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शनिवार, 11 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उनके सुपुत्र अतुल मिश्र का आलेख------" कभी नहीं मर सकते मेरे पापाजी" !!



 
"मैं या मेरे मालवा का कोई कवि जब चंदौसी के स्टेशन से गुज़रता है, तो वह सबसे पहले इस पावन धरती की मिटटी को अपने माथे से लगाता है !! जानते हैं क्यों ?? क्योंकि यह उस 'सुरेन्द्र' की धरती है, जिसने खुद जलकर सैकड़ों दीयों को रोशनी दी है !!"
आज से क़रीब पचास साल पहले हमारे नगर के एक विशाल कवि-सम्मलेन में प्रख्यात ओजस्वी कवि श्री बाल कवि वैरागी जी ने जब ये शब्द कहे, तो एक बाल-श्रोता के रूप में मैं सिर्फ़ सोचता रह गया ! क्या मैं वाकई इतने महान पिता का पुत्र हूँ ? बस, उसी दिन से मुझे अपने पापाजी को समझने की जिज्ञासा तीव्र हो गयी थी ! अपने असामान्य कार्यों की वजह से वे मुझे कभी इस गृह के प्राणी नहीं लगे !
हमारी दादी जी बताती थीं  कि "उनके पैदा होते ही ज्योतिषियों ने कह दिया था की यह बच्चा असाधारण है और ऐसे विचित्र काम करेगा, जो दुनिया के लिए असाधारण होंगे ! हो सकता है कि यह सन्यासी हो !!" इस बात ने हमारे बाबा साहब की चिंता को और बढ़ा दिया और वे तमाम ऐसे यत्न करने लगे कि उनके इस बेटे को इस दुनिया से विरक्ति ना हो ! वे एक बेहद कलाप्रेमी, मगर कुशल व्यापारी थे और अपने बेटे से भी यही अपेक्षा रखते थे !
छात्रावस्था तक पापाजी ने खूब काव्य-लेखन किया ! अपने दार्शनिक गीतों का पहला संग्रह- 'मधुगान' उन्होंने चौदह वर्ष की आयु में पूर्ण किया ! 15 अप्रैल 1955 में पापाजी की शादी की गयी कि वे वैराग्य और दर्शन से दूर रहें ! शादी के ठीक दुसरे दिन से उनके जीवन में चमत्कार होने शुरू हो गए ! बचपन में जिन दुर्लभ और प्राचीन चीजों को वे अपनी इतिहास की किताबों में सिर्फ देखते थे, उन्हें पाने की उनकी लालसा पूरी हुई !
शादी के दूसरे दिन से ही उनके संग्रहालय की स्थापना हुई और बकौल, पापाजी- "ऐसा लगा, जैसे मेरे सारे सपने पूरे होने को हैं !!" पहला पुरावशेष एक हस्तलिखित ग्रन्थ था, जो वे मुरादाबाद के एक पुराने कुऐं से निकालकर लाये थे !!
इसके बाद तो प्रागमौर्य, मौर्य, गुप्त और कुषाण कालीन प्राचीन पुरावशेष जैसे उनको निमंत्रित करने लगे और फिर वे कवि-सम्मेलनों से लौटकर खंडहर, वीरानों और प्राचीन टीलों से पुरावशेष एकत्रित करने निकल पड़ते थे !
प्रख्यात कवि डा.हरिवंशराय बच्चन जी पापाजी की पुरातात्विक खोजों के बारे में तब अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते थे और एक युवा कवि द्वारा किये जा रहे अद्वितीय कार्यों से प्रभावित होकर वे दो बार चंदौसी भी आये ! पापाजी के जीवन से प्रभावित होकर वे हमेशा उनसे अपने पुरातात्विक संस्मरण लिखने को कहा करते थे ! उन्हें एक कल्पनाशील कवि का तथ्यपरक पुराविद होना कुछ दुर्लभ लगता था ! लेकिन पापाजी को इतना वक़्त भी कभी नहीं मिला कि वे अपने जीवनकाल में ऐसा कर पाते ! अपने अंतिम दिनों में वे मुझसे यह कहने लगे थे कि "मेरे बाद तुम मेरे संस्मरण ज़रूर लिखना !" उनके जाने के बाद से में खुद को तैयार कर रहा हूँ कि मैं ऐसा करके उनकी और बच्चनजी की यह इच्छा पूरी कर सकूं !
"मैंने इसे अपनी इच्छा-शक्ति से बनाया है," जैसे वाक्य जब पापाजी मेरे बारे में अपने मित्रों से कहते थे, तो मैं सोच में पड़ जाता था ! क्या वाकई मैं उन्हें देखकर इतना मन्त्र-मुग्ध रहता था कि उनके बताये रास्ते पर ही चलने को बाध्य था ?? वे एक चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी थे ! अधखुले नेत्र, उन्नत ललाट, इत्रयुक्त कुरता-पाजामा और मस्ती वाली चाल उनकी ख़ास पहचान थी ! शायद यही वजह थी कि रास्ता चलते सन्यासियों को भी मैंने उनके पैर छूते देखा था ! मैं आज भी उनको शरीर के रूप में नहीं देखता हूँ !
वे एक ऐसी आत्मा हैं, जो अभी भी अपने संग्रह के आसपास ही हैं ! एक ऐसा संग्रह, जिसे देखकर विद्वान् इसे देश का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह मानते थे, मगर सन 2008 में NMMA ( National Mission For Manuscript And Antiqueties ) द्वारा किये गए सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर मैं आज इसे दुनिया का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह मानता हूँ ! उनके इस संग्रह में ईसा पूर्व 4000 से लेकर ब्रिटिश और मुगलकाल तक के दुर्लभ पुरावशेषों की कुल संख्या किसी भी संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं से अधिक ही निकलेगी ! पापाजी के नाम से एक संग्रह विश्व प्रसिद्द रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में भी प्रदर्शित है !
पापाजी को हमने घर पर बहुत कम देखा था ! कवि-सम्मेलनों से लौटने के बाद वे अपनी यात्राओं पर निकल पड़ते थे ! अनजान बीहड़ों में उन्होंने हज़ारों किलोमीटर की यात्राये पैदल और साइकिलों से पूरी कीं ! रूहेलखंड के पांच जिलों के सैकड़ों प्राचीन ध्वंसावशेष उन्होंने पहली बार इस दुनिया के लिए खोज निकाले ! 35-40 वर्षों तक उनका यह क्रम चलता रहा ! प्राचीन इतिहास में एम.ए. करने के बाद इन पुरावशेषों में मेरी दिलचस्पी तेज़ी से बढ़ने लगी और अखबारों को साप्ताहिक लेख लिखने का मैटर भी मुझे मिल गया ! बचपन में जो काम मुझे फालतू के लगते थे, उनका अध्ययन और मनन शुरू हो गया ! पीएचडी के लिए शोध-कार्य भी बहुत किया, मगर दिल्ली की पत्रकारिता के चक्कर में वह अधूरी रह गयी !
 
