सोमवार, 30 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी के लघु कहानी संग्रह 'अनोखा ताबीज़' का अखिल भारतीय साहित्य परिषद मुरादाबाद की ओर से रविवार 29 मई 2022 को आयोजित समारोह में लोकार्पण

मुरादाबाद के  साहित्यकार  वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी' के लघु कहानी संग्रह 'अनोखा ताबीज़' का  लोकार्पण 29 मई 2022 ,रविवार को अखिल भारतीय साहित्य परिषद मुरादाबाद के तत्वावधान में एम. आई. टी. सभागार में हुआ। इस अवसर पर वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी को उनकी साहित्य साधना के लिए, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, मुरादाबाद की ओर से साहित्य मनीषी सम्मान से अलंकृत भी किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें अंग-वस्त्र, मानपत्र एवं प्रतीक चिन्ह अर्पित किए गए।

 मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत माॅं शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सुधीर गुप्ता एडवोकेट (वरिष्ठ अधिवक्ता एवं चेयरमैन-एम.आई.टी.) ने कहा कि अपने इस उत्कृष्ट कहानी संग्रह के माध्यम से श्री ब्रजवासी जी समाज के सभी वर्गों तक अपनी पहुॅंच बनाने में सफल होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है‌।

     लोकार्पित लघु कहानी संग्रह के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा - "ब्रजवासी जी हिंदी के समर्पित साधक हैं। उन्होंने सृजन के विभिन्न स्वरूपों, यथा गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, लोकगीत आदि में अपने लेखकीय व्यक्तित्व का विकास किया है। यही नहीं, गद्य में भी उनकी अच्छी गति है और सद्य प्रकाशित लघु कहानियों का संग्रह अनोखा ताबीज़ इस गौरवशाली यात्रा में एक नया पड़ाव कहा जा सकता है। भविष्य में उनसे ऐसी ही उत्कृष्ट कृतियों की अपेक्षा की जाए तो यह स्वाभाविक ही होगा।

विशिष्ट अतिथि एवं मेरठ से उपस्थित हुए गीतकार डॉ. रामगोपाल भारतीय के उद्गार थे - "गीतकार तथा कहानीकार वीरेन्द्र ब्रजवासी ने अपने लघु कथा संग्रह अनोखा ताबीज़ में भारतीय  परिवेश में समाज के रिश्तों को परिभाषित किया है। वह गीतकार तो हैं ही एक अच्छे कहानी कार भी हैं।"

  विशिष्ट अतिथि  साहित्यकार डॉ. महेश 'दिवाकर' ने  कहा - "मुझे विश्वास है कि श्री ब्रजवासी जी की यह कृति भी सभी के हृदयों को स्पर्श करते हुए समाज की महत्वपूर्ण कृतियों में अपना स्थान बनायेगी।"

    विशिष्ट अतिथि डॉ. विशेष गुप्ता का कहना था - "वीरेन्द्र ब्रजवासी जी द्वारा लिखित कहानी संग्रह अनोखा ताबीज़ में अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के पात्रों के माध्यम से समाज को सांस्कृतिक मूल्यों से परिपूर्ण सार्थक संदेश मिला है।"

     विशिष्ट अतिथि  अनिल शमी ने कहा - "श्री ब्रजवासी जी का यह सारस्वत प्रयास साहित्यकारों की नयी पीढ़ी को भी निश्चित रूप से प्रेरित करेगा।" 

     कृति के संबंध में विचार रखते हुए राजीव प्रखर का कहना था - "समाज में व्याप्त विभिन्न विद्रूपताओं को सशक्त रूप में सामने रखना व उनके हल प्रस्तुत करना इस कृति की विशेषता है। लेखन संबंधी कुछ समस्याओं के बावजूद श्री ब्रजवासी अपनी बात समाज के आम जनमानस तक पहुॅंचाने में सफल रहे हैं।"

      डाॅ. आर सी शुक्ला, दुष्यंत बाबा, हेमा तिवारी, विवेक निर्मल, हिमानी सागर, श्रीकृष्ण शुक्ल, रश्मि प्रभाकर, राघवेन्द्र मणि, योगेन्द्र पाल विश्नोई, रघुराज सिंह निश्चल,  पूजा राणा, उदय अस्त उदय, के. पी. सरल, ज़िया ज़मीर, डॉ. कृष्ण कुमार नाज़, मनोज मनु, जितेन्द्र'जौली', नजीब सुल्ताना, नकुल त्यागी, वीरेंद्र सिंह, शलभ गुप्ता, रवि चतुर्वेदी, काले सिंह साल्टा, ओंकार सिंह ओंकार, शिशुपाल मधुकर, लीलावती, आदि ने भी कृति के विषय में अपने विचार व्यक्त किए। अर्पित मान पत्र का वाचन अशोक विद्रोही ने किया। 

  कार्यक्रम का संचालन संयुक्त रूप से वरिष्ठ व्यंग्यकार अशोक विश्नोई एवं वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी तथा संयोजन राजीव प्रखर ने किया।डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने आभार-अभिव्यक्त किया।

































