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सोमवार, 14 जून 2021

साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन



 मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 11 एवं 12 जून 2021 को दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। चर्चा के दौरान साहित्यकारों ने कहा कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी दयानन्द गुप्त का मुरादाबाद के हिन्दी कहानी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान रहा । उनकी कहानियां जहां सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों पर पैने प्रहार करती हैं वहीं नैतिक मूल्यों के पतन, दोहरे चरित्र और मानवीय सम्वेदनाओं को भी बखूबी अभिव्यक्त किया है ।


मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तंभ के तहत संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने  स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा कि 12 दिसम्बर 1912 को जन्में दयानन्द गुप्त की कहानियों का पहला संग्रह 'कारवां ' वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह की भूमिका सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी थी।  सन 1943 में उनके 52 गीतों का संग्रह 'नैवेद्य' नाम से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष उनका दूसरा कहानी संग्रह 'श्रंखलाएं' प्रकाशित हुआ। वर्ष 1956 में 'मंजिल' कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । वर्ष 1946 में आपका एक नाटक 'यात्रा का अन्त कहाँ' प्रकाशित हुआ। 'माधुरी', 'सरस्वती', 'वीणा', 'अरुण' आदि उच्च कोटि की मासिकों में आपकी रचनाएँ विशेष सम्मान के साथ छपती रहीं । दयानन्द गुप्त की रूझान पत्रकारिता की ओर भी था। वर्ष 1952 में उन्होंने 'अभ्युदय' साप्ताहिक का प्रकाशन व संपादन भी किया । 25 मार्च 1982 की अपराह्न वह इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

   

उनके सुपुत्र एवं दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकान्त गुप्त ने उनके अनेक संस्मरण, चित्र  तथा रचनाएं प्रस्तुत कीं । उन्होंने कहा कि दयानन्द गुप्त एक साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे ।अपनी किशोरावस्था में आपने महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाई स्कूल पास करने के उपरान्त वर्ष 1930 में आन्दोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे। सन 1945 में मजदूर आंदोलन में भाग लिया। अनेक श्रमिक संगठनों से आप जुड़े रहे। सन् 1951 में जिनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। वर्ष 1972 से 1980 तक मुरादाबाद नगर की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर भी रहे।

     

 दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्या डॉ स्वीटी तलवाड़ ने उनके गीत संग्रह नैवेद्य का विश्लेषण करते हुए कहा कि गुप्त जी छायावादी कवियों की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति  प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य  सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान। वह प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं।     

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की प्राचार्या डॉ० अनुपमा मेहरोत्रा ने कहा कि दयानन्द गुप्त  बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनका जीवन संघर्ष ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। समाजसेवी व साहित्यकार के रूप में उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया है। शिक्षा जगत में गुप्त जी का योगदान अविस्मरणीय है। खासकर स्त्रियों के लिए विद्यालय, महाविद्यालय की स्थापना करना, स्त्री शिक्षा की ओर बढ़ाया गया चुनौतीपूर्ण कदम है जो उनके प्रगतिशील व्यक्तित्त्व को इंगित करता है। साहित्य उनके अंतर्मन में रचा-बसा था। 

केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाये ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । ' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है।  , ' विद्रोही ' कहानी में  गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है।'नया अनुभव ' कहानी लेखक के गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है , 'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी  के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखे जा सकते हैं,वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है।

   

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. कंचन सिंह ने कहा कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।

वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने कहा दयानन्द गुप्त के लेखन में जहाँ मानवीय संवेदनाएं झंकृत होती हैं वहीं सामाजिक विसंगतियों पर भी तीखा व्यंग और प्रहार परिलक्षित है। धार्मिक मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए वो जहाँ एक समाज सुधारक की भूमिका निभाते हैं तो वहीं धीरे धीरे आध्यात्मिक यात्रा की राह पर चलते हुए एक दर्शानिक के रूप में नज़र आते हैं। उनका समृद्ध साहित्य समाज को दिशा देने वाली एक अमूल्य धरोहर है। इस अवसर पर उन्होंने श्री गुप्त को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा----

जीवन में जो दे गए, नये नये प्रतिमान।

समय करे चर्चा यही, उन पर है अभिमान।।


दयानन्द था नाम सरीखा। पूत पाँव पलने में दीखा।।

माता ने थी नज़र उतारी। दादा दादी सब बलिहारी।।


बचपन बीता खाते पीते। खेल खेल में हँसते जीते।।

शिक्षा को झोली में भरकर। नहीं रहे विघ्नों से डरकर।।


मेहनत ने था रंग दिखाया। धीरे धीरे सब कुछ पाया।।

दिनकर से ये ओज मिला था। सपनों का फिर सुमन खिला था।।


आकर्षक व्यक्तित्व धनी थे। अधिवक्ता वे सुधी जनी थे।।

पौरुष हर दम साथ हुआ था। अभिलाषा ने गगन छुआ था।।


इंसा को मिलता सदा, यश वैभव सम्मान।

पर सेवा का साथ में, जब चले अभियान।।

ईश्वर से जो कुछ मिला, समझा उसे उधार।

वापस किया समाज को, बहा प्रेम रस धार।।


राजनीति को भी अजमाया। उसमे भी था नाम कमाया।।

न्याय प्रक्रिया के थे ज्ञाता। देख देख हर्षित थीं माता।।


शिक्षा की थी अलख जगाई। करी समाज की देख भलाई।।

नारि शक्ति को और बढ़ाया। स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया।।


सदभावों की राह दिखाई। लेखन में भी कलम चलाई।।

जीवन का दर्शन करवाते। पद्य, गद्य में थे समझाते।।


नाटक, कथा कहानी कविता। प्रखर बही भावों की सविता।।

शारद का वरदान अपारा। नाम ईश का एक अधारा।।

महक रहा है देखिये, शिक्षा का संसार।

संवर रही हैं बेटियां, है अनुपम उपहार।।

साँसों का दर्शन लिखा, लिखा हास परिहास।

जीत लिया मानव हृदय, मिला अटल विश्वास।।


कुशल प्रबंधक प्रखर विचारक, राजनीति प्रतिमान।

सामाजिक समरसता लेकर, शिक्षा का अभियान।

अति कानूनी ज्ञान साहित था, वाणी पर अधिकार

सजा हुआ साहित्य सृजन से, जीवन था गतिमान।।


उमाकांत से पुत्र मिले, पुण्य किये हज़ार।

पिता विरासत सींच रहे, फर्ज करें साकार।।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष डॉ रीना मित्तल ने कहा उनकी साहित्यिक रचनाओं का अगर हम अवलोकन करें तो साफ पता चलता है कि उनका कविता संग्रह नैवेद्य, कहानी संग्रह 'मंजिल' की रचनाऐं उनको एक मानव से ऊपर का दर्जा देती है। सभी साहित्यिक रचनाऐं धर्म, कर्म, जाति व रंगभेद से ऊपर उठकर समाज के उत्थान का सन्देश देती हैं। उन्होंने उनकी कहानी 'परीक्षा' का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया।

रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कविताओं को दयानंद गुप्त  अपने हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम मानते थे । वह न छायावाद के फेर में पड़े ,न प्रगतिवाद के बंधन में बंधना उन्हें स्वीकार था । वह स्वतंत्र थे।कहानीकार के रूप में उन्होंने जहां विभिन्न समस्याओं की ओर  समाज का ध्यान आकृष्ट किया वहीं जीवन की जटिलताओं को भी उजागर किया।

हिंदू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी विभाग, डॉ. उन्मेष कुमार सिन्हा ने दयानंद गुप्त की कहानी नेता की समीक्षा करते हुए कहा कि कहानी के नायक सेठ दामोदर दास के माध्यम से कहानीकार ने नेताओं के पाखंड पूर्ण व्यक्तित्व  को उजागर किया है । 

कवयित्री
हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि उनकी कहानियाँ निरे उपदेश या निरी मनोरंजन या कला के लिए कला जैसे किसी एक उद्देश्य के सांचे में नहीं ढलती बल्कि उनकी कहानियाँ विविध विषयों,विविध सरोकारों या उद्देश्यों का एक बुके हैं,जहाँ कई रंग हमें नजर आते हैं।उनकी कहानियों में जहाँ संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है तो वहीं आम जन जीवन की भाषा और पात्र के अनुरूप उर्दू शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। चित्रकारिता,संगीत,राजनीति अथवा किसी भी विषय पर उनकी गहरी समझ व पकड़ उनकी कहानियों को जीवन्त बना देती है।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ शोभा गुप्ता ने कहा श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।आपकी रचनाएं पढ़कर मुझे लगा कि आप ने उस समय की सामाजिक समस्याओं को अपनी रचनाओं में भली भांति उकेरा  तथा समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान भी समाज के समक्ष रखा। आपकी रचनाएं आज भी हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं।

