गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

मुरादाबाद की संस्था पंडित मदन मोहन गोस्वामी संगीत अकादमी की ओर से प्रवासी साहित्यकार प्रो. हरिशंकर आदेश की पुण्य स्मृति में 29 दिसंबर 2022 को काव्य गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की संस्था पंडित मदन मोहन गोस्वामी संगीत अकादमी की ओर से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भवन में प्रवासी साहित्यकार प्रो हरिशंकर आदेश की पुण्य स्मृति में गुरुवार 29 दिसंबर 2022 को काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। 

    कार्यक्रम का शुभारंभ अमेरिका निवासी कादंबरी आदेश, समीक्षा, प्रगति एवं निहारिका द्वारा प्रस्तुत स्मृति शेष आदेश रचित माॅं सरस्वती वंदना की प्रस्तुति से हुआ। संयोजक डॉ विनीत मोहन गोस्वामी ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश डाला। मुख्य अभ्यागत के रूप में बाल संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ विशेष गुप्ता ने कहा कि प्रो आदेश ने अपने साहित्य के माध्यम से जहां भारतीय संस्कृति का प्रसार किया वहीं विश्व बंधुत्व की भावना पर बल दिया। विशिष्ट अभ्यागत विवेक शंकर आदेश (अमेरिका) ने प्रो हरि शंकर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 7 अगस्त 1936 को बरेली में जन्मे प्रो हरिशंकर आदेश ने विदेश में हिंदी के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। कनाडा, अमेरिका तथा त्रिनिडाड टुबैगो में रहते हुए उन्होंने तीन सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की। अनुराग, शकुंतला, महारानी दमयंती, देवी सावित्री, अन्यथा, मर्यादा, लकीरों का खेल, मित्रता,रक्षक, निर्णय उनकी उल्लेखनीय कृतियां हैं। उनका निधन 28 दिसंबर 2020 को हुआ।

काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए हिन्दी और अंग्रेजी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल ने कहा -

"संभावित करुणा के सम्मुख अपना शीश झुकाऊॅं। 

मन कहता है आज तुम्हारे आंगन में रुक जाऊॅं।"     

      देश विदेश में हिन्दी की अलख जगा रहे रचनाकार साहित्य भूषण डा. महेश 'दिवाकर' ने हरि शंकर आदेश को समर्पित रचना प्रस्तुत करते हुए कहा - 

काव्य, कला, संगीत के, उच्च शिखर आदेश।

मनुज रूप में देवगुरू, संत शिरोमणि शेष।

भारत मां के पुत्र हैं, सकल विश्व विख्यात,

संस्कृति, दर्शन, काव्य में, अप्रवासी विशेष । 

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने रूस यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में कहा - 

 उड़ रही गंध , ताजे खून की । 

 बरसा रहा जहर मानसून भी । 

 घुटता है दम बारूदी झोंको के बीच । 

सुप्रसिद्ध व्यंगकार डॉ. मक्खन मुरादाबादी की अभिव्यक्ति थी - 

मन के दर्शन शब्द जगत के, आभासी सभी पटल। खरपतवार लगी कोशिश में हो मटियामेट फसल।

    सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने शीत लहर पर दोहे प्रस्तुत करते हुए कहा -- 

    कुहरे ने जब धूप पर, पाई फिर से जीत। 

    सर्दी भी लिखने लगी, ठिठुरन वाले गीत। 

    कुहरा धरता ही रहा, रोज़ भयंकर रूप। 

    जीवन में तहज़ीब-सी, कहीं खो गई धूप।

     वरिष्ठ रचनाकार ओंकार सिंह 'ओंकार' ने आह्वान किया - 

     ग़मों के बीच से आओ! ख़ुशी तलाश करें। 

     अंधेरे चीर के हम रोशनी तलाश करें । 

     अकेलेपन को मिटाने को आज दुनिया से, 

     भुला के भेद सभी दोस्ती तलाश करें । 

 वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने गीत प्रस्तुत कर समां बांध दिया- 

 मंजिलों से लगी देख ऐसी लगन । 

 चांदनी बन गई रास्तों की तपन।

 दीप जलता रहा आँधियां भी चलीं ,

 रेत में खिल उठे आस्था के सुमन। 

  वरिष्ठ साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल ने हास्य रस से सराबोर करते हुए कहा - 

मिलना जुलना, शादी उत्सव यारी रिश्तेदारी, 

एक लिफाफे में सिमटी है सारी दुनियादारी I

जबसे बैंक्वेट हाल हुए हैं प्रेम नहीं दिखता है

बफेट् सिस्टम में खाने का स्वाद नहीं मिलता है

धक्का मुक्की भीड़भाड़ में क्या पायें क्या खायें 

प्लेट सम्हालें या अपने कपड़ों की खैर मनायें

प्लेट थामकर खड़े हुए हैं जैसे खड़े भिखारी

एक लिफाफे में सिमटी है सारी दुनियादारी.

