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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी के संदर्भ में ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख..... "आ, लौट के आजा मेरे मीत "


शायद वर्ष 1972 था या 1973, उन दिनों मैं मुजफ्फरनगर से स्टेट बैंक की अपनी नौकरी छोड़ के मुरादाबाद  लौट चुका था और शायद "साईको" उपन्यास के अनुवाद की तैयारी में व्यस्त था।  परंतु , साहित्यिक गोष्ठियों व सम्मेलनों में गाहे-बगाहे जाता रहता था। एक शाम हमारे साहित्यिक मित्र और मेरे वरिष्ठ कवि डा विनोद गुप्त जी के निवास, सब्जी मंडी पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन था। मैं भी आमंत्रित था। वहीं लम्बे चौड़े गोरे से चश्मा लगाये एक नवीन साहित्यकार से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने अपना नाम प्रकाश चन्द्र सक्सेना ’दिग्गज’ बतलाया। वे सफेद पाजामें– कुर्ते में बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, और काफी हंसमुख भी थे।

बोले, "अरे, जाकिर साहब, मैंने आपका बहुत नाम सुन रखा है। आज आपसे मिल कर तबियत खुश हो गयी, मेरी।"

मैं हंसा, " श्रीमन तबियत तो मेरी भी खुश क्या डबल खुश हो गयी आपसे मिल के !"

वे बोले, "मतलब, डबल खुश कैसे ? " मैंने समझाया, " सादर प्रणाम ! श्रीमन मेरे श्वसुर महोदय का भी यही नाम है, श्री प्रकाश चन्द्र सक्सेना ! उपस्थित सभी लोग हँसने लगे।

 ‌‌यही थी मेरी 'दिग्गज जी' से पहली मुलाकात की बानगी !

 ‌उन्होंने बड़े ऊंचे स्तर की उर्दू नज़्में में सुनाई ।

बस, उस शाम के बाद उनका बारादरी स्थित मेरे निवास पर आना-जाना होने लगा और हम अक्सर मिलने लगे।

 जब मिलते थे, तो सुनना-सुनाना भी हो जाता था। पर उस समय तक वो शायर

 " दिग्गज' थे, "दिग्गज मुरादाबादी 'नहीं! और सिर्फ उर्दू में कलम चलाया करते थे। एक शाम को अपने साथ एक अन्य वरिष्ठ साहित्यकार को मेरे घर ले आये, परिचय कराया श्री बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी'! प्रवासी जी उच्च कोटि के कवि थे और तहसीली स्कूल में अध्यापन कार्य करते थे। वह" मैढ़ बालक" नामक एक बाल पत्रिका का संचालन भी करते थे। 

 अब हमारी काव्य गोष्ठियों में दिग्गज जी प्रवासी जी के साथ ही आने लगे। दिग्गज जी बहुत उच्च कोटि को नज़्मकार थे और मंच को जीत लेने वाली अनेक नज़्में कह चुके थे। मुझे उनका कलाम बहुत पसंद आता था और हम दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उन्ही दिनों मुझे पता चला कि दिग्गज जी, मुरादाबाद कचहरी में अर्जी नवीस का काम करते थे।

शायद, एक बार मैं किसी काम से कचहरी के पोस्ट आफिस गया तो, कचहरी में जाकर उनके बस्ते पर बैठ कर  एक प्याला चाय भी पी आया। वहीं बातचीत में उनसे पता चला कि वे कटघर में पचपेड़ा नामक स्थान पर रहते थे। इसके बाद तो साहित्यक गोष्ठियों में वे हुल्लड़ मुरादाबादी, ललित मोहन भारद्वाज, पुष्पेन्द्र वर्णवाल, डा० विनोद गुप्ता, ओम प्रकाश गुप्ता, प्रवासी जी, कौशल शलभ और मक्खन जी के साथ मुझे मिल ही जाते थे। वैसे, उन्होंने बहुत कुछ कहा था, कहते ही रहते थे मगर उनकी एक नज़्म "झांसे वाली रानी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी, मुझे भी पसंद थी। उसकी प्रारंभ की कुछ  पंक्तियां मुझे आज 52-53 वर्षों के बाद भी याद है?

