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शुक्रवार, 5 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र द्वारा किया गया श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय दो का काव्यानुवाद ------

धृतराष्ट्र के सारथी संजय ने धृतराष्ट्र से सैन्यस्थल का आँखों देखा हाल कुछ इस तरह कहा। 

अर्जुन ने श्री कृष्ण से , किया शोक संवाद।

नेत्र सजल करुणामयी ,तन-मन भरे विषाद।। 1

श्री कृष्ण भगवान उवाच

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प्रिय अर्जुन मेरी सुनो, सीधी सच्ची बात।

यदि कल्मष हो चित्त में, करता अपयश घात।। 2


तात नपुंसक भाव है, वीरों का अपमान।

उर दुर्बलता त्यागकर, अर्जुन बनो महान।। 3


अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा

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हे!मधुसूदन तुम सुनो, मेरे मन की बात।

पूज्य भीष्म,गुरु हनन से, उन पर करूँ न घात।। 4


पूज्य भीष्म,गुरु मारकर, भीख माँगना ठीक।

गुरुवर प्रियजन श्रेष्ठ हैं, ये हैं धर्म प्रतीक।। 5


ईश नहीं मैं जानता,क्या है जीत-अजीत।

स्वजन बांधव का हनन, क्या है नीक अतीत।। 6


कृपण निबलता ग्रहण कर, भूल गया कर्तव्य।

श्रेष्ठ कर्म बतलाइए, जो जीवन का हव्य।। 7


साधन अब दिखता नहीं, मिटे इन्द्रि दौर्बल्य।

भू का स्वामी यदि बनूँ, नहीं मिले कैवल्य।। 8


संजय ने धृतराष्ट्र से इस तरह भगवान कृष्ण और अर्जुन का संवाद सुनाया

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मन की पीड़ा व्यक्त कर, अर्जुन अब है मौन।

