शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार फ़रहत अली ख़ान की चार लघुकथाएं । ये प्रकाशित हुई हैं भारतीय भाषा परिषद की कोलकाता से प्रकाशित मासिक पत्रिका वागर्थ के अक्टूबर 2024 के अंक में


1.
'हादसा'

जब वह घर से निकला तो रास्ते में एक अजनबी से सामना हुआ। उसे लगा कि वह शख़्स रो रहा है। या फिर उसकी सूरत ही ऐसी है। शायद लगातार दुःख और तकलीफ़ें सहने की वजह से उसकी शक्ल ऐसी हो गयी है।

दोनों अपनी-अपनी रफ़्तार से चल रहे थे, इसलिए वह बस कुछ ही पल के लिए उसका चेहरा पढ़ पाया।

थोड़ी देर बाद उसे शक सा होने लगा कि उसके चेहरे ने उस अजनबी की शक्ल इख़्तियार कर ली है।

उसने देखा कि राह चलते लोग उसकी सूरत को बहुत ग़ौर से देख रहे हैं।

अब उसे एक आईने की ज़रूरत थी।


2.  'गुम'

बिजली की कड़कड़ाहट से जब देर रात बड़े मियाँ की आँख खुली तो उन्हों ने देखा कि बड़ी बी अपने बिस्तर पर नहीं थीं। यहीं-कहीं होंगी, आती होंगी, सोच कर चंद लम्हे इंतेज़ार किया। मगर जब बे-चैनी बढ़ी तो बिस्तर से उठ कर इधर-उधर देखने लगे। बड़े बेटे के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। बेटा और बहू निकल आए।

"तुम्हारी अम्मी कहाँ चली गयीं इस वक़्त?"

"ओह अब्बू!..." कहते हुए बेटे ने अफ़सोस से सर पकड़ लिया, "अम्मी जा चुकी हैं। अब वो नहीं आएँगी।"

परेशान बहू ने नर्म लहजे में कहा, "आप फिर भूल गए अब्बू! इस एक महीने में ये तीसरी बार है।"

बेटा हाथ पकड़ कर उन्हें उन के बिस्तर तक ले आया और लिटा कर चला गया।

बारिश शुरू हो चुकी थी। बड़े मियाँ देर तक ख़ाली बिस्तर को तकते रहे, फिर बुदबुदाए, "कैसा बुरा ख़्वाब है।"


3. 'बे-आई'

सूरज के डूबने का वक़्त नज़दीक था। भीड़, जिसकी नुमाइंदगी क़स्बे के चार-पाँच बदमाश कर रहे थे, बहुत ग़ुस्से में थी और लाठी-डंडों से लैस थी। शोर-शराबा बता रहा था कि ये लोग कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत रखते हैं।  

ज़रा ही देर में जब भीड़ अपनी मंज़िल पर पहुँच गयी तो उसकी नुमाइंदगी कर रहे लोगों में से एक शख़्स  एक तरफ़ उंगली से इशारा करते हुए बोला, "ये रहा, यही है उसका मकान।"

ये सुन कर भीड़ उस मकान, जिसका कमज़ोर लकड़ी का दरवाज़ा अंदर से खुला था, में घुस गयी और अंदर मिलने वाले हर सामान और शख़्स को तोड़ना-फोड़ना शुरु कर दिया। घर में एक हंगामा बरपा हो गया, चीख़-ओ-पुकार मच गई। एक दुधमुँहा बच्चा एक छोटी सी चार-पाई पर पड़ा बिलख रहा था। एक वही था जो भीड़ का शिकार होने से बच पाया। 

कारवाई शुरु हुए चंद मिनट ही हुए थे कि उंगली उठाने वाला शख़्स ज़ोर से चीख़ कर बोला, "अरे नहीं! शायद वो इसके बराबर वाला मकान था।"


4. 'जवाब’

"कई मिनट हो गए। पानी का नल घेर रखा है।.देखो, अब वो हाथ धो रहा है। ...अब उस ने हाथ गीला करके सर पर फेरा। ...लो, अब पैर धोने लगा। क्या तुम्हें ये सब अजीब नहीं लगता?"