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर का कहना था दयानन्द गुप्त सच्चे अर्थों में माँ वीणापाणि के उपासक रहे हैं। आपकी कहानियों में अनेक विम्बों से अलंकृत वाक्य व भाषा शैली के धागों से , किसी सुघड़ बुनकर की तरह कथानक को बुनते हुए जब आप आगे बढ़ते हैं तो दृश्यों का सजीव ताना- बाना बनकर तैयार हो जाता है। वे समाज के  दोहरे आवरण की परत उधेड़ते  हैं। कल्पना और यथार्थ दोनो के चित्रण में आपको  महारथ हासिल थी।समाज में होती उथल पुथल व बदलाव भी आपकी कहानियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। आप समाज की संकीर्णता पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते।

युवा साहित्यकार राजीव प्रखर ने कहा कि उनके कहानी-संग्रह 'मंज़िल' में संगृहीत कहानियां  तत्कालीन परिस्थितियों के साथ-साथ वर्तमान एवं भविष्य की सुगबुगाहट को भी स्वयं में समेटे हुए है। सत्य-असत्य के संघर्ष को सार्थक अभिव्यक्ति देती 'वे पत्र', सहानुभूति  का आवरण ओढ़ कर एक आम व्यक्ति के साथ किये जाने वाले खिलवाड़ का चित्र 'पागल', राह भटकती राजनीति को दर्शाती 'नेता', मानवीय मूल्यों को विभिन्न कोणों से देखती 'तोला', सामाजिक एकता और सद्भाव को अभिव्यक्ति देती 'न मन्दिर न मस्ज़िद' एवं इसी क्रम में विभिन्न संवेदनाओं व परिस्थितियों के संघर्ष को साकार करती हुई 'नारी हॄदय', 'परीक्षा', 'अर्ध परिणीता', 'शोभा', 'दर्पण की कथा', 'विद्रोही' व 'तुम्हारा प्रेम' तक आते-आते यह अनमोल कहानी-संग्रह, वर्तमान समाज के सम्मुख अनेक प्रश्न छोड़ता हुआ उसे यह सोचने पर भी बाध्य कर देता है कि स्वयं में अपेक्षित सुधार न करने पर उसके भविष्य की तस्वीर क्या होगी। भले ही हम आधुनिक युग में जी रहे हो परन्तु यह कड़वा सत्य है कि आज भी सामाजिक असमानता, रसातल में जाती नैतिकता, वर्ग-संघर्ष जैसी अनेक समस्याएं नये स्वरूप में हमारे समाज के सम्मुख बनी हुई हैं। आज की तथाकथित प्रगतिशीलता के सामने इसी तथ्य को रखता यह कहानी-संग्रह 'मंज़िल' निश्चित रूप से प्रत्येक आयु वर्ग के पाठक को विचार शीलता के साथ सोचने पर विवश कर देने में सक्षम है।

     

दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर गृह विज्ञान विभाग, डॉ शुभा गोयल ने कहा कि दयानन्द गुप्त का पेशे से वकील होना तथा साहित्य में अभिरुचि होना एक अनूठा संगम था। उनकी रचनाओं में विविधता के दर्शन होते हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक  विसंगति एवं विषमताओ  का चित्रण मिलता है।

     

उनकी पुत्रवधु सन्तोष रानी गुप्ता ने कहा वर्ष 1952 में आपने नगर में वर्षों से बन्द चली आ रही बल्देव आर्य संस्कृत पाठशाला को पुनः आरम्भ किया। जिसमें संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। उसी वर्ष बल्देव आर्य कन्या विद्यालय की स्थापना की जो बाद में बल्देव आर्य कन्या इंटर कालेज हो गया। वर्ष 1960 में दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त आपने अपने पैतृक ग्राम सैदनगली में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की भी स्थापना की। उन्होंने उनका गीत भी प्रस्तुत किया।

दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर स्नेहा कुमारी ने  उनकी कहानी तोला के संदर्भ में कहा कि इस कहानी के माध्यम से लेखक दयानंद गुप्त ने पारिवारिक संबंधों में व्याप्त आपसी प्रेम, सौहार्द, द्वेष, ईर्ष्या की ही बात नहीं की,अपितु सामंती समाज में पिस रहे समाज, कृषक जीवन में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, ऋण, गुलाम भारत में असमान, महंगी न्याय व्यवस्था का दारुण वर्णन किया है।

वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि  दयानन्द गुप्त की अनेक कहानियाँ  वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है। विद्रोही का कथानक भी स्वयं में विशेषता रखता है और समाज के दोहरे मापदंड को दर्शाता है। 

साहित्यकार फरहत अली खान ने कहा कि दयानंद गुप्त मुरादाबाद के श्रेष्ठ कहानीकार थे। इन की कहानियों में जुज़यात-निगारी(डिटेलिंग) बे-जोड़ है और सब से ज़्यादा आकर्षित करती है। संवाद सहजता के साथ आते हैं।  इस ख़ूबी से वातावरण की तस्वीर खींचते हैं, ऐसे ऐसे बिंब बनाते हैं कि पढ़ने वाला मुरीद हो जाए। भाषा संस्कृतनिष्ठ है, जो आम बोलचाल की भाषा से कुछ अलग होने की वजह से कहानी की पहुँच और मक़बूलियत को सीमित करती है। फिर भी ये कोई ख़ामी नहीं, हर लेखक की भाषा की अपनी विशिष्टता होती है। 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा   गुप्त जी की कहानी 'न मन्दिर न मस्जिद' लिखे जाने के समय भी समकालीन थी और आज भी समकालीन है।इसकी सार्थकता आज भी बनी हुई है। आदरणीय श्री उमा कान्त गुप्त जी के पास मुरादाबाद के साहित्य की अमूल्य धरोहर संरक्षित है, आने वाला कल इसका मूल्यांकन करेगा।     

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा भाई मनोज जी  को एक अच्छे कार्य हेतु बहुत बहुत साधुवाद। साहित्यिक मुरादाबाद के माध्यम से स्मृति शेष दयानंद गुप्ता जी के विषय में सारगर्भित जानकारी प्राप्त हुई है।जो मुझे ज्ञात नहीं थी। उनकी कहानी भी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त कर सका।

   

वरिष्ठ कवयित्री डॉ इंदिरा रानी ने कहा कि स्मृति शेष श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त एक प्रतिष्ठित एडवोकेट होने के साथ-साथ वह साहित्यकार, शिक्षाविद और समाज सेवक थे. उनकी बहुमुखी प्रतिभा आश्चर्य जनक है। गुप्त जी के कहानी संग्रह 'कारवां' में संकलित कहानी 'विद्रोही' को पढ़ कर अंग्रेजी के रोमान्टिक कवि कीट्स की याद आ गयी। विद्रोही कहानी में भी कलाकार की सौंदर्य चेतना अद्भुत है।    

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा  गुप्त जी की रचनाओं में तत्कालीन समाज का स्पष्ट चित्रण दिखाई देता है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के सुपुत्र आदरणीय श्री उमाकांत गुप्ता जी का स्नेह और आशीर्वाद मुझे निरंतर प्राप्त होता रहता है। 

   

वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि दयानन्द गुप्त बहुआयामी व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी थे। जाने-माने प्रतिष्ठित एडवोकेट तो थे ही, साथ ही साहित्यिक कर्म में भी निर्लिप्त थे। शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थाएं नगर-देहात को उन्होंने दी हैं। इसके इतर भी समाज को दिशा देने वाले उल्लेखनीय कार्य भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं से आगे जाकर किए हैं।

साहित्यकार दुष्यन्त बाबा ने कहा कि  गुप्त जी स्त्री शिक्षा के प्रति उतने ही जागरूक और संवेदनशील थे जितने  अपने समय में श्री राजराम मोहनराय। आपने बालिकाओं के लिए बलदेव  आर्य कन्या इंटर कॉलेज तथा दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना का सराहनीय कार्य किया। साथ अमरोहा जनपद के सैदनगली में भी एक इंटर कॉलेज का निमार्ण कराया। 

   

वरिष्ठ अधिवक्ता मुहम्मद जुनैद एजाज ने कहा कि दयानंद गुप्त ने अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बावजूद सामाजिक सरोकारों से अपना गहरा रिश्ता कायम किया। शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में उनका गहरा योगदान है जब देश लंबी गुलामी के बाद गहरे अंधकार से प्रकाश के लिए  लालायित था तब उन्होंने शिक्षा की ज्योति से मुरादाबाद  को आलोकित किया। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति उनकी  संवेदना  गहराई से झलकती है ।