 प्रसिद्ध बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना का कहना था - 

 सीपी बनने की

 कोशिश में 

 टूट गए

 घोंघों के खोल 

 खुल गयी 

 नकलीपन की पोल! 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा - 

जुगनू, तारों, दीप तक,अपना जमे हिसाब। 

सूरज अपनी आंख से,दिखता नहीं जनाब।

 इसी क्रम में कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने नवगीत प्रस्तुत किया -- 

 सूरज की अठखेलियाँ, करें पूस को तंग

 रात ठिठुरती देखकर, फिर से हल्कू दंग

 फटे चीथड़े कर रहे, कंबल से फरियाद

 माँ के हाथों सा लगे, नर्म धूप का स्वाद। 

 चर्चित गजलकार  राहुल शर्मा ने ग़ज़ल प्रस्तुत कर वातावरण को एक नया आयाम दिया । उन्होंने कहा - 

उलझ रहे हैं उन उलझनों से वज़ूद जिनका कहीं नहीं है ।

हम अपने साये से डर रहे है असल में खतरा कहीं नहीं है

 कभी वसीयत लिखोगे अपनी तो जान पाओगे ये हक़ीक़त।

  तुम्हारी अपनी ही मिल्कियत में तुम्हारा हिस्सा कहीं नहीं है। 

  साहित्यकार राजीव प्रखर ने  मुक्तक प्रस्तुत करते हुए कहा - 

निराशा ओढ़कर कोई, न वीरों को लजा देना।

नगाड़ा युद्ध का तुम भी, बढ़ाकर पग बजा देना। 

तुम्हें सौगंध माटी की, अगर मैं काम आ जाऊॅं, 

बिना रोए प्रिये मुझको, तिरंगे से सजा देना।

  युवा साहित्यकार ज़िया ज़मीर ने कहा - 

 दर्द की शाख पे इक ताज़ा समर आ गया है। 

 किस की आमद है भला कौन नज़र आ गया है। 

लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उसकी ज़द में, 

नन्हें हाथों से बना रेत का घर आ गया है। 

युवा गीतकार मयंक शर्मा ने देश भक्ति की अलख जगाते हुए कहा - 

उन्नत माँ का भाल करें जो उनका वंदन होता है, 

बलिदानी संतानों का जग में अभिनंदन होता है,

माटी में मिलकर ख़ुशबू उस नील गगन तक छोड़ गए, 

ऐसे वीरों की धरती का कण-कण चंदन होता है।

 बाबा संजीव आकांक्षी ने मुक्तक प्रस्तुत किया वहीं  कादंबरी आदेश ने अपनी रचनाओं से समां बांध दिया ।

कार्यक्रम में डॉ मीनू मेहरोत्रा, धवल दीक्षित, मंसूर अहमद, मनदीप सिंह, नेहा गोस्वामी, देवांश, समृद्धि आदि साहित्य प्रेमी भी उपस्थित रहे। डॉ. नवनीत गोस्वामी ने आभार अभिव्यक्त किया। 


























































सोमवार, 26 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की काव्य कृति ' सरस संवादिकाएँ ' । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 2007 में पुनीत प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ । इस कृति को तीन खंडों "शिशु सौरभ", "बाल वीथिका" और "किशोर कुंज" में विभाजित किया गया है । तीनों खंडों में 22-22 कविताएं (कुल 66) हैं । इन खंडों की भूमिका क्रमशः डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा " अरुण", डॉ चक्रधर "नलिन",और डॉ विनोद चंद्र पांडेय "विनोद" ने लिखी है। अंत में कवि की पूर्व प्रकाशित काव्य कृति " नोक झोंक" के संदर्भ में देश के साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हैं ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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:::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी 

8,जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822




वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से माह के प्रत्येक रविवार को वाट्सएप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । रविवार 25 दिसंबर 2022 को आयोजित 323 वें वाट्स एप कविसम्मेलन एवं मुशायरे में शामिल साहित्यकारों राजीव प्रखर, उमाकांत गुप्ता, विनीता चौरसिया, संतोष कुमार शुक्ल सन्त, सूर्यकांत द्विवेदी और श्री कृष्ण शुक्ल की रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में







 

रविवार, 25 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के प्रथम ग़ज़ल संग्रह “गुनगुनी धूप“ में प्रकाशित डा. कुँअर बेचैन द्वारा लिखी गई भूमिका...."संवेदना की धरती पर आँखों देखे हाल का आलेख हैं कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें।" इस संग्रह का प्रथम संस्करण वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण आठ वर्ष पश्चात 2010 में गुंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ ।