"तुम्हारे लिए ये सब अजीब है। उस के लिए नहीं है। क्या फ़र्क़ पड़ता है इस बात से?"

"फ़र्क़ क्यूँ नहीं पड़ेगा? पब्लिक प्लेस पर वो ये सब कैसे कर सकता है? ...अब देखो, ज़मीन पर कपड़ा बिछा कर खड़ा हो गया।"

"एक कोने ही में तो खड़ा है। अब जैसी जिस की श्रद्धा। क्या तुम्हारा कुछ नुक़सान कर दिया उस ने?"

"जो भी हो, मगर मुझे ये सब पसंद नहीं।"

"तो अब तुम क्या करोगे?"

"अगर उस को आज़ादी है तो मैं क्यूँ पीछे रहूँ।" कह कर उस ने कुर्ते की जेब से माला निकाली और कुछ प्रबंध किया, फिर पूछा, "और तुम?"

"मेरी अभी इच्छा नहीं है। तुम करो। और हाँ, जब कर चुको तो उस को शुक्रिया ज़रूर बोल देना।"

✍️ फ़रहत अली ख़ान

लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल फोन नंबर 9412244221 





शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल की व्यंग्य कहानी .....दीक्षा-गाथा । व्यंग्य संग्रह बाबू झोलानाथ(1994) और गिरिराज शरण अग्रवाल रचनावली खंड 8 (व्यंग्य समग्र –एक) में संकलित यह व्यंग्य कहानी मुंबई के श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विश्वविद्यालय (एसएनडीटी) के स्नातक तृतीय वर्ष के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की गई है।

 




उस दिन वे मिले तो मधु घोलते हुए। 

तपाक से हाथ मिलाया, हाल-चाल पूछा, घर-गृहस्थी की चर्चा की। मैंने सोचा, चलो कोई तो आत्मीयता दिखाने वाला मिला। नई जगह पर परिचित व्यक्ति जरूरी होता है।

जब मैंने डिपार्टमेंट में प्रवेश किया तो किसी तेज तंबाकू की सुगंध मेरे नथुनों में जबरदस्ती घुसने की जिद करने लगी। मेरी निगाह उसी ओर घूम गई।

पतली मोरी की पैंट पर खद्दर की कमीज धारण किए हुए एक महाशय बनारसी स्टाइल में बीड़ा चबा रहे थे। लगता था कि इसके साथ ही वे सारे परिवेश को पीने की ख़ास कोशिश कर रहे थे।

नमस्कार-निवेदन के बाद मैंने अपना परिचय दिया तो वे चहक उठे,‘वाह, वाह आप ही हैं। आइए-आइए, बैठिए-बैठिए। बड़ी ख़ुशी हुई आपके आने पर। एक साथी बढ़ गया।’

उनके वार्तालाप से ही पता चल गया कि वे भी यहीं की तोड़ रहे हैं और मुझसे सीनियर है।

मैं नतमस्तक हो गया।

बोले,‘कोई परेशानी हो तो बताइएगा। मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?’और इसके साथ ही उन्होंने विद्यालय के संपूर्ण भूगोल, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र पर सेवापूर्व दीक्षा-भाषण दे डाला। दीक्षांत भाषण तो मैंने डिग्री लेते हुए कई बार अनमने मन से सुने थे, किंतु इस भाषण को पता नहीं क्यों, ध्यानपूर्वक सुनता रहा।

