बुधवार, 31 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र का गीत उन्हीं के सुपुत्र अतुल मिश्र के स्वर में...

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष मदन मोहन व्यास की तीन कुंडलियां । ये प्रकाशित हुई थीं मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के वर्ष 9, अंक 23 ,रविवार 27 जून 1971 में


 

::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

सोमवार, 29 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष मदन मोहन व्यास का गीत---आजा तुझसे होली खेलूं । यह प्रकाशित हुआ था मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के वर्ष 10, अंक 19 ,रविवार 27 फरवरी 1972 में


 

:::::: : प्रस्तुति::::::  

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पुष्पेंद्र वर्णवाल की रचना । यह प्रकाशित हुई थी मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के वर्ष 10, अंक 19 ,रविवार 27 फरवरी 1972 में


 


::: :::प्रस्तुति:::::                                        
डॉ मनोज रस्तोगी                                            8, जीलाल स्ट्रीट                                            
मुरादाबाद 244001                                  
उत्तर प्रदेश, भारत                                          मोबाइल फोन नम्बर 9456687822                 






मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग की रचनाएं ।ये प्रकाशित हुई थीं मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के वर्ष 10, अंक 19 ,रविवार 27 फरवरी 1972 में । उस समय वह मच्छर मुरादाबादी उपनाम से लिखते थे ..........



मुरादाबाद की साहित्यकार (वर्तमान में जकार्ता इंडोनेशिया निवासी) वैशाली रस्तोगी की कविता ---- लगा कर रंग होली का तुम गीत ये गाना



 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कुण्डलिया ---


 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता -----अपनी मन जाएगी होली ....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार अखिलेश वर्मा की ग़ज़ल .....सजन को रंग से पूरा भिगोना आज होली है ...


 

मुरादाबाद के साहित्यकार विवेक आहूजा की कविता ---होली का हुड़दंग


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग के दोहे .....


 

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशौक रस्तोगी का गीत ---- दिन आये मधुमास के


 

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की रचना -----रंग जो जल से कभी धुलें न, आओ ऐसे रंग लगाएँ


होठों पर मुस्कान बिखेरें,

आँखों में विश्वास जगाएँ।

तुझ में,मुझ में,इस में,उस में

रंग जो भेद करा न पाएँ।

केवल कर में रखे रहें ना

मन के तन पर रच बस जाएँ।

रंग जो जल से कभी धुलें न,

आओ ऐसे रंग लगाएँ।

हेमा तिवारी भट्ट ,मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार कंचन खन्ना की कविताएं .......





 

रविवार, 28 मार्च 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल के साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा की कविता --------होली की घर-घर सजावट है, संस्कारों में आई खूब गिरावट है


आज शुद्ध विचारों का अभाव है,

लेकिन प्रदर्शन का अजीब चाव है,

होली की हमने भी दी हैं बधाईयां,

मगर सोचो! कैसा मन का भाव है?


होली की घर-घर सजावट है,

संस्कारों में आई खूब गिरावट है,

चोरों की मंडी में आई है बहार,

मावे में भी मैदा की मिलावट है।


फिर भी हमने गुजिया खाई है,

पुरखों की परम्परा निभाई है,

आज घर-घर में बैठी है होलिका,

फिर भी गोबर की होली जलाई है।


टेसू-गुलाल की केवल यादें रह गईं,

खीर-पूड़ी की फरियादें रह गईंं,

नहीं मिलते,अब भाई भी दिल से,

जलती होली की सूनी राते रह गईंं।

✍️ अतुल कुमार शर्मा, संभल

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार मरगूब अमरोही की ग़ज़ल ---शर्म से हो गए गाल गुलाबी फीके पड़ गए सारे रंग


 

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार के दोहे ----होली सबको बांध कर , कर देती है एक


