बुधवार, 30 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि 30 दिसम्बर पर योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख ----- मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं...


उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर के गाँव राजपुर नवादा में 1 सितम्बर 1933 को जमींदार परिवार में जन्मे दुष्यंत कुमार 1945-46 से ही कविताएं लिखने लगे थे और शुरुआत कवि- सम्मेलनीय मंचों पर कुछ गीतों से करने के बाद नई-कविता के क्षेत्र में सृजन करने लगे थे।

 1957 में उनकी कविताओं का पहला संग्रह ‘सूर्य का स्वागत’ आया। तब ‘परदेसी’ उपनाम से कविताएं लिखने वाले दुष्यंत का दूसरा संग्रह ‘आवाज़ों के घेरे’ 1963 में तथा 1964 में काव्य-नाटक के रूप में तीसरी कृति ‘एक कण्ठ विषपायी’ आई। उस समय के साहित्यिक वातावरण के अनुरूप दुष्यंत कविताओं के साथ-साथ कहानी और उपन्यास भी लिखने लगे थे, लिहाज़ा 1964 में ही उनकी चौथी कृति के रूप में पहला उपन्यास ‘छोटे-छोटे सवाल’ प्रकाशित हुआ और 1970 में दूसरा उपन्यास ‘आँगन में एक वृक्ष’ उनकी पाँचवीं कृति बना। इसके तीन साल बाद 1973 में उनकी छठवीं कृति ‘जलते हुए वन का बसंत’ फिर से कविताओं का संग्रह आया। 


इसके बाद उन्होंने अपनी समकालीन विषम परिस्थितियों तथा आम आदमी की पीड़ा को धारदार अभिव्यक्ति देने के लिए नये काव्यरूप को तलाशा तो उन्हें ग़ालिब की याद आई और ग़ालिब से प्रेरित होकर वह ग़ज़ल की ओर मुड़े। दुष्यंत ने यह स्वीकार भी किया है कि उन्हें ग़ज़ल की बारीक़ियों की जानकारी नहीं है और वह उर्दू नहीं जानते लेकिन हिन्दी और उर्दू को ज़्यादा क़रीब लाने के लिए अपनी ग़जलों में उर्दू शब्दों का प्रयोग किया है। 

अपने आत्मकथ्य में वह कहते हैं-‘भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी निजी तक़लीफ़ को ग़ज़ल के माध्यम से इतना सार्वजनिक बना सकते हैं, तो मेरी दुहरी तक़लीफ़ इस माध्यम के सहारे व्यापक पाठक-वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती? उस प्रतिभा का शतांश भी मुझमें नहीं है, लेकिन मैं यह नहीं मानता कि मेरी दुहरी तक़लीफ़ ग़ालिब से कम है या मैनें उसे कम शिद्दत से महसूस किया है।’’ यहाँ से दुष्यंत ने आमआदमी की पीड़ा को आमआदमी की ही भाषा में अपनी ग़ज़लों में पिरोया-

‘वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है’

उस दौर में कही गईं उनकी 52 ग़ज़लों का संग्रह ‘साये में धूप’ 1975 में आया और सातवीं कृति के रूप में उनकी यह अंतिम कृति बनी। बहुत कम रचनाकार हुए हैं जिनकी अंतिम कृति ने उनकी विशिष्ट पहचान बनाई, असीम प्रतिष्ठा दिलाई। जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ और प्रेमचंद की ‘गोदान’ की तरह ही दुष्यंत की ‘साये में धूप’ सर्वाधिक चर्चित और प्रतिष्ठित हुई।  