युद्ध नहीं प्रियवर करूँ, ढूंढ़ रहा मैं कौन।। 9


सेनाओं के मध्य में, अर्जुन करता शोक।

महावीर की लख दशा, कृष्ण सुनाते श्लोक।। 10


श्री भगवान ने अर्जुन को समझाते हुए कहा 


पंडित जैसे वचन कह, अर्जुन करता शोक।

जो होते विद्वान हैं, रहते सदा अशोक।। 11


तेरे-मेरे बीच में,जन्मातीत अनेक।

युद्ध भूमि में जो मरे, लेता जन्म हरेक।। 12


परिवर्तन तन के हुए, बाल वृद्ध ये होय।

जो भी मृत होते गए, नव तन पाए सोय।। 13


सुख-दुख जीवन में क्षणिक,ऋतुएँ जैसे आप।

पलते इन्द्रिय बोध में, धैर्यवान सुख- पाप।। 14


पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन सुनो, सुख-दुख एक समान।

जो रखता समभाव है, मानव वही महान।। 15


सार तत्व अर्जुन सुनो, तन का होय विनाश।

कभी न मरती आत्मा, देती सदा प्रकाश।। 16


अविनाशी है आत्मा, तन उसका आभास।

नष्ट न कोई कर सके, देती सदा उजास।। 17


भौतिकधारी तन सदा, नहीं अमर सुत बुद्ध।

अविनाशी है आत्मा, करो पार्थ तुम युद्ध।। 18


सदा अमर है आत्मा , सके न हमें लखाय।

वे अज्ञानी मूढ़ हैं, जो समझें मृतप्राय।। 19


जन्म-मृत्यु से हैं परे, सभी आत्मा मित्र।

नित्य अजन्मा शाश्वती, है ईश्वर का चित्र।। 20 


जो जन हैं ये  जानते, आत्म अजन्मा सत्य।

अविनाशी है शाश्वत, कभी ना होती मर्त्य।। 21


जीर्ण वस्त्र हैं त्यागते, सभी यहाँ पर लोग।

उसी तरह ये आत्मा, बदले तन का योग।। 22


अग्नि जला सकती नहीं, मार सके न शस्त्र।

ना जल में ये भीगती, रहती नित्य अजस्र।। 23


खंडित आत्मा ही सदा, है ये अघुलनशील।

सर्वव्याप स्थिर रहे, डुबा न सकती झील।। 24


आत्मा सूक्ष्म अदृश्य है, नित्य कल्पनातीत।

शोक करो प्रियवर नहीं, भूलो तत्व अतीत।। 25


अगर सोचते आत्म है, साँस-मृत्यु का खेल।

नहीं शोक प्रियवर करो, यह भगवन से मेल।। 26


जन्म धरा पर जो लिए, सबका निश्चित काल।

पुनर्जन्म भी है सदा,ये नश्वर की चाल।। 27


जीव सदा अव्यक्त है, मध्य अवस्था व्यक्त।

जन्म-मरण होते रहे, क्यों होते आसक्त।। 28


अचरज से देखें सुनें, गूढ़ आत्मा तत्व।

नहीं समझ पाएं इसे, है ईश्वर का सत्व।। 29


सदा आत्मा है अमर, मार सके ना कोय।

नहीं शोक अर्जुन करो, सच पावन ये होय।। 30


तुम क्षत्रिय हो धनंजय, रक्षा करना धर्म।

युद्ध तुम्हारा धर्म है, यही तुम्हारा कर्म।। 31


क्षत्री वे ही हैं सुखी, नहीं सहें अन्याय।

युद्धभूमि में जो मरे, सदा स्वर्ग वे पाय।। 32


युद्ध तुम्हारा धर्म है, क्षत्रियनिष्ठा कर्म।

नहीं युद्ध यदि कर सके, मिले कुयश औ शर्म।। 33


अपयश बढ़कर मृत्यु से, करता दूषित धर्म।।

हर सम्मानित व्यक्ति के, धर्म परायण कर्म।। 34


नाम, यशोलिप्सा निहित, चिंतन कैसा मित्र।

युद्ध भूमि से जो डरे, वह योद्धा अपवित्र।। 35


करते हैं उपहास सब,निंदा औ' अपमान।

प्रियवर इससे क्या बुरा, जाए उसका मान।।36


यदि तुम जीते युद्ध तो, करो धरा का भोग।

मिली वीरगति यदि तुम्हें, मिले स्वर्ग का योग।।37


सुख-दुख छोड़ो मित्र तुम, लाभ-हानि दो छोड़।

विजय-पराजय त्यागकर, कर्म करो उर ओढ़।।38


करी व्याख्या कर्म की, सांख्य योग अनुसार।

मित्र कर्म निष्काम हो, उसका सुनना सार।।39


भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का महत्व बताया

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कर्म करें निष्काम जो, हानि रहित मन होय।

बड़े-बड़े भय भागते, जीवन व्यर्थ न होय।।40


दृढ़प्रतिज्ञ जिनका हृदय, वे ही पाते लक्ष्य।

मन जिनका स्थिर नहीं, रहते सदा अलक्ष्य।।41


वेदों की आसक्ति में, करें सुधीजन पाठ।

जीवन चाहे योगमय, ऐसा जीवन काठ।।42


इन्द्रिय का ऐश्वर्य तो, नहीं कर्म का मूल।

करें कर्म निष्काम जो, मानव वे ही फूल।।43


सुविधाभोगी जो बनें, इन्द्रि भोग की आस।

ईश भक्त ना बन सकें, रहता दूर प्रकाश।।44


तीन प्रकृति के गुण सदा,करते वेद बखान।

इससे भी ऊँचे उठो, अर्जुन बनो महान।।45


बड़ा जलाशय दे रहा, कूप नीर भरपूर।

वेद सार जो जानते, वही जगत के शूर।।46


करो सदा शुभ कर्म तुम,फल पर ना अधिकार।

फलासक्ति से मुक्त उर, इस जीवन का सार।।47


त्यागो सब आसक्ति को , रखो सदा समभाव।

जीत-हार के चक्र में, कभी न दो प्रिय घाव।।48


ईश भक्ति ही श्रेष्ठ है, करो सदा शुभ काम।

जो रहते प्रभु शरण में, होता यश औ नाम।।49


भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, रहता जीवन मुक्त।

योग करे, शुभ कर्म भी, वह ही सच्चा भक्त।।50


ऋषि-मुनि सब ही तर गए, कर-कर प्रभु की भक्ति।

जनम-मरण छूटे सभी, कर्म फलों से मुक्ति।।51


मोह त्याग संसार से, तब ही सच्ची भक्ति।

कर्म-धर्म का चक्र भी, बन्धन से दे मुक्ति।।52


ज्ञान बढ़ा जब भक्ति में, करें न विचलित वेद।

हुए आत्म में लीन जब, मन में रहे न भेद।।53


श्रीकृष्ण भगवान के कर्मयोग के बताए नियमों को अर्जुन ने बड़े ध्यान से सुना और पूछा--


अर्जुन बोला कृष्ण से, कौन है स्थितप्रज्ञ।

वाणी, भाषा क्या दशा, मुझे बताओ सख्य।।54


श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को फिर कर्म और भक्ति का मार्ग समझाया

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मन होता जब शुद्ध है, मिटें कामना क्लेश।