दीक्षांत समारोह के विशाल पंडाल में जगमगाती हुई रोशनी से दिया जाने वाला औपचारिक भाषण मुझे सदैव उबाता रहा है। वही औपचारिक शपथ बी॰ए॰ से लेकर पी-एच॰डी॰ की डिग्री तक बार-बार दुहराता रहा और फिर सम्मानित मुख्य अतिथि का लिखा भाषण, जिसकी छपी प्रतियाँ पहले भी बँट जाती थीं, बड़ा बोर करता था। लगता था कि इसका जीवन से कहीं से कहीं तक संबंध नहीं है और प्रायः मैं पंडाल में औपचारिकता निभाने के ख़याल से ही बैठा रहता था, अन्यथा मन तो भविष्य के सपने सजाने में सोने की तैयारी में लगा रहता था।

किंतु पता नहीं इस भाषण में क्या आकर्षण था कि मंत्रमुग्ध-सा सुनता रहा। अब मैं धनुषाकार हो गया था। यदि वहाँ जगह होती तो साष्टांग करने की इच्छा पूरी कर लेता। इतने में ही किसी दूसरे विभाग के प्राध्यापक भी वहाँ आ गए थे। इसलिए यह अवसर मेरे हाथ से निकल गया। तभी मन ने कहा-‘अच्छा ही हुआ। पहली भेंट में इतना ही काफ़ी है।’

वे दोनों काफ़ी देर तक विद्यालय का भूगोल डिस्कस करते रहे। समाजशास्त्र में चलती हुई गाड़ी राजनीति के स्टेशन पर आकर सीटी देने लगी। अभी तक मैं निस्पृह भाव से आगे की सोच रहा था, किंतु अब मेरे कान भी खड़े हो गए। मैंने पहली बार समझा कि भूगोल और समाज से बचकर निकला जा सकता है, किंतु राजनीति के दरवाजे ऑटोमेटिक हैं और इनमें भारी पावर का चुंबक भी लगा है। ये हमारे तन-मन को अपनी ओर खींचकर एकदम बंद हो जाते हैं। बचो बच्चू! कैसे बचोगे?

मुझे एहसास हुआ कि नुक्कड़वाले की चाय की दुकान से लेकर कालेज की कैंटीन तक सभी राजनीतिज्ञ हैं। जो इससे अलग है, वह संसार का सबसे व्यर्थ व्यक्ति है। अपने अस्तित्व के लिए किसी के साथ जुड़ना और किसी से कटना जरूरी है। बीच में नहीं रह सकते। होता होगा मध्यम मार्ग। चलते होंगे साधक उन पर भी, किंतु अब तो राजनीति की मोटर आपको घायल करती हुई निकल जाएगी। फिर तो पोस्टमार्टम के लिए भी पुलिस ही उठाएगी। भीड़ तो अपने रास्ते निकल जाती है।

मन में कैसी-कैसी कड़वाहट भर गई। मैं बड़ी घुटन-सी महसूस कर रहा था। पंखे की खर्र-खर्र में भी मेरी साँस मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी। मुझसे वहाँ न रुका गया। मैं वहाँ से उठ आया।

एक सप्ताह बीत गया। एक कहावत है-नया मुल्ला अल्ला-अल्ला पुकारता है। मैं छात्रों पर अपना प्रथम प्रभाव डालने में व्यस्त था। पता नहीं छात्रों को एक ही बार पंडित बनाने का भूत क्यों सवार हुआ?(अब तो मैं स्वयं भूत बन चुका हूँ) मुझे इस बात का भी ध्यान न रहा कि विद्यालय में प्राचार्य नाम का भी जीव रहता है और कभी-कभी उसके दर्शन करने अनिवार्य हैं। भगवान की एक क्वालिटी के विषय में मैं सदैव से आश्वस्त रहा हूँ कि तुम उसे भले ही याद न करो, वह तुम्हें अवश्य याद कर लेता है।