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी डॉ छाया रानी ने कहा की मंजिल कहानी संग्रह में संग्रहित कहानी 'न मंदिर न मस्जिद' सर्व धर्म समन्वय की भावना को पोषित करने वाली है। यह कहानी एक विलक्षण कहानी है इस के लिखने के पीछे उनका  उद्देश्य  वसुधैव कुटुंबकम की भावना को लेकर था आज उसकी बहुत आवश्यकता है। यदि सब इसे समझ जाएं तो सब लड़ाई झगड़े छोड़ कर एक सूत्र में बंध कर सुखचैन से जीवन जी सकते हैं।

साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि  श्रद्धेय कीर्तिशेष श्री दयानंद गुप्त जी वे साहित्य जगत के ऐसे चमकते हुए सूर्य के समान थे ,जिसके प्रकाश से साहित्य जगत एक नई व अलौकिक रोशनी से प्रकाशित हुआ । उन्होंने हिंदी साहित्य का इतनी गहनता से अवलोकन किया ,कि उसकी हर दिशा को अपनी लेखनी का अंग बनाया ।चाहे मानवीय संवेदना हो या सामायिक विसंगतियाँ उन्होंने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज की बहुत ही स्पर्श तस्वीर उकेरी है । इसके साथ ही उन्होंने श्रृंगार ,वियोग एवं प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी दक्षता से अपनी रचनाओं में दर्शाया है ।यद्दपि वे पेशे से वकील थे ,तथा राजनीति बहुत निकटता से जानते थे ,परंतु उन्होंने अपनी अभिरुचि साहित्य की ओर ही रखी ,और यथार्थ का आँचल पकड़ समसामयिक स्थितियों ,परिस्थितियों का इतना विषद चित्रण किया है ,जो आज के समय में भी प्रासंगिक है ।

साहित्यकार एवं दयानन्द आर्य कन्या डिग्री महाविद्यालय की पूर्व छात्रा मीनाक्षी वर्मा ने काव्यमय श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा -------

 नाम से ही परिलक्षित होते गुण अनंत,

दया के अवतार शिरोमणि श्री दयानन्द गुप्त, 

शिक्षा की ज्योति जलाकर किया सर्व उद्धार , 

जनमानस में किया प्रकाशित ज्ञान शक्ति का पुंज, 

श्री गुप्त जी की कृतियां बता रही मानवता का मर्म, 

सभी जाति,प्राणी समान,समान है सभी पंथ,

नैवेद्य, श्रृंखलाये,मंजिल संग्रह देती सीख अनन्त,

प्राणिमात्र से प्रेम करो मानवता का करो न अंत,

स्वतंत्रता के लिये भी किये कितने ही प्रयत्न,

 ऐसे थे महान श्री दयानंद गुप्त, 

श्रमिक वर्ग के मर्म को समझ किया उत्थान, 

हर क्षण जिनके बसा था दयासिन्धु कर्म प्रधान,

 दीप सा जीवन उत्तम मृत्यु जीवन का मेल,

तम हरण करते रहे सदा जला प्राणों का तेल,

 सामाजिक,प्राकृतिक रंग,श्रृंगार वियोग भाव उन्मुक्त,

जीवन के मूल्य व संवेदना की सरल भाषा में व्यक्त, 

आशीर्वाद रूपी अमृत सी कृतियां दे रही जीने का मर्म 

अक्षर अक्षर में है बसें चैतन्य श्री दयानंद चंदन

अर्णव के अद्भुत मोती, पारसमणि व्योम अनन्त,

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अर्चना राठौर ने उनकी कहानी न मस्जिद न मंदिर का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि उनकी कहानियों में यह कहानी उन्हें सर्वाधिक प्रिय है।

साहित्यकार इंदु रानी ने स्मृति शेष दयानंद गुप्ता को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कविता प्रस्तुत की --------

 है धन्य भाग्य धरती पीतल की नगरी के

फिर गुप्त दयानंद जना क्यों नही देते


हम धन्य हुए जान के अमृत है ये शहर

इक बार हमे फिर से जता क्यों नही देते


श्री गुप्त दयानंद की जय बोलता जगत

शिक्षा की फिर से ज्योत जगा क्यों नही देते


ये भाग्य मेरा शिक्षा मिली आपकी शरण

भटकूं न फिर से राह दिखा क्यों नही देते


नारी की राहें रौशनी से सींचते हुए

एक बार फिर अलख को जगा क्यों नही देते


इतरा रहा मन सोच के सब आपकी उपज

ऐसे ही पौध और लगा क्यों नही देते


व्यक्तित्व-कृत्य आपका चमकेगा सूर्य सम

छाए हैं जो बादल वो हटा क्यों नही देते


सक्षम नही कलम जो करे आपका बखान

बाधाओं को फिर इसकी मिटा क्यों नही देते


दूषित हुई है राजनीती, विद्या नगरी भी

अच्छाइयों की धूप लगा क्यों नही देते

साहित्यकार अशोक विद्रोही ने कहा कि  कीर्तिशेष परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के दर्शन करने का मुझे भी सौभाग्य 1970 में आर्यकन्या इंटर कॉलेज बुद्धबाजार में संभाषण करते हुए प्राप्त हुआ  तब मैं हाईस्कूल का छात्र था । अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी  डॉ मनोज रस्तोगी जी जिनके अथक प्रयासों से परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के विशाल और विराट व्यक्तित्व की जानकारी  साहित्यिक मुरादाबाद पटल के माध्यम से हम सभी को प्राप्त हुई है यही नही हमें वे कहानियां पढ़ने को मिली जो हमारे लिए दुर्लभ थीं । इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

गजरौला की साहित्यकार रेखा रानी ने कहा कि कीर्ति शेष आदरणीय दयानंद गुप्त जी  के साहित्य में जब डूबना प्रारम्भ किया तब मन डूबता ही गया और मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया।  आपके द्वारा नया अनुभव और  विद्रोही कहानी बहुत ही बेहतरीन हैं और स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि आप की कल्पना शक्ति गजब की है।

अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के अंतर्गत स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त जी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आयोजित इस कार्यक्रम में सभी की प्रस्तुतियां सराहनीय हैं । इससे हमें बहुत कुछ जानकारी मिली ।

साहित्यकार विवेक आहूजा ने कहा कि दयानन्द जी के गीतों में  हमें जीवन दर्शन मिलता है। सुख दुःख, आशा निराशा , अपना पराया, छल ,उत्पीड़न ,धोखा  सभी भावो को वह अपने गीतों में अभिव्यक्त करते हैं । मै इस मंच के माध्यम से ऐसी महान विभूति श्रद्धेय  दयानंद गुप्त जी को नमन करता हूँ  ।

दयानन्द गुप्त की पुत्री अम्बाला निवासी श्रीमती इला गुप्ता ने कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद  पटल पर  आयोजित इस कार्यक्रम मेंमेरे पिता के बहु-आयामी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिली, साथ ही उनकी कहानियों व कविताओं का सुन्दर विश्लेषण भी पढ़ने को मिला।  पिताजी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मेरे स्मृति पटल पर आज भी अंकित हैं:

शबनम से  कहो  धीरे से गिरे ,

कलियों की आंख न खुल जाये !


गुरुवार, 10 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी - विद्रोही । यह हमने उनके वर्ष 1941 में प्रकाशित कहानी संग्रह 'कारवां' से ली है। इस कहानी संग्रह को पृथ्वीराज मिश्र ने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया था। इस संग्रह की भूमिका पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखी थी ।


 चित्रकार के सामने कैनवस पर आधा चित्र बन चुका था। मेज पर तरह-तरह के रंग और ब्रश रखे हुए थे। उसकी कल्पना चित्र-रचना में डूबी हुई थी। आँखों से प्रतिमा का प्रकाश सामने चित्र-पट पर बरस रहा था । नुकीली पतली नासिका उसके कुशल कलाकार होने का परिचय दे रही थी। इस समय वह स्वप्न-लोक के खिले हुए पुष्प के समान अवर्णनीय सौन्दर्य ग्रहण किये हुए था । आज तड़के ही से उसकी आँखें खुल गयी थीं। उनकी निद्रा रूप रचना की लालसा ने चुराली थी। उसने विद्युत प्रकाश किया और - स्टूडियो में खड़े-खड़े उसके कर एक सुन्दर चित्रपट पर तूलिका से अपार सौन्दर्य को क्रमशः रेखा-बद्ध करने लगे। आँखों में एक छवि झूल रही थी  और सामने तूलिका व्याकुलता से कैनवस पर चल रही थी। उसे कई घन्टे इसी तरह व्यतीत हो गये, प्रभात की रश्मियां अब आरम्भ हो चुकी थीं।

