आज सुबह ही मैं अपनी छत पर खड़ी बाहर निहार रही थी ,रात ही तो खूब अच्छी बारिश पड़ी थी ,पार्क के चारो तरफ के पेड़ मानो अपनी हरियाली पर इठला रहे थे जैसे कह रहे हो हमने अपना पुराना कलेवर बदल कर नया कलेवर पहन लिया है दो चार बच्चे पार्क में झूला झूल रहे थे । जब से कोरोना का आतंक लोगो मे बैठा है कम ही लोग बाहर निकलते , न पहले की तरह चहल पहल रहती ,न ही कोई किस्सा गोई ।सब मिलते एक दुसरे का हाल जाना और घरों में अंदर हो जाते तभी मेरी नजर मेघा पर पड़ी ये वो ही मेघा थी ,जो किसी जमाने मे अपने घर की रानी हुआ करती थी पढ़ी लिखी देखने में भली लेकिन कर्मों का फल नही तो क्या ,आज दर दर की ठोकरे खाने के लिये मजवूर है ।बच्चों ने घर से बाहर ऐसा निकाला ,कि दोबारा मुड़ कर न देखा।पार्क की एक बैंच पर बैठी वो अकेली झित्रिय के उस पार कुछ ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी लेकिन उसकी सुनी सुखी आँखे उसे धोखा दे रही थी ।मैं खड़ी सोच रही थी ,जब कोरोना काल में इतनी ऐहतियात बरतने के दिशा निर्देश दिए जाते है ,बार बार हाथ धोने मास्क पहनने की हिदायतें दी जाती है ।तो भला इसे ये सब बताने के लिए कौन कहेगा, ये इसे भगबान का सहारा नही तो क्या है ,कि बिना किसी साफ सफाई व सतर्कता के भी ये निश्चत हो अपने कर्मो का फल भोग रही है ।सच ही कहा गया है कर्मो का फल आज नही तो कल भोगना अवश्य पड़ता है
✍️शोभना कौशिक, बुद्धि विहार , मुरादाबाद
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