कहा जाता है कि सच्ची कविता अपने युग की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, उनकी विडंबनाओं पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए शाश्वत सत्यों और उन्नत जीवन-मूल्यों की खोज करती है। कवि अपने समय के प्रति जागरूक रहता है, तो भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी करता चलता है। जैसे पुष्प सामने दिखाई देता है, किंतु उसकी सुगंध हवाओं में समाहित होकर दूर तक फैलती है, युगीन कविता भी उसी प्रकार जो सामने है, उस वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उसकी व्यंजनाओं को आगत के लिए सुरक्षित रखती चलती है। इस दृष्टि से इस संकलन के सुकवि श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें सफल और सार्थक ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लें आज की ग़ज़लें हैं, जो पुरानी शैली में लिखी हुई ग़ज़लों से कई अर्थों में भिन्न हैं। उनका कथ्य अब केवल प्रेम और सौंदर्य नहीं है, वरन् आज के इंसान का दुख-दर्द भी है। आज के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक परिवेश पर भी 'नाज़' की ग़ज़ल टिप्पणी करती चलती है। उनमें भाषा की नवीनता है, प्रतीक और बिंब भी नये हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें बिल्कुल नयी हैं। इश्क की शायरी से हटकर उनकी ग़ज़लें आम आदमी की मजबूरियों को संवेदनात्मक स्तर पर समझते हुए चिंता में डूबी ग़ज़लें लगती हैं।

कुम्हलाई फ़स्लें तो खुश हैं, बादल जल बरसायेंगे 

सोच रहे हैं टूटे छप्पर, वो कैसे बच पायेंगे

यही नहीं, उनका ध्यान उन अधनंगे बच्चों पर भी जाता है, जो कूड़े के ढेर में से पन्नी चुनने को मजबूर हैं, क्योंकि ये चुनी हुई पन्नियां ही उनको कुछ पैसे दिला पायेंगी, जिससे वे अपना पेट भर सकेंगे

कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे

पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है

आर्थिक दृष्टि से समाज में कितनी विषमता है। यह देश जिसके कानून की नींव 'समाजवादी ढाँचे का समाज' होने पर रखी गई है, उसी देश में एक ओर ऊँची अट्टालिकाएँ हैं तो दूसरी ओर झोंपड़ियाँ।  कवि 'नाज़' ने इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए कितना प्यारा शेर कहा है

किसी के जिस्म को ऐ 'नाज़' चिथड़ा तक नहीं हासिल 

किसी की खिड़कियों के परदे भी मख़मल के होते हैं

और इसी समाज में जो बड़े लोग हैं, वे छोटों को शरण देने के बजाय उन्हें लील जाते हैं। यह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक ऊँच-नीच छोटों को अस्तित्व-विहीन बनाने में संलग्न है। 'सर्वाइवल आफ़ फ़िटेस्ट' में जो बड़े हैं, उन्हें ही 'फिटेस्ट' माना जाता है। छोटी मछली, बड़ी मछली के प्रतीक के माध्यम से कवि ने यह बात ज़ोरदार तरीके से कही है

निगल जाती है छोटी मछलियों को हर बड़ी मछली

नियम-कानून सब लागू यहाँ जंगल के होते हैं

आज जीवन-मूल्यों का इतना पतन हुआ है कि वे लोग जो अच्छे हैं, सच्चे हैं, वे ही दुखी हैं। झूठ तथा ऐसी ही अन्य नकारात्मक स्थितियाँ सच्चाई तथा ऐसे ही अन्य सकारात्मक मूल्यों पर विजय प्राप्त करती नज़र आ रही हैं। सच की राह पर चलने वाले लोगों की हालत बिगड़ी हुई है

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 

सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है

जब घर का मुखिया ठंडा चूल्हा देखता है, खाली बर्तन देखता है, बच्चों की भूख और उनके नंगे जिस्मों को देखता है, तब आखिर सच की राह पर चलना उसके लिए सचमुच ही नामुमकिन हो जाता है। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने जीवन मूल्यों के पतन के पीछे छिपे 'गरीबी' के तथ्य को ठीक से समझा है और इसी कारण को ख़ास तौर से रेखांकित किया है।

आज महँगाई का बोझ और काम का बोझ व्यक्ति को कितना तोड़ रहा है, कवि की दृष्टि उधर भी गई है। वेतनभोगी, निम्न-मध्यवर्गीय या मध्यम वर्ग के लोगों की कठिनाइयों को एक बहुत ही सुंदर शेर में अभिव्यक्त किया है

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं

हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

भौतिक सभ्यता का प्रभाव आज के व्यक्ति के ज़हन में इस क़दर घर कर गया है कि वह चाहे भीतर-भीतर कितना ही टूटा हुआ हो, बाहर से ठीक-ठाक दिखाई देना चाहता है। वह अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छुपाने में लगा है