लायब्रेरी के एक कोने में कुर्सी पर आसीन मुझको किसी की आवाज ने चौंका दिया। गर्दन उठाई तो मेरे सामने चपरासी रूपी देवदूत (यमदूत भी कह सकते हैं।) एक कागज लिए हुए खड़ा था। अबू बेन ऐदम के समान मैं उससे उस लिस्ट के विषय में पूछने ही वाला था कि ‘हे देवदूत, इस पर किनके नाम लिखे हैं? क्या तुम भी अच्छे आदमियों के नाम नोट कर रहे हो?’ पर कुछ सोचकर रुक गया।

उसने अपनी स्वाभाविक वक्रता के साथ पूछा,‘आप ही अग्रवाल साब हैं?’ कहना तो चाहता था कि मिस्टर, तुम्हें बंदर या लंगूर दिखाई दे रहा हूँ? किंतु अपने चेहरे का ख़याल करके चुप रह गया। फिर इस चपरासी नामक जाति का बहुत नहीं तो थोड़ा-बहुत अनुभव अवश्य है, यह विशिष्ट प्राणी अपने को सबका बॉस समझता है।

एक बार की बात है। मैं इंटर में पढ़ता था। जाड़ों के दिन थे। प्रधानाचार्य महोदय धूप में बैठे चारों ओर का निरीक्षण कर रहे थे। वे अपने पास दूसरी कुर्सी रखना अपना अपमान समझते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति उनके पास आकर खड़े-खड़े बात करे। चांस की बात, उनका साला विद्यालय में ही चला आया। उन्होंने चपरासी को कुर्सी लाने के लिए आवाज लगाई। मंगू ने खचेडू को खचेडू ने कूड़ेसिंह और कूड़ेसिंह ने कल्लू को कुर्सी लाने का आदेश दिया और शांति के साथ अपने-अपने स्थान पर खड़े रहे। चारों ओर ‘कुर्सी-कुर्सी’ का शोर मच गया,किंतु कुर्सी न आई।

ऐसा सोचकर मैंने कहा,‘कहिए, क्या काम है?’

‘आपको प्रिंसिपल साब ने याद किया है।’ वह गंभीरता के साथ बोला।

‘कोई विशेष बात है?’ मैंने सवाल किया।

‘उनसे ही पूछिए।’ मानो वह प्रिंसिपल नहीं तो उन जैसा ही कुछ हो।

मुझे याद आया। मैंने अभी तक उनके आफ़िस के द्वार पर सिजदा नहीं किया है। एक फुरहरी-सी मेरे शरीर में दौड़ गई। जैसे किसी ने बर्फ़ का एक टुकड़ा मेरे कॉलर में डाल दिया हो।

प्राचार्य के आफ़िस में पूछकर जाने का रिवाज था। हड़बड़ी में मैं इस रिवाज का ध्यान न रख पाया। छात्रें को इस सांस्कृतिक कार्यक्रम से छूट मिली हुई थी। प्रिंसिपल साहब ने बिना मुँह उठाए पूछा, ‘कहो-कहो, क्या काम है? एप्लीकेशन लाए होगे। लाओ-लाओ।’ मैं मन-ही-मन ख़ुश हुआ कि हमारा प्राचार्य बड़ा दयालु और मिष्टभाषी है।

मैंने कहा,‘सर, मैं कोई एप्लीकेशन नहीं लाया। आपने---।’

नीचे कागज पर दृष्टि गड़ाए हुए ही उन्होंने कहा,‘क्या, क्या कहा, मैंने क्या?’

‘सर, आपने मुझे बुलाया था। मेरा नाम अग्रवाल। हिंदी विभाग में।’

प्राचार्य की मुखमुद्रा बदली होगी, उस पर सिलवटें भी पड़ी होंगी, मुँह पर कसैलापन भी उभरा होगा, दृष्टि भी वक्र हुई होगी, मुझे नहीं पता। मेरी दृष्टि तो नीचे की ओर थी। मैंने तो केवल इतना ही सुना, ‘ठीक है, ठीक है। किंतु आपको पता है, मैं एक जरूरी काम कर रहा हूँ। आपको प्राचार्य के पास आने के मैनर्स भी पता नहीं? महोदय, आगे से ध्यान रखिएगा। आप जा सकते हैं।’

