतुर रहते थे। अपनी बात को सन्दर्भों-अवांतर प्रसंगों के जरिये विस्तार पूर्वक समझाने का यल करते थे और कभी-कभी तो बात में से इतनी बात निकलती जाती थी कि मुख्य सूत्र ही कहीं छूटते नजर आते थे। जीवन की सांध्य बेला में हृदयाघातों के कारण चिकित्सकों ने यद्यपि उन्हें अधिक बोलने से परहेज करने को कहा था तथापि उनका प्राध्यापक मन और उनके अन्दर बैठा साहित्यकार व्यक्तित्व उन्हें सतत् संवाद के लिए प्रेरित करता रहता था। दरअसल वे 'संवाद' में विश्वास रखते थे और जीवन भर वे संवाद ही करते रहे- कभी अपने छात्रों से तो कभी व्यक्तियों और समाज से, तो कभी व्यापक स्तर पर अपने समय से ।

 महेन्द्र जी केवल अपने समय और समाज से ही संवाद नहीं करते थे बल्कि स्वयं से भी संलाप करते थे। किन्तु स्वयं से संलाप कभी एकालाप नहीं रहा। वह सभी के लिए एक संदेश रहा है। जैसा कि उनके प्रसिद्ध गीत 'ऐसी प्यास से कहाँ से लाऊँ' की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट है -

“ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ 

जिससे मानस तपे, क्षुब्ध

होकर जागे उसकी गहराई, 

सीमा की लघुता घुल जाये, 

पड़े अकूल अलक्ष्य दिखाई 

 जो आँखों का मृग जल पीकर 

 फिर विदग्धता का प्रकाश दे

जिसकी ज्वाला का कल्मष भी 

विमल नयन अंजन बन जाये 

ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ।"

तुलसी साहित्य महेन्द्र जी का प्रिय विषय था। उनका प्रयास होता था कि कोई भी चर्चा घूम-फिरकर तुलसी साहित्य पर अवश्य आ जाए। तुलसी साहित्य पर उनका अध्ययन व्यापक था और वे फादर कामिल बुल्के की तरह ही तुलसी साहित्य अनुरागी थे। तुलसी साहित्य पर वे बुरी तरह मुग्ध थे और युवा पीढ़ी में इसके प्रति घटती रूचि पर किंचित रूष्ट भी।

  हाँ, समकालीन साहित्य और रचनाकारों के प्रति उनकी जानकारी कोई विशेष नहीं थी। इसके पीछे शायद यही कारण था कि समकालीन साहित्य को वे स्तरहीन समझते थे और इसमें उनकी रूचि भी नहीं थी।

   महेन्द्र प्रताप जी के व्यक्तित्व के कुछ दूसरे पहलू भी है जिन पर शायद ही कभी चर्चा होती है। बहुत कम लोग जानते हैं कि जितनी उच्च कोटि के वे साहित्य मनीषी थे उतने ही बड़े संगीत विशारद भी। संगीत, नाटक या रंगमंच की कोई भी गतिविधि महेन्द्र प्रताप जी के बिना अधूरी रहती थी। समाज सेवी तो वे थे ही। सही बात तो यह है कि महेन्द्र प्रताप जी एक श्लाका पुरुष थे और उनका नाम करीब-करीब एक किंवदंती बन चुका है।



✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

बुधवार, 24 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- "साहित्य के शंकर - स्व० शंकर दत्त पाण्डेय"। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।


मनुष्य के रूप में हम जीवन भर एक सत्य की तलाश में रहते है। यह सत्य हमें कभी-कभी मिलता भी है किन्तु टुकड़ों में पूर्ण सत्य या यथार्थ से हमारा साक्षात्कार जरा कम ही होता है। एक लेखक या साहित्यकार भी जीवन भर सत्य की खोज में लगा रहता है। वह अपने समय के यथार्थ को साहित्य के माध्यम से खोजने का यत्न करता है। वह न केवल सत्य या यथार्थ के विदूपों और भंगिमाओं को चीन्हने की कोशिश करता है बल्कि उन्हें रेखांकित भी करता है और पाठकों को इसमें सहभागी भी बनाता है।