फूलों की   वर्षा करें ,    सबके लिए वसंत ।

होली शुभ हो सभी को , खुशियां मिलें अनंत ।।


भारत में हैं जातियां  ,  मज़हब पंत अनेक ।

होली सबको बांध कर , कर देती है  एक  ।।


दुल्हन-सी धरती सजी ,  आया है मधुमास ।

जिसने जीवन में भरा , है अनुपम  उल्लास ।।


पूरी धरती ने किया ,     फूलों से श्रृंगार ।

भू से नभ तक हो गया , ख़ुशबू का संसार ।।


नई कौंपलें पा रही ,    धीरे से विस्तार ।

कलियां आंखें खोलकर , देख रहीं संसार ।।


फूल खिले हैं हर जगह , आई नई बहार ,

कुदरत ने हमको दिए  , नए-नए उपहार ।।


✍️ ओंकार सिंह'ओंकार' १- बी- २४१ बुद्धि विहार, मझोला, मुरादाबाद  ( उत्तर प्रदेश) २४४००१

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर की ग़ज़ल ----यह करिश्मा भी तो होली ने दिखाया है हमें .....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता की ग़ज़ल ----इस बार होली में


 

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का दोहा ----रंगों की अठखेलियाँ ....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के कवि विपिन शर्मा की रचना ---उठे मन में तरंग भंग संग देखो होली में .... –


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की रचना ---दहन कर अब बुराई का चलें हम सत्य के पथ पर ....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की कविता --------कवि गोष्ठी और कोरोना ....


इस बार होली पर

पत्नी ने हमें चौंका दिया,

पहली बार हमें होली की 

कवि गोष्ठियों में सहर्ष जाने दिया,

हमने उत्सुकतावश पूछा,

प्रिये, इस उदारता का कोई विशेष कारण,

क्या अब हम स्थापित करेंगे 

परस्पर विश्वास का नया उदाहरण।

बोलीं, ज्यादा उछलो मत, 

बंद करो खुश होना।

क्या भूल गये चारों ओर 

छा रहा है कोरोना 

जानती हूँ, तुम्हें रंगों से एलर्जी है।

होली पर छींकों की झड़ी लगी रहती है।

सारी गोष्ठी तुमसे तीन फीट दूर रहेगी।

कोई कवियित्री तुम्हारे गले नहीं पड़ेगी।

हम भी आसानी से कहाँ मानने वाले थे।

आखिर बीरबल के खानदान वाले थे।

तुरंत कहा, तुम भी अधूरी जानकारी रखती हो।

अरे कोरोना का वायरस

अल्कोहल से मरता है, 

इतना भी नहीं जानती हो

वहाँ तो अद्धे पौए का भी इंतजाम होगा।

और दारू के आगे कोरोना क्या करेगा।

इतना सुनना था कि उन्होंने 

अपने तेवर बदल लिये।

और हम भी गोष्ठी के लिये 

चुपचाप सरक लिये।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG-69,

रामगंगा विहार,

मुरादाबाद।

मोबाइल नं 9456641400

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता --आधुनिक होली


 1.

इक्कीसवीं सदी के प्रेमी ने

घर बैठे बैठे

रिमोट का बटन दबाया

सात तालों में बंद 

प्रेमिका के चेहरे पर

जम कर रंग लगाया

लेकिन प्रेमिका के

प्राकृतिक पक्के रंग पर

मिलावटी रंग

बिलकुल नहीं चढ़ पाया

इतना अवश्य हुआ

जब प्रेमिका ने

अपने गालों को छुआ

प्रेमी महोदय

पलंग पर लेटे लेटे

गुदगुदाने लगे

उनको पता नहीं क्या क्या

नीले पीले ख्वाब आने लगे


उधर प्रेमिका परेशान थी

यह किसकी शरारत है

सोच सोच हैरान थी

हालांकि उसके पास भी था

प्रेमी खोजक यंत्र

लेकिन उसे नही आता था

उसको चलाने का मंत्र

प्रेम के क्षेत्र में

अभी नई थी

यह यंत्र भी

उसकी सहेली देकर गई थी

उसने सहेली को फोन लगाया

फिर वो सब करा, जो उसने बताया

लेकिन उसकी सारी कोशिश

बेकार हो गई

प्रेमी के चेहरे पर

ऐसा रंग लगा था

कंप्यूटर उसको पहचान नहीं पाया

उसकी सारी प्रोग्रामिंग

तार तार हो गई।


2.