मैं सर पर पैर रखकर भागा। मुझे फिर अहसास हुआ कि टुकड़ा डालने वाला रोब दिखाता ही है। चाहे छात्र हो अथवा प्राचार्य। यह अपनी-अपनी शक्ति पर निर्भर है कि हाथ से छीन भी लो और गुर्राओं भी अथवा पूँछ हिलाते हुए तलुवे चाटा करो।

मेरा मुँह एक बार फिर कड़वा हो गया।

पंद्रह दिन बीत गए। कोई हलचल नहीं हुई।

सारा कार्यक्रम बख़ैरियत चलता रहा। कभी-कभी अपने सीनियर मित्र से सलाह-मशवरा लेना अपना धर्म समझता था। उनकी वरीयता इस बात की डिमांड भी करती थी कि मैं बार-बार अपने जूनियर होने का भरोसा दिलाता रहूँ। मन को यह कहकर दिलासा दिलाता-‘फिक्र न करो, तुम्हारा क्या जाता है। चुप रहो, बोलना और मुँह खोलना अपने पाँव में ख़ुद कुल्हाड़ी मारना है।’ दिल ही तो था, कोई छात्र तो नहीं, इस नाजायज दबाव को मान लेता।


क्लासरूम में घुसा और हाजिरी रजिस्टर की पूँछ काटनी शुरू की। कितना उबाऊ काम है हाजिरी लेना। पचास सिंह और पच्चीस पुरुषवाचक रानियों की सूची का हनुमान चालीसा रोज पढ़ना पड़ता है। इस छात्र-स्वतंत्रता के युग में जेलर की हाजिरी परेड का औचित्य ही क्या है?‘न आने वालों’ को कौन बुला सकता है और जानेवालों को कौन रोक सकता है? है किसी में हिम्मत उनको परीक्षा में बैठने से रोक सके। इतना सोचते-सोचते रजिस्टर बंद कर दिया। आखि़री नाम जो आ गया था।

व्याकरण भी क्या बला है? छात्रों के सिर पर तलवार-सी लटकती रहती है। दुर्भाग्य से मैं इसकी राह का राहगीर बना दिया गया हूँ। मेरा वश चलता तो अपनी टाँग तोड़े पड़ा रहता। वह तो भविष्य का ख़्याल करके चुप रह जाता हूँ।

मेरे खड़े होते ही एक छात्र ने सवाल किया,‘सर आपने कहा था ‘निर’ उपसर्ग जिस शब्द में लग जाता है, उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है जैसे निर्दोष, जिसमें दोष न हो, निर्बल जिसमें बल न हो, निरंकुश जिस पर अंकुश न हो।’

बात ठीक थी माननी पड़ी।

फिर सर,‘निर्माता’ का अर्थ क्या हुआ?

मेरे बोलने से पहले ही एक दूसरा छात्र बोल पड़ा,‘जिसके माता न हो, सर।’

क्लासरूम में हँसी का बम बिस्फोट हो चुका था और मैं घुग्घू की भाँति सबको टाप रहा था। सारी व्याकरण धरी रह गई। लगा सैकड़ों गधे एक साथ मेरे कानों पर रेंक रहे हों।

विषय से हटकर मैं समाज की चर्चा करने लगा। मुझे सबके भविष्य की चिता एक साथ सताने लगी। देर तक उनकी सफलता के गुर बताता रहा। परीक्षा से फैलती-फैलती दीक्षा-गाथा जीवन और जगत् तक पहुँच गई।

मुझे एक अहसास हुआ कि असफलता व्यक्ति को दार्शनिक बना देती है और मैं दुनिया-भर के दार्शनिकों की जीवन-कथाओं को दोहराने लगा था। 

