सोमवार, 22 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की काव्य कृति "आस्था के फूल" की जितेंद्र कमल आनंद द्वारा की गई समीक्षा

    "आस्था के फूल" मातृभूमि के प्रति आस्थावान पूर्वजों के प्रति श्रद्धावान देश-प्रेमी और निरन्तर सृजनधर्मी डा महेश दिवाकर द्वारा रचित  53 उत्कृष्ट रचनाओं का पठनीय संग्रह है , जिसमें कवि के ही शब्दों में देखें-
 "शब्द-अर्थ के साथ पगे हैं
यहाँ-वहाँ जो पड़े मिले हैं--
मैंने उनको अपनाया है
डुबा आस्था गंगा-जल में
भाव सुवासित फूल बने हैं"(पृष्ठ-2)

     काव्याचार्यों ने काव्य के दो पक्ष माने हैं--भाव पक्ष और कला पक्ष अर्थात् अनुभूति और अभिव्यक्ति। अनुभूति काव्य का आन्तरिक स्वरूप है, जिसे हम काव्य की आत्मा कह सकते हैं , जब कि अभिव्यक्ति उसका  वाह्य स्वरूप,  जिसे उसका कलेवर कहा जा सकता है । कवि हंस अपने दोनों पंखों पर संतुलित होकर उड़ान भरता हुआ "आस्था के फूल" काव्य-संग्रह का मनोहर प्रणयन करता है,  फलस्वरूप पाठकों के लिये प्रशंसनीय बन गया है।
      जाति -वर्गवाद-आधार  पर आरक्षण नीति के विरोध में कवि का ओजस्वी स्वर---
     जाति-पाँति के खेल खिलाकर
नेता मन में फूल रहा ।
उसे न चिंता आज देश की,
घोटालों में झूल रहा ।
आरक्षण का गरल पिलाकर,
रोज उड़े नभयान में ।
देश-धर्म सब इसने बाँटे,
फूँको इसे मकान में  ।
चुभो रहे हैं आज कील जो,
प्यार भरे जलयान में ;
उठो ! लगा दो आग , देश के--
आरक्षण अभियान में।।पृष्ठ 12।।

     मानवीय संवेदना शून्य सत्ता, कुर्सी लौलुप राजनेताओं पर करारा व्यंग्यात्मक प्रहार--
      "बाघ-भेड़िये ,अजगर- नेता
भेड़ सरीखी जनता है ।
जिंदा माँस चबाया करते
कुर्सी लोक-- नियंता हैं ।।पृष्ठ वही-12।।

     प्रेम रूपी दीपक प्रज्वलित करने की कवि-अभिलाषा---
     " दीपक प्यार के प्रतीक
      देते विश्व को संगीत ।
      प्यार तप कर सदा पले
      दीपक सबके लिये जले।।पृष्ठ-19।।

     दर्शनाभिलाषी कवि की प्रभु के प्रति सहज अनुराग की कामना--
     "चंदन- वंदन, भक्ति न जानूँ
     मीत ! सहज अनुरक्ति मानूँ
     प्रीति अनूठी तुमसे मोहन ।
     तेरी आदि शक्ति पहचानूँ।।
     हर पल तेरी राह देखते   ,
     नैन तुझे खोजा करता हैं।।पृष्ठ-20।।

     देश-प्रेमी और देश-भक्त कवि के लिए कश्मीर ही ताज, साज,श्रंगार और भारत का स्वर्ग है जिसकी आन-बान, मान- शान में कमी न आने देने के लिये उसका संकल्प दृष्टव्य है --
     " भारत माँ की शान है यह
पूर्वजों का मान है यह
गौरव गाथा है वीरों की
शोणित की पहचान है यह
कैसे हम पहिचान मिटा दें?
कैसे अपना मान लुटा दे  ?
काश्मीर है साज हमारा,
इसे नहीं हम लुटने देंगे ।
काश्मीर श्रंगार  हमारा ,
उसे नहीं हम मिटने देंगे ।।पृष्ठ-23
     देश के दुश्मनों से भारत की अखण्डता,  सम्प्रभुता और उसके स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए कवि वीर जवानों का आह्वान करता है--
     " मातृभूमि के स्वाभिमान ने
      आज हमें ललकारा है ।
      उठो ! देश के वीर बाँकुरों!
माँ ने हमें पुकारा है ।
      आज देश की सीमाओं पर
       भीषण संकट छाया है ।
       शांति लूटने इधर लुटेरा
दूर देश से आया है ।।" पृ 54।।