सरल,सौम्य आकृति, मगर कुछ थोड़ी सी अभिमानी है ,

है प्रयाग से प्यार, कि जिससे इसकी जुड़ी कहानी है। 

सब लोगों,कुल अखबारों में खबर यही छपवानी है, 

कि एक थी झांसी वाली,पर यह झांसे वाली रानी है।

सैकुलर नारों की सारी शेखी  चकनाचूर हुयी, 

बाईस वर्षों में भी तुमसे नहीं गरीबी दूर हुयी। 

कुछ भी तुमसे हो न सका, पर इतनी बात ज़रूर हुयी, 

कि भूखी-नंगी भारत माता दूर-दूर मशहूर हुयी ।

 इस पर भी तू अपने मन में फूली नहीं समानी है। 

 एक थी झाँसी वाली पर ये झांसे वाली रानी है । (रचना काल 1969)

इसी प्रकार उनकी एक और नज़्म थी.. " मेहतर की बेटी ", उसे भी वो बड़े चाव से पढ़ते थे।

असल में उन दिनों कविता ' लुहार की लली' काफ़ी प्रसिद्धि पा रही थी, उसी से प्रभावित होकर दिग्गज जी ने यह कविता या नज़्म जो कुछ भी यह थी उसे लिखा। 

 प्रोफेसर एन० एल० मोयात्रा के घर पर होने वाली मासिक हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमनी काव्य गोष्ठी " बज़्मे मसीह" में दिग्गज जी हमेशा भाग लेते थे और खूब सराहे जाते थे।

परन्तु, इस सारे समय में वे जो डायरी अपने साथ लाते थे, उसमें  जो कुछ भी उनकी हस्तलिपि में होता था, वो सब उर्दू में ही होता था।

  इन कुछ महीनों के  साथ के बाद मेरा उनसे ही क्या मुरादाबाद से ही साथ छूट गया, जब मैं मुरादाबाद से प्रस्थान कर गया। पर उन्हें और उनके साहित्य और अपनत्व को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा । इसी लिये चाहता हूं, वो एक बार फिर हमारे बीच लौट आएं और अपने  क़लाम से हमें नवाज़ें !


✍️ ए टी ज़ाकिर 

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001  मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com

शनिवार, 26 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष गगन भारती पर केंद्रित ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख ....कहां तुम चले गए.......


बात 1969 की है । गगन साहब से मेरा तार्रूफ़ जनाब साहिर लुधियानवी साहब के साथ एक मीटिंग के दौरान बम्बई के एक कौफ़ी हाउस में हुआ था। इस मीटिंग में अदबी दुनिया की मशहूर -ओ-मारुफ़ हस्तियां मौजूद थीं । अदब में ये एक अजीब इन्कलाबी दौर था, जिसमें हिन्दुस्तान के राइटर्स को जदीदियत की एक नई दुनिया दिखाई देने लगी थी।

ये क़लमकार थे, जनाब साहिर साहब, जनाब के.ए.अब्बास साहब, जनाब कृशन चन्दर साहब, जनाब रामलाल साहब, जनाब कैफ़ी आज़मी साहब, जनाब जां निसार अख़्तर साहब, जनाब राजेन्द्र सिंह बेदी साहब, जनाब हसरत जयपुरी साहब, जनाब तलत महमूद साहब, जनाब जोश मलीहाबादी साहब , उनके साथ थे गगन भारती और मेरे जैसे नन्हे पौधे जो इन बड़े- बड़े आलीशान दरख़्तों के साये में पल रहे थे। जिस गुलशन या अंजुमन का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, उसका नाम था,"प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन"इस ग्रुप का मिम्बर होना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी। बडा फ़ख्र महसूस करते थे इसकी मिम्बरशिप पाकर लोग।

