बुधवार, 30 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि 30 दिसम्बर पर उनकी ग़ज़लों पर ज़िया ज़मीर का विस्तृत आलेख ------- दुष्यन्त कुमार : हाथों में अंगारे लिए एक शायर


बहुत आसान है यह कह देना कि दुष्यंत एक बे-बेहरा शायर है, बहुत आसान है यह कह देना कि दुष्यंत हिंदी का शायर है इसलिए उसके यहां व्याकरण का बचकाना दोष है और बहुत आसान यह भी कह देना है कि मुट्ठी भर ग़ज़लें कह कर कोई बड़ा शायर नहीं बन जाता। मगर बहुत कठिन है यह बात स्वीकार कर पाना कि मुट्ठी भर ग़ज़लें कहने वाला यह बे-बेहरा शायर अपनी झोली में कम से कम दो दर्जन ऐसे शेर लिए बैठा है जो अब इतने बड़े हो गए हैं कि किताबों की क़ैद से बाहर निकल आए हैं और इतने तेज़ रफ्तार भी हो गए हैं कि सरहदों को मुंह चिढ़ाते हुए शायरी समझने वाले लगभग सभी देशों में घूम आए हैं। 

आम से दिखने वाले इस शायर को इतनी शोहरत कैसे हासिल हो गयी? इसका जवाब यह है कि दुष्यंत ने कभी भी शायरी अपने लिए नहीं की बल्कि जब भी कलम उठाया, अपने लोगों के लिए उठाया। जब भी दुख ज़ाहिर किया उन लोगों का किया जिनका दुख दुनिया के लिए कोई मायने नहीं रखता। वही लोग जो अपने दुख अपने सीनों में लिए जीते रहते हैं और ऐसे ही मर जाते हैं। शायर जब अपने दुखों को शब्द देने लगता है तो उसकी शायरी में हल्की- हल्की चिंगारियां नज़र आने लगती हैं और पढ़ने सुनने वालों को धीमी - धीमी आंच महसूस होने लगती है। मगर जब शायर अपने दुखों को एक तरफ रख कर अपने लोगों के दुखों को ज़ुबान देता है तो उसके यहां हल्की-फुल्की चिंगारियां नहीं बल्कि एक ऐसी आग पैदा हो जाती है जो पढ़ने और सुनने वालों के चेहरों को ही नहीं बल्कि रूहों को भी दमका जाती है। दुष्यंत कुमार अपने हाथों में अंगारे लिए ऐसा ही एक शायर है जो अपने लोगों की ज़िंदगियां अन्धेरी होने के कारण ही नहीं बताता बल्कि उन्हें रौशन करने के उपाय भी सुझाता है :-

रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया

इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कवंल के फूल कुम्लहाने लगे हैं 

अब नई तहज़ीब के पेशे - नज़र हम

आदमी को भून कर खाने लगे हैं 

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप

जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही 

खड़े हुए थे अलाव की आंच लेने को

सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए 

लहूलुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो 

शरीफ लोग उठे, दूर जाके बैठ गए 

हो गयी है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए 

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं 

मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

दिलों की बुझ गयी आग को जलाने और जलाए रखने का हुनर सिखाने वाला यह शायर अगर किसी से सबसे ज़्यादा नफरत करता था तो अपने मुल्क की राजनीति और राजनेताओं से करता था। इसीलिए दुष्यंत ने उम्र भर राजनेताओं की तरफ ही अपनी सोच के अंगारे उछाले :-

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है

हर किसी का पैर घुटनों तक सना है

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस यह मुद्दआ

यहां तक आते-आते सूख जाती हैं सभी नदियां

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा

देखिए उस तरफ़ उजाला है 

जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

लेकिन दुष्यंत को सिर्फ सियासत को आइना दिखाने वाला शायर ही समझ लेना इस शायर और इसकी शायरी की अनदेखी करना है, जो कि हम लोग वर्षों से करते आ रहे हैं। दुष्यंत अपने हाथों में अंगारे लिए नज़र आता है मगर दूसरी तरफ उसके सीने में वह महके हुए फूल भी हैं जो जवां दिलों को महकाते हैं और प्रेम की एक अनदेखी और अनजानी फिज़ा कायम करते हैं।

दुष्यंत की रूमानी शायरी में भी उसका खुरदुरापन उसी तरह मौजूद है, मगर यह खुरदुराहट दिल पर ख़राशें नहीं डालती बल्कि एक मीठे से  दर्द  का एहसास  कराती चली जाती है। दुष्यंत कहता है :-


