माँ है नदिया की गहराई तो नदिया का छोर पिता,
कभी न रुकने वाले जैसे सागर का हैं शोर पिता।
सबके अपने-अपने मन हैं सबके अपने सपने हैं,
घर की हर ज़िम्मेदारी को रखते अपनी ओर पिता।
माँ के मुख की रौनक तन का हर आभूषण उनसे है,
ईंगुर, बिंदी, काजल वाली आंखों की हैं कोर पिता।
आँसू के इक क़तरे को भी आने का अधिकार न था
पर जब विदा हुई बहना तो बरसे थे घनघोर पिता।
अपनेपन की ख़ुशबू पाकर महक रही उस माला में,
रिश्तों को फूलों सा गूँथे रखने वाली डोर पिता।
ज़ख्म मिले जीवनपथ में जो ख़ुद में उनको दफ़्न किया,
मुश्किल से मुश्किल पल में भी नहीं दिखे कमज़ोर पिता।
संकट की काली अँधियारी छाया जब भी छा जाती,
एक नई स्वर्णिम आभा की लेकर आते भोर पिता।
जीवन संघर्षों को लेकर हम जब भी कमज़ोर पड़ें,
ताक़त बनकर साथ हमारे रहते चारों ओर पिता।
✍️मयंक शर्मा
मुरादाबाद
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हर बेटी के नायक पापा
करते हैं सब लायक पापा
कारज अपने सभी निभाते
बनें नहीं अधिनायक पापा ।
जग में सबसे न्यारे होते
जनक सिया के प्यारे होते
अपनी राजकुमारी पर हैं
सारे सपने वारे पापा ।
वर्ष हजार जियें दुनिया में
यही कामना करूँ दुआ में
रोग शोक से रहें दूर वो
महके उनकी महक हवा में ।
✍️ डॉ रीता सिंह
मुरादाबाद
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धूप सा कड़क बन,छाँव की सड़क बन
उर की धड़क बन,पिता हमें पालता।
डाँट फटकार कर,कभी पुचकार कर,
सब कुछ वार कर,वही तो सँभालता।
जीवन आधार बन,प्रगति का द्वार बन,
ईश का दुलार बन,साँचे में है ढालता।
मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता
जग वरदान पिता,संकटों को टालता।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
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प्रथम अभिव्यक्ति जीवन की
पिता है शक्ति तन मन की,
पिता है नींव की मिट्टी,
जो थामे घर को है रखती
पिता ही द्वार पिता प्रहरी ,
सजग रहता है चौपहरी
पिता दीवारो दर है छत,
ज़रा स्वभाव का है सख्त
पिता पालन है पोषण है,
पिता से घर में भोजन है
पिता से घर में अनुशासन,
डराता जिसका प्रशासन
पिता संसार बच्चों का,
सुलभ आधार सपनों का
पिता पूजा की थाली है,
पिता होली दिवाली है
पिता अमृत की धारा है
, ज़रा सा स्वाद खारा है
पिता चोटी हिमालय की,
ये चौखट है शिवालय की
हरी, ब्रह्मा या शिव होई,
पिता सम पूजनिय कोई
हुआ है न कभी होई,
हुआ है न कोई होई
✍️मोनिका "मासूम"
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मुक्तक (१)
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खुद में सारे दर्द समेटे खड़े पिता।
घर की खातिर हर संकट से लड़े पिता।
और भला क्या मांगूँ तुमसे भगवन मैं,
दुनियां भर की दौलत से भी बड़े पिता।
मुक्तक (२)
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अन्तर्मन पर जब-जब फैला तम का साया।
या कष्टों की आपाधापी ने भरमाया।
तब-तब बाबूजी के अनुभव की आभा ने,
जीवन पथ पर बढ़ते रहना सुगम बनाया।
मुक्तक (३)
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दुनियां के हर सुख से बढ़कर, मुझको प्यारे तुम पापा।
मेरे असली चंदा-सूरज, और सितारे तुम पापा।
लिपट तिरंगे में लौटे हो,बहुत गर्व से कहता हूँ,
मिटे वतन पर सीना ताने, कभी न हारे तुम पापा।
दोहा
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दिया हमें भगवान ने, यह सुन्दर उपहार।
जीवन के उत्थान को, पापा की फटकार।।
✍️ राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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हिम्मत है हौसला है समाधान है पिता