वह कार्य कर ही रहा था कि उसके सेवक ने धीरे-धीरे स्टूडियो में प्रवेश करके उससे कहा - "स्वामी, डाकिया ये लिफाफे और कार्ड लाया है।" "सामने मेज पर रख कर चले जाओ" - उत्तर देकर चित्रकार फिर एक नया ब्रश उठाकर रंग भरने में तल्लीन हो गया। नौकर दबे पैर आज्ञा पालन कर कक्ष से धीरे-धीरे बाहर चला गया । वह कुछ बड़ बड़ाता हुआ बाहर जा रहा था। जैसे अपने स्वामी के पागल पन पर खीझ रहा हो ।
      मध्यान्ह तक चित्र भी समाप्त हो गया। उल्लास की एक रेखा उसके विकसित मुख पर दौड़ रही थी। वह अपने चित्र को देखता जाता था और अस्फुट बुदबुद स्वर में उसकी प्रशंसा भी करता जाता था । चित्र एक पुष्प से उत्पन्न रमणी का था, उसमें अनन्त वसन्त का यौवन और विकास अवतरित हुआ था। कुछ कालतक वह मुग्ध निर्निमेष दृष्टि से चित्र के रूप को निरखता रहा और मन ही मन प्रसन्न होता रहा। यह चित्र भविष्य में संसार के आलोचकों का अमर अजेय मोह बन जायगा, उस का ऐसा दृढ़ विश्वास था। इस चित्र के प्रकाशन के बाद उसकी अनवरत साधना कुसुमित हो जायगी। हर्षातिरेक से अपनी मानवीय सीमा को भूलते हुए चित्रकार ने रंगों की उस प्रतिमा को सम्बोधित करते हुए कहा रूपसि ! जिस प्रकार उषा को जन्म देकर उसका पिता सूर्य अपनी पुत्री पर रीझ उठता है और उसके यौवन को निरखने के लिए तत्काल मेघों के परदों से झाँकने लगता है और फिर कन्या अपने पिता को चिरकाल को दूसरे रूप में वरण कर लेती हैं वैसे ही आज से तुम भी मेरे हृदय को अपने सौन्दर्य से जगमगाती रहो। अच्छा, अब मुझे अपने दैनिक कार्यों से निबटने की आज्ञा दो, तुम्हारी ग्रीवा में माला फिर पहनाऊँगा ।" चित्रकार ने यह कह कर भावावेश में अपनी सुन्दर कृति के कपोल उसे रति समझते हुए चूम लिये | चित्र का नाम पुष्पा था ।
चित्रकार ने लिफाफे खोलना प्रारम्भ किये । लिफाफे पत्रिकाओं के सम्पादकों के भेजे हुए थे। पहला लिफ़ाफ़ा 'उषा' के सम्पादक का था | सम्पादक ने उसका चित्र 'सौंदर्य अवतरण' वापस भेजते हुए लिखा था- चित्र अत्यंत चित्ताकर्षक, मनोहर और कल्पनापूर्ण है । कलाकार को अमर करने के लिए ऐसी एक कृति ही पर्याप्त है । संसार में सौंदर्य ने किस प्रकार जन्म लिया, इसकी कल्पना में मौलिकता और स्वाभाविकता दोनों ही का सुन्दर सामंजस्य है लेकिन हमें खेद है कि हम इसे प्रकाशित नहीं कर सकते । शिष्टाचार, नीति और सदाचार के नाते ऐसे चित्रों को प्रोत्साहन न देने में ही समाज का कल्याण है ! " पत्र पढ़ते ही चित्रकार कलेजा मसोस कर रह गया। झूठी नीति का ख्याल उसे घायल कर रहा था ।
    दूसरा लिफाफा 'इन्दु' के सम्पादक का था। उन्होंने चित्र वापस करते हुए अपनी टिप्पणी भी लिख दी थी कि हम ऐसे अश्लील, धृष्ट और हेय चित्र को छाप कर अपनी ग्राहक संख्या नहीं घटाना चाहते | हम व्यवसाय की दृष्टि से इसका प्रकाशन करने में असमर्थ हैं, यद्यपि ऐसा सुन्दर चित्र 'सुरा और साकी' हमारी दृष्टि से अभी तक नहीं गुजरा है। हम न छाप सकने पर भी आपको इस कलाकृति के लिए बधाई दिये बिना नहीं रह सकते। इसी प्रकार किसी सम्पादक ने यह लिखा था कि चित्र देखने में अत्यन्त सुन्दर है लेकिन ऐसे चित्र को छाप कर वे पब्लिक को किस प्रकार मुँह दिखा सकते हैं। किसी ने यह लिखा था कि चित्र बड़ा ही कलापूर्ण मालूम होता है यद्यपि उसकी कला वह समझ नहीं सका। अत: चित्र वापस किया जा रहा है। जैसे गूंगा मिठास का आनन्द तो लेता है लेकिन 'मिठाई क्या है' बता नहीं सकता । कोई सम्पादक जो बहुत शिष्ट था उसने केवल इतना ही लिखकर चित्र वापस कर दिया था कि 'हम स्थानाभाव के कारण छापने में असमर्थ हैं।' वह इन संक्षिप्त शब्दों का अर्थ खूब समझता था । ये गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ करते हैं।
     चित्रकार ने लिफाफे जमीन पर पटक दिये। कितने ही काल से निराशा उसका भोजन और नीर बन चुकी थी। वह ऐसे ढोंगी संसार से नाता तोड़ रहा था। वह बाहर इष्ट मित्रों से बहुत कम मिलने जाया करता था | अब वह साहित्यिक संसार से भी सम्बन्ध अलग करने की सोच रहा था। कभी-कभी उसके हृदय में ऐसी विचार-तरंगें उठती थीं कि वह अपने रंग बहा दे, ब्रश और तूलिकाएँ तोड़ डाले और पटपत्रों में आग लगा दे, लेकिन ललित कला का प्रेमी उनके बिना जी भी कैसे सकता है ? वह फिर उन धक्कों को भूल जाने की कोशिश करता और अपने इष्ट की आराधना में मग्न हो जाता था ।
     चित्रकार उदास, आभाहीन, विवर्ण आनन लिये हुए उठा और कमरे में गुनगुनाता हुआ धीरे-धीरे टहलने लगा । उसका आत्म विश्वास ठगा गया था, साधना विक्षिप्त हो रही थी और विवेचना गूंगी संसार की रुचि को अपनाने की चेष्टा उससे न होती थी और न वह अपने चित्रों को बाजारू बनाना चाहता था। वह अपनी कला की परख वाली हीरे की दृष्टि काँच के परखने वालों की आँखों से कैसे बदल ले ? स्वान्तः सुखाय के अतिरिक्त यश और ख्याति की आशा उसे न छल सकेगी | अब वह प्रकाशकों के पास अपनी कृतियाँ प्रकाशनार्थ न भेजेगा जिनमें साहस, क्रान्ति, नवीनता तथा मौलिकता के लिए सहानुभूति नहीं है । उसे इन विचारों में बहुत देर हो गई। नौकर को झाँकते हुए देख कर वह दैनिक कार्यों को समाप्त करने के लिए कक्ष से बाहर चला गया |
निपट निराशा में इतना दुःख नहीं होता जितना उसे उकसाने वाली आशा के यदाकदा विफल दौरे होते रहने पर । एक लौ से जलने वाले दीप का प्रकाश आँखों को बहुत तेज होने पर भी सुहा जाता है, उसी तरह घोर अटूट अन्धकार भी, लेकिन बिजली की क्षणिक दमक सन्तोषी जीवन को तृष्णा का गरल पिला देती है । चित्रकार का जीवन शतरंज की पटी की तरह, दिन में वृक्ष की छाया की तरह, आशा और निराशा से दुरंगा था। वह कभी अधीर उबल उठता तो कभी शीतल हिम की तरह जम जाता था । कला के पुजारियों की यही दशा हुआ करती है । आलोचकों के थप्पड़ों की उनके गालों को आदत होनी चाहिए और एक गाल के बाद दूसरा गाल बढ़ा देने की क्षमता भी  लेकिन चित्रकार अभी युवक ही था वह सांसारिक पाठ धीरे धीरे सीख रहा था ।