होली पर्व पर

कोरोना का ऐसा पड़ा साया

जो भी मिलने आया

हमने उसे अपने से

दो गज दूर बैठाया

गले लगाने के बजाए

जूते से जूता टकराया

रंग लगाने की इच्छा

इस तरह से पूरी करी

उनकी एक फ़ोटो ली

और तबियत से रंगी

उनको भी अपना

एक ब्लैक एंड व्हाइट

फोटो थमा दिया

उन्होंने बड़े प्यार से

उसको रंगीन बना दिया


डॉ पुनीत कुमार

आकाश रेसीडेंसी

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई का गीत -------ले हाथ आज पिचकारी, रंग दी साजन ने सारी




ले हाथ आज पिचकारी,

रंग दी साजन ने सारी।

मैं इकली बेचारी,

यूँ लाख सुनाई गारी ।

नहीं आज की बात-

सजन से बार बार में हारी।

ले हाथ ---------------------।।

अपने जैसा कर डाला ,

हा! ज़रा न देखा भाला।

वो दिया प्रेम का प्याला,

कर दिया मुझे मतवाला।

सखियां देती हैं उलाहने,

कितनी है लाचारी।

ले हाथ -----------------।।

आया लेके जो गुलाल,

खुश हो के मुझ पर डाल।

रंगों से कर दे मुझको लाल,

अरमां दिल के सभी निकाल।

इतना रंग दे आज बलम तू ,

देखे दुनिया सारी।

ले हाथ -------------।।

कितना अच्छा मेरा भाग,

साजन के साथ खेलती फ़ाग।

सोये अंग उठे हैं जाग,

सुना दे कोई मीठा राग।

तू है कृष्ण कन्हैया जैसा,

मैं राधा सी प्यारी।

ले हाथ--------------।।

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद

                   

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार चंद्रकला भागीरथी का गीत ----कान्हा संग होली खेलें राधा रानी


कान्हा संग होली।

खेलें राधा रानी।।

अबीर गुलाल कान्हा लगाये।

राधा इत उत दौडी जाये।

राधा को रंग भर मारे।

कनक पिचकारी।।

कान्हा संग होली ।

खेलें राधा रानी।।


गोपी संग ग्वाला धूम मचाये।

सब एक दूजे को रंग लगाये।

रंग भर भर मारे पिचकारी।।

कान्हा संग होली ।

खेलें राधा रानी।।


वृन्दावन में रास रचाये।

गोकुल में सब सुध बिसराये।

यशोदा मैया ढुढन जारी।

कान्हा संग होली

खेलें राधा रानी।

चन्द्र कला भागीरथी, धामपुर, जिला बिजनौर

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा की रचना ---- दही बड़े और गुंजिया खाकर होली में हम धूम मचाएं



सूरज उजला उजला घूमे दिन भी अब फूला न समाय 

धूप हवा में इतराती है मादक गंध जो फैली जाय ।

सर्दी की ठिठुरन की सी -सी हडियन को न और सताए

सूर्य देव की अनुकम्पा से धरती उपवन सी सरसाय ।

आया ऋतुराज बसन्त सुनो अवनि का आंचल लहराए 

होली खेलें अब मस्ती से ऋतु बसन्त सु मन हरषाए ।

दही बड़े और गुंजिया खाकर होली में हम धूम मचाएं

मुक्त रहें अब सभी नशे से होली की गरिमा न जाए ।

✍️ मनोरमा शर्मा , अमरोहा ।

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) की साहित्यकार रेखा रानी की रचना ----बरसाने की ओ री गुजरिया , हमको रंग लगिइयो आय


 बरसाने की ओ री गुजरिया , 

हमको रंग लगिइयो आय।

ओ कान्हा सुनो बात हमारी , 

धौंस काहू की सहती नाय।

जो चाहो  हमरे रंग रंगना,

 मोरे पिता से कहियो आय।

इत उत काहे तकते डोलो,

हाथ मांग लियो सीधे आय।

फ़िर भीजैगो तन - मन मेरौ,

 श्यामल रंग राधा रंग जाय।

रेखा लेकर प्रेमी पिचकारी,

अमर प्रीत की रीत निभाय।

✍️ रेखा रानी, गजरौला ,अमरोहा 

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार चंद्रकला भागीरथी की कविता ---रंगों के नशे में झूमते नर नार


