गुरुवार, 12 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख....कक्षा बनी चौपाल

   


 बात उन दिनों की है जब महाराजा हरिश्चन्द्र महाविद्यालय में मैंने स्नातक कक्षा में नया -नया प्रवेश लिया था।

    कक्षाएं शुरू होने का पहला दिन था।हिंदी साहित्य का पीरियड था।जैमिनी साहब  हमारे अध्यापक थे।मैं और मेरे सहपाठी उनसे पहली बार रूबरू होने जा रहे थे।सभी बड़े रोमांचित थे। तभी जैमिनी साहब ने कक्षा में प्रवेश किया।उनके सुदर्शन व्यक्तित्व से सभी प्रभावित थे।

  अपने सभी छात्रों का परिचय प्राप्त करने के बाद वे बोले --"आज हम हिंदी साहित्य के इतिहास पर चर्चा करेंगे ।पहले यह बताइए आप में से किस -किसने आल्हा पढ़ा -सुना है ?" 

   दरअसल, जगनिक का लिखा 'आल्हखंड 'हमारे पाठ्यक्रम में था और हिंदी साहित्य के इतिहास यानी वीरगाथाकाल की चर्चा इसी ग्रंथ से शुरू होनी थी।

  बहरहाल, जैमिनी साहब द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कई हाथ ऊपर उठ गए ।हाथ उठाने वाले छात्रों में मैं भी शामिल था।

  जैमिनी सर ने सभी पर एक दृष्टिपात किया।उन्होंने फिर कहा --"अच्छा, कोई आल्हा की दो  -चार पंक्तियाँ सुनाएगा?" 

   अब तो पूरी कक्षा में एकदम सन्नाटा खिंच गया।

  "अरे,जब आप सभी ने आल्हा सुना है तो एक-दो पंक्तियाँ तो याद होंगी ही।अच्छा ,यह बताइए  कि गांव से कौन -कौन हैं ? शहर वालों ने तो आल्हा शायद न भी सुना हो ...." 

   प्रत्युत्तर में फिर कई हाथ ऊपर उठ गये ।

  "आप लोग सुनाइये आल्हा ..."

   लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से आये छात्रों को तो जैसे काठ ही मार गया था। एक तो पहला दिन और ऊपर से हिंदी साहित्य का पहला पीरियड ! ग्रामीण क्षेत्र के छात्र चुप बैठे रहे।जैमिनी सर ने उनके असमंजस और हिचकिचाहट को जैसे भांप लिया।

    वे बोले --"कोई बात नहीं ,  मैं सुनाता हूँ --

    "आल्हा -ऊदल बड़े लड़इया

     इनकी मार सही न जाय,

     एक को मारैं ,दुइ मार जावैं

     तीसरा खौफ खाय मर जाय.."

 जैमिनी सर ने बड़ी लय में और किसी प्रोफेशनल अल्हैत की शैली में जो आल्हा सुनाया तो एकदम समां बंध गया।

  बस , फिर क्या था!

  अभी तक संकोचवश चुप बैठे ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों के हाथ भी एक -एककर ऊपर उठने लगे --"सर , हम सुनाएं, सर हम सुनाएं ..."

  "हाँ- हाँ ...सभी सुनेंगें ...."

   

ग्रामीण छात्रों का सारा संकोच एकदम हवा हो गया।फिर तो एक -एककर  कई छात्रों ने अपने -अपने अंदाज में आल्हा शुरू कर दिया। 

    अल्हैती के सारे रिकॉर्ड टूट गए,कुछ समय के लिए हिंदी साहित्य की हमारी कक्षा जैसे गांव की चौपाल बन गयी। वीररस की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी।सभी ने आल्हा गायन का खूब आनंद लिया।

  जैमिनी सर यही तो चाहते थे --छात्र निस्संकोच अपनी बात कहना सीखें।आल्हा  तो एक बहाना था।

  अगले दिन जब जैमिनी सर ने वीरगाथा काल के बारे में  बताना शुरू किया तो सभी छात्रों ने इसमें बड़ी रुचि ली।मेरे जो सहपाठी हिन्दी साहित्य और इसके इतिहास को एक नीरस विषय मानते थे उनके लिए यह अनायास ही एक रोचक विषय बन गया।

 यह सन अस्सी की बात है ।अब से करीब तैंतालीस साल पुरानी   यह घटना मेरे छात्र जीवन की एक यादगार घटना बन गयी।यह हम छात्रों के लिए तो एक प्यारा सबक थी ही उन अध्यापकों के लिए भी एक सबक थी जो हिंदी साहित्य जैसे रोचक विषय को भी बेहद नीरस ढंग से या  फिर अकादमिक शैली में पढ़ाते हैं

  एक लंबा कालखंड व्यतीत होने के बाद आज जब मैं इस घटना का 'टोटल रिकॉल ' करता हूँ तो बरबस ही मेरे होठों पर एक मुस्कान आ जाती है और जैमिनी सर की याद एक मीठा दंश देने लगती है 


✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001,

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल -9412677565

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