मन को जोड़े आत्मा, स्थितप्रज्ञ नरेश।।55


त्रय तापों से मुक्त जो, सुख - दुख में समभाव।

वह ऋषि मुनि-सा श्रेष्ठ है, चिंतन मुक्त तनाव।।56


भौतिक इस संसार में, जो मुनि स्थितप्रज्ञ।

लाभ-हानि में सम दिखे , वह ज्ञानी सर्वज्ञ।।57


इन्द्रिय विषयों से विलग, होता जब मुनि भेष।

कछुवा के वह खोल-सा, जीवन करे विशेष।।58


दृढ़प्रतिज्ञ हैं जो मनुज, करे न इन्द्रिय भोग।

जन्म-जन्म की साधना, बढ़े निरंतर योग।।59


सभी इन्द्रियाँ हैं प्रबल, भागें मन के अश्व ।

ऋषि-मुनि भी बचते नहीं, यही तत्व सर्वस्व।।60


इन्द्रिय नियमन जो करें, वे ही स्थिर बुद्धि।

करें चेतना ईश में, तन-मन अंतर् शुद्धि।61


विषयेन्द्रिय चिंतन करें, जो भी विषयी लोग।

मन रमताआसक्ति में, बढ़े काम औ क्रोध।।62


क्रोध बढ़ाए मोह को, घटे स्मरण शक्ति।

भ्रम से बुद्धि विनष्ट हो, जीवन दुख आसक्ति।। 63


इन्द्रिय संयम जो करें , राग द्वेष हों दूर

भक्ति करें जो भी मनुज, ईश कृपा भरपूर।। 64


जो जन करते भक्ति हैं, ताप त्रयी मिट जायँ।

आत्म चेतना प्रबल हो, सन्मति थिर हो जाय।। 65


भक्ति रमे जब ईश में, बुद्धि दिव्य मन भव्य।

शांत चित्त मानस बने, शांति मिले सुख नव्य।। 66


यदि इंद्रिय वश में नहीं, बुद्धि होती है क्षीण। 

अगर एक स्वच्छंद है, तन की बजती बीन।।67


इन्द्री वश में यदि रहें, वही श्रेष्ठ है जन्य।

और बुद्धि स्थिर रहे, मिले भक्ति का पुण्य।।68


आत्म संयमी है सजग, तम में करे प्रकाश।

आत्म निरीक्षक मुनि हृदय, मन हो शून्याकाश।।69


पुरुष बने सागर वही, नदी न जिसे डिगाय।

इच्छाओं से तुष्ट जो, वही ईश को पाय।। 70


इच्छा इंद्री तृप्ति की, करे भक्त परित्याग।

अहम, मोह को त्याग दे, मिले शांति का मार्ग।। 71


आध्यात्मिक जीवन वही, मानव करे न मोह।

अंत समय यदि जाग ले, मिले धाम ही मोक्ष।।72

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय " गीता का सार" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ ।क्लिक कीजिये और पढ़िये पहले अध्याय का काव्यानुवाद

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✍️ डॉ राकेश चक्र, 90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नंबर 9456201857

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शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र द्वारा किया गया श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय एक का काव्यानुवाद ------


ईश्वर प्रार्थना 

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ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ श्रीमद्भगवतगीता
अथ प्रथम अध्याय
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कोटि-कोटि वंदन करूँ, वीणावादिनि तोय।
ज्ञान, बुद्धि वरदायिनी, पूर्ण काम सब होय।।

परमपिता श्रीकृष्ण हैं, उनको कोटि प्रणाम।
ओम नाम में विश्व सब, अनगिन तेरे नाम।।

हे गणपति! होकर सखा, करना चिर कल्याण।
नितप्रति ही हरते रहो, जीवन के सब त्राण।।

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण
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धृतराष्ट्र उवाच
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संजय से हैं पूछते ,धृतराष्ट्र कुरुराज।
कुरुक्षेत्र रण भूमि में, क्या गतिबिधियां आज।।1

संजय उवाच
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राजन सुनिए आप तो, सेनाएँ तैयार।
दुर्योधन अब कह रहा, सुगुरु द्रोण से सार।। 2

पाण्डव सेना है बली, नायक धृष्टद्युम्न।
व्यूह- सृजन है अति विषम, दुर्योधन  अवसन्न ।। 3

बलशाली हैं भीम-से, अर्जुन से अतिवीर।
महारथी युयुधान हैं, द्रुपद, विराट सुवीर।। 4

धृष्टकेतु चेकितान हैं, पुरजित, कुंतीभोज।
शैव्य सबल से अतिरथी, बढ़ा रहे हैं ओज।। 5

उत्तमौजा सुवीर है, अभिमन्यु महावीर।
युधामन्यु सुपराक्रमी, पुत्र द्रोपदी वीर।।6

मेरी सेना इस तरह, सुनिए गुरुवर आप।
महाबली गुरु आप हैं, भीष्म पितामह नाथ।। 7

कर्ण-विकर्ण पराक्रमी, गुरुवर कृपाचार्य।
भूरिश्रवा महारथी, कभी न माने हार।। 8

अनगिन ऐसे वीर हैं, लिए हथेली जान।
अस्त्र-शस्त्र से लैस हैं, करते हैं संधान।। 9

शक्ति अपरिमित स्वयं की, भीष्म पिता हैं साथ।
पांडव सेना है निबल, दुर्योधन की बात।। 10

सेनानायक भीष्म के, बनें  सहायक आप।
महावीर हैं सब रथी , सेना व्यूह प्रताप।। 11

दुर्योधन ने भीष्म का, किया बहुत गुणगान।
बजा शंख जब भीष्म का, कौरव मुख मुस्कान।। 12

शंख, नगाड़े बज गए, औ' तुरही, सिंग साथ।
कोलाहल इतना बढ़ा, खिले कौरवी गात।। 13

पांडव सेना ने सुना, भीष्म पितामह घोष।
अर्जुन, केशव ने किए , दिव्य शंख उद्घोष।। 14

कृष्ण ईश का शंख है, पाञ्चजन्य विकराल।
पार्थ का  है देवदत्त , भीम पौंड्र भूचाल।। 15