एक आदत सी बन गई है तू

और आदत कभी नहीं जाती

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ

उस जिस्म के  तिलिस्म  की  बंदिश तो देखिए

एक जंगल है तेरी आंखों में

मैं जहां राह भूल जाता हूं

तू किसी रेल सी गुजरती है

मैं किसी पुल सा थरथराता हूं

चढ़ाता  फिर रहा हूं  जो चढ़ावे

तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं

तमाम रात  तेरे मयकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

तुम्हें भी इस बहाने देख लेंगे

इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी

आंधी में सिर्फ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे

हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और

तेरे गहनों सी खनखनाती थी

बाजरे की फसल रही होगी

वह घर में मेज़ पर कोहनी टिकाए बैठी है

थमी हुई है वहीं उम्र आजकल लोगो

दिल के नर्म गोशों को सहलाने वाले यह शेर उसी शायर की क़लम से निकले हैं जिसका क़लम अंगारे उगलने के लिए मशहूर है। चाहते न चाहते हर रचनाकार किसी ना किसी सांचे में ढल ही जाता है या ढाल दिया जाता है। यही मुआमला दुष्यंत के साथ भी हुआ। कुछ बातें इस शायर की शोहरतों के साथ-साथ सफर करती रही हैं, पहली बात यह कि दुष्यंत रूमानी शायरी नहीं कर सकता जिस को रद्द करने के लिए ऊपर दिए गए अशआर ही काफी हैं। दूसरी बात यह है कही जाती है कि दुष्यंत उर्दू का शायर नहीं है बल्की हिंदी का शायर है। इस बात या गुमान को रद्द करने के लिए अशआर पेश करने से पहले यह बताना भी ज़रूरी है कि किसी एक ज़बान का शायर दूसरी जबान के अल्फाज़ न के बराबर इस्तेमाल करता है। अगर दुष्यंत सिर्फ हिंदी का शायर होता तो उर्दू के ऐसे अल्फाज़ का इस्तमाल करते हुए ये अशआर कभी नहीं कहता :-

जो हमको ढूंढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा

तसव्वुर ऐसे ग़ैर - आबाद हल्क़ों तक चला आया

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको

क़ायदे क़ानून समझाने लगे हैं

कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे

कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

ज़रा सी बात है दिल से निकल न जाए कहीं

हुज़ूर आरिज़ो रुखसार क्या तमाम बदन

मेरी सुने तो मुजस्सम गुलाब हो जाए

यह ज़ुबां हमसे सी नहीं जाती

जिंदगी है कि जी नहीं जाती

मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

कहीं पर शाम सिरहाने लगा के बैठ गए

तमाम रात तेरे मयकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल ना जाए कहीं

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

शब ग़नीमत थी लोग कहते थे

सुब्ह बदनाम हो रही है अब 

अशआर की ये चंद मिसालें हैं जो किसी भी एतबार से किसी हिंदी गज़ल के शायर की नहीं कही जा सकतीं। अब तीसरी बात पर आते हैं वह यह कि दुष्यंत हिंदी का शायर है, यह मान भी लिया जाए तो भी दुष्यंत हिंदी का वैसा आम सा शायर नहीं है जैसा दूसरा हिंदी का शायर समझा जाता है। देखिए शायरी की ज़बान के लिए सबसे जरूरी कोई चीज़ है तो वह यह कि वह ज़बान ऐसे अल्फाज़ अपनी झोली में लिए हुए होती है जो बोलते हुए ज़बान पर बहने का माद्दा रखते हैं। नस्रऔर नज़्म में यही तो फर्क है कि नस्र पढ़ते हुए ज़बान पर बह नहीं सकती, इसमें अटकाव और ठहराव होता है जबकि नज़्म की यह सबसे बड़ी खूबी है कि वह ज़बान पर बहती चली जाती है। इसलिए जिस ज़बान में जितने ज्यादा बहाव वाले अल्फाज़ होते हैं उस ज़बान की शायरी उतनी ही ज़्यादा असरदार, बड़ी और याद रह जाने वाली होती है। दुष्यंत ने हिंदी ज़बान के अल्फाज़ भी खूब इस्तेमाल किए हैं, मगर दुष्यंत का यह कमाल है कि उसने इन अल्फाज़ को बहने वाले अल्फाज़ में तब्दील कर दिया है। यानी अल्फाज़ का बहाव बनाया भी है और निभाया भी है। यह काम वही रचनाकार कर सकता है जो अल्फाज़ में छुपी खामोशियों और अल्फाज़ की खूबियां और खामियों से पूरी तरह वाक़िफ हो। दुष्यंत ने हिंदी अल्फाज़ को किस खूबी से उर्दू ग़ज़ल के भाव में शामिल किया है और उन अल्फाज़ को ग़ज़ल के रिवायती अल्फाज़ के साथ किस फनकारी से चस्पां किया है, यह देखते ही बनता है। यह खूबी हर शायर को मयस्सर नहीं आती। जो नए लोग और पुराने भी, हिंदी ज़बान में ग़ज़लें कह रहे हैं या कहने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें दुष्यंत के ये शेर ज़रूर सुनने और पढ़ने चाहिए और अल्फाज के बहाव पर मंथन करना चाहिए:-