तरक्की पसंद ख्याल और जदीद सोच के नारों को बुलन्द करने वाली ऐसी ही उस मीटिंग में पहले -पहल गगन भारती साहब को देखा। गगन साहब आग उगलती हुई नज़्मों के शायर थे और मैं इक्कीस  साल का वो अनजाना अफसाना निगार था,जो इन अज़ीम अदबी सितारों से उस हद तक मुत्तासिर हो चुका था कि एक अजीब से मकनातीसी अंदाज़ में इन सितारों के गिर्द गर्दिश कर अपना वजूद टटोल रहा था। ये मेरी ख़ुशकिस्मती थी कि अपने चन्द अशआर से जनाब साहिर साहब की नज़र की ज़द में आ चुका था।

     

मैं साहिर साहब और जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की कला का शैदाई था, तो उसी अंदाज़ में गगन साहब का कहा क़लाम मेरे दिल में उतर गया। मुझे बताया गया किसी यूनानी देवता जैसा दिखने वाला ये बेहद हैंडसम नौजवान गगन भारती भी मुरादाबाद से ताल्लुक रखता है, तो मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने दोस्ती का हाथ गगन साहब के आगे बढ़ा दिया। हम अच्छे दोस्त बनकर मुरादाबाद लौटे पर जिस मीटिंग का ज़िक्र मैनें ऊपर किया, उसमें गगन साहब ने न सिर्फ अपने कलाम से  वाहवाही लूटी वरन अपनी ज़हनियत और तरक्की पसंद सोच के झंडे गाड़ दिए।

गगन साहब ने जनाब के ए अब्बास साहब और कृशन चंदर साहब के सामने एक मशवरा रखा कि हमारी इस अंजुमन में सिर्फ जदीद खयाल राइटर्स ही क्यों मेंबर हैं ? कोई भी फनकार जो हुनरमंद और तरक्की पसंद है, वह क्यों नहीं मेंबर हो सकता। उसे भी मेंबर होना चाहिए। खासी तवील बहस के बाद गगन साहब का मशवरा मान लिया गया और एक नई अंजुमन बन गई जिसमें कोई भी जदीद खयाल हुनरमंद फनकार मेंबर हो सकता था। गगन साहब ने नाम सुझाया "अंजुमन तरक्की पसंद मुफक् रीन" और उसी रात ये अंजुमन अपने वजूद में आ गई।

   

मैं गगन साहब की फिलासफी और ज़हनियत का और ज्यादा कायल हो गया। मुरादाबाद लौट कर हम दोनों एक दूसरे से मिलने लगे । गगन साहब को मेरे अफ़साने पसंद आते तो मैं उनकी नज़्मों पर फिदा था। कहना गलत ना होगा कि मैं न सिर्फ उनसे नज़्म कहने का सलीका बल्कि उनकी अजीम शख्सियत से एक सच्चा इंसान बनने की तालीम लेने लगा । आज जो तहजीब और इंसानियत का जज्बा मेरे अंदर आप पाते हैं। वह गगन साहब का मुझे दिया ईनाम है और जो बदतमीजी या अक्खड़पन आपको मुझ में नजर आता है वह मेरा ओरिजिनल किरदार है । गगन साहब बहुत अजीम और कामयाब शायर थे। हिंदुस्तान का कोई मुशायरा ऐसा नहीं था जो उन्होंने पढ़ा ना हो। वह मुशायरे के बादशाह थे, कितनी ही बार मैंने वह दिल फरेब मंजर देखा जब लोग उन्हें मुशायरे का माइक छोड़ने नहीं देते थे । बाहैसियत एक इंसान, गगन साहब का किरदार इतना आलीशान था कि अपनी 74 साल की जिंदगी में मैंने उन जैसा सच्चा और उम्दा इंसान दूसरा नहीं देखा।