एक दिन उसका एक साहित्यिक मित्र उससे मिलने आया । दोनों कई वर्ष तक प्रयाग विश्वविद्यालय में सहपाठी रह चुके थे और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए थे। दोनों छाती भर कर मिले, जैसे कृष्ण और सुदामा | वह विवेकी आलोचक भी था | उसने चित्रकार से कहा – “आदर आतिथ्य तो फिर करना पहले यह तो बताओ कि वह पुरानी बीमारी चली जा रही है या अच्छे हो गये हो ?" "उस रोग का इलाज ही कहाँ है? हाँ, तुम आलोचक हो, ऐसी दवा दे सकते हो कि रोग न रहे, न रोगी ही।" चित्रकार ने मार्मिक ढंग से मजाक करते हुए उत्तर दिया ।
(हँसते हुए) “समझ गया, लेकिन तुम्हारे चित्र किसी पत्रिका में देखने को नहीं मिले । "
“रोगी ने तुम्हारी कड़वी गोली की कभी आवश्यकता नहीं समझी | " " उन गोलियों के बिना सुधार नहीं हो सकता।”
“ और सुधार के बिना प्रकाशन नहीं हो सकता।”
"मतलब ? "
“मुझ में परिष्कृत रुचि नहीं मेरे चित्र अश्लील और अनैतिक होते हैं, इसलिए सम्पादक छाप नहीं सकते। उन्हें यह भय है कि मेरी अश्लीलता की मुहर उनके मोम के सांचे पर न लग जाय ।”
“ मैं भी तो उन चित्रों को देखूं । "
"कहीं तुम्हारे मानस में काई लग गई तो ?”
" फिर तुम्हारी संख्या बढ़ जायगी | "
" ठीक है । बहुमत के दोष उसकी शक्ति बन जाते हैं। अच्छा तो भीतर आओ । ”
दोनों उठ खड़े हुए और स्टूडियो में पहुँचे । चारों ओर तरह तरह के चित्र बने हुए रखे थे। कई कैनवस कोरे टँगे हुए थे और कई पर केवल रेखा चित्र ही बने थे। उनमें अभी रंग भरना शेष था, तरह-तरह के रंग और ब्रश, तूलिकाएँ, कैंची, चाकू तथा चित्रकारी के अन्य यन्त्र वहाँ संग्रहीत थे । इधर-उधर छोटे-बड़े दर्पण जड़े हुए थे और उनके निकट मिट्टी के बने हुए चित्र क़रीने से सजे हुए थे । काग़ज़ पर बने चित्र भी स्थान स्थान पर सुन्दर बेल वूटों से खचित चौखटों में जड़े हुए दीवालों से टँगे थे । चित्रकारी का सारा सामान जुटाया हुआ था । मूँज की चटाइयों पर मखमल और सूत की रंग-बिरंगी कालीनों का फ़र्श था। एक दो मेज पर लिखने-पढ़ने का सामान भी था तथा एक कोने में चित्रकला सम्बन्धी पुस्तकों से भरी हुई एक अलमारी रखी हुई थी । चित्रकार चित्रों को दिखलाता हुआ अपने चित्रकला सम्बन्धी विचार प्रकट करता जाता था जैसे आजकल प्राचीन इमारतों के दिखलाने गाइड' काम करते हैं और उसका मित्र विस्फारित प्रशंसक दृष्टि से चित्रों को देखता जाता था। उसका जी चित्रों को देखकर भरता ही न था, वह जिस चित्र को भी देखता उसी पर उसकी नज़र चिपक जाती। ऐसे सुन्दर चित्र उसने कभी नहीं देखे थे । चित्र देखते हुए दोनों अब सबसे नवीन चित्र के निकट आ पहुँचे । यह सबसे अंतिम चित्र 'पुष्पा का था। अभी तक चित्रकार ने उसे माला नहीं पहनायी थी। उसका हृदय इतना भारी हो चुका था कि वह तूलिका न उठा सकता था और तब से उसे उसने अपूर्ण ही छोड़ रखा था । चित्रकार उस चित्र की ओर संकेत करता हुआ दुखित स्वर में अपने मित्र से बोला: – " मित्र, यह मेरा अन्तिम प्रयास है, अभी तक मैंने इसे पूरा भी नहीं किया है ।
" क्यों ? तुम्हारे चित्र इतने कलापूर्ण हैं कि सर्वोत्तम कलाकार ने ही ऐसे सुन्दर चित्र बनाये होंगे ।
" लेकिन संसार इन्हें केवल एकान्त के लिये सुन्दर समझता है । विश्व के आलोक में इन्हें देखने की हिम्मत नहीं रखता । " वे ढोंगी हैं । सुन्दर सर्वत्र सुन्दर है, प्राइवेट में भी और पब्लिक में भी । इसे पूरा कर डालो । "
" तुम्हें सचमुच चित्र पसन्द आये या केवल मैत्री के नाते से ही.....?
" विश्वास करो, तुम्हारे स्टूडियो में हीरों की खान है जिनका मूल्य अङ्कों की गिनती में नहीं आ सकता । "
" देखो, मैं अभी चित्र पूरा किये देता हूँ — " कहकर कलाकार ने तूलिका उठाली । जितनी जितनी माला बनती गई उसका मित्र प्रशंसापूर्ण विस्मित नेत्रों से कभी उसके मुख को कभी तूलिका को और कभी चित्र को देखता रहा। इतना अभ्यस्त कर उसने कभी
किसी चित्रकार का नहीं देखा था। कुछ ही काल में माला हो गई। चित्रकार गद्-गद् बोल उठा — “ रूपसि ! तुम्हारी वर्णमाला पूर्ण हो गई । "
“ मित्र, तुमने कमाल हासिल कर लिया है - " आदर के स्वर में चित्रकार से उसने कहा
" चित्र कैसा है ? " चित्रकार ने पूछा ।
“ सबसे श्रेष्ठ और कलापूर्ण । तुम अपने चित्र “ पिक्चर्स आर्ट गैलरी" में अवश्य भेजना सर्व प्रथम पारितोषिक पाओगे।"
“कलाकार धन का भूखा नहीं होता। केवल सम्मान चाहता है | क्या चित्र इतने सुन्दर हैं ?"
" निस्सन्देह, और चित्र को तो जी चाहता है कि अपने साथ ले जाऊँ।"
"सच ? "
" हां "
"तो लो, मेरी ओर से इसे उपहार समझो। ( उसका हाथ पकड़ते हुए) संकोच मत करो, ले लो, इसे अपनी ही वस्तु समझो | "
(प्रसन्नता से हाथ बढ़ाते हुए) "लाओ, (लेकिन उसी क्षण हाथ खींचते हुए) आज नहीं फिर कभी ले जाऊँगा ।”
" न लेने का बहाना अच्छा है, (हँसते हुए) क्यों ?"
"क्षमा करो। स्पष्ट कह रहा हूँ, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी फूल सी कोमल कल्पना पर चित्र का बुरा प्रभाव पड़ेगा ।"
(व्यंगपूर्वक) "उनके मानस में काई लग जाने का भय है। बड़े सीधे हो ढोंग करना नहीं जानते | "
( घबराते हुए ) "अब मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ ।”
" धन्यवाद !"
चित्रकार का मित्र डगमगाते पैरों से शीघ्रातिशीघ्र कक्ष से बाहर हो गया । खुले मैदान में पहुँच कर उसने आराम की साँस ली । अब तक उसका दम घुट-सा रहा था । परीक्षा के वे क्षण याद कर वह काँप गया, कन्धे उठाकर चित्रकार मार्मिक चोट खाया हुआ सा कोच पर लेट गया और उसने हाथों से आँखें ढक कर आशा का कपड़ा उधेड़ना शुरू कर दिया, संसार की ढोल की नीति से वह कितनी बार धोखा खा चुका था ।
   उसने एक मास बँधे हुए पानी के सरोवर की भांति निस्पन्द, निर्जीव आलस्य में बिता दिया, तूलिका हाथ में बिना पकड़े हुए | वह कभी तरंग उठने पर स्टूडियों में चोरों की तरह घुसता और घबरा कर उसी क्षण बाहर निकल आता था। कमरे में गर्द चढ़ने लगी थी, जैसी त्यागे हुए स्थान की दशा हो जाती है ।
संसार का क्रम ही परिवर्तनशील है वह एक बार फिर रंगों की दुनियों बनाने में अपने को बाँधने लगा और साथ ही साथ उसके हृदय में यश अर्जन लिप्सा सजग होने लगी। कलाकार की सबसे महान् दुर्बलता यही होती है ।
'पिक्चर्स आर्ट गैलरी' के उद्घाटन का समय ज्यों ज्यों निकट आने लगा उसके हृदय की उत्तेजना बढ़ने लगी। चित्रकारों के समुदाय में एक बार बैठने की अभिलाषा उसके उर को उकसा रही थी। शराबी की तरह निषेध का प्रण उसे कब तक रोक सकता था ? आखिर उसने अपने सर्वोत्तम चित्र छाँट ही डाले और पिक्चर्स गैलरी में भेज दिये। उसने सोचा कि असफलता होने पर उसका प्रतियोगिता के अखाड़े में अन्तिम बार ही उतरना होगा ।
उन दिनों उसके हृदय में कितनी धुकधुक रहती थी। वह दिन बड़ी बेचैनी से बीतते थे । समाचार पत्रों में निर्णय छपा । उसका नम्बर केवल इसलिए नीचे धकेल दिया गया था कि उसके चित्र समष्टि के लिए कल्याणकारी नहीं थे। बाग़ी को वहाँ भी सहारा न मिला । कला की वस्तु पर साधारण के लाभ की छाप होनी चाहिए। इस बार भी वह अपने मन से अपने कला के आदर्शों से इन निर्णायकों के दृष्टिकोण का समझौता न कर सका लेकिन इस बार उसके विद्रोह की आग पर क्षणिक राख भी न पड़ सकी, वह और भी तीव्र भड़क उठा। इस बार उसके भीतर का नर जाग उठा था जैसे सोये हुए सिंह को छेड़ने पर । उसने संसार को चुनौती देने की ठान ली ।
इस घटना के कई दिन बाद वह एक सन्ध्या में अपने स्टूडियो में बैठा हुआ चित्र बना रहा था, नौकर ने सूचना दी कि एक नवयुवती महिला आप से मिलना चाहती है। वह उन्हें अन्दर लाने की आज्ञा देकर उत्सुक दृष्टि से नवागन्तुका की प्रतीक्षा करता हुआ द्वार की ओर देखने लगा। द्वार खुला और सौन्दर्य की एक प्रतिमा ने अन्दर प्रवेश किया। दोनों में बात चीत प्रारम्भ हो गयी। उसके लावण्य के साथ विद्रोह की ज्वाला उसके स्वर तथा हाव-भाव भंगिमाओं में भभक उठती थी। उसने बतलाया कि वह उससे चित्रकला सीखना चाहती है। उसने पिक्चर्स गैलरी में उसके चित्र देखे थे और उसे वे सबसे अधिक पसन्द आये थे । चित्रकार एकाएक उसकी बातों पर विश्वास न कर सका । उसने उत्तर दिया "लेकिन वे चित्रनीति के नियमों का उल्लंघन करते हैं। समाज शरीर को संघातक रोग की तरह उनसे विपक्ति की आशंका है। फिर आप उन्हें कैसे पसन्द करती हैं ?"
"वे संक्रामक अवश्य हैं। मुझे भी उनसे छूत लग गयी | "
" इसी कारण आप किसी तीर्थ को जाएं और देवालय में रहें , यहाँ शो शायद ही...|''
“ लेकिन मेरा तीर्थ तो यही है, देवालय भी यही बनेगा।" ( हँसते हुए ) आप अपनी आत्मा को बचाने का प्रयत्न करें।"
" मै अब किसी और धर्म में अपनी शुद्धि नहीं चाहती। आप मुझे दीक्षा दें और शिक्षा भी । "
चित्रकार कुछ और न कह सका। उसने उसे चित्रकला की शिक्षा देना स्वीकार कर लिया आज उसने चित्र ही दिखलाये। उसे अब कुछ कम एक वर्ष सीखते हुए बीत गया । उसने अपने लेखों द्वारा साहित्य क्षेत्र में चित्रकार के अनुकूल वातावरण बना दिया | उसके लेख गहन, गवेषणा पूर्ण होते थे और पत्रिकाओं में छपते थे। कुछ सम्पादक यदा कदा चित्रकार के चित्र भी छाप देते थे | प्रोपेगेन्डा का यही महत्व है । चित्रकार के हृदय में उसकी शिष्या ने घर कर लिया था । एक दिन दोनों स्टूडियो में बैठे हुए थे । बाहर रिमझिम रिमझिम बूंदें गिर रही थीं । अँधेरे में कभी बिजली जैसे हँसी उनके गम्भीर मुख पर दौड़ पड़ती थी। उसने चित्रकार से कहा -
"आज मुझे पूरा एक वर्ष हो गया । आज ही के दिन मैं यहाँ आई थी।"
"बड़ा ही शुभ था वह दिन । मुझे तो एक वर्ष एक दिन की तरह मालूम हुआ | ये दिन कितने सुख से कटे ! "
"अब मैं विदा चाहती हूँ ।"
( चौंकते हुए ) " क्यों ?”
“मेरा उद्देश्य समाप्त हो चुका है । "
“लेकिन मैं किस तरह से रह सकूंगा ?"
“पहले की तरह, तब भी तो अकेले थे, निपट अकेले साहित्य तथा संसार में । "
पर तब भी मुझे अपनी दुर्बलता प्यारी मालूम होती है। तुम्हारा वियोग असह्य होगा |”
“ऐसी मुझमें कौनसी वस्तु है जिसको बिना देखे तुम रह नहीं सकते।"
" तुम ! "
“ मैं भी तुम्हें विदाई के उपलक्ष्य में कुछ देना चाहती हूँ और वह भी तुम्हारा मन चाहा | "
" सच ?" चित्रकार उछल पड़ा ।
( उसका कर चूमते हुए ) “तुम्हें मैंने धोका ही कब दिया ? मैं तुम्हें अनन्त काल के लिये, अनन्त आनन्द के लिये अपने को ही दे रही हूँ । उठो, यह लो "
इतना कह कर प्रकाश के नीचे चित्रकार की मेज़ के पास कैनवेस खचित लकड़ी के सहारे वह खड़ी हो गई। उसके वस्त्र खिसक गये थे, किसी यन्त्र की तरह उसने चित्रकार से सस्मित अधरों से कहा
“आओ, चित्रकार आओ, अपनी तूलिका उठा लो और रंगों से अमर चित्रपटी पर मुझे ग्रहण कर लो ।”
चित्रकार मुस्कराता हुआ उठा। वह माडेल की भाँति कैनवेस की लकड़ी के सहारे मुस्कराती खड़ी थी और चित्रकार की चंचल उँगलियाँ तूलिका और रंगों के सहारे मनोवांछित वस्तु ग्रहण करने के लिये चित्रपटी पर उत्सुक दौड़ रही थीं ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
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मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 9 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी --- नया अनुभव । यह कहानी उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है । यह कहानी संग्रह सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया था ।