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर

और कुछ हो या न हो आकाश सी छाती तो है

ग़जब है सच को सच कहते नहीं वे

क़ुरानो उपनिषद खोले हुए हैं

किसी संवेदना के काम आएंगे

यहां टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है

आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हिंदी अल्फाज़ की ऐसी रवानी और किसी शायर के यहां मुश्किल से ही देखने को मिलती है। दुष्यंत के यहां हिंदी उर्दू अल्फाज़ की आमेज़िश एक नई ताज़गी के साथ ज़ाहिर हुई है और यह इस शायर की बड़ी खूबी मानी जा सकती है। दुष्यंत के यहां इंसानी कशमकश, जज़्बात, उदासी, महरूमी को भी बहुत फनकारी के साथ बयान किया गया है, जो उसे एक न भूलने वाला शायर बनाता है। इसके अलावा ज़बान की सादगी और ज़बान का हिंदुस्तानीपन दुष्यंत को अपने अहद का सबसे अनोखा और अलबेला शायर भी बनाता है। दिल से निकलने और दिल में उतर जाने वाले कुछ अशआर सुनिए :-

दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें

सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया

दिल को बहला ले, इजाज़त है मगर इतना न उड़

रोज़ सपने देख लेकिन इस कदऱ प्यारे न देख

थोड़ी आग बनी रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो

कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएंगे

अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था

वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

यह बहस खूब की जा सकती है कि दुष्यंत हिंदी ग़ज़ल का शायर है या उर्दू ग़ज़ल का। दुष्यंत बे-बहरा शायर है या नहीं इस पर भी घंटो एक दूसरे का सब्र आज़माया जा सकता है। इस बात पर भी चर्चा हो सकती है कि दुष्यंत ने ग़ज़ल के व्याकरण की अनदेखी अपनी अज्ञानता के कारण की है या अपने बग़ावती तेवर के सबब उसने यह काम जानबूझकर किया है। मगर दुष्यंत नई ग़ज़ल का सच बोलने वाला सबसे अनोखा शायर है जिसकी शायरी तब तक ज़िंदा रहेगी जब तक गरीबों, लाचारों और बेबसों के लिए कोई न कोई आवाज़ उठती रहेगी। 

दुष्यंत के बारे में अच्छी और बुरी बातें हर नए दौर में कही जाती रहेंगी, लेकिन दुष्यंत ही अकेला ऐसा शायर है जिसने उम्र भर सियासत को मुंह चढ़ाया मगर दुष्यंत के बाद सियासतदानों ने संसद में या संसद के बाहर, विधानसभाओं में या विधानसभाओं के बाहर अपनी बात को मनवाने और अपनी बात में ज़्यादा वज़्न पैदा करने के लिए दुष्यंत को ही हजारों बार कोष किया है। दुष्यंत मायूसी के काले बादलों को तार-तार करने की ताक़त रखता है और दूसरों को भी ऐसा करने पर उकसाता है, तभी तो दुष्यंत का यह शेर उसकी सारी शायरी उसकी सोच और समाज को बदलने, संभालने और सजाने के लिए एक मिसाल बन चुका है :-

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो


✍️ ज़िया ज़मीर

ई-13/1, हिमगिरि कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

मो0 - 8755681225

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि 30 दिसम्बर पर योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख ----- मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं...


उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर के गाँव राजपुर नवादा में 1 सितम्बर 1933 को जमींदार परिवार में जन्मे दुष्यंत कुमार 1945-46 से ही कविताएं लिखने लगे थे और शुरुआत कवि- सम्मेलनीय मंचों पर कुछ गीतों से करने के बाद नई-कविता के क्षेत्र में सृजन करने लगे थे।

 1957 में उनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘सूर्य का स्वागत’ आया। तब ‘परदेसी’ उपनाम से कविताएं लिखने वाले दुष्यंत का दूसरा संग्रह ‘आवाज़ों के घेरे’ 1963 में तथा 1964 में काव्य-नाटक के रूप में तीसरी कृति ‘एक कण्ठ विषपायी’ आई। उस समय के साहित्यिक वातावरण के अनुरूप दुष्यंत कविताओं के साथ-साथ कहानी और उपन्यास भी लिखने लगे थे, लिहाज़ा 1964 में ही उनकी चौथी कृति के रूप में पहला उपन्यास ‘छोटे-छोटे सवाल’ प्रकाशित हुआ और 1970 में दूसरा उपन्यास ‘आँगन में एक वृक्ष’ उनकी पाँचवीं कृति बना। इसके तीन साल बाद 1973 में उनकी छठवीं कृति ‘जलते हुए वन का बसंत’ फिर से कविताओं का संग्रह आया। 


इसके बाद उन्होंने अपनी समकालीन विषम परिस्थितियों तथा आम आदमी की पीड़ा को धारदार अभिव्यक्ति देने के लिए नये काव्यरूप को तलाशा तो उन्हें ग़ालिब की याद आई और ग़ालिब से प्रेरित होकर वह ग़ज़ल की ओर मुड़े। दुष्यंत ने यह स्वीकार भी किया है कि उन्हें ग़ज़ल की बारीक़ियों की जानकारी नहीं है और वह उर्दू नहीं जानते लेकिन हिन्दी और उर्दू को ज़्यादा क़रीब लाने के लिए अपनी ग़जलों में उर्दू शब्दों का प्रयोग किया है। 

अपने आत्मकथ्य में वह कहते हैं-‘भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी निजी तक़लीफ़ को ग़ज़ल के माध्यम से इतना सार्वजनिक बना सकते हैं, तो मेरी दुहरी तक़लीफ़ इस माध्यम के सहारे व्यापक पाठक-वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती? उस प्रतिभा का शतांश भी मुझमें नहीं है, लेकिन मैं यह नहीं मानता कि मेरी दुहरी तक़लीफ़ ग़ालिब से कम है या मैनें उसे कम शिद्दत से महसूस किया है।’’ यहाँ से दुष्यंत ने आमआदमी की पीड़ा को आमआदमी की ही भाषा में अपनी ग़ज़लों में पिरोया-

‘वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है’

उस दौर में कही गईं उनकी 52 ग़ज़लों का संग्रह ‘साये में धूप’ 1975 में आया और सातवीं कृति के रूप में उनकी यह अंतिम कृति बनी। बहुत कम रचनाकार हुए हैं जिनकी अंतिम कृति ने उनकी विशिष्ट पहचान बनाई, असीम प्रतिष्ठा दिलाई। जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ और प्रेमचंद की ‘गोदान’ की तरह ही दुष्यंत की ‘साये में धूप’ सर्वाधिक चर्चित और प्रतिष्ठित हुई।  

स्थापित परम्पराओं के विरुद्ध जाकर नई परम्परा को विकसित करते हुए इस तरह से स्थापित करना कि आने वाली पीढ़ियाँ उस नई परम्परा से प्रेरणा ले, उसे आगे ले जाए, बेहद मुश्क़िल काम है। दुष्यंत कुमार ने यही मुश्क़िल काम किया- ग़ज़ल की परंपरागत भाषा, कहन, शैली से इतर अलग तरह की कहन और तेवर को ग़ज़ल के शिल्प में पूरी ग़ज़लियत के साथ प्रस्तुत करते हुए ग़ज़ल की नई परिभाषा, नया मुहावरा गढ़ा। दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को उसके परम्परागत स्वर ‘महबूब से बात’ और ‘इश्क-मोहब्बत’ की चाहरदीवारी से बाहर निकालकर ना केवल आमजन के दुख-दर्द से जोड़ा बल्कि राजनीतिक स्थितियों पर शासन-सत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल भी किया-

ये जो शहतीर है पलकों पे उठालो यारो

अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’