एक वाकया याद आ रहा है : मुरादाबाद में हमारे एक और प्यारे दोस्त रहते थे जिनके गगन साहब से अच्छे ताल्लुकात थे। हमारे वह साथी मुरादाबाद से कहीं बाहर चले गए और गुरबत के शिकार हो गए। 43 साल के बड़े अर्से में उनकी कोई खैर खबर नहीं मिली गो कि वो बात और थी कि वह गगन साहब की तलाश सोशल साइट्स पर करते रहे और मुरादाबाद की महफिलों में गगन साहब उनका जिक्र खासे ऐहतराम से करते रहे । 2018 में उन्होंने फेसबुक के जरिए गगन साहब को ढूंढ निकाला और दोस्ती की ठहरी हुई किश्ती एक बार फिर खुशियों के दरिया में आगे चल पड़ी । पर वक्त को दोस्तों की यह छोटी सी खुशी बर्दाश्त नहीं हुई और एकाएक उन दोस्त की कुंवारी नौजवान बेटी की दोनों आंखों की रोशनी एक हादसे में जाती रही। इन आंखों के कामयाब ऑपरेशन  के लिए 2 लाख रुपए  की दरकार  थी । एक गरीब फनकार इतनी बड़ी रकम कहां से जुटा सकता था पर किसी दोस्त के जरिए गगन  साहब को ये बात पता चली,उन्होंने उसी दिन बीस हजार रुपए अपने उसी दोस्त  को भिजवा दिये। अल्लाह की मेहर से बाकी रकम का भी वक्त रहते बन्दोबस्त  हो  गया और उस बेटी की आंखो का कामयाब ऑपरेशन  दिल्ली में हुआ। आंखो की रौशनी वापिस आ गई। बाद में जब उस दोस्त ने गगन साहब को इस मदद का शुक्रिया अदा करना चाहा तो इन्सान  की शक्ल मे जीने वाले उस फरिश्ते ने कहा,"कैसा "शुक्रिया ?, कैसी मदद? मैंने सिर्फ वो किया जो एक दोस्त को करना चाहिए था और जहां तक उस छोटी सी रकम की बात है,क्या वह मेरी बेटी नहीं है ?"और गगन साहब ने इस टाॅपिक पर फ़ुुलस्टाप लगा दिया। तो इतनी शानदार शख्सियत और आला किरदार  के मालिक थे गगन साहब !

 

मुझे याद है, 1970-71 के वो दिन जब के.जी.के.कालेज के इंग्लिश डिपार्टमेंट के प्रोफेसर मोयत्रा साहब के दौलतखाने पर एक माहनामी नशिस्त बज़्मे मसीह हुआ करती थी,जिसकी डायस सैक्रैटरीशिप गगन साहब सम्भालते थे ।इस हिन्दी,उर्दु की गंगा_जमुनी नशिस्त में मुरादाबाद और आसपास  के शहरों के कवि और शायर शिरकत किया करते थे. ये वो स्टेज था जिस  पर जनाब कमर मुरादाबादी साहब और अल्लामा कैफ मुरादाबादी को मैने एक साथ  पढते देखा । इस नशिस्त का आगाज  रात करीबन नौ बजे होता धा और  तड़के मुर्गे की बांग के साथ यह नशिस्त अपने अंजाम पर पहुंचती थी। इस नशिस्त में जनाब शाहाब मुरादाबादी,जनाब अख्तर आजिम साहब ,जनाब हिलाल रामपुरी, जनाब गौहर उस्मानी साहब, जनाब हुल्लड़ मुरादाबादी, जनाब मक्खन मुरादाबादी, जनाब प्रोफेसर महेंद्र प्रताप,जनाब ललित मोहन भारद्वाज साहब और इस मयार के और जाने कितने शोरा हाजरात अपने कलाम  सुनाया करते थे।गगन साहब इंकलाबी नज़्में कहते थे,हम सब सांस रोक कर उनका क़लाम सुनते थे। शायरी गगन साहब को अपनी अम्मी से विरासत में मिली थी। वो बहुत आलादरजे का क़लाम कहती थीं । उन्होंने ही शायरी की ए.बी.सी.डी.गगन साहब को समझायी थी।

