"मैं या मेरे मालवा का कोई कवि जब चंदौसी के स्टेशन से गुज़रता है, तो वह सबसे पहले इस पावन धरती की मिटटी को अपने माथे से लगाता है !! जानते हैं क्यों ?? क्योंकि यह उस 'सुरेन्द्र' की धरती है, जिसने खुद जलकर सैकड़ों दीयों को रोशनी दी है !!"
"मैंने इसे अपनी इच्छा-शक्ति से बनाया है," जैसे वाक्य जब पापाजी मेरे बारे में अपने मित्रों से कहते थे, तो मैं सोच में पड़ जाता था ! क्या वाकई मैं उन्हें देखकर इतना मन्त्र-मुग्ध रहता था कि उनके बताये रास्ते पर ही चलने को बाध्य था ?? वे एक चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी थे ! अधखुले नेत्र, उन्नत ललाट, इत्रयुक्त कुरता-पाजामा और मस्ती वाली चाल उनकी ख़ास पहचान थी ! शायद यही वजह थी कि रास्ता चलते सन्यासियों को भी मैंने उनके पैर छूते देखा था ! मैं आज भी उनको शरीर के रूप में नहीं देखता हूँ !
पापाजी को हमने घर पर बहुत कम देखा था ! कवि-सम्मेलनों से लौटने के बाद वे अपनी यात्राओं पर निकल पड़ते थे ! अनजान बीहड़ों में उन्होंने हज़ारों किलोमीटर की यात्राये पैदल और साइकिलों से पूरी कीं ! रूहेलखंड के पांच जिलों के सैकड़ों प्राचीन ध्वंसावशेष उन्होंने पहली बार इस दुनिया के लिए खोज निकाले ! 35-40 वर्षों तक उनका यह क्रम चलता रहा ! प्राचीन इतिहास में एम.ए. करने के बाद इन पुरावशेषों में मेरी दिलचस्पी तेज़ी से बढ़ने लगी और अखबारों को साप्ताहिक लेख लिखने का मैटर भी मुझे मिल गया ! बचपन में जो काम मुझे फालतू के लगते थे, उनका अध्ययन और मनन शुरू हो गया ! पीएचडी के लिए शोध-कार्य भी बहुत किया, मगर दिल्ली की पत्रकारिता के चक्कर में वह अधूरी रह गयी !
बचपन में हम देखते थे कि पुरातत्व के विद्वान्, राजनेता और बड़े अधिकारी पापाजी से मिलने आते ही रहते थे ! डा.वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. कृष्णदत्त वाजपेयी, डा.रमेश चन्द्र शर्मा, कैप्टन शूरवीर सिंह जैसे बहुत से नाम मुझे आज भी याद हैं ! सबसे बड़ी बात यह थी कि पापाजी को प्राचीन अज्ञात कवियों को खोजना और उन पर अपने लेख लिखने का बहुत शौक था ! वे सुबह ठीक चार बजे उठा जाया करते थे और फिर शाम तक उनका निर्वाध लेखन चलता था ! कवि-सम्मलेन और यात्राएं कम करने के बाद क़रीब 25 वर्षों में उन्होंने दुर्लभ विषयों पर 60 से अधिक पुस्तकें पांडुलिपियोँ के रूप में तैयार कर दीं ! मैं अब जल्दी ही इनके प्रकाशन की व्यवस्था करवा रहा हूँ !
लिखने को तो पापाजी के बारे में इतना है कि मैं इस जन्म में तो पूरा नहीं लिख पाऊंगा ! हाँ, इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि हमारा यह देश इस मामले में दुर्भाग्यशाली है कि हम किसी भी प्रतिभा को तभी समझना शुरू करते हैं, जब वह हमारे बीच अपने अनुभव बांटने के लिए मौजूद नहीं रहती ! पापाजी के तमाम कार्यों का सही मूल्यांकन किया जाए, तो दुनिया में कोई दूसरा ऐसा पुरातत्ववेत्ता पैदा नहीं हुआ, जिसने इतना विशाल संग्रह किया हो और जो कवि, लेखक और एक अच्छा इंसान भी हो ! मेरे पापाजी कभी नहीं मर सकते, यह विश्वास मुझे इसलिए भी होने लगा है कि आज नहीं तो कल लोग जब उनके कार्यों को देखेंगे तो दांतों तले उंगलियाँ दबा लेंगे ! यह मैं कह रहा हूँ, क्योंकि मैं उनके कार्यों की गहराई और उपयोगिता से अच्छी तरह परिचित हूँ ! वे आज भी मेरे आसपास ही हैं, क्योंकि वे कभी मर ही नहीं सकते !
अतुल मिश्र
श्री धन्वंतरि फार्मेसी,
मौ. बड़ा महादेव
चन्दौसी
जनपद सम्भल
शानदार आलेख, दुर्लभ चित्र
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