विजयी शंख अनन्त है, राज युधिष्ठिर धर्म।
नकुल शंख सुघोष है, सहदेव मणी पुष्प।। 16

परम् वीर धृष्टद्युम्न , जेय सात्यकि वीर।
शंखनाद सुन वीर के , कौरव हुए अधीर।। 17

शंखों की घन विजय-ध्वनि, गूँजी भू, आकाश।
दुर्योधन सेना हुई, उर में गहन हताश।। 18

शंखों की जब ध्वनि बजी, कोलाहल है पूर्ण।
दुर्योधन के भ्रात सब, उर में हुए विदीर्ण।।19

कपि-ध्वज- सज्जित रथ चढ़े, अर्जुन हुए प्रचेत।
धनुष बाण कर ले लिए, कहा कृष्ण समवेत। 20

अर्जुन उवाच
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अर्जुन बोले कृष्ण प्रिय, तुम हो कृपानिधान।
सेनाओं के मध्य में, रथ को लें श्रीमान।। 21

अभिलाषी जो युद्ध के, कौरव सेना साथ।
लूँ उनको संज्ञान में, करने दो-दो हाथ।। 22

देखूँ सेना कौरवी, धृत के देखूँ पुत्र।
कौन- कौन दुर्बुद्धि हैं, कौन-कौन हैं शत्रु।। 23

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा
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संजय ने धृतराष्ट्र से, कहा सैन्य आख्यान।
माधव ने रथ को दिया,सैन्य मध्य स्थान ।। 24

पृथा पुत्र अर्जुन सुनें, ईश कृष्ण उपदेश।
योद्धा जग के देख लो, बचा न कोई शेष।। 25

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन डाले दृष्टि।
संबंधी हैं सब खड़े , खड़े मित्र और शत्रु।। 26

सब अपनों को देखकर, अर्जुन है हैरान।
करुणा से अभिभूत है, कोमल हो गए प्राण।। 27

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भावविभोर होकर इस तरह अपने भाव प्रकट किए
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अर्जुन बोला हे सखे, सब ही मेरे प्राण।
अंग-अंग है कांपता,  मुख है मेरा म्लान ।। 28

रोम-रोम कम्पित हुआ, विचलित ह्रदय शरीर।
गाण्डीव भी हो रहा, कर में विकल अधीर।। 29

सिर मेरा चकरा रहा, तन भी छोड़े साथ।
सखे कृष्ण सब देखकर, हुआ अमंगल ताप।। 30

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, मुझे न भाए युद्ध।
राज्य विजय न चाहिए, जीवन बने अशुद्ध।। 31

गोविंदा मेरी सुनो, क्या सुख है,क्या लाभ।
सब ही मेरे मीत हैं, सब ही मेरे भ्रात।। 32

हे मधुसूदन आप ही, मुझे बताएँ बात।
गुरुजन, मामा, पौत्रगण, सब ही मेरे तात।। 33

कभी न वध इनका करूँ, सब ही अपने मीत।
मुझको चाहे मार दें, या लें मुझको जीत।। 34

तुम ही कृपानिधान हो,ना चाहूँ मैं लोक।
धरा- गगन नहिं चाहिए, भोगूँगा मैं शोक।। 35

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, यद्यपि सारे दुष्ट।
फिर भी पाप न सिर मढूं, जीवन हो जो क्लिष्ट।। 36

हे अच्युत!मेरी सुनो, यद्यपि सब ये मूढ़।
लोभ, पाप से ग्रस्त हैं, प्रश्न बड़ा ये गूढ़।। 37

हम पापी क्योंकर बनें, हम तो हैं निष्पाप।
वध करके भी क्या मिले, भोगें हम संताप।। 38

नाश हुआ कुल का अगर, दिखे न कोई लाभ।
धर्म लोप हो जाएगा, बढ़ें अधर्मी पाप।। 39

कृष्ण सखे सच है यही, कुल में बढ़ें अधर्म।
धर्म नाश हो जगत में, पाप दबाए धर्म।। 40

पाप बढ़ें कुल में अगर, नारी करें कुकर्म।
वर्णसंकरित कुल बने , क्षरित मान औ' धर्म।। 41

कुलाघात यदि हम करें, हो जीवन नरकीय।
पितरों को भी कष्ट हो, पिंडदान दुखनीय।। 42

कुल परम्परा नष्ट हो, मिटें धर्म सदकर्म।
मनमानी सब ही करें, रहे लाज ना शर्म।। 43

कुलाघात यदि हम करें, मिट जाते कुल धर्म।
वर्णसंकरी दोष से, नष्ट जाति औ' धर्म।। 43

गुरु परम्परा ये कहे, सुनो कृष्ण तुम बात।
जिसने छोड़ा धर्म है, मिले नरक- सौगात।। 44

घोर अचम्भा हो रहा, मुझको कृपानिधान।
राजभोग के वास्ते, क्या है युद्ध निदान।। 45

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, चाहे दें ये मार।
नहीं करूँ प्रतिरोध मैं, मानूँ अपनी हार।। 46

महाराजा धृतराष्ट्र से ये सब वर्णन संजय सारथी ने कहकर सुनाया
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बाण-धनुष अर्जुन तजे, शोकमना है चित्त।
केशव सम्मुख हो रहा, विकल भाव- अनुरक्त ।। 47

इति श्रीमद्भागवतरूपी उपनिषद एवं ब्रह्माविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में " अर्जुन विषादयोग " नामक अध्याय 1 समाप्त


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✍️ डॉ राकेश चक्र

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नंबर 9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र द्वारा किया गया श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय पांच का काव्यानुवाद ------

 


केशव मुझे बताइए, क्या उत्तम, क्या श्रेष्ठ ?

