मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता के सम्मान में रविवार 11 फरवरी 2024 को साहित्यिक मिलन का आयोजन

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता के सम्मान में रविवार 11 फरवरी 2024 को साहित्यिक मिलन का आयोजन किया गया। आयोजन में उपस्थित साहित्यकारों ने मुरादाबाद के साहित्यिक परिदृश्य पर चर्चा के साथ- साथ काव्य पाठ भी किया। दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्त के संयोजन में उनके आवास पर आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ स्वीटी तालवाड़ ने की जबकि मुख्य अतिथि प्रदीप गुप्ता रहे। संचालन डॉ मनोज रस्तोगी एवं माॅं शारदे की वंदना राजीव प्रखर ने प्रस्तुत की। संयोजन उमाकांत गुप्ता का रहा।              रचना-पाठ करते हुए वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी का कहना था - 

अति विनाश का कारण होती, 

इतना   हमने    जाना    होता। 

मानव   से   ईश्वर   बन  पाना, 

बहुत कठिन   है  माना  होता। 

संयोजक उमाकांत गुप्त ने कहा - 

गीत उमर  ने लिख डाले हैं 

सांसो के खाते धुंधले हैं 

इन राहों में जितने बिछड़े 

यादें ही अब शेष हो रहीं 

फोन किया है पूछा तुमने 

दिन मेरे कैसे गुजरे हैं 

मुख्य अतिथि प्रदीप गुप्ता ने वेदना को साकार किया - 

प्रतिभा का भंडार  भरा था 

सपनों का संसार रचा  था। 

रचना का आकार गढ़ा था 

चिंतन का विस्तार बड़ा  था। 

फिर भी ख़ुद को बेच नहीं पाया। 

डॉ अजय अनुपम ने परिस्थितियों का चित्र खींचा - 

टूटते भय-बन्ध सारे जग हंसाई के 

और गहरे रंग हो जाते लुनाई के। 

मौन हो जाते अधर दृग मौन हो जाते, 

बात जब करते कभी कंगन कलाई के।। 

वरिष्ठ रचनाकार श्रीकृष्ण शुक्ल ने प्रणय दिवस को शब्द दिये - 

एक दूजे के हम स्वयं, सदा रहें अनुरूप। 

वैलेंटाइन का प्रिये, यही सात्विक रूप।। 

वैलेंटाइन तुम जपो, अपना भला बसन्त। 

अपने तो आदर्श हैं, शकुन्तला दुष्यंत।। 

कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने मधुमासी रंग में सभी को डुबोया - 

जीवन की दहलीज पर,जब आया मधुमास।

 सपने भी हैं खिल उठे,लिए हृदय में आस।। 

राम नाम की मुद्रिका,जब हो मन के पास। 

जीवन मर्यादित बने,पूरी हो हर आस।। 

डॉ पुनीत कुमार ने व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक विद्रूपता पर प्रहार करते हुए कहा - 