रामजीमल वास्तव में चोर नहीं था लेकिन जिसके यहाँ चोरी का माल पकड़ा जावे वह अपने को निर्दोष कैसे सिद्ध कर सकता है। अन्त में रामजी• मल के हजार कहने पर भी उसे चोरी में छह महीने की सजा हो ही गई। आज तक उसका अंञ्चल साफ था लेकिन जेल में पहुँच कर उसने सभी हुनर सीख लिये । वह चुटकी बजाते बजाते जेब काट सकता था, ताला तोड़ डालना उसके बायें हाथ का खेल था | ताश के पत्तों के खेल उसे एक से एक अच्छे आते थे । कौड़ियाँ फेंकने में वह इतना दक्ष होगया था कि जो दांव माँगता वही आता था । जैसे वह कुछ पढ़ कर कौड़ियाँ फेंकता हो । शराब, चरस, कोकीन, और भांग 0यह नशे उसके जीवन के साथी बन गये थे। सारांश कि जेल ने उसे पक्का सभ्य बना दिया था ।

       जेल से छूटने पर उसे अपने चारों ओर अन्धकार दिखाई दिया। अब कोई भी उसके साथ बैठकर बातचीत करना, हँसना और खेलना पसन्द नहीं करता था। उसके पहुँचने पर सभायें उजड़ जाती थीं । उसने नौकरी बहुत तलाश की लेकिन भला कौन सजा काटे हुए व्यक्ति को अपने यहाँ स्थान दे सकता था ? वह दर-दर मारा बेकार फिरा भूख ने उसके पेट और कमर एक कर दिया । व्यवसाय करने के लिए उसके पास धन नहीं था, वह यही सोचा करता था कि वास्तव में क्या मैं चोर हूँ | क्या संसार मुझे चोरी करने के लिए बाध्य नहीं कर रहा है ? एक बार वह एक बैंक में एक जगह खाली होने की खबर सुनकर आवेदन पत्र लिये पहुँचा। वह खजान्ची या रुपये पैसे रखने या लेने देने वाले काम की नौकरी नहीं माँग रहा था। वह सिर्फ बैंक में चपरासी होना चाह रहा था। आवेदन पत्र लिए मैनेजर के कमरे से वह लौट आया। बैंक में प्रमाण पत्र पाये हुए को जगह कहाँ ? इसी तरह वह एक बीमा कम्पनी के दफ्तर में चपरासी की नौकरी के लिए दरख्वास्त लिए ला रहा था | बरसात का मौसम था सड़क पर कुछ कीचड़ थी । वह पैदल अपना मार्ग पूरा कर रहा था कि बीमा कम्पनी के मैनेजर की मोटर सनसनाती हुई रास्ते से निकल गई । छींटों से उसके कपड़े खराब हो गये । उसने आसमान की ओर देखा और एक ठण्डी आह भरते हुए सोचा कि वह दिन कब आएगा कि जब हम सब आदमी एक दूसरे के बराबर होंगे ।

        जब वह बीमा कम्पनी के मैनेजर के पास पहुँचा तब वहाँ ने उसको धक्के देकर बाहर निकाल दिया । एक गन्दे आदमी को सने हुए जूते पहन कर दफ़्तर का फ़र्श खराब करने का क्या अधिकार हो सकता है ? सर्राफ़, बजाज, बिसाती, पंसारी या ऐसे ही और सौदागर एक चोर को अपने यहाँ किस तरह स्थान दे सकते थे ।

