गुरुवार, 10 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी - विद्रोही । यह हमने उनके वर्ष 1941 में प्रकाशित कहानी संग्रह 'कारवां' से ली है। इस कहानी संग्रह को पृथ्वीराज मिश्र ने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया था। इस संग्रह की भूमिका पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखी थी ।


 चित्रकार के सामने कैनवस पर आधा चित्र बन चुका था। मेज पर तरह-तरह के रंग और ब्रश रखे हुए थे। उसकी कल्पना चित्र-रचना में डूबी हुई थी। आँखों से प्रतिमा का प्रकाश सामने चित्र-पट पर बरस रहा था । नुकीली पतली नासिका उसके कुशल कलाकार होने का परिचय दे रही थी। इस समय वह स्वप्न-लोक के खिले हुए पुष्प के समान अवर्णनीय सौन्दर्य ग्रहण किये हुए था । आज तड़के ही से उसकी आँखें खुल गयी थीं। उनकी निद्रा रूप रचना की लालसा ने चुराली थी। उसने विद्युत प्रकाश किया और - स्टूडियो में खड़े-खड़े उसके कर एक सुन्दर चित्रपट पर तूलिका से अपार सौन्दर्य को क्रमशः रेखा-बद्ध करने लगे। आँखों में एक छवि झूल रही थी  और सामने तूलिका व्याकुलता से कैनवस पर चल रही थी। उसे कई घन्टे इसी तरह व्यतीत हो गये, प्रभात की रश्मियां अब आरम्भ हो चुकी थीं।

वह कार्य कर ही रहा था कि उसके सेवक ने धीरे-धीरे स्टूडियो में प्रवेश करके उससे कहा - "स्वामी, डाकिया ये लिफाफे और कार्ड लाया है।" "सामने मेज पर रख कर चले जाओ" - उत्तर देकर चित्रकार फिर एक नया ब्रश उठाकर रंग भरने में तल्लीन हो गया। नौकर दबे पैर आज्ञा पालन कर कक्ष से धीरे-धीरे बाहर चला गया । वह कुछ बड़ बड़ाता हुआ बाहर जा रहा था। जैसे अपने स्वामी के पागल पन पर खीझ रहा हो ।
      मध्यान्ह तक चित्र भी समाप्त हो गया। उल्लास की एक रेखा उसके विकसित मुख पर दौड़ रही थी। वह अपने चित्र को देखता जाता था और अस्फुट बुदबुद स्वर में उसकी प्रशंसा भी करता जाता था । चित्र एक पुष्प से उत्पन्न रमणी का था, उसमें अनन्त वसन्त का यौवन और विकास अवतरित हुआ था। कुछ कालतक वह मुग्ध निर्निमेष दृष्टि से चित्र के रूप को निरखता रहा और मन ही मन प्रसन्न होता रहा। यह चित्र भविष्य में संसार के आलोचकों का अमर अजेय मोह बन जायगा, उस का ऐसा दृढ़ विश्वास था। इस चित्र के प्रकाशन के बाद उसकी अनवरत साधना कुसुमित हो जायगी। हर्षातिरेक से अपनी मानवीय सीमा को भूलते हुए चित्रकार ने रंगों की उस प्रतिमा को सम्बोधित करते हुए कहा रूपसि ! जिस प्रकार उषा को जन्म देकर उसका पिता सूर्य अपनी पुत्री पर रीझ उठता है और उसके यौवन को निरखने के लिए तत्काल मेघों के परदों से झाँकने लगता है और फिर कन्या अपने पिता को चिरकाल को दूसरे रूप में वरण कर लेती हैं वैसे ही आज से तुम भी मेरे हृदय को अपने सौन्दर्य से जगमगाती रहो। अच्छा, अब मुझे अपने दैनिक कार्यों से निबटने की आज्ञा दो, तुम्हारी ग्रीवा में माला फिर पहनाऊँगा ।" चित्रकार ने यह कह कर भावावेश में अपनी सुन्दर कृति के कपोल उसे रति समझते हुए चूम लिये | चित्र का नाम पुष्पा था ।
