दीपिका छंद विधान
दीपिका छंद दोहा विधा में लिखा हुआ छंद है, जो पांच दोहों से मिलकर निर्मित होता है। इसमें दोहा विधा के सारे विधान सम्मिलित हैं। इसका विस्तार पहले दोहे के अंतिम चरण को दूसरे दोहे के प्रथम चरण के रूप में परिवर्तित कर के किया जाता है, अर्थात् दोहे की अंतिम चरण में 11 मात्राएं होती है यदि हमें उसे अगले दोहे का प्रथम चरण बनाना है तो हमें उस में 13 मात्राएं बनाने के लिए 11 प्लस दो मात्राएं बढ़ा देने पर दूसरे दोहे का प्रथम चरण बन जाएगा।
इसमें यह ध्यान रखना जरूरी है कि पहले दोहे की अंतिम चरण की 11 मात्राओं के बाद आपको दो मात्रा बढ़ानी हैं। ऐसी दो मात्राएं, जिससे हम दूसरे दोहे का विस्तार पहले दोहे के संबंध में ही कर सके जैसे-
भँवरें गुंजन कर रहे, कल कल बजता साज।
केसू सिन्दूरी खिले , महके यूँ गिरिराज ॥
महके यूँ गिरिराज हैं,किया पुष्प सिंगार।
शीश चाँदनी ओढ़ के, धरा हुई तैयार॥
धरा हुई तैयार जब, खिली सुनहरी धूप।
चम-चम-चम-चम चमकता, निखरा-निखरा रूप॥
निखरा-निखरा रूप ले, ढूंढ़े मन का मीत।
राहों में गाती चले, मीठे-मीठे गीत॥
मीठे-मीठे गीत से, गूंजा सारा व्योम।
बूँद-बूँद तन में घुले, बरसा मादक सोम॥
दीपिका छंद कई रस मे लिखे जा सकते हैं जैसे शृंगारिक दीपिका छंद ,भक्तिमय दीपिका छंद ,विरह दीपिका छंद ,ओजमयी दीपिका छंद
दीपिका छंद के पांचों दोहे एक दूसरे से जुड़े हुए होने चाहिए। दीपिका छंद की सुंदरता बढ़ाने के लिए इसमें युग्म शब्दों का और अालंकारिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए।जैसे युग्म शब्द
मीठे-मीठे गीत से, गूंजा सारा व्योम।
बूँद-बूँद तन में घुले, बरसा मादक सोम॥
अालंकारिकभाषा
चम-चम-चम-चम चमकता, निखरा-निखरा रूप॥
इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करने का प्रयास किया गया है
दीपिका छंद कई प्रकार के लिखे जाते हैं। इसमें सभी दोहे का चरणान्त एक ही वर्ण से होता है। जैसे-
मृग तृष्णा में भटकता , मन है बहुत अधीर।
मैया को पहचान के , धर लो मन में धीर।।
धर लो मन में धीर तो, मिट जाये सब पीर।
जो मन में मैया बसे, नैन न आये नीर।।
इसमें सभी दोहों का चरणांत अलग-अलग वर्ण से होता है। जैसे-
सावन ले अंगङाइयाँ, उपवन हुआ निहाल।
कोयल छेड़े रागिनी, मेघ मिलाये ताल॥
मेघ मिलाये ताल प्रिय, मानों बजे मृदंग।
हृदय तार मिलने लगे, चढ़ा प्रेम का रंग ॥
दीपिका छंद का श्रेष्ठतम सृजन जब ही माना जाता है जब इस छंद का प्रत्येक दोहे का प्रकार अलग हो जैसे गयंद दोहा , बल दोहा पान दोहा, सर्प दोहा।इस छंद की श्रेष्ठता छंद लिखने वाले की अपनी कार्यकुशलता पर निर्भर है।
जैसे कुंडलिया छंद के चौथे और पाँचवें चरण में पुनरावृत्ति ,या सिंहावलोकन छन्द में हर नये छन्द की शुरुआत पिछले छन्द के अन्तिम शब्द से होती है। दीपिका छन्द भी उसी श्रेणी में आता है । इसलिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दोहे इस तरह लिखे जायें कि पढने में पुनरावृत्ति अखरे नहीं क्योंकि इसमें पुनरावृति का प्रयोग काव्य सौंदर्य के लिए ही किया जा रहा है। प्रस्तुत हैं चार दीपिका छंद-----
(1)
झर झर झर झर झरत है, आज गगन का नीर।
समझ समझ समझी धरा, नभ के मन की पीर॥
(त्रिकल दोहा 9 गुरु और 30 लघु वर्ण हैं)
नभ के मन की पीर अब, करती विकल त्रिलोक ।
जग जब जीवन मांगता , झुक कर करता धोक॥
(पान दोहा 10 गुर 28 लघु वर्ण)
झुक कर करता धोक जब, मिलता प्रभु का साथ।
अमृत्व का प्रकाश लिए , उठे ईश के हाथ॥
(गयंद दोहा 13 गुरु 22 लघु)
उठे ईश के हाथ से, निकला पुंज प्रकाश।
खिल-खिल कण-कण यूँ गया, थमता चला विनाश॥
(गयंद दोहा 13 गुरु 22 लघु)
थमता चला विनाश है, उर-उर उठे उमंग।
ठुम ठुम ठुम ठुम ठुमकती, भू ओढ़े नवरंग॥
(पान दोहा 10 गुरु 28 लघु)
(2)
रिमझिम रिमझिम बरसता, है सावन का मास।
रोम-रोम पुलकित हुआ, कान्हा खेलें रास॥
कान्हा खेलें रास जब, नैनों से हो बात।
श्वासों में श्वासें घुलें, बीती जाए रात॥
बीती जाए रात प्रिय, कान्हा जी के संग ।
मगन-मगन सब नाचते, मौसम भरे उमंग ॥
मौसम भरे उमंग ज्यों, हाथों में हो हाथ।
पंखों के झूले पड़े, झूलें राधे साथ ॥
झूलें राधे साथ हैं, वरमाला को डाल।
वैज्यंती बन झूमती, खिले खिले हैं गाल ॥
(3)
झन झन झन झनका रही, झाँझर की झंकार।
खोले गहरे राज़ को, नई नवेली नार॥
नई नवेली नार अब, कहती जीवन सार।
चरनन तल में है बसा, प्रीतम वैभव द्वार ॥
प्रीतम वैभव द्वार हूं, भावों का आधार।
भावों में ही है बँधी, विभूति अतुल अपार॥
विभूति अतुल अपार हूँ, माया की मैं धार।
तीखी-सी तलवार से, मत करना तुम वार॥
मत करना तुम वार प्रिय, मत ठानो तुम रार।
फूलों से स्वागत करो, महके जीवन डार॥
(4)
मधुर-मधुर सी महकती , चलती चले बयार।
असर लिए तुम इत्र सा , आए मेरे द्वार॥
आए मेरे द्वार हो, बन मीठी सौगात।
डाली जैसा डोलता, बहके मेरा गात॥
बहके मेरा गात यूँ, ले हाथों में हाथ।
रात-रात भर रास में, नाचूँ मोहन साथ॥
नाचूँ मोहन साथ मैं, उड़े अबीर गुलाल।
श्याम रंग ऐसा चढ़े, कर दे मालामाल ॥
कर दे मालामाल ज्यों, पहुँचूँ मैं ब्रजधाम।
प्रीत बसंती कह रही,मेरे तन-मन श्याम ॥
✍️ दीपिका महेश्वरी सुमन (अहंकारा), नजीबाबाद बिजनौर ,उत्तर प्रदेश, भारत
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