शनिवार, 28 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के दस दोहे ----


भारत वंश सुभाग था, मुगलकाल दुर्भाग।

पाँव पड़े गोरे यहाँ , गया राग अनुराग।। 1


मनमाफिक निर्णय मिले,तभी कहेंगे न्याय।

मिले न मन का फैसला,तो बोलें अन्याय।। 2


सब झूठे मिलकर यहाँ,ढूँढें सच की काट।

ताकि पुराने झूठ की, बिछी रहे हर खाट।। 3


एक बार फिर क्या खुली,अन्य झूठ की पोल।

अपनी सी पर आ गए,सारे लिबरल ढोल।। 4


शब्द ज्ञानवापी नहीं, खाता जिनसे मेल।

उसको अपना कह वही,हैं मकसद में फेल।। 5


झूठ तनिक तू सोचकर,मेरी पीड़ा तोल।

डरा-डरा सा सहमकर,सत्य रहा है बोल।। 6


बन्धक बनकर सच रहा,अबतक उम्र तमाम।

उसने लीं जब करवटें, हुईं साजिशें आम।। 7


घर तो सबका है यही,यही राग अनुराग।

घर में फिर वह कौन है,लगा रहा जो आग।। 8


छंदमुक्त को जब मिले, छंदों में भी दोष।

शीश पटककर हो गया, मुक्तछंद बेहोश।। 9


नवता पाती नव्य से,भले नए आयाम।

गीत अनन्तिम रूप से,सब गीतों का धाम।। 10


✍️  डॉ.मक्खन मुरादाबादी

      झ-28, नवीन नगर

      काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

      संपर्क:9319086769


शुक्रवार, 20 मई 2022

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) से अमन कुमार त्यागी के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका शोधादर्श का मार्च- मई 2022 अंक प्रख्यात साहित्यकार रामावतार त्यागी विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस अंक के विशेष संपादक प्रो ऋषभ देव शर्मा और अतिथि संपादक डॉ कारेंद्र देव त्यागी मक्खन मुरादाबादी हैं। इस अंक में स्मृतिशेष रामावतार त्यागी की चर्चित रचनाओं के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सर्वश्री बालस्वरूप राही, क्षेमचंद्र सुमन, रामधारी सिंह दिनकर, शेरजंग गर्ग, रमेश गौड़, डॉ मक्खन मुरादाबादी, अमन कुमार त्यागी,महेंद्र अश्क, डॉ अनिल शर्मा अनिल, त्यागी अशोका कृष्णम, डॉ डीएन शर्मा, डॉ अजय अनुपम, डॉ विनय, डॉ वीणा गौतम, प्रोफेसर निर्मला एस मौर्य, डॉ शंकर लाल क्षेम, प्रोफेसर आनंद कुमार त्यागी, के एस तूफान, गिरीश पंकज, डॉ गुर्रकोंडा नीरजा, डॉ सुशील कुमार त्यागी, डॉ अरविंद कुमार सिंह, अरविंद जय तिलक, डॉ चंदन कुमारी, स्नेह लता, डॉ निरंकार सिंह त्यागी, रश्मि अग्रवाल, डॉ डॉली, डॉ शैलजा सक्सेना, विजय प्रकाश भारद्वाज, डॉ मृदुला त्यागी, डॉ मंजू रुस्तगी, डॉ अरुण कुमार त्यागी, आचार्य संजीव कुमार त्यागी के महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा साहित्यिक मुरादाबाद के तत्वावधान में अप्रैल 2022 में स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित तीन दिवसीय आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरा विशेषांक

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सोमवार, 16 मई 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा की ओर से 15 मई 2022 को आयोजित ज़िया ज़मीर के गजल-संग्रह "ये सब फूल तुम्हारे नाम" का लोकार्पण समारोह

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में  साहित्यकार ज़िया ज़मीर के गजल-संग्रह "ये सब फूल तुम्हारे नाम" का लोकार्पण हिमगिरि कालोनी मुरादाबाद स्थित मशहूर शायर ज़मीर दरवेश साहब के निवास पर किया गया।     

कार्यक्रम का आरंभ ज़िया ज़मीर द्वारा प्रस्तुत नाते पाक व मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ। इस अवसर पर लोकार्पित कृति "ये सब फूल तुम्हारे नाम" से रचनापाठ करते हुए ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लें सुनायीं-

 "दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है

किसकी आमद है भला कौन नज़र आ गया है

ज़िंदगी रोक के अक्सर यही कहती है मुझे

तुझको जाना था किधर और किधर आ गया है

लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उसकी ज़द में

नन्हें हाथों से बना रेत का घर आ गया है"। 

उनकी एक और ग़ज़ल की सबने तारीफ की-

 "दरिया में जाते वक़्त इशारा करें तुझे

जब डूबने लगें तो पुकारा करें तुझे

महफ़िल से तू ने उठते हुए देखा ही नहीं

हम सोचते रहे कि इशारा करें तुझे"।

   समारोह की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा- "जिया जमीर के पास गहरे पानियों जैसा बहाव है। वे आम फ़हम भी हैं, जिसके लिए लुगत की ज़रूरत नहीं है। उर्दू कविता के सहृदय पाठकों को जिया ज़मीर की शायरी में एक गहरी कलात्मकता और पारदर्शी सोच मिलेगी।"

 मुख्य अतिथि के रूप में विख्यात शायर मंसूर उस्मानी ने कहा- "ज़िया ज़मीर मौजूदा वक्त में नई गजल की नई फिक्र और नई नजर के मजबूत हस्ताक्षर हैं, जो सिर्फ आज में ही नहीं जीते, उनके साथ उनका माजी भी है और आने वाले वक्त के रंगीन सपने भी।"

 विशिष्ट अतिथि मशहूर शायर ज़मीर दरवेश ने कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में हकीकत और तख़य्युल का खूबसूरत इस्तेमाल मिलता है। हकीक़त शायरी की जान है और तख़य्युल उसकी खूबसूरती। उनकी शायरी में यादों के बादल हैं, उदासी का परिंदा है, दर्द की शाख़ है, दर्द का सहरा है, तहज़ीब की नाव है।"

विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ शायर अनवर कैफ़ी ने कहा- "नौजवान नस्ल में जिन शायरों ने उर्दू हिन्दी ज़बान और साहित्य में नुमाया कामयाबी हासिल की है और गेसू-ए-सुखन को संवारा है उनमें जिया ज़मीर ऐसा नाम है जिन्हें महफिलों में याद रखा जाता है।"