प्यार अगर ऑनलाइन होता है।

 सब कुछ सुपर फाइन होता है 

जेब खाली,पर बात लाखों की, 

मुफ्त ही में  वेलेंटाइन होता है।

  शायर डॉ कृष्णकुमार  'नाज़' के इन शेरों ने सभी के हृदय को स्पर्श किया - 

इतना-सा लेखा-जोखा है, जीवन की अलमारी में, 

कुछ तो वक़्त सफ़र में गुज़रा, कुछ उसकी तैयारी में।

निश्छल मुस्कानों का अपना, एक अलग दर्शन है 'नाज़'। 

सातों सुर मिलकर हँसते हैं, बच्चे की किलकारी में। 

डॉ  अर्चना गुप्ता की अभिव्यक्ति थी -

 प्यार का अहसास अब भी उन खतों में कैद है। 

याद भी उनकी हमारी हिचकियों में कैद है। 

खनखनाते रहते हैं यादों के सिक्के उम्र भर

आज तक बचपन हमारा गुल्लकों में कैद है।  

संचालन करते हुए डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा - 

सूरज की पहली किरण 

जब उतरी छज्जे पर,  

आंगन का सूनापन उजलाया। 

गौरैया ने चीं चीं कर 

फैलाए अपने पर, 

एक मीठा सपना याद दिलाया। 

  राजीव 'प्रखर' ने अपने दोहों से सभी को मधुमासी रंग में डुबो दिया - 

ओढ़े चुनरी प्रीत की, कहता है मधुमास। 

ओ अलबेली लेखनी, होना नहीं उदास।। 

नीम ! तुम्हारी छाॅंव में, आकर बरसों बाद। 

फिर से ताज़ा हो उठी, बाबूजी की याद।। 

 ज़िया ज़मीर ने खूबसूरत ग़ज़ल से महफ़िल लूटी - 

हमारे कौन से मिसरे पे उसका साया नहीं। 

वो एक नाम जो अब तक कहीं भी आया नहीं, 

चला गया वो हमें छोड़ के यूं ही इक दिन। 

बुरा किया कि सबब तक हमें बताया नहीं। 

 मीनाक्षी ठाकुर ने मधुमास को इन शब्दों से सुंदर अभिव्यक्ति दी - 

नर्म हुआ दिनमान गुलाबी, 

मधुमास  संग मुस्काया। 

पूस ठिठुरता चला गया है, 

माघ बावरा मदमाया। 

पीली सरसों नाच रही है, 

मस्त मगन बिन साज के। 

पीत-वसन,सुरभित आभूषण, 

ठाठ  बड़े ऋतुराज के! 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने प्रकृति का सुंदर चित्रण किया - 

घोर तम की नींद से सूरज जगा है। 

देख फिर विश्वास को सम्बल मिला है। 

कर दिये थे बंद किस्मत ने खजाने। 

थी थकी मुस्कान बैठी हार माने। 

अंकुरा पादप हँसी का तब नया है।

घोर तम की नींद से सूरज जगा है। 

धन सिंह धनेंद्र ने कहा –

तन पर श्रमविन्दु हैं आते। 

होकर घायल लहू  बहाते। 

तन पे कपडे़ सुखते जाते। 

पीकर पानी भूख मिटाते। 

जाने कब दिन कट जाता। 

श्रमिक दिवस मन जाता।। 

प्रत्यक्ष देव त्यागी का कहना था– 

इतना भी क्या डरना खुद में। 

जीते जी क्यों मरना खुद में। 

तरसों जब मिलने को मुझसे, 

मेरी ग़ज़ल को गढ़ना खुद में।

 राशिद हुसैन का कहना था - 

जख्मों पे इसलिए वो मेहरबान बहुत है। 

दुश्मन हमारा आज पशेमान बहुत है।। 

 अध्यक्षता करते हुए दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की सेवा निवृत प्राचार्या डॉ स्वीटी तालवाड़ ने  इस प्रकार की गोष्ठियों के निरंतर आयोजन पर बल दिया। आभार संतोष गुप्ता ने व्यक्त किया ।















































मुरादाबाद के साहित्यकार प्रत्यक्ष देव त्यागी की ग़ज़ल ....मेरी ग़ज़ल को गढ़ना खुद में


 इतना भी क्या डरना खुद में,

जीते जी क्यों मरना खुद में ।।


प्यास बुझेगी मिलकर मुझसे,

छोड़ो खुद से लड़ना खुद में ।


तरसो जब मिलने को मुझसे,

मेरी ग़ज़ल को गढ़ना खुद में ।


जिसको चाहे पार लगा दो,

एक बार जो ठाना खुद में ।


प्यार कभी झूठा मत करना,

टूट है जाता इंसां खुद में ।


हर चेहरे में रब दिखता है,

गौर से झाँक के देखना खुद में ।


एक बार तो मिलना होगा,

और नहीं है जलना खुद में ।


रूह फ़ाख्ता हुई है मेरी,

मुझको होगा मारना खुद में।


कोई ये घर के शीशे तोड़ो,

मैं छोडूं उसे देखना खुद में ।


ताबीज़ बनाकर बांधें सारे,

फिर भी पड़ा ढूंढना खुद में ।


पत्थर की भी पूजा की है,

जब से पत्थर बना वो खुद में ।


जब हो उसमें गहरा डूबना,

पानी भरा मानना खुद में ।


तुमसे तो तन्हाई अच्छी,

इसे पड़ता नहीं मिलाना खुद में ।


हाथ किनारे लग जाएंगे,

थोड़ा गहरा डूबना खुद में।


✍️ प्रत्यक्ष देव त्यागी 

झ-28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:9319086769

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ ज्ञान प्रकाश सोती की रचना । वह 'ठुंठ' उपनाम से कविताएं लिखा करते थे । प्रस्तुत रचना मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के रविवार 5 जनवरी 1963 में प्रकाशित हुई थी ।

 




मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ ज्ञान प्रकाश सोती की रचना । वह 'ठुंठ' उपनाम से कविताएं लिखा करते थे । प्रस्तुत रचना मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के रविवार 9 जून 1963 में प्रकाशित हुई थी ।

 



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ ज्ञान प्रकाश सोती की रचना । वह 'ठुंठ' उपनाम से कविताएं लिखा करते थे । प्रस्तुत रचना मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका'के प्रवेशांक रविवार 21 अप्रैल 1963 में प्रकाशित हुई थी ।


 

महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय की रजत जयंती महोत्सव पर कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस कवि सम्मेलन की अध्यक्षता डा. भूपति शर्मा जोशी ने की थी। मुख्य अतिथि माहेश्वर तिवारी थे। संचालन शिव अवतार सरस ने किया था। प्रस्तुत है इस आयोजन का दैनिक जागरण मुरादाबाद के 22 अगस्त 1998 के अंक में प्रकाशित समाचार ....…


 

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह प्रवासी की अप्रकाशित काव्य कृति ...मुक्तक शतक । इस कृति का रचनाकाल वर्ष 1965 है। साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय को यह उपलब्ध कराई है उनके अनुज सोहरन सिंह वर्मा के सुपौत्र राहुल वर्मा जी ने ।




क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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:::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में 4 फरवरी 2024 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में रविवार 4 फरवरी 2024 को मासिक  काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। 

राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए रामदत्त द्विवेदी ने कहा ...

यदि आए इस जगत में, कर लो बस दो काम। 

घर में राखो सुमति को, मन में रखो राम।।

 मुख्य अतिथि के रूप में ओंकार सिंह ओंकार की इन पंक्तियों ने भी सभी को सोचने पर विवश किया - 

सूना-सूना-सा लगे, हमको अपना गाॅंव। 

नहीं दिखे चौपाल अब, नहीं पेड़ की छाॅंव।। 

हिन्दी हिन्दुस्तान का, गौरव है श्रीमान। 

अपनी भाषा का करें, सब मिलकर उत्थान।।

   विशिष्ट अतिथि के रूप में रघुराज सिंह निश्चल ने वर्तमान परिस्थितियों का काव्यमय चित्र खींचा.... 

जीवन को महकाते रहिए। 

जब तक चले चलाते रहिए।। 

जीवन पथ आसान बनेगा, 

हॅंसते और हॅंसाते रहिए। 

विशिष्ट अतिथि  योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा - 

बोली से यों तय हुआ, शब्दों का व्यवहार।

 'मन से दिया उतार' या, 'मन में लिया उतार'।।

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर ने अपने दोहों के माध्यम से सभी को वसंत के रंग में इस प्रकार डुबोया - 

ओढ़े चुनरी प्रीत की, कहता है मधुमास। 

ओ अलबेली लेखनी, होना नहीं उदास।। 

मिलजुल कर रचवा रहे, अनगिन सुन्दर गीत। 

स्वागत में ऋतुराज के, कोकिल-हरिया-पीत।। 

   राम सिंह निशंक ने अपनी भावनाएं उकेरीं - 

बरस पाॅंच सौ बाद में, हर्षित हुआ समाज। 

बिगड़े काम बन जाऍंगे, सम्भव हुआ है आज।।

डॉ मनोज रस्तोगी ने व्यंग्य के रंग में सभी को इस प्रकार डुबोया - 

जैसे तैसे बीत गए पांच साल रे इन भैया।

फिर लगा बिछने वादों का जाल रे भैया। 

आवाज में भरी मिठास, चेहरे पर मासूमियत, 

भेड़ियों ने पहनी गाय की खाल रे भैया।

    मनोज मनु के उद्गार इस प्रकार थे - 

छलछलाऐं अश्क़  गर ,दिल पे असर जाने के बाद, 

डबडबा जाता है आलम  आँख  भर जाने के बाद।  

 जितेन्द्र जौली की अभिव्यक्ति थी - 

महज दिखावा लग रही, हमें आयकर छूट। 

पाॅंच लाख तक छूट है, उससे ऊपर लूट।। 

  रामदत्त द्विवेदी द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।



















रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा...मन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे.

    योगेन्द्र वर्मा व्योम आज के साहित्यिक परिदृश्य में एक जाना पहचाना नाम हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, कहानी, समीक्षा, लघुकथा, आलेख आदि विभिन्न विधाओं में लिख रहे व्योमजी की अब तक चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और अपनी हर कृति के साथ क्रमशः उन्होंने अपनी उत्तरोत्तर निखरती साहित्यिक प्रतिभा को और अधिक समृद्ध किया है और आज वे किसी परिचय के लिए पराश्रित नहीं हैं।

          काव्य-संग्रह "इस कोलाहल में" से आरंभ हुई उनकी यह साहित्यिक यात्रा "उगें हरे संवाद" की हरितिमा लिए आज हमारे सामने है। समकालीन समय और संबंधों से संवाद करना व्योमजी की प्रमुख लेखन शैली है और इसी शैली में उनका वर्तमान दोहा-संग्रह समय और सम्बन्धों से न केवल संवाद कर रहा है वरन् इनमें हरेपन की आशा भी कर रहा है। स्वयं व्योम जी के व्यवहार की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे कनिष्ठ-वरिष्ठ, नवोदित-स्थापित, युवा-वयोवृद्ध और महिला-पुरुष सभी को समान महत्व देते हैं, सबका सम्मान करते हैं और सभी के विचारों का स्वागत करते हैं। एक साहित्यकार का यह एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वह उदार हृदय का स्वामी हो, अपनी संवेदनशीलता के साथ वह किसी भी ओर से आए सारगर्भित विचारों को आत्मसात करने का बड़ा हृदय रखता हो, बड़ों का अतिशय सम्मान करता हो और नवांकुरों को भी प्रोत्साहित करता हो, यही उदारता लेखन को समृद्ध करती है।

       व्योम जी के समृद्ध लेखन की कड़ी में "उगें हरे संवाद" दोहा-संग्रह की बात मैं यहांँ करने जा रही हूँ। "उगें हरे संवाद" योगेंद्र वर्मा व्योम जी की चौथी प्रकाशित कृति है। इस दोहा-संग्रह का आवरण पृष्ठ नैराश्य की ऊसर मृदा में सदाशयता के दो हरित पत्र पल्लवित होते हुए दिखा रहा है,जो कि संग्रह के आशय और महत्व को प्रतिपादित करते हुए आवरण पृष्ठ हेतु इमेज के सटीक चयन को प्रमाणित करता है। प्राय: हम पत्तियों के त्रिकल या विषम कल्लों का गुच्छ चित्र रूप में देखते हैं,लेकिन यहाँ द्वि कल का चित्र प्रयोग किया गया है, मुझे नहीं ज्ञात कि यह सायास है अथवा अनायास, लेकिन सायास हो अथवा अनायास इस दोहा संकलन हेतु यह बहुत ही सार्थक चुनाव है। दो हरी पत्तियां एक तरह से दोहे की दो पंक्तियों को इंगित कर रहीं हैं और ये हरी पत्तियांँ आश्वस्त कर रही हैं कि कहीं ना कहीं ये संवाद फलित होंगे और आशा का यह सफर नये कल्लों के प्रस्फुटन से निरंतर बढ़ता रहेगा।

        दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी, अशोक अंजुम, डॉ अजय अनुपम और डॉ मक्खन मुरादाबादी के आशीर्वचन और योगेन्द्र वर्मा व्योम  का आत्मकथ्य स्वयं में इतने समृद्ध, पुष्ट, सारगर्भित और विशिष्ट हैं कि इस पर कोई भी विशेषज्ञ अथवा विशिष्ट टिप्पणी किये जाने में मैं ही क्या कोई भी स्वयं को असमर्थ पायेगा, परंतु एक पाठक एक विशेषज्ञ से पूर्णतः पृथक होते हुए भी उसके समान ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंततः कृति की संरचना एक पाठक हेतु होती है तो मैं इस कृति की समीक्षा कोई विशेषज्ञ अथवा साहित्यकार के तौर पर न करके एक पाठक की दृष्टि से करना चाहती हूंँ क्योंकि साहित्य के पल्लवन में एक पाठक की दृष्टि, एक पाठक का मत सदैव महत्वपूर्ण होता है।

          परम्परा के अनुसार यह दोहा-संग्रह भी माँ वीणापाणि को प्रथम नमन निवेदित करता है।शारदा मांँ की वंदना से आरंभ यह दोहा-संग्रह जैसे ही अगले पृष्ठ पर बढ़ता है तो-      

"उगना चढ़ना डूबना, सभी समय अनुरूप। 

सूरज सी यह ज़िन्दगी, जिसके अनगिन रूप।।"

     दोहे के साथ जीवन के विविध पहलुओं को खोलना शुरू करता है। दोहाकार जानता है कि वर्तमान में अवसाद जीवन पर हावी है और इसका एकमात्र उपाय प्रसन्न रहना यानि मुस्कुराहट की शरण में जाना है। अतः वह कहता है कि-

"चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।।"

     मुस्कान अगर झूठी हो तो फलित नहीं होती और मुस्कान झूठी इसलिए होती है क्योंकि मन में कहीं ना कहीं कटुता का दंश हावी है। आगे यही बताते हुए कवि कहता है -

"सहज नहीं फिर रह सकी, आती जाती सांँस।

मन में गहरे तक धंँसी, जब कटुता की फांँस।।"

और इसका परिणाम इस रूप में दोहाकार रखता है-

"नहीं रही वह भावना, नहीं दिखा सत्कार।

पतझड़-सा क्यों हो गया, आपस का व्यवहार।।"

लेकिन अगले ही पृष्ठों में हमें रिश्तों के खिल उठने के सुखद आधार मिलते हैं जो इशारा देते हैं कि किस तरह से हम सम्बन्धों में आई कटुताओं को दूर कर सकते हैं -

"छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।

रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।"

        प्रायः आवेश में किए गए व्यवहार ही रिश्तों की आत्मीयता को पलीता लगाते हैं तभी दोहाकार लिखता है-    

"तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।

रिश्तो के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।"

     रिश्तों के अतिरिक्त इस संग्रह में समय से भी संवाद है। यह समय जहाँ-    

"व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम।

तन-मन के सुख-चैन को, सब ने किया तमाम।।

और-

समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे रहे तटस्थ।

मूल्यहीन इस दौर में, संस्कार अस्वस्थ।।"

               प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। समकालीन विषयों पर चिंतन करना आम बात हो सकती है पर इन दोहों में कवि द्वारा इन पर चिंतन विशिष्ट भाषा शैली, विविध शब्द चित्र और अद्भुत भाव व्यंजना के मोती पिरो कर किया गया है, जो इस चिंतन को विशिष्ट बना देता है।बानगी अग्रिम दोहों में देखें-

"स्याह विचारों की हुई, कुटिल साधना भंग।

मन-प्रांगण में जब हुआ, भावों का सत्संग।।

संदर्भों का आपसी, बदल गया व्यवहार।

शब्दों की जब-जब हुई, अर्थों से तकरार।।

अय्यारी मक्कारियाँ, छलछंदों की देख।

अधिकारों ने भी पढ़े, स्वार्थ पगे आलेख।।"

स्याह विचार की कुटिल साधना, मन प्रांगण में भावों का सत्संग, शब्दार्थ की तकरार और अधिकारों का स्वार्थ पगे आलेख पढ़ना जैसे अनुपम दृश्य उत्पन्न करना, कवि की विशिष्टता है। वह वर्तमान परिस्थितियों पर न केवल विशेष चिंतन करते दिखते हैं वरन् इन परिस्थितियों के हल भी अलंंकारिक तरीके से सुझाते हैं और नये रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानवीकरण अलंकार का यत्र-तत्र अद्भुत प्रयोग इस संग्रह की विशिष्टता है। वर्तमान में मेरे द्वारा पढ़े गए दोहाकारों में लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवियित्री संध्या सिंह जी के अद्भुत दोहों के बाद व्योमजी के दोहों ने मेरा मन आकृष्ट किया है। कुछ दोहें‌ देखें जैसे-

"मिट जाए मन से सभी, मनमुटाव अवसाद।

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरें संवाद।।

उम्मीदें, अपनत्व भी, कभी न होंगे ध्वस्त।

लहजा, बोली, सोच हो, अगर न लकवाग्रस्त।।"

      दोहाकार ने समय के हर पहलू को समेटा है, एक ओर समय का समकालीन समाज तो दूसरी ओर समय का प्राकृतिक स्वरूप जो विविध ऋतुओं के रूप में निरन्तर आगे बढ़ता है और वह स्वरूप भी जो समय की प्रकृति के अनुसार हमारा समाज विविध पर्वों के रूप में मनाता है, अर्थात समकालीन समय के साथ-साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा, वसंत जैसी ऋतुएँ और होली, दीपावली, वसंतोत्सव जैसे पर्व सभी दृश्य इस दोहा-संग्रह में अपनी बहुरंगी आभा बिखेरते दिख जाएंगे। जैसे-

"रिमझिम बूंँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार।

स्वप्न सुनहरे धान के, हुए सभी साकार।।

महकी धरती देखकर, पहने अर्थ तमाम।

पीली सरसों ने लिखा, खत वसंत के नाम।।

आतिशबाजी भी नया, सुना रही संगीत।

और फुलझड़ी लिख रही, दोहा मुक्तक गीत।।"

       अपनी बात को समेटते हुए कहना चाहूँगी कि व्योमजी एक सम्भावनाओं से भरे हुए साहित्यकार हैं, उदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर उससे भी बढ़कर जो उनकी खूबी है वह है रिश्तों को जीने, सहेजने और उनके बिखराव पर चिंता करने की उनकी संवेदनशीलता और इस चिंतन को दो पंक्तियों के दोहे में उन्होंने जिस खूबसूरती और गहन निहितार्थ के साथ व्यक्त किया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। हालांकि एक दो स्थानों पर कुछ मात्रिक व शाब्दिक त्रुटियाँ तमाम सावधानी के बाद भी रह जाना सामान्य बात है जैसे-

"दोहे की दो पंक्तियांँ, एक सुबह, इक शाम।"

(एक और इक का प्रयोग)

अथवा

"कल बारिश में नहायी, खूब संवारा रूप।"

(प्रथम चरण के अंत में दो गुरु होना)

  परन्तु ये त्रुटियांँ धवल पटल पर पेंसिल की नोंक से बनी बिन्दी भर हैं और व्योमजी की प्रतिभा के सापेक्ष उनसे रखी जाने वाली अपेक्षाओं के फलस्वरूप ही इंगित की गई हैं,अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 

    दोहा आकार में भले ही दो पंक्तियों का अस्तित्व रखता हो, परंतु एक सामर्थ्यवान दोहाकार अपने विशिष्ट शब्दसंयोजन और व्यंजना के प्रयोग से इन दो पंक्तियों को एक लम्बी कविता से अधिक सार्थक व मूल्यवान बना सकता हैमन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे व्योमजी के अधिकांश दोहे इस बात को सिद्ध करते हैं। तमाम अर्थ समेटे दोहे की दो पंक्तियांँ चमत्कार करने का सामर्थ्य रखती हैं और दोहाकार ने इस सामर्थ्य को पूरे मन से समर्थ किया है। "उगें हरे संवाद" आने वाले समय में विज्ञजनों के बीच संवाद का केन्द्रबिंदु बने और पाठकों का ढ़ेर सारा प्यार इस संग्रह को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं अपने इस अग्रिम दोहे के रूप में अपनी भावनाएं समेटती हूँ।

"रिश्तों में जो खो गई, उस खुशबू को खोज।       

उगा हरे संवाद की, नित नव कोपल रोज।।"



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष 2023

पृष्ठ संख्या104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षिका
- हेमा तिवारी भट्ट

मकान नं०- 194/10, (एमजीआर के निकट), 

बुद्धि विहार (फेज-2) सेक्टर-10,

मुरादाबाद-244001, (उ०प्र०)

मोबाइल- 7906879625

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद के भारतेंदु युगीन साहित्यकार पं बलदेव प्रसाद मिश्र द्वारा किया गया महर्षि श्री कृष्ण द्वैपायन जी प्रणीत गायत्री तंत्र का अनुवाद । यह कृति आर्य भास्कर प्रेस मुरादाबाद ने वर्ष 1898 में प्रकाशित की है। इस कृति में मूल पाठ भी है।



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::::::::प्रस्तुति:::::::;
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल ) के साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी का गीत संग्रह ....गुलाब और बबूल वन । यह उनकी तीसरी कृति है जो वर्ष 1973 में आत्माराम एंड संस दिल्ली ने प्रकाशित की है। इस कृति में उनके 64 गीत हैं ।




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:::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

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