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शनिवार, 17 अप्रैल 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- काने मच्छर की महबूबा !!!!

 


हमारे कानों पर दो मच्छर थे, जो अपने फर्ज़ पूरे करने के लिहाज़ से भिनभिना रहे थे। सोने से पूर्व की सही भूमिका बनाने के लिए हमने कई क़िस्म की परिवर्तनीय करवटें भी लीं, लेकिन ये मच्छर भी न जाने किस ज़िद में थे। टीवी के विज्ञापनों में जापानी शक़्ल की मच्छर गपकने वाली मशीन स्विच बोर्ड पर लगी हम पर हंसती नज़र आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे मच्छरों से मशीन ने कुछ 'सैटिंग' कर रखी है। तमाम मच्छर  उस मच्छरमार मशीन का शुक्रिया अदा करने उसके आसपास भी आ-जा रहे थे। 

एक मच्छर दूसरे से कह रहा था- "आदमी की नीयत अगर इस मशीनी दवा की तरह ख़राब रही, तो कोई हमारा शरीर-बांका भी नहीं कर सकता।" 

" वो तो सही है, मगर तू इस आदमी की सुरंग में मत चले जाना। इसने अगर अपने कान पर हाथ रख लिया, तो तू वहीं घुटकर मर जायेगा। यह आदमी ऐसा कई बार कर चुका है।" दूसरे मच्छर ने हमारी शरारत के घातक परिणामों की ओर इशारा करते हुए उसे याद दिलाया।

"तुमसे ज़्यादा मुझे पता है- इसके बारे में। काने मच्छर की महबूबा उसी सुरंग में जाकर मरी थी। बाद में उसकी लाश बड़ी अस्त-व्यस्त हालत में इसके बिस्तर पर पड़ी मिली थी। बेचारी नगर-निगम के दवा न छिड़कने का अभी और फ़ायदा उठा सकती थी। उम्र ही क्या थी अभी उसकी ?" काने मच्छर की महबूबा के प्रति अपनी हार्दिक संवेदनायें व्यक्त करते हुए पहला मच्छर हमारे कान के पास से सरक लिया।

"काने मच्छर की महबूबा से तुम्हारे भी तो कुछ ताल्लुक़ात रहे थे पहले ? उसके बच्चे कौन से इलाक़े में हैं आजकल ?" दूसरे मच्छर ने काने की महबूबा से पहले मच्छर के नाजायज़ संबंधों का पुनर्स्मरण हुए ऐसे पूछा, जैसे वह कोई बहुत गोपनीय तथ्य उजागर कर रहा हो।

"तो क्या हुआ ? कौन नहीं था उसके पीछे ? तुम भी तो वेटिंग-लिस्ट में चल रहे थे ?"  काने मच्छर की महबूबा के आशिक़ों की पूरी लिस्ट सुनाये बिना पहले मच्छर ने दूसरे मच्छर का मुंह बंद किया और उड़कर मच्छरमार जापानी मशीन का शुक्रिया अदा करने उसके ऊपर आकर बैठ गया।

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- बम-धमाकों पर एक प्रेस-कांफ्रेंस !!


          बम-धमाकों को लेकर गृह मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस रखी थी, ताकि मीडिया की मार्फ़त यह बताया जा सके कि इस बार जो धमाके हुए हैं, उनमें विरोधी पार्टी की जगह इस बार भी किसी आतंकी गुट का ही हाथ है और हमेशा की तरह अब इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा I

    "आप इन धमाकों के पीछे किसका हाथ मानते हैं ?" किसी न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर ने अपने हाथ अपनी जेबों में छिपाते हुए पूछा I

    "देखिये, अभी कुछ क्लीयर नहीं हुआ है कि किसका हाथ माना जाये I जैसे ही निश्चित होगा, आपको बता दिया जाएगा I" कम शब्दों में ज़्यादा बात कहने के लिए खुद को मशहूर मानने वाले मंत्री जी का जवाब होता है I

    "लेकिन किसी आतंकी गुट ने आज ही अपना हाथ होने की बात क़ुबूल की है ?" रिपोर्टर ने अपनी ख़ुफ़िया जानकारी से अवगत कराते हुए ऐसे पूछा, जैसे आतंकी गुट ने यह बात उसके कान में खुद डाली हो और अब वह उसका खुलासा इस सवाल की मार्फ़त कर रहा हो I

    "इस बारे में अभी हम कुछ नहीं कह सकते I यह काम जांच एजेंसियों का है I वे जैसा कहेंगी, हम बता देंगे I" मंत्रीजी ने अपनी बात में साफगोई का प्रसारण करते हुए कहा I

    "सरकार अब क्या कर रही है ?" एक अन्य अखब़ार के कम तनख्वाह  पाने वाले पत्रकार ने इस सवाल को कुछ ऐसे अंदाज़ में पूछा, जैसे वो अपने अखब़ार-मालिक से वेतन बढ़ाने की बात कर रहा हो और इस बारे में क्या सोचा जा रहा है, यह पूछ रहा हो I

    "सरकार सोच रही है I"

    " क्या सोच रही है ?"

    " यही कि क्या सोचा जाये ?"

    " क्या सोचा जाना चाहिए ?"

    " यह सोचना सरकार का काम है I"

    " फिर भी कुछ तो सोचा होगा ?"

    " यह जब सोच लिया जाएगा, हम बता देंगे I" वाक्यों के संक्षिप्तीकरण में आस्था रखने वाले मंत्री जी जवाब देते हैं I

    "बहुत दिनों से सुन रहे हैं कि सोचा जाएगा, सोचा जाएगा I आखिर कब तक सोच लेगी आपकी सरकार ?" समवेत स्वर के ज़रिये केवल यह अहसास कराने को कि हम सब पत्रकार एक हैं, कई पत्रकारों ने एक साथ शब्दों का हमला किया I

    "इस बारे में भी सोचा जा रहा है I"

    "मृतकों और घायलों के बारे में क्या सोच रहे हैं ?"

    "वो हम पहले ही सोच चुके हैं I"

    "क्या ?"

    "यही कि सबको मुआवजा दिया जाएगा I"

    "कब तक मिल जाएगा ?"

    "अब यह तो निर्भर करता है कि कितने लोग मरे हैं और कितने घायल हैं I हालात देखकर ही सब कुछ होगा I" मंत्री जी अपना यह जवाब देकर उठने की तैयारी करने लगते हैं और इस तरह बम-धमाकों पर चल रही प्रेस-कांफ्रेंस अगले धमाकों तक के लिए स्थगित हो जाती है I

    ✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल)निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य --- पराई नारियों पर एक सत्संग !!

    


 सत्संग चल रहा था. स्वामी जी अपनी हैसियत से ज़्यादा ऊंचे मंच पर बैठे थे. भक्त चूँकि अभी वह ऊंचाई पाने लायक पोज़ीशन हासिल नहीं कर पाए थे, इसलिए वे नीचे बैठे, स्वामी जी का चेहरा ही देख रहे थे. सत्संग जारी था.

