सोमवार, 22 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की काव्य कृति "कड़वाहट मीठी सी" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा ------ कड़वे यथार्थ की चित्रकारी......

      भारतीय साहित्य में व्यंग्य लेखन की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। ऐसा माना जाता है कि यह कबीरदास, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, प्रतापनारायण मिश्र से आरंभ हुई, कालान्तर में शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, लतीफ घोंघी, बेढब बनारसी के धारदार व्यंग्य-लेखन से संपन्न होती हुई यह परंपरा वर्तमान समय में ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यकुमार पांडेय, सुभाष चंदर, ब्रजेश कानूनगो आदि के सृजन के रूप में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करा रही है, किन्तु व्यंग्य-कविता लेखन में माणिक वर्मा, प्रदीप चौबे, कैलाश गौतम, मक्खन मुरादाबादी सहित कुछ ही नाम हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में विशुद्ध व्यंग्य लिखा है। कवि सम्मेलनीय मंचों पर मक्खन मुरादाबादी के नाम से पर्याप्त ख्याति अर्जित करने वाले डॉ. कारेन्द्रदेव त्यागी की लगभग 5 दशकीय कविता-यात्रा में प्रचुर सृजन उपरान्त सद्यः प्रकाशित प्रथम व्यंग्यकाव्य-कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ की 51 कविताओं से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उन्होंने समाज के, देश के, परिवेश के लगभग हर संदर्भ में अपनी तीखी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया कविता के माध्यम से अभिव्यक्त की है।
गीतों के अनूठे रचनाकार रामअवतार त्यागी की धरती पर जन्मे, पले, बढ़े मक्खनजी की सभी कविताएं स्वतः स्फूर्तरूप से सृजित मुक्तछंद कविताएं हैं छंदमुक्त नहीं हैं संभवतः इसीलिए उनकी कविताओं में एक विशेष प्रकार की छांदस खुशबू के यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरते रहने के कारण सपाटबयानी या गद्य भूले से भी घुसपैठ नहीं कर सका है। पुस्तक में अपने 15 पृष्ठीय बृहद आत्मकथ्य में अपने अनेक संस्मरणों के साथ-साथ अपनी कविता-यात्रा के संदर्भ में उन्होंने कहा भी है कि ‘कविता टेबल वर्क नहीं है। कविता हो या शायरी, वह गढ़ी-मढ़ी नहीं जाती क्योंकि गढ़ना-मढ़ना इनके धर्म नहीं हैं। ये होती तो हैं की नहीं जातीं। होने और किए जाने के अंतर को समझकर ही इन्हें बेहतरी से समझा जा सकता है। आधुनिक कविता छंद, मुक्तछंद और छंदमुक्त तीनों ही स्वरूपों में समृद्ध हुई है।’ दरअस्ल यह सत्य भी है कि कविता में व्यंग्य-लेखन आसान नहीं है क्योंकि संदर्भों और विषयों पर सृजन करने हेतु व्यंग्य-दृष्टि हर किसी रचनाकार के पास नहीं होती। कविता में व्यंग्य को जीना मतलब एक अलग तरह की बेचैनी को जीना, सामान्य में से विशेष को खोजना और साधारण को असाधारण तरीक़े से अभिव्यक्त करना होता है। हम सबने बचपन से नारा सुना है-‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई/आपस में सब भाई-भाई’, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ? हर किसी को लगता है कि यह भाव अब सिर्फ़ नारे में ही सिमटकर रह गया है, व्यवहारिकता में अधिकांश जगह स्थिति उलट ही है। कृति के कवि मक्खनजी द्वारा अपनी कविता ‘मुझे अंधा हो जाना चाहिए’ में इस नारे का पोस्टमार्टम करते हुए नारे को बिल्कुल अनूठे ढंग से व्याख्यायित करना उनकी विशुद्ध व्यंग्यात्मक -दृष्टि का वैशिष्ट्य नहीं तो और क्या है-
‘तुम सवर्ण हो, अवर्ण हो तुम
तुम अर्जुन हो, कर्ण हो तुम
तुम ऊँच हो, नीच हो तुम
तुम आँगन हो, दहलीज़ हो तुम
तुम बहु, अल्पसंख्यक हो तुम
तुम धर्म हो, मज़हब हो तुम
कहने को तो नारों में भाई-भाई हो तुम
पर असलियत में
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई हो तुम’

      मक्खनजी की कविताएं पाठक और श्रोता के साथ जुड़कर सीधा संवाद करती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से आज तक भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति भयावहता के चरम पर है। यह उस असाध्य बीमारी की तरह हो चुका है जिसका उपचार संभव प्रतीत नहीं हो रहा है, मतलब ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’। ‘मैं हूँ तब ही तो’ शीर्षक से कविता के माध्यम से अपनी अनूठी व्यंग्यात्मक शैली में मक्खनजी भ्रष्टाचार का बयान दिलवाते हैं-
‘भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार
चिल्लाते रहते हो बरखुरदार
सोचो तो, मेरी अगर बात न होती
तुम्हारी भी आज के जैसी
हरगिज औकात न होती
मेरे कारण नेताओं के
अपने-अपने रजवाड़े हैं
अधिकरियों ने राजमहल बनवाने को
जाने कितने नक्शे फाड़े हैं
कर्मचारियों के भी मंसूबे
अधिकारियों को छूते हैं
सबके बढ़े हौंसले मेरे ही बलबूते हैं
मेरे प्रति जनमानस में
इसीलिए पैदा विश्वास हुआ है
मैं हूँ तब ही तो
इतना सारा विकास हुआ है’

      सुपरिचित ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ का एक शे’र है-‘मैं अपनी भूख को ज़िन्दा नहीं रखता तो क्या करता/थकन जब हद से बढ़ती है तो हिम्मत को चबाती है।’ यह भूख ही है जिसे शान्त करने के लिए व्यक्ति सुबह से शाम तक हाड़तोड़ मेहनत करता है, फिर भी उसे पेटभर रोटी मयस्सर नहीं हो पाती। देश में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो भूखे ही सो जाते हैं, वहीं कुछ लोग छप्पनभोग जीमते हैं और अपनी थाली में जूठन छोड़कर रोटियां बर्बाद करते हैं। आज का सबसे बड़ा संकट रोटी का है और चिंताजनक यह है कि व्यवस्था के ज़िम्मेदार लोगों के हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने के कारण इस समस्या का निदान दिखाई नहीं दे रहा है। ‘नेताओं का भावी प्लान’ कविता में मक्खनजी अपनी चिरपरिचित शैली में भूख की मुश्किलों और व्यवस्था की बिद्रूपताओं पर व्यंग्य कसते हैं-
‘भूख, अभी तो एक समस्या है
भविष्य में, भयंकर बीमारी बनेगी
भूख से लड़ते इंसान की लाचारी बनेगी
क्या कहा, आप रोज़ खाना खाते हो
तभी तो आए दिन बीमार पड़ जाते हो
अपनी औकात पहचान लो
चादर जितनी है उतनी तान लो
मंथली पाते हो न, मंथली खाने की आदत डाल लो’