 विशिष्ट अतिथि विख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने कहा- "ज़िया ज़मीर मुरादाबाद की मिट्टी में उपजे ऐसे युवा शायर हैं जिनकी शायरी की खुशबू देश भर में दूर-दूर तक फैल कर अपना मुकाम हासिल कर रही है।अदबी दुनिया को उनसे बहुत उम्मीदें हैं।" 

कार्यक्रम के संचालक नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अशआर में अरबी-फारसी की इज़ाफत वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती।"

वरिष्ठ शायर डॉ. मुजाहिद फ़राज़ ने कहा- "ज़िया ने अपनी ग़ज़ल के लिए दिल का रास्ता चुना है। वही दिल जिसने मीर से मीरा तक बे शुमार शायरों को अदब के सफ़हात पर सजाया है, इसीलिए तो ज़िया की शायरी में दिल और इश्क़ की कार फ़र्माइयाँ जा-बजा नज़र आती हैं।"

 वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार नाज़ ने कहा- "जिया जमीर की ग़ज़लें उदाहरण हैं इस बात का कि वहाँ प्रेम भी मिलता है, वहाँ समाज भी मिलता है, वहाँ संस्कृति भी मिलती है, वहाँ अध्यात्म भी मिलता है और वहाँ राजनीतिक चेतना भी दिखाई देती है।" 

     समीक्षक डॉ. मौ. आसिफ हुसैन ने कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में इस बात के रोशन इमकानात मौजूद हैं कि आने वाले वक़्त में मुरादाबाद को शायरी के हवाले से एक बड़ा नाम मिलने वाला है।" 

    कार्यक्रम में डॉ. मनोज रस्तोगी, सय्यद मौ हाशिम, मनोज मनु, राजीव प्रखर, अहमद मुरादाबादी, फरहत अली खान, ग़ुलाम मुहम्मद ग़ाज़ी, मयंक शर्मा, अभिनव चौहान, ज़ाहिद परवेज़, सैयद सलीम रजा नकवी, शाहबाज अनवर, मुशाहिद हुसैन, शकील अहमद, श्रीकांत शर्मा, नूरुज्जमा नूर, शांति भूषण पांडेय, तहसीन मुरादाबादी, दानिश कादरी सहित अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति तसर्रुफ ज़िया ने प्रस्तुत की। 

















::::::::प्रस्तुति::::::::

योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

संयोजक- अक्षरा, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981

शनिवार, 14 मई 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति की ओर से 14 मई 2022 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से मासिक काव्य-गोष्ठी का आयोजन शनिवार 14 मई 2022 को विश्नोई धर्मशाला, लाइनपार में किया गया।

 राम सिंह निशंक द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए योगेंद्र पाल विश्नोई ने देश प्रेम की अलख जगाते हुए कहा - 

यह भारत का मानचित्र है।

 इस पर इस पर गौरव हमें मित्र है।

 वीर भोग्या वसुंधरा है, 

प्रतिपल पावन परम पवित्र है‌। 

मुख्य अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने कहा --

विश्व का बाज़ार जो बारूद का और तेल का है।

 ख़ात्मा जिसने किया संसार में अब मेल का है।

विशिष्ट अतिथि के रुप में इंदु रानी ने मातृ-शक्ति को नमन किया - 

कैसे मैं भूलूं बता, माॅं तेरा उपकार।

 तेरा ही अहसान है, यह मेरा संसार।

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए अशोक विद्रोही ने  राष्ट्रप्रेम का संदेश कुछ इस प्रकार दिया -

 हे भारत माता तुम्हें नमन,

 तन मन धन अर्पित कर देंगे। 

एक रोज परम वैभव का पद, 

माॅं तुझे समर्पित कर देंगे। 

वरिष्ठ रचनाकार  कवि वीरेंद्र ब्रजवासी ने समाज के सम्मुख प्रश्न रखते हुए कहा - 

सच कहना सच सुनना ही तो, भारी लगता है‌।

 सच कहना अब सच से ही गद्दारी लगता है।

राम सिंह निशंक की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी -

आते झंझावत मगर, उसने स्थिर रहना सीखा। 

हों उजाले अंधेरे उसने है जलना सीखा।

डॉ. मनोज रस्तोगी ने चिंतन-मनन पर बाध्य करते हुए कहा - 

स्वाभिमान भी गिरवी रख 

नागों के हाथ। 

भेड़ियों के सम्मुख 

टिका दिया माथ, 

इस तरह होता रहा 

अपना चीर हरण।

 रचना-पाठ करते हुए राजीव प्रखर ने कहा -

 जीवन के इस डगमग पथ में, 

हर संकट पर भारी पुस्तक।

 बंद पड़ी हूॅं अलमारी में, 

मैं तुम सबकी प्यारी पुस्तक। 

प्रशांत मिश्र का कहना था - 

जीवन तेरा तुझको अर्पण माॅं, 

मैं और अर्पण क्या करूं। 

शुभम कश्यप की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी - 

उस सी दौलत न कोई मूरत है। 

माॅं तो भगवान की नेमत है‌।

 रामेश्वर वशिष्ठ द्वारा आभार अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम विश्राम पर पहुॅंचा










::::::प्रस्तुति::::::

अशोक विद्रोही 

उपाध्यक्ष

राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति

 मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कृति ' इतनी ऊंची मत छोड़ो' में प्रकाशित गाजियाबाद के साहित्यकार( मूल निवासी मुरादाबाद जनपद ) स्मृतिशेष डॉ कुँअर बेचैन का आलेख --- 'कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें अर्थात् मानवता की पहरेदारी'। यह कृति पुस्तकायन नयी दिल्ली द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित हुई ।


