इन दिनों हिन्दी कविता के क्षेत्र में ग़ज़ल ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया है। इधर हिन्दी में अनेक कवि ग़ज़लें कह रहे हैं। किंतु हास्य कवियों में बहुत ही कम ऐसे कवि हैं, जिन्होंने ग़ज़ल विधा में अपनी बात को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करके और ग़जल में 'ग़ज़लियत' को सुरक्षित रखते हुए कहा हो; किंतु हास्य रचनाकार हुल्लड़ मुरादाबादी ने हिन्दी कविता की अन्य विधाओं और रूप-पद्धतियों में तो अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल भारत में वरन् भारत के बाहर भी लोगों के मन को गुदगुदाया है और प्रफुल्लित किया है, वरन् अपनी ग़ज़लों के माध्यम से भी उन्हें आनन्दित किया है। उन्हें ग़ज़ल की अच्छी पकड़ है। 'शे'रियत' पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। वे हास्य और व्यंग्य के कवि हैं, अतः वे व्यंग्य को मीठी चाशनी में लपेटकर अपने अशआर को कुछ उस ढंग से सौंपते हैं, जिसे पाकर कोई भी आनन्दित और उल्लसित हो उठे।
गंभीर रूप से ग़ज़ल-लेखन से जुड़े ग़ज़लकारों ने सामान्यतः अपनी शायरी को 'प्रेम' पर ही केन्द्रित रखा या फिर वह 'इश्क मिज़ाजी' से होते हुए 'इश्क हक़ीक़ी' की तरफ बढ़ी, किंतु बाद के ग़ज़लकारों ने आम ज़िन्दगी की समस्याओं को भी अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया, जिनमें राजनीति, धर्म और संस्कृति, समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और साहित्यिक वातावरण भी मुख्य हैं। दुष्यन्त और उनसे पहले भी हिन्दी-ग़ज़ल में प्रेम की आँच के साथ-साथ उस आग का भी जिक्र हुआ जिसकी लपटें आम आदमी को किसी-न-किसी प्रकार से झुलसा रही हैं। 'ग़मे जानाँ' से 'ग़मे दौरां' तक ग़ज़ल की यात्रा हुई। विभिन्न सोपानों एवं राहों से निकलते हुए ग़ज़ल का अनुभव बढ़ा। उसने अनेक दशाओं एवं दिशाओं को आत्मसात किया। हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़ले भी भारतीय समाज की मनः स्थितियों में प्रवेश करके, उनमें टहलकर, घूम फिरकर और 'फिक्र' से जुड़कर अपनी बात कहती है।
वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की बड़ी दुर्दशा हुई है। राजनीतिज्ञ राजनीति में से नीति को निकालकर बाहर फेंक चुके हैं। नैतिकता ढूँढे नहीं मिलती। इसी कारण राजनेता जो कभी आदर के पात्र थे, अब व्यंग्य के विषय बन गये हैं। उनकी फ़ितरत में धोखेवाजी और स्वार्थपरता आकर समा गई हैं। हुल्लड़ मुरादाबादी ने यों तो बहुत-से अशआर वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों पर कहे हैं, किंतु जो शे'र यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, वह व्यंग्य-विधा की दृष्टि से बड़ा ही पुष्ट और अनूठा है
"दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटरों के लिए
इसको कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा"
उक्त शेर में दो बातें दृष्टव्य है। एक तो 'दुम हिलाने की प्रक्रिया और दूसरी "भेड़िया हो जाने की बात 'दुम हिलाने की प्रक्रिया से जो चित्र उभरता है, वह कुत्ते का है और भेड़िया तो भेड़िया है ही -खुंखार और कपटपूर्ण व्यवहार करने का प्रतीक। जो लोग चित्रकला में 'कार्टून विधा से परिचित हैं, वे लोग जानते होंगे कि 'कार्टूनिस्ट' जब किसी व्यक्ति का कार्टून बनाता है तो उसके भीतरी स्वभाव को पशुओं की आकृति को सांकेतिक छवियों से भी चित्रित करता है। अच्छे व्यंग्यकारों को भी इसकी समझ होती है। हुल्लड़ मुरादाबादी व्यंग्य के इस साधन से भलीभाँति परिचित है। इसी कारण उन्होंने इस शेर में राजनीतिज्ञों का शाब्दिक 'कार्टून बनाने का प्रयास ही नहीं किया, वरन बड़ी ही सफलता से उसे चित्रित भी किया है। राजनीतिज्ञों के चेहरे में भेड़ियों का चेहरा उभर आना, अपने आप में इस बात का प्रमाण भी है। राजनीतिज्ञों और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कुछ और भी अच्छे शेर कहे है
"लीडरों के इस नगर में है तेरी औकात क्या
अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायेगा"
बात करते हो तुम सियासत की
वो तो पक्की छिनाल है दद्दा
राजनीतिज्ञों द्वारा आम जनता के शोषण की बात को जिस ढंग से और जिस शब्दावली में हुल्लड़ जी ने कहा है वह भी अत्यंत रोचक, किंतु गंभीर है। व्यंग्य के साधनों में अच्छे व्यंग्यकार श्लेष से भी काम लेते हैं। हुल्लड़ जी ने इस एक शेर में इसी पद्धति से अच्छा काम लिया है। वे कहते हैं
"यह तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना
फ़िक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं"
यहाँ 'आम जनता' में 'आम' शब्द का प्रयोग दुतरफा है। 'आम' फल भी है जिसे चूसा जाता है और 'आम जनता' भी जिसे चूसा जा रहा है। यहाँ श्लेष प्रयोग की पद्धति से हुल्लड़ जो ने इस शेर को व्यंग्य की दृष्टि से बहुत ऊँचाई दे दी है। शब्दावली ऐसी जो हंसाए और शब्दों के अर्थ में ऐसी करुणा कि आदमी भीतर-ही भीतर रो उठे। यहीं यह बात भी कहना चाहूँगा कि व्यंग्य का वास्तविक आधार करुणा है। वह तो आंसू को हंसी बनाकर पेश करता है, या यों कहें कि हँसी के भीतर आँसू को इस तरह से विठाता है कि हंसी का पर्दा हटते ही आँसू दिखाई दे जाये। आज के समय में देश की अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है। महँगाई फन फैलाए खड़ी है। आम आदमी ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहा कवि हुल्लड़ का काम केवल हंसाना ही नहीं है, वरन मर्मस्पर्शी स्थितियों का साक्षात्कार कराना भी है। आज के आम आदमी या निम्न-मध्यवर्गीय परिवार को संबोधित करते हुए वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कितनी अधिक अनुभव को सच्चाई और विवशतापूर्ण छटपटाहट है
"जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू
रोज़ ही क्यों सर मुंडाना चाहता है।"
यहाँ सर मुंडाने के प्रचलित मुहावरे से कवि ने आर्थिक शोषण को समझाने का प्रयास किया है। यह व्यवस्था मांसाहारी है, शाकाहारी नहीं। यह खून पीने में विश्वास रखती है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए हुल्लड़ जी इस प्रकार शेर कहते हैं
"यह व्यवस्था खून चूस लेगी तुम्हारा
शेर को ककड़ी खिलाना चाहता है"
यहाँ भी वही बात। उन्होंने 'व्यवस्था' शब्द में 'मानवीकरण' का प्रयोग किया है और इस प्रकार व्यवस्था को एक इनसान का रूप दिया गया है, और बाद में उस व्यवस्था के चेहरे में 'शेर' के चेहरे का भी रेखांकन किया गया है। यहाँ भी कार्टून शैली में ही अभिव्यक्ति हुई है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ एक नये मुहावरे का भी गठन किया है-'शेर को ककड़ी खिलाना'। अच्छे रचनाकार बात-बात में ही नये मुहावरे गढ़ जाते हैं और उन्हें स्वयं पता भी नहीं चलता कि वह नया मुहावरा गढ़ गए। इस शेर के साथ भी यही हुआ है।
हुल्लड़ जी का ध्यान आज की व्यवस्था (Administration) और उसकी विद्रूपताओं पर भी गया है। आजकल समाज व्यवस्था को 'माफिया' व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा शासन व्यवस्था भी धीरे-धीरे माफियाओं के हाथों में आती जा रही है। इस सम्बंध में हुल्लड़ जी का एक शे'र देखें
"हर तरफ हिंसा, डकैती, हो रहे हैं अपहरण
रफ्ता-रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा"
पूरे समाज में 'रिश्वतखोरी', 'भाई भतीजावाद' का बोलबाला है। इस सच्चाई की ओर भी कवि का ध्यान गया है और वह साफ शब्दों में कह उठता है
"बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को
क्यों नदी में घर बनाना चाहता है"
ग़ज़ल के शे'र में शे रियत तब पैदा होती है जब उसे सही मिसाल (उपमा) मिल जाय-ऐसी उपमा जो कथ्य को उभारकर बाहर ले आये। सिफ़ारिश के बिना नौकरी मिलने की नामुमकिन कहानी को नदी में घर बनाने की मिसाल देकर स्पष्ट किया है। साहित्यिक क्षेत्र में होने वाली अवमाननाओं और अवमूल्यनों पर दृष्टिपात करते हुए संकेत से उधर भी इशारे किए गए हैं। आजकल कवि-सम्मेलनों में अधिकतर हास्य कवि घिसे-घिसाए पुराने चुटकुलों के सहारे जमे बैठे हैं, जबकि कविता से उनका दूर-दूर का भी सम्बंध नहीं है। हुल्लड़ जी ऐसे कवियों पर और ऐसे मंचों पर सीधी चोट करने हुए कहते हैं
"गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले
रो रहा है मंच पर ह्यूमर, सेटायर आजकल"
यह तो रही अलग-अलग परिस्थितियों की बात किंतु हुल्लड़ जी ने मानव-मात्र पर भी व्यंग्य किए हैं जो कहने को तो बहुत सभ्य हो गया है, किंतु आज भी उसकी फितरत वही है जब वह बंदर था। क्योंकि आदमी जितना आदमी के खून का प्यासा हुआ है, जानवर भी नहीं है। हुल्लड़ जी कहते हैं—
“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी
है हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल"
हुल्लड़ जी ने, वर्तमान समाज में जो मूल्य-विघटन हुआ है, नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है, उसे भी अच्छी प्रकार से देखा और समझा है और इसलिए । और आह के साथ वो कह उठते हैं कराह
"क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे
उम्रभर क्या घास खाना चाहता है"
आज के समय में सिद्धांत किसी का पेट नहीं भरते। उल्टे उसे मूर्ख साबित करते हैं। यदि हुल्लड़ जी चाहते तो उक्त शे'र में कहीं भी 'गधे' शब्द का प्रयोग करके गधे का लाक्षणिक अर्थ 'मूर्ख' व्यक्त करने में सफल हो जाते, किंतु जगह-जगह पर 'गधा', 'उल्लू' आदि कहने से एक बड़ा घिसा-पिटापन आ जाता है। अतः उन्होंने इस शब्द का प्रयोग न करके ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जिससे 'गधे' का ही अर्थ निकलता है। 'उम्रभर क्या घास खाना चाहता है' में घास खाने की प्रक्रिया विशेष रूप से 'गधे' से जुड़ी है, अतः कवि का अभिप्राय समझ में आ जाता है कि क्या तू हमेशा "गधा' ही बना रहना चाहता है ? साथ ही घास खाने वाली बात के माध्यम से अनजाने ही एक प्रसंग जुड़ जाता है और वह है महाराणा प्रताप का प्रसंग, जिन्होंने अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए घास की रोटी खाना स्वीकार किया था। इस कथा से भी यही व्यंजना निकलती है। जब कवि सिद्ध हो जाता है तब ही इस प्रकार की शब्दावली और व्यंजनाओं का प्रयोग कर पाता है। और यह सत्य है कि कविवर हुल्लड़ में यह सिद्धहस्तता है।
ग़ज़ल के शेर जितने ही अनुभव के करीब होते हैं, उतने ही वे बड़े और महान होते जाते हैं तथा उद्धरण देने योग्य भी। हुल्लड़ की ग़ज़लो में अधिकतर अशआर उन्हें अनुभव की विरासत से ही मिले हैं। कुछ उदाहरण देखें
दोस्तों को आजमाना चाहता हैं
घाव पर फिर घाव खाना चाहता है।
जो कि भरता है ज़ख्म दिल के भी
वक्त ही वो 'डिटॉल' है दद्दा
घाव सबको मत दिखाओ तुम नुमाइश की तरह
यह अकेले में सही है गुनगुनाने के लिए।
देखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोई
लोग मौका ढूंढते हैं काट खाने के लिए
इतनी ऊँची मत छोड़ो गिर पड़ोगे धरती पर
क्योंकि आसमानों में सीढ़ियाँ नहीं होतीं।
हुल्लड़ मुरादाबादी ने ग्रामीण बोध से हटते हुए लोगों और महानगरीय संवेदनाओं में फंसे हुए इनसानों एवं उनकी फितरतों पर भी टिप्पणी की है
“यह तो पानी का असर है तेरी ग़लती कुछ नहीं
बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा "
यहाँ 'बम्बई' महानगर सम्पूर्ण महानगरों की परिस्थितिजन्य विवशताओं की ओर संकेत करता है और उसी में महानगरीय संस्कृति पर भी व्यंग्य करता है। हुल्लड़ जी ने यों तो बहुत से अच्छे शेर कहे हैं, किंतु जो शेर शायद लोगों की जुबान से कभी नहीं हटेगा और लोगों के ज़ेहन में हमेशा रहेगा वह यह दार्शनिक शे'र है
"सबको उस रजिस्टर में हाज़िरी लगानी है।
मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं"
लगता है जैसे कि यह शेर कोई हास्य का कवि नहीं, वरन् कोई ‘फ़िलॉसफर कह रहा है। ऐसे अशआर सुनकर या इसी प्रकार की कविताओं को पढ़ या सुनकर हो शायद कवि के बारे में यह कहा गया है वह फ़िलॉसफ़र भी होता है। हुल्लड़ के व्यक्तित्व में खुद्दारी का गुण अपना एक विशेष गुण है। अतः उनको खुद्दारी से जुड़ा हुआ एक और शे'र भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है
“मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का
मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए"
हुल्लड़ जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि हैं। अतः उन्होंने शिल्प की दृष्टि से अपने कथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए ग़ज़ल का चुनाव करने पर भी, ऐसी शब्दावली को नहीं छोड़ा है जो स्वतः हास्य की प्रेरणा देती है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में यों तो स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द सहज रूप से आने दिए हैं, जिनमें से हास्य की किरणें फूटती हैं, किंतु मुख्यतः रदीफ़ तथा काफ़िया के स्थान पर ऐसे शब्दों के प्रयोग से यह हास्य की छटा और भी अधिक निखरी है; उस दृष्टि से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं--
"जोकि भरता है जख्म दिल के भी
वक्त ही वो डिटॉल है दद्दा "
“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी
हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल "
मेरे शेरों में आग है हुल्लड़
उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा'
इसी प्रकार उपर्युक्त शेरों में रेखांकित( बोल्ड ) शब्दों पर गौर कीजिये। निश्चय ही ये शब्द ऐसे हैं जिन्हें सुनकर और पढ़कर रसिकों को हँसी आ जाएगी। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी ऐसा हुआ है। एक ग़ज़ल में 'भानजे' शब्द का रदीफ़ लेकर महाभारत 'शकुनि' का चित्र और उसकी चालों की ओर संकेत किया है और हँसी हंसी में व्यंग्य की पैनी धार को भी आने दिया है।
इस प्रकार कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें एक ओर ग़ज़लों के व्याकरण उनके क़ायदे-कानूनों पर खरी उतरती हैं तो दूसरी ओर वे व्यंग्य की दृष्टि से बहुत सफल और सार्थक हैं। वे कभी 'कैरिकेचर' द्वारा व्यंग्य की सृष्टि करती हैं, तो कभी 'उपहास-शैली' की सशक्त परम्परा का निर्वाह करके उसे नये आयाम देती हैं, कभी विडम्बन (irony) द्वारा किसी सामाजिक या अन्य विषयक विकृति को उकेरती हैं, कभी 'श्लेष-पद्धति' द्वारा हास्य पैदा करके व्यंग्य के विभिन्न सोपानों पर ऊँचाइयाँ पा रही हैं। व्यंग्य के शिल्प से हुल्लड़ जी भलीभांति परिचित हैं, अतः उन्होंने जहाँ जिस प्रकार की व्यंग्य-शैली और व्यंग्य-भाषा की आवश्यकता है, वहाँ वैसी ही भाषा और शैली प्रयोग किया है और यह प्रयोग बड़ी सफलता से किया है। इन ग़ज़लों द्वारा कवि हुल्लड़ जी ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर इन ग़ज़लों के द्वारा वे अच्छे ग़ज़लकारों में अपना नाम लिखवा रहे हैं तो दूसरी ओर इन ग़ज़लों द्वारा एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार की छवि भी बनाने में सफल हुए हैं। उनकी ग़ज़लें आज के समाज व यथार्थ चित्र हैं—ऐसा यथार्थ चित्र जो एक ओर तो हमारे हृदय को भीतर-ही-भीतर उद्वेलित करता है तो दूसरी ओर हमें यह प्रेरणा भी देता है कि हम अपने-आप सुधारें और पूरा समाज से उन विकृतियों को हटाएँ जो हमारी सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को रोग-ग्रस्त कर रही हैं। कविवर हुल्लड़ की ये ग़ज़लें सचमुच ही अंधकार में टहलती हुई चिंगारी की तरह हैं; वे मानवता की पहरेदारी करते हुए उसे जीवित रखने संकल्प हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी श्रेष्ठ और उद्देश्यपूर्ण ग़ज़लों का पाठक भरपूर स्वागत करेंगे।
✍️ कुँअर बेचैन
2 एफ-51 नेहरूनगर
ग़ाज़ियाबाद
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डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
प्रिय भाई कीर्तिशेष हुल्लड़ मुरादाबाद की ग़ज़लों पर बहुत अच्छा व सार्थक आलेख लिखा है कीर्तिशेष डॉ कुंअर बेचैन जी ने।उनका आलेख हुल्लड़ जी के लेखन की गुणवत्ता के नये आयाम शब्दांकित करता है।प्रशंसनीय। -- डॉ सुभाष वसिष्ठ,नई दिल्ली।
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