      आज की युवा पीढी के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी है। महँगाई आसमान पर है और जीवन-यापन के श्रोत प्रतिस्पर्धा के शिकार हैं। व्यापार करना आसान नहीं रह गया है और नौकरी पाना दूभर। सरकारी नौकरी के लिए एक पद हेतु लाखों आवेदन पहुँचते हैं और सिफारिशें भी, ऐसे में ‘चैक-बैक-जैक’ की त्रासदी झेलते ईमानदारी के मूल्यों को जीने वाले एक आम शिक्षित युवा की पीड़ा को उकेरते हुए मक्खनजी आईना दिखाते हैं समाज को अपनी कविता ‘आज़ादी के बाद की कहानी’ में-
‘मेरे देश के नगर-नगर में
एक मंजिल वाले सब
दुमंजिले, तीमंजिले, चौमंजिले और
कई-कई मंजिल ऊँचे मकान हो गए हैं
लेकिन इसमें रहने वाले
अपने अतीत को पीकर, वर्तमान को जीकर
भविष्य के प्रति निराश हो गए हैं
क्योंकि इन्हीं में एक मंजिल में बैठा
पढ़ा-लिखा नवयुवक अपनी खुली कमीज पर
बेरोज़गारी के बटन टाँक रहा है’

       एक अन्य कविता ‘बेईमानी भी ईमानदारी से’ में वह इस विभीषिका को और भी अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करते हैं-
‘मैंने ईमानदारी से तंग आकर
ज़िन्दगी को बेईमानी की ओर मोड़ा था
बिकलांगों के लिए नौकरी में प्राथमिता विज्ञापन
समाचारपत्र में पढ़कर
यह हाथ जानबूझ कर तोड़ा था
लेकिन दोस्त, वहाँ
विकलांगों की बहुत लम्बी लाइन थी
जाने कितने मेरी तरह भटके
जाने किसने नौकरी ज्वाइन की
अब आप पूछेंगे कि उसे
सचमुच हाथ तोड़ लेने पर भी
नौकरी क्यों नहीं मिली थी
क्योंकि उसने बेईमानी भी
ईमानदारी से की थी’

       मक्खनजी की कविताओं में समाज और देश में व्याप्त अव्यवस्थाओं, विद्रूपताओं, विषमताओं के विरुद्ध एक तिलमिलाहट, एक कटाक्ष, एक चेतावनी दिखाई देती है, यही कारण है कि उनकी कविताओं में विषयों, संदर्भों का वैविध्य पाठक को पुस्तक के आरंभ से अंत तक जोड़े रखता है।  संग्रह की कई कविताओं में मक्खनजी अनायास ही दार्शनिक होते हुए कुछ सूत्र-वाक्य देते हैं समाज को मथने के लिए-‘लोकतंत्र में/ज़मीन का दरकना ठीक नहीं है‘, ‘व्यवहार नहीं होते/ तो भाषा गूंगी हो जाती’, ‘कर्ज की भाँति बढ़ते हुए बच्चे’, ‘धर्मनिरपेक्षता ग़लत परिभाषित अंधा कुँआ है’, ‘सांसें हैं पर इनमें ज़िन्दगी नहीं है’, ‘हँसी का पूरा संसार बसाइए’, ‘बेईमानी भी ईमानदारी से की थी’। अपने समय के कैनवास पर कड़वे यथार्थ की चित्रकारी करतीं संग्रह की कविताएं ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ को सही अर्थों में चरितार्थ करती हैं। यहाँ यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संग्रह की अनेक कविताएं विस्तृत चर्चा और विमर्श की अपेक्षा रखती हैं। निश्चित रूप से मक्खनजी की यह कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा सराहना पायेगी, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी।




*कृति -‘कड़वाहट मीठी सी’ (व्यंग्य कविता-संग्रह)
*रचनाकार   - डॉ. मक्खन मुरादाबादी
प्रकाशक    - अनुभव प्रकाशन, साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद।
प्रकाशन वर्ष - दिसम्बर, 2019
मूल्य       - ₹ 250/-(हार्ड बाईन्ड)
समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ए.एल.-49, उमा मेडिकोज़ के पीछे,
दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड,
मुरादाबाद- 244001 (उ0प्र0)
मोबाइल-9412805981

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की काव्य कृति "आस्था के फूल" की जितेंद्र कमल आनंद द्वारा की गई समीक्षा

    "आस्था के फूल" मातृभूमि के प्रति आस्थावान पूर्वजों के प्रति श्रद्धावान देश-प्रेमी और निरन्तर सृजनधर्मी डा महेश दिवाकर द्वारा रचित  53 उत्कृष्ट रचनाओं का पठनीय संग्रह है , जिसमें कवि के ही शब्दों में देखें-
 "शब्द-अर्थ के साथ पगे हैं
यहाँ-वहाँ जो पड़े मिले हैं--
मैंने उनको अपनाया है
डुबा आस्था गंगा-जल में
भाव सुवासित फूल बने हैं"(पृष्ठ-2)

     काव्याचार्यों ने काव्य के दो पक्ष माने हैं--भाव पक्ष और कला पक्ष अर्थात् अनुभूति और अभिव्यक्ति। अनुभूति काव्य का आन्तरिक स्वरूप है, जिसे हम काव्य की आत्मा कह सकते हैं , जब कि अभिव्यक्ति उसका  वाह्य स्वरूप,  जिसे उसका कलेवर कहा जा सकता है । कवि हंस अपने दोनों पंखों पर संतुलित होकर उड़ान भरता हुआ "आस्था के फूल" काव्य-संग्रह का मनोहर प्रणयन करता है,  फलस्वरूप पाठकों के लिये प्रशंसनीय बन गया है।
      जाति -वर्गवाद-आधार  पर आरक्षण नीति के विरोध में कवि का ओजस्वी स्वर---
     जाति-पाँति के खेल खिलाकर
नेता मन में फूल रहा ।
उसे न चिंता आज देश की,
घोटालों में झूल रहा ।
आरक्षण का गरल पिलाकर,
रोज उड़े नभयान में ।
देश-धर्म सब इसने बाँटे,
फूँको इसे मकान में  ।
चुभो रहे हैं आज कील जो,
प्यार भरे जलयान में ;
उठो ! लगा दो आग , देश के--
आरक्षण अभियान में।।पृष्ठ 12।।