चित्रकार ने लिफाफे खोलना प्रारम्भ किये । लिफाफे पत्रिकाओं के सम्पादकों के भेजे हुए थे। पहला लिफ़ाफ़ा 'उषा' के सम्पादक का था | सम्पादक ने उसका चित्र 'सौंदर्य अवतरण' वापस भेजते हुए लिखा था- चित्र अत्यंत चित्ताकर्षक, मनोहर और कल्पनापूर्ण है । कलाकार को अमर करने के लिए ऐसी एक कृति ही पर्याप्त है । संसार में सौंदर्य ने किस प्रकार जन्म लिया, इसकी कल्पना में मौलिकता और स्वाभाविकता दोनों ही का सुन्दर सामंजस्य है लेकिन हमें खेद है कि हम इसे प्रकाशित नहीं कर सकते । शिष्टाचार, नीति और सदाचार के नाते ऐसे चित्रों को प्रोत्साहन न देने में ही समाज का कल्याण है ! " पत्र पढ़ते ही चित्रकार कलेजा मसोस कर रह गया। झूठी नीति का ख्याल उसे घायल कर रहा था ।
    दूसरा लिफाफा 'इन्दु' के सम्पादक का था। उन्होंने चित्र वापस करते हुए अपनी टिप्पणी भी लिख दी थी कि हम ऐसे अश्लील, धृष्ट और हेय चित्र को छाप कर अपनी ग्राहक संख्या नहीं घटाना चाहते | हम व्यवसाय की दृष्टि से इसका प्रकाशन करने में असमर्थ हैं, यद्यपि ऐसा सुन्दर चित्र 'सुरा और साकी' हमारी दृष्टि से अभी तक नहीं गुजरा है। हम न छाप सकने पर भी आपको इस कलाकृति के लिए बधाई दिये बिना नहीं रह सकते। इसी प्रकार किसी सम्पादक ने यह लिखा था कि चित्र देखने में अत्यन्त सुन्दर है लेकिन ऐसे चित्र को छाप कर वे पब्लिक को किस प्रकार मुँह दिखा सकते हैं। किसी ने यह लिखा था कि चित्र बड़ा ही कलापूर्ण मालूम होता है यद्यपि उसकी कला वह समझ नहीं सका। अत: चित्र वापस किया जा रहा है। जैसे गूंगा मिठास का आनन्द तो लेता है लेकिन 'मिठाई क्या है' बता नहीं सकता । कोई सम्पादक जो बहुत शिष्ट था उसने केवल इतना ही लिखकर चित्र वापस कर दिया था कि 'हम स्थानाभाव के कारण छापने में असमर्थ हैं।' वह इन संक्षिप्त शब्दों का अर्थ खूब समझता था । ये गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ करते हैं।
     चित्रकार ने लिफाफे जमीन पर पटक दिये। कितने ही काल से निराशा उसका भोजन और नीर बन चुकी थी। वह ऐसे ढोंगी संसार से नाता तोड़ रहा था। वह बाहर इष्ट मित्रों से बहुत कम मिलने जाया करता था | अब वह साहित्यिक संसार से भी सम्बन्ध अलग करने की सोच रहा था। कभी-कभी उसके हृदय में ऐसी विचार-तरंगें उठती थीं कि वह अपने रंग बहा दे, ब्रश और तूलिकाएँ तोड़ डाले और पटपत्रों में आग लगा दे, लेकिन ललित कला का प्रेमी उनके बिना जी भी कैसे सकता है ? वह फिर उन धक्कों को भूल जाने की कोशिश करता और अपने इष्ट की आराधना में मग्न हो जाता था ।
     चित्रकार उदास, आभाहीन, विवर्ण आनन लिये हुए उठा और कमरे में गुनगुनाता हुआ धीरे-धीरे टहलने लगा । उसका आत्म विश्वास ठगा गया था, साधना विक्षिप्त हो रही थी और विवेचना गूंगी संसार की रुचि को अपनाने की चेष्टा उससे न होती थी और न वह अपने चित्रों को बाजारू बनाना चाहता था। वह अपनी कला की परख वाली हीरे की दृष्टि काँच के परखने वालों की आँखों से कैसे बदल ले ? स्वान्तः सुखाय के अतिरिक्त यश और ख्याति की आशा उसे न छल सकेगी | अब वह प्रकाशकों के पास अपनी कृतियाँ प्रकाशनार्थ न भेजेगा जिनमें साहस, क्रान्ति, नवीनता तथा मौलिकता के लिए सहानुभूति नहीं है । उसे इन विचारों में बहुत देर हो गई। नौकर को झाँकते हुए देख कर वह दैनिक कार्यों को समाप्त करने के लिए कक्ष से बाहर चला गया |