इन दिनों हिन्दी कविता के क्षेत्र में ग़ज़ल ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया है। इधर हिन्दी में अनेक कवि ग़ज़लें कह रहे हैं। किंतु हास्य कवियों में बहुत ही कम ऐसे कवि हैं, जिन्होंने ग़ज़ल विधा में अपनी बात को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करके और ग़जल में 'ग़ज़लियत' को सुरक्षित रखते हुए कहा हो; किंतु हास्य रचनाकार हुल्लड़ मुरादाबादी ने हिन्दी कविता की अन्य विधाओं और रूप-पद्धतियों में तो अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल भारत में वरन् भारत के बाहर भी लोगों के मन को गुदगुदाया है और प्रफुल्लित किया है, वरन् अपनी ग़ज़लों के माध्यम से भी उन्हें आनन्दित किया है। उन्हें ग़ज़ल की अच्छी पकड़ है। 'शे'रियत' पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। वे हास्य और व्यंग्य के कवि हैं, अतः वे व्यंग्य को मीठी चाशनी में लपेटकर अपने अशआर को कुछ उस ढंग से सौंपते हैं, जिसे पाकर कोई भी आनन्दित और उल्लसित हो उठे।

       गंभीर रूप से ग़ज़ल-लेखन से जुड़े ग़ज़लकारों ने सामान्यतः अपनी शायरी को 'प्रेम' पर ही केन्द्रित रखा या फिर वह 'इश्क मिज़ाजी' से होते हुए 'इश्क हक़ीक़ी' की तरफ बढ़ी, किंतु बाद के ग़ज़लकारों ने आम ज़िन्दगी की समस्याओं को भी अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया, जिनमें राजनीति, धर्म और संस्कृति, समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और साहित्यिक वातावरण भी मुख्य हैं। दुष्यन्त और उनसे पहले भी हिन्दी-ग़ज़ल में प्रेम की आँच के साथ-साथ उस आग का भी जिक्र हुआ जिसकी लपटें आम आदमी को किसी-न-किसी प्रकार से झुलसा रही हैं। 'ग़मे जानाँ' से 'ग़मे दौरां' तक ग़ज़ल की यात्रा हुई। विभिन्न सोपानों एवं राहों से निकलते हुए ग़ज़ल का अनुभव बढ़ा। उसने अनेक दशाओं एवं दिशाओं को आत्मसात किया। हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़ले भी भारतीय समाज की मनः स्थितियों में प्रवेश करके, उनमें टहलकर, घूम फिरकर और 'फिक्र' से जुड़कर अपनी बात कहती है।

       वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की बड़ी दुर्दशा हुई है। राजनीतिज्ञ राजनीति में से नीति को निकालकर बाहर फेंक चुके हैं। नैतिकता ढूँढे नहीं मिलती। इसी कारण राजनेता जो कभी आदर के पात्र थे, अब व्यंग्य के विषय बन गये हैं। उनकी फ़ितरत में धोखेवाजी और स्वार्थपरता आकर समा गई हैं। हुल्लड़ मुरादाबादी ने यों तो बहुत-से अशआर वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों पर कहे हैं, किंतु जो शे'र यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, वह व्यंग्य-विधा की दृष्टि से बड़ा ही पुष्ट और अनूठा है

"दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटरों के लिए

इसको कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा" 

       उक्त शेर में दो बातें दृष्टव्य है। एक तो 'दुम हिलाने की प्रक्रिया और दूसरी "भेड़िया हो जाने की बात 'दुम हिलाने की प्रक्रिया से जो चित्र उभरता है, वह कुत्ते का है और भेड़िया तो भेड़िया है ही -खुंखार और कपटपूर्ण व्यवहार करने का प्रतीक। जो लोग चित्रकला में 'कार्टून विधा से परिचित हैं, वे लोग जानते होंगे कि 'कार्टूनिस्ट' जब किसी व्यक्ति का कार्टून बनाता है तो उसके भीतरी स्वभाव को पशुओं की आकृति को सांकेतिक छवियों से भी चित्रित करता है। अच्छे व्यंग्यकारों को भी इसकी समझ होती है। हुल्लड़ मुरादाबादी व्यंग्य के इस साधन से भलीभाँति परिचित है। इसी कारण उन्होंने इस शेर में राजनीतिज्ञों का शाब्दिक 'कार्टून बनाने का प्रयास ही नहीं किया, वरन बड़ी ही सफलता से उसे चित्रित भी किया है। राजनीतिज्ञों के चेहरे में भेड़ियों का चेहरा उभर आना, अपने आप में इस बात का प्रमाण भी है। राजनीतिज्ञों और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कुछ और भी अच्छे शेर कहे है

"लीडरों के इस नगर में है तेरी औकात क्या

अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायेगा"


बात करते हो तुम सियासत की 

वो तो पक्की छिनाल है दद्दा

       राजनीतिज्ञों द्वारा आम जनता के शोषण की बात को जिस ढंग से और जिस शब्दावली में हुल्लड़ जी ने कहा है वह भी अत्यंत रोचक, किंतु गंभीर है। व्यंग्य के साधनों में अच्छे व्यंग्यकार श्लेष से भी काम लेते हैं। हुल्लड़ जी ने इस एक शेर में इसी पद्धति से अच्छा काम लिया है। वे कहते हैं

"यह तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना

 फ़िक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं"