घर की खस्ताहाली को वो कुछ इस तौर छुपाता है 

दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें चिपकाता है

आज आम आदमी के सम्मुख रोटी का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। रात हो या दिन, हर समय उसे यही चिंता है कि उसके परिवार वालों को कोई कष्ट न हो। इसी चिंता में नींदें भी गायब हो गई हैं

पेट की आग बुझा दे मेरे मालिक, यूँ तो 

भूख में नींद भी आते हुए कतराती है।

बड़ी कविता वह होती है जिसमें कवि जीवनानुभवों को चिंतन और भाव की कसौटी पर कसकर दुनिया के सामने लाता है और उसमें उसके अभिव्यक्ति-कौशल की क्षमताएँ दिखाई देती हैं। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने विभिन्न जीवनानुभवों को बड़े ही खूबसूरत ढंग से नज़्म किया है। इस अभिव्यक्ति में उन्होंने सुंदर प्रतीकों को माध्यम बनाया है। संसार में सबसे कठिन कार्य है सबको साथ लेकर चलना,क्योंकि कहा भी गया है- 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नः'। सबके अलग-अलग विचार होते हैं, उनमें एकरूपता उत्पन्न करना कोई हँसी-खेल नहीं है। 'नाज़' साहब ने इस बात को एक सच्ची हकीकत, जो रोज़ देखने में आती है, के माध्यम से व्यक्त किया है

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़' 

एक कदम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

दुनिया में यह भी देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति का अहंकार नहीं रहा है। जो अपनी औकात से बढ़ता है, उसे भी उसके किये की सज़ा मिलती जरूर है। इस बात को जिस उदाहरण द्वारा कवि कृष्ण कुमार ने समझाया है, वह काबिले तारीफ़ है

अपनी औकात से बढ़ने की सज़ा पाती है 

धूल उड़ती है तो धरती पे ही आ जाती है

सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जब हमें किसी विशेष स्थिति या बात की आवश्यकता होती है, तब ही जिससे हमें कुछ प्राप्त करना होता है, उसके नखरे बढ़ जाते हैं। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को कवि ने विभिन्न संदर्भों एवं आयामों से जोड़कर इस प्रकार व्यक्त किया है 

नहाते रेत में चिड़ियों को जब देखा तो ये जाना

ज़रूरत हो तो नखरे और भी बादल के होते हैं

व्यक्ति तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छिपाता है। सच बात तो यह है कि यदि हममें हौसला होता है तो 'थकन' आदि कुछ भी अपना अस्तित्व नहीं रख पाती हैं। जब हम हौसला हार जाते हैं, तब ही सारी चीजें मुसीबतें बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं

थकन तो 'नाज़' है केवल बहाना

हमारे हौसले ही में कमी है

कृष्ण कुमार 'नाज' की गजलें सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी गजलों में सौंदर्य और प्रेम का अहसास नहीं है। सच तो यह है कि अहसास के स्तर पर भी एक गहन आलोक छोड़ जाती हैं। इसी रंग के दो शेर देखें

काग़ज़ के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए

 लिपटी हुई है एक महक फूलदान से

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है साथ अपना कई जनमों पुराना 

तू कागज़ है, मैं तेरा हाशिया हूँ

इस प्रकार आज के ग़ज़लकारों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले एक सलीके के गजलकार श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें जहाँ एक ओर अपने युग का चित्रण हैं, वहीं उसके रंग और रूप कुछ ऐसा संकेत भी देते चलते हैं, जो युग को केवल चित्र ही नहीं बने रहने देते, वरन् मानवतावादी दृष्टि, संवेदना और शाश्वत मूल्यों की रक्षा के संकल्प की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करते हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें एक ओर भाषा की सरलता एवं 'कहन' की सहजता से सुसज्जित हैं, तो दूसरी ओर अपने गूढ़ार्थों को कुछ इस प्रकार छिपाये रखती हैं कि वे स्पष्ट भी होते चलते हैं। यदि वे एक ओर संवेदना की धरती की गंध से आवेशित हैं, तो दूसरी ओर उनमें जागरूक विचारों का गौरवशाली स्पर्श भी है। यदि वे एक ओर बंद आँखों से देखा गया 'आलोक' हैं, तो दूसरी ओर खुली आँखों से देखा हुआ वह 'आलेख' भी, जो आम आदमी के मस्तक की रेखाओं से झाँकता है। उनकी गज़लें वह मानसरोवर हैं, जिसमें मुक्त विचारों के हंस तैरते हैं, वह नदी हैं जिसमें भावनाएँ बहती हैं, वह सागर हैं जिसका ज्वार अनेक समस्याओं के जहाज़ों को पार लगाने का साधन बन सकता है।




✍️ डा. कुँअर बेचैन