 होली का है पर्व निराला।

सबके मन को हरने वाला।।


मीठे व्यंजनों की भरमार।

सभी के घरों मे आती बहार।।


कई रंगों की होती होली।

लाल, गुलाबी, नीली, पीली।।


कहीं फूलों से खिलती होली।

कहीं गुलाल पानी की धार।।


एक दूसरे के गले मिलकर।

सभी होते है मस्ती में चूर।।


एक दूसरे को देते बधाई।

प्यार करते है भर पूर।।


और मथुरा की महिलायें।

होली खेलती डंडे मार।।


गाने गाते ढोल नगाड़े बजाते।

रंगों के नशे में झूमते नर नार।।


पाप पर पुण्य की होती जीत।

भागीरथी कहती अपने गीत।।


होली का है पर्व निराला।

सबके मन को हरने वाला। 

✍️चन्द्र कला भागीरथी, धामपुर, जिला बिजनौर उतर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यन्त बाबा की रचना ----हमें वो नजरों से ही रंग गई .....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के दोहे --- मोबाइल पर ही सखे मलना अभी गुलाल ....


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कविता ------रंग -बिरंगे रंगों संग , होली लाई एक नई उमंग .....

रंग -बिरंगे रंगों संग ,

होली लाई एक नई उमंग ,

हर तरफ हुड़दंग मचा है भारी ,

इसलिए तो होली होती है न्यारी ,

      राग - द्वेष सब भूल जाते ,

      होली पर जब रंग लगाते ,

      हवा में एक खुमारी छाई ,

      चारों ओर मस्ती है छाई ,

गुंजिया ,कचरी की खुशबू से ,

चहु दिशाएँ महकी हैं ,

बिन इनके देखो प्यारे ,

होली की दावत भी अधूरी है ,

✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार,  मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा का गीत -------ये जीवन होली सा हो जाए ,बस हँसी , खुशी और ठिठोली हो


 

    उड़ने लगे जब सतरंगी रंग

              मन भी पहने प्रीत का रंग

    खुशियों की बाजे मृदंग

         

        "समझो जग की होली है" 

    

     सांझे हो जब सुख सबके

              और पीड़ा सबकी सांझी हो 

    "मैं"-"तुम" जब  "हम"  बन जाएंँ 

              हर इक जब हमजोली हो 

          

       "समझो जग की होली है" 

     

     जीवन के रंग बदरंग ना हों 

             मन में द्वेष की भंग ना हो

    कपट कलेश का संग ना हो 

            बस प्रेम की मिश्री घोली हो" 

         

         "समझो जग की होली है" 

    

    "मैं" हँसूंँ तो सारे मुस्कुराएँ

            "सब" हँसें तो मैं भी इतराऊँ

    जब सबने एक दूसरे में 

           इक-दूजे की सारी खुशियों में 

    अपनी ही जन्नत पा ली हो 

          

       "समझो जग की होली है" 

   

    कुछ भूलो भी , कुछ माफ़ करो 

            ये जीवन है , आगे तो बढ़ो 

    कोई पल इसका बरबाद ना हो 

            हर क्षण को बस रंगों से भरो 

     ग़र  इंद्रधनुष बन जाओ सब 

          

        "समझो जग की होली है" 

    

    "इस बार अबीर ना बरसाओ" 

          "ना गुलाल की मुझको चाहत है" 

   "इस बार दिलों में रंग घुले" 

         "और हर दिल पर कुछ ऐसा चढ़े" 

   "ये जीवन होली सा हो जाए" 

        "बस हँसी , खुशी और ठिठोली हो" 

       

       "तो समझो जग की होली है 

        तो समझो जग की होली है"

  ✍️ सीमा वर्मा, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ सुधा सिरोही की कविता ---- रंग बिरंगी आई होली


 

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु की ग़ज़ल -----आइए होली है मिलिए रंज दिल के भूल कर .....