कर्मों से संन्यास या, फिर निष्कामी ज्येष्ठ।। 1


भगवान श्रीकृष्ण उवाच---


तन, मन, इन्द्रिय कर्म का, कर्तापन तू त्याग।

कर्म करो निष्काम ही, यही श्रेष्ठ है मार्ग।। 2


द्वेष, आकांक्षा छोड़ दे, यही पूर्ण संन्यास।

राग-द्वेष के द्वंद्व का, न हो देह में वास।। 3


कर्म योग निष्काम यदि,वही योग संन्यास।

ज्ञानी जन ऐसा कहें, जीवन भरे प्रकाश।। 4


ज्ञान योग भी योग है, कर्म योग भी योग।

ये दोनों ही श्रेष्ठ हैं, करें इष्ट से योग।। 5


श्रेष्ठ भक्ति भगवत भजन, जो करते निष्काम।

कर्तापन को त्याग कर, मिलता मेरा धाम।। 6


पुरुष इन्द्रियातीत जो,, ईश भक्ति में लीन ।

कर्मयोग निष्काम कर, बनता श्रेष्ठ नवीन।। 7


सांख्य योग का जो गुरू, सत्व-तत्व में लीन।

अवलोकन स्पर्श कर,सुने ईश आधीन।। 8


भोजन पाय व गमन कर, सोत, बोल बतलाय।

हर इन्द्री से कर्म कर, नहीं स्वयं दर्शाय।। 9


पुरुष देह-अभिमान के, कर्म न हों निष्काम।

त्यागें देहासक्ति जो, वे ही कमल समान।। 10


कर्मयोग निष्काम से, तन-मन होता शुद्ध।

नरासक्ति जो त्यागते , बुद्धि शुद्धि हो बुद्ध।। 11


अर्पण सारे कर्मफल , करें ईश को भेंट।

कर्मयोग निष्काम ही, विधि-लेखा दें मेंट।। 12


करे प्रकृति आधीन जो, मन  कर्मों का त्याग।

तन नौ द्वारी बिन करे, सुखमय भरे प्रकाश।। 13

(नो द्वार-दो आँखें, दो कान, दो नाक के नथुने, एक मुख, गुदा और उपस्थ)


तन का स्वामी आत्मा, करे कर्म ना कोय।

ग्रहण करें गुण प्रकृति के, माखन रहे बिलोय।। 14


पाप-पुण्य जो हम करें, नहिं प्रभु का है दोष।

भ्रमित रही ये आत्मा,ढका ज्ञान का कोष।। 15


बढ़े ज्ञान जब आत्मा, होय, अविद्या नाश।

जैसे सूरज तम हरे, उदया होय प्रकाश।। 16


मन बुधि श्रद्धा आस्था, शरणागत भगवान।

ज्ञान द्वार कल्मष धुले, खुलें मुक्ति प्रतिमान।। 17


पावन हो जब आत्मा, आता है समभाव।

सज्जन, दुर्जन, गाय इति, मिटे भेद का भाव।। 18


मन एकाकी सम हुआ, वह जीते सब बंध।

ब्रह्म ज्ञान जो पा गए,फैली पुण्य सुगंध।। 19


सुख-दुख में स्थिर रहे, नहीं किसी की चाह।

मोह, भ्रमादिक से विरत,गहे ब्रह्म की  राह।। 20


इन्द्रिय आकर्षण नही, चरण-शरण हरि लीन।

आनन्दित हो आत्मा, कभी न हो गमगीन।। 21


दुख-सुख भोगें इन्द्रियाँ, ज्ञानी है निर्लिप्त।

आदि-अंत है भोग का, कभी न हो संलिप्त।। 22


सहनशील हैं जो मनुज, काम-क्रोध से दूर।

जीवन उसका ही सुखी, चढ़ें न पेड़ खजूर।। 23


सुख का अनुभव वे करें, जो अन्तर् में लीन।

योगी है अंतर्मुखी, ब्रह्म भाव लवलीन।। 24


संशय,भ्रम से हैं परे, करे आत्म से प्यार।

सदा जीव कल्याण में, दें जीवन उपहार।। 25


माया, इच्छा से परे, रहें क्रोध से दूर।

रहें आत्म में लीन जो,मिलती मुक्ति  जरूर।। 26


भौंहों के ही मध्य में, करें दृष्टि का ध्यान।

स्वत्व प्राण व्यापार को, वश में कर ले ज्ञान।। 27


इन्दिय बुधि आधीन हो, रखे मोक्ष का लक्ष्य।

ऐसा योगी जगत में, ज्ञानी आत्मिक दक्ष।। 28


मैं परमेश्वर सृष्टि का, मैं देवों का मूल।

जो समझें इस भाव से, बने आत्म निर्मूल।। 29


✍️डॉ राकेश चक्र

90 बी, शिवपुरी

मुरादाबाद 244001

उ.प्र . भारत

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शनिवार, 19 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र द्वारा किया गया श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय तेरह का काव्यानुवाद --------


अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा--
क्या है प्रकृति मनुष्य प्रभु,ज्ञेय और क्या ज्ञान?
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या,बोलो कृपानिधान।। 1

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, चेतना के बारे में इस तरह ज्ञान दिया-----
हे अर्जुन मेरी सुनो,कर्मक्षेत्र यह देह।
यह जानेगा जो मनुज, करे न इससे नेह।।2

ज्ञाता हूँ सबका सखे,मेरे सभी शरीर।
ज्ञाता को जो जान ले, वही भक्त मतिधीर।। 3

कर्मक्षेत्र का सार सुन,प्रियवर जगत हिताय।
परिवर्तन-उत्पत्ति का, कारण सहित उपाय।। 4

वेद ग्रंथ ऋषि-मुनि कहें, क्या हैं कार्यकलाप?
क्षेत्र ज्ञान ज्ञाता सभी, कहते वेद प्रताप।। 5

मर्म समझ अन्तः क्रिया, यही कर्म का क्षेत्र।
मनोबुद्धि, इंद्रिय सभी, लख अव्यक्ता नेत्र।। 6

पंचमहाभूतादि सुख, दुख इच्छा विद्वेष।
अहंकार या धीरता, यही कर्म परिवेश।। 7

दम्भहीनता,नम्रता,दया अहिंसा मान।
प्रामाणिक गुरु पास जा, और सरलता जान।। 8

स्थिरता और पवित्रता, आत्मसंयमी ज्ञान।
विषयादिक परित्याग से, हो स्वधर्म- पहचान।। 9

अहंकार से रिक्त मन, जन्म-मरण सब जान।
रोग दोष अनुभूतियाँ,वृद्धावस्था भान।। 10

स्त्री, संतति, संपदा, घर, ममता परित्यक्त।
सुख-दुख में जो सम रहे, वह मेरा प्रिय भक्त।। 11

वास ठाँव एकांत में, करते इच्छा ध्यान।
जो अनन्य उर भक्ति से,उनको ज्ञानी मान।। 12

जनसमूह से दूर रह, करे आत्म का ज्ञान।
श्रेष्ठ ज्ञान वह सत्य है, बाकी धूलि समान।। 12

अर्जुन समझो ज्ञेय को, तत्व यही है ब्रह्म।
ब्रह्मा , आत्म, अनादि हैं, वही सनातन धर्म।। 13

परमात्मा सर्वज्ञ है, उसके सिर, मुख, आँख।
कण-कण में परिव्याप्त हैं, हाथ, कान औ' नाक।। 14

मूल स्रोत इन्द्रियों का, फिर भी वह है दूर।
लिप्त नहीं ,पालन करे, सबका स्वामी शूर।। 15

जड़-जंगम हर जीव से, निकट कभी है दूर।।
ईश्वर तो सर्वत्र है, दे ऊर्जा भरपूर।। 16

अविभाजित परमात्मा, सबका पालनहार।
सबको देता जन्म है, सबका मारनहार।। 17

सबका वही प्रकाश है, ज्ञेय, अगोचर ज्ञान।
भौतिक तम से है परे, सबके उर में जान।। 18

कर्म, ज्ञान औ' ज्ञेय मैं, सार और संक्षेप।
भक्त सभी समझें मुझे, नहीं करें विक्षेप।। 19

गुणातीत है यह प्रकृति ,जीव अनादि  अजेय।
प्रकृति जन्य होते सभी, समझो प्रिय कौन्तेय।। 20

प्रकृति सकारण भौतिकी, कार्यों का परिणाम।
सुख-दुख का कारण जगत,वही जीव-आयाम।। 21

तीन रूप गुण-प्रकृति के,करें भोग- उपयोग।
जो जैसी करनी करें, मिलें जन्म औ' रोग।। 22

दिव्य भोक्ता आत्मा, ईश्वर परमाधीश।
साक्षी, अनुमति दे सदा, सबका न्यायाधीश।। 23

प्रकृति-गुणों को जान ले, प्रकृति और क्या जीव?
मुक्ति-मार्ग निश्चित मिले, ना हो जन्म अतीव।। 24

कोई जाने ज्ञान से, कोई करता ध्यान।
कर्म करें निष्काम कुछ, कोई भक्ति विधान।। 25

श्रवण करें मुझको भजें, संतो से कुछ सीख।
जनम-मरण से छूटते, जीवन बनता नीक।। 26

भरत वंशी श्रेष्ठ जो, चर-अचरा अस्तित्व।
ईश्वर का संयोग बस, कर्मक्षेत्र सब तत्व।। 27

आत्म तत्व जो देखता, नश्वर मध्य शरीर।
ईश अमर और आत्मा,वे ही संत कबीर।। 28

ईश्वर तो सर्वत्र है, जो भी समझें लोग।
दिव्यधाम पाएँ सदा, ये ही सच्चा योग।। 29

कर्म करें जो हम यहाँ, सब हैं प्रकृति जन्य।
सदा विलग है आत्मा, सन्त करें अनुमन्य।। 30

दृष्टा है यह आत्मा, बसती सभी शरीर।
जो सबमें प्रभु देखता, वही दिव्य सुधीर।। 31

अविनाशी यह आत्मा, है यह शाश्वत  दिव्य।
दृष्टा बनकर देखती, मानव के कर्तव्य।। 32

सर्वव्याप आकाश है, नहीं किसी में लिप्त।
तन में जैसे आत्मा, रहती है निर्लिप्त।। 33

