दूसरों को बेवकूफ़ समझना, खुद को विद्वान समझने की शुरुआत है. खुद को विद्वान समझने के लिए किसी किस्म के सरकारी प्रमाण पत्र की ज़रुरत नहीं होती है कि वही हो तभी किसी को विद्वान माना जाना चाहिए. लोकतंत्र में सबको हक़ है कि वे दूसरों को बेवकूफ़ समझते हुए खुद को उतना बड़ा विद्वान समझें, जितना बड़ा ना उनके पैदा होने से पहले कोई पैदा कोई हो पाया और ना ही बाद में उम्मीद है कि कोई हो पायेगा. वे लोग समझते हैं कि उनके पैदा होने के बाद ऊपर वाले की विद्वान बनाने वाली मशीन ही ख़राब हो गयी थी और जो आज भी किसी कबाड़ी के इंतज़ार में ज्यों की त्यों ही पड़ी है. ऐसे विद्वान अपनी बातचीत के दौरान बीच-बीच में यह पूछकर कि ” आप समझे नहीं हमारी बात,” यह कन्फर्म कर लेते हैं कि यह जो बन्दा उनकी बात समझने की कोशिश कर रहा है, उनकी बात को वाक़ई कहीं समझ तो नहीं रहा है.
खुद को विद्वान समझने वालों में अगर मतभेद ना हों तो यह लगता नहीं कि वे विद्वान कहलाने लायक भी हैं. उनकी विद्वता संदेहास्पद हो जाती है. ये विद्वान प्रथ्वी के गोल होने के तमाम प्रमाणों को झुठलाते हुए कभी भी कह देते हैं कि अभी क्या पता कि दुनिया गोल है या चोकोर है या जिसे हम गोल समझ रहे हैं, वह गोलाई ना होकर गोलाई होने का भ्रम मात्र है ? ऐसे विद्वान सत्य और असत्य पर भी अपने विचार रख देते हैं कि जिसे सत्य समझा जा रहा है, वह वास्तव में सत्य नहीं है, केवल सत्य होने का भ्रम मात्र है. असत्य पर भी वे अपने इसी किस्म के सिर घुमाऊ वक्तव्य परोस देते हैं और जो लोग खुद को विद्वान मानने में संकोच करते हैं, वे कह उठते हैं कि “वाह, क्या बात कही है ?
डार्विन एक ऐसे विद्वान थे, जो खुद को विद्वान नहीं मानते थे, मगर लोगों ने ज़बरदस्ती उन्हें इसलिए विद्वान मान लिया कि वे हमारे पूर्वजों को बन्दर घोषित कर चुके थे. लोगों ने जब आदमी की आदतों का अध्ययन किया तो यह पाया कि वे वास्तव में बन्दर ही रहे होंगे. राजनीतिक बन्दर बाँट देखकर भी लोगों का यक़ीन पक्का हो गया होगा कि डार्विन ने सही कहा था और इन राजनेताओं के पूर्वज तो वाक़ई बन्दर रहे ही होंगे. कालिदास जिस डाल पर बैठते थे, उसी को काट देते थे, लेकिन आगे चलकर वे भी विद्वान माने गए और इसीलिए वे कई सारे ग्रन्थ भी लिख गए ताकि सनद रहे और उन्हें आगे चलकर विद्वान करार देने के काम आये.
हम जब कई मर्तबा गणित में फेल हुए तो हमने सबसे पहला काम यह किया कि गणित के उन विद्वानों की खोज की, जो उस ज़माने में हमें फेल करवाने के लिए ज़िम्मेदार थे और अगर उन्होंने गणित जैसे विषय में अपना कीमती वक़्त बरवाद ना किया होता तो हम इस कदर फेल ना हुए होते. दुनिया में जितने विषय हैं, उनसे हज़ारों गुने विद्वान माने जाने वाले विद्वान मौज़ूद हैं. हमारा तो मानना ऐसा है कि पहले ज़माने में विद्वानों को विद्वान मानने वाले लोग भी विद्वान् रहे होगे, वरना दुनिया में विद्वानों को विद्वान मानने का रिवाज़ ही अब कहाँ रहा ? आप किसी को किसी भी ग़ैर ज़रूरी विषय का विद्वान मान लें, तभी वह आपको विद्वान मान सकता है, इससे अलग नहीं. हमने कुछ ग़लत कहा हो तो आप बताएं.
✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबहुत सुन्दर सरलता से उठाया गया महत्वपूर्ण विषय कुछ और धारदार व्यंग्य में परिवर्तित हो सकता था पर उपसंहार तक आते आते कदाचित लेखक महोदय जो बहुत उच्च कोटि की लेखकीय एवम् सृजनात्मक विरासत के धनी हैं किसी आवश्यक कार्य या कुछ और विचार करते हुए शीघ्रता से लेख समाप्त करते प्रतीत होते हैं,ऐसा मेरा नितान्त व्यक्तिगत मत है,
जवाब देंहटाएंकोई समझ ही जाए आवश्यक नहीं है।
बहुमूल्य प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
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