हर एक कठिन प्रश्न का आसान है पिता
दुनिया में जिसके नाम से जाना गया तुम्हें
अस्तित्व से जुड़ी वही पहचान है पिता
नकली कठोरता के मुखौटे से झाँकती
आँखों से फूटती हुई मुस्कान है पिता
सागर है मौन प्रेम का पर्वत है त्याग का
अनबोले समर्पण का यशोगान है पिता
सर पर पिता के हाथ से बढ़कर नहीं दुआ
रक्षा कवच के साथ अभयदान है पिता
कांधे पे बैठे बच्चे का आकाश भी है और
सारे खिलौने खेल का सामान है पिता
सब देखभाल कर भी नज़र फेरता रहा
बच्चे समझ रहे हैं कि नादान है पिता
दुनिया में उसके जैसा कोई दूसरा नहीं
ईश्वर का सबसे कीमती वरदान है पिता
✍️ राहुल शर्मा
R-2, रंगोली ऑफ़िसर कालोनी
रामगंगा विहार
मुरादाबाद
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1
मिले पिता से हौसला, और असीमित प्यारइनके ही आधार पर ,टिका हुआ परिवार
2
बच्चों के सुख के लिये, पिता लुटाते प्रान
अपने सारे स्वप्न भी, कर देते कुर्बान
3
मिले पिता के नाम से, हम को हर पहचान
कोई भी होता नहीं, प्यारा पिता समान
4
मिले पिता के रूप में, धरती पर भगवान
इनका करना चाहिये, हमें सदा सम्मान
5
पापा रहते आजकल,घर में बनकर मित्र
जीवन शैली के बहुत, बदल गये हैं चित्र
6
पापा बाहर से कड़क, अंदर होते मोम
खुद पीते गम का गरल, बच्चों को दे सोम
7
पापा जब भी बाँटते, अनुभव की सौगात
बच्चों को कड़वी लगे, तब उनकी हर बात
8
पापा साये की तरह, रहते हर पल साथ
कैसे भी हों रास्ते, नहीं छोड़ते हाथ
9
पापा से है हर खुशी, मम्मी का श्रृंगार
मुखिया घर के हैं यही ,पालें घर परिवार
10
पापा मम्मी साथ में,चलें मिलाकर ताल
इन दोनों की छाँव में,घर होता खुशहाल
✍️ डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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मेरे पापा
आप मेरे सुन्दरसपनों की उड़ान
आप मेरा अडिग सा विश्वास हो
जहाँ चित्र बना सकता मैं हर पल
आप वो झिलमिल सा आकाश हो
आप मेरे सारे प्रश्नों के भी उत्तर
मेरी नन्ही दुनिया की मुस्कान हो
हो मेरे सारेअरमानों की चितवन
आप तो हर खुशी का वरदान हो
मेरी भाषाओं की सुखद लेखनी
आप मेरे अन्दर की परिभाषा हो
मैं निश्चिंत भाव से जो सोता हूं
आप गुदगुदाती सीअभिलाषा हो
आप मेरे खेल खिलौनो की दुनिया
आप क्या जादू सा कर जाते हो
जो चाहूँ उससे पहले देते सबकुछ
मेरे लिये सोनपरी भी बन जाते हो
मेरे रक्षाकवच,होआंखों की शान
आप मेरे अस्तित्व की पहचान हो
नही जाना अब तक उस ईश्वर को
आप ही मेरे लिये सारे भगवान हो
✍️सरिता लाल
मुरादाबाद
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दे दे मुझे कोई तो ......लाकर पिता का साया
हैं खुशनसीब जिनके सर पर पिता का साया।
कोई नहीं है चिंता ......... कुछ फ़िक्र ही नहीं है
जिसको मिला है हर दम घर पर पिता का साया।
मिलते हैं शाम को जब ऑफिस से लौटकर तो
मिलता जहां है सारा पाकर पिता का साया ।
भगवान तू मुझे भी ......लौटा दे उस पिता को
जीवन बड़ा है मुश्किल खोकर पिता का साया।
सेवा करो पिता की .......कोई कसर न छोड़ो
लौटा नहीं कभी फिर जाकर पिता का साया।
✍️अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद
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फादर्स डे पर पुत्र पिता के चरण छूकर बोला,
पितृ दिवस की आपको शुभकामनाएं।
आशीर्वाद में पिता का उठा हुआ हाथ
अचानक थम गया,
बोले कैसी शुभकामनाएं।
"अभी तो मैं जिन्दा हूँ,
न प्रेत हुआ हूँ, न पितर।
फिर कैसा पितृ दिवस,
कैसी शुभकामनाएं।
थोड़ा तो इंतजार कर लो,
खुश होने के बहुत मौके आयेंगे।
मुझे जीते जी तो पितृ न बनाओ।