       यहाँ 'आम जनता' में 'आम' शब्द का प्रयोग दुतरफा है। 'आम' फल भी है जिसे चूसा जाता है और 'आम जनता' भी जिसे चूसा जा रहा है। यहाँ श्लेष प्रयोग की पद्धति से हुल्लड़ जो ने इस शेर को व्यंग्य की दृष्टि से बहुत ऊँचाई दे दी है। शब्दावली ऐसी जो हंसाए और शब्दों के अर्थ में ऐसी करुणा कि आदमी भीतर-ही भीतर रो उठे। यहीं यह बात भी कहना चाहूँगा कि व्यंग्य का वास्तविक आधार करुणा है। वह तो आंसू को हंसी बनाकर पेश करता है, या यों कहें कि हँसी के भीतर आँसू को इस तरह से विठाता है कि हंसी का पर्दा हटते ही आँसू दिखाई दे जाये। आज के समय में देश की अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है। महँगाई फन फैलाए खड़ी है। आम आदमी ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहा कवि हुल्लड़ का काम केवल हंसाना ही नहीं है, वरन मर्मस्पर्शी स्थितियों का साक्षात्कार कराना भी है। आज के आम आदमी या निम्न-मध्यवर्गीय परिवार को संबोधित करते हुए वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कितनी अधिक अनुभव को सच्चाई और विवशतापूर्ण छटपटाहट है

"जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू

रोज़ ही क्यों सर मुंडाना चाहता है।"

      यहाँ सर मुंडाने के प्रचलित मुहावरे से कवि ने आर्थिक शोषण को समझाने का प्रयास किया है। यह व्यवस्था मांसाहारी है, शाकाहारी नहीं। यह खून पीने में विश्वास रखती है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए हुल्लड़ जी इस प्रकार शेर कहते हैं

"यह व्यवस्था खून चूस लेगी तुम्हारा

शेर को ककड़ी खिलाना चाहता है" 

     यहाँ भी वही बात। उन्होंने 'व्यवस्था' शब्द में 'मानवीकरण' का प्रयोग किया है और इस प्रकार व्यवस्था को एक इनसान का रूप दिया गया है, और बाद में उस व्यवस्था के चेहरे में 'शेर' के चेहरे का भी रेखांकन किया गया है। यहाँ भी कार्टून शैली में ही अभिव्यक्ति हुई है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ एक नये मुहावरे का भी गठन किया है-'शेर को ककड़ी खिलाना'। अच्छे रचनाकार बात-बात में ही नये मुहावरे गढ़ जाते हैं और उन्हें स्वयं पता भी नहीं चलता कि वह नया मुहावरा गढ़ गए। इस शेर के साथ भी यही हुआ है।

     हुल्लड़ जी का ध्यान आज की व्यवस्था (Administration) और उसकी विद्रूपताओं पर भी गया है। आजकल समाज व्यवस्था को 'माफिया' व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा शासन व्यवस्था भी धीरे-धीरे माफियाओं के हाथों में आती जा रही है। इस सम्बंध में हुल्लड़ जी का एक शे'र देखें

"हर तरफ हिंसा, डकैती, हो रहे हैं अपहरण

रफ्ता-रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा" 

     पूरे समाज में 'रिश्वतखोरी', 'भाई भतीजावाद' का बोलबाला है। इस सच्चाई की ओर भी कवि का ध्यान गया है और वह साफ शब्दों में कह उठता है

"बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को

 क्यों नदी में घर बनाना चाहता है"

ग़ज़ल के शे'र में शे रियत तब पैदा होती है जब उसे सही मिसाल (उपमा) मिल जाय-ऐसी उपमा जो कथ्य को उभारकर बाहर ले आये। सिफ़ारिश के बिना नौकरी मिलने की नामुमकिन कहानी को नदी में घर बनाने की मिसाल देकर स्पष्ट किया है। साहित्यिक क्षेत्र में होने वाली अवमाननाओं और अवमूल्यनों पर दृष्टिपात करते हुए संकेत से उधर भी इशारे किए गए हैं। आजकल कवि-सम्मेलनों में अधिकतर हास्य कवि घिसे-घिसाए पुराने चुटकुलों के सहारे जमे बैठे हैं, जबकि कविता से उनका दूर-दूर का भी सम्बंध नहीं है। हुल्लड़ जी ऐसे कवियों पर और ऐसे मंचों पर सीधी चोट करने हुए कहते हैं

"गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यूमर, सेटायर आजकल"

यह तो रही अलग-अलग परिस्थितियों की बात किंतु हुल्लड़ जी ने मानव-मात्र पर भी व्यंग्य किए हैं जो कहने को तो बहुत सभ्य हो गया है, किंतु आज भी उसकी फितरत वही है जब वह बंदर था। क्योंकि आदमी जितना आदमी के खून का प्यासा हुआ है, जानवर भी नहीं है। हुल्लड़ जी कहते हैं—

“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी 

है हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल"

       हुल्लड़ जी ने, वर्तमान समाज में जो मूल्य-विघटन हुआ है, नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है, उसे भी अच्छी प्रकार से देखा और समझा है और इसलिए । और आह के साथ वो कह उठते हैं कराह

"क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे 

उम्रभर क्या घास खाना चाहता है"

