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गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा -------क्या ये घर मेरा नही ?


अनिता के विवाह को आठ वर्ष बीत चुके थे। इन आठ वर्षों के दरमियाँ वह दो बच्चों की माँ बन चुकी थी।पति शैलेश से उसकी कोई शिकायत न थी।

कुल मिला कर उसका हंसता-खेलता परिवार था।अगर किसी को उससे शिकायत थी, तो वह थीं उसकी सासू माँ। न जाने वह अनिता से क्या चाहती? कभी उसके किसी काम से संतुष्ट नही रहतीं।चाहे वह उनके लिये कितना कुछ करती।शुरू में तो अनिता जरा-जरा सी उनकी बात दिल पर ले लेती।करती भी क्या, आखिर उसके अपने पीहर में तो ये कभी नही देखा था उसने। उसके भी माँ ,ताई, चाची, भाभी सभी साथ रहते ,संयुक्त परिवार था उसका। कब हंस-बोल कर समय निकल जाता पता ही नही चलता।यहाँ आ कर उसे शुरू में बड़ा अखरा।एक तो इकलौती बहु थी वह उस घर की।उस पर सासू माँ की उससे यही अपेक्षा रहती कि वह सबकी अपेक्षाओं पर खरी उतरे।दिन बीतते गये।अनिता के बच्चे भी बड़े हो गये थे।लेकिन अनिता और उसकी सास आपस में कभी सामंजस्य नही बना पाये।आखिरकार अनिता ने शैलेश से रसोई अलग करने की बात कह ही दी।उसका कहना भी सही था, कि बच्चे बड़े हो रहे हैं, इन रोज-रोज की लड़ाई-झगड़ों का उन पर क्या असर पड़ेगा।शैलेश ने अपने पिता से इस बारे में बात की।वह अपनी बहू को अच्छी तरह समझते थे।आखिरकार वह इस बात के लिये राजी हो गये।अनिता अलग हो चुकी थी ।फिर भी कभी उसके मन में ये सवाल कौंध जाता, कि जिस घर के लिये मैने इतना कुछ किया, क्या वो घर मेरा नही था, क्या वो मेरे अपने नही थे।   

 ✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा -----दीमक


रुपाली एक कामकाजी महिला थी।जल्दी जल्दी सुबह का काम निबटा कर बैंक चली जाती। शाम को आते आते 6 बज जाते।आते ही फिर उसके आगे काम का पिटारा खुल जाता।इसी समयाभाव के कारण वह घर की साफ सफाई पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाती।काम वाली अपनी मर्जी से काम पूरा कर चली जाती।बचता रविवार का दिन यही दिन था, जो रुपाली को घर की पूरी सफाई के लिये मिलता।

       ऐसे ही एक रविवार रुपाली अपने घर की सफाई कर रही थी।देखती क्या है, उसकी मौडयूलर किचन की वार्डरोब को दीमक लग गया है और उसने अंदर ही अंदर उसे खोखला भी कर दिया है। आनन फानन रुपाली ने गूगल पर सर्च कर दीमक के उपचार ढूंढने शुरू किये और उन्हें अपनाना शुरू किया।कुछ दिनों में दीमक तो चली गयी लेकिन उसके निशान रह गये। रुपाली जब भी उस वार्डरोब को देखती सोचती क्या आज भी हमारे समाज में फैली कुरीतियां , अंधविश्वास इस दीमक की तरह नहींं है,जो अंदर ही अंदर उसे खोखला कर रहे हैं। ऐसा खोखला जिसकी क्षतिपूर्ति करना मुश्किल ही नहींं नामुमकिन है।

✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

रविवार, 1 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की रचना --- बाकी


आँखो से उस पार ,देखा है मैने सब कुछ ।

कुछ खो कर पाया है ,कुछ पा कर खोना बाकी है ।

किसी का कुछ देना बाकी है ,किसी का कुछ लेना बाकी है ।

तम को चीरता प्रकाश ,अभी उसका गन्तव्य बाकी है ।

बाकी हैं, अभी और वो बहुत सारी मंजिले ।

उन मंजिलो का रहनुमा बनना अभी बाकी है ।

आँखो से उस पार ,देखा है मैने सब कुछ ।

कुछ खो कर पाया है ,कुछ पा कर खोना बाकी है ।

किसी का कुछ देना बाकी है ,किसी का कुछ लेना बाकी है ।

शायद इस बाकी में ही इस जीवन की सत्यता है।

तभी तो सब कुछ पाने के बाद भी कुछ बाकी है ।

माना हसरतें कभी किसी की पूरी नही होतीं।

और पूरी होने के बाद भी कुछ बाकी हैं।

आँखो से उस पार, देखा है मैने सब कुछ ।

कुछ खो कर पाया है ,कुछ पा कर खोना बाकी है ।

किसी का कुछ देना बाकी है ,किसी का कुछ लेना बाकी है।

समय -समय की बात है ,समय -समय के साथ है ।

तभी तो समय के साथ बहुत कुछ बदलना बाकी है ।

बाकी हैं, वो बात जो अभी बाकी हैं।

तेरी -मेरी हम सबकी बात अभी बाकी हैं।

आँखो से उस पार ,देखा है मैने सब कुछ ।

कुछ खो कर पाया है ,कुछ पा कर खोना बाकी है ।

किसी का कुछ देना बाकी है ,किसी का कुछ लेना बाकी है ।

कहने को तो बहुत कुछ कहना अभी बाकी है ।

स्मृतियों के धुंधले पटल पर वो निशां अभी बाकी हैं।

बाकी है,उन स्मृतियों का फिर से विश्लेषण।

लौट के आ जाना वो बीता समय और ,समय के साथ उन बीते लम्हों में जीना अभी बाकी है।

आँखो से उस पार, देखा है मैने सब कुछ ।

कुछ खो कर पाया है ,कुछ पा कर खोना बाकी है ।

किसी का कुछ देना बाकी है ,किसी का कुछ लेना बाकी है ।

✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ---रोटी का मोल


निधि की आँखों में आँसू थे ,वो यही सोच रही थी, कि क्या कभी की कही बातें सच हो जाती है।बचपन में रोटी छोडऩे पर माँ कहती, रोटी छोड़ा नही करते है।बहुत मेहनत से मिलती है, रोटी के लिए तो आदमी इधर से उधर मारा मारा फिरता है।आज इस कोरोना काल में माँ की यही आवाज निधि के कानों में गूंज रही थी।पति की नोकरी छूट चुकी थी, उसे खुद आधा वेतन मिल रहा था।जैसे तैसे तीन बच्चों के साथ घर का गुजारा हो रहा था।आज उसे सचमुच रोटी का मोल पता चल रहा था।

✍️डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ---कर्मों का फल

 


आज सुबह ही मैं अपनी छत पर खड़ी बाहर निहार रही थी ,रात ही तो खूब अच्छी बारिश पड़ी थी ,पार्क के चारो तरफ के पेड़ मानो अपनी हरियाली पर इठला रहे थे जैसे कह रहे हो हमने अपना पुराना कलेवर बदल कर नया कलेवर पहन लिया है दो चार बच्चे पार्क में झूला झूल रहे थे । जब से कोरोना का आतंक लोगो मे बैठा है कम ही लोग बाहर निकलते , न पहले की तरह चहल पहल रहती ,न ही कोई किस्सा गोई ।सब मिलते एक दुसरे का हाल जाना और घरों में अंदर हो जाते तभी मेरी नजर मेघा पर पड़ी ये वो  ही मेघा थी ,जो किसी जमाने मे अपने घर  की रानी हुआ करती थी पढ़ी लिखी देखने में भली लेकिन कर्मों का फल नही तो क्या ,आज दर दर की ठोकरे खाने के लिये मजवूर है ।बच्चों ने घर से बाहर ऐसा निकाला ,कि दोबारा मुड़ कर न देखा।पार्क की एक बैंच पर बैठी वो अकेली झित्रिय के उस पार कुछ ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी लेकिन उसकी सुनी सुखी आँखे उसे धोखा दे रही थी ।मैं खड़ी सोच रही थी ,जब कोरोना काल में इतनी ऐहतियात बरतने के दिशा निर्देश दिए जाते है ,बार बार हाथ धोने मास्क पहनने की हिदायतें दी जाती है ।तो भला इसे ये सब बताने के लिए कौन कहेगा, ये इसे भगबान का सहारा नही तो क्या है ,कि बिना किसी साफ सफाई व सतर्कता के भी ये निश्चत हो अपने कर्मो का फल भोग रही है ।सच ही कहा गया है कर्मो का फल आज नही तो कल भोगना अवश्य पड़ता है

✍️शोभना कौशिक, बुद्धि विहार , मुरादाबाद