जिंदगी की कशमकश में अब उलझ कर रह गए,
रंग क्या त्योहार क्या ये सब उलझ कर रह गए,,

फूल कलियां पेड़ पौधों पर बहारें खूब हैं,
पर यहां इंसान के करतब उलझ कर रह गए,,

आइए होली है मिलिए रंज दिल के भूल कर,
क्या अभी तक दूर ही साहब उलझ कर रह गए,,


जिंदगी की कशमकश में जब उलझ कर रह गए,
आप जो आसान थे वो सब उलझ कर रह गए,,

ज़ोम में जिस वक्त थे उस वक्त कुछ मसला न था,
अब हमें तौफ़ीक है.. पर अब उलझ कर रह गए,

जान कर ये बात.. किन हालात में वो शख्स था,
जो गिले-शिकवे थे जेरे लब उलझ कर रह गए,,

बस सियासत में पंगी फिरका परस्ती है यहां,
अब कहां इंसानियत मजहब उलझ कर रह गए,,

बस दरारें आ गई दोनों दिलों के दरमियां,
मुस्कुराने के सभी मतलब उलझ कर रह गए,,

जान ही ले ली हमारी आपके अंदाज ने,
 क्या कहें क्या ना कहें ये लब उलझ कर रह गए,,

और फिर कुछ भी न हल निकला मिरी तदबीर का,
हाथ में जितने थे सब करतब उलझ कर रह गए,,

सीखने भेजूं कहां बच्चे को मैं इंसानियत,
हाल ये  इस बात पर मकतब उलझ कर रह गए,
 
✍️ मनोज ' मनु  ' मुरादाबाद                       


 

शनिवार, 27 मार्च 2021

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) से डॉ अनिल शर्मा अनिल द्वारा संपादित अनियतकालीन ई-पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का होली विशेषांक 53 ( 25-03-2021)-----

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मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट का व्यंग्य -------नया रोजगार समाज सेवा


         "विश्व में दूसरे नम्बर की जनसंख्या का पोषण करने वाली भारतभूमि अनेक पोषक तत्वों से भरपूर है,अन्नपूर्णा है और प्रत्येक उद्यमी युवा कुटुम्बी के लिए इसके पास रोजगार के अवसर ही अवसर हैं।"

            श्रीमान चौबे जी अपना ज्ञान बखार रहे थे।वे ज्ञान का असीम भण्डार रखते हैं।समय तो उनका अपना लंगोटिया यार है,हर समय उनके पास रहता है।समय की नौकरी नामक सौत से उनका गौना अब तक नहीं हुआ है।इसीलिए शहर के हर आयोजन में वह समय के साथ होते हैं और हर आयोजन उनका यह कर्ज उन्हें नये-नये बकरों की भेंट के साथ चुकाता है।इन बकरों की बलि वे अपने नये समाज सेवा रूपी अनुष्ठान में चढ़ाते हैं।

            मुँह में हर वक्त चाशनी सी घुली रखने वाले,गली मोहल्लों की हर छोटी समस्या से लेकर वैश्विक राजनीति तक की बड़ी खबरों के विशेषज्ञ श्री चौबे जी,बेरोजगारी को समस्या नहीं मानते हैं, बेरोजगार को मानते हैं।उनकी दृष्टि में बेरोजगार का मतलब वह अकर्मण्य व्यक्ति है,जो अवसर भुनाने का सलीका नहीं जानता,जिसे समाज सेवा नहीं आती।उनके मत में आज के समय में समाज सेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं,पर उनके पड़ोसी गुप्ता जी को यह बात निपट विरोधाभासी लगती है।

            गुप्ता जी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक, नौकरीपेशा व्यक्ति हैं।बहुत ही नेक और सज्जन हैं।नौकरी और घर के कामों को निभाते हुए रोज शाम का थोड़ा समय चुरा कर चौबे जी के शरणागत होते हैं और देश की समस्याओं पर विलाप करते हैं। हालांकि उनका स्वयं का जीवन खुशहाल है।पर रोने की आदत का कोई क्या करे?अब सब चौबे जी तो होते नहीं कि बेरोजगारी के बावजूद हर हाल खुशहाल।

            एक दिन गुप्ता जी ने करूण स्वर में पूछा,"चौबे जी,आप ये बताइये जो व्यक्ति बेरोजगार हो,जिसके अपने रहने खाने का कोई जुगाड़ न हो,कोई जमा-पूंजी न हो।वह क्या समाज सेवा करेगा? मुझे आपकी यह अवसर ही अवसर वाली बात बिल्कुल समझ नहीं आती।"