मेरी जिन्दगी की इतनी सारी यादें गगन साहब  से वाबस्ता है कि अगर मैं उनको लिखने -समेटने बैठूं तो एक मुकम्मल दीवान बन सकता है। अब  मैं उस मनहूस दिन का जिक्र कर रहा हूं, जिस दिन गगन  से आया ये फरिश्ता हम सब को तन्हा छोड़कर चला गया। गगन साहब की तबीयत पिछले 6-7 माह से ख़राब थी और बिगड़ती जा रही थी मगर  उस शेरदिल इंसान ने हम दोस्तों को अपनी इस बीमारी और तकलीफ़ से कभी रुबरु होने ही न दिया जब ज़िन्दगी की लौ टिमटिमाने लगीं तो हमें मनोज रस्तोगी साहब से उनकी बीमारी की ख़बर मिली। मैं उन दिनों रोज रात को 8.30 बजे फ़ोन करके उनका हाल लेता था । कभी कभी भाभी साहिबा से भी बात हो जाती थी। मैं उनकी खैरियत रोज़ रात को नौ बजे मनोज रस्तोगी साहब, जनाब मक्खन मुरादाबादी  और बम्बई के जनाब विनोद गुप्ता साहब को बतलाता था। 

 न चाहते हुए भी आ गया, वो मनहूस दिन जब गगन  साहब अपना हाथ हमसे छुड़ा के जिस गगन से आए थे, वहीं लौट गए। मैंने जब ये मनहूस खबर मक्खन मुरादाबादी और उसके बाद जनाब विऩोद गुप्ता साहब को बतलाई तो ये दोनों साहेबान फ़ोन पर ही फ़ूट फूटकर रोने लगे। अपनी कैफि़यत को इस हादसे के इतने दिनों बाद भी बतलाने की हालत में मैं नहीं हूं । मेरी दुनिया 21 अक्टूबर 2022 को जहां थी, वहीं उसी लम्हे में ठहर गयी है।

  गगन साहब क्या गए, मेरी आधी ज़िन्दगी और मेरी रूह भी उनके साथ ही चली गई । मैं हूं यहीं,इसी दुनिया में टूटा हुआ और अधूरा। मेरे सिर के ऊपर बहुत ऊंचाई तक ख़ला है पर गगन नहीं।  


✍️
ए.टी.ज़ाकिर

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001 

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शुक्रवार, 6 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में आगरा निवासी) ए टी ज़ाकिर की नज़्म --मुजरिम


मेरे किरदार कॊ मगरूर कहने वाले,

मेरे शेरों की ज़ुबां तल्ख़ बताने वाले।

आ, मेरे दिल की ज़रा सैर करा दूं तुझको,

अपने ज़ख्मों के बागी़चे से मिला दूं तुझको।


मेरे माज़ी पे दगे दाग़ दर्द करते हैं,

दिल के नासूर हर इक सांस खूं उगलते हैं।

इसलिए शेर मिरे तल्ख़ ज़ुबां होते हैं,

उनके हर्फों में मिरे दर्द बयां होते हैं।


मैंने बचपन से ज़‌माने की है नफ़रत को जिया,

सिर्फ तौहीन सही और हिक़ारत को पिया।

इसलिए जब भी दिल के वलवले उबलते हैं,

कलम की नोंक से शोले-ग़िले निकलते हैं।


जिगर की सारी तल्ख़ी शेरों में उतरती है,

दिल की हर टीस, मेरी नज़्म में उभरती है।

उरियां जज़बातों को मैं पैरहन पहनाता नहीं,

साफ़ कहता हूं सच को मैं झुठलाता नहीं।


इसलिए बात मिरी तल़्ख नज़र आती है,

मिरे क़िरदार पे उंगली उठाई जाती है।

मिरा हर तंज़ उन्हें आईना दिखाता है,

जो हैं बदकार मगर सभ्य बने रहते हैं।


मेरे जज़वात के तेज़ाब से झुलसे चेहरे,

इसलिए जल के मुझे तल्ख़ ज़ुबां कहते हैं।


✍️ ए टी ज़ाकिर

आगरा

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी ज़ाकिर की कविता ---हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और