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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मेरी नींदों की ख़ातिर ख़ुद जागा करते हैं,
सहकर धूप हमेशा मुझ पर साया करते हैं।
करते रहते हैं हर पल मेरे दुख की चिंता,
पापा अपना कोई दुख कब साझा करते हैं
भले ही रंज का दिल में बड़ा तूफ़ान रखते हैं,
मगर लब पर सदा मासूम सी मुस्कान रखते हैं।
कभी होती नहीं घर में किसी को कुछ परेशानी,
पिता जी इस तरह हर आदमी का ध्यान रखते हैं।
✍️ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
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बहुत दूर हैं पिता
किन्तु फिर भी हैं
मन के पास
पथरीले पथ पर चलना
मन्ज़िल को पा लेना
कैसे मुमकिन होता
क़द को ऊँचाई देना
याद पिता की
जगा रही है
सपनों में विश्वास
नया हौंसला हर पल हर दिन
देती रहती हैं
जीवन की हर मुश्किल का हल
देती रहती हैं
उनकी सीखें
क़दम-क़दम पर
भरतीं नया उजास
कभी मुँडेरों पर, छत पर
आँगन में आती थी
सखा सरीखी गौरैया
सँग-सँग बतियाती थी
जब तक पिता रहे
तब तक ही
घर में रही मिठास
✍️योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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सो गया फिर लाल उसका,पूछते पूछते यह बात
तात हमारे जीवन में, आएगा कब सुखद प्रभात।1
कर गई व्यथित उसको ,पुत्र की यह विकल बात
क्या जबाब दूँगा इसका,इसी सोच में गुजरी रात ।2
खो गया अपने अतीत में, याद हुई हर बीती बात
धन वैभव और खुशी में, रहते थे सब साथ साथ ।3
पर वक्त ने करवट बदली, बदल गए सारे हालात
वैभव पूर्ण जीवन में उसके,किया दैव ने आघात ।4
दीवारों का साथ छूट गया, अपने हुए सपनों की बात
पास रह गए बस केवल, सुन्दर और सुखद क्षण याद। 5
इन शीतल यादोँ की छाँव में, विस्मृत हुई दुःख की बात
नए हौसलों और संकल्पों से ,कट जाएगी पिछली रात। 6
जीवन चक्र चलता रहता, सुख दुःख समय की बात
कभी खुशी की धूप खिली, कभी गमों की काली रात। 7
दोनों सदा साथ नहीं रहते,हो जाते हैं कल की बात
वही मनुष्य आगे बढ़ता, जो नहीं बँधता इनके साथ।8
यही पुत्र को है समझाना, निश्चिय कर ली उसने बात
दिन की पहली किरण खिली,गुजर गई संशय की रात।9
✍️ डॉ मीना कौल
मुरादाबाद
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पर्वत जैसे पिता स्वयं ही
होते घर की शान
उनकी सूझ-बूझ से थमते
जीवन के तूफान।
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अनुशासित जीवन का दिखते
पापा दस्तावेज़
सतत संस्कारों से रहते
हरपल ही लवरेज
उनके होंठों पर सजती है
नित नूतन मुस्कान।
पर्वत जैसे-------------------
व्यर्थ समय खोने वालों से
रहते हरदम दूर
कठिन परिश्रम ही है उनके
जीवन का दस्तूर
आलस करने से मिट जाती
मानव की पहचान।
पर्वत जैसे ----------------------
घर के हालातों से भी वह
अनभिज्ञ नहीं रहते
रिश्तों की जिम्मेदारी से
वे सदा भिज्ञ रहते
अपने और पराए का भी
रखते हैं अनुमान
पर्वत जैसे-------------------
प्रातः अपने मात - पिता को
करते रोज़ प्रणाम
ले करके आशीष सदा ही
करते अपना काम
उनकी सुख सुविधाओं का भी
रखते पूरा ध्यान।
पर्वत जैसे--------------------
बच्चों में बच्चे बनकर के
सबसे करते प्यार
इसमें ही तो छुपा हुआ है
जीवन का आधार
दिल से नमन करें पापा का
करें सतत सम्मान।
पर्वत जैसे--------------------
✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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सर पर छांव पिता की
कच्ची दीवारों पर छप्पर
आंधी-बारिश
खुद पर झेले
हवा थपेड़े रोके ,
जर्जर तन
भी ढाल बने
कितने मौके-बेमौके ,
रहते समय
जान नहीं पाते
क्यों हम सब ये अक्सर,..