            "भाई गुप्ता, तुम्हें....मैं समझ में आता हूँ?" चौबे जी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ गुप्ता जी की ओर देखा।गुप्ता जी ने हथियार डाल देने वाली दयनीय मुद्रा में हाथ जोड़कर कहा,"नहीं,प्रभु।" 

            "तो तुम्हारे बस का नहीं है इस गूढ़ तत्व को समझना।"चौबे जी ने गम्भीरता का भाव ओढ़ते हुए कहा फिर तुरन्त गला खराश कर आगे कहना जारी रखा," फिर भी तुम्हें वह गहन ज्ञान सांकेतिक बताने का प्रयास करता हूँ,जिसे भगवान कृष्ण भी गीता में वाचन से रह गये या यह कह सकते हैं उनकी इसी अनुकम्पा से मुझे इस कलियुग में यह ज्ञान बाँटने का अवसर मिला है।"

            गुप्ता जी गद्गद् होकर अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हुए और करबद्ध विनीत होकर चौबे जी की तरफ भक्तिसिक्त दृष्टि से देखने लगे।चौबे जी ने कृष्णवत् तर्जनी हवा में उठायी और समझाया,"सुनो गुप्ता!कलियुग में समाजसेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं।यह वह रोजगार है जिसमें केवल तुम्हारी वक्तृत्व कला ही तुम्हारी योग्यता है।तुम नि:संकोच याचना करने का गुण रखते हो तो यह तुम्हारी अतिरिक्त योग्यता है।बेरोजगार होना तुम्हारी पूँजी है,क्योंकि इस रोजगार के लिए जिस चीज की परम आवश्यकता है वह है समय और बेरोजगार के पास ही तो समय की उपलब्धता होती है।"

            "लेकिन निरा समय लगाने से क्या होगा,गुरूवर?",

          गुप्ता जी अभी भी अज्ञान रूपी अंधकार में घिरे हैं।लेकिन चौबे जी निर्विकार भाव से ज्ञान गंगा को अपने मुख कमण्डल से मुक्त करते हैं,"बेरोजगार केवल अपना समय लगाता है और रोजगार में लगे लोगों से प्रशस्ति पत्र और विशिष्ट अतिथि बनाये जाने के नाम पर धन उगाही करता है।"

"लेकिन कोई समझदार धनिक, बेरोजगार को अपना धन आखिर क्यों कर देगा?"गुप्ता जी अभी भी संशय के बादलों से घिरे हैं।पर चौबे जी तर्क की तलवार से इन बादलों को छाँटते हुए आगे बढ़ते हैं,"क्योंकि उन लोगों के पास समय नहीं है,पर समाजसेवा का मन है या यह कहिए विशिष्ट अतिथि बनने का और समाजसेवा का प्रशस्ति पत्र पाने का लालच तो है।इसी लालच के वशीभूत वे सहर्ष वह धनराशि समाजसेवा के बेरोजगार आयोजक को भेंट कर देते हैं,जिसका वह आग्रह करता है।" गुप्ता जी के चेहरे पर असहायता का भाव है,चौबे जी संकटमोचक बन इशारों से उन्हें समस्या रखने को कहते हैं।गुप्ता जी प्रश्न सरकाते हैं,"पर गुरुवर,यह धनराशि तो समाजसेवा में लग जायेगी फिर बेरोजगार को क्या फायदा होगा?" चौबे जी मुस्कुराते हुए गूढ़ रहस्य समझाते हैं,"गुप्ता जी,यह सहृदय बेरोजगार आयोजक आंँकड़ों के खेल में भी पारंगत होना चाहिए जिससे वह समाजसेवा की लागत,आयोजन का खर्च और अपनी अतिरिक्त कमाई सब आसानी से कुशलतापूर्वक मैनेज कर ले।इस तरह समाज सेवा रूपी रोजगार जहाँ बेरोजगार का पालन पोषण करता है वहीं अन्य रोजगार में लगे लोगों को भी कुछ मुद्राओं के खर्चे पर समाचार पत्रों के पृष्ठ पर महान समाजसेवी के रूप में छपने का आनन्द प्रदान करता है।इसीलिए तो मेरा गुरू मंत्र है, 'समाजसेवा मतलब चोखा धन्धा' "