      देश और मानवता की व्यथा का यथार्थ चित्रण --
     " आज देश को लूट रहे हैं , रक्षक बन हत्यारे।
       त्राहि- त्राहि करती मानवता, सत्य-अंहिसा हारे।
      रोम-रोम रो रहा देश का, कैसा कलियुग आया ।
        आज तिरंगा आसमान में, सिसक-सिसक लहराया।।पृष्ठ-44।।

        "देश को अपने बचा लो" शीर्षक कविता से कवि का देश के प्रति प्रेम व्यक्त होता है---
        " देश कहीं है श्रेष्ठ धरा पर तो मेरा भारत है ।
         देश कहीं है स्वर्ग धरा पर, तो मेरा भारत है।।पृष्ठ-56।।

     इसका कारण भारत के मुनियों, तपस्वियों की तपोभूमि होना और मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम द्वारा सत्य, अहिंसा, न्याय,  मर्यादा जैसे शाश्वत मूल्यों की स्थापना कर युग --आदर्श प्रदान करना बताते हुए कवि कहता है---
       भारत के कण-कण में बसता, सत्य-अहिंसा दान ।
       यह मुनियों की तपोभूमि है, रही धर्म की खान ।।
        हुआ राम का जन्म यहाँ पर, दुनिया सारी जाने ।
         धर्म,  न्याय औ' सदाचार का ईश्वर उनको माने।
        कितने कष्ट सहे जीवन में, लेकिन व्रत क्या तोड़ा?
       युग की मानवता को जैसे मर्यादा से जोड़ा ।।" पृष्ठ-56

     इसी प्रकार से यदि "यह वतन की  धूल है" , ' वतन को तोड़ने वालों,' ' हम पुजारी शांति के हैं,' इत्यादि रचनाओं में  नवीनता की महक है, तो ' देश को अपने बचा लो,' नामक 8 पृष्ठीय कविता में देश को बचाने के लिये कवि की वेदना उर- स्पर्शी बन पड़ी है ।

        उक्त उत्तम रचनाओं के अतिरिक्त उत्तरार्द्ध में भारतीय पर्वों से सम्बंधित ' होली' और "बसंत" शीर्षक रचनाएँ हैं । " मामा जी की पाती ", , ' बहाना,' 'गुड़िया रानी,' ' बंदर की कथा,' ' किस्मत की कथा,' जैसे आठ बाल गीत बालकों के लिए शिक्षाप्रद बन पड़े हैं । यदि कवि उन्हें आत्मीयता के साथ अपने परिजनों के लिए सुंदर- सुंदर  पातियाँ लिखने की प्रेरणा देता है तो 'अति सर्वत्र वर्जयेत,' की सीख भी बच्चों को दी गई  है, यथा--
      ' बच्चों, वर्षा ही जोवन है
        जल बसुधा पर संजीवन है
        किंतु अधिकता किसी चीज की
        देखो! बन जाती दुखदायी ।'(पृष्ठ 84)

      इसी प्रकार ' दादी माँ के नाम,' और 'आस्था के फूल,' पूर्वजों का स्मरण करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि है, सादर प्रणाम है। अंत में अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा,  निष्ठा और प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति ' यह वतन की धूल है' , सच्ची सुमनांजलि है--
       ' यह वतन की धूल है
        आस्था का फूल है
        प्राण देकर भी इसे हम
        भाल पर धारण करेंगे।।पृष्ठ-64।।
     कला पक्ष : साहित्यिक-सांस्कृतिक  संचेतना  के रचनाकार  डा दिवाकर द्वारा सम्पूर्ण काव्य- संग्रह खड़ी बोली हिंदी में रचा गया है । सर्वत्र ही सरल, सुबोध और सम्बंधित विषयानुकूल भाषा होने के कारण भाषाभिव्यक्ति सहज है, जो प्रसाद , ओज एवं माधुर्य गुणों से परिपूर्ण है, तो भावों की सम्प्रेषणीयता   भी इसकी विशेषता है --
   " यदि एक आदमी ने बढ़कर
     यदि एक आदमी बचा लिया
     तो समझो ,सारा राष्टृ बचा ,
     दीपक से  दीपक जला दिया।"पृष्ठ-40।।

