रविवार, 25 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के प्रथम ग़ज़ल संग्रह “गुनगुनी धूप“ में प्रकाशित डा. कुँअर बेचैन द्वारा लिखी गई भूमिका...."संवेदना की धरती पर आँखों देखे हाल का आलेख हैं कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें।" इस संग्रह का प्रथम संस्करण वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण आठ वर्ष पश्चात 2010 में गुंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ ।




कहा जाता है कि सच्ची कविता अपने युग की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, उनकी विडंबनाओं पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए शाश्वत सत्यों और उन्नत जीवन-मूल्यों की खोज करती है। कवि अपने समय के प्रति जागरूक रहता है, तो भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी करता चलता है। जैसे पुष्प सामने दिखाई देता है, किंतु उसकी सुगंध हवाओं में समाहित होकर दूर तक फैलती है, युगीन कविता भी उसी प्रकार जो सामने है, उस वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उसकी व्यंजनाओं को आगत के लिए सुरक्षित रखती चलती है। इस दृष्टि से इस संकलन के सुकवि श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें सफल और सार्थक ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लें आज की ग़ज़लें हैं, जो पुरानी शैली में लिखी हुई ग़ज़लों से कई अर्थों में भिन्न हैं। उनका कथ्य अब केवल प्रेम और सौंदर्य नहीं है, वरन् आज के इंसान का दुख-दर्द भी है। आज के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक परिवेश पर भी 'नाज़' की ग़ज़ल टिप्पणी करती चलती है। उनमें भाषा की नवीनता है, प्रतीक और बिंब भी नये हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें बिल्कुल नयी हैं। इश्क की शायरी से हटकर उनकी ग़ज़लें आम आदमी की मजबूरियों को संवेदनात्मक स्तर पर समझते हुए चिंता में डूबी ग़ज़लें लगती हैं।

कुम्हलाई फ़स्लें तो खुश हैं, बादल जल बरसायेंगे 

सोच रहे हैं टूटे छप्पर, वो कैसे बच पायेंगे

यही नहीं, उनका ध्यान उन अधनंगे बच्चों पर भी जाता है, जो कूड़े के ढेर में से पन्नी चुनने को मजबूर हैं, क्योंकि ये चुनी हुई पन्नियां ही उनको कुछ पैसे दिला पायेंगी, जिससे वे अपना पेट भर सकेंगे

कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे

पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है

आर्थिक दृष्टि से समाज में कितनी विषमता है। यह देश जिसके कानून की नींव 'समाजवादी ढाँचे का समाज' होने पर रखी गई है, उसी देश में एक ओर ऊँची अट्टालिकाएँ हैं तो दूसरी ओर झोंपड़ियाँ।  कवि 'नाज़' ने इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए कितना प्यारा शेर कहा है

किसी के जिस्म को ऐ 'नाज़' चिथड़ा तक नहीं हासिल 

किसी की खिड़कियों के परदे भी मख़मल के होते हैं

और इसी समाज में जो बड़े लोग हैं, वे छोटों को शरण देने के बजाय उन्हें लील जाते हैं। यह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक ऊँच-नीच छोटों को अस्तित्व-विहीन बनाने में संलग्न है। 'सर्वाइवल आफ़ फ़िटेस्ट' में जो बड़े हैं, उन्हें ही 'फिटेस्ट' माना जाता है। छोटी मछली, बड़ी मछली के प्रतीक के माध्यम से कवि ने यह बात ज़ोरदार तरीके से कही है

निगल जाती है छोटी मछलियों को हर बड़ी मछली

नियम-कानून सब लागू यहाँ जंगल के होते हैं

आज जीवन-मूल्यों का इतना पतन हुआ है कि वे लोग जो अच्छे हैं, सच्चे हैं, वे ही दुखी हैं। झूठ तथा ऐसी ही अन्य नकारात्मक स्थितियाँ सच्चाई तथा ऐसे ही अन्य सकारात्मक मूल्यों पर विजय प्राप्त करती नज़र आ रही हैं। सच की राह पर चलने वाले लोगों की हालत बिगड़ी हुई है

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 

सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है

जब घर का मुखिया ठंडा चूल्हा देखता है, खाली बर्तन देखता है, बच्चों की भूख और उनके नंगे जिस्मों को देखता है, तब आखिर सच की राह पर चलना उसके लिए सचमुच ही नामुमकिन हो जाता है। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने जीवन मूल्यों के पतन के पीछे छिपे 'गरीबी' के तथ्य को ठीक से समझा है और इसी कारण को ख़ास तौर से रेखांकित किया है।

आज महँगाई का बोझ और काम का बोझ व्यक्ति को कितना तोड़ रहा है, कवि की दृष्टि उधर भी गई है। वेतनभोगी, निम्न-मध्यवर्गीय या मध्यम वर्ग के लोगों की कठिनाइयों को एक बहुत ही सुंदर शेर में अभिव्यक्त किया है