अब उसने भीख माँगने की ठानी ।

नर्बदा तालाब पर रहने वाले महात्माओं के शिष्य भिक्षाटन के लिये वैकुण्ठी कामर लेकर नगर में रोज सुबह दौरा करते थे और शाम तक आटा दाल चावल और बहुत सा घी और पैसे लेकर मठ को लौटते थे। कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव पर वहाँ मठ में बड़ी धूमधाम से जल्सा होता था गाने बजाने के समारोह के साथ साथ श्रद्धालु भक्त चलते समय रुपये पैसे चढ़ाते थे । प्रयागदास एक मोटी थैली में उस दिन की आमदनी संभाल कर अन्दर रखने गए । रामजी भी भूखा गाना बजाना सुनता रहा । भूखे को ऐसे गाने बजाने से आनन्द ही क्या आ सकता है ? जब कृष्ण जन्म हो चुका और जनता चली गई तो रामजीमल ने महन्त प्रयागदास के चरण पकड़ लिए और उनसे कुछ खाना देने के लिए अनुनय विनय की । वह मिठाइयां और फल खाकर वहीं सोगया । महन्त जी और उसके शिष्यगण भी सो गये । रामजीमल ने उस बड़ी थैली को रुपयों और पैसों से ठसाठस भरा देखा था। माया ने उसकी आँखों की नींद हर ली थी । वह नींद का बहाना किये हुए लेटा रहा। अवसर पाकर वह महन्त जी की उसी कोठरी घुस गया, जहाँ वह मोटी थैली रखी हुई थी। मोटी रैली पाकर वह फूला न समाया | वह सोच रहा था कि अब एक महीने के लिए खाने का प्रबन्ध हो गया ।

      वह मठ से निकला पागल की तरह भागा सड़क पर चला जा रहा था । रास्ते में तालाब में स्नान करने को जाने वाले महन्तजी के कुछ भक्तों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया, थैली इस समय भी उसके हाथ में थी। एक ने टार्च की रोशनी में थैली पहचानते हुए दूसरे से कहा । यह तो वही थैली मालूम होती है जिसमें महन्त जी रोज की आमदनी रखते हैं। दूसरे ने राम जी के हाथ से थैली छीन की । अव सब रामजीमल को पकड़ कर मठ में ले आये । महन्त जी इस समय भजन कर रहे थे। कुछ झुकमुका हो गया था। भक्तों ने रामजीमल को महन्त जी के सामने उपस्थित कर दिया और सब कहानी सुना दी । महन्त जी कुछ मुस्कराये और बोले आप सब ने इनके साथ बड़ा ही अन्याय किया | यह थैली इन्होंने चुराई नहीं थी। यह कई दिन के भूखे थे इसलिये मैंने यह थैली इन्हें दे डाली थी। उनमें से एक ने महन्त जी से पूछा कि आप भूल तो नहीं रहे हैं। महन्तजी नै दृढ़ स्वर में उत्तर दिया । नहीं थैली मैंने ही दी है। आप सब जाइये और इन्हें भी जाने दीजिये ।महंत जी के भक्त धीरे धीरे बाहर चले गये । रामजीमल हाथ में थैली थामे वहीं खड़ा हुआ महन्त जी की उदारता पर अचम्भा कर रहा था । यह उसके जीवन में एक नया अनुभव था ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मंगलवार, 8 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी ---परीक्षा । यह कहानी सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है ।

 


बनारस अब भी हिन्दुत्व का दुर्ग है। सुना जाता है कि दर्शक के मस्तिष्क पर काशी के दर्शन मात्र से ही पवित्र भावनाओं की छाप लग जाती है। पीतल के उच्च कलशों के बुर्ज आकाश से संदेश लेते हुए प्रतीत होते हैं। उनकी तेज चमक ऐसी मालूम होती है, जैसे विधाता उनपर आशीर्वाद कर फेर रहा हो, और मानों सूर्य की किरणें अंधेरा होने पर उन्हीं कलशों पर सो जाती हों। मन्दिर को देखकर मानव के स्मृति इतिहास के उन पन्नों की ओर एकाएक दौड़ जाती है, जिनमें काशी का सुनहरा अतीत, उसके महत्त्व की गाथाएँ अन्धविश्वासी प्रश्न से परे श्रद्धा से संचित हैं। काशी की गलियाँ पाण्डित्य के ललाट पर उभरी हुई संकीर्णता की रेखाओं-सी फैली जान पड़ती हैं । यहाँ के वातावरण में कट्टर धर्मावलम्बी को, शक्ति तथा उदार विचार वाले व्यक्ति को क्षोभ तथा ग्लानि मिलती हैं ।

    गङ्गा के किनारे दीप से बसे हुए इसी नगर की यह एक पुरानी कहानी है। अंधेरा हो चुका था। ठीक वही समय था, जबकि बालाखानों से सितार की झंकारें और कामिनीकण्ठ की मीठी-मीठी तानें सड़क पर चलने वालों के दिलों को चंचल कर देती हैं। इन घरों में रात को ही वसन्त आता है। दिन का प्रकाश कृत्रिमरूप से यहाँ पैदा किये जाने का विराट प्रयत्न देखने को मिल सकता है। तुम्हारे अनुसार नरक के अंधेरे गन्दे कोने इसी समय स्वच्छ और आलोकित दिखलाई देते हैं। मैं ऐसे ही समय की बात कह रहा हूं जबकि ऊंचे कमरों के जीने खुले हुए, मेहमानों को बुलाने के लिये संकेत करते हुए मालूम होते हैं।

     तुम उसका नाम और पता जानने चाहते हो। मैं किसी के रहस्य को खोलने के लिये तैयार नहीं। तुन्हें इसी से सन्तोष कर लेना चाहिये कि उस देवाङ्गना का नाम कनक और पेशा परमार्थ था। शायद तुम मेरा मतलब ठीक-ठीक समझ गये होंगे। इस युग में इसी तरह रहना तो चाहिये। वह अप्सरा का सौन्दर्य और कंठ में गन्धर्व कुमारी का स्वर लिये पैदा हुई थी। वह इस व्यवसाय में कैसे आई, उसकी माता भी एक अप्सरा रही होगी, कौन कह सकता है। उसके यौवन का उभार बीस वसन्त ऋतुओं का मद और उन्माद, राग से अनुराग विजय और प्रभुता लिये हुए था। उसको महफिल में काशी के पूज्य पण्डित, शमा पर परवाने से जलते हुए देखे जा सकते थे। सम्भव है कि वे अपने विराग की परीक्षा लेने ही आते हों।

       नर्तकी भी वह साधारण नहीं थी। उसके पदाक्षेप से नृत्य का अस्तित्व स्थिर किया जा सकता था। उसके चरण चरण पर जीवन उठता और गिरता। दिशाएँ तन्मयता से नृत्य के संगीत को कान उठाये सुनतीं और उसके नृत्य को देखने ही के लिये आसमान पर तारे अपने घरों से बाहर निकल आते मालूम होते थे। वह गा रही थी--

रति सुख सारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशं । 

न कुस नितंबिनि गमन विलम्बनुसरतं हृदयेशं ||

धीर समीरे यमुना तीरे वसति बने बनमाली || 

    श्री जयदेव के लिए इस से बढ़ कर क्या प्रशंसा हो सकती है ? उनकी दिवंगतात्मा अपनी कृति के इस प्रचार पर कितनी प्रसन्न होती होगी ! काश, श्री जयदेव आज हमारे मध्य में होते और उस अप्सरा को अपने गीत गोविन्द को इस प्रकार गाते हुए सुनते ?

   इस समय कनक की सभा में पण्डित, वेदव्रती, धनिक, जौहरी, प्रोफे सर, डाक्टर, बैरिस्टर, सट्टेबाज़, कला विशारद तथा संगीत प्रेमी भिन्न भिन्न प्रकार की रुचि के नमू ने इकटठे थे । नर्तकी नाचती और गाती जाती थी और उसके सभासद गरम दिल से अपनी जेबें ठण्डी करते जा रहे थे। वह नाज़ के साथ अपने दाता पास आती और नाचती हुई, दिये हुए उपहारों को ले जाती थी। सहसा दर्शक मण्डली की आँखें एक कषाय वस्त्रधारी सजीव मनुष्य प्रतिमा की ओर उठ गई । एक भिक्षुक उस मंडली में घुस आया था । दर्शक भला इस बात को कैसे सहन कर सकते थे, अगर उस समय तुम भी वहाँ होते, तो शायद आग-बबूला हो गये होते, और उन्हीं लोगों की तरह उसे बाहर निकालने पर उतारू हो जाते ।उसको नाच देखने की दावत देना भला कौन-सा शिष्ट व्यक्ति उचित समझ सकता था। नायिका ने आगे बढ़कर संन्यासी को भीतर आने से रोका। उसने व्यंग करते हुए कहा- क्या यहाँ कोई सदाव्रत खुला हुआ है ? यह धर्मशाला नहीं है ।सन्यासी ने उत्तर दिया – 'हाँ जानता हूँ, धर्मशाला नहीं घनशाला है। जो यहाँ का कर अदा कर सकेगा वही बैठने का अधिकारी होगा। पैसे से वेश्या तो खरीदी ही जा सकती है । 

   सभा में बैठे हुए जौहरी ने तड़क कर कहा- "बड़ा आया है खरीदने वाला| दिन भर पैसा पैसा भीख माँगा किये और रात को चल दिये नाच देखने । बोलो,कै पैसे भीख में पाये ?"