      साहित्य के माध्यम से यथार्थ को चीन्हने वाले एक ऐसे ही समर्थ रचनाकार थे स्व शंकर दत्त पांडे। पांडे जी ने न केवल अपने समय के यथार्थ को शब्दों के माध्यम से जीया था बल्कि इसको उद्घाटित करने के क्रम में एक विराट रचना संसार की सृष्टि भी की थी। पांडे जी के लेखन के विविध आयाम थे। वे समकालीन साहित्य के एक बड़े हस्ताक्षर थे। नयी कहानी आन्दोलन के एक प्रणेता निर्मल वर्मा की तरह बेहद विनम्र, मितभाषी बल्कि कहा जाए ज्यादातर खामोश रहने वाले एक प्रतिभाशाली रचनाकार। उनका आभामण्डल कुछ ऐसा था कि वे स्वयं ही चुप नहीं रहते थे बल्कि उनके आस-पास और कभी-कभी तो उनकी उपस्थिति मात्र से भी अनायास एक सन्नाटा बुन जाता था। किन्तु यह सन्नाटा ओढ़ा हुआ या कृत्रिम नहीं था। व्यक्तिगत जीवन में पांडे जी भले ही कम बोलते हो किन्तु अपने रचना जगत में वे उतने ही मुखर दिखायी पड़ते है। वे साहित्यिक सन्नाटे के बीच अक्सर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराते थे। उनकी कृतियां इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं। 

      बेहद धीमे बोलने वाले अक्सर अपनी ही दुनिया में खोये रहने वाले शंकर दत्त पांडे एक बहुआयामी सर्जक थे। एक कुशल चितेरे की भाँति उन्होंने एक बड़े कैनवस पर जीवन के लगभग सभी विम्ब उकेरे हैं और स्पेक्ट्रम के सभी रंग उनके सृजन में पूरी भव्यता के साथ उपस्थित हैं। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं के आगार पर्याप्त समृद्ध किये हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानियां, कविताएं, गीत, नाटक, निबन्ध, हास्य-व्यंग्य, बाल साहित्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज सहित हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में सृजन किया है। सही बात तो यह है कि शंकर दत्त पांडे ने जब भी लेखनी उठायी हिन्दी की जिस विधा में चाहा पूरे अधिकार के साथ सृजन किया। नगर में सम्भवतः दुर्गादत्त त्रिपाठी प्रभृति रचनाकार ने भी इतनी विधाओं में शायद साहित्य नहीं रचा है। दरअसल, पांडे जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार थे और यथानाम तथा गुण वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए साक्षात कलाओं के आदि स्वरूप नटराज के मानवीय प्रतिरूप थे। यही उनकी प्रतिभा का अंत नहीं था। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी पर्याप्त साहित्य रचा था और मौलिक सृजन के अलावा कई चर्चित कृतियों और पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया था। उर्दू भाषा पर भी पांडे जी को गज़ब का अधिकार था। उन्होंने उर्दू में भी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में लिखी थीं। सही बात तो यह है कि पांडे जी जैसी विलक्षण भाषाई या साहित्यिक प्रतिभा के धनी हिन्दी जगत में तो क्या विश्व साहित्य में भी बिरले ही हुए होंगे। हिन्दी में स० ही० वात्स्यायन अज्ञेय और जयशंकर प्रसाद शायद सर्वाधिक प्रतिभाशाली साहित्यकार कहे जा सकते है जिन्होंने गद्य और पद्य की लगभग समस्त विधाओं में पर्याप्त साहित्य सृजन किया था। किन्तु पाण्डेय जी सम्भवतः  इन दोनों कालजयी रचनाकारों से भी इसलिए आगे खड़े महसूस होते हैं कि बहुधा गौण या दोयम दर्जे का साहित्य समझे जाने वाले बाल साहित्य की भी उन्होंने रचना की थी। बाल साहित्य में भी पांडे जी ने एकाध पुस्तक की नहीं बल्कि करीब आधा दर्जन पुस्तकों की रचना की थी। 'लाल फूलों का देश', 'बारह राजकुमारियां', 'पीला देव', 'जादू की अंगूठी', 'रोम का शिशु नरेश' और 'जादू का किला' उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां है।

      जैसा कि उपरोक्त कृतियों के नाम से ही स्पष्ट है पांडे जी की अधिकांश बाल कथाएं जादू या फंतासी से ओतप्रोत है। अपनी बाल कृतियों में पांडे जी ने कल्पना को नये आयाम प्रदान किये है। कहानियों में रोचकता इतनी है कि पाठक मंत्रबद्ध और सम्मोहित हो आद्योपान्त इन्हें पढ़ने के लिए विवश हो जाते है। उनकी कहानियां फंतासी के मामले में पश्चिम के ख्यातिप्राप्त बाल साहित्यकारों हेंस क्रिश्चियन एंडरसन और इनिड ब्लाइटन से जरा भी कमतर नहीं है। सही बात तो यह है कि पांडे जी का बाल साहित्यकार के रूप में कभी समुचित आकलन नहीं हुआ। उनका बालसाहित्य समालोचकों की उपेक्षा का शिकार तो हुआ ही साथ ही वह मुख्य धारा के कथित झण्डाबरदारों की साजिश का भी शिकार हुआ। यदि पांडे जी के बाल साहित्य का सम्यक मूल्यांकन किया जाए तो न केवल उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के नये आयाम उद्घाटित होंगे बल्कि बाल साहित्य भी संभवतया अपने एक यशस्वी रचनाकार का परिचय पा सकेगा।