दरअस्ल, अधिकांश लोग यह मानते हैं कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें आपातकाल की भीषण भयावहता पर तीक्ष्ण टिप्पणी है किन्तु उनकी ग़ज़लों का रचनाकाल 1973 से 1975 तक का समय है यानीकि आपातकाल की घोषणा से पहले का। किसी भी रचनाकार के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि होती है कि उसकी रचनाएं जन-जन की ज़ुबान पर बस जायें। यही हुआ भी, आपातकाल में तानाशाही से भयाक्रांत आम आदमी के लिए दुष्यंत कुमार द्वारा ग़ज़लों के माध्यम से व्यक्त किए गए व्यवस्था-विरोध के स्वर ने मंत्र का काम किया और उनकी ग़ज़लों के शे’र शासन-सत्ता के विरुद्ध नारे रचने का काम करने लगे-

‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नही

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए’

दुष्यंत ने अपने समय में आम आदमी की दयनीय स्थिति, बेबसी और लाचारी के साथ-साथ सत्ताधीशों की तानाशाही व हृदयहीनता से भरी आम जनता की उपेक्षा बहुत नज़दीक से देखी, तभी तो व्यवस्था के विरोध में उनका आक्रोश उनकी ग़ज़लों के हर शब्द में गूँजता है-

‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

कमाल यह है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं’

या फिर-

‘भूख है तोे सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे-बहस यह मुद्दआ

गिड़गिड़ाने से यहाँ कोई असर होता नहीं

पेट भरकर गालियाँ दो आह भरकर बद्दुआ’

यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों के शेर आज के समय में व्याप्त विद्रूपताओं के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। 30 दिसम्बर 1975 को हुई उनकी अकस्मात मृत्यु ने तत्कालीन सभी कलमकारों को जैसे हिलाकर रख दिया था। उस समय के बड़े रचनाकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बहुत आहत होते हुए ‘दिनमान’ में लिखा था-‘दुष्यंत की किताब ‘‘साये में धूप’’ की समीक्षा करते हुए मैंने उसे ग़ज़लें कम लिखने की सलाह दी थी, लेकिन क्या पता था कि वह ऐसी स्थिति पैदा कर देगा कि अब वैसी ग़ज़लें फिर लिखी ही नहीं जायेंगी’। ‘मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ/वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ’ कहने वाले दुष्यंत महज़ 44 साल की उम्र में ही इस दुनिया से रुख़्सत हो गए यह कहकर-

‘यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चलें और उम्र-भर के लिए’

 

साहित्यकार कमलेश्वर ने भी कहा है कि ‘दुष्यंत कुमार ने विस्फोटक ग़ज़लें लिखकर हिन्दी कविता का रचनात्मक मिज़ाज और मौसम ही बदल दिया, उनके शब्द भारतीय जनतंत्र को बचाने में सक्रिय हैं’। दरअस्ल दुष्यंत की ग़ज़लों की तासीर ही ऐसी है, क्या किया जाये। तभी तो दुष्यन्त ज़िंदा हैं हमारे दिल-दिमाग में आज भी अपने अश्'आर के रूप में। 

✍️योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

ए.एल.-49, दीनदयाल नगर-।,

काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर - 9412805981

        

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार अग्रवाल की कविता .........तो खुशियाँ लेकर लौटूँगा

 


जहाँ हम तुम मिले थे पहली बार

वह घर तो छूट गया

और कोई निशान भी बाकी नहीं है उसका अब

ये रिश्ते-नातों के बन्धन

रीति-रिवाज़

परम्पराएँ

और ये समाज की स्थापित मान्यताएँ

सब कुछ मिलकर कर देते हैं ऐसा कुछ

कि मन को बिना साथ लिए ही

तन चलता रहता है।

चलता रहता है दिनों, महीनों और सालों

किन्तु बिना मन के इस सफ़र का कोई गाम

क्या कभी उसको छू पाता है।

या हमारा भी कभी कोई हमसफ़र बन पाता है।

नहीं न!

तो फिर इस तनहा सफ़र का मतलब क्या है।

मुझे बताओ कि ज़िन्दगी की हक़ीक़त क्या है।

सुबह को जो प्यार करते हैं।

दिन ढलते-ढलते

अलग-अलग रास्तों पर मुड जाते हैं।

और रातों का क्या

रातें महफिलों की रंगीनियों में भी गुजरती हैं।

और जंगलों के अन्धरों में भी

यहाँ ज़िन्दगी हँसती है

नाचती झूमती गाती है

और वहाँ मारे खौफ के

थर-थर काँपती है।

तुमने तो दुःखों के जंगल में

धकेल ही दिया है मुझे

अगर मैं जंगल के सफर से लौटा

तो ढेर सारी ख़ुशियाँ लेकर लौटूँगा

तुम्हारे लिए।


✍️ आमोद कुमार अग्रवाल

सी -520, सरस्वती विहार

पीतमपुरा, दिल्ली -34

मोबाइल फोन नंबर  9868210248

रविवार, 27 दिसंबर 2020

भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक प्रकोष्ठ महानगर मुरादाबाद उत्तर प्रदेश द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री स्मृतिशेष अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर "अटल काव्य महोत्सव "का आयोजन

      भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक प्रकोष्ठ महानगर मुरादाबाद उत्तर प्रदेश द्वारा भारत रत्न, पूर्व प्रधानमंत्री स्मृतिशेष अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस की पूर्व संध्या  24 दिसम्बर 2020 को अटल काव्य महोत्सव का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता अनुभा गुप्ता  द्वारा की गई। संचालन महानगर संयोजिका डॉ प्रेमवती उपाध्याय द्वारा किया गया।सरस्वती वंदना अशोक विद्रोही विश्नोई द्वारा प्रस्तुत की गई। मुख्य अतिथि एमएलसी डॉ जयपाल सिंह व्यस्त  रहे। विशिष्ट अतिथि फक्कड़ मुरादाबादी एवं श्री कृष्ण शुक्ल रहे।   

   कार्यक्रम में डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने गीत प्रस्तुत किया--

चंदन है इस देश की माटी आओ नमन करे


अशोक विद्रोही की रचना थी-

ध्रुव  तारे  से तुम रहे अटल।

हर राजनीति में रहे सफल।।

मन में था राष्ट्रप्रेम निश्चल।

और ह्रदय रहा पावन निर्मल।।


महाराजा हरिश्चंद्र महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ . मीना  कौल ने कहा ---

दुनिया के सरोवर में 

खिला अटल सा एक कमल

रूप रंग और सुगंध 

सुंदर सजल सरल


श्री कृष्ण शुक्ल ने पढ़ा-

मौत से रही ठनी, चली रही तनातनी।

काल के कपाल पर, चल रही थी लेखनी

यकायक जीवन का ज्योति दीप बुझ गया

युगपुरुष चला गया, शून्य व्याप्त हो गया ।

भारती की गोद का एक लाल सो गया ।


राजीव 'प्रखर' ने मुक्तक प्रस्तुत किया --

जगाये बाँकुरे निकले नया आभास झाँसी में।

वतन के नाम पर छाया बहुत उल्लास झाँसी में।

समर भू पर पुनः पीकर रुधिर वहशी दरिन्दों का,

रचा था मात चण्डी ने अमिट इतिहास झाँसी में


प्रशांत मिश्र ने अपनी ओजस्वी वाणी से आह्वान किया --

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, 

स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा

       

डॉ. सरिता लाल का स्वर था ---

वक्त की पुकार सुन जरा

कदमों की चाल सुन जरा

कोई नया इतिहास रच रहा

हर बदलते पल को सुन जरा.


डॉ. सुगंधा अग्रवाल ने अटल जी की रचना प्रस्तुत की----

आदमी को चाहिए कि वह जूझे

 परिस्थितियों से लड़े ,

एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।

 किंतु कितना भी ऊंचा उठे,

 मनुष्यता के स्तर से ना गिरे


प्रवीण राही ने कहा ---

देशभक्ति काआपने दिया हमें पैगाम

अटल बिहारी आपको कोटि-कोटि प्रणाम।


हेमा तिवारी भट्ट की रचना थी---

विमल सादगी,सज्जनता,मानव रहे तुम अति विरल।

कुशल वक्ता,ओजधारी,बने सबके सखा निश्छल


डॉ मनोज रस्तोगी ने गीत प्रस्तुत किया ---

फैल गई काली स्याही सम्बन्धों पर

बारूदी  थैले   टंग गये  कंधों पर।।

     

 हास्य व्यंग्य कवि फक्कड़ मुरादाबादी ने अपनी रचनाओं से देरतक गुदगुदाया।  डॉ सीमा शर्मा, सुधीर गुप्ता, एस एन सिंह आदि ने भी विचार व्यक्त किये।












































::::::::::::प्रस्तुति:::::::::::

डॉ प्रेमवती उपाध्याय

महानगर संयोजिका ,भारतीय जनता पार्टी,  सांस्कृतिक प्रकोष्ठ मुरादाबाद