     मानवीय संवेदना शून्य सत्ता, कुर्सी लौलुप राजनेताओं पर करारा व्यंग्यात्मक प्रहार--
      "बाघ-भेड़िये ,अजगर- नेता
भेड़ सरीखी जनता है ।
जिंदा माँस चबाया करते
कुर्सी लोक-- नियंता हैं ।।पृष्ठ वही-12।।

     प्रेम रूपी दीपक प्रज्वलित करने की कवि-अभिलाषा---
     " दीपक प्यार के प्रतीक
      देते विश्व को संगीत ।
      प्यार तप कर सदा पले
      दीपक सबके लिये जले।।पृष्ठ-19।।

     दर्शनाभिलाषी कवि की प्रभु के प्रति सहज अनुराग की कामना--
     "चंदन- वंदन, भक्ति न जानूँ
     मीत ! सहज अनुरक्ति मानूँ
     प्रीति अनूठी तुमसे मोहन ।
     तेरी आदि शक्ति पहचानूँ।।
     हर पल तेरी राह देखते   ,
     नैन तुझे खोजा करता हैं।।पृष्ठ-20।।

     देश-प्रेमी और देश-भक्त कवि के लिए कश्मीर ही ताज, साज,श्रंगार और भारत का स्वर्ग है जिसकी आन-बान, मान- शान में कमी न आने देने के लिये उसका संकल्प दृष्टव्य है --
     " भारत माँ की शान है यह
पूर्वजों का मान है यह
गौरव गाथा है वीरों की
शोणित की पहचान है यह
कैसे हम पहिचान मिटा दें?
कैसे अपना मान लुटा दे  ?
काश्मीर है साज हमारा,
इसे नहीं हम लुटने देंगे ।
काश्मीर श्रंगार  हमारा ,
उसे नहीं हम मिटने देंगे ।।पृष्ठ-23
     देश के दुश्मनों से भारत की अखण्डता,  सम्प्रभुता और उसके स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए कवि वीर जवानों का आह्वान करता है--
     " मातृभूमि के स्वाभिमान ने
      आज हमें ललकारा है ।
      उठो ! देश के वीर बाँकुरों!
माँ ने हमें पुकारा है ।
      आज देश की सीमाओं पर
       भीषण संकट छाया है ।
       शांति लूटने इधर लुटेरा
दूर देश से आया है ।।" पृ 54।।

      देश और मानवता की व्यथा का यथार्थ चित्रण --
     " आज देश को लूट रहे हैं , रक्षक बन हत्यारे।
       त्राहि- त्राहि करती मानवता, सत्य-अंहिसा हारे।
      रोम-रोम रो रहा देश का, कैसा कलियुग आया ।
        आज तिरंगा आसमान में, सिसक-सिसक लहराया।।पृष्ठ-44।।

        "देश को अपने बचा लो" शीर्षक कविता से कवि का देश के प्रति प्रेम व्यक्त होता है---
        " देश कहीं है श्रेष्ठ धरा पर तो मेरा भारत है ।
         देश कहीं है स्वर्ग धरा पर, तो मेरा भारत है।।पृष्ठ-56।।

     इसका कारण भारत के मुनियों, तपस्वियों की तपोभूमि होना और मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम द्वारा सत्य, अहिंसा, न्याय,  मर्यादा जैसे शाश्वत मूल्यों की स्थापना कर युग --आदर्श प्रदान करना बताते हुए कवि कहता है---
       भारत के कण-कण में बसता, सत्य-अहिंसा दान ।
       यह मुनियों की तपोभूमि है, रही धर्म की खान ।।
        हुआ राम का जन्म यहाँ पर, दुनिया सारी जाने ।
         धर्म,  न्याय औ' सदाचार का ईश्वर उनको माने।
        कितने कष्ट सहे जीवन में, लेकिन व्रत क्या तोड़ा?
       युग की मानवता को जैसे मर्यादा से जोड़ा ।।" पृष्ठ-56

     इसी प्रकार से यदि "यह वतन की  धूल है" , ' वतन को तोड़ने वालों,' ' हम पुजारी शांति के हैं,' इत्यादि रचनाओं में  नवीनता की महक है, तो ' देश को अपने बचा लो,' नामक 8 पृष्ठीय कविता में देश को बचाने के लिये कवि की वेदना उर- स्पर्शी बन पड़ी है ।

        उक्त उत्तम रचनाओं के अतिरिक्त उत्तरार्द्ध में भारतीय पर्वों से सम्बंधित ' होली' और "बसंत" शीर्षक रचनाएँ हैं । " मामा जी की पाती ", , ' बहाना,' 'गुड़िया रानी,' ' बंदर की कथा,' ' किस्मत की कथा,' जैसे आठ बाल गीत बालकों के लिए शिक्षाप्रद बन पड़े हैं । यदि कवि उन्हें आत्मीयता के साथ अपने परिजनों के लिए सुंदर- सुंदर  पातियाँ लिखने की प्रेरणा देता है तो 'अति सर्वत्र वर्जयेत,' की सीख भी बच्चों को दी गई  है, यथा--
      ' बच्चों, वर्षा ही जोवन है
        जल बसुधा पर संजीवन है
        किंतु अधिकता किसी चीज की
        देखो! बन जाती दुखदायी ।'(पृष्ठ 84)

      इसी प्रकार ' दादी माँ के नाम,' और 'आस्था के फूल,' पूर्वजों का स्मरण करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि है, सादर प्रणाम है। अंत में अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा,  निष्ठा और प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति ' यह वतन की धूल है' , सच्ची सुमनांजलि है--
       ' यह वतन की धूल है
        आस्था का फूल है
        प्राण देकर भी इसे हम
        भाल पर धारण करेंगे।।पृष्ठ-64।।
     कला पक्ष : साहित्यिक-सांस्कृतिक  संचेतना  के रचनाकार  डा दिवाकर द्वारा सम्पूर्ण काव्य- संग्रह खड़ी बोली हिंदी में रचा गया है । सर्वत्र ही सरल, सुबोध और सम्बंधित विषयानुकूल भाषा होने के कारण भाषाभिव्यक्ति सहज है, जो प्रसाद , ओज एवं माधुर्य गुणों से परिपूर्ण है, तो भावों की सम्प्रेषणीयता   भी इसकी विशेषता है --
   " यदि एक आदमी ने बढ़कर
     यदि एक आदमी बचा लिया
     तो समझो ,सारा राष्टृ बचा ,
     दीपक से  दीपक जला दिया।"पृष्ठ-40।।