सूर्य प्रकाशित कर रहा, पूरा ही ब्रह्मांड।
उसी तरह यह आत्मा, चेतन और प्रकांड।। 34

ज्ञान चक्षु से जान लें, तन, ईश्वर का भेद।
विधि जानें वे मुक्ति की, जीवन बने सुवेद।। 35

✍️डॉ राकेश चक्र
90 बी, शिवपुरी
मुरादाबाद 244001
उ.प्र . भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456201857
Rakeshchakra00@gmail.com


गुरुवार, 6 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र का गीत -----घर चंदन कानन होगा


रामराज यदि आ जाए तो
जग चन्दन कानन होगा
अंतर्मन में प्रेम बसे तो
घर-घर वृन्दावन होगा

दैहिक-दैविक ताप मिटेंगे
भौतिक ताप न व्यापेंगे
मनुज-मनुज में प्यार परस्पर
नीति वेद की जापेंगे
असमय मृत्यु कभी ना होगी
दीन-हीनता दूर रहे
शुभ लक्षण घर-घर में होंगे
हर खाई को पाटेंगे

धर्म परायण,पुण्य शीलता
वंदित घर-आँगन होगा

नर-नारी होंगे उदार सब
नीति व्रती परहितकारी
विद्वानों की पूजा होगी
पति-पत्नी धर्माचारी।।
कर्म-वचन-मन से भर देंगे
जीवन को सुख-सौरभ से
फल-फूलों से तरु महकेंगे
गज-पंचानन सँग होंगे

खग-मृग में भी प्रेम बढ़ेगा
जीवन-धन पावन होगा।।

लता-विटप मधुरस छलकाएँ
धेनु,दुग्ध मन चाहा दें
फसलों से धरती लहराए
यज्ञाहुतियाँ-स्वाहा दें
हिम शिखरों से माणिक छिटकें
सरिताएँ निर्मल जल दें
कलयुग में सतयुग आ जाए
ऐसी शीतल छाया दें

तट पर सागर रत्न उछालें
जलद तृप्त सावन होगा

ढूँढ़ रहा मैं रामराज को
संकल्पों की राहों में
नहीं असम्भव कुछ भी मित्रो
नवजीवन की चाहों में
मैं कबीर का पथ अनुगामी
लड़ता नित्य अंधेरों से
सूरज,चंदा - सा बन जाता
हर बिछुड़े की बाँहों में

विश्वासों के दीप जलेंगे
हृदय स्वस्तिवाचन होगा

डॉ राकेश चक्र
 90 बी शिवपुरी
 मुरादाबाद -244-001
 मोबा.9456201857

गुरुवार, 26 मार्च 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र के दोहे --योग, सैर अपनाइये, तन-मन रहे निरोग। संस्कृति अपनी ही भली, कहते आए लोग।।

*कोरोना के चक्र में, फँसा सकल संसार।
मानव के दुष्कृत्य से, विपदा अपरंपार।।

*हर कोई भयभीत है, मान रहा अब हार।
कार कोठियां रह गईं, धन सारा बेकार।

*चमत्कार विज्ञान के, हुए सभी निर्मूल।
जान बूझकर ये मनुज, करता जाए भूल।।

*बड़े-बड़े योद्धा डरे, कोरोना को देख।
पर मानव सुधरे नहीं, लिखे प्रलय का लेख।।

*धन-दौलत की चाह में, करे प्रकृति को क्रुद्ध।
दोहन अतिशय ये करें, करता नियम विरुद्ध।।

*मुश्किल में अब जान है ,घर में ही सब कैद।
बलशाली भी डर गए,डरे चिकित्सक वैद।।

*अभी समय है चेत जा, तज दे तू अज्ञान।
काँधा देने के लिए, मिलें नहीं इंसान।।

*भौतिक सुख सुविधा नहीं, अपने भव की सोच।
फास्टफूड ही कर रहा , लगी सोच में मोच।।

*शाकाहारी भोज में , मिलता है आनन्द।
चाइनीज भोजन करे, सबकी मति है मन्द।।

*योग, सैर अपनाइये, तन-मन रहे निरोग।
संस्कृति अपनी ही भली, कहते आए लोग।।

*श्रम करने से ही सदा , तन का अच्छा हाल।
आलस मोटा कर रहा, बने स्वयं  का काल।।

*व्यसनों में है आदमी, झूठा चाहे चैन।
मन भी बस में है नहीं, भाग रहा दिन रैन।।


***डॉ राकेश चक्र
90 बी
शिवपुरी
मुरादाबाद 244001
उ.प्र . भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456201857
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शनिवार, 21 मार्च 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र का गीत --कोरोना पर वार करो

देश हमें यदि प्यारा है तो
कोरोना पर वार करो
हम सबका जीवन अमूल्य है
मिलकर सभी प्रहार करो


बचो-बचाओ मिलने से भी
घर से बाहर कम निकलो
भीड़-भाड़ में कभी न जाओ
कुछ दिन अंदर ही रह लो