बचपन में हम देखते थे कि पुरातत्व के विद्वान्, राजनेता और बड़े अधिकारी पापाजी से मिलने आते ही रहते थे ! डा.वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. कृष्णदत्त वाजपेयी, डा.रमेश चन्द्र शर्मा, कैप्टन शूरवीर सिंह जैसे बहुत से नाम मुझे आज भी याद हैं ! सबसे बड़ी बात यह थी कि पापाजी को प्राचीन अज्ञात कवियों को खोजना और उन पर अपने लेख लिखने का बहुत शौक था ! वे सुबह ठीक चार बजे उठा जाया करते थे और फिर शाम तक उनका निर्वाध लेखन चलता था ! कवि-सम्मलेन और यात्राएं कम करने के बाद क़रीब 25 वर्षों में उन्होंने दुर्लभ विषयों पर 60 से अधिक पुस्तकें पांडुलिपियोँ के रूप में तैयार कर दीं ! मैं अब जल्दी ही इनके प्रकाशन की व्यवस्था करवा रहा हूँ !
लिखने को तो पापाजी के बारे में इतना है कि मैं इस जन्म में तो पूरा नहीं लिख पाऊंगा ! हाँ, इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि हमारा यह देश इस मामले में  दुर्भाग्यशाली है कि हम किसी भी प्रतिभा को तभी समझना शुरू करते हैं, जब वह हमारे बीच अपने अनुभव बांटने के लिए मौजूद नहीं रहती ! पापाजी के तमाम कार्यों का सही मूल्यांकन किया जाए, तो दुनिया में कोई दूसरा ऐसा पुरातत्ववेत्ता पैदा नहीं हुआ, जिसने इतना विशाल संग्रह किया हो और जो कवि, लेखक और एक अच्छा इंसान भी हो ! मेरे पापाजी कभी नहीं मर सकते, यह विश्वास मुझे इसलिए भी होने लगा है कि आज नहीं तो कल लोग जब उनके कार्यों को देखेंगे तो दांतों तले उंगलियाँ दबा लेंगे ! यह मैं कह रहा हूँ, क्योंकि मैं उनके कार्यों की गहराई और उपयोगिता से अच्छी तरह परिचित हूँ ! वे आज भी मेरे आसपास ही हैं, क्योंकि वे कभी मर ही नहीं सकते !



अतुल मिश्र
श्री धन्वंतरि फार्मेसी,
मौ. बड़ा महादेव
चन्दौसी
जनपद सम्भल

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार एवं पुरातत्ववेत्ता स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र के दो गीत -- ये गीत लिए गए हैं लगभग 56 साल पूर्व सन 1964 में हिंदी साहित्य निकेतन द्वारा प्रकाशित साझा काव्य संग्रह 'तीर और तरंग 'से। मुरादाबाद जनपद के 39 कवियों के इस काव्य संग्रह का संपादन किया था गिरिराज शरण अग्रवाल और नवल किशोर गुप्ता ने । भूमिका लिखी थी डॉ गोविंद त्रिगुणायत ने ।






     ::::: प्रस्तुति :::::::
           
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
 मुरादाबाद 244001
  उत्तर प्रदेश, भारत
  मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख














इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता एवं साहित्यकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता पंडित रामस्वरूप वैद्यशास्त्री रामपुर जनपद की शाहबाद तहसील के अनबे ग्राम से चंदौसी आकर बसे थे।उनकी आयुर्वेद जगत में अच्छी ख्याति थी। उनके द्वारा स्थापित धन्वतरि फार्मसी द्वारा निर्मित औषधियाँ देश भर में प्रसिद्ध है । आपके पितामह पंडित बिहारी लाल शास्त्री थे।

   आपकी प्रारम्भिक शिक्षा चंदौसी में पंडित गोकुलचन्द्र के विद्यालय में हुई। तदुपरान्त आपने एसएम इंटर कालेज में कक्षा तीन में प्रवेश ले लिया। वर्ष 1953 में आपने इसी विद्यालय से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1955 में आपने शिक्षाध्ययन त्याग दिया और साहित्य सेवा को पूर्ण रूप से समर्पित हो गये ।

   15 अप्रैल 1955 को उनका विवाह सोरों के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं दामोदर शर्मा की पुत्री और जिला सूचना अधिकारी ‘प्रियदर्शिनी’ महाकाव्य के अमर प्रणेता पं॰ राजेंद्र पाठक की छोटी बहन विमला के साथ सम्पन्न हुआ | उनके दो सुपुत्र अतुल मिश्र व विप्र वत्स मिश्र तथा दो सुपुत्रियाँ प्रज्ञा शर्मा व प्रतिमा शर्मा हैं।

     बचपन से ही आपकी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में रुचि थी। पं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, डॉ हरिवंश राय बच्चन जैसे अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्य आपने पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था में ही पढ़ लिया था ।साहित्य अनुराग के कारण ही आप कविता लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उधर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में गाये जाने वाले कोरसों का भी मन पर पूरी तरह प्रभाव पड़ा। 

आपकी प्रथम कविता दिल्ली से प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई । उस समय आपकी अवस्था मात्र सोलह वर्ष की थी। इसके पश्चात् आपकी पूरी रुचि साहित्य लेखन की ओर हो गयी लेकिन आपके पिता को यह सहन न था। वह चाहते थे कि उनका पुत्र अपने अध्ययन में मन लगाये व वैद्यक व्यवसाय में उनका सहयोग करें।  एक दीपावली की रात्रि को उन्होंने पिताश्री के पूजा-गृह मे लक्ष्मी और रजत मुद्राओं के आगे यह कहकर सिर नवाने से इंकार कर दिया- ‘मैं सरस्वती का पुत्र हूँ, लक्ष्मी के आगे सिर नही नवाऊंगा |’ 

    प्रारम्भ में आपने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें लिखी जिनका प्रथम संग्रह मधुगान वर्ष 1951 में प्रकाशित हुआ, उस समय उनकी अवस्था मात्र 19 वर्ष की थी । इस संग्रह को काफी सराहना मिली । वर्ष 1955 में उनके प्रकाशित दूसरे संग्रह 'कल्पना कामिनी' में श्रृंगार रस से भीगी रचनायें थीं। वर्ष 1982 में आपकी हास्य कविताओं का एक संग्रह कविता नियोजन' प्रकाश में आया । वर्ष 1985 में ए कैटलॉग ऑफ संस्कृत मैन्युस्किरपट इन चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय का प्रकाशन हुआ। वर्ष 1993 में बदायूं के रणबांकुरे राजपूत(इतिहास) ,वर्ष 1999 में हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह कवयित्री सम्मेलन, वर्ष 1997 में इतिहास के झरोखों से सम्भल (इतिहास) ,2001 में ऐतिहासिक उपन्यास शहीद मोती सिंह, वर्ष 2003 में मुरादाबाद जनपद का स्वतंत्रता संग्राम (काव्य),  मुरादाबाद व अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी(काव्य), पवित्र पंवासा (ऐतिहासिक खण्ड काव्य), मीरापुर के नवोपलब्ध कवि (शोध) तथा वर्ष 2008 में आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं (शोध) प्रकाशित हो चुकी हैं । 