✍️ डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल 

ए 402, पार्क व्यू सिटी 2

सोहना रोड, गुरुग्राम 

78380 90732


बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से 14 अक्टूबर 2024 को मासिक काव्य गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की मासिक काव्य गोष्ठी 14 अक्टूबर 2024 सोमवार को आयोजित की गई । गोष्ठी की अध्यक्षता रामदत्त द्विवेदी ने की मुख्य अतिथि के रूप में डॉ महेश दिवाकर एवं विशिष्ट अतिथि डॉ राकेश चक्र रहे। सरस्वती वंदना रघुराज सिंह निश्चल ने प्रस्तुत की एवं मंच संचालन अशोक विद्रोही द्वारा किया गया। 

       डॉ महेश दिवाकर द्वारा कवियों को जागृत करते हुए कहा देश की परिस्थितियों बहुत विषम होती जा रही हैं। साहित्यकारों का कर्तव्य है ऐसे समय में क्रांतिकारी गीत लिखें । लोगों की आत्मा को जागने वाली रचनाएं लिखें और अपने देश को बचाने के लिए वर्तमान असंतोष को अपने गीतों में व्यक्त करें।  

     योगेंद्र पाल सिंह  विश्नोई ने कहा -

आंसू की स्याही से लिखो मोती जैसे बोल ,

अपने गीतों की पुस्तक को धीरे-धीरे खोल। 

किसे जरूरत है जो बोले पाप पुण्य की बात।

 यहाँ प्रश्नों के उत्तर हो जाते गोलम गोल । 

अशोक विद्रोही ने देश प्रेम के भाव इस प्रकार व्यक्त किये–

रोके से भी रुक न सके हम वो दरिया तूफानी हैं। 

मां जीजा के वीर शिवा राणा की अमर कहानी हैं

निकल पड़े यदि रण में तो मुश्किल है कि पीछे हट जायें, 

इंच इंच कट जायेंगे हम सच्चे हिन्दुस्तानी हैं। 

वीरेंद्र सिंह बृजवासी ने पढा़- 

सर्वदा अलस्य त्यागो नहीं श्रम से दूर भागो । 

कठिनता की चाशनी में सफलता का मंत्र पागो।  

राम सिंह निशंक ने कहा - 

नगर गांव में प्रदूषण नित नित बढ़ता जाए ,

वायु शुद्ध कैसे रहे इसका करो उपाय। 

अशोक विश्नोई ने कहा- 

मर चुका आंखों का पानी लिख,

उजड़े हुए घरों की कहानी लिख। 

क्या सोचता है प्यारे उठा कलम,

रोते हुए बच्चों की जवानी लिख । 

 ओंकार सिंह ओंकार ने इस प्रकार अपनी अभिव्यक्ति दी- 

पुतला रावण का सभी फूंक रहे हर साल । 

उसकी मगर बुराइयां लोग रहे हैं पाल  । 

राजीव प्रखर ने कहा....

सूना-सूना जब लगा, बिन बिटिया घर-द्वार ।

चीं-चीं चिड़िया को लिया, बाबुल ने पुचकार।। 

रघुराज सिंह निश्चल ने पढ़ा.... 

यह देश अगर सबका होता तो भारत क्या ऐसा होता। 

भारत अखंड भारत रहता यह हाल न भारत का होता ।। 
























   :::::प्रस्तुति::::::

अशोक विद्रोही 

उपाध्यक्ष

राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 9 अक्तूबर 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से छह अक्टूबर 2024 को साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा के दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' पर चर्चा-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार छह अक्टूबर 2024 को  साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा के दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' पर  चर्चा-गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह आयोजन मिलन विहार स्थित आकांक्षा इंटर कॉलेज में हुआ।

    मीनाक्षी ठाकुर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. अजय अनुपम ने कहा- "व्योमजी का दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' हमें नए स्वस्थ वैचारिक समाज का सशक्त घटक बनाने का पौष्टिक च्यवनप्राश है। उज्ज्वल भविष्य के प्रेरक दोहे समाज को सही दिशा दिखाने में पूर्णतया सक्षम हैं।" 

मुख्य अतिथि राजीव सक्सेना का कहना था - "दोहा जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण छंद को आम व्यक्ति की समस्याओं से जोड़ने में 'उगें हरे संवाद' एक दस्तावेज़ सिद्ध होगी। आने वाले समय में वह इस छंद को और भी अधिक ऊंचाई तक ले जायेंगे।" 

  विशिष्ट अतिथि के रूप में अशोक विश्नोई ने कहा  "व्योम  जी के दोहे वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण करते हैं।" विशिष्ट अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने भी दोहा संग्रह को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया।

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर  का कहना था - "समस्या मूलक इन सभी दोहों की यह विशेषता है कि ये समस्या के मात्र तात्कालिक स्वरुप को ही इंगित नहीं करते अपितु कालांतर में वह समस्या क्या एवं कितना विस्तार ले सकती है, इस ओर भी संकेत कर जाते हैं। यही कारण है कि उच्च-स्तरीय बिंबों में गुॅंथा यह दोहा-संग्रह वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की हलचल को भी पाठकों के सम्मुख रख देता है।" 

  ज़िया ज़मीर ने कहा- "व्योमजी के यहां नवगीतों की अपेक्षा दोहों में मुखरता और कटाक्ष अधिक दिखाई देता है और विषयों की विविधता भी। यहां उनका लहजा तीखा भी है और धारदार भी। कहीं-कहीं भाषा शैली क्लिष्ट होने के बावजूद ये दोहे अपना अर्थ स्पष्ट कर जाते हैं।"  

मीनाक्षी ठाकुर ने कहा - "व्योम जी इन दोहों में समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही उनके दोहों की आत्मा है।" 

    मनोज मनु ने कहा - "इंटरनेट के इस त्वरित युग में, जहाँ सभी को शीघ्र ही बात के सार तक पहुंचने की तत्परता रहती है, ऐसे समय में व्योम जी का नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में स्थापित होते हुए भी 'गागर में सागर' भरती विधा "दोहा" द्वारा अपनी सारगर्भित बात को नई पीढ़ी तक कम शब्दों में पहुंचाने का माध्यम बनाना उनके दूरदर्शी नज़रिए से भी साक्षात्कार करवाता है।"    

     अंकित गुप्ता अंक ने कहा - "व्योम जी अपनी रचनाओं में सदैव ही दुरूह और भारी-भरकम शब्दों के प्रयोग से बचते रहे हैं और उनकी यह विशेषता पुस्तक में सर्वत्र परिलक्षित होती है‌"।        

    हेमा तिवारी भट्ट द्वारा लिखित समीक्षा का पाठ करते हुए मीनाक्षी ठाकुर ने कहा - "प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनैतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं।" 

     विवेक निर्मल ने उक्त कृति पर आधारित सुंदर दोहों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति की‌। उपरोक्त वक्ताओं के अतिरिक्त जितेन्द्र जौली, राहुल शर्मा, पदम बेचैन, फक्कड़ मुरादाबादी, नकुल त्यागी, डॉ. पूनम गुप्ता, योगेन्द्र पाल विश्नोई, रामदत्त द्विवेदी आदि ने भी संग्रह की उपयोगिता तथा श्री व्योम के दोहा-सृजन पर प्रकाश डाला।       

      कार्यक्रम  में दोहा-पाठ करते हुए चर्चित कृति के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने कहा - 

मिल-जुलकर हम-तुम चलो, ऐसा करें उपाय। 

अपनेपन की लघुकथा, उपन्यास बन जाय।। 

धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर। 

जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।। 

कथनी तो कुछ और पर, करनी है कुछ और। 

इस युग का सिरमौर है, दुहरेपन का दौर।। 

बदल रामलीला गई, बदल गये अहसास।

 राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।। 

जितेन्द्र जौली ने आभार अभिव्यक्त किया।