    यद्यपि डा दिवाकर जी की काव्य-भाषा में उर्दू के शब्द-- औकात, कीमत, इंसान, क़फ़न, आज़ादी, कूच, वासिन्दों, दुश्मन, कुर्बानी,  ख़ाक,  आगाज जैसे शब्द हैं, परन्तु सामान्य बोलचाल की भाषा में सम्मिलित हो चुके ये शब्द अखरती नहीं हैं। वास्तव में भाषा सहज , सुबोध और सरस है, कहीं- कहीं यथोचित मुहावरों से युक्त है , तो कहावतों से समृद्ध और उपालम्भ -   उक्तियों से सुसज्जित भी , यथा--
    ' पर उपदेश कुशल बहुतेरे '
    'अपने- अपने भाग्य को ही कोसते हैं लोग ' ( पृष्ठ-26)
    ' चूड़ियाँ पहनों करों में ' ( पृष्ठ 33)
    ' आँचलों में मुछ छिपाओं '( पृष्ठ 33)
    ' जम गया लोहू रगों में ' ( पृष्ठ-32)
     ' प्राण पर तुम आज खेलो ' ( पृष्ठ 34)
     ' दीपक से दीपक जला दिया'( पृष्ठ 40) इत्यादि

     यद्यपि डा महेश दिवाकर जी का ध्यान सहज भावाभिव्यक्ति पर रहा है, तथापि स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त अलंकार आदि कवि के काव्य- शिल्प के  परिचायक और उनके भावों को निकालने में सहायक ही बन पड़े हैं, यथा---
ध्वन्यात्मक अलंकार:
     " छनन-छनन चूड़ी बजती थी"( पृष्ठ:15)
      "खुल्ल-खुल्ल करती है गुड़िया"( पृष्ठ-86)
अन्त्यानुप्रास---
        " बाल-मराल नहीं अब रोते"( पृष्ठ: 18)
       " भय से तन-मन रूँध रहा है"(पृ  18)
        " चंदन-वंदन भक्ति जानूं "( पृष्ठ  20)
पुनरुक्ति प्रकाश:
        " नर्म-नर्म दादी की बाँहें"( पृष्ठ:17)
       " बड़ी-बड़ी बातें करते हैं"( पृष्ठ-24)
       " बहकी-बहकी चलती धारा "( पृष्ठ-35)
       " उसकी तुतली-तुतली बातें"( पृष्ठ- 87)
      इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि कवि ने अलंकारों ,उपमानों और प्रतीकों, को महत्त्व नहीं दिया है , जो कुछ भी है, वह उनकी सहज ही भावाभिव्यक्ति बन पड़ी है।
      यदि " होली," "बसंत" जैसी रचनाएं श्रंगार रस की अनुभूति- सी कराती हैं, तो "कुँअर साहब का कुत्ता", हास्य-रस से भरपूर है, ओज और करुण रस प्रधान रचनायें अधिक हैं तो कहीं -कहीं शांत रस की रचनाएं भी देखने को मिलतीं हैं । "दादी माँ के नाम", " मामा जी की पाती",  "बहिना गुड़िया रानी" जैसी रचनाएँ कहीं-कहीं  वात्सल्य रस की अनुभूतियाँ कराती हुयी सद् मूल्यों का संचार करतीं हैं । कुछ रचनाओं को छोड़कर सभी गेय हैं ।
      डा महेश दिवाकर जी द्वारा रचित  98 पृष्ठीय काव्य-संग्रह -"आस्था के फूल" एक श्रेष्ठ काव्य-,कृति है, जिसका हिंदी संसार में समुचित सम्मान होगा । इस सृजनात्मक सत्कर्म के लिए डा दिवाकर जी को हृदय से बधाई।




*कृति  : " आस्था के फूल" ( काव्य)
*रचयिता : डॉ महेश दिवाकर
*प्रकाशन :  चंद्रा प्रकाशन, मुरादाबाद
* प्रथम संस्करण : 1999
*मूल्य : ₹100
* समीक्षक : जितेन्द्र कमल आनंद
राष्ट्रीय महासचिव
आध्यात्मिक ,साहित्यिक संस्था काव्यधारा
रामपुर
उ प्र , भारत
मोबाइल फोन नंबर 7300635812

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