सर पर छांव पिता की ,,...
जितनी
दुनियादारी जो भी
नजर समझ पाती है,
वही दृष्टि
अनमोल पिता के
साए संग आती है ,
जिससे, दुष्कर
जीवन पथ पर
नहीं बैठते थककर....,
सिर पर छांव पिता की...
माँ का आंचल
संस्कार भर
प्यार दुलार लुटाता,
पिता
परिस्थिति की
विसात पर
चलना हमें सिखाता,
करता सतत प्रयास
कि बेटा होवे उस से बढ़कर,..
सिर पर
छांव पिता की
कच्ची दीवारों पर छप्पर...
✍️ मनोज'मनु'
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मौहब्बतों से भरी दास्ताँ हैं अब्बू की।
वो ख़ुद दरख़्त थे हम पत्तियाँ है अब्बू की।।
हमारा दिल जो कुशादा है सब की चाहत में।
हमारे ज़़ेह्न मे अंगनाइयाँ है अब्बू की।।
थकन को अपनी कहाँ वो बयान करते थे।
हमारी आँखों में परछाइयाँ है अब्बू की।।
गले से हम को लगाते थे नाज़ उठाते थे।
वो हम से कहते थे सब बेटियाँ है अब्बू की।।
ये मेरा लिखना،ये पढ़ना، ये आदतें सारी।
नगर ये अब्बू के हैं बस्तियाँ है अब्बू की।।
ख़ुलूस ,प्यार, लताफ़त मिली है विरसे में।
मिज़ाज में भी मेरे गर्मियाँ हैं अब्बू की।।
ये फ़िक्र-ए-फ़न ये तख़य्युल, ये शायरी 'मीना'।
कि मुझ में इल्म की सब वादियाँ है अब्बू की।।
✍️ डॉ.मीना नक़वी
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एक परम है
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पिता पर कविता लिखना
सहज नहीं है , दुष्कर है ,
भले ही
पिता को जीने
और पिता होने का
कितना ही
अनुभव भीतर है ।
मां कृपा से जब
हुई उधेड़बुन भीतर
पिता को कहने में ,
खड़ी विवशताएं
दीखीं उस क्षण
पिता सा रहने में ।
मां बोली,तू अपनी बुन,
पर पहले मेरी सुन ।
पिता,बरहे चलता
वह पानी है,जो
मुरझाई धूप से
दूब में जीवन भरता है,
पिता,वह साधन है
जो थाम थमा उंगली से
बच्चों को खड़ा करता है।
पिता,वह सपना है
जो अपने आप, आप को
छोटा करके
बच्चों को
रोज़ बड़ा करता है।
पिता,वह संयम है,जो
जिद पर बच्चों की
अपनी जिद पर
नहीं अड़ा करता है ,
पिता ही तो
संपूर्ण पराग फूलों का
जो बच्चों पर
घड़ी घड़ी हर पल
दिन रात झड़ा करता है।
पिता-
गरम नरम है
धरम करम है ,
सोचें तो
पिता ही बस
एक परम है ।।
✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद
मोबाइल:9319086769
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मार्गदर्शक है पिता,रखता दुखों से दूर भी।
बाढ़ की संभावनाओं में पिता पुल है
धर्म शिक्षा आचरण की मूर्ति मंजुल है
हर्ष है सत्कार की आश्वस्ति से भरपूर भी।१
धूप वर्षा से बचाता जिस तरह छप्पर
लाज घर की मां, पिता से मान पाता घर
गेह-उत्सव में पिता बजता हुआ संतूर भी।२
शंखध्वनि माता, पिता है यज्ञ का गौरव
साधना है मां, पिता है सिद्धि का अनुभव
पिता मंगलसूत्र भी है,मांग का सिन्दूर भी।३
✍️ डॉ अजय अनुपम
मुरादाबाद
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पिता सूर्य के लिए खुले ही
रखते थे वातायन
प्यार बांट कर
बांधा सबको
तब परिवार बनाया
किंतु कभी
श्री फल बनकर भी
था सदभाव सिखाया
उनकी सीख आज लगती है
हमको सिद्ध रसायन
उनके रहते
कभी किसी ने
भी अलगाव न जाना
एक भवन में
सिमटा रहता
खुशियों भरा ख़ज़ाना
जीवन के वास्तविक यज्ञ का
था वह देवा्वाहन
सुबह
साइकिल से जाना
फिर देर शाम घर आना
उन्हें न भाया
कभी बैठकर
ख़ाली समय गंवाना
कर