स्थापित परम्पराओं के विरुद्ध जाकर नई परम्परा को विकसित करते हुए इस तरह से स्थापित करना कि आने वाली पीढ़ियाँ उस नई परम्परा से प्रेरणा ले, उसे आगे ले जाए, बेहद मुश्क़िल काम है। दुष्यंत कुमार ने यही मुश्क़िल काम किया- ग़ज़ल की परंपरागत भाषा, कहन, शैली से इतर अलग तरह की कहन और तेवर को ग़ज़ल के शिल्प में पूरी ग़ज़लियत के साथ प्रस्तुत करते हुए ग़ज़ल की नई परिभाषा, नया मुहावरा गढ़ा। दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को उसके परम्परागत स्वर ‘महबूब से बात’ और ‘इश्क-मोहब्बत’ की चाहरदीवारी से बाहर निकालकर ना केवल आमजन के दुख-दर्द से जोड़ा बल्कि राजनीतिक स्थितियों पर शासन-सत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल भी किया-

ये जो शहतीर है पलकों पे उठालो यारो

अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’

दरअस्ल, अधिकांश लोग यह मानते हैं कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें आपातकाल की भीषण भयावहता पर तीक्ष्ण टिप्पणी है किन्तु उनकी ग़ज़लों का रचनाकाल 1973 से 1975 तक का समय है यानीकि आपातकाल की घोषणा से पहले का। किसी भी रचनाकार के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि होती है कि उसकी रचनाएं जन-जन की ज़ुबान पर बस जायें। यही हुआ भी, आपातकाल में तानाशाही से भयाक्रांत आम आदमी के लिए दुष्यंत कुमार द्वारा ग़ज़लों के माध्यम से व्यक्त किए गए व्यवस्था-विरोध के स्वर ने मंत्र का काम किया और उनकी ग़ज़लों के शे’र शासन-सत्ता के विरुद्ध नारे रचने का काम करने लगे-

‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नही

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए’

दुष्यंत ने अपने समय में आम आदमी की दयनीय स्थिति, बेबसी और लाचारी के साथ-साथ सत्ताधीशों की तानाशाही व हृदयहीनता से भरी आम जनता की उपेक्षा बहुत नज़दीक से देखी, तभी तो व्यवस्था के विरोध में उनका आक्रोश उनकी ग़ज़लों के हर शब्द में गूँजता है-

‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

कमाल यह है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं’

या फिर-

‘भूख है तोे सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे-बहस यह मुद्दआ

गिड़गिड़ाने से यहाँ कोई असर होता नहीं

पेट भरकर गालियाँ दो आह भरकर बद्दुआ’

यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों के शेर आज के समय में व्याप्त विद्रूपताओं के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। 30 दिसम्बर 1975 को हुई उनकी अकस्मात मृत्यु ने तत्कालीन सभी कलमकारों को जैसे हिलाकर रख दिया था। उस समय के बड़े रचनाकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बहुत आहत होते हुए ‘दिनमान’ में लिखा था-‘दुष्यंत की किताब ‘‘साये में धूप’’ की समीक्षा करते हुए मैंने उसे ग़ज़लें कम लिखने की सलाह दी थी, लेकिन क्या पता था कि वह ऐसी स्थिति पैदा कर देगा कि अब वैसी ग़ज़लें फिर लिखी ही नहीं जायेंगी’। ‘मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ/वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ’ कहने वाले दुष्यंत महज़ 44 साल की उम्र में ही इस दुनिया से रुख़्सत हो गए यह कहकर-

‘यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चलें और उम्र-भर के लिए’

 

साहित्यकार कमलेश्वर ने भी कहा है कि ‘दुष्यंत कुमार ने विस्फोटक ग़ज़लें लिखकर हिन्दी कविता का रचनात्मक मिज़ाज और मौसम ही बदल दिया, उनके शब्द भारतीय जनतंत्र को बचाने में सक्रिय हैं’। दरअस्ल दुष्यंत की ग़ज़लों की तासीर ही ऐसी है, क्या किया जाये। तभी तो दुष्यन्त ज़िंदा हैं हमारे दिल-दिमाग में आज भी अपने अश्'आर के रूप में। 

✍️योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

ए.एल.-49, दीनदयाल नगर-।,

काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर - 9412805981

        

1 टिप्पणी:

  1. दुष्यंत जी के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी देने जे लिए हार्दिक धन्यवाद।वास्तव में दुष्यंत कुमार की गजलें सीधे मन पर असर डालती हैं।सुंदर आलेख।🙏🙏🙏

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