    यद्यपि डा दिवाकर जी की काव्य-भाषा में उर्दू के शब्द-- औकात, कीमत, इंसान, क़फ़न, आज़ादी, कूच, वासिन्दों, दुश्मन, कुर्बानी,  ख़ाक,  आगाज जैसे शब्द हैं, परन्तु सामान्य बोलचाल की भाषा में सम्मिलित हो चुके ये शब्द अखरती नहीं हैं। वास्तव में भाषा सहज , सुबोध और सरस है, कहीं- कहीं यथोचित मुहावरों से युक्त है , तो कहावतों से समृद्ध और उपालम्भ -   उक्तियों से सुसज्जित भी , यथा--
    ' पर उपदेश कुशल बहुतेरे '
    'अपने- अपने भाग्य को ही कोसते हैं लोग ' ( पृष्ठ-26)
    ' चूड़ियाँ पहनों करों में ' ( पृष्ठ 33)
    ' आँचलों में मुछ छिपाओं '( पृष्ठ 33)
    ' जम गया लोहू रगों में ' ( पृष्ठ-32)
     ' प्राण पर तुम आज खेलो ' ( पृष्ठ 34)
     ' दीपक से दीपक जला दिया'( पृष्ठ 40) इत्यादि

     यद्यपि डा महेश दिवाकर जी का ध्यान सहज भावाभिव्यक्ति पर रहा है, तथापि स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त अलंकार आदि कवि के काव्य- शिल्प के  परिचायक और उनके भावों को निकालने में सहायक ही बन पड़े हैं, यथा---
ध्वन्यात्मक अलंकार:
     " छनन-छनन चूड़ी बजती थी"( पृष्ठ:15)
      "खुल्ल-खुल्ल करती है गुड़िया"( पृष्ठ-86)
अन्त्यानुप्रास---
        " बाल-मराल नहीं अब रोते"( पृष्ठ: 18)
       " भय से तन-मन रूँध रहा है"(पृ  18)
        " चंदन-वंदन भक्ति जानूं "( पृष्ठ  20)
पुनरुक्ति प्रकाश:
        " नर्म-नर्म दादी की बाँहें"( पृष्ठ:17)
       " बड़ी-बड़ी बातें करते हैं"( पृष्ठ-24)
       " बहकी-बहकी चलती धारा "( पृष्ठ-35)
       " उसकी तुतली-तुतली बातें"( पृष्ठ- 87)
      इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि कवि ने अलंकारों ,उपमानों और प्रतीकों, को महत्त्व नहीं दिया है , जो कुछ भी है, वह उनकी सहज ही भावाभिव्यक्ति बन पड़ी है।
      यदि " होली," "बसंत" जैसी रचनाएं श्रंगार रस की अनुभूति- सी कराती हैं, तो "कुँअर साहब का कुत्ता", हास्य-रस से भरपूर है, ओज और करुण रस प्रधान रचनायें अधिक हैं तो कहीं -कहीं शांत रस की रचनाएं भी देखने को मिलतीं हैं । "दादी माँ के नाम", " मामा जी की पाती",  "बहिना गुड़िया रानी" जैसी रचनाएँ कहीं-कहीं  वात्सल्य रस की अनुभूतियाँ कराती हुयी सद् मूल्यों का संचार करतीं हैं । कुछ रचनाओं को छोड़कर सभी गेय हैं ।
      डा महेश दिवाकर जी द्वारा रचित  98 पृष्ठीय काव्य-संग्रह -"आस्था के फूल" एक श्रेष्ठ काव्य-,कृति है, जिसका हिंदी संसार में समुचित सम्मान होगा । इस सृजनात्मक सत्कर्म के लिए डा दिवाकर जी को हृदय से बधाई।




*कृति  : " आस्था के फूल" ( काव्य)
*रचयिता : डॉ महेश दिवाकर
*प्रकाशन :  चंद्रा प्रकाशन, मुरादाबाद
* प्रथम संस्करण : 1999
*मूल्य : ₹100
* समीक्षक : जितेन्द्र कमल आनंद
राष्ट्रीय महासचिव
आध्यात्मिक ,साहित्यिक संस्था काव्यधारा
रामपुर
उ प्र , भारत
मोबाइल फोन नंबर 7300635812

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के गजल संग्रह "ये अश्क होते मोती" की जितेंद्र कमल आनन्द द्वारा की गई समीक्षा

 डॉ अर्चना गुप्ता जी का ग़ज़ल-संग्रह "ये अश्क होते मोती' मेरे हाथों में है, पृष्ठ संख्या: 99 खुलता है --
    "नज़र के पार पढ़ लेना
      हमारा प्यार पढ़  लेना
      नहीं होता सुनो काफ़ी
      कथा का सार पढ़ लेना"

    पढ़ने का प्रयास कर रहा हूँ । अपनी बात को अश्आर ( शेरों) में पिरोने का यह हुनर , उनकी शायरी में सफलता है । भाव और शब्द संयोजन के धरातल पर मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने में भी आप कामयाब हैं ; जैसा कि उनको और भी पढ़ा और पाया कि आपका यह सम्पूर्ण सृजन ही काव्य- शिल्प एवं भाव संबंधी दोनों पक्षों का सामंजस्य पूर्ण है । आपकी लेखनी कह रही है कि डा अर्चना जी एक परिपक्व सृजनकार हैं, एक अच्छी शायरा भी। यही कारण है कि आप बहुत ही सरलता से अपने जज़्बातों को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहीं हैं ----
        " शब्द आयात निर्यात करते रहे
         यूं बयां अपने जज़्बात करते रहे

          जब मिले वो हमें, हाल पूछा नहीं
          बस सवालों की बरसात करते रहे "( पृष्ठ: 75 )

        जहाँ नि:स्वार्थ सच्चा प्रेम है,  वहाँ जंगल में भी मंगल का अनुभव होने लगता है। अभावों से उत्पन्न होने वाली दु:अनुभूतियों का स्पर्श भी नहीं हो पाता ---
       " प्यार जब से मिला, खिल कमल हो गये
          नैन तुमसे मिले फिर सजल हो गये  "
         "साथ रहकर तुम्हारे सजन आज तो
           फूस के घर भी हमको महल हो गये "( पृष्ठ संख्या: 51)

          अब न पहले वाला वह प्यार की सुगंध से सुवासित परिवेश रहा और न ही संयुक्त परिवार रहे । विघटित होकर संयुक्त परिवार एकल परिवार के रूप में आ पहुंचे हैं । इस बदलते समाज और आत्मीयता से परे परिवेश के दर्द को अनुभव किया है डा अर्चना गुप्ता जी ने और जिया है इस वेदना को ---
   " कहानी है न नानी की,नसीहत भी न दादी की
    हुए हैं आजकल एकल यहाँ परिवार जाने क्यों"(पृष्ठ  )

