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मंगलवार, 2 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के अभिनव गीत-संग्रह “गीतों के भी घर होते हैं” की डॉ काव्य सौरभ जैमिनी द्वारा की गई समीक्षा .... संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में सशक्त आवाज

  आभासी दुनिया के इस युग में गीत की गरिमा को जीवित रखना एक दुष्कर कार्य है। समय की मांग के अनुसार चल कर ही गीत को बचाया जा सकता है। नवगीत की परंपरागत  शैली से कुछ इतर प्रयोग कर डॉ मक्खन मुरादाबादी ने अभिनव गीत के माध्यम से सरलता व कोमलता के साथ यथार्थ को समाविष्ट कर एक अभिनव पहल की है। "गीतों के भी घर होते हैं" में विषय की विविधता एवं संवेदनाओं का विस्तार है। बौ‌द्धिक चेतना से ओतप्रोत इन गीतों में वैचारिक गांभीर्य है। जीवन की विषमताओं एवं कठोरता के चित्रण के साथ लालित्य भी है। संग्रह के गीतों मे आन्तरिक एवं बाह्य संवेदनाओं का एक संतुलित रूप दिखाई देता है। कुछ पंक्तियाँ अनायास ही आनंदित कर देती हैं:

स्वरलिपियों से गति दे दो

ठहरे लगते पानी को

मधुर ताल लय में कर दो

पड़ी बेसुरी बानी को

अस्वीकृत मूल्यों प्रति विद्रोहात्मक रवैया एवं आक्रोश बेहद शांत रूप में प्रदर्शित किया है मक्खन जी ने :

संविधान की आड़ लिए जो

साजिश पहने ढोंग खड़ी है

सिद्ध यही उसको है करना

इस पुस्तक से बहुत बड़ी है

क्योंकि अकेले आज़ादी का

उसका कुनबा युद्ध लड़ा है

समसामयिक और संवेदनशील मु‌द्दों पर बेबाकी से लिखा है:

फंसी धर्म में जो थी गाड़ी

अटकी है अब जाति -पाँति पर

कुटिल सियासत प्रश्न पूछती

अपने घर की बढ़ी ख्याति पर

जग है लट्टू, पर ना खुश है

चुकी हुई धुन का साजिन्दा

मक्खन जी की सत्यान्वेषी दृष्टि मानव को दिशा-बोध करा रही है:

बुरे-भले को ठोंक-बजाकर

उसका सत्व निकालें

अच्छे को तो सभी निभाते

थोड़ा बुरा भी निभा लें

चलकर ही तो सत्यपथ मिलता

जीवन चलते जाना

मक्खन जी के इन गीतों में बाल मन की व्याकुलता भी है। शैली बरबस सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की याद दिलाती है:

तपते दिन हैं बच्चे व्याकुल

गर्मी से उकताए हैं

उन्हें बुलाने ननिहालों से

कई बुलावे आए हैं

उनका मन भी खुश रखना है

गीतों में नानी लिखना

ग्रामीण अंचल में मानवीय संवेदनाओं की मौजूदगी को कुछ इस तरह बयां किया है:

आंखें रूखी-रूखी

घर भी रीता-रीता

खटका जाता कुंडी

आकर रोज फजीता

मान गाँव ने रक्खा

निर्धन की कुटिया का

सरकारी भ्रष्टाचार पर तंज कसने मे मक्खन जी कतई नहीं पिघलेः

बने योजना तो कितने ही 

उसमें पड़ते कूद 

गाय दुखी है हर खूँटे पर 

देना पड़ता दूध 

शिष्टाचारित मन से होती 

भ्रष्टाचारित जीत 

यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ये अभिनव गीत हमारी संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में सशक्त आवाज हैं। भाषा डॉ कारेंद्र देव त्यागी के उपनाम मक्खन की भांति सरल, सहज व संप्रेषणीय है। सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का एक सफल प्रयास किया गया है। कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता सिद्ध करती है कि इन अभिनव गीतों में किसी विचारधारा विशेष का दबाव नहीं है। सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए कुछ बेहतर के लिए अन्वेषण इस संग्रह में प्रतीत होता है। हालांकि कुछ पंक्तियों को जबरन विस्तार दिया गया है परंतु मक्खन जी ने सम्पूर्ण संग्रह में मन की बात कही है और मन के विस्तार को रोका और मापा नहीं जा सकता। बिंबों और प्रतीकों का अधिक सहारा लिए बिना बात की तरह बात कह देने का हुनर मक्खन जी में ही है। संग्रह की पंक्ति जो 'खत' को लेकर लिखी गई है-'सफल कहाँ गूगल भी उनकी सकल समीक्षा में', खत की जगह इस अप्रतिम संग्रह पर चरितार्थ होती दिखाई देती है। नवगीत के परिष्कृत रूप इन अभिनव गीतों के माध्यम से मक्खन जी ने नव काव्यान्दोलन का बिगुल बजाया है। हास्य व्यंग्य के स्थापित हस्ताक्षर मक्खन जी का गीत में साहसपूर्ण पदार्पण स्तुत्य है। इस अतुलनीय संग्रह से मक्खन जी ने  धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सरीखे स्वनामधन्य रचनाकारों की श्रेणी में स्थापित होने के लिए कदम बढ़ा दिया है। यह अभिनव गीत-संग्रह हिन्दी साहित्य जगत में न केवल अपनी अलग पहचान बनाये वरन् शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो, ऐसी कामना है।


कृतिगीतों के भी घर होते हैं (अभिनव गीत संग्रह)

कवि : डॉ. मक्खन मुरादाबादी

प्रकाशन वर्ष : 2023

मूल्य : 300₹ 

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, सी 130, हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद 244001


समीक्षक
:डॉ. काव्य सौरभ जैमिनी

अध्यक्ष-जैमिनी साहित्य फाउंडेशन एवं प्रबंधक-महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत ,मोबाइल फोन नंबर  9837097944

मंगलवार, 7 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ काव्य सौरभ जैमिनी द्वारा डॉ मुजाहिद फ़राज़ के ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा....जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत देता है "ख़्वाब समन्दर के"

'ख़्वाब समन्दर के' दूसरा संग्रह है डॉ मुजाहिद फ़राज़ की ग़ज़लों और नज्मों का, जो सोलह साल के इंतजार के बाद आया है। इकहत्तर ग़ज़लों, आठ नज्मों और दोहों को समेटे यह संग्रह न केवल वीरान और बदहाल जिन्दगी की दुश्वारियों को बयां करता है वरन् वर्तमान जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत भी देता है।अपनी गज़लों में डॉ फ़राज़ मानवीय संवेदनाओं में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हैं। ऐसा लगता है मानो उन्होंने इन ग़ज़लों, नज्मों और दोहों को जिया ही नहीं उसे भोगा भी है। उन्होंने जो भी लिखा है, साफगोई और मज़बूती के साथ लिखा है....

खुली हवा न मिली, अस्ल रौशनी न मिली 

नये मकानों में सब कुछ था, जिन्दगी न मिली

हसद की आग में जलने से क्या मिला उसको 

तमाम उम्र तरसता रहा, खुशी न मिली

किसी-किसी को ये ऐज़ाज़ बख्शता है खुदा 

हर एक को तो जहाँ में सिंकदरी न मिली

इसी तलाश में सदियां गुजार दीं हमने 

सुकून जिसमें मयस्सर हो वो घड़ी न मिली

डॉ फ़राज़ न केवल उच्च कोटि के शायर हैं वरन् एक मोटीवेशनल स्पीकर भी हैं। वह दुष्यंत की तरह मेहनत और लक्ष्य प्राप्ति का हौसला भरते हैं...