हाथ मिलाना छोड़ो मित्रो
हाथ जोड़कर प्यार करो
हम सबका जीवन अमूल्य है
मिलकर सभी प्रहार करो


साफ-सफाई रखो सदा ही
घर पर हों या बाहर भी
हाथ साफ करना मत भूलो
यही प्राथमिक मंतर भी

करना है तो मन से करना
सबका ही उपकार करो
हम सबका जीवन अमूल्य है
मिलकर सभी प्रहार करो


मन को रखना बस में अपने
बाहर का खाना छोड़ें
घर में व्यंजन स्वयं बनाना
बाहर से लाना छोड़ें

शाकाहारी भोजन अच्छा
उसका ही सत्कार करो
हम सबका जीवन अमूल्य है
मिलकर सभी प्रहार करो


अपने को मजबूत बनाओ
योगासन-व्यायाम करो
बातों में मत समय गँवाओ
दिनचर्या अभिराम करो


प्रातःकाल जगें खुश होकर
आदत स्वयं सुधार करो

हम सबका जीवन अमूल्य है
मिलकर सभी प्रहार करो
देश हमें यदि प्यारा है तो
कोरोना पर वार करो


**डॉ राकेश चक्र
90 बी, शिवपुरी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर - 9456201857
Rakeshchakra00@gmail.com

गुरुवार, 19 मार्च 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र की गजल -- खाते नमक देश का हम ,मत इससे गद्दारी कर

कुछ तो तू खुद्दारी कर
सदा देश से यारी कर।।

खाते नमक देश का हम
मत  इससे गद्दारी कर।।

देश रहेगा ,हम भी होंगे
मिलकर पहरेदारी  कर।।

इधर-उधर की फेंक न तू
कुछ तो राम सवारी कर।।

अन्तः को भी झाँक लिया कर
इसकी रोज बुहारी कर।।

"चक्र " चक्र में घूम रहा है
सबमें प्यार शुमारी कर।।


**डॉ राकेश चक्र
90 बी, शिवपुरी
मुरादाबाद 244001
उ.प्र ., भारत
9456201857
Rakeshchakra00@gmail.com

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र की कविता -- मेरे देश में ....

ये है मेरा देश
यहाँ है मुक्त लोकतंत्र
बेलौश आजादी का
राह चलते
कोई भी कस सकता है तंज
मेरी दुलारी बेटियों पर
आबरू पर प्रहार
बलात्कार
है कर सकता
आग ही आग से सत्कार
सदा खामोश हैं रहते
देशद्रोही गद्दार

है खा सकता
कोई भी
कमीशन दलाली
सफेद झक्क कपड़े पहनकर
महिमामण्डित होकर
खुले आम ढिढोरा पीटता
कि मैं हूँ दूध से धुला
ईमानदार आदमी
है कहता रहा कब से
मुझे वोट दो
कुर्सी दो
स्वयं का इंसाफ करने के लिए

यहाँ है जला सकता
सफाई करके कूड़ा-कचरा
कूड़े के पहाड़
ई कचरा
या कुछ भी

यहाँ कोई भी
है चला सकता
लापरवाही से वाहन
है बजा सकता
तेज आवाज का हॉर्न
या डीजे कहीं भी
कभी भी
दाग सकता है बम -पटाखा
पर्व त्यौहारों
क्रिकेट मैच के जीतने पर
विदेशी साल के आगमन पर
या भ्रष्टाचार की विजय पर भी
सीना चौड़ा करके

यहाँ मूत और है शौच
कर सकता कहीं भी
खुले में
सड़कों और रेल पटरियों के किनारे
है डाल सकता
कूड़ा कचरा

यहाँ कोई भी
करा सकता है दंगा-फसाद
तिल का पहाड़
मजहब का
झंडा उठाए
अर्थ का अनर्थ करके

यहाँ कोई भी
लूट खसोट कर है सकता
नकली सामान
और कंपनी बनाकर
व्यापार का अनर्गल प्रचार कर
कभी भी
कहीं भी

यहाँ कोई भी है काट सकता
आदमी
आदमी की जेब
हरियाली के रखवाले पेड़ों को
कहीं भी
कैसे भी
सड़कों के चौड़ीकरण
के नाम पर
जला सकता है जंगल
खेतों में पराली
धूल झोंककर आँखों में

यहाँ कानून तोड़ है सकता
कोई भी
कहीं भी
कैसे भी
क्योंकि है पूर्ण आजादी
मेरे देश में

कहाँ मिटा भ्रष्टाचार
सभी चाहते संविधान प्रदत्त
अधिकार ही अधिकार
कर्तव्यों पर प्रहार 
बस दलाली
कमीशन खोरी
अनाचार
पापाचार
बेटियों पर बलात्कार
मेरे देश में

बढ़ती रही
भीड़ ही भीड़ हर जगह
प्रदूषण
खरदूषण
शोषण
शोर शराबा चीत्कार
महंगाई
नोट की छपाई
कूड़ा कचरा
और न जाने क्या-क्या

रहे पीठ थपथपाते
सफेदपोश
केवल वोट की तलाश में
मेरे देश में
सत्तर वर्षों से

** डॉ राकेश चक्र
90 बी, शिवपुरी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456201857
Rakeshchakra00@gmail.com