निपट निराशा में इतना दुःख नहीं होता जितना उसे उकसाने वाली आशा के यदाकदा विफल दौरे होते रहने पर । एक लौ से जलने वाले दीप का प्रकाश आँखों को बहुत तेज होने पर भी सुहा जाता है, उसी तरह घोर अटूट अन्धकार भी, लेकिन बिजली की क्षणिक दमक सन्तोषी जीवन को तृष्णा का गरल पिला देती है । चित्रकार का जीवन शतरंज की पटी की तरह, दिन में वृक्ष की छाया की तरह, आशा और निराशा से दुरंगा था। वह कभी अधीर उबल उठता तो कभी शीतल हिम की तरह जम जाता था । कला के पुजारियों की यही दशा हुआ करती है । आलोचकों के थप्पड़ों की उनके गालों को आदत होनी चाहिए और एक गाल के बाद दूसरा गाल बढ़ा देने की क्षमता भी  लेकिन चित्रकार अभी युवक ही था वह सांसारिक पाठ धीरे धीरे सीख रहा था ।

एक दिन उसका एक साहित्यिक मित्र उससे मिलने आया । दोनों कई वर्ष तक प्रयाग विश्वविद्यालय में सहपाठी रह चुके थे और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए थे। दोनों छाती भर कर मिले, जैसे कृष्ण और सुदामा | वह विवेकी आलोचक भी था | उसने चित्रकार से कहा – “आदर आतिथ्य तो फिर करना पहले यह तो बताओ कि वह पुरानी बीमारी चली जा रही है या अच्छे हो गये हो ?" "उस रोग का इलाज ही कहाँ है? हाँ, तुम आलोचक हो, ऐसी दवा दे सकते हो कि रोग न रहे, न रोगी ही।" चित्रकार ने मार्मिक ढंग से मजाक करते हुए उत्तर दिया ।
(हँसते हुए) “समझ गया, लेकिन तुम्हारे चित्र किसी पत्रिका में देखने को नहीं मिले । "
“रोगी ने तुम्हारी कड़वी गोली की कभी आवश्यकता नहीं समझी | " " उन गोलियों के बिना सुधार नहीं हो सकता।”
“ और सुधार के बिना प्रकाशन नहीं हो सकता।”
"मतलब ? "
“मुझ में परिष्कृत रुचि नहीं मेरे चित्र अश्लील और अनैतिक होते हैं, इसलिए सम्पादक छाप नहीं सकते। उन्हें यह भय है कि मेरी अश्लीलता की मुहर उनके मोम के सांचे पर न लग जाय ।”
“ मैं भी तो उन चित्रों को देखूं । "
"कहीं तुम्हारे मानस में काई लग गई तो ?”
" फिर तुम्हारी संख्या बढ़ जायगी | "
" ठीक है । बहुमत के दोष उसकी शक्ति बन जाते हैं। अच्छा तो भीतर आओ । ”
दोनों उठ खड़े हुए और स्टूडियो में पहुँचे । चारों ओर तरह तरह के चित्र बने हुए रखे थे। कई कैनवस कोरे टँगे हुए थे और कई पर केवल रेखा चित्र ही बने थे। उनमें अभी रंग भरना शेष था, तरह-तरह के रंग और ब्रश, तूलिकाएँ, कैंची, चाकू तथा चित्रकारी के अन्य यन्त्र वहाँ संग्रहीत थे । इधर-उधर छोटे-बड़े दर्पण जड़े हुए थे और उनके निकट मिट्टी के बने हुए चित्र क़रीने से सजे हुए थे । काग़ज़ पर बने चित्र भी स्थान स्थान पर सुन्दर बेल वूटों से खचित चौखटों में जड़े हुए दीवालों से टँगे थे । चित्रकारी का सारा सामान जुटाया हुआ था । मूँज की चटाइयों पर मखमल और सूत की रंग-बिरंगी कालीनों का फ़र्श था। एक दो मेज पर लिखने-पढ़ने का सामान भी था तथा एक कोने में चित्रकला सम्बन्धी पुस्तकों से भरी हुई एक अलमारी रखी हुई थी । चित्रकार चित्रों को दिखलाता हुआ अपने चित्रकला सम्बन्धी विचार प्रकट करता जाता था जैसे आजकल प्राचीन इमारतों के दिखलाने गाइड' काम करते हैं और उसका मित्र विस्फारित प्रशंसक दृष्टि से चित्रों को देखता जाता था। उसका जी चित्रों को देखकर भरता ही न था, वह जिस चित्र को भी देखता उसी पर उसकी नज़र चिपक जाती। ऐसे सुन्दर चित्र उसने कभी नहीं देखे थे । चित्र देखते हुए दोनों अब सबसे नवीन चित्र के निकट आ पहुँचे । यह सबसे अंतिम चित्र 'पुष्पा का था। अभी तक चित्रकार ने उसे माला नहीं पहनायी थी। उसका हृदय इतना भारी हो चुका था कि वह तूलिका न उठा सकता था और तब से उसे उसने अपूर्ण ही छोड़ रखा था । चित्रकार उस चित्र की ओर संकेत करता हुआ दुखित स्वर में अपने मित्र से बोला: – " मित्र, यह मेरा अन्तिम प्रयास है, अभी तक मैंने इसे पूरा भी नहीं किया है ।
" क्यों ? तुम्हारे चित्र इतने कलापूर्ण हैं कि सर्वोत्तम कलाकार ने ही ऐसे सुन्दर चित्र बनाये होंगे ।
" लेकिन संसार इन्हें केवल एकान्त के लिये सुन्दर समझता है । विश्व के आलोक में इन्हें देखने की हिम्मत नहीं रखता । " वे ढोंगी हैं । सुन्दर सर्वत्र सुन्दर है, प्राइवेट में भी और पब्लिक में भी । इसे पूरा कर डालो । "
" तुम्हें सचमुच चित्र पसन्द आये या केवल मैत्री के नाते से ही.....?
" विश्वास करो, तुम्हारे स्टूडियो में हीरों की खान है जिनका मूल्य अङ्कों की गिनती में नहीं आ सकता । "
" देखो, मैं अभी चित्र पूरा किये देता हूँ — " कहकर कलाकार ने तूलिका उठाली । जितनी जितनी माला बनती गई उसका मित्र प्रशंसापूर्ण विस्मित नेत्रों से कभी उसके मुख को कभी तूलिका को और कभी चित्र को देखता रहा। इतना अभ्यस्त कर उसने कभी
किसी चित्रकार का नहीं देखा था। कुछ ही काल में माला हो गई। चित्रकार गद्-गद् बोल उठा — “ रूपसि ! तुम्हारी वर्णमाला पूर्ण हो गई । "
“ मित्र, तुमने कमाल हासिल कर लिया है - " आदर के स्वर में चित्रकार से उसने कहा
" चित्र कैसा है ? " चित्रकार ने पूछा ।
“ सबसे श्रेष्ठ और कलापूर्ण । तुम अपने चित्र “ पिक्चर्स आर्ट गैलरी" में अवश्य भेजना सर्व प्रथम पारितोषिक पाओगे।"
“कलाकार धन का भूखा नहीं होता। केवल सम्मान चाहता है | क्या चित्र इतने सुन्दर हैं ?"
" निस्सन्देह, और चित्र को तो जी चाहता है कि अपने साथ ले जाऊँ।"
"सच ? "
" हां "
"तो लो, मेरी ओर से इसे उपहार समझो। ( उसका हाथ पकड़ते हुए) संकोच मत करो, ले लो, इसे अपनी ही वस्तु समझो | "
(प्रसन्नता से हाथ बढ़ाते हुए) "लाओ, (लेकिन उसी क्षण हाथ खींचते हुए) आज नहीं फिर कभी ले जाऊँगा ।”
" न लेने का बहाना अच्छा है, (हँसते हुए) क्यों ?"
"क्षमा करो। स्पष्ट कह रहा हूँ, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी फूल सी कोमल कल्पना पर चित्र का बुरा प्रभाव पड़ेगा ।"
(व्यंगपूर्वक) "उनके मानस में काई लग जाने का भय है। बड़े सीधे हो ढोंग करना नहीं जानते | "
( घबराते हुए ) "अब मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ ।”
" धन्यवाद !"