   सन्यासी ने किन्चित रोष भरे स्वर में उत्तर दिया- “मैं तुम्हारी जैसी कितनी ही सभाओं को खरीद सकता हूँ । ( नर्तकी की ओर संकेत करते हुए ) बोलो, तुम्हें इन सबसे तथा दूसरे और व्यक्तियों से क्या मिल जाता है ?

नर्तकी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'यही 2000 रु० मासिक।," सन्यासी ने कहा – 'मैं तुम्हें 4000 रु० मासिक दूंगा, किन्तु एक शर्त के साथ | तुम्हें इन सब उपस्थित व्यक्तियों को यहाँ से निकाल देना होगा, और तुम बिना मेरी आज्ञा के किसी पुरुष से नहीं मिल सकोगी और कहीं भी आ जा न सकोगी ।. जब तक मैं तुम्हें निश्चित वेतन देता रहूँगा तब तक तुम्हें इस शर्त को मानना पड़ेगा। हारने पर जितना रुपया मेरा तुम्हारे पास पहुंचेगा, वह सब तुम्हें वापस करना होगा । नर्तकी ने हँसी खुशी के साथ संन्यासी की शर्त मंजूर कर ली । सन्यासी ने एक हीरे की माला अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए नर्तकी को उसी समय भेंट कर दी। नर्तकी के मेहमान एक-एक कर जीने की सीढ़ियां नीचे  जाते हुए आखिरी बार गिन रहे थे ।

  नर्तकी को विश्वास था कि वह इस शर्त में अवश्य जीत जायगी और सन्यासी कुछ महीनों तक या अधिक से अधिक कुछ वर्षों तक इतनी बड़ी रकम को देकर अपनी मूर्खता का अनुभव करने लगेगा और फिर एक बार वह धनी होकर अपनी आज़ादी का भी आनन्द ले सकेगी। संन्यासी समझता था कि नर्तकी फिर भी एक वेश्या है। धन उसकी प्यास को नहीं बुझा सकता । वह सोने के पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह निर्बन्ध होकर मुक्त वातावरण में जाने के लिए बेचैन रहेगी । वह अपना वचन नहीं निभा सकेगी और अन्त में जो कुछ उसका धन नर्तकी के पास पहुँचेगा वह सब मुझे वापिस मिल जावेगा।

    सन्यासी ने एक कोठी में नर्तकी के रहने का प्रबन्ध कर दिया। केवल उसकी नायिका उसके साथ थी । उस कोठी के साथ एक बगीचा भी था । नर्तकी को बगीचे से बाहर कदम रखने की आज्ञा न थो । कोठी की चहार दीवारी इतनी ऊँची थी कि बाहर का चलता-फिरता कोई भो पुरुष नर्तकी को दिखलाई नहीं दे सकता था। सेविकाएँ नर्तकी की सुविधा का ध्यान रखती थीं। भोजन तथा हर प्रकार का प्रबन्ध केवल दासियों के हाथ में था।

     नर्तकी रानी की तरह सब आराम पाती थी। कोई राजा उससे बात करने के लिए उसके महल में नहीं आ सकता था । संन्यासी स्वयं भी कभी कोठी के अन्दर नहीं जाता था। यद्यपि नर्तकी ने कई बार सन्यासी को दासियों द्वारा बुलवाया, लेकिन संन्यासी ने इन्कार कर दिया ।

  इसी तरह उदासी के साथ नर्तकी के दिन व्यतीत होने लगे | दो महीने नर्तकी ने सन्यासी की प्रतीक्षा में काटे । अव उसको पूर्ण विश्वास हो गया कि सन्यासी नहीं आयेगा। शेष 10 महीने नर्तकी ने बगीचे में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगाने में और कोठी को सजाने में व्यतीत किये । दूसरे वर्ष नर्तकी बराबर नाचने और गाने का अभ्यास करती थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह सङ्गीत और नृत्य से कलात्मक प्रेम करने लगी है और उसके चरण उत्कर्ष तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरे वर्ष में नर्तकी ने कृष्ण की एक मूर्ति स्थापित की । अब वह स्वयं राधा बन कर, कभी गोपी बनकर, कभी कुब्जा बनकर, कभी अपने को मीरा समझकर उस मूर्ति के सामने विरह प्रेम के गीत गाती हुई नाचती रहती थी। उसके गीतों में वेदना भरी हुई थी । कृष्ण को वह काल्पनिक प्रियतम समझ कर अपनी पाशविक कामना, तृष्णा और मोह की तृप्ति कर लेती थी। उसके पिछले जीवन के संस्कार इस तरह रहने पर भी उसको व्यग्र कर डालते थे, किंतु जिस प्रकार से मनुष्य की अतृप्त कामनाएं रात्रि 

में स्वप्नों मेंजगकर अपनी तृप्ति कर लेती हैं उसी तरह से पार्थिव वासना की भूख मानसिक भोजन पाकर तृप्त हो जाती थी। कई वर्षों के निरन्तर कार्यक्रम के बाद एक रात उसे बोध हुआ, अब वह रागिनी नहीं वैरागिनी हो गई। उसका प्रेम शरीर से उठकर आत्मा तक पहुँच गया था ! अब वह लोकोत्तर आनन्द में झूमती और वशीभूत रहती थी ।

   अब वह अपने यौवन के दस वर्ष समाप्त कर चुकी थी। जहाँ एक बार उदात्त तरंगों की दौड़ मची रहती थी वहाँ अब ठंडी रेणुका रह गई थी। अब उसके बाल श्वेत हो गये थे। उसकी आकृति तथा प्रकृति इतनी बदल गई थी कि वह किसी ज़माने में एक नर्तकी होगी. अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था । पाँच वर्षों के निरन्तर गम्भीर तपस्या के बाद उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो गई। पहले उसका मन बराबर किसी न किसी पुरुष को देखने के लिए उत्कंठित रहता था। कभी-कभी वह सोचने लगती थी कि इस प्रकार के धन से क्या हृदय की तृष्णा बुझ सकी है ? क्या यौवन का अंत धन है ? वह ऐसे जीवन से उक्ता उठती थी, किन्तु अब वह बिलकुल बुझे हुए ज्वालामुखी के समान शांत और स्थिर थी । सन्यासी को एक दिन नीचे लिखा हुआ नर्तकी का पत्र मिला 'गुरुदेव,

मैं जीवन भर इसी प्रकार यहाँ रह सकती हूँ, मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण हुई सी जान पड़ती हैं, क्योंकि अब कोई इच्छा मेरे हृदय में शेष नहीं रह गई है। मेरी इच्छा किसी पुरुष तो क्या स्त्री के साथ की भी नहीं होती। मैं अकेली मृत्यु तक यहीं रह सकती हूँ | मैंने अपनी स्वतन्त्रता, अपना जीवन, केवल धन के लिए उन शर्तों के हाथ सौंप दिया था, लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि संसार में मुझे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। जिस धन के लिए मैंने यह सब बन्धन स्वीकार किये थे, अब मुझे उसकी भी ज़रूरत नहीं मालूम होती, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ कि तुमने मुझे सच्चा रास्ता दिखा दिया इसलिए मैं उस शर्त को जानबूझ कर तोड़ रही हूं कि जिससे जो धन आज तक तुमने मुझे दिया है, यह सब तुम्हारे पास बापस पहुंच जाय। यह मैं स्वयं बिना पत्र लिखे भी कर सकती थी, किन्तु मैं यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि तुम्हारे पास एक प्रमाण-पत्र मौजूद रहे और संसार तुम्हें ऐसा करने के लिए दोषी न कह सके ।

मैं हूँ तुम्हारी उपकृता ।

   जब संन्यासी को यह पत्र मिला, तो उसके हर्ष का वारापार न रहा । रअगले दिन सुबह उसने 15 वर्ष पहले नर्तकी की सभा में बैठे हुए जौहरी महाशय को अपने पास बुलवाया और उन्हें लेकर कोठी के अन्दर नर्तकी का पता लगाने के लिए गया । नर्तकी रात में कोठी से गायब हो चुकी थी। सन्यासी ने जौहरी को नर्तकी का वह पत्र दिखलाया और नायिका से अपने कुल दिये हुए रुपये वापस ले लिये ।


:::::: :प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

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उत्तर प्रदेश, भारत

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सोमवार, 7 जून 2021

गुरुवार, 3 जून 2021