मैं ऐसी धूप से गुज़रा हूँ आकर

हिरन भी जिसमें काले पड़ गये हैं

तो समझो मंजिलों की जुस्तजू है 

अगर पैरों में छाले पड़ गए हैं

इसी तरह युवा दिलों में जोश भरने और कुछ नया कर दिखाने को प्रेरित भी करते हैं ....

हमें बताओं न दुश्वारियां मसाफ़त की 

जो हौसला हो तो तूफां भी रूख बदलते हैं

अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत नहीं गयी। दिल के इस दर्द को कुछ इस तरह बयां किया है डॉ. फ़राज़ ने.…..

आज़ादी-ए- गुलशन को ज़माना हुआ लेकिन

ज़हनों से गुलामी की यह काई नहीं जाती

हर नक़्श मिटा डाला है नफरत के जुनूँ ने 

ये कोट, ये पतलून, ये टाई नहीं जाती

शरीफ़ों की शराफ़त को क्या खूब बेपर्दा किया है उन्होंने ....

शराबखानों की रौनक अब उनके दम से है 

शरीफ लोग सुना था घरों में रहते हैं

डॉ फ़राज़ के शेरों के 'शेड्स' बहुआयामी हैं। खद्दर पर क्या बेहतरीन वार किया है.....

तू नादाँ क्या समझेगा इस खद्दर का ऐज़ाज़ है क्या 

ये बँगला वो कार खड़ी है, लंबी चादर तान के सो

उनका लेखकीय कैनवास वृहद है। उन्होंने रंगीन और खुशनुमा पलों को भी समाहित किया है। अपनी नज़्म के कैनवास में तितली की आमद को कुछ यूं उकेरा है....

शोख, रंगीं हसीन वो तितली

मेरे आंगन में जबसे आई है 

ऐसा लगता है जैसे रूठी हुई 

इस चमन की बहार लाई है

'ख़्वाब समंदर के' के लेखक डॉ फ़राज़ इंसान में संघर्ष के जज्बे को जलाए रखने में यकीन रखते हैं। बरबस अल्लामा इकबाल की याद आ जाती है। डाक्टर साहब की गज़लें बातें करती हैं, संवाद करती हैं, जिन्दगी जीने का सलीका सिखाती हैं। डॉ फ़राज़ का चिंतन मौलिक है सो ग़ज़लों में बनावटीपन नज़र नहीं आता। तुकांत की कोशिश में कहीं-कहीं कुछ अशआर हल्के मालूम देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर डॉ साहब ने इतना उम्दा लिख दिया है कि उनकी स्वतः क्षतिपूर्ति हो गई है। गज़ल संग्रह में कम संख्या में दोहे उचित प्रतीत नहीं हो रहे। दोहे स्तरीय हैं, उनका पृथक प्रकाशन उनके साहित्यिक अवदान को और समृद्ध करेगा। उर्दू लेखक होने के बावजूद डॉ फ़राज़ ने हिन्दी साहित्य की तमाम खूबियों और छंदों की रस्मों को निभाने का सार्थक प्रयास किया है जिससे संग्रह पठनीय, असरदार और शानदार हो गया है। इन ग़ज़लों को देवनागरी में लिखकर उन्होंने एक अलग पहचान बनाने की कामयाब कोशिश की है। एक हुनरमंद कारीगर की भांति एक-एक पत्थर को करीने से तराश कर ग़ज़ल की यह आलीशान इमारत खड़ी करना, एक साधना है। साहित्य साधक डॉ मुजाहिद फ़राज़ साहब को इस अनूठे संग्रह के लिये दिली मुबारकबाद।



कृति : ख़्वाब समन्दर के (ग़ज़ल संग्रह)

लेखक : डॉ मुजाहिद फ़राज़ 

संस्करण: 2024 

मूल्य : 200 रुपए

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद


समीक्षक 
: डॉ काव्य सौरभ जैमिनी

अध्यक्ष, जैमिनी साहित्य फाउंडेशन एवं प्रबंधक, एम०एच०पी०जी० कालेज मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

 मो०-9837097944