चित्रकार का मित्र डगमगाते पैरों से शीघ्रातिशीघ्र कक्ष से बाहर हो गया । खुले मैदान में पहुँच कर उसने आराम की साँस ली । अब तक उसका दम घुट-सा रहा था । परीक्षा के वे क्षण याद कर वह काँप गया, कन्धे उठाकर चित्रकार मार्मिक चोट खाया हुआ सा कोच पर लेट गया और उसने हाथों से आँखें ढक कर आशा का कपड़ा उधेड़ना शुरू कर दिया, संसार की ढोल की नीति से वह कितनी बार धोखा खा चुका था ।
   उसने एक मास बँधे हुए पानी के सरोवर की भांति निस्पन्द, निर्जीव आलस्य में बिता दिया, तूलिका हाथ में बिना पकड़े हुए | वह कभी तरंग उठने पर स्टूडियों में चोरों की तरह घुसता और घबरा कर उसी क्षण बाहर निकल आता था। कमरे में गर्द चढ़ने लगी थी, जैसी त्यागे हुए स्थान की दशा हो जाती है ।
संसार का क्रम ही परिवर्तनशील है वह एक बार फिर रंगों की दुनियों बनाने में अपने को बाँधने लगा और साथ ही साथ उसके हृदय में यश अर्जन लिप्सा सजग होने लगी। कलाकार की सबसे महान् दुर्बलता यही होती है ।
'पिक्चर्स आर्ट गैलरी' के उद्घाटन का समय ज्यों ज्यों निकट आने लगा उसके हृदय की उत्तेजना बढ़ने लगी। चित्रकारों के समुदाय में एक बार बैठने की अभिलाषा उसके उर को उकसा रही थी। शराबी की तरह निषेध का प्रण उसे कब तक रोक सकता था ? आखिर उसने अपने सर्वोत्तम चित्र छाँट ही डाले और पिक्चर्स गैलरी में भेज दिये। उसने सोचा कि असफलता होने पर उसका प्रतियोगिता के अखाड़े में अन्तिम बार ही उतरना होगा ।
उन दिनों उसके हृदय में कितनी धुकधुक रहती थी। वह दिन बड़ी बेचैनी से बीतते थे । समाचार पत्रों में निर्णय छपा । उसका नम्बर केवल इसलिए नीचे धकेल दिया गया था कि उसके चित्र समष्टि के लिए कल्याणकारी नहीं थे। बाग़ी को वहाँ भी सहारा न मिला । कला की वस्तु पर साधारण के लाभ की छाप होनी चाहिए। इस बार भी वह अपने मन से अपने कला के आदर्शों से इन निर्णायकों के दृष्टिकोण का समझौता न कर सका लेकिन इस बार उसके विद्रोह की आग पर क्षणिक राख भी न पड़ सकी, वह और भी तीव्र भड़क उठा। इस बार उसके भीतर का नर जाग उठा था जैसे सोये हुए सिंह को छेड़ने पर । उसने संसार को चुनौती देने की ठान ली ।
इस घटना के कई दिन बाद वह एक सन्ध्या में अपने स्टूडियो में बैठा हुआ चित्र बना रहा था, नौकर ने सूचना दी कि एक नवयुवती महिला आप से मिलना चाहती है। वह उन्हें अन्दर लाने की आज्ञा देकर उत्सुक दृष्टि से नवागन्तुका की प्रतीक्षा करता हुआ द्वार की ओर देखने लगा। द्वार खुला और सौन्दर्य की एक प्रतिमा ने अन्दर प्रवेश किया। दोनों में बात चीत प्रारम्भ हो गयी। उसके लावण्य के साथ विद्रोह की ज्वाला उसके स्वर तथा हाव-भाव भंगिमाओं में भभक उठती थी। उसने बतलाया कि वह उससे चित्रकला सीखना चाहती है। उसने पिक्चर्स गैलरी में उसके चित्र देखे थे और उसे वे सबसे अधिक पसन्द आये थे । चित्रकार एकाएक उसकी बातों पर विश्वास न कर सका । उसने उत्तर दिया "लेकिन वे चित्रनीति के नियमों का उल्लंघन करते हैं। समाज शरीर को संघातक रोग की तरह उनसे विपक्ति की आशंका है। फिर आप उन्हें कैसे पसन्द करती हैं ?"