     यही कारण है कि लाडली बेटी को अपने पापा बहुत याद आते हैं । खो जाना चाहती है वह  उन यादों में जहाँ उसे आत्मीयता,  स्नेह, परवरिश, संस्कार मिले थे और मिली थी आत्मनिर्भर स्वाभिमानी ज़िंदगी जीने के लिए----
      "तुम्हें ही ढ़ूढ़ती रहती तुम्हारी लाडली पापा
      तुम्हारे बिन हुई सुनी बहुत ये ज़िंदगी पापा
      सिखाया था जहाँ चलना पकड़ कर उँगलियाँ मेरी
     गुजरती हूँ वहाँ से जब बुलाती वो गली पापा "( पृष्ठ:3 )

        आशावादी दृष्टिकोण लिये--
   " देखिये नफ़रतें भी मिटेंगी यहाँ
     प्यार का एक दीपक जला  लीजिये ( पृष्ठ:36)
   
      मनचाहा प्यार पाने का अहसास किसी खज़ाने से कम नहीं---
     " अर्चना" उनकी मुहब्बत क्या मिली
      हाथ में जैसे खज़ाना आ गया "( पृष्ठ:39)

      यथार्थ के धरातल का स्पर्श करती यह ग़ज़ल भी प्रशंसनीय है---
     " लाख ख़ामोश लब रहें लेकिन
       आँसुओं से वो भीग जाते हैं "( पृष्ठ 45)

     जो दूसरे के दिल में हुए गहरे जख़्म अहसास कर उसे शब्दों में पिरो दे , वह सच्चा फ़नकार है --
     " झाँक कर दिल में जो देखा जख़्म इक गहरा मिला
       आँख में पर आँसुओं का सूखता दरिया मिला "( पृष्ठ: 52 )

    डा अर्चना गुप्ता जी  एक शायरा के रूप में कहीं अकथ कथा के दर्द को जीतीं हैं तो कहीं दूसरे में वो व्यथा- सरिता को चरम पीड़ा से सूखती देखतीं हैं ; कहीं आप ग़ज़लों में श्रंगार के संयोग- वियोग भावों को शब्दायित करतीं हैं तो कहीं आपकी कलम अपने अहसासों को तल्ख़ी के साथ उकेरती भी है। आपकी सभी ग़ज़लें सरल, सहज, बोध-गम्य, और साफ- सुथरीं हैं ।ऐसे ग़ज़ल संग्रह:" ये अश्क होते मोती " का हृदय से स्वागत है । डा अर्चना गुप्ता जी को हार्दिक शुभकामनाएं और लिखें, कृतियाँ प्रकाशित हों और उनका स्वागत हो । आप स्वस्थ और दीर्घायु हों । वह फिर  प्यार के सागर में डूब कर यूं कहें ---
   " हम जो डूबे प्यार में तो शायरी तक आ गये "
   शुक्रिया


*कृति: ये अश्क होते मोती (ग़ज़ल संग्रह )
*रचनाकार:  डा अर्चना गुप्ता
*प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिकेशन
*प्रथम संस्करण : वर्ष 2017
*मूल्य: 199₹
**समीक्षक : जितेन्द्र कमल आनंद
राष्ट्रीय महासचिव एवं संस्थापक
आध्यात्मिक साहित्यिक संस्था काव्यधारा,  रामपुर
उत्तर प्रदेश, भारत
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मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हस्ताक्षर की ओर से रविवार 21 जून 2020 को पिता दिवस पर ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया । वरिष्ठ साहित्यकार शचीन्द्र भटनागर की अध्यक्षता में आयोजित इस काव्य गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों सर्वश्री मयंक शर्मा, डॉ रीता सिंह, मीनाक्षी ठाकुर, मोनिका शर्मा मासूम, राजीव प्रखर, राहुल शर्मा, डॉ अर्चना गुप्ता, सरिता लाल, अखिलेश वर्मा, श्री कृष्ण शुक्ल, ओंकार सिंह विवेक, योगेंद्र वर्मा व्योम, डॉ मीना कौल , वीरेंद्र सिंह बृजवासी, मनोज वर्मा मनु ,डॉ मीना नकवी , डॉ मक्खन मुरादाबादी, डॉ अजय अनुपम और शचींद्र भटनागर की रचनाएं -------


माँ है नदिया की गहराई तो नदिया का छोर पिता,
कभी न रुकने वाले जैसे सागर का हैं शोर पिता।

सबके अपने-अपने मन हैं सबके अपने सपने हैं,
घर की हर ज़िम्मेदारी को रखते अपनी ओर पिता।

माँ के मुख की रौनक तन का हर आभूषण उनसे है,
ईंगुर, बिंदी, काजल वाली आंखों की हैं कोर पिता।

आँसू के इक क़तरे को भी आने का अधिकार न था
पर जब विदा हुई बहना तो बरसे थे घनघोर पिता।

अपनेपन की ख़ुशबू पाकर महक रही उस माला में,
रिश्तों को फूलों सा गूँथे रखने वाली डोर पिता।

ज़ख्म मिले जीवनपथ में जो ख़ुद में उनको दफ़्न किया,
मुश्किल से मुश्किल पल में भी नहीं दिखे कमज़ोर पिता।

संकट की काली अँधियारी छाया जब भी छा जाती,
एक नई स्वर्णिम आभा की लेकर आते भोर पिता।

जीवन संघर्षों को लेकर हम जब भी कमज़ोर पड़ें,
ताक़त बनकर साथ हमारे रहते चारों ओर पिता।

 ✍️मयंक शर्मा
मुरादाबाद
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 हर बेटी के नायक पापा
करते हैं सब लायक पापा
कारज अपने सभी निभाते
बनें नहीं अधिनायक पापा ।

जग में सबसे न्यारे होते
जनक सिया के प्यारे होते
अपनी राजकुमारी पर हैं
सारे सपने वारे पापा ।

वर्ष हजार जियें दुनिया में
यही कामना करूँ दुआ में
रोग शोक से रहें दूर वो
महके उनकी महक हवा में ।

 ✍️ डॉ रीता सिंह
मुरादाबाद
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धूप सा कड़क बन,छाँव की सड़क बन
उर की धड़क बन,पिता हमें पालता।

डाँट फटकार कर,कभी पुचकार कर,
सब कुछ वार कर,वही तो  सँभालता।

जीवन आधार बन,प्रगति का द्वार बन,
ईश का दुलार बन,साँचे में है ढालता।

मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता
जग वरदान पिता,संकटों को टालता।