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं

हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

भौतिक सभ्यता का प्रभाव आज के व्यक्ति के ज़हन में इस क़दर घर कर गया है कि वह चाहे भीतर-भीतर कितना ही टूटा हुआ हो, बाहर से ठीक-ठाक दिखाई देना चाहता है। वह अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छुपाने में लगा है

घर की खस्ताहाली को वो कुछ इस तौर छुपाता है 

दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें चिपकाता है

आज आम आदमी के सम्मुख रोटी का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। रात हो या दिन, हर समय उसे यही चिंता है कि उसके परिवार वालों को कोई कष्ट न हो। इसी चिंता में नींदें भी गायब हो गई हैं

पेट की आग बुझा दे मेरे मालिक, यूँ तो 

भूख में नींद भी आते हुए कतराती है।

बड़ी कविता वह होती है जिसमें कवि जीवनानुभवों को चिंतन और भाव की कसौटी पर कसकर दुनिया के सामने लाता है और उसमें उसके अभिव्यक्ति-कौशल की क्षमताएँ दिखाई देती हैं। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने विभिन्न जीवनानुभवों को बड़े ही खूबसूरत ढंग से नज़्म किया है। इस अभिव्यक्ति में उन्होंने सुंदर प्रतीकों को माध्यम बनाया है। संसार में सबसे कठिन कार्य है सबको साथ लेकर चलना,क्योंकि कहा भी गया है- 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नः'। सबके अलग-अलग विचार होते हैं, उनमें एकरूपता उत्पन्न करना कोई हँसी-खेल नहीं है। 'नाज़' साहब ने इस बात को एक सच्ची हकीकत, जो रोज़ देखने में आती है, के माध्यम से व्यक्त किया है

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़' 

एक कदम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

दुनिया में यह भी देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति का अहंकार नहीं रहा है। जो अपनी औकात से बढ़ता है, उसे भी उसके किये की सज़ा मिलती जरूर है। इस बात को जिस उदाहरण द्वारा कवि कृष्ण कुमार ने समझाया है, वह काबिले तारीफ़ है

अपनी औकात से बढ़ने की सज़ा पाती है 

धूल उड़ती है तो धरती पे ही आ जाती है

सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जब हमें किसी विशेष स्थिति या बात की आवश्यकता होती है, तब ही जिससे हमें कुछ प्राप्त करना होता है, उसके नखरे बढ़ जाते हैं। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को कवि ने विभिन्न संदर्भों एवं आयामों से जोड़कर इस प्रकार व्यक्त किया है 

नहाते रेत में चिड़ियों को जब देखा तो ये जाना

ज़रूरत हो तो नखरे और भी बादल के होते हैं

व्यक्ति तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छिपाता है। सच बात तो यह है कि यदि हममें हौसला होता है तो 'थकन' आदि कुछ भी अपना अस्तित्व नहीं रख पाती हैं। जब हम हौसला हार जाते हैं, तब ही सारी चीजें मुसीबतें बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं

थकन तो 'नाज़' है केवल बहाना

हमारे हौसले ही में कमी है

कृष्ण कुमार 'नाज' की गजलें सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी गजलों में सौंदर्य और प्रेम का अहसास नहीं है। सच तो यह है कि अहसास के स्तर पर भी एक गहन आलोक छोड़ जाती हैं। इसी रंग के दो शेर देखें

काग़ज़ के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए

 लिपटी हुई है एक महक फूलदान से

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है साथ अपना कई जनमों पुराना 

तू कागज़ है, मैं तेरा हाशिया हूँ

इस प्रकार आज के ग़ज़लकारों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले एक सलीके के गजलकार श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें जहाँ एक ओर अपने युग का चित्रण हैं, वहीं उसके रंग और रूप कुछ ऐसा संकेत भी देते चलते हैं, जो युग को केवल चित्र ही नहीं बने रहने देते, वरन् मानवतावादी दृष्टि, संवेदना और शाश्वत मूल्यों की रक्षा के संकल्प की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करते हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें एक ओर भाषा की सरलता एवं 'कहन' की सहजता से सुसज्जित हैं, तो दूसरी ओर अपने गूढ़ार्थों को कुछ इस प्रकार छिपाये रखती हैं कि वे स्पष्ट भी होते चलते हैं। यदि वे एक ओर संवेदना की धरती की गंध से आवेशित हैं, तो दूसरी ओर उनमें जागरूक विचारों का गौरवशाली स्पर्श भी है। यदि वे एक ओर बंद आँखों से देखा गया 'आलोक' हैं, तो दूसरी ओर खुली आँखों से देखा हुआ वह 'आलेख' भी, जो आम आदमी के मस्तक की रेखाओं से झाँकता है। उनकी गज़लें वह मानसरोवर हैं, जिसमें मुक्त विचारों के हंस तैरते हैं, वह नदी हैं जिसमें भावनाएँ बहती हैं, वह सागर हैं जिसका ज्वार अनेक समस्याओं के जहाज़ों को पार लगाने का साधन बन सकता है।




✍️ डा. कुँअर बेचैन 




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