हम नींद में कविताएँ सुना रहे थे,

हमेशा की तरह औरतों की हंसी उड़ा रहे थे

कि भगवान जी ने कमरे में आकर हमें जगाया-

ऒर एक चांटा हमारे गाल पे लगाया 

बोले,"गधे ! मेरी बात ध्यान से सुन,

उसे अपने मन में बुन

औरत के बिना मर्द का जीवन अधूरा है,

और तू समझ रहा है कि जीवन आदमी से ही पूरा है

हर आदमी को चौबीसों घंटों

औरत की ज़रूरत होती है

सुबह सोकर उठने से लेकर सारे दिन, रात भर और फिर

सुबह औरत ही तेरे साथ होती है

तुझे औरतों का साथ और बात 

,लगता है बखेड़ा,

अबे ,तू सचमुच में है गधेड़ा !

तुझे विद्या,लक्ष्मी और शांति की कामना होती है,

उषा से संध्या तक फिर निशा

में सपना बनकर वो तेरे पास

होती है.

सुबह उठते ही तू कभी गायत्री, कभी गीता,कभी साधना करता है 

श्रद्धा, पूजा ,आरती और वन्दना के मंत्र जपता है

अपने कर्म के बदले में तू प्रतिष्ठा और कीर्ति चाहता है

और फिर भी  औरत को मज़ाक उड़ाने की चीज़ मानता है

अंधेरे में ज्योति, बुढ़ापे में प्रेम

और युद्धभूमि में वह विजया बनकर तेरे साथ होती है

इस तरह, हर समय, हर जगह, हर आयु में औरत तेरे

पास होती है

मां बेटी ,बहन, पत्नी, प्रेमिका बनकर वो तेरा साथ निभाती है

और अपने आप को देख नाशुक्रे,

वो तुझसे अपनी हंसी

उड़वाती है

हमने कहा,

ठीक है भगवन, पर आपसे एक सवाल है,

क्या आपके यहाँ देवलोक में भी यही हाल है ?

भगवान नेअपना मुकुट हटाकर सिर खुजाया,

और

फुसफुसा कर ये, सच बताया

भय्या ए.टी ज़ाकिर ,

देव लोक में भी हमारी बीबियों का यही हाल है

और मेरे जॆसे हर भगवान की

ज़िन्दगी मुहाल है

अब देख यार,आज सुबह ही

हमारी देवीजी ने बिना चाय- नाश्ते के हमें घर से निकाला हॆ,

और तुझे ठीक करके आने 

का फंदा हमारी गर्दन में डाला है

अब तेरी मरम्मत करके ही हमें देव लोक में वापिस जाना हॆ,

वरना बेटा ,आज चाय- नाश्ता, खाना कुछ नहीं पाना है

✍️ ए टी ज़ाकिर

आगरा

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में आगरा निवासी) ए टी ज़ाकिर की कविता पोस्टर ....


 ✍️ ए टी ज़ाकिर, फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001

मोबाइल फ़ोन नंबर। 9760613902,

847 695 4471.

मेल- atzakir@gmail.com

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी ज़ाकिर की कहानी -मोटी उलझन

 क्लिक कीजिए और सुनिये

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🎤ए टी ज़ाकिर

फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर

पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी

ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड

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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की ग़ज़ल ए टी ज़ाकिर के स्वर में


 


✍️डॉ कृष्ण कुमार नाज
🎤  ए टी ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी) ए टी ज़ाकिर की कविता --- नया कानून




✍️ ए. टी. ज़ाकिर

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सोमवार, 17 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की ग़ज़ल ए. टी. ज़ाकिर के स्वर में .....



🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
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गुरुवार, 6 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी) ए. टी. ज़ाकिर का गीत ----जीवन के पतझड़ में मन बसन्त आना .....


🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी जाकिर की रचना



🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2,फतेहाबाद रोड
आगरा-282 001
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847 695 4471.
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शुक्रवार, 26 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी जाकिर की रचना


🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2,फतेहाबाद रोड
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मंगलवार, 16 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी) ए. टी. ज़ाकिर की कविता ----अब सहर होने को है !


कुछ पहर और मेरी जां,मुझे जीना होगा,
तिरे ,इस ज़ुल्मों-सितम को मुझे पीना होगा.
तेरा हर ज़ुल्म मेरा हौसला बढ़ाता है,
हार तू जायेगा , इतना मुझे बताता है.
आज की रात सितम कर तुझे थक जाना है,
मुझको सहना है सितम, और मुझे बच जाना है.
काली लम्बी सही पर रात खत्म होती है,
ज़ुल्म की स्याही सिमिटती है,सुब्ह होती है.
खूब कुरेद मेरे घाव, मैं न चीखूंगा,
हार मानूंगा नहीं,अश्कों को मैं पी लूंगा.
तिरे इस ज़ुल्मो -सितम की मीयाद थोड़ी है,
कुछ घड़ी और है सहना, मेरी मजबूरी है.
मुझको उफ़ करना नहीं,ओंठ भींच लेने हैं,
अब मुझे दिखने वाले रॊशनी के घेरे हैं.
तू ज़ुल्म करके थक चुका,मगर मैं ज़िन्दा हूं,
आज पिंजड़ा है टूट जाना,वो परिन्दा हूं.
बस अभी आसमां में सुर्ख़ी उभर आयेगी,
हार जायेगा सितमगर,सहर हो जायेगी.
                                               
✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी जाकिर की कविता ---इन्होंने की बेईमानी है .....


य गुल  बेचते हैं, चमन बेचते हैं,
औ ज़रूरत पड़े तो कफ़न बेचते हैं |
ये कुरसी की ख़ातिर अमन बेचते हैं,
मेरा हिन्द – मेरा वतन बेचते हैं |
--तो अपने वतन के लोगों को इक बात बतानी है !
सर से अब गुज़रा पानी है,
इन्होंने की बेईमानी है |

सोने की चिड़िया भारत की अब इतनी पहचान है,
पर्वत से सागर तक भूखा – नंगा हिन्दुस्तान है |
रिश्वत का बाज़ार गर्म, और हाय ! दलाली शान है,
सुनकर गाली सा लगता है, यहाँ सुखी इंसान है |
--तो बात तरक्क़ी की करना एक ग़लतबयानी है !
बात हमको कह्लानी है,
इन्होंने की बेईमानी है |

बरसों से खाते आये हैं, पेट नहीं पर भर पाया,
पहले हिन्दू – मुस्लिम बांटे, फिर सिखों को उकसाया |
हक़ इनके हिस्से में आये, फ़र्ज़ है जनता ने पाया,
इस पर भी कुरसी डोली तो, बेशुमार को मरवाया |
--तो ऐसा लगता है कि होनी ख़तम कहानी है !
कि अब इक आँधी आनी है |
 इन्होंने की बेईमानी है |

जब तक तुम बांटे जाओगे गीता और क़ुरान में,
तब तक बांटेंगे तुमको ये दीन – मज़हब, ईमान में |
कभी लड़ायेंगे तुमको ये नक्सल के मैदान में,
मोहरा कभी बनायेंगे तुमको ये ख़ालिस्तान में |
--तो छोटी सी इक बात मुझे तुमसे मनवानी है !
कि  तुममें एकता आनी है,
तो उनकी कुरसी जानी है,
जिन्होंने की बेईमानी है |


✍️ ए. टी. ज़ाकिर
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