 ✍️ मीनाक्षी ठाकुर
 मिलन विहार
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प्रथम अभिव्यक्ति जीवन की
पिता है शक्ति तन मन की, 
पिता है नींव की मिट्टी,
जो थामे घर को है रखती

पिता ही द्वार पिता प्रहरी ,
सजग रहता है चौपहरी
पिता दीवारो दर है छत,
ज़रा स्वभाव का है सख्त

पिता पालन है पोषण है,
पिता से घर में भोजन है
पिता से घर में अनुशासन,
 डराता जिसका प्रशासन

पिता संसार बच्चों का,
 सुलभ आधार सपनों का
पिता पूजा की थाली है,
पिता होली दिवाली है

पिता अमृत की  धारा है
, ज़रा सा स्वाद  खारा है
पिता चोटी हिमालय की,
ये चौखट है शिवालय की

हरी, ब्रह्मा या शिव होई,
पिता सम पूजनिय कोई
हुआ है न कभी होई,
हुआ है न कोई होई               

✍️मोनिका "मासूम"
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मुक्तक (१)
-------------
खुद में सारे दर्द समेटे खड़े पिता।
घर की खातिर हर संकट से लड़े पिता।
और भला क्या मांगूँ तुमसे भगवन मैं,
दुनियां भर की दौलत से भी बड़े पिता।

मुक्तक (२)
--------------
अन्तर्मन पर जब-जब फैला तम का साया।
या कष्टों की आपाधापी ने भरमाया।
तब-तब बाबूजी के अनुभव की आभा ने,
जीवन पथ पर बढ़ते रहना सुगम बनाया।

मुक्तक (३)
--------------
दुनियां के हर सुख से बढ़कर, मुझको प्यारे तुम पापा।
मेरे असली चंदा-सूरज, और सितारे तुम पापा।
लिपट तिरंगे में लौटे हो,बहुत गर्व से कहता हूँ,
मिटे वतन पर सीना ताने, कभी न हारे तुम पापा।

दोहा
------
दिया हमें भगवान ने, यह सुन्दर उपहार।
जीवन के उत्थान को, पापा की फटकार।।

✍️ राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
------------------------------------
हिम्मत है हौसला है समाधान है पिता
हर एक कठिन प्रश्न का आसान है पिता

दुनिया में जिसके नाम से जाना गया तुम्हें
अस्तित्व से जुड़ी वही पहचान है पिता

नकली  कठोरता के मुखौटे से झाँकती
आँखों से फूटती हुई मुस्कान है पिता

सागर है मौन प्रेम का पर्वत है त्याग का
अनबोले समर्पण का यशोगान है पिता

सर पर पिता के हाथ से बढ़कर नहीं दुआ
रक्षा कवच के साथ अभयदान है पिता

कांधे पे बैठे बच्चे का आकाश भी है और
सारे खिलौने खेल का सामान है  पिता

सब देखभाल कर भी नज़र फेरता रहा
बच्चे समझ रहे हैं कि नादान है पिता

दुनिया में उसके जैसा कोई दूसरा नहीं
ईश्वर का सबसे कीमती वरदान है पिता

 ✍️ राहुल शर्मा
 R-2, रंगोली ऑफ़िसर कालोनी
 रामगंगा विहार
मुरादाबाद
------------------------------
1
मिले पिता से हौसला, और असीमित प्यार
इनके ही आधार पर ,टिका हुआ परिवार

2
बच्चों के सुख के लिये, पिता लुटाते प्रान
अपने सारे स्वप्न भी, कर   देते कुर्बान

3
मिले पिता के नाम से, हम को हर पहचान
कोई भी होता नहीं,   प्यारा  पिता समान

4
मिले पिता के रूप में, धरती पर भगवान
इनका करना चाहिये, हमें सदा सम्मान

5
पापा रहते आजकल,घर में बनकर मित्र
जीवन शैली के बहुत, बदल गये हैं चित्र

6
पापा बाहर से कड़क, अंदर होते मोम
खुद पीते गम का गरल, बच्चों को दे सोम

7
पापा जब भी बाँटते, अनुभव की सौगात
बच्चों को कड़वी लगे, तब उनकी हर  बात

8
पापा साये की तरह, रहते हर पल साथ
कैसे भी हों रास्ते, नहीं छोड़ते हाथ

9
पापा से है हर खुशी,  मम्मी का श्रृंगार
मुखिया घर के हैं यही ,पालें घर परिवार

10
पापा मम्मी साथ में,चलें मिलाकर ताल
इन दोनों की छाँव में,घर होता खुशहाल

 ✍️ डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
---------------------------------
मेरे पापा
आप मेरे सुन्दरसपनों की उड़ान
आप मेरा अडिग सा विश्वास हो
जहाँ चित्र बना सकता मैं हर पल
आप वो झिलमिल सा आकाश हो

आप मेरे सारे प्रश्नों के भी उत्तर
मेरी नन्ही दुनिया की मुस्कान हो
हो मेरे सारेअरमानों की चितवन
आप तो हर खुशी का वरदान हो

 मेरी भाषाओं की सुखद लेखनी
आप मेरे अन्दर की परिभाषा हो
मैं निश्चिंत भाव से जो सोता हूं
आप गुदगुदाती सीअभिलाषा हो

आप मेरे खेल खिलौनो की दुनिया
आप क्या जादू सा कर जाते हो
जो चाहूँ उससे पहले देते सबकुछ
मेरे लिये सोनपरी भी बन जाते हो

 मेरे रक्षाकवच,होआंखों की शान
आप मेरे अस्तित्व की पहचान हो
नही जाना अब तक उस ईश्वर को
आप ही मेरे लिये सारे भगवान हो

✍️सरिता लाल
मुरादाबाद
---------------------------
दे दे मुझे कोई तो ......लाकर पिता का साया
हैं खुशनसीब जिनके सर पर पिता का साया।

कोई नहीं है चिंता ......... कुछ फ़िक्र ही नहीं है
जिसको मिला है हर दम घर पर पिता का साया।

मिलते हैं शाम को जब ऑफिस से लौटकर तो
मिलता जहां है सारा पाकर पिता का साया ।

भगवान तू मुझे भी ......लौटा दे उस पिता को
जीवन बड़ा है मुश्किल खोकर पिता का साया।