   अप्रकाशित कृतियों में महाभारत और पुरातत्व, मुरादाबाद जनपद की समस्या - पूर्ति, स्वतंत्रता संग्राम: पत्रकारिता के साक्ष्य, चंदौसी का इतिहास, भोजपुरी कजरियाँ, राधेश्याम रामायण पूर्ववर्ती लोक राम काव्य, बृज के लोक रचनाकार, चंदौसी - इतिहास दोहावली, बरन से बुलंदशहर तक, हरियाणा की प्राचीन साहित्य धारा, स्वतंत्रता संग्राम का एक वर्ष, दिल्ली लोक साहित्य और शिला यंत्रालय, रूहेलखण्ड की हिन्दी सेवाएं, हिन्दी पत्रकारिता का साधना-काल, रूहेलखण्ड के प्रमुख हिन्दी पत्रकार, हिन्दी-पत्रों की कार्टून- कला के दस वर्ष, एक शहर पीतल का, संभल क्षेत्र की इतिहास - यात्रा, गंगा-घाटी का त्यागी-समाज, मध्य प्रदेश: भूले-बिसरे साहित्य-प्रसंग, रसिक कवि तुलसीदास,पूर्वी कौरवी के लोक-काव्य मुख्य हैं । आपकी रचनाओं और शोध परक लेखों का प्रकाशन साप्ताहिक हिन्दुस्तान (दिल्ली), कादम्बनी (दिल्ली), नव भारत टाइम्स तथा अमर उजाला दैनिक पत्रों में नियमित रूप से होता रहा है। 

  वर्ष 1955 में ही उनकी रुचि पुरातात्विक महत्व की वस्तुएँ एकत्र करने में हो गयी। इसी वर्ष उन्होंने ‘चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय’ की नींव डाल दी जो बाद में मुरादाबाद के दीनदयाल नगर में हिन्दी संस्कृत शोध संस्थान, पुरातत्व संग्रहालय के रूप में संचालित होता रहा। उन्होंने अपने जीवन के स्वर्णिम 25 वर्ष मुरादाबाद, बरेली बदायूँ गंगा रामगंगा बीच भूभाग पुराने टीलों, पुरानी इमारतों, जर्जर किलों और ऐतिहासिक महत्व स्थानों खाक छानते हुए गुजारे है। वह रोज सुबह से साइकिल लेकर निकलते और रात लौटते थे। कभी-कभी उन्हें वापस लौटने कई-कई दिन लग जाते थे। इस बीच घर वालों को यह भी पता नहीं रहता था कि वह कहाँ जब वह घर से निकलते, तो उनका थैला गुब्बारों भरा होता और जब वापस लौटते, तो उस थैले में होतीं तरह-तरह की मृण्मूर्तियां, सिक्के, पुरानी किताबें और ऐतिहासिक महत्व की दूसरी चीजें।

    पुरातत्व वस्तुओं की खोज के दौरान उन्होंने प्राचीन युग के अनेक अज्ञात कवियों प्रीतम, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्र मधुसूदन दास, संत कवि लक्ष्मण, बालकराम आदि की पाण्डुलिपियाँ  खोजीं। हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि इनमें से अनेक ग्रन्थ दुर्लभ थे। श्री मिश्र जी के संग्रहालय में लगभग 4450 मृणमूर्तियाँ, 200 प्रस्तर मूर्तियाँ, 55 मृण्पात्र 40 लघु चित्र, 4000 सिक्के और मनके, 9 अभिलिखित मुहरें, 250 लीयो चित्र, हिन्दी और संस्कृत की 2000 पाण्डुलिपियाँ, 600 लीथो प्रकाशन तथा हिन्दी की हजारों प्राचीन पत्रिकाएँ थीं ।

     उनकी समस्त पुरातात्विक धरोहर वर्तमान में उनके सुपुत्र अतुल मिश्र के अलावा बरेली के पांचाल संग्रहालय तथा स्वामी शुकदेवानंद महाविद्यालय, शाहजहांपुर में 'पं.सुरेंद्र मोहन मिश्र संग्रहालय' में सुरक्षित है।

    उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर हुआ ।


 


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

 8, जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद  244001

 उत्तर प्रदेश, भारत 

 मोबाइल फोन नम्बर 9456687822