            गुप्ता जी की आँखे अब खुल चुकी थी,उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया था और असीम संतोष की झलक उनके मुखमण्डल पर चमक रही थी।इस परमज्ञान के लिए गुरुदक्षिणा ही समझकर उन्होंने चौबे जी के आगामी निःशुल्क कम्बल वितरण के कार्यक्रम में सहभागिता शुल्क के रूप में 260 रूपये प्रति की दर वाले कम्बल हेतु 500 रूपये का एक करारा नया नोट अग्रेषित किया।चौबे जी ने बड़ी विनम्रता से राशि ग्रहण की और गुप्ता जी की पीठ थपथपाई।फिर उठकर कमरे की मेज पर रखे फ्लेक्स और प्रशस्ति पत्र में मोटे अक्षरों में कई सहयोगियों की सूची में श्री गुप्ता जी का भी नाम दिखाते हुए अर्थपूर्ण मुस्कान लुटायी।भावविभोर होकर यश सुख की कल्पना करते हुए अब गुप्ता जी अपने घर की ओर बढ़ चले थे।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का व्यंग्य ----अथ माला महात्म्य


आजकल प्रत्येक कार्यक्रम में माला की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कार्यक्रम का शुभारंभ भी सरस्वती जी को माला पहनाए बगैर नहीं होता। मंच पर बैठने वालों के गले में भी जब तक माला सुशोभित न हो तब तक कार्यक्रम की शुरुआत नहीं होती। यहाँ माला पहनने वाला ही नहीं माला पहनाने वाला भी खुद को कुछ विशेष समझने लगता है या यों कह लीजिए कि संतोष कर लेता है कि चलो पहनने वालों में नही तो पहनाने वालों में ही सही, नाम तो आया।  माला पहनाकर वह फोटू अवश्य खिंचवाता है ताकि सनद रहे।
जिन्हें माला पहनने पहनाने का सौभाग्य नहीं मिलता वह ऐसे ही नाराज नाराज से बैठे रहते हैं जैसे शादी वाले घर में फूफा रहता है। उनकी पैनी दृष्टि कार्यक्रम के संचालन व अन्य व्यवस्थाओं का छिद्रान्वेषण करने में लगी रहती है और संयोग से कुछ कमी रह गई तो उनकी आत्मा को परम संतोष की अनुभूति होती है। आखिर कार्यक्रम की निंदा का कुछ मसाला तो मिला।
कभी कभी माला पहनने वाले इतने अधिक हो जाते हैं कि कार्यक्रम के संचालक भी सभी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते, और असमंजस रहता है कि कहीं रामलाल की माला श्याम लाल के गले न पड़ जाये, असमंजस माला पहनाने वाले के चयन को लेकर भी रहता है कि कहीं माला पहनाने वाले और पहनने वाले में छत्तीस का आंकड़ा न हो, और यज्ञ की अग्नि में घी की आहुति पड़ जाए।
एक कार्यक्रम में ऐसी ही परिस्थिति से निपटने का संचालक महोदय ने बड़ा नायाब तरीका निकाला। उन्होंने  कहा माला पहनने वालों को ढूँढने में देर हो रही है इसलिये सबके नाम की मालाएं अध्क्षक्ष महोदय को पहना दी जायें और सभी माला पहनने वाले समझ लें कि उन्हें माला पहना दी गई।  भला ये भी कोई व्यवस्था हुई, हमारे नाम का माल्यार्पण भी हो गया, लेकिन जो दिखा ही नहीं वह कैसा माल्यार्पण।
आजकल एक परंपरा और चल पड़ी है। मंच पर काव्यपाठ करने वाले कवि जी की वाह वाह करने के साथ साथ बार बार आकर माला पहनाने वालों की होड़ लगी रहती है।  अब इतनी सारी मालाएं तो कोई मँगवाता नहीं है, अत: कविगणों की पहनी हुई मालाएं, जो परंपरानुसार कविगण गले से उतारकर सामने रख देते हैं, वही उठाकर काव्यपाठ करनेवाले कवि को पहना दी जाती है, वह भी बेचारा उस उतरी हुई माला को मजबूरी में पहन लेता है, और फिर उतारकर माइक पर लटका देता है, लेकिन माला भी इतनी ढीठ होती है कि थोड़ी देर बाद फिर गले पड़ जाती है। ऐसी मालाओं का कोई चरित्र नहीं होता। ये प्रत्येक माइक पर आनेवाले के गले पड़ जाती हैं।