“…….तो मैं बता रहा था कि कभी पराई नारी की ओ़र ग़लत भाव से मत देखो, यह सब मिथ्या है.” स्वामी जी ने नारियों के उस समूह की ओ़र एक गिद्ध द्रष्टि डालते हुए इस बात को कुछ ऐसे अंदाज़ में कहा, जैसे वे उन तमाम नारियों को ग़लत भाव से देखने के लिए परमात्मा की ओर से अधिकृत हों और जो लोग अपने पूर्व जन्मों के कर्मों की वजह से अभी इस लायक नहीं बन पाए हैं, उन्हें आगाह कर रहे हों कि इसके कितने भयंकर दुष्परिणाम होते हैं.

    “दुर्योधन ने द्रौपदी को ग़लत द्रष्टि से देखा तो उसका क्या अंज़ाम हुआ ? बहुत बुरा हुआ. वह कही का नहीं रहा. राजपाट भी गया और अंत में उसकी हार हुई सो अलग.” प्रवचन अभी भी उस विषय से नहीं हट पाया था, जो आज बहुत महत्वपूर्ण था और स्वामी जी की तरफ से स्पष्टीकरण मांग रहा था. कुछ बूढ़ी औरतें जो इस बात से पूरी तरह से इत्तेफाक रखती थीं, उठकर मंच की ओर आईं और स्वामी जी के गले में फूलों का हार डालकर सबसे आगे ही बैठ गयीं.

“शास्त्रों में साफ़-साफ़ लिखा है कि अपनी बीवी के अलावा सभी औरतों को अपनी बहन-बेटियों की नज़र से देखो.” बिना उन शास्त्रों का हवाला दिए कि वे कौन से शास्त्र हैं, जिनमें इस किस्म की बातें लिखी हैं, प्रवचन आगे बढ़ रहा था.

    “जो लोग फिर भी नहीं मानते और ऐसे ही नीच कर्मों में लगे रहते हैं, उन्हें ‘श्वान-योनि’ यानि कुत्ते की योनि में जन्म लेना पड़ता है और अपने मालिक से तिरस्कार का सामना करना पड़ता है. आप जगत में जितने भी कुत्ते देख रहे हैं, वे सब पिछले जन्मों में इसी प्रकार के पाप-कर्म करने की वजह से ही इस गति को यानि स्थिति को प्राप्त हुए हैं.” कुत्तों के बारे में अपनी नई थ्योरी प्रस्तुत करते हुए स्वामी जी ने एक सरसरी निगाह फिर औरतों के समूह पर डाली तो औरतों ने भी “जय हो, महाराज की जय हो”, जैसे गगन भेदी नारों से पूरा पंडाल हिलाकर रख दिया.

    “सत्य बोलो, किसी का बुरा मत सोचो और अपने गुरु की शरण में ही रहो, इन बातों का ध्यान रखोगे तो जीवन जो है, वो अच्छा रहेगा, वरना यह जो जीवन है, वो कहीं का भी नहीं रहेगा यानि जीवित रहते हुए भी मरे हुए के सामान ही रहोगे.” स्वामी जी ने अपने प्रवचन को अंतिम रूप देते हुए सत्संग-आयोजक की ओर एक निगाह डालकर अपने उठने की मूक सूचना दी और उसके बाद किसी ऐसे फ़िल्मी गाने से अपनी बात पूरी की, जिसका भावार्थ कुछ इस प्रकार था कि ‘लग जा गले, कि फिर ये हसीं रात हो ना हो, शायद कि इस जनम में मुलाक़ात हो ना हो.”

“परमात्मा कहते हैं कि हे प्राणी, किसी और के गले लगने से बेहतर है कि तू मेरे गले लग जा, क्योंकि यह रात भी कपटी है, इसका कोई भरोसा नहीं कि यह फिर हो या ना हो. और यह जो जन्म तुझे मिला है, उसमें तू मुझे प्राप्त कर सके या ना कर सके, इसमें भी संशय है.” फ़िल्मी धुनों पर बने गानों का प्रसारण बहुत देर तक होता रहा और इस दौरान स्वामी जी को परमात्मा स्वरुप मानकर औरतों द्वारा उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने का सिलसिला भी शुरू हो गया.

✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की काव्य कृति ---कविता नियोजन । इस कृति में उनकी सन 1972 से 1974 तक की 26 कविताएं संगृहीत हैं । इस कृति का प्रकाशन नवम्बर 1982 में प्रज्ञा प्रकाशन मंदिर चन्दौसी (उत्तर प्रदेश) से हुआ था । उनकी यह कृति मुझे डॉ विश्व अवतार जैमिनी जी ने प्रदान की थी ।



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:::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल)निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ---देश सेवा एक नेता की !!

     


देश की सेवा करने के साथ ही अपनी और अपने परिवार की सेवा करने वाले नेता के कुछ ऐसे उसूल थे, जो खुद के अपने थे और उन पर जनता को भले ही नाज़ ना हो, मगर उन्हें इन पर नाज़ था. वे एक ऐसी पार्टी के वरिष्ठ नेता थे, जिसके कुछ अपने उसूल थे और जो वक़्त के हिसाब से बदल जाया करते थे. लेकिन नेता जी के उसूलों ने बदलने से मना कर दिया था, इसलिए वे यथावत रहे और आज भी हैं. उनकी पार्टी जब सत्ता में थी, तब भी उसूलों ने बदलने से शायद मना कर दिया था कि हमें नहीं बदलना. काम के बदले दाम अगर लेने हैं तो लेने हैं, यह नहीं कि फ़ोकट में काम कर दिया कि उनके साले के सगे साले के बहनोई का मसला है तो कुछ ना लें. देश की सेवा के लिए यह उनका पहला उसूल था और जिसके बिना वे देश-सेवा को असंभव मानते थे.

        डकैती के पेशे में जब उन्होंने यह देखा कि कोई ख़ास इनकम अब नहीं रही और कभी भी पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर हवालात में बैंतों से सुताई हो सकती है, तो वे देश की सेवा वाले काम में कूद पड़े. इसमें उन्हें ज़्यादा मुनाफा दिखाई दिया. जो लोग उन्हें कल तक ' कलुआ ' कहकर बुलाते थे, आज वही लोग उन्हें श्री काली प्रसाद जी कहकर संबोधित किया करते हैं. अपने इलाके से चुनाव जीतकर वे यह बात साबित कर चुके थे कि कितनी भी अत्याधुनिक वोटिंग मशीनें मंगा ली जाएं, उनके वोट उतने ही पड़ेंगे, जितने उन्होंने सोच रखे थे कि पड़ने चाहिए. डकैती के दिनों में उनकी गोपनीय समाज-सेवा भी इसकी एक अहम् वजह थी.

     पहले वे सिर्फ़ अपने धर्म में ही आस्था रखते थे, मगर सियासत में आने के बाद वे सभी धर्मों को समानता के भाव से देखने लगे थे और अक्सर अन्य धर्मों के धार्मिक कार्यक्रमों में बिना निमंत्रण के ही पहुंच जाया करते थे. यह बात भी लोगों को बेहद प्रभावित करती थी कि जिसके मारे कभी पुलिस सहित सारा इलाका कांपता था, वह अब उनके समारोह में बिना बुलाये आने लगा है, तो लोगों ने दूसरे गुंडे और टुच्चे प्रत्याशियों की जगह उन्ही को वोट देना ज़्यादा मुनासिब समझा. इसी के बल पर वे कई सालों से चुनाव जीतकर देश की सेवा कर रहे थे.

        उनके कई उसूलों में से एक यह भी था कि मंत्री बनने के बाद तमाम गांवों की ग़रीब महिलाओं के घर जाकर वे खाना ज़रूर खाते थे और बाक़ायदा अपने फ़ोटो भी खिंचवाते थे ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत अखबारों में न्यूज़ सहित छपवाने के काम आए. इस दौरान जिसके हाथ का खाना ज़्यादा अच्छा लगता था, वे एक रात उसके घर रुकने का सौभाग्य भी उसे प्रदान करते थे. ऐसे सौभाग्यों से वे कई महिलाओं को नवाज़ चुके थे. मीडिया वालों ने जब इस पर अपनी शंका ज़ाहिर की तो उन्होंने अपनी उम्र का हवाला देते हुए यह साफ़ कर दिया कि वे यह सब देश के लिए ही कर रहे हैं. और यह बात सही भी थी कि देश की इसी सेवा की बदौलत आज गांव-गांव में उनकी औलादें हैं और जो ग्राम-प्रधानी के चुनावों से अपनी देश की ख़ातिर नेतागिरी की शुरुआत कर रही हैं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----नोटों की माला और ग़रीब !!

 


नोटों की जो महिमा है, वो किसी भी सूबे के मुख्यमंत्री से कम नहीं होती. नोट हैं तो इस ग़म से भरी दुनिया में जीने के कई सारे बहाने बन जाते हैं कि इसलिए जी रहे हैं. अपने पूर्वजन्म के कुछ ग़लत कर्मों की वजह से ग़रीब रहने वाले जिन लोगों पर नोट नहीं हैं, उनकी औक़ात सिर्फ़ एक बिकाऊ वोटर से ज़्यादा नहीं होती. वे लोग सिर्फ़ इस लायक हैं कि वक़्त या चुनाव आने पर कुछ लोगों को नोटों की मालाएं पहनते हुए देख सकें और खुश हों कि जिसे वोट देकर उन्होंने जिताया था, वह आज इस काबिल बन गया है कि नोटों की मालाएं पहन सके. इससे बड़ा संतोष कोई और नहीं कर सकते वे लोग. वैसे भी संतोष से बड़ा कोई दूसरा धन नहीं होता है, उनको शुरू से यही समझाया जाता है.

जिस मुल्क में हज़ार का नोट एक बहुत बड़ी आबादी का सिर्फ़ सपना भर होता है, वहां अगर हज़ार-हज़ार के नोटों से बनी एक भारी-भरकम माला किसी सी.एम. को पहनाई जाती है तो इसका मतलब सिर्फ़ इतना होता है कि अपना जो सूबा है, वो तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है. नोटों के बिना ऐसा कभी नहीं हो सकता. नोट हैं तो तरक्की है और अगर नोट नहीं दिखाए गए तो लगेगा कि सूबे के हालात सही नहीं हैं और उन्हें नोट कमाकर सही बनाया जाना बहुत ज़रूरी है. ग़रीब को इसी बात से तसल्ली हो जाती है कि उसके सूबे में कम से कम नेता लोग इतने खुशहाल हैं कि नोटों की मालाएं पहन कर अपने फ़ोटो खिंचवा रहे हैं.

दूसरे सूबों के नेता लोगों ने जब यह देखा कि फ़लाने सूबे के सी.एम. को लोगों ने पता नहीं कहां से करोड़ों रुपये इकट्ठे करके माला पहनाई है तो उनमें भी होड़ लग गयी कि वे भी अपने सी.एम. को थोड़ी हल्की ही सही, मगर माला ज़रूर पहनाएंगे. जो रूपया उन पर पता नहीं कहां से आया था, वे उसकी मालाएं बनवाने लगे. फिर यह बहाने ढूंढ़े गए कि इसके लिए कौन सा आयोजन किया जाये, जो देश की तरक्की के लिए बहुत ज़रूरी लगे. वह आयोजन भी करवाया गया.

हज़ार के एक नोट का ही वज़न जब सौ-सौ के दस नोटों के बराबर होता है तो यह सोचिये कि लाखों नोटों के वज़न से बनी उस माला का वज़न कितना लगेगा– विरोधी पार्टियों के लिए, जो चार हाथियों की सूंड के बराबर है ? जिस माला को उठाने के लिए किसी क्रेन की ज़रुरत पड़े, उसे गले में पहनकर मुस्कराना कितनी हिम्मत का काम है ? कोई दुबला-पतला नेता होता तो माला सहित उसके नीचे दबकर ही दम तोड़ देता, मगर फ़लाने सूबे के सी.एम. में कितना दम है कि माला के बीच में से हाथ हिलाकर फ़ोटो भी खिंचवा लिया और कुछ हुआ भी नहीं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

सोमवार, 18 जनवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ---धरने, प्रदर्शन और लाठियां

   


लाठियों का जो इतिहास है, वो ठीक से तो नहीं पता कि कितना पुराना है, फिर भी इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जितना पुराना भैंसों का इतिहास है, निश्चित रूप से वह उतना पुराना तो होगा ही।‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जैसे मुहावरे भी इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं. खुद को विद्वान् समझने वाले विद्वानों का भी यही मानना है कि भैंसों से पहले ही लाठियों ने जन्म ले लिया होगा वरना भैंसों को हांक पाना बहुत मुश्किल हो जाता । जैसे-जैसे तरक्की हुई और खाली बैठे लोगों ने यह सोचना शुरू किया कि धरने और प्रदर्शन करने से बेहतर कोई और काम नहीं है, लाठियों ने अपनी सोच बदल दी। वे अब प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने के काम आने लगीं । बीच में अगर किसी प्रदर्शनकारी का मन हुआ कि उसका नाम और फोटो भी अखबारों में छप जाये, तो उसने लाठीचार्ज के दौरान अपने सिर को लाठी के नीचे कर दिया कि फूट जाये तो बेहतर ।

किसी लाठी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जो सिर उसके नीचे ज़बरदस्ती आ गया है, वह किसका है ? किसी ग़ैर सत्ताधारी पार्टी के पदाधिकारी का है या उसके किसी चमचे का ? उसे तो ऊपर वाले ने जो काम सौंपा है, वह उसे पूरा कर रही है, बस । मोबाइल के ज़माने में लाठियों को अब चार्ज भी किया जाने लगा है । ‘लाठीचार्ज’ शायद उसी को कहा जाता है. इन्हें कैसे और क्यों चार्ज किया जाता है, यह पुलिस को बेहतर पता होगा । हमें तो केवल इतना ही पता है कि पुलिस ने लाठीचार्ज किया और उसमें इतने लोग काम आ गए और बाकी के हालात ऐसे हैं कि कभी भी इस ग़म से भरी दुनिया को छोड़ कर निकल लें ।

महिलाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ कोई ग़ैर सत्ताधारी पार्टी का प्रदर्शन हो रहा है और महिलायें उसमें सबसे आगे ना हों तो लगता नहीं कि उनके साथ कुछ हुआ है I इसीलिए सत्ताधारी पार्टी को हटाने की मुहिम के तहत इधर, महिलाओं ने अपना प्रदर्शन शुरू किया और उधर, लाठियों ने । किसी लाठी ने यह नहीं सोचा कि ये महिलायें हैं और अबला हैं । सबके साथ बराबरी का व्यवहार करते हुए लाठियां चल दीं यानि लाठीचार्ज हो गया I हर लाठी  और प्रदर्शनकारी का सिर या अंग विशेष जानता है कि अब क्या होना है, मगर ‘सर फुटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’, वाले ग़ैर राष्ट्रीय गीत की तर्ज़ पर बिना झुके सिर जो हैं, वो फूट जाते हैं ।

एक शब्द होता है ‘लठियाना’ । पुलिस-अफसर चाहें दिल्ली के हों या लखनऊ के, सब इसी का इस्तेमाल करते हैं कि “ऊपर से आदेश हैं कि सबको लठियाना है” । अब यह जिनको लठियाना है, उनकी किस्मत कि वे कितने लठिया पाते हैं खुद को ? हाथ-पैरों के अलावा सिर भी इन लाठियों द्वारा लाठियाया जाता है, जिस प्रदर्शनकारी को यह महसूस हुआ कि अगर उसे नहीं लाठियाया गया तो हाईकमान की निगाहों में उसकी पोज़ीशन खराब होगी, तो उसने अपना सिर किसी चलती हुई लाठी के नीचे दे दिया और फिर उसे पकड़कर बैठ गया कि “हाय, मार डाला । ” सियासत यूं ही नहीं हो जाती । उसके लिए धरने, प्रदर्शन और लाठियां ज़रूरी होती हैं, ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रुरत पार्टी में अपनी जगह बनाने के काम आये.


✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ---एक नेता के मरने के बाद

   


चित्रगुप्त दुविधा में थे कि जिस नेता को अभी यहां लाया गया है, उससे क्या और किस किस्म के सवाल किये जाएं कि वह सच बोलने को मजबूर हो जाये ? बामुश्किल मरने वाले इस नेता को देखकर उन्हें जो सबसे बड़ी दिक्कत पेश आ रही थी, वह यह थी कि इसे अगर हलके-फुल्के सवाल करके स्वर्ग भेज दिया गया तो वहां के लोग ऐतराज़ करेंगे कि यह तो सरासर ज़्यादती है. स्वर्ग भी अब रहने लायक नहीं रहा. नरक में इसे भेज दिया तो नरक के सारे प्राणी कहेंगे कि और कितना नरक बनाओगे इस नरक के लिए ?

     चित्रगुप्त के सामने धर्म वाला संकट खड़ा था. यमराज ने तो बस, इस प्राणी का कॉलर पकड़ा और यहां ला कर पटक दिया कि इसे भी देख लें. यह नहीं सोचा कि इसको लेकर हम किस संकट में पड़ जायेंगे ?ज़्यादातर तो यह होता था कि यमराज नेताओं को लाने में ऐतराज करते थे कि जीने दो वहीँ, वरना रास्ते भर भाषण देता हुआ आएगा कि यह अन्याय है और इसे अब ज़्यादा दिन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. आदि-आदि. मगर इस बार पता नहीं, यमराज को क्या हुआ कि एक नेता की साबुत आत्मा को उठा लाये ? चित्रगुप्त का दिमाग घूम रहा था कि अब इससे कैसे निपटा जाये ? चित्रगुप्त ने अपना बीड़ी का बंडल निकालकर उसके अन्दर इस समस्या का समाधान ढूंढने की गरज से झांका तो पता चला कि दो ही बीड़ियां बची हैं और इनमें से एक यमराज को अगर नहीं दी तो पता नहीं कौन सा नया बवाल लाकर यहां पटक दे कि लो महाराज, इसका भी फैसला करो. चित्रगुप्त किसी लोकतांत्रिक देश के प्रधान मंत्री की तरह परेशान होने का मूड बना रहे थे.

” इसको यहां लाने की क्या ज़रुरत थी, महाराज ? अभी कुछ दिन वहीँ पड़ा रहने देते. ” चित्रगुप्त ने दोनों बीड़ियां निकालने के बाद उसका रैपर नेता की आत्मा पर उछालते हुए पूछा.

” ज़रुरत क्या थी ? अरे, यह आदमीनुमा प्राणी वहां लाखों लोगों का खून चूस रहा था और डकार भी नहीं ले रहा था. ” यमराज ने चित्रगुप्त के हाथ में सुलग चुकीं दो बीड़ियों में से एक को अपने हाथ में लेकर जवाब दिया.

” लेकिन इसका हिसाब कैसे किया जाएगा कि इसने कितने पाप किये और कितने पुण्य ? ” अपनी बीड़ी से एक तनावभगाऊ सुट्टा खींचते हुए चित्रगुप्त ने फिर सवाल किया .

” इसमें इतना सोचने की क्या ज़रुरत है ? पुण्य वाला जो कॉलम तुम अक्सर खाली छोड़ देते हो, इस बार भी उसे खाली ही रखो. ” यमराज ने बीड़ी का सारा धुआं नेता की आत्मा की ओ़र फेंकते हुए इस समस्या का सीधा समाधान बताया.

” यह बात भी आप सही कह रहे हैं. ” चित्रगुप्त ने चिथड़े बन चुकी अपनी बही का नेताओं वाला पन्ना खोला और उसमें पुण्य वाले उस कॉलम में एक एंट्री देखकर उसे गोल घेरे में कर दिया और जिसका मतलब उन्होंने यह मान रखा था कि यह पुण्य अभी संदिग्ध है कि किया भी था या नहीं.

इस तरह नेताओं के मिलन-स्थल यानि नरक की तरफ उस नेता को भी ले जाया गया और उसकी आत्मा के मुंह पर भी एक ऐसा टेप चिपका दिया गया कि कहीं से भी वह अन्य लोगों को भाषण देने की पोज़ीशन में ना रहे.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----खुद को विद्वान समझने वाले विद्वान

         


दूसरों को बेवकूफ़ समझना, खुद को विद्वान समझने की शुरुआत है. खुद को विद्वान समझने के लिए किसी किस्म के सरकारी प्रमाण पत्र की ज़रुरत नहीं होती है कि वही हो तभी किसी को विद्वान माना जाना चाहिए. लोकतंत्र में सबको हक़ है कि वे दूसरों को बेवकूफ़ समझते हुए खुद को उतना बड़ा विद्वान समझें, जितना बड़ा ना उनके पैदा होने से पहले कोई पैदा कोई हो पाया और ना ही बाद में उम्मीद है कि कोई हो पायेगा. वे लोग समझते हैं कि उनके पैदा होने के बाद ऊपर वाले की विद्वान  बनाने वाली मशीन ही ख़राब हो गयी थी और जो आज भी किसी कबाड़ी के इंतज़ार में ज्यों की त्यों ही पड़ी है. ऐसे विद्वान अपनी बातचीत के दौरान बीच-बीच में यह पूछकर कि ” आप समझे नहीं हमारी बात,” यह कन्फर्म कर लेते हैं कि यह जो बन्दा उनकी बात समझने की कोशिश कर रहा है, उनकी बात को वाक़ई कहीं समझ तो नहीं रहा है.

         खुद को विद्वान समझने वालों में अगर मतभेद ना हों तो यह लगता नहीं कि वे विद्वान कहलाने लायक भी हैं. उनकी विद्वता संदेहास्पद हो जाती है. ये विद्वान प्रथ्वी के गोल होने के तमाम प्रमाणों को झुठलाते हुए कभी भी कह देते हैं कि अभी क्या पता कि दुनिया गोल है या चोकोर है या जिसे हम गोल समझ रहे हैं, वह गोलाई ना होकर गोलाई होने का भ्रम मात्र है ? ऐसे विद्वान सत्य और असत्य पर भी अपने विचार रख देते हैं कि जिसे सत्य समझा जा रहा है, वह वास्तव में सत्य नहीं है, केवल सत्य होने का भ्रम मात्र है. असत्य पर भी वे अपने इसी किस्म के सिर घुमाऊ वक्तव्य परोस देते हैं और जो लोग खुद को विद्वान मानने में संकोच करते हैं, वे कह उठते हैं कि “वाह, क्या बात कही है ?

       डार्विन एक ऐसे विद्वान थे, जो खुद को विद्वान नहीं मानते थे, मगर लोगों ने ज़बरदस्ती उन्हें इसलिए विद्वान मान लिया कि वे हमारे पूर्वजों को बन्दर घोषित कर चुके थे. लोगों ने जब आदमी की आदतों का अध्ययन किया तो यह पाया कि वे वास्तव में बन्दर ही रहे होंगे. राजनीतिक बन्दर बाँट देखकर भी लोगों का यक़ीन पक्का हो गया होगा कि डार्विन ने सही कहा था और इन राजनेताओं के पूर्वज तो वाक़ई बन्दर रहे ही होंगे. कालिदास जिस डाल पर बैठते थे, उसी को काट देते थे, लेकिन आगे चलकर वे भी विद्वान माने गए और इसीलिए वे कई सारे ग्रन्थ भी लिख गए ताकि सनद रहे और उन्हें आगे चलकर विद्वान करार देने के काम आये.

    हम जब कई मर्तबा गणित में फेल हुए तो हमने सबसे पहला काम यह किया कि गणित के उन विद्वानों की खोज की, जो उस ज़माने में हमें फेल करवाने के लिए ज़िम्मेदार थे और अगर उन्होंने गणित जैसे विषय में अपना कीमती वक़्त बरवाद ना किया होता तो हम इस कदर फेल ना हुए होते. दुनिया में जितने विषय हैं, उनसे हज़ारों गुने विद्वान माने जाने वाले विद्वान मौज़ूद हैं. हमारा तो मानना ऐसा है कि पहले ज़माने में विद्वानों को विद्वान मानने वाले लोग भी विद्वान् रहे होगे, वरना दुनिया में विद्वानों को विद्वान मानने का रिवाज़ ही अब कहाँ रहा ? आप किसी को किसी भी ग़ैर ज़रूरी विषय का विद्वान मान लें, तभी वह आपको विद्वान मान सकता है, इससे अलग नहीं. हमने कुछ ग़लत कहा हो तो आप बताएं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

रविवार, 29 नवंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ---हिंदी-पत्रकारिता का पूरा सच



हिंदी पत्रकारों की पोज़ीशन उस आम आदमी की तरह होती है, जो अपने घरेलू बजट के लिए, स्वतः उत्पन्न हुई महंगाई को दोष ना देकर अपने पूर्वजन्म के किन्हीं पापों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
हिंदी-पत्रकारिता का इतिहास बताता है कि शुरूआती दौर में लोगों ने कैसे अपने घर के बर्तन बेचकर अखब़ार निकाले थे और बाद में कैसे वे एक बड़े बर्तन-निर्यातक बन गए ? वे लोग बिना खाए तो रह सकते थे, मगर अखब़ार बिना निकाले नहीं. हिंदी के अखब़ार पढ़ना तब आज की ही तरह बैकवर्ड होने की पहचान थी और लोग अखब़ार खुद ना खरीदकर चने या मूंगफलियां बेचने वालों के सौजन्य से पढ़ लिया करते थे. खुद को विद्वान् मानने वाले 
कुछ विद्वान् तो यहां तक मानते हैं कि हिंदी के अखबारों में रखकर दिए गए ये चने या मूंगफलियां तब हिंदी पत्रकारिता को एक नयी दिशा दे रहे थे. इनका यह योगदान आज भी ज्यों का त्यों बरकरार है और अभी भी सिर्फ़ नयी दिशाएं ही देने में लगा हुआ है.
      हिंदी का पहला अखब़ार ‘ उत्तंग मार्तंड ‘ जब निकाला गया, तब लोगों ने यह सोचा भी नहीं होगा कि आगे चल कर हिंदी-पत्रकारिता का हश्र क्या होगा ? उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि इसकी आड़ में ‘ प्रेस-कार्ड ‘ भी धड़ल्ले से चल निकलेंगे और उन लोगों को ज़ारी करने के काम आयेंगे, जो उन्हें अपनी दवाओं के विज्ञापन दे रहे हैं और समाचार लिखना तो अलग, उनको पढ़ पाना भी वे सही ढंग से नहीं जानते होंगे. हिंदी अखबारों के रिपोर्टर या एडीटर पत्रकारिता के स्तम्भ नहीं माने जायेंगे, बल्कि ये वे लोग होंगे, जो मर्दाना ताक़त की दवाइयों के विज्ञापन देकर देश को भरपूर सुखी और ताक़तवर बनाने में लगे हैं. हिंदी-पत्रकारिता को एक नयी दिशा देकर वे आज भी उसकी दशा सुधार रहे हैं और जब तक उनके पास ‘ प्रेस कार्ड ‘ हैं, वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे कि हिंदी-पत्रकारिता की जो दशा है, वो सुधरी रहे.
    हमसे कल कहा गया कि ‘ हिंदी-पत्रकारिता दिवस ‘ पर ‘ पोज़ीशन ऑफ हिंदी जर्नलिज्म ‘ विषय पर बोलने के लिए इंग्लिश में एक स्पीच तैयार कर लीजियेगा और उसे कल एक भव्य समारोह में पढ़ना है आपको, तो हम खुद को बिना अचंभित दिखाए, अचंभित रह गए. हम समझ गए कि ये लोग इंग्लिश जर्नलिस्ट हैं और हिंदी जर्नालिस्म की ख़राब हो चुकी पोज़ीशन पर मातमपुर्सी की रस्म अदा
करना चाहते हैं. हिंदी-पत्रकारिता में चाटुकारिता का बहुत महत्त्व है और इसी की माबदौलत बहुत से लोग तो उन स्थानों पर पहुंच जाते हैं, जहां कि उन्हें नहीं होना चाहिए था और जिन्हें वहाँ बैठना चाहिए था, वे वहाँ बैठे होते हैं, जहां कोई शरीफ आदमी बैठना पसंद नहीं करेगा. लेकिन क्या करें, मज़बूरी है. हिंदी के अखब़ार में काम करना है तो इतना तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा. हिंदी के पत्रकार को पैदा होने से पूर्व ही यह ज्ञान मिल जाता है कि बेटे, हिंदी से प्यार करना है तो इतना तो झेलना ही पड़ेगा.
    हिंदी के किसी पत्रकार को अगर आप ध्यान से देखें, तो ऐसा लगेगा जैसे उसके अन्दर कुछ ऐसे भाव चल रहे हों कि ” मैं इस दुनिया में क्यों आया या आ ही गया तो इस आने का मकसद क्या है या ऐसा आख़िर कब तक चलता रहेगा ? ” 
     यह एक कड़वा सच है जिस शोषण के ख़िलाफ अक्सर हिंदी के अखब़ार निकलने शुरू हुए, वही अखब़ार प्रतिभाओं का आर्थिक शोषण करने लग जाता है और फिर वे प्रतिभाएं अपनी वेब साइटें बनाकर अपने घर की इनकम में इज़ाफा करती हैं. क्या करें, हिंदी को इस हिंदुस्तान में पढ़ना ही कितने लोग चाहते हैं ?
 जो पढ़ना चाहते हैं, उनकी वो पोज़ीशन नहीं कि वे पढ़ सकें. इसलिए हिंदी की दुर्दशा के लिए ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ़ हिंदी ही दोषी हो, विज्ञापन देकर ‘ प्रेस कार्ड ‘ हासिल करवाने वालों से लेकर सब वे लोग दोषी हैं, जो
हमें हिंदी-पत्रकारिता पर अंग्रेजी में स्पीच देने के लिए निमंत्रित करने आये थे.

✍️ अतुल मिश्र

श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ------ बुजुर्ग नेता, मज़बूत सरकार


” नेताजी ने अपने भाषण के दौरान जो कुछ भी कहा, वह पूरी तौर पर सही था ! ” चुनावी जनसभा से लौट रहे युवक ने कहा !

” क्या कहा था ? ” साथ लौट रहे बुजुर्ग ने, जो भाषण सुनने कम और टाइम पास करने ज्यादा गया था, पूछ लिया !

” यही कि मज़बूत और निर्णायक सरकार सिर्फ वही दे सकते हैं और वर्तमान सरकार तो कुत्ते के गोबर की तरह किसी काम की नहीं है ! “युवक ने कुत्ते के गोबर पर अधिक बल दिया !

“वो तो ठीक है बेटा, लेकिन वो जो बुड्ढे से नेता ‘ हम सत्ता में आये तो आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे, ‘ जैसी बातें कहते वक़्त काँप रहे थे, वो कौन थे ? ” बुजुर्ग ने अपनी जानकारी में इजाफा करने के लिहाज़ से पूछा !

“वो ही तो हैं, जो अपनी सरकार आने पर प्रधानमन्त्री बनेंगे ! ” युवक ने अपना अब तक अर्जित पूरा ज्ञान बिखेरा !

“क्या उम्र होगी उनकी ? ” बुजुर्ग ने जिज्ञासा ज़ाहिर की !

“अस्सी से ऊपर ही चल रहे हैं ! ” युवक की आवाज़ में गर्व था.

” हम यहाँ सत्तर की उम्र में हिले पड़े हैं और यह जनाब अस्सी के बाद भी प्रधानमंत्री बनने के लिए अभी तक मौजूद हैं ? ” बुजुर्ग कि बात तो सही थी, मगर इस समय युवक को सिर्फ इसलिए अच्छी नहीं लग रही थी कि उसे इस साल ही इस पार्टी का सदस्य बनाया गया था और भविष्य में कोई ऊंचा पद दिए जाने की भी पूरी संभावना दिखाई गयी थी.

” बादाम, पिश्ते और अन्य तमाम तरह की ताकत वाली चीजें खाते हैं वो ! वर्ना आप की तरह चाय से डबल रोटियाँ निगल रहे होते तो आपकी उम्र से पहले ही खिसक लिए होते ! ” युवक ने बुजुर्ग की ओ़र हिकारत की नज़र से देखते हुए कहा !

” बेटा, यह बुड्ढन मजबूत किस तरह से हैं, जो मज़बूत सरकार देने की बात कहते वक़्त भी काँप रहे थे ? ” बुजुर्ग ने फिर वही सवाल किया, जो इस वक़्त उस युवक को नाजायज लग रहा था !

” मज़बूत आदमी दिल से होता है, शरीर से नहीं ! शरीर तो इस उम्र में सभी का हिलता है, मगर हौंसले देखे हैं कभी इनके ? माइक तक काँप जाता है कि यार, किसी और को बुलाओ, वर्ना मैं फट जाऊँगा ! ” युवक की झल्लाहट अपने चरमोत्कर्ष पर थी !

बुजुर्ग के सारे सवाल फ़ेल हो चुके थे, लेकिन एक सवाल उसके ज़हन में भी कौंध रहा था कि जो नेता खुद ही मौत की दहलीज़ पर खडा हो, वह देश को अपने साथ आखिर ले किस दिशा में जाएगा ?

✍️ अतुल मिश्र

श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

रविवार, 12 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व पर "प्रगति मंगला" संस्था एटा द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा .....


प्रगति मंगला साहित्यिक संस्था एटा के तत्वावधान में ऑनलाइन  साहित्यिक परिचर्चा के क्रम में  शनिवार 11 जुलाई 2020 को राष्ट्रकवि उमाशंकर राही वात्सल्य धाम वृन्दावन के संयोजन व संचालन में मुरादाबाद के ख्याति लब्ध कवि व पुरातत्व वेत्ता स्वर्गीय श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के कृतित्व व व्यक्तित्व पर परिचर्चा आयोजित की गयी। मुख्य अतिथि  मथुरा के वरिष्ठ साहित्यकार डा. रमाशंकर पाण्डेय तथा विशिष्ट अतिथि मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी रहे ।अध्यक्षता एटा के वरिष्ठ समालोचक व चिन्तक आचार्य डा. प्रेमीराम मिश्र ने की।
 
संस्था के संस्थापक कवि बलराम सरस ने सभी आगन्तुक अतिथियों व वक्ताओं का स्वागत करते हुए संस्था की गतिविधियों और आयोजन की रूपरेखा पर प्रकाश डाला।
संयोजक उमाशंकर राही ने श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र का परिचय दिया।उन्होंने बताया कि सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को मुरादाबाद जिले के चन्दौसी में हुआ था। वह बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। मात्र चौदह वर्ष की अवस्था में ही आपका दार्शनिक गीतों का पहला संग्रह 'मधुगान' पूर्ण हो गया था। 15 अप्रैल 1955 में शादी के दूसरे दिन ही मिश्र जी ने संग्रहालय की स्थापना की।फक्कड़ स्वभाव के व्यक्ति थे मिश्रा जी। झोला डालकर निकल पडते थे पुरातात्विक चीजों को ढूंढ़ने। मंचो पर बेशक हास्य कवि के रूप में विख्यात थे किन्तु वह मूलतः गीतकार थे।
मुख्य वक्ता चन्दौसी के श्री अतुल मिश्र ने  श्री सुरेन्द्र मोहन के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि सुरेन्द्र मोहन मिश्र का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि मुरादाबाद के विशाल कवि सम्मेलन में प्रख्यात ओजस्वी कवि बालकवि बैरागी ने कहा था "मैं या मालवा का कोई कवि जब चन्दौसी के स्टेशन से गुजरता है तो सबसे पहले इस पावन धरती की मिट्टी को अपने माथे से लगाता है। जानते हो क्यों? क्योंकि उस सुरेंद्र की धरती है जिसने खुद जलकर सैकड़ों दियों को रोशनी दी है।" हास्यकवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र कवि साहित्यकार के अतिरिक्त पुरातत्ववेत्ता भी थे।उनका पहला पुरावशेष एक हस्तलिखित ग्रन्थ था जो वे मुरादाबाद के एक पुराने कुएं से निकाल कर लाए थे।इसके बाद तो प्रागमौर्य, मौर्य,गुप्त और कुषाण कालीन पुरावशेष उन्हें आकर्षित करने लगे। कवि सम्मेलन से लौटने के पश्चात वह खंडहर ,वीरानों और प्राचीन टीलों से पुरावशेष एकत्रित करने निकल पड़ते थे।
 मुरादाबाद के  वरिष्ठ साहित्यकार डा. मनोज रस्तोगी ने  श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के जन्म, शिक्षा व काव्ययात्रा पर विस्तार से प्रकाश डाला।उन्होंने बताया  कि सुरेन्द्र मोहन की पहली कवित्रा मात्र सोलह वर्ष की उम्र में दिल्ली के दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई थी।व्यवसायी पिता लक्ष्मी उपासक थे और वह सरस्वती उपासक ।पिता पुत्र में यही वैचारिक संघर्ष रहता था।1951 में उनका पहला संग्रह मधुगान 1955 में कल्पना कामिनी प्रकाशित हुए।इसके बाद वह पुरातत्व के क्षेत्र में आ गये।उन्होंने ग्रन्थों को शोध का विषय बनाया।उन्होंने एकांकी नाटक भी लिखे।
 कवि मंजुल मयंक (फीरोजाबाद) ने सुरेन्द्र मोहन मिश्र के साथ काव्यमंचो की यात्रा के संस्मरण ताजा किये।मंजुल ने बताया एक दम गोरा चिट्टा चेहरा, छरहरा वदन ,खूबसूरत बोलती हुई आंखें ऐसा चमत्कारी व्यक्तित्व था उनका।
नई दिल्ली की आशा दिनकर आस ने कहा  एक महान गीतकार, शानदार कवि, पुरातत्ववेत्ता की जीवनी से परिचित कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आदरणीय सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी की अद्भुत लेखन शैली और देश की प्राचीन धरोहरों की सुरक्षा के लिए  किये गए अनन्य प्रयासों को सादर नमन ।
गाजियाबाद की कवियत्री सोनम यादव ने कहा कि साहित्य के साधक, प्रकृति के चितेरे, अद्भुत व्यक्तित्व के धनी आदरणीय श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी को जानकर, पढकर बहुत अच्छा लगा ऐसे अविस्मरणीय चरित्र हमारे पथ प्रदर्शक है हम उस परंपरा के अनुयायी हैं यह सब सोच कर ह्रदय रोमांचित हो जाता है
 नोएडा के साहित्यकार डा. सतीश पाठक ने भी अपने संस्मरण साझा करके जहां अपनी स्मृतियों को ताजा किया वहीं स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्त्व पर भी रोशनी डाली ।
     
 मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डा. रमाशंकर पाण्डेय (मथुरा)ने कहा कि हास्य की रसधार बहाने वाले हास्यावतार सुरेन्द्र मोहन मिश्र गीतकार भी अच्छे थे।सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने हास्य का विषय बनाया।कम शब्दों में बहुत कुछ कह देना श्रोताओं को तरंगायित कर देना यह उनकी विशेषता थी।वे श्रोता को सीधे कविता से जोड़ते थे। उनके प्रभाव शाली व्यक्तित्व का असर उनकी कविताओं में भी दिखता था।
अध्यक्षीय उद्बोधन में आचार्य डा. प्रेमीराम मिश्र ने कहा -प्रगति मंगला साहित्यिक मंच देश के चर्चित सुविख्यात कवियों पर परिचर्चा आयोजित कर सराहनीय कार्य कर रहा है। इसी क्रम में स्व. श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व व कृतित्व पर चर्चा कर उन्हें नयी पीढ़ी के साहित्कारों व कवियों से परिचित कराया है। सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी जैसे पुरातात्त्विक चेतना से संगुफित कवि की कालजयी स्मृतियों को साकार करने का सुअवसर मिला।मैं यह जान कर आश्चर्यचकित हूं कि एक हास्य व्यंग्य का कवि पुरातात्विक जिज्ञासा का इतनी अधिक दीवानगी के साथ जीवन भर निर्वाह करता रहा। काव्यनाटक के अतिरिक्त उनकी पुरातात्विक महत्व की दुर्लभ 60पाण्डुलिपियाँ उनके कृतित्व का प्रमाण है।
अन्त में संस्था की पटल प्रशासक व साहित्यकार श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ गुना (मध्य प्रदेश) ने सभी आगन्तुकों का आभार व्यक्त किया।
             

शनिवार, 11 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उनके सुपुत्र अतुल मिश्र का आलेख------" कभी नहीं मर सकते मेरे पापाजी" !!



 
"मैं या मेरे मालवा का कोई कवि जब चंदौसी के स्टेशन से गुज़रता है, तो वह सबसे पहले इस पावन धरती की मिटटी को अपने माथे से लगाता है !! जानते हैं क्यों ?? क्योंकि यह उस 'सुरेन्द्र' की धरती है, जिसने खुद जलकर सैकड़ों दीयों को रोशनी दी है !!"
आज से क़रीब पचास साल पहले हमारे नगर के एक विशाल कवि-सम्मलेन में प्रख्यात ओजस्वी कवि श्री बाल कवि वैरागी जी ने जब ये शब्द कहे, तो एक बाल-श्रोता के रूप में मैं सिर्फ़ सोचता रह गया ! क्या मैं वाकई इतने महान पिता का पुत्र हूँ ? बस, उसी दिन से मुझे अपने पापाजी को समझने की जिज्ञासा तीव्र हो गयी थी ! अपने असामान्य कार्यों की वजह से वे मुझे कभी इस गृह के प्राणी नहीं लगे !
हमारी दादी जी बताती थीं  कि "उनके पैदा होते ही ज्योतिषियों ने कह दिया था की यह बच्चा असाधारण है और ऐसे विचित्र काम करेगा, जो दुनिया के लिए असाधारण होंगे ! हो सकता है कि यह सन्यासी हो !!" इस बात ने हमारे बाबा साहब की चिंता को और बढ़ा दिया और वे तमाम ऐसे यत्न करने लगे कि उनके इस बेटे को इस दुनिया से विरक्ति ना हो ! वे एक बेहद कलाप्रेमी, मगर कुशल व्यापारी थे और अपने बेटे से भी यही अपेक्षा रखते थे !
छात्रावस्था तक पापाजी ने खूब काव्य-लेखन किया ! अपने दार्शनिक गीतों का पहला संग्रह- 'मधुगान' उन्होंने चौदह वर्ष की आयु में पूर्ण किया ! 15 अप्रैल 1955 में पापाजी की शादी की गयी कि वे वैराग्य और दर्शन से दूर रहें ! शादी के ठीक दुसरे दिन से उनके जीवन में चमत्कार होने शुरू हो गए ! बचपन में जिन दुर्लभ और प्राचीन चीजों को वे अपनी इतिहास की किताबों में सिर्फ देखते थे, उन्हें पाने की उनकी लालसा पूरी हुई !
शादी के दूसरे दिन से ही उनके संग्रहालय की स्थापना हुई और बकौल, पापाजी- "ऐसा लगा, जैसे मेरे सारे सपने पूरे होने को हैं !!" पहला पुरावशेष एक हस्तलिखित ग्रन्थ था, जो वे मुरादाबाद के एक पुराने कुऐं से निकालकर लाये थे !!
इसके बाद तो प्रागमौर्य, मौर्य, गुप्त और कुषाण कालीन प्राचीन पुरावशेष जैसे उनको निमंत्रित करने लगे और फिर वे कवि-सम्मेलनों से लौटकर खंडहर, वीरानों और प्राचीन टीलों से पुरावशेष एकत्रित करने निकल पड़ते थे !
प्रख्यात कवि डा.हरिवंशराय बच्चन जी पापाजी की पुरातात्विक खोजों के बारे में तब अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते थे और एक युवा कवि द्वारा किये जा रहे अद्वितीय कार्यों से प्रभावित होकर वे दो बार चंदौसी भी आये ! पापाजी के जीवन से प्रभावित होकर वे हमेशा उनसे अपने पुरातात्विक संस्मरण लिखने को कहा करते थे ! उन्हें एक कल्पनाशील कवि का तथ्यपरक पुराविद होना कुछ दुर्लभ लगता था ! लेकिन पापाजी को इतना वक़्त भी कभी नहीं मिला कि वे अपने जीवनकाल में ऐसा कर पाते ! अपने अंतिम दिनों में वे मुझसे यह कहने लगे थे कि "मेरे बाद तुम मेरे संस्मरण ज़रूर लिखना !" उनके जाने के बाद से में खुद को तैयार कर रहा हूँ कि मैं ऐसा करके उनकी और बच्चनजी की यह इच्छा पूरी कर सकूं !
"मैंने इसे अपनी इच्छा-शक्ति से बनाया है," जैसे वाक्य जब पापाजी मेरे बारे में अपने मित्रों से कहते थे, तो मैं सोच में पड़ जाता था ! क्या वाकई मैं उन्हें देखकर इतना मन्त्र-मुग्ध रहता था कि उनके बताये रास्ते पर ही चलने को बाध्य था ?? वे एक चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी थे ! अधखुले नेत्र, उन्नत ललाट, इत्रयुक्त कुरता-पाजामा और मस्ती वाली चाल उनकी ख़ास पहचान थी ! शायद यही वजह थी कि रास्ता चलते सन्यासियों को भी मैंने उनके पैर छूते देखा था ! मैं आज भी उनको शरीर के रूप में नहीं देखता हूँ !
वे एक ऐसी आत्मा हैं, जो अभी भी अपने संग्रह के आसपास ही हैं ! एक ऐसा संग्रह, जिसे देखकर विद्वान् इसे देश का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह मानते थे, मगर सन 2008 में NMMA ( National Mission For Manuscript And Antiqueties ) द्वारा किये गए सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर मैं आज इसे दुनिया का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह मानता हूँ ! उनके इस संग्रह में ईसा पूर्व 4000 से लेकर ब्रिटिश और मुगलकाल तक के दुर्लभ पुरावशेषों की कुल संख्या किसी भी संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं से अधिक ही निकलेगी ! पापाजी के नाम से एक संग्रह विश्व प्रसिद्द रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में भी प्रदर्शित है !
पापाजी को हमने घर पर बहुत कम देखा था ! कवि-सम्मेलनों से लौटने के बाद वे अपनी यात्राओं पर निकल पड़ते थे ! अनजान बीहड़ों में उन्होंने हज़ारों किलोमीटर की यात्राये पैदल और साइकिलों से पूरी कीं ! रूहेलखंड के पांच जिलों के सैकड़ों प्राचीन ध्वंसावशेष उन्होंने पहली बार इस दुनिया के लिए खोज निकाले ! 35-40 वर्षों तक उनका यह क्रम चलता रहा ! प्राचीन इतिहास में एम.ए. करने के बाद इन पुरावशेषों में मेरी दिलचस्पी तेज़ी से बढ़ने लगी और अखबारों को साप्ताहिक लेख लिखने का मैटर भी मुझे मिल गया ! बचपन में जो काम मुझे फालतू के लगते थे, उनका अध्ययन और मनन शुरू हो गया ! पीएचडी के लिए शोध-कार्य भी बहुत किया, मगर दिल्ली की पत्रकारिता के चक्कर में वह अधूरी रह गयी !
 
बचपन में हम देखते थे कि पुरातत्व के विद्वान्, राजनेता और बड़े अधिकारी पापाजी से मिलने आते ही रहते थे ! डा.वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. कृष्णदत्त वाजपेयी, डा.रमेश चन्द्र शर्मा, कैप्टन शूरवीर सिंह जैसे बहुत से नाम मुझे आज भी याद हैं ! सबसे बड़ी बात यह थी कि पापाजी को प्राचीन अज्ञात कवियों को खोजना और उन पर अपने लेख लिखने का बहुत शौक था ! वे सुबह ठीक चार बजे उठा जाया करते थे और फिर शाम तक उनका निर्वाध लेखन चलता था ! कवि-सम्मलेन और यात्राएं कम करने के बाद क़रीब 25 वर्षों में उन्होंने दुर्लभ विषयों पर 60 से अधिक पुस्तकें पांडुलिपियोँ के रूप में तैयार कर दीं ! मैं अब जल्दी ही इनके प्रकाशन की व्यवस्था करवा रहा हूँ !
लिखने को तो पापाजी के बारे में इतना है कि मैं इस जन्म में तो पूरा नहीं लिख पाऊंगा ! हाँ, इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि हमारा यह देश इस मामले में  दुर्भाग्यशाली है कि हम किसी भी प्रतिभा को तभी समझना शुरू करते हैं, जब वह हमारे बीच अपने अनुभव बांटने के लिए मौजूद नहीं रहती ! पापाजी के तमाम कार्यों का सही मूल्यांकन किया जाए, तो दुनिया में कोई दूसरा ऐसा पुरातत्ववेत्ता पैदा नहीं हुआ, जिसने इतना विशाल संग्रह किया हो और जो कवि, लेखक और एक अच्छा इंसान भी हो ! मेरे पापाजी कभी नहीं मर सकते, यह विश्वास मुझे इसलिए भी होने लगा है कि आज नहीं तो कल लोग जब उनके कार्यों को देखेंगे तो दांतों तले उंगलियाँ दबा लेंगे ! यह मैं कह रहा हूँ, क्योंकि मैं उनके कार्यों की गहराई और उपयोगिता से अच्छी तरह परिचित हूँ ! वे आज भी मेरे आसपास ही हैं, क्योंकि वे कभी मर ही नहीं सकते !



अतुल मिश्र
श्री धन्वंतरि फार्मेसी,
मौ. बड़ा महादेव
चन्दौसी
जनपद सम्भल