     आज के समय में सिद्धांत किसी का पेट नहीं भरते। उल्टे उसे मूर्ख साबित करते हैं। यदि हुल्लड़ जी चाहते तो उक्त शे'र में कहीं भी 'गधे' शब्द का प्रयोग करके गधे का लाक्षणिक अर्थ 'मूर्ख' व्यक्त करने में सफल हो जाते, किंतु जगह-जगह पर 'गधा', 'उल्लू' आदि कहने से एक बड़ा घिसा-पिटापन आ जाता है। अतः उन्होंने इस शब्द का प्रयोग न करके ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जिससे 'गधे' का ही अर्थ निकलता है। 'उम्रभर क्या घास खाना चाहता है' में घास खाने की प्रक्रिया विशेष रूप से 'गधे' से जुड़ी है, अतः कवि का अभिप्राय समझ में आ जाता है कि क्या तू हमेशा "गधा' ही बना रहना चाहता है ? साथ ही घास खाने वाली बात के माध्यम से अनजाने ही एक प्रसंग जुड़ जाता है और वह है महाराणा प्रताप का प्रसंग, जिन्होंने अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए घास की रोटी खाना स्वीकार किया था। इस कथा से भी यही व्यंजना निकलती है। जब कवि सिद्ध हो जाता है तब ही इस प्रकार की शब्दावली और व्यंजनाओं का प्रयोग कर पाता है। और यह सत्य है कि कविवर हुल्लड़ में यह सिद्धहस्तता है।

     ग़ज़ल के शेर जितने ही अनुभव के करीब होते हैं, उतने ही वे बड़े और महान होते जाते हैं तथा उद्धरण देने योग्य भी। हुल्लड़ की ग़ज़लो में अधिकतर अशआर उन्हें अनुभव की विरासत से ही मिले हैं। कुछ उदाहरण देखें

दोस्तों को आजमाना चाहता हैं

घाव पर फिर घाव खाना चाहता है।


जो कि भरता है ज़ख्म दिल के भी

 वक्त ही वो 'डिटॉल' है दद्दा


 घाव सबको मत दिखाओ तुम नुमाइश की तरह

यह अकेले में सही है गुनगुनाने के लिए। 


 देखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोई 

 लोग मौका ढूंढते हैं काट खाने के लिए


इतनी ऊँची मत छोड़ो गिर पड़ोगे धरती पर 

क्योंकि आसमानों में सीढ़ियाँ नहीं होतीं। 

हुल्लड़ मुरादाबादी ने ग्रामीण बोध से हटते हुए लोगों और महानगरीय संवेदनाओं में फंसे हुए इनसानों एवं उनकी फितरतों पर भी टिप्पणी की है

“यह तो पानी का असर है तेरी ग़लती कुछ नहीं 

बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा "

  यहाँ 'बम्बई' महानगर सम्पूर्ण महानगरों की परिस्थितिजन्य विवशताओं की ओर संकेत करता है और उसी में महानगरीय संस्कृति पर भी व्यंग्य करता है। हुल्लड़ जी ने यों तो बहुत से अच्छे शेर कहे हैं, किंतु जो शेर शायद लोगों की जुबान से कभी नहीं हटेगा और लोगों के ज़ेहन में हमेशा रहेगा वह यह दार्शनिक शे'र है 

  "सबको उस रजिस्टर में हाज़िरी लगानी है। 

  मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं"

        लगता है जैसे कि यह शेर कोई हास्य का कवि नहीं, वरन् कोई ‘फ़िलॉसफर कह रहा है। ऐसे अशआर सुनकर या इसी प्रकार की कविताओं को पढ़ या सुनकर हो शायद कवि के बारे में यह कहा गया है वह फ़िलॉसफ़र भी होता है। हुल्लड़ के व्यक्तित्व में खुद्दारी का गुण अपना एक विशेष गुण है। अतः उनको खुद्दारी से जुड़ा हुआ एक और शे'र भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है

 “मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का

  मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए"

   हुल्लड़ जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि हैं। अतः उन्होंने शिल्प की दृष्टि से अपने कथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए ग़ज़ल का चुनाव करने पर भी, ऐसी शब्दावली को नहीं छोड़ा है जो स्वतः हास्य की प्रेरणा देती है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में यों तो स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द सहज रूप से आने दिए हैं, जिनमें से हास्य की किरणें फूटती हैं, किंतु मुख्यतः रदीफ़ तथा काफ़िया के स्थान पर ऐसे शब्दों के प्रयोग से यह हास्य की छटा और भी अधिक निखरी है; उस दृष्टि से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-- 


 "जोकि भरता है जख्म दिल के भी 

 वक्त ही वो डिटॉल है दद्दा "


 “आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल "


मेरे शेरों में आग है हुल्लड़ 

उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा'


इसी प्रकार उपर्युक्त शेरों में रेखांकित( बोल्ड ) शब्दों पर गौर कीजिये। निश्चय ही ये शब्द ऐसे हैं जिन्हें सुनकर और पढ़कर रसिकों को हँसी आ जाएगी। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी ऐसा हुआ है। एक ग़ज़ल में 'भानजे' शब्द का रदीफ़ लेकर महाभारत 'शकुनि' का चित्र और उसकी चालों की ओर संकेत किया है और हँसी हंसी में व्यंग्य की पैनी धार को भी आने दिया है।