इनके पास अपनी मूल गंध भी नहीं रहती हैं। विभिन्न गलों में पड़ते उतरते इनमें विभिन्न प्रकार के हेयर आयल, परफ्यूम, पान मसालों की गंध आने लगती है और जैसे जैसे कवि सम्मेलन आगे बढ़ता है, इनमें दारू से लेकर मुख से टपकी लार की भी गंध आने लगती है, कभी कभी माइक के स्टैंड पर लगा मोबिल आयल भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।
मुझे स्वयं ऐसी मालाओं से कई बार जूझना पड़ा है, जो जबरन गले पड़ती हैं। भला इनका भी कोई चरित्र है। लेकिन भाईसाहब ये सार्वजनिक रूप से गले पड़ती हैं, इनके साथ पहनाने वाले की आन बान और शान जुड़ी होती है, इसलिये इन्हें मजबूरी में पहनना भी पड़ता है। इन्हीं से कवि का स्टैंडर्ड भी पता चलता है। जितनी अधिक मालाएं गले में पड़ती हैं, उतना ही बड़ा कवि माना जाता है। कवि को भी यह भ्रांति रहती है कि संभवत: मालाओं की संख्या के अनुसार लिफाफे का आकार भी बढ़ जाये।
माला से जुड़ा हुआ ही एक और रोचक प्रसंग याद आ गया।
एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के संयोजन में एक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था।
उक्त कवि सम्मेलन के दौरान जब कविगण काव्यपाठ कर रहे थे तब एक सज्जन जो शायद आयोजन की व्यवस्था की निगरानी से जुड़े थे, माला लेकर धीरे धीरे सकुचाते मुस्कुराते हुए आते, और काव्य पाठ करते हुए कवि को माला पहनाकर चले जाते थे। 
इसी क्रम में जब एक कवियित्री काव्यपाठ कर रही थीं, तब भी वह माला लेकर मुस्कुराते हुए मंथर गति से आये और जब तक कवियित्री हाथ बढ़ाकर माला लेतीं, उन्होंनें माला उनके गले में डाल दी। कवियित्री जी भी थोड़ी असहज हुईं। इस अप्रत्याशित स्थिति को मंच से अध्यक्ष महोदय ने ये कहकर सम्हाला कि इन्हें शायद पता नहीं है कि महिलाओं को माला पहनायी नहीं जाती है बल्कि हाथ में सौंप दी जाती है।  आनंद तो तब आया जब उस के बाद स्वयं अध्यक्ष महोदय काव्यपाठ के लिये आये, जब वह काव्यपाठ कर रहे थे, तब वह फिर धीरे धीरे मुस्कुराते हुए आये और अध्यक्ष महोदय को माला पहनाने की बजाय उनके  हाथ में थमाकर चले गये।
यह देखकर दर्शकों में हँसी का फव्वारा छूट गया। वस्तुत: इतना हास्य तो हास्य कवियों की प्रस्तुति पर भी नहीं उपजा, जितना इस प्रकरण से उपजा।
वास्तव में माला आज के युग में प्रत्येक आयोजन की मूलभूत आवश्यकता बन गई है। इसलिये भूलकर भी माला की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रही बात हमारी तो हमें तो आज तक एक ही माला अच्छी लगी, जो शादी के समय हमारी श्रीमती जी ने पहनायी थी और जो आज तक उन्होंने संदूक में संभालकर रखी हुई है।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
MMIG - 69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास की कृति "हमारा घर" । उनकी यह कृति वर्ष 1978 में व्यास बन्धु प्रकाशन कटघर पचपेड़ा से प्रकाशित हुई थी । इसमें उनके सोलह गीत संगृहीत हैं । इसका मुद्रण प्रभायन प्रिंटर्स मुरादाबाद से हुआ था ।


 
 

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:::::::::;प्रस्तुति :::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822