दिल से दिल की बात सुन, दिल से कर विश्वास। दिल से बड़ा न बावरा, दिल से बड़ी न आस।। 1।।
माना मुद्दा है बड़ा, अफवाहें भी तेज़।
दिल थामे पढ़ते रहो, बदल बदल कर पेज।।2।।
अपनी-अपनी कह रहे, चूहे, बिल्ली शेर।
आया गीदड़ पढ़ गया, और किसी के 'शेर'।।3।।
लोरी सुनकर सो गये, सभी बुरे हालात।
देखे विपदा नींद में, सपनों की हर रात।। 4।।
सुख सूने इस गाँव में, दुःख नदिया उस पार।
चले राम वनवास को, कहने को अवतार।। 5।।
सावन बोला नैन से, तू कितनी चितचोर।
मैं तो बरसूं कुछ घड़ी, तू हर दिन घनघोर।।6।।
छोड़ वसीयत जा रही, अब पीढ़ी गुमनाम।
आंगन, तुलसी, वंदना, हाथ जोड़ प्रणाम।।7।।
क्या चिंता अवसान की, लिख जीवन के गीत।
बूँद भला कब सोचती, धरती, सावन, मीत।।8।।
आती जाती है हवा, आता जाता रूप।
पल दो पल की सांस है, पल दो पल की धूप।। 9।।
बाग़ी जंगल हो गया, ठंडी पड़ी दहाड़।
पदवी छीनी शेर से, चींटी चढ़ी पहाड़।। 10।।
युग युग की यह सीख है, रच अपनी तस्वीर।
बढ़ना है तो खींच ले, तू भी बड़ी लकीर।। 11।।
धन, दौलत, यशगान में, समझा जिसे अमीर।
हाथ पसारे वो चला, बनकर एक फ़कीर।। 12।।
बहुत बड़ी यह साधना, घर है जिसका नाम।
इसे अवध काशी कहूँ, या वृन्दावन धाम।। 13।।
खुशहाली घर में रहे, हरियाली मन मोर ।
है जीवन की कामना, वृंदावन चहुं ओर।। 14।।
लिखा हुआ क्या भाग्य में, यह जाने करतार।
कर्म-मार्ग पर बढ़ चलो, खुल जाएंगे द्वार।। 15।।
सूने इस संसार में, कौन किसी के संग।
बड़ी मित्र है लेखनी, फूटे क़ाग़ज़ रंग।। 16।।
सागर मन की सुन ज़रा, बढ़ती जाये पीर।
आँसू सूखे नयन से, भाप उड़े सब नीर।। 17।।
शब्द सरीखी भावना, शब्द सरीखा प्यार।
शब्द शब्द अनमोल है, अद्भुत ये संसार।। 18।।
किसी तीर से कम नहीं, शब्दों की ये मार ।
सोच समझकर बोलिये, इसके दर्द अपार।।19।।
लिख-लिखकर कागज धरे, पढी सुनी कब बात।
अपना दिल कहता रहा, बंद ज़िल्द जज़्बात।। 20।।
रोते-हँसते आ गई, जीवन की लो शाम ।
मधुर-मधुर संगीत है, अधरों पर हे राम।।21।।
पास पास सब दूर हैं, दूर दूर सब पास।
इस आभासी जगत में, जुमलों में उल्लास।। 22।।
बस्ती अपनी छोड़कर, भोगा यूँ वनवास।
घट घट जल पीते रहे, बुझी नहीं वो प्यास।।23।।
अंबर से आँचल गिरा, गई नैन से लाज।
मौन हवा कहने लगी, धरती के सब राज़।। 24।।
तुम तो सावन सी रही, मेघों की मल्हार।
दिल अपना भादो रहा, राधे राधे प्यार।। 25।।
लिखा कील के भाग में, सहे हथौड़ा छेद।
दीवारें यह सोचती,खुले सभी अब भेद।। 26।।
आई चाभी ले गई, मन का सब विश्वास।
खुले खुले तब द्वार थे, ताले पड़े उदास।। 27।।
कोई भी टिकता नहीं, बदले सबका रूप।
बचपन, यौवन कह गये, अब क़ाग़ज़ की धूप।।28।।
अपनी अपनी वेदना, अपना ही संताप।
बाहर बाहर सब हँसें, अंदर रोवें आप।। 29।।
एक कली मासूम सी, करती क्या वो बैर।
फूलों के है हाथ में, खुद अपनी ही ख़ैर।। 30।।
आई रात तो सो लिये, दिन निकले ही काम।
घट घट सागर पी गया, नदिया का आराम।। 31।।
मन मंदिर के सामने, खुद ही हम करतार।
मगर जानते ही नहीं,क्या अपना किरदार।। 32।।
आंगन टेढ़ा सब कहें, नाचन को संसार।
दिखे कमी खुद में नहीं, औरन में भरमार।। 33।।
जो भोगा सो कह दिया, कह दी अपनी रीत।
छोटा सा है ये सफ़र, रखिये सबसे प्रीत।। 34।।
जब तक है जाने जहाँ, करते रहिये काम।
बोझ बनी ज्यूँ ज़िन्दगी, घर के घर नीलाम।। 35।।
शीशी भरी गुलाब थी, और मित्र थे इत्र
गंध कहीं वो उड़ गई ,रहे नहीं वो चित्र।। 36।।
यह बस्ती है संत की, देता किसको सीख
चलो कबीरा घर चलें, मांगें सुख की भीख।। 37।।
मीर कहो ग़ालिब कहो, तुलसी या फिर सूर।
चमचों के है हाथ में, शहंशाहे हुज़ूर।। 38।।
क़ाग़ज़ पर लिखते रहे, सभी यहाँ पर फूल।
देखी जो बगिया कभी, नफरत के थे शूल।। 39।।
ये उदासी शाम लिए, जाता कहाँ किशोर।
धीरज रख तू राम सा, माधव सा मन मोर।। 40।।
शोध किये बाहर सभी, भूले घर परिवार।
घर है मीठी चाशनी, इससे सब त्योहार।।41।।
बदल गई आबो हवा, बदले सभी उसूल।