   पांडे जी से मेरा परिचय बहुत प्रगाढ़ और पुराना नहीं था, यद्यपि मैं उनके नाम ओर काम दोनों से परिचित था। गाहे-बगाहे नगर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं से मैं उनके कृतित्व की झलक पाता रहा। कतिपय गोष्ठियों में उनके गीत या कविताएं सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ, किन्तु सदैव उनके एक 'कोकून' में आवृत्त रहने के कारण और कतिपय स्वयं मेरे संकोच के कारण व्यक्तिगत संवाद की स्थितियां निर्मित न हो सकीं। बहुत बाद में उनके जीवन की सांध्य बेला में भाई 'पुष्पेन्द्र' वर्णवाल के जन्मदिन पर आयोजित एक निजी गोष्ठी में उनसे संवाद का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शायद पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच एक सेतु निर्मित करने का प्रयास था यह। पुष्पेन्द्र जी के निवास पर आयोजित गोष्ठी में पांडे जी ने प्रकम्पित कण्ठ से एक अत्यन्त भावप्रवण गीत सुनाया भरी स्मृति में कहीं टंक सा गया। मैं भीतर ही भीतर उनसे प्रभावित हो गया और मन सहसा विचारों से आलोड़ित हो गया। लगभग संझवाती तक चली यह गोष्ठी गंभीर वातावरण में समाप्त हुई और गोष्ठी में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ दे गयी। यह पांडे जी से मेरे साक्षात्कार का अन्तिम अवसर था। फिर वे मेरी नजरों से प्रायः ओझल हो गये और अंतिम तिरोधान तक लगभग अदृश्य ही रहे। किन्तु उनके देहावसान के बाद आज तक मैं शंकर दत्त पांडे जी को दृश्यमान करने की कोशिश करता हूँ तो न केवल उनके महान सर्जक व्यक्तित्व से अभिभूत हो जाता हूँ बल्कि एक विराट शून्य या रिक्तता का भी तीव्रता से आभास होता है जिसे भर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। सही बात तो यह है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए शायद यह विश्वास कर पाना भी कठिन होगा कि नगर मुरादाबाद में एक ऐसा विलक्षण साहित्यकार हुआ था जो हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में समान गति से विचरण करता था।

      यहाँ उनके कुछ काव्य साहित्य की चर्चा करना समीचीन होगा। उनके काव्य में छायावादी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। दरअसल, वे जिस पीढ़ी के रचनाकार थे उस पर छायावाद का स्वाभाविक रूप से गहरा प्रभाव था। तब प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी वर्मा का चतुष्ट्य केवल साहित्य को ही प्रभावित नहीं कर रहा था बल्कि समकालीन युवा रचनाकारों की संवेदना के तारों को भी पर्याप्त झंकृत कर रहा था। पाण्डेय जी की रचना में भी दूसरे रचनाकारों की तरह प्रकृति वर्णन, शृंगारिकता रहस्यात्मकता और रोमानी अनुभवों के दर्शन होते हैं किन्तु उनकी रचनाओं में एक व्यापक दृष्टि और युगबोध के भी दर्शन होते हैं। उनके एक गीत की ये पंक्तियां दृष्टव्य है

"जब उस निष्ठुर का नाम कभी, 

आया इन होंठों के ऊपर । 

दुख की दर्दीली रेखायें,

उभरी मानस पट के ऊपर ।। 

मैं अवहेला की घड़ियों में, 

पलकें खारे जल से घोता, 

सोचा करता हूँ जीवन में 

उत्थान-पतन प्रतिपल होता ।"

       वास्तव में यही उनकी जीवन दृष्टि थी। जीवन में प्रतिपल आने वाले उतार चढ़ाव से निस्संग होकर पांडे जी आजीवन सृजनरत रहे। दरअसल, शंकर दत्त पांडे का सम्पूर्ण साहित्य मानवीयता की गाथा है जिसे वे अपनी स्वर्ण लेखनी के माध्यम से अंत तक कहते रहे।


✍️ राजीव सक्सेना, 

डिप्टी गंज, 

मुरादाबाद244001 ,उत्तर प्रदेश, भारत