सेवा करो पिता की .......कोई कसर न छोड़ो
लौटा नहीं कभी फिर जाकर पिता का साया।

✍️अखिलेश वर्मा
   मुरादाबाद
-----------------------------
फादर्स डे पर पुत्र पिता के चरण छूकर बोला,
पितृ दिवस की आपको शुभकामनाएं।
आशीर्वाद में पिता का उठा हुआ हाथ
अचानक थम गया,
बोले कैसी शुभकामनाएं।
"अभी तो मैं जिन्दा हूँ,
न प्रेत हुआ हूँ, न पितर।
फिर कैसा पितृ दिवस,
कैसी शुभकामनाएं।
थोड़ा तो इंतजार कर लो,
खुश होने के बहुत मौके आयेंगे।
मुझे जीते जी तो पितृ न बनाओ।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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मेरी  नींदों  की ख़ातिर ख़ुद जागा   करते हैं,
सहकर धूप हमेशा मुझ पर साया करते हैं।
करते  रहते  हैं  हर पल मेरे दुख की चिंता,
पापा अपना कोई दुख कब साझा   करते हैं

भले  ही  रंज  का  दिल  में बड़ा   तूफ़ान रखते हैं,
मगर  लब  पर  सदा मासूम सी मुस्कान रखते हैं।
कभी  होती  नहीं  घर  में किसी को कुछ परेशानी,
पिता जी इस तरह हर आदमी का ध्यान रखते हैं।

  ✍️ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
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बहुत दूर हैं पिता
किन्तु फिर भी हैं
मन के पास

पथरीले पथ पर चलना
मन्ज़िल को पा लेना
कैसे मुमकिन होता
क़द को ऊँचाई देना
याद पिता की
जगा रही है
सपनों में विश्वास

नया हौंसला हर पल हर दिन
देती रहती हैं
जीवन की हर मुश्किल का हल
देती रहती हैं
उनकी सीखें
क़दम-क़दम पर
भरतीं नया उजास

कभी मुँडेरों पर, छत पर
आँगन में आती थी
सखा सरीखी गौरैया
सँग-सँग बतियाती थी
जब तक पिता रहे
तब तक ही
घर में रही मिठास

✍️योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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सो गया फिर लाल उसका,पूछते पूछते यह बात
तात हमारे जीवन में, आएगा कब सुखद प्रभात।1

कर गई व्यथित उसको ,पुत्र की यह विकल बात
क्या जबाब दूँगा इसका,इसी सोच में गुजरी रात ।2

खो गया अपने अतीत में, याद हुई हर बीती बात
धन वैभव और खुशी में, रहते थे सब साथ साथ ।3

पर वक्त ने करवट बदली, बदल गए सारे हालात
वैभव पूर्ण जीवन में उसके,किया दैव ने आघात ।4

दीवारों का साथ छूट गया, अपने हुए सपनों की बात
पास रह गए बस केवल, सुन्दर और सुखद क्षण याद। 5

इन शीतल यादोँ की छाँव में, विस्मृत हुई दुःख की बात
नए हौसलों और संकल्पों से ,कट जाएगी पिछली  रात। 6

जीवन चक्र चलता रहता, सुख दुःख समय की बात
कभी खुशी की धूप खिली, कभी गमों की काली रात। 7

दोनों सदा साथ नहीं रहते,हो जाते हैं कल की बात
वही मनुष्य आगे बढ़ता, जो नहीं बँधता इनके साथ।8

यही पुत्र को है समझाना, निश्चिय कर ली उसने बात
दिन की पहली किरण खिली,गुजर गई संशय की रात।9
   
✍️ डॉ मीना कौल
मुरादाबाद
---------------------------------------
पर्वत  जैसे  पिता   स्वयं   ही
होते      घर       की      शान
उनकी    सूझ-बूझ  से  थमते
जीवन       के          तूफान।
      --------------------

अनुशासित जीवन का दिखते
पापा                    दस्तावेज़
सतत    संस्कारों    से    रहते
हरपल         ही        लवरेज
उनके  होंठों   पर  सजती   है
नित         नूतन       मुस्कान।
पर्वत जैसे-------------------

व्यर्थ  समय  खोने  वालों   से
रहते          हरदम           दूर
कठिन  परिश्रम  ही  है  उनके
जीवन         का          दस्तूर
आलस  करने  से  मिट जाती
मानव          की       पहचान।
पर्वत जैसे ----------------------

 घर  के  हालातों   से  भी वह
अनभिज्ञ       नहीं         रहते
रिश्तों   की    जिम्मेदारी    से
वे     सदा       भिज्ञ       रहते
अपने   और   पराए   का  भी
रखते           हैं        अनुमान
पर्वत जैसे-------------------

प्रातः अपने  मात - पिता  को
करते          रोज़        प्रणाम
ले   करके  आशीष   सदा  ही
करते          अपना       काम
उनकी सुख सुविधाओं का भी
रखते           पूरा         ध्यान।
पर्वत जैसे--------------------

बच्चों   में  बच्चे   बनकर   के
सबसे          करते         प्यार
इसमें   ही  तो   छुपा  हुआ  है
जीवन         का         आधार
दिल से  नमन  करें  पापा  का
करें          सतत        सम्मान।
पर्वत जैसे--------------------

              ✍️    वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
                 मुरादाबाद/उ,प्र,
                   9719275453
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सर पर छांव पिता की
कच्ची दीवारों पर छप्पर
आंधी-बारिश
खुद  पर   झेले
हवा  थपेड़े  रोके ,
जर्जर तन
भी ढाल बने
कितने मौके-बेमौके ,
रहते समय
जान नहीं पाते
क्यों हम सब ये अक्सर,..
              सर पर छांव पिता की ,,...

जितनी
दुनियादारी जो भी
नजर  समझ   पाती  है,
 वही दृष्टि
अनमोल पिता के
साए  संग  आती  है ,
जिससे, दुष्कर
जीवन  पथ  पर
नहीं  बैठते थककर....,
               सिर पर छांव पिता की...

माँ का आंचल
संस्कार       भर
प्यार  दुलार लुटाता,
पिता
परिस्थिति की
विसात पर
चलना हमें सिखाता,
करता सतत प्रयास
कि बेटा होवे उस से बढ़कर,..
सिर पर
छांव पिता की
कच्ची दीवारों पर छप्पर...