वर्जित चीजें हो गई, सब की सब अनुकूल।। 42।।
वनवासी संसार में, कौन किसी का राम।
चले अकेले अवधपति, लड़ने को संग्राम।। 43।।
मुद्दत से जाना नहीं, क्या अपना क़िरदार।
एक रूप में सब बसें, फूल शूल ओ' प्यार।। 44।।
क्या लिखते क्या सोचते, क्या कहते हैं आप।
नज़र उठाकर देखिये, सभी यहाँ पर 'बाप' ।। 45।।
जाने किसके भाग से, साँसें हैं अवशेष।
अभिशापों से क्यों डरें, हाथों में लग्नेश।। 46।।
मधुर मधुर वाणी भली, मधुर मधुर संसार।
क्यों फिर मन के द्वार पर, नफ़रत पहरेदार।। 47।।
ढाई अक्षर प्रेम का, लिखते सौ-सौ बार।
नफ़रत के बस चार ही, सीने के उस पार।।48।।
बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।
माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।। 49।।
हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार।
कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।। 50।।
हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।
खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।। 51।।
दिल सबका है जानता, अंदर कितनी खोट।
पोल खुले दीवार की, कील करे जब चोट।। 52।।
क्या देखें हम क्या पढ़ें, यही समय का लोच।
सारा जग ज्ञानी भया, अब आगे की सोच।। 53।।
मकड़ी ने जाला बुना, चींटी चढ़ी पहाड़।
गिरा आँख से आदमी, नकली सभी दहाड़।। 54।।
सूरज तब नादान था, चंदा भी शैतान।
संग संग मेरे चले, भूले सभी जहान।। 55।।
माँ से बड़ा श्रम नहीं, और पिता से ताप।
मजदूरी ऐसी मिली, जीवनभर संताप।। 56।।
चार चार में चार हैं, धर्म, वर्ण निष्काम।
चार पलों में कह गए, चार चरण सुख धाम।। 57।।
आँखों-आँखों में हुये, सब गुनाह मंजूर।
घर चौखट को देखिये, हम कितने मजबूर।। 58।।
धूल भरी हैंआँधियाँ, उड़ते छप्पर ताज।
कब किसके टिकते यहाँ, राज,काज,ओ साज।।59।।
आभासी संसार में, आँगन आँगन शोर।
कोयल खींचे सेल्फी, करता लाइव मोर।। 60।।
मर्यादा के कान में, पिघला शीशा रात।
नया नया परिवेश है, आँचल ढूँढे वात।। 61।।
पिघल पिघल कर मोम ने, कह दी अपनी पीर।
ठंडा ठंडा जिस्म है, पल दो पल के नीर।। 62।।
बैठ जा कभी दो घड़ी, कर ले खुद से बात।
धन दौलत ये नौकरी, पल दो पल की रात।। 63।।
एकाकी जीवन हुआ, घर में अब वनवास
कलयुग में भी देखिए, त्रेता सम उपवास।। 64।।
घर से बड़ी दवा नहीं , तन से बड़ा न काम।
मन से बड़ा न राज़ है, सेहत चारों धाम।। 65।।
साँसों से होती रही, तन की जब तकरार।
तभी सामने आ गया, जिस हाथों पतवार।। 66।।
तन से बड़ी न नौकरी, मन से बड़ा न बॉस
कहे सूर्य संसार से, कभी न छोड़ो आस।। 67।।
हुरियारी हर दिन रहे, बरसे रंग गुलाल।
होली कहती ज़िन्दगी, रखना इसे सँभाल।। 68।।
फीके फीके रंग हैं, फीकी फ़ाग फुहार।
बस कविता में रह गए, होली के क़िरदार।। 69।।
ओह जानकी भाग में, क्या तेरे संताप।
हर युग में तूने सहा, ताप ताप बस ताप।। 70।।
उबल रहा था दूध भी, घुमड़ रहे थे भाव।
संकट में दो जान थीं, कौन न खाए ताव ।।71।।
कौन न खाए ताव, बड़ी थी मन में दुविधा।
कवि युगल परेशान, कहीं से आये सुविधा।।72।।
कहे सूर्य कविराय, वीर-गीत का रस प्रबल।
कह देते दूध से, अरे सीमा पार उबल।। 73।।
प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते, हरा भरा परिवार।
छोटी सी है यही जिंदगी, सब अपना संसार।। 74।।
टप-टप-टप ओले गिरे, कांपे थर-थर गात।
सब दलों में द्वंद्व है, तू ने की बरसात।। 75।।
जुमलों की इस जंग में, हार गए अल्फ़ाज़
काँव काँव कोयल करे,कौओं के सर ताज।। 76।।
आये चुनाव हो लिए, हम तो उनके साथ।
अब तो भगवन आप हैं, लोकतंत्र के नाथ।। 77।।
सबके सब चलते रहे, शकुनी जैसी चाल।
गौण हुए मुद्दे सभी, चौपड़ पर सुर-ताल।। 78।।
वेश बदलते जो यहाँ, लेते नव-अवतार।
आज उन्हीं की जेब में, टिकटों का संसार।। 79।।
बन दूल्हा मेंढक चला, कह मौसम का हाल।
आ रही है तेज घटा, लोकतंत्र की चाल।। 80।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत