शनिवार, 23 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी की रचनाधर्मिता के सात दशक पूर्ण होने के अवसर पर शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' की ओर से पावस-गोष्ठी एवं सम्मान समारोह का आयोजन ---------

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के तत्वावधान में नवीन नगर स्थित 'हरसिंगार' भवन में सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी की रचनाधर्मिता के सात दशक पूर्ण होने के अवसर पर पावस-गोष्ठी, संगीत संध्या एवं सम्मान समारोह का आयोजन  किया गया जिसमें नई दिल्ली निवासी वरिष्ठ साहित्यकार विजय किशोर मानव एवं ओम निश्चल को अंगवस्त्र, प्रतीक चिन्ह, मानपत्र, श्रीफल तथा सम्मान राशि भेंटकर "माहेश्वर तिवारी साहित्य सृजन सम्मान" से सम्मानित किया गया। । मुख्य अतिथि विख्यात व्यंग्यकवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी रहे। कार्यक्रम का संचालन योगेन्द्र वर्मा व्योम ने किया।  

कार्यक्रम का शुभारंभ सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा  बालसुंदरी तिवारी एवं उनकी संगीत छात्राओं लिपिका, कशिश भारद्वाज, संस्कृति, प्राप्ति, सिमरन, आदया एवं तबला वादक राधेश्याम द्वारा प्रस्तुत संगीतबद्ध सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात उनके द्वारा सुप्रसिद्ध नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई- 

बादल मेरे साथ चले हैं परछाई जैसे

सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे। 

और- 

डबडबाई है नदी की आँख

बादल आ गए हैं

मन हुआ जाता अँधेरा पाख

बादल आ गए हैं।

 पावस गोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.  डॉ. आर.सी.शुक्ल ने सुनाया-

 न संभावित करुणा के सम्मुख अपना शीश झुकाऊंँ

मन कहता है आज तुम्हारे आंँगन में रुक जाऊँ। 

यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने गीत पढ़ा- 

धूप गुनगुनाते हैं पेड़़

हिल-मिलकर गाते हैं पेड़़

देख रहे हैं

मौसम का आना-जाना

पत्ता-पत्ता बनकर आँख

दिन का पीला पड़कर मुरझाना

रीती है एक-एक शाख

रातों में आसमान से

जाने क्या-क्या

बतियाते हैं पेड़़

सम्मानित कवि ओम निश्चल ने सुनाया- 

बारिश की तरह आओ

बूंदों की तरह गाओ

मन की वसुंधरा पर

तुम आके बरस जाओ

अतिथि कवि विजय किशोर मानव ने सुनाया-

 यहां उदासी

बारहमासी

घर आई है

धूप ज़रा सी

रोना हंसना

दांव सियासी

छुअन किसी की

लगे दवा सी

वरिष्ठ कवयित्री डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने सुनाया- 

वेदना ,संवेदना में दें बदल

चित्त चिंतन चेतना में दें बदल

आचरण में ज्ञान गीता का मिले

कर्म को आराधना में दें बदल

 कवयित्री विशाखा तिवारी रचना प्रस्तुत की-

आज व्याकुल धरती ने

पुकारा बादलों को

मेरी शिराओं की तरह

बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं

कवि वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी ने गीत सुनाया- 

मुँह पर गिरकर बून्दों ने बतलाया है

देखो कैसे सावन घिरकर आया है

बौछारों से तन-मन ठंडा करने को

डाल-डाल झूलों का मौसम आया है

वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने सुनाया- 

सच को सच बतलाने वाले पहले भी थे अब भी हैं

तम में दीप जलाने वाले पहले भी थे अब भी हैं

प्रेम और सद्भाव की बातें सब को रास नहीं आती

घर घर आग लगाने वाले पहले भी थे अब भी हैं। 

कवि समीर तिवारी ने सुनाया -

बदल गया है गगन सारा,सितारों ने कहा

बदल गया है चमन हमसे बहारो ने कहा

वैसे मुर्दे है वही सिर्फ अर्थियां बदली

फ़क़ीर ने पास में आकर इशारों से कहा

कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की- 

कंक्रीट के जंगल में,

 गुम हो गई हरियाली है

आसमान में भी अब, 

नहीं छाती बदरी काली है

कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने पावस दोहे प्रस्तुत किये-

तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप

धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप

पिछले सारे भूलकर, कष्ट और अवसाद

पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद

राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए- 

झूलों पर अठखेलियां, होठों से मृदुगान

ऐसा सावन हो गया, कब का अन्तर्धान

प्यारी कजरी-भोजली, और मधुर बौछार

तीनों मिलकर कर रहीं, सावन का श्रृंगार

 ज़िया ज़मीर ने ग़ज़ल पेश की- 

पिंजरे से क़ैदियों को रिहा कर रहे हैं हम

क्या जाने किसका क़र्ज़ अदा कर रहे हैं हम

कुछ टहनियों पे ताज़ा समर आने वाले हैं

यादों के इक शजर को हरा कर रहे हैं हम

 काशीपुर से कवयित्री ऋचा पाठक ने सुनाया- 

साथ नहीं हो कहीं आज तुम

फिर क्यूँ हर पल हम मुस्काये

हर आहट पर बिजली कौंधी

लगा यही बस अब तुम आये। 

 कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने सुनाया- 

खिलखिलाती धूप सा है हास तुम्हारा

कुशल अहेरी अद्भुत है यह पाश तुम्हारा।

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने गीत सुनाया- 

अधरों पर मचली है पीड़ा

करने मन की बात

रोपा तो था सुख का पौधा

 हमने घर के द्वारे

सावन भादों सूखे निकले

 बरसे बस अंगारे

कवि दुष्यंत बाबा ने सुनाया ----

तोड़ा उसने मेघ से नाता और बूंद धरा पर आयी

मां सी ममता मिली उसे जब आकर नदी समाई

बहती सरिता देखी तो हृदय सागर का भी फूटा

पुनर्मिलन सुख देता है यदि बेबस हो कोई छूटा

कवि प्रत्यक्ष देव त्यागी ने कहा ----

ये रूप जो तेरा,

लगे तुझे है खजाना,

ये किसी का नहीं है,

उम्र संग है ये जाना,

इसी को तू रख ले,

बढ़ा ले खजाना,

जब मुट्ठी खुलेगी,

रह कुछ नहीं जाना।

विख्यात कवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी , डॉ. कृष्ण कुमार नाज़, डॉ. उन्मेष सिन्हा, माधुरी सिंह, डी पी सिंह एवं  उमाकांत गुप्त भी कार्यक्रम में शामिल रहे। संयोजक आशा तिवारी एवं समीर तिवारी द्वारा  आभार-अभिव्यक्ति प्रस्तुत की गई।
































































गुरुवार, 21 जुलाई 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का एकांकी ---चिंगारी । यह एकांकी ’साहित्यिक मुरादाबाद’ द्वारा आयोजित लघु नाटिका / एकांकी प्रतियोगिता के कनिष्ठ वर्ग में प्रथम स्थान पर रहा ।


पा
त्र परिचय..

मातादीन : (खलासी) 

मंगलपांडे : (अंग्रेजी फौज में भारतीय सैनिक)

काली पलटन के दो अन्य सैनिक : इब्राहिम और राम सरन

जेम्स मैथ्यू : अंग्रेज अधिकारी


               (  अंक 1) 


दृश्य एक, समय दोपहर

( मेरठ छावनी परिसर ,मार्च सन् 1857 ) 


(  मातादीन, छावनी में पसीने से तरबतर पानी पीने की दिशा में जा रहा है, तभी रास्ते में मंगल पांडे जिनके हाथ में पानी का लोटा है, उसे मिलते हैं ) 

मातादीन : राम राम पांडे जी! (गले में पड़े गमछे से पसीना पोंछता हुए) 

मंगलपांडे : राम -राम, क्या हालचाल हैं ? 

मातादीन : अच्छे है जी, आप बताओ... ? 

मंगलपांडे : (अपनी मूंछों को ताव देते हुए) हम भी मज़े में  हैं... कल अखाड़े में एक गोरे को पछाड़ा  है.. ससुर का नाति बहुत जोस दिखा रहा था... ! ! 

मातादीन : कभी हम से भी पहलवानी आज़माओ तो जाने कितना जोस है तुम्हारे बाजुओ में ?? ( हंसते हुए, कमीज की आस्तीनों को ऊपर चढ़ाता है) 

मंगलपांडे : बस.... !बस! दूर ही रहो हमसे! 

मातादीन :  (व्यंग्य पूर्वक) अच्छा जी? लो हो गये दूर.(.. कूदकर  उल्टा ही एक कदम पीछे हट जाता है) ) चलो हमें बहुत प्यास लगी है... तनिक अपने लोटे से पानी तो पिलवाई दो । (...हंसता है) 

मंगलपांडे: (आक्रोशित होते हुए) ऐ !! दूर रह हमसे...!!

हमारा धर्म भ्रष्ट करेगा क्या ?? होश में रह!! 

(उनकी यह झड़प सुनकर आसपास खड़े दो भारतीय सिपाही  (काली पलटन) , आ जाते हैं।) 

इब्राहिम : क्या हुआ मंगल भैया? किस बात पर भड़क रहे हो? 

मंगलपांडे : ज़रा इस मातादीन को तो देखो, कह रहा है कि अपने लोटे से पानी पिला दें... इसे..!!. हुंह हमार लोटे को हमारे अलावा कोई छू भी नहीं सकता!! 

रामसरन : अरे!!मंगल भैया... छोड़ो भी... !!इस माता दीन  को तो यही काम है बस.... फौज में खलासी क्या हुई गवा... खुद को फौज का बड़ा अफसर समझने लगा है...! कहता है मैं जो कहता हूँ, मुंह पर कहता हूँ... !! 

मंगलपांडे : फौज में है तो सबका ईमान धर्म भ्रष्ट करेगा क्या? जात पात भी कोई चीज़ है भाई... 

(यह सब सुनकर माता दीन का चेहरा गुस्से में लाल पड़ गया) 

माता दीन : (उपहास उड़ाने वाले स्वर में, जोर से चीखा) ऐ पंडत!! बड़ा चुटिया धारी ब्राह्मण बना फिरते हो!!! जब बंदूक चलाते समय मुहं से गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस खींचते हो तब तुम्हारा ईमान धर्म कहाँ चला जाता है..... हा हा हा..... शायद पानी पीने.... !!! 

मंगलपांडे : (चीखते हुए) माता दीन!!!!!!! ज़बान को लगाम दे, बदतमीज़!! वरना.....!! 

माता दीन : (बीच में ही रोकते हुए) वरना...वरना क्या कर लोगे ??? मारोगे मुझे..?(आंखें फाड़ते हुए) अरे मैनै अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना है... !! वो जो फैक्ट्री है न कलकत्ते में...!!...ऊ में क्या क्या होता है ... ??  सब जानते हूं...!!गाय और सुअर की चर्बी.... ! ! 

(माता दीन की बात पूरी होने से पहले ही.. मंगलपांडे बीच में ही चीख पड़़ता है) 

मंगलपांडे : (गुस्से से आंखें लाल करते हुए, दांतों को पीसते हुए )  बस कर मूरख....!!अगर ये बात  गलत साबित  हुई तो... !!तो तेरी खोपड़ी इसी बंदूक से उड़ा दूंगा

माता दीन: (कमर पर दोनो हाथ टिकाकर  भवों  को चढ़ाते हुए)  अच्छा जी...!!और अगर सच हुई तब? तब क्या करोगे पंडत??? 

मंगलपांडे : (सीना ठोकते हुए)तब !!तब दुनिया देखेगी... एक चुटिया धारी पंडत का अंग्रेज़ों से इंतकाम....  कि एक  ब्राह्मण का धर्म भ्रष्ट करने का क्या अंजाम होता है....इतिहास बार बार याद करेगा . इस पंडत को..... !!! सदियां नाम पुकारेंगे मंगल पांडे का...!! सदियां...... (पागलों की तरह बेतहाशा चीखता है) 

मातादीन : अगर ऐसी बात है,तो सुन पंडित ध्यान से...!!. जब जब  इतिहास तेरा नाम दोहरायेगा... तो उसमें एक नाम और जुड़ेगा....!! और वो होगा..मातादीन  का....!! (अपना सीना ठोकता है) तू अगर बारूद का ढेर है तो मैं उस बारूद की चिंगारी बनूंगा...हिंदुस्तान तेरे साथ मातादीन का नाम भी उसी इज्जत से लेगा... जिस इज्जत से तुझे याद करेंगा पंडित!!! फिर तेरा धर्म.. मेरा धर्म.. एक राष्ट्र धर्म बन कर इतिहास में अमर हो जायेगा... और हाँ (  भावुक होता हुए) गाय और सुअर की चर्बी वाली बात गलत निकली तो मातादीन का सर हाज़िर है्..शौक से उड़ा देना! (सिर झुकाता है) 

(उसकी यह बात सुनकर मंगलपांडे भावुक हो जाते हैं और आगे बढ़कर मातादीन को गले से लगा लेते हैं, दोनों की आंखों से गंगा-जमुना बह निकलती है) 

उनकी यह बातें सुनकर बाकी दो सैनिक भी साथ में नारा लगाते हैं...  तेरा धर्म- मेरा धर्म... हम सबका धर्म.. राष्ट्र धर्म.... ( नेपथ्य में विप्लव के स्वर गूंजने लगते हैं.) 

दृश्य दो : 8 अप्रैल, 1857, बैरकपुर छावनी, 

समय: सुबह दस बजे

(अंग्रेज अधिकारियों की हत्या व बग़ावत फैलाने के ज़ुर्म में मातादीन और मंगलपांडे को फांसी की सजा हो जाती है) 

जान मैथ्यू : (उपहास भरे स्वर मेंं) मंगलपांडे कुछ बोलोगे नहीं अब...? 

मंगलपांडे: (हंसते हुए गाते हैं) है आरज़ू ये मेरी तेरी ज़मी ही पाऊँ, सातो जनम ही चाहे आना पड़ेगा दोबारा (झुककर हिंद की मिट्टी चूमते हैं.. ) सुनो...जल्लादों !!मातादीन की लगायी चिंगारी से मंगलपांडे  नाम की मशाल तुम्हारी हुक़ूमत  को जलाकर राख कर देगी.. (भावुक होते हुए) मातादीन अब स्वर्ग में ही मिलेंगे दोस्त... . (  ऊपर आकाश की ओर देखते हुए ज़ोर से नारा लगाते हैं) वंदेमातरम्..... (जल्लाद के हाथ से फांसी का फंदा लेकर खुद अपने गले में डाल लेते हैं..) 

(नेपथ्य में विप्लव का बिगुल और भी तेजी से बज उठता है) 

जय हिंद..... जय हिंद...जय हिंद

( नाटक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है) 

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के लघुकथा संग्रह सपनों का शहर की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा....जीवन की कड़वी सच्चाई उजागर करती हैं अशोक विश्नोई की लघुकथाएं

  लघुकथा  गल्प साहित्य के वृक्ष पर लगने वाला वह फल है जो आकार में  अत्यंत लघु होने के बावजूद अत्यंत स्वादिष्ट होता है, और   जिसे चखकर लंबे समय तक पाठकों के मुख से वाहहहहह  वाहह निकलता रहता है,अर्थात गागर में सागर भरना लघुकथा शिल्प की प्रथम शर्त है, इसके अतिरिक्त कथानक की कसावट, गंभीरता,  विषयों की गूढ़ता ,पात्रों का  सशक्त चयन,   तीव्र बेधन क्षमता,वक्रोक्ति व उद्देश्य की पूर्ति में सफल होना इसके प्रमुख अंग  होते हैं.

आज के व्यस्ततम समय में पाठकों के पास समय की प्रतिबद्धता का नितांत अभाव है तथा वह अपनी मानसिक उर्जा लंबी कहानियों को पढ़ने में व्यय करने से बचना चाहता है , परंतु साथ ही कुछ रोचक व संघर्ष पूर्ण  भी पढ़ना चाहता है . 

 ऐसे समय में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित व " सुबह होगी", "संवेदना के स्वर" और  "स्पंदन "जैसी कृतियों के लेखक  अशोक विश्नोई ने अपने अनुभव की बारीक सुई से विभिन्न कथानकों को यथार्थ के धरातल से उठाकर लघुकथाओं के शिल्प  से जो *सपनों का शहर* तैयार  किया है वह  अद्भुत है और अपने उद्देश्य की पूर्ति में पूर्णतः सफल हुआ है. श्री अशोक विश्नोई ने गीत, कविता हाइकु, कहानी,आलेख, मुक्त छंद, मुक्तक लेखन तो किया ही है साथ ही लघुकथा लेखन में भी आपको महारथ हासिल  है     पाठकों के लिए  यह पुस्तक ’ सपनों का शहर’ बहुत ही प्रासंगिक हो जाती है जब वह स्वयं को विभिन्न पात्रों के रूप में परिस्थितियों से जूझते हुए देखता है और स्वयं को उक्त कथानक का हिस्सा समझने लगता है .

  आपकी कथाओं के पात्र व कथानक किसी भी दृष्टि से आरोपित नहीं लगते. प्रतीत होता है कि वे हमारे इर्द गिर्द से ही लिए गये हैं. आपने अपनी लघु कथाओं के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों, बुराइयों, भ्रष्टाचार, राजनीति, टूटते परिवार, खोखले रिश्तों, बेरोजगारी और समाज में व्याप्त गरीबी को उजागर करने के साथ साथ हमारे समाज पर पड़ रहे आधुनिकता के साइड इफेक्ट्स  भी दर्शाए हैं . लघुकथा..दरकती नींव इसका सशक्त उदाहरण है. जहाँ आधुनिकता की चपेट में आकर  गुरु और शिष्य के संबंध भी पतन की ओर अग्रसर होते दिखाई देते हैं

    संग्रह की शीर्षक लघुकथा ’सपनों का शहर’  देश के युवाओं के संघर्षरत जीवन की कड़वी सच्चाई है, जहाँ अथक परिश्रम   व योग्यता से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात भी तमाम  डिग्रियाँ  रिश्वत रूपी वज़न के अभाव में मात्र कागज़ का टुकड़ा बनकर रह जाती हैं, इस लघुकथा के माध्यम से  आपने एक ओर बिना तकनीकी ज्ञान के कोरा किताबी ज्ञान की  निरर्थकता को रेखांकित किया है  तो दूसरी ओर सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर भी अंगुली उठायी है.डिग्री जलाकर पोरवे गरम करने का दृश्य युवा पीढ़ी की रोजगार  प्राप्त न कर पाने की कुंठा व तनाव का चरमोत्कर्ष  है.

आपकी लघुकथाएँ तीव्र हास्य व्यंग्य का पुट लिए हँसाती हैं, चौंकाती हैं और फिर अंत में सामाजिक विद्रूपताओं के विरोध में भीतर ही भीतर तिलमिलाने पर विवश कर देती हैं.इसी क्रम में  लघुकथा "नेता चरित्र " जहाँ नेताओं के चरित्र को उजागर करती है, वहीं भीतर तक गुदगुदाती है और शालीन हास्य को जन्म देती है, जब मूर्च्छित पड़े नेता जी उदघाटन का नाम सुनते ही चैतन्य हो जाते हैं और पूछते है," कहाँ आना है भाई और कब आना है? 

   आपने नारी जाति के प्रति समाज के पूर्वाग्रह को भी अपनी कथाओ मे दर्शाया है, जहाँ  पर स्त्री और   पर पुरुष के संबंधो को  बस हेय दृष्टि से ही देखा जाता है,  आपने लघुकथा "फैसला "के माध्यम से ऐसे  ही लोगों के मुँह पर तमाचा  मारा है, जब पंचायत लाजो देवी पर  लांछन लगाती है तब युवक का यह कथन ," यदि फैसला हो चुका हो तो क्या  मै अब अपनी बहन को ले जा सकता हूँ? "यह संवाद युवक के मुख से निकलकर उन समस्त लोगों का सर शर्म से झुका देता है, जो समाज के तथाकथित ठेकेदार बनते हैं और पवित्र रिश्तों को भी आरोपित करने से नहीं चूकते

लघुकथा "आदमी " की यह पंच लाइन,खासी  प्रभावित करती है जब फकीर कहता है"  सेठ जी कुछ देर को आप ही आदमी बन जाइए". यह पंच लाइन पाठकों को सहसा ही " वाहहहहह  गजब" कहने को विवश कर देती है . साथ ही यह पंक्ति पाठकों को लंबे समय तक झकझोरती रहेगी और हो सकता है कि कुछ निष्ठुर हृदय भी इस कथा को पढ़कर आदमी बन जाएँ, यही साहित्य की जीत भी है, यदि साहित्य को पढ़कर समाज की सोच को नयी दिशा मिले तो यह साहित्यकार की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है.

 इसके अतिरिक्त आपने समाजिक व आर्थिक विषमताओं को व्यंगात्मक शैली के द्वारा बड़ी चतुरता से प्रस्तुत किया है, गुलामी, बिसकुट का पैकेट,माँ, परिस्थितियाँ ऐसी ही लघुकथाएँ हैं.

. इस क्रम में विशेष रूप से अतिथि देवो भव तथा मजबूरी ऐसी ही कथाएँ हैं जो गरीबी में बिन बुलाए मेहमानों के आने पर  कंगाली में आटा गीला जैसी परिस्थितियों के बीच फँसे पात्रों को ऐसे रास्ते सुझाती हैं कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे. विषम परिस्थितियों में भी जीवन को सहजता प्रदान करना यह आपकी लघुकथाओं की विशेषता बन पड़ी है.

इसके अलावा नेकी का फल, इंसानियत, रक्तदान महादान आदि लघुकथाएं  मानवता व आदर्शवाद का पाठ पढ़ाती  हैं

लघुकथा अधिकार में  पात्र रमा का अपने शराबी पति से यह कहना   कि,  ,"जब हमारी सरकार ने आदमी और औरत को बराबर का दर्जा दे रखा है, औरतें नौकरी करती हैं तब मैं इस काम में आपका साथ क्यों न दूँ"ऐसा कहकर वह अप्रत्यक्ष रूप से  पुरुष के अहं पर चोट करते हुए समस्या का समाधान ढूँढते  हुए  अपने पति को मद्यपान की लत से छुटकारा दिलाने में एक नवीन प्रयोग करती  दिखती है.

आकार में लघु और कथा के सम्पूर्ण  तत्वों को अपने में समाहित किए अंत में अपने वृत को पूरा  करता आपका यह साहित्यिक दर्पण  पाठकों को अवश्य ही प्रभावित करेगा , ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है.





कृति : सपनों का शहर (लघु कथा संग्रह)

 लेखक : अशोक विश्नोई  

 प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशन, नई दिल्ली

 प्रथम संस्करण : 2022

 पृष्ठ संख्या -103

 मूल्य : 250 ₹

 

समीक्षक

मीनाक्षी ठाकुर

 मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश

भारत






रविवार, 17 जुलाई 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था कला भारती के तत्वावधान में रविवार 17 जुलाई 2022 को वाट्स एप काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी की अध्यक्षता अशोक विश्नोई ने की। मुख्य अतिथि डॉ. प्रेमवती उपाध्याय और विशिष्ट अतिथि - बाबा संजीव आकांक्षी रहे। संचालन राजीव प्रखर ने किया । प्रस्तुत हैं गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों की रचनाएं .....


भारतीय,भावुक नागरिक ने

नव- निर्वाचित नेता
को बधाई
देने का विचार बनाया,
उसने फोन घुमाया ,
नेता जी बोले
कौन है भाई
नागरिक ने उत्तर
दिये बिना ही
पश्न किया,
आप कहाँ से बोल रहे हैं
श्री मान
नेता जी
जो अभी तक
अभिमान के आवरण से
मुक्त नहीं हो पाये थे,
झुँझलाकर बोले,
जहन्नुम से-
नागरिक ने उत्तर दिया
मैं भी, यहीं सोच रहा था
कि
तुम जैसा नीच, कमीन, बेईमान
स्वर्ग में तो जा ही नहीं सकता ।।

✍️ अशोक विश्नोई
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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गुरु  तत्व यदि नहीं होता,
तो मानव शिक्षित न होता।
बिना सींग का बिना पूँछ का
यह चौपाया पशु ही होता।

दिव्य गुणों की देकर दीक्षा,
किया समुन्नति भाग्य मनुज का।
अंधकार से इसे उबारा,
दिखा दिया है पथ प्रकाश का।।

परम् पूज्य गुरुवर चरणों मे ,
नमनकोटिशः बार हमारा।
एक नहीं शत शत जन्मों से,
गुरुवर से सम्बन्ध हमारा ।।

गुरु चरणों मे शीश नवाऊँ,
नित वंदन कर आशीष पाऊं।
भारत भूमि  और गुरुवर जी,
हर जीवन में  तुमको पाऊँ ।।

✍️ डॉ प्रेमवती 
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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वो हर चोट, तकलीफ की नुमाईश कर रहे हैं।
फ़ेसबुकिया अपनों की आजमाइश कर रहे हैं।।
दिखाने वाले अंगूठा चलाते हैं हरफों पे अब,
झूठे खुद, सच्चे दोस्तों की ख्वाहिश कर रहे हैं।।

✍️ संजीव आकांक्षी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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काश पुनः वापस आ जाये
स्वर्णिम वही अतीत

कभी अपरिचित से रस्ते में
राम-राम करना
और चचा-ताऊ कह मन में
अपनापन भरना
ज़िन्दा थी जो रग-रग में, फिर
बहे पुरानी प्रीत

मुखिया से ही हर घर की
पहचान बनी होना
उलट गया अब जैसे कोई
सपनों का दोना
पुनः दर्ज़ हो घर के नंबर पर
नामों की जीत

वही मुहल्लेदारी, बतियाना
मिलना-जुलना
एक दूसरे से आपस में
हर सुख-दुख खुलना
जीवित हों फिर से जीवन के
वो संबंध पुनीत

✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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और सुनो!
आज मैं कोई बड़ी बात नही करूंगा।
बड़ी बातें अक्सर समझ में नही आती,
या यूं कहो,
जो बात समझ में नहीं आती,
वोह बड़ी हो जाती हैं।
और सच यह भी है,
बड़ी बड़ी बात करने से,
आदमी बड़ा बन जाता है।
जंजालों में फंस जाता है
कोई भी समझदार आदमी,
फंसना कब चाहता है।
इसलिए मैं आज कोई भी,
बड़ी बात नहीं करूंगा।
छोटी-छोटी बात करूंगा।
क्योंकि छोटी छोटी बात और,
छोटे लोग बहुत सरल होते हैं।
लोगों को भा जाते हैं।
अनुकूल होते हैं,सहने में,
ओढ़ने में,बिछाने में,
समझने में  समझाने में,
जब चाहो बैठा लो तन की पायत में,
जब चाहो लगा लो मन के सिरहाने में,
और सुनो!
आज मैं कोई बड़ी बात नही करूंगा,
छोटी-छोटी बात करूंगा।
तुमने जिन्दगी को,
एक छंद बना डाला है,
स्वछंद को बंध में ढाला है।
सही बात मानो,पहचानो,जानो,
भावनाओ के नाक कानों को,
मात्राओं की किलों से मत छेदो।
सरलताओं के कोमल अंग मत भेदो।
भावनाएं रक्त रंजित हो जाती है।
तड़प जाती हैं,अधमरी हो जाती है।
छंद मुहजोर  हो जाते है,
कविताऐं मर जाती हैं।
सोने के पिंजरे में,
कैद चिड़ियों की तरह।
और एक बात सुनो,
बंधन में मत बंधो,
बंधन,बंधन होता है।
सोने की जंजीर का,
लोहे के पिंजरे का,
कि माथे के चंदन का
बंधन, बंधन होता है
वंदन का,अभिनंदन का।
यदि बंधन के बिना,
तुम्हारी रोटी नहीं पचती,
तो बात तो बहुत घटिया है।
बाथ रूम में रखी जैसी लुटिया है।
हर किसी को बांध लो,अपने बंधन में,
मत बंधो कभी किसी के बंधन में।
गुलाम होना कोई अच्छी बात है!
बेमतलब गुलामों के बंधन में।
छूट जाओ इन सारे बंधनों से,
मुक्त हो जाओ,
वंदन से,चंदन से,अभिनंदन से,
फिर सारी खुशियाँ,
तुम्हारे चारो ओर नाचेंगी,
बन जाओगे तुम  तपे कुंदन से।

✍️ त्यागी अशोका कृष्णम

कुरकवली, सम्भल

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जाना है एक दिन काल के गाल में
जीते जी  न  मरेंगे  किसी  हाल में।

बस गए जब घरौंदे खुशी से सभी
ऐसा खंजर चलाया फली डाल में।

उड़ न पाया  परिंदा  वो  नादान था
काट डाले  शिकारी ने पर जाल में।

लाल  रंग  से रंगी है  चुनर मात की
भर गया  दर्द ही दर्द  इस काल  में।

कैसे होगा अमन चैन शाम ओ सहर
बढ़ रही तलखियाँ अनकही चाल में।

एक मुद्दत से हम-हम निवाला हुए
छेद  करने  चले क्यों  उसी थाल में।

किसने  सोच था यूँ  गै़र  हो  जाएँगे
नज़रें बदली  हुई हैं  किसी चाल में।

सच है कड़वा  मगर  कंठ में थामना
शिव ही हो जाओगे चाँद है भाल में।

✍️ शशि त्यागी
अमरोहा
उत्तर प्रदेश, भारत

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रिश्तों की कसौटी पर उतरो तो कभी जानें ।
महफिल में कभी अपना समझो तो कभी जानें।।
मेरे घर के आंगन में घनघोर अंधेरा है ।
बादल से निकलकर तुम चमको तो कभी जानें ।।
है धूप कयामत सी प्यासी है जमीं मेरी।
घनघोर घटा बनकर बरसो तो कभी जानें ।।
हम अपनी मोहब्बत के अंजाम से वाकिफ हैं ।
मौसम के इशारे को समझो तो कभी जानें ।।
पलकों पे बिठा लेंगे तुम्हें दिल में बसा लेंगे।
तुम अपने तकब्बुर से निकलो तो कभी जानें।।
तुम्हें अपना बनाने की ख्वाहिश है मुजाहिद को।
तुम ग़म के समंदर से निकलो तो कभी जानें।।

✍️ मुजाहिद चौधरी
हसनपुर, अमरोहा
उत्तर प्रदेश, भारत

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ज़मीं पे पांव फलक पे निगाह याद रहे ,
मियाँ बुज़ुर्गों की ये भी सलाह याद रहे ,,

अगर हो  ग़ैर  से तक़रार  बात दीग़र है,
मगर हो भाई से तो बस निबाह याद रहे,,

करें जो नेकियाँ उनको भुला भी सकते हैं,
मगर  गुनाह  से  तौबा  गुनाह  याद  रहे,,

नवाज़ता  है  वही  मत  गुमान  में  डूबो,
वही कर देगा कभी  भी  तबाह  याद  रहे,,

रहम पसन्द  बनो  ये  पसन्द  है  उसको,
मुआफ़ियों में है रब  की  पनाह  याद  रहे,,

हमेशा दिल में 'मनु' तक़वा ए ख़ुदा रखिये,
कभी बिगड़ने  न  देगा  ये  राह  याद  रहे,,
        
✍️ मनोज वर्मा मनु
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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अरे चीं-चीं यहाॅं आकर, पुनः हमको जगा देना।
निराशा दूर अन्तस से, सभी के फिर भगा देना।
चला है काटने को जो, भवन का मोकला सूना,
उसी में नीड़ अपना तुम, मनोहारी लगा देना।
(मोकला = पुराने घरों की दीवारों में बनाई जाने वाले खिड़कीनुमा छेद।
नीड़ = घोंसला)
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कुछ दोहे

प्यासे को संजीवनी, घट का शीतल नीर।
दम्भी सागर  देख ले, तू कितना बलवीर।।

कहें कलाई चूमकर, राखी के ये तार।
तुच्छ हमारे सामने, मज़हब की दीवार।।

आकर मेरी नाव में, हे जग के  करतार।
मुझको भी अब ले चलो, भवसागर से पार।।

छुरी सियासत से कहे, चिन्ता का क्या काम।
मुझे दबाकर काॅंख में, जपती जा हरिनाम।।

मायूसी से क्या भला, हमें कभी कुछ काम।
अपनी तो मुस्कान है, आप सभी के नाम।।

पंछी तू परदेस में, हो कितना ही शाद।
मेरी छत-दीवार को, रखना फिर भी याद।।
(शाद = प्रसन्न)

निद्रा रानी आप से, अपनी यह फ़रियाद।
हमें दिखाओ अब नहीं, झगड़े और फ़साद।।

✍️राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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हे बादल यह विनती सुन लो!
अब तो आने का दिन चुन लो

संकट मे प्यासी धरती है
व्याकुल हो आग्रह करती है
प्यासे पंछी का भान रहे
हर हलधर का भी मान रहे
चातक के प्राणों के दाता
कब सिवा तुम्हारे कुछ भाता!
कैसे हो खेती  धानों की
वसुधा के नव -परिधानों की?
माटी के सूखे ढेलों पर
जल  की जलधारा  ही बुन लो
हे बादल यह विनती सुन लो!
अब तो आने का दिन चुन लो

दादुर पपिहा सब मौन हुए
भभके- भभके सब भौन हुए
घन घोर घटा बन छा जाओ
जग का संताप मिटा जाओ
कब नील गगन से आओगे
बूँदों की सरगम गाओगे?
मत बनो हठी तुम हे जलधर!
  बरसो- बरसो  बस हठ तजकर
तुम परे हटाकर निष्ठुरता
कोमल कलियों का मन गुन लो
हे बादल यह विनती सुन लो
अब तो आने का दिन चुन लो

✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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सूरत प्राची से जब झांके , धरती पर मुस्काता कौन ।
खग समूह में पर फैलाये , कलरव गीत सुनाता कौन ।

धीर गंभीर नील नीरमय, रहा धरा के चरण पखार ,
उमंग लहरें मौन सिन्धु में ,बोलो सखे जगाता कौन ।

पावस की रिमझिम में हँसते, हरियाली से रंगे पात ,
सूखी शाखों को जीवन दे , राहें हरी सजाता कौन ।

ताल तलैया नदियाँ नहरें , कूप सरोवर पोखर झील ,
मस्त झूमती जल निधियों में, हिलोर भला उठाता कौन ।

घर आँगन में खेले बेटी , रखती सबका ही है मान ,
सर्वोच्च शिखर तक जाने के , सपने उसे दिखाता कौन ।

✍️ डाॅ रीता सिंह
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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गुरु ज्ञान माणिक्य सम,
वचन बड़े अनमोल।
सबके मन की जीत को,
भाषा उनकी बोल।।

दर-दर भटका मैं फिरा,
कभी न पाया मान।
गुरुदेव का नेह मिला ,
जग में है पहचान।।

गंगा सम गुरुज्ञान है,
जो डूबे सो पाए।
पापों की छाया मिटे,
तन ऊजल हो जाए।।

राम नाम की लीख पर,
चल नर होय निहाल।
सुमिरन हो गुरुनाम का ,
दमके तन-मन-भाल।।

गुरुकृपा जब भी मिले,
जागे ज्ञान विवेक।
जान मान पहचान लो,
दोनों रूप हैं एक।।

✍️ अतुल कुमार शर्मा
सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत

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रूप मन में तुम्हारा बसाने लगे
मीत, हम प्रीत के गीत गाने लगे।

गेसुओं की महक, पायलों की झनक,
चैन चोरी करे चूड़ियों की चमक।
दिल हमारा रहा अब हमारा नहीं,
एक पल बिन तुम्हारे गवारा नहीं।
साँस की आँच को तुम बढ़ाने लगे।
मीत हम प्रीत के....

मृगनयन, केश काली घटाएं घनी,
है तुम्हीं से मिले चाँद को चाँदनी।
सूर्य की तुम गगन से उतरती किरन,
गंध से ही तुम्हारी महकता चमन।
तुम मिलीं हाथ जैसे ख़ज़ाने लगे।
मीत हम प्रीत के....

तुम हृदय में बँधीं सब गिरह खोल दो,                       बोल दो प्रेम रस में पगे बोल दो।
तोड़ दो अब अधर की हरिक वर्जना,
चैन आए कि मन है बहुत अनमना।
एक सच बस तुम्हीं, सब फ़साने लगे।
मीत हम प्रीत के...

✍️ मयंक शर्मा
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश भारत

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नशा एक बार जो कर लो,तो आदत फिर नही जाती।
छुपाकर ही करो चाहे मगर लत फिर नही जाती।
के अपने हाथ ही खुद आप अपना कर रहे नुकसान,
बला बरबादियो की  ये मुसीबत फिर नही जाती।।

✍️ इन्दु रानी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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मुरादाबाद पहचान  हमारी
दाल मुरादाबादी  पत्तल से
झाड़-फूस में नागफ़नी हम
वृक्षों  में   हम   पीपल   से
शेरों के लिए शेर  हुए  हम
हिरनों के लिए हैं चीतल से
सोने का दिल रखते हैं हम
बेशक व्यवसायी पीतल के

✍️ दुष्यन्त बाबा
पुलिस लाइन
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश , भारत

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मेरे विरोधी ही,
मेरे अच्छे “मित्र” हैं..
और मुझसे सच्चा प्यार करते हैं,
जब अपने साथ छोड़ जाते हैं
जब अपने हमसे रूठ जाते हैं
उस समय की वेदना में,
शान्त जीव चेतना में
हंसकर अपने होने का इजहार करते हैं
मेरे विरोधी ही मेरे अपने हैं
और मुझे सदैव याद करते हैं

जब हार होती है,
और मैं टूट जाता हूँ
अकेला तन्हा, अपनी “किस्मत’ से रूठ जाता हूँ
तब मेरे विरोधी मुझे चिढ़ाते हैं
तब मेरे विरोधी मुझे उकसाते हैं
और मेरे बिखरे हुए
“अरमान” को पुनः जगाते हैं
मेरे विरोधी ही मेरी प्रेरणा हैं
और मुझ पर पक्का एतबार करते हैं 

“अपनों” का आना, सिर्फ हवा का झोंका है..
“चिता” पर छोड़ आते समय
कितनों ने रोका है,
जो मेरे सुख में कम
और दुःख में ज्यादा याद करते हैं..
मेरे विरोधी ही हैं
जो मेरी हर पल बात करते हैं
मेरे विरोधी ही हैं
जो मेरे शरीर में , तेज रक्त प्रवाह कर
आसीम शक्ति का संचार करते हैं

✍️ प्रशान्त मिश्र
रामगंगा विहार,
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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जीवन एक संग्राम है
जिसमें चलना अविराम है
अबोध तू बालक नही
वृद्ध सा कन्धा तेरा झुका नही
जीवन एक संग्राम है
जिसमे चलना अविराम है।।1।।
माना आयी है तुझपे जवानी
कर ना देना होके मदहोश
खून को पानी
माना है कि चार दिन की जिंदगानी
और उसमें भी बस दो दिन की जवानी
अपने ही हाथो स्वाहा न कर तू अपनी कहानी
देश और समाज पर न्योछावर हो छोड़ जा तू
इतिहास के पन्नो पर अपनी स्वर्णिम निशानी
क्योंकि तुझे मालूम है
जीवन एक संग्राम है
जिसमे चलना अविराम है।

✍️ आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के लघुकथा संग्रह सपनों का शहर की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा-‘संवेदनाओं के अमृत सरोवर में आकंठ डूबी लघुकथाएं’

    लघुकथा के संबंध में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल ने महत्वपूर्ण रूप से व्याख्या करते हुए कहा है कि ‘लघुकथा किसी क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार की संक्षिप्त और शिल्प से तराशी गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। अपनी संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता में वह जीवन की व्याख्या को समेटकर चलती है।’ दरअसल लघुकथा अपने आकार प्रकार में दिखने वाली ऐसी छोटी रचना है जो संवेदनाओं के अमृत सरोवर में आकंठ डूबकर अपने समय को प्रतिबिम्बित करने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, समस्याओं के समाधान भी तलाशती है। लघुकथा अपने आकार से अधिक अपनी मारक क्षमता के लिए पहचानी जाती है। लघुकथा त्वरित की विधा होने के बाबजूद कभी भी सीधे-सीधे वह बयाँ नहीं करती जो वह अपने अंतिम वाक्य से उत्पन्न प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ अभिव्यक्त कर जाती है। लघुकथा का यह अनकहा ही लघुकथा की खूबसूरती है। यह खूबसूरती ‘सुबह होगी’ से चलकर ‘सपनों का शहर’ तक की 24 वर्षीय लघुकथा-यात्रा में उपजीं वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथाओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलती है।

संग्रह की पहली ही लघुकथा ‘काश’ में सेठजी का भिखारी को 10 रुपये के लिए दुत्कारना और फिर बाद में सेठजी का टेन्डर 10 रुपये के अंतर से ही पास होने से रह जाना, पाठक को भीतर तक झकझोर देता है। ‘भूख’ शीर्षक से 2 लघुकथाएं संग्रह में शामिल हैं और दोनों ही लघुकथाएं संवेदनशीलता की पराकाष्ठा को अभिव्यक्त करते हुए मन को मथने के लिए अनेक प्रश्न छोड़ जाती हैं अपने-अपने अंतिम वाक्य-‘ हमारा तो कहानी सुनकर ही पेट भर जाता है माँ...’ और ‘...हमें नहीं पता, ट्रेनिंग क्या होती है? हमें तो भूख लगती है, बस इतना पता है...’ के साथ। इसी प्रकार संग्रह की शीर्षक लघुकथा ‘सपनों का शहर’ भी प्रभाकर द्वारा अपनी डिग्रियों की फाइल को जला देने के अंतिम शब्दचित्र के साथ व्यवस्था की अव्यवस्थित स्थिति पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगाकर मंथन को विवश करती है।

विश्नोई जी ने अपने आत्मकथ्य में कहा है कि ‘जैसा देखा वैसा लिखा’। इस आँखिन देखी की सशक्त अभिव्यक्ति का प्रमुख कारक आम बोलचाल की भाषा का होना है। कीर्तिशेष गीतकवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ-‘जिस तरह तू बोलता है/उस तरह तू लिख...’ विश्नोई जी की लघुकथाओं पर शत-प्रतिशत सटीक बैठती हैं। दरअसल वह मूलतः व्यंग्य-कवि हैं, परिणामतः उनकी कविताओं की तरह ही उनकी लघुकथाओं की भाषा भी कहीं-कहीं चुटीली और मारक होने के साथ ही सामान्यतः सहज तथा बोधगम्य है, यही उनकी लघुकथाओं का सबसे बड़ा सकारात्मक और महत्वपूर्ण पक्ष भी है। 

निष्कर्ष रूप में, संवेदनाओं की सार्थक व सशक्त अभिव्यक्ति के मानक-बिन्दु गढ़ता यह लघुकथा-संग्रह ‘सपनों का शहर’ बहुत ही श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण संग्रह है जो साहित्य-जगत में निश्चित रूप से पर्याप्त चर्चित होगा तथा सराहना पायेगा, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी। 




 कृति - ‘सपनों का शहर’ (लघुकथा-संग्रह)                    

लघुकथाकार    - अशोक विश्नोई                                  

प्रकाशक    - विश्व पुस्तक प्रकाशन, नयी दिल्ली-110063

प्रकाशन वर्ष - 2022

मूल्य       - रु0 250/-

समीक्षक

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9412805981