  ✍️ मनोज'मनु'
---------------------------

मौहब्बतों से भरी दास्ताँ हैं अब्बू की।
वो ख़ुद दरख़्त थे हम पत्तियाँ  है अब्बू की।।

हमारा दिल जो कुशादा है सब की चाहत में।
हमारे ज़़ेह्न मे अंगनाइयाँ  है अब्बू की।।

थकन को अपनी कहाँ वो बयान करते थे।
हमारी आँखों में परछाइयाँ है अब्बू की।।

गले से हम को लगाते थे नाज़ उठाते थे।
वो हम से कहते थे सब बेटियाँ है अब्बू की।।

ये मेरा लिखना،ये पढ़ना،  ये आदतें सारी।
नगर ये अब्बू के हैं बस्तियाँ  है अब्बू की।।

ख़ुलूस ,प्यार, लताफ़त मिली है विरसे में।
मिज़ाज में भी मेरे गर्मियाँ हैं अब्बू की।।

ये फ़िक्र-ए-फ़न ये तख़य्युल, ये शायरी 'मीना'।
कि मुझ में इल्म की सब वादियाँ है अब्बू की।।

✍️  डॉ.मीना नक़वी
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 एक परम है
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पिता पर कविता लिखना
सहज नहीं है , दुष्कर है ,
भले ही
पिता को जीने
और पिता होने का
कितना ही
अनुभव भीतर है ।                                                 
मां कृपा से जब
हुई उधेड़बुन भीतर
पिता को कहने में ,
खड़ी विवशताएं
दीखीं उस क्षण
पिता सा रहने में ।
मां बोली,तू अपनी बुन,
पर पहले मेरी सुन ।
पिता,बरहे चलता
वह पानी है,जो
मुरझाई धूप से
दूब में जीवन भरता है,
पिता,वह साधन है
जो थाम थमा उंगली से
बच्चों को खड़ा करता है।
पिता,वह सपना है
जो अपने आप, आप को
छोटा करके
बच्चों को
रोज़ बड़ा करता है।
पिता,वह संयम है,जो
जिद पर बच्चों की
अपनी जिद पर
नहीं अड़ा करता है ,
पिता ही तो
संपूर्ण पराग फूलों का
जो बच्चों पर
घड़ी घड़ी हर पल
दिन रात झड़ा करता है।
पिता-
गरम नरम है
धरम करम है ,
सोचें तो
पिता ही बस
एक परम है ।।

✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी
   झ-28, नवीन नगर
   कांठ रोड, मुरादाबाद
   मोबाइल:9319086769
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मार्गदर्शक है पिता,रखता दुखों से दूर भी।
बाढ़ की संभावनाओं में पिता पुल है
धर्म शिक्षा आचरण की मूर्ति मंजुल है
हर्ष है सत्कार की आश्वस्ति से भरपूर भी।१

धूप वर्षा से बचाता जिस तरह छप्पर
लाज घर की मां, पिता से मान पाता घर
गेह-उत्सव में पिता बजता हुआ संतूर भी।२

शंखध्वनि माता, पिता है यज्ञ का गौरव
साधना है मां, पिता है सिद्धि का अनुभव
पिता मंगलसूत्र भी है,मांग का सिन्दूर भी।३

 ✍️ डॉ अजय अनुपम
मुरादाबाद
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आस्तिक पिता

पिता सूर्य के लिए खुले ही
रखते थे वातायन

प्यार बांट कर
बांधा सबको
तब परिवार बनाया
किंतु कभी
श्री फल बनकर भी
था सदभाव सिखाया
उनकी सीख आज लगती है
हमको सिद्ध रसायन

उनके रहते
कभी किसी ने
भी अलगाव न जाना
एक भवन में
 सिमटा रहता
खुशियों भरा ख़ज़ाना
जीवन के वास्तविक यज्ञ का
था वह देवा्वाहन

सुबह
साइकिल से जाना
फिर देर शाम घर आना
उन्हें न भाया
कभी बैठकर
ख़ाली समय गंवाना
कर्मयोग का करते रहते
पूरे दिन पारायण

कभी न
पूनो पर्व  नहाए
माला नहीं घुमाई
किंतु विकल हो गये
दुखी जब
कोई दिया दिखाई
यह कर्तव्य भाव था उनका
कथा यज्ञ रामायण

 ✍️  शचींद्र भटनागर

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डॉ मनोज रस्तोगी
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रविवार, 21 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कविताएं ---- ये कविताएं उन्होंने अपने छात्र जीवन के दौरान उस समय लिखी थी जब वह एम ए हिंदी के छात्र थे । उनकी ये रचनाएं 50 साल पहले केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका के अंक 20 ( 1969- 70) में प्रकाशित हुई थी।



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ शिवनाथ अरोरा की सरस्वती वंदना ----यह रचना उन्होंने अपने छात्र जीवन के दौरान उस समय लिखी थी जब वह एम ए फाइनल के छात्र थे । उनकी यह रचना 64 साल पहले केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका के अंक 6 ( 1955- 56) में प्रकाशित हुई थी।





मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ब्रजभूषण सिंह गौतम का गीत ----यह रचना उन्होंने अपने छात्र जीवन के दौरान उस समय लिखी थी जब वह एम ए (इतिहास) प्रथम वर्ष के छात्र थे । उनकी यह रचना 54 साल पहले केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका के अंक 16( 1965- 66) में प्रकाशित हुई थी।


शनिवार, 20 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार शिव नारायण भटनागर साकी की रचना -- 'रुक नहीं सकता कभी बढ़ता हुआ यह कारवां ' । यह रचना उन्होंने अपने छात्र जीवन के दौरान उस समय लिखी थी जब वह बीए द्वितीय वर्ष के छात्र थे । उनकी यह रचना 54 साल पहले केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका के अंक 16( 1965- 66) में प्रकाशित हुई थी।


मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल की कविता --- 'हम ले संगीनें हाथों में' । यह रचना उन्होंने लगभग 57 साल पहले उस समय लिखी थी जब वह बीए उत्तरार्द्ध के छात्र थे। उनकी यह रचना केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका के अंक 13 (1962- 63) में प्रकाशित हुई थी ।


मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ विश्व अवतार जैमिनी का गीत--- यह गीत उन्होंने उस समय लिखा था जब वह स्नातकोत्तर के छात्र थे । उनका यह गीत लगभग 58 वर्ष पूर्व केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका के अंक 12 (1961-62) में प्रकाशित हुआ था ।





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शुक्रवार, 19 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शील कुमार शर्मा शील की कविता --"मुझे शब्द दो" । छात्र जीवन के दौरान लिखी गई उनकी यह कविता लगभग 52 वर्ष पूर्व केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका के अंक 18 (1967- 68) में प्रकाशित हुई थी ।




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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष वीरेंद्र मिश्र की कहानी ----- ऐलान । यह कहानी ली गई है अशोक विश्नोई के संपादन में प्रकाशित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका 'आकार' के कहानी अंक ( वर्ष 1996-97 ) से । यह पत्रिका सागर तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की जाती थी ।






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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष डॉ भूपति शर्मा जोशी की एक रचना--- यह रचना ली गई है अशोक विश्नोई के संपादन में प्रकाशित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका 'आकार'( वर्ष 1995 ) से । यह पत्रिका सागर तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की जाती थी ।



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