इस प्रकार कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें एक ओर ग़ज़लों के व्याकरण उनके क़ायदे-कानूनों पर खरी उतरती हैं तो दूसरी ओर वे व्यंग्य की दृष्टि से बहुत सफल और सार्थक हैं। वे कभी 'कैरिकेचर' द्वारा व्यंग्य की सृष्टि करती हैं, तो कभी 'उपहास-शैली' की सशक्त परम्परा का निर्वाह करके उसे नये आयाम देती हैं, कभी विडम्बन (irony) द्वारा किसी सामाजिक या अन्य विषयक विकृति को उकेरती हैं, कभी 'श्लेष-पद्धति' द्वारा हास्य पैदा करके व्यंग्य के विभिन्न सोपानों पर ऊँचाइयाँ पा रही हैं। व्यंग्य के शिल्प से हुल्लड़ जी भलीभांति परिचित हैं, अतः उन्होंने जहाँ जिस प्रकार की व्यंग्य-शैली और व्यंग्य-भाषा की आवश्यकता है, वहाँ वैसी ही भाषा और शैली प्रयोग किया है और यह प्रयोग बड़ी सफलता से किया है। इन ग़ज़लों द्वारा कवि हुल्लड़ जी ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर इन ग़ज़लों के द्वारा वे अच्छे ग़ज़लकारों में अपना नाम लिखवा रहे हैं तो दूसरी ओर इन ग़ज़लों द्वारा एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार की छवि भी बनाने में सफल हुए हैं। उनकी ग़ज़लें आज के समाज व यथार्थ चित्र हैं—ऐसा यथार्थ चित्र जो एक ओर तो हमारे हृदय को भीतर-ही-भीतर उद्वेलित करता है तो दूसरी ओर हमें यह प्रेरणा भी देता है कि हम अपने-आप सुधारें और पूरा समाज से उन विकृतियों को हटाएँ जो हमारी सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को रोग-ग्रस्त कर रही हैं। कविवर हुल्लड़ की ये ग़ज़लें सचमुच ही अंधकार में टहलती हुई चिंगारी की तरह हैं; वे मानवता की पहरेदारी करते हुए उसे जीवित रखने संकल्प हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी श्रेष्ठ और उद्देश्यपूर्ण ग़ज़लों का पाठक भरपूर स्वागत करेंगे।



✍️ कुँअर बेचैन 

 2 एफ-51 नेहरूनगर

 ग़ाज़ियाबाद


:::::::::::प्रस्तुति:::::::::


डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 13 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कृति ' इतनी ऊंची मत छोड़ो' में प्रकाशित बदायूं के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ उर्मिलेश का आलेख --- 'अपने समय से संवाद करती ग़ज़लें ।' यह कृति पुस्तकायन नयी दिल्ली द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित हुई ।

 


पद्मश्री काका हाथरसी के बाद हिन्दी कवि सम्मेलनों, एच० एम० वी० कम्पनी के रिकार्डो, रेडियो, दूरदर्शन, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, कैसिटों, फिल्मों और अपने काव्य-संग्रहों के माध्यम से लोकप्रियता के शिखर छूनेवाले हास्य-व्यंग्य कवियों में श्री हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम आता है। हुल्लड़ जी के बाद कई नाम कवि-सम्मेलनों में स्थापित हुए और हास्य कवि के रूप में आज भी स्थापित हैं, लेकिन हुल्लड़ जी की लोकप्रियता का बहुआयामी ग्राफ आज भी नीचे नहीं गया है। यों बीच-बीच में व्यक्तिगत परिस्थितियों ने इस ग्राफ को थोड़ी-बहुत क्षति ज़रूर पहुँचाई, लेकिन हुल्लड़ जो की सृजनेच्छा, सक्रियता और रचनात्मक जिजीविषा ने तमाम दैहिक, दैविक और भौतिक संघर्ष झेलते हुए, उनको कहीं चुकने नहीं दिया। कवि सम्मेलनीय मंचों पर एक पैरोडी-किंग के रूप में अपना सफर शुरू करनेवाले हुल्लड़ जी देखते-देखते शिष्ट हास्य के विशिष्ट कवि और फिर एक सधे किन्तु धारदार व्यंग्यकार के रूप में हिन्दी कविता के मंचों पर प्रतिष्ठित हो गये। उनकी इस गतिशील और जैवन्ती यात्रा पर उनके नज़दीक के लोगों का मुग्ध होना स्वाभाविक है। उनकी इसी सृजन-यात्रा की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है. उनका ग़ज़लकार रूप जो 'इतनी ऊँची मत छोड़ो' ग़ज़ल-संग्रह के रूप में निबद्ध होकर उनके प्रिय पाठकों के सामने प्रस्तुत है।

फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिन्दी में अवतरित होते हुए ग़ज़ल ने एक ख़ासा सफर तय किया है। कई पड़ाव और कई मंज़िलें हैं इस सफ़र की। यहाँ उस सबकी पड़ताल न करते हुए यह कहना अभीष्ट लग रहा है कि हिन्दी-ग़ज़ल ने उर्दू- ग़ज़ल जैसी कसावट और बुनावट भले ही (कुछ रूपों में) हासिल न की हो, किन्तु हिन्दी - ग़ज़ल का विषय-क्षेत्र उर्दू-ग़ज़ल से कहीं ज्यादा विस्तृत और अपनीत होकर सामने आया है। आज के उर्दू शायर भी विषय विस्तार की इस अपेक्षा को शिद्दत के साथ महसूसने लगे है। साकी, शराब, मयखाना, गुलो-बुलबुल के बासी प्रतीकों से ग़ज़ल को निजात दिलाने में हिन्दी के ग़ज़ल-गो कवियों के प्रदेय को किसी भी तरह अवहेलित और उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हुल्लड़ जी की ग़ज़लें इसी दिशा में एक पहल करती हुई लगती । उनकी ग़ज़लों का कैनवास आज की समयगत सच्चाइयों से रंगायित है। इन ग़ज़लों में आज की राजनीतिक विद्रूपताएँ, धार्मिक कटुताएँ, सामाजिक विषमताएँ, आर्थिक विरूपताएँ, साहित्यिक वंचनाएँ, शैक्षिक-सांस्कृतिक कुटिलताएँ और मानवीय विवशताएँ जहाँ पूरी भास्वरता के साथ अंकित हुई हैं, वहीं हुल्लड़ जी का भावुक और संवेदनशील रचनाकार गम्भीर दार्शनिक मुद्रा में अपनी चिन्तनशील छवि को प्रस्तुत करने में पूरी कामयाबी के साथ उपस्थित है।

आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था सत्तालोलुप नेताओं की कारगुज़ारियों की वजह से कितनी घिनौनी हो गई है, इसे हुल्लड़ जी ने अपनी तंज़िया ग़ज़लों में बखूबी उभारा है। एक सजग लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में उनका आक्रोश भी अनेक शे'रों में फूट पड़ा है

जनवरी छब्बीस अब तो तब मनेगी देश में 

जब यहाँ हर भ्रष्ट नेता गुमशुदा हो जायगा 

दुम हिलाता फिर रहा है चन्द वोटों के लिए 

इसको जब कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा


ये तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना

फिक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं।

राजनीतिक व्यवस्था के इसी नंगे नाच के चलते आज का पढ़ा-लिखा नौजवान शोषण के जो कसैले घूँट पीने पर विवश है, उसकी विडम्बना पर हुल्लड़ जी के ये अशआर कितने मार्मिक बन पड़े हैं—

बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को

क्यों नदी में घर बनाना चाहता है


डिगरियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं

नौकरी क्या चाँद देगा, क्या करेगी चाँदनी ?

आज की मतलबपरस्त निर्मम राजनीति ने मानवीय सम्वेदना के सूत्र भी तार-तार कर दिए हैं। यथा राजा तथा प्रजा' के अनुसार आज का आदमी कितना स्वार्थी, बेईमन, लम्पट और आत्मकेन्द्रित हो गया है, इसकी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रमाणस्वरूप ये अशआर द्रष्टव्य हैं

दोस्तों को आजमाना चाहता है

चोट पर फिर चोट खाना चाहता है


आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल


दोस्त तो मिलते रहेंगे हर गली, हर मोड़ पर

सोचते हैं जख्म अपने रोज़ सीकर क्या करें 

और तो और, कविता का मंच भी इस राजनीतिक प्रदूषण से अछूता नहीं रहा। हुल्लड़ जी ने मंच पर रहते हुए और इस व्यवस्था में पूरी तरह शामिल होते हुए भी, इसकी खामियों को नज़रअन्दाज नहीं किया है। ऐसे स्थलों पर उनकी वक्रोक्तियाँ कितनी प्रामाणिक हो उठी हैं, केवल तीन शेर देखिए 

गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यमर सटायर आजकल

 इन कुएं के मेंढकों ने सारा पानी पी लिया 

 डूबकर मरने लगे हैं सब समन्दर आजकल

गीत चोरी का छपाया उसने अपने नाम से

रह गया है शायरा का ये करैक्टर आजकल 

यों तो हुल्लड़ जो की इन ग़ज़लों में अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज से लेकर राष्ट्रीय सरोकारों को अपनी तरह से सम्प्रेषित करनेवाली ग़ज़लें मिल जायेंगी, किन्त व्यक्ति और समाज के संघर्ष को रेखांकित करनेवाले स्वर इन ग़ज़लों में बहुल के साथ अनुभव किये जा सकते हैं। चूँकि हुल्लड़ जी गाँव से लेकर नगरों महानगरों, यहाँ तक कि अमरीका के कई महानगरों में काव्य-पाठ कर चुके हैं और समाज के हर वर्ग के साथ उठे बैठे हैं, इसलिए पूरी ईमानदारी से उन्होंने जहाँ हर तबके की पोल इन ग़ज़लों में खोली है, वहाँ वह यह बताने में भी नहीं चूके हैं कि आदमी के भीतर और बाहर दिखाई देने वाली दूरियों के लिए दोषी कौन है।

      इस संग्रह की वे ग़ज़लें जिनमें दर्शन और अध्यात्म का पुट है, निस्संदेह उन पाठकों को एक सुखद अहसास से भर देंगी जो हुल्लड़ जी को अब तक एक हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में ही जानते रहे हैं। ऐसे एक नहीं अनेक शेर इस संग्रह में हैं, जो हुल्लड़ जी की हँसोड़ छवि की तह में छिपे एक गम्भीर, उदास किन्तु जीवन्त दार्शनिक को प्रस्तुत करने में पूर्ण सक्षम हैं। इस सन्दर्भ में कुछ शेर जो मेरी तरह आपको भी अच्छे लगेंगे, यहाँ दे रहा हूँ

दुनिया में दुख ही दुख हैं, रोना है सिर्फ रोना

 गम में भी मुस्कराना सबसे बड़ी कला है


सबको उस रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है 

मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं 

बूँद को समन्दर में जिसने पा लिया 'हुल्लड़'

साहिलों से फिर उसकी दूरियाँ नहीं होतीं


कोई सुख-दुख आपको तब छू नहीं सकता 

कभी ज़िन्दगी को एक अभिनय-सा निभाना सीख लो

इस संग्रह की ग़ज़लों का सर्वाधिक सशक्त पक्ष है इन ग़ज़लों की भाषा। कवि-सम्मेलनों से सम्बद्ध रहने के कारण सम्प्रेषणीयता के मुहावरे से हुल्लड़ जी बखूबी परिचित हैं। यही कारण है कि इन गजलों की भाषा अपने समय और जीवन से जुड़ी भाषा है। इनमें समाहित प्रतीक भी ज़िन्दगी से जुड़े हुए हैं। अपने गिर्द फैले परिवेश को चित करने में इन ग्रहों का शैल्पिक सन्दर्भ पूर्ण समर्थ है। मुझे विश्वास है. हुल्लड़ जी के पाठक, श्रोता और दर्शक ही नहीं, ग़ज़ल के सुधी पाठक भी इस संग्रह का जानदार और शानदार स्वागत करेंगे।


✍️ डा० उर्मिलेश

रीडर एवं शोध-निर्देशक

हिन्दी-विभाग

नेहरू मेमोरियल शि० ना० दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बदायूँ (उ० प्र०)

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डॉ मनोज रस्तोगी

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मुरादाबाद 244001

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