"वे संक्रामक अवश्य हैं। मुझे भी उनसे छूत लग गयी | "
" इसी कारण आप किसी तीर्थ को जाएं और देवालय में रहें , यहाँ शो शायद ही...|''
“ लेकिन मेरा तीर्थ तो यही है, देवालय भी यही बनेगा।" ( हँसते हुए ) आप अपनी आत्मा को बचाने का प्रयत्न करें।"
" मै अब किसी और धर्म में अपनी शुद्धि नहीं चाहती। आप मुझे दीक्षा दें और शिक्षा भी । "
चित्रकार कुछ और न कह सका। उसने उसे चित्रकला की शिक्षा देना स्वीकार कर लिया आज उसने चित्र ही दिखलाये। उसे अब कुछ कम एक वर्ष सीखते हुए बीत गया । उसने अपने लेखों द्वारा साहित्य क्षेत्र में चित्रकार के अनुकूल वातावरण बना दिया | उसके लेख गहन, गवेषणा पूर्ण होते थे और पत्रिकाओं में छपते थे। कुछ सम्पादक यदा कदा चित्रकार के चित्र भी छाप देते थे | प्रोपेगेन्डा का यही महत्व है । चित्रकार के हृदय में उसकी शिष्या ने घर कर लिया था । एक दिन दोनों स्टूडियो में बैठे हुए थे । बाहर रिमझिम रिमझिम बूंदें गिर रही थीं । अँधेरे में कभी बिजली जैसे हँसी उनके गम्भीर मुख पर दौड़ पड़ती थी। उसने चित्रकार से कहा -
"आज मुझे पूरा एक वर्ष हो गया । आज ही के दिन मैं यहाँ आई थी।"
"बड़ा ही शुभ था वह दिन । मुझे तो एक वर्ष एक दिन की तरह मालूम हुआ | ये दिन कितने सुख से कटे ! "
"अब मैं विदा चाहती हूँ ।"
( चौंकते हुए ) " क्यों ?”
“मेरा उद्देश्य समाप्त हो चुका है । "
“लेकिन मैं किस तरह से रह सकूंगा ?"
“पहले की तरह, तब भी तो अकेले थे, निपट अकेले साहित्य तथा संसार में । "
पर तब भी मुझे अपनी दुर्बलता प्यारी मालूम होती है। तुम्हारा वियोग असह्य होगा |”
“ऐसी मुझमें कौनसी वस्तु है जिसको बिना देखे तुम रह नहीं सकते।"
" तुम ! "
“ मैं भी तुम्हें विदाई के उपलक्ष्य में कुछ देना चाहती हूँ और वह भी तुम्हारा मन चाहा | "
" सच ?" चित्रकार उछल पड़ा ।
( उसका कर चूमते हुए ) “तुम्हें मैंने धोका ही कब दिया ? मैं तुम्हें अनन्त काल के लिये, अनन्त आनन्द के लिये अपने को ही दे रही हूँ । उठो, यह लो "
इतना कह कर प्रकाश के नीचे चित्रकार की मेज़ के पास कैनवेस खचित लकड़ी के सहारे वह खड़ी हो गई। उसके वस्त्र खिसक गये थे, किसी यन्त्र की तरह उसने चित्रकार से सस्मित अधरों से कहा
“आओ, चित्रकार आओ, अपनी तूलिका उठा लो और रंगों से अमर चित्रपटी पर मुझे ग्रहण कर लो ।”
चित्रकार मुस्कराता हुआ उठा। वह माडेल की भाँति कैनवेस की लकड़ी के सहारे मुस्कराती खड़ी थी और चित्रकार की चंचल उँगलियाँ तूलिका और रंगों के सहारे मनोवांछित वस्तु ग्रहण करने के लिये चित्रपटी पर उत्सुक दौड़ रही थीं ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

2 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ सीमा महेंद्र12 जून 2021 को 4:33 pm बजे

    स्व श्री दयानंद गुप्त जी एक उच्च स्तरीय साहित्यकार, प्रतिष्ठित एडवोकेट, समाज सुधारक,विचारक, व उच्च श्रेणी के राजनैतिज्ञ थे।
    ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व को‌ मेरा बारम्बार प्रणाम और विनम्र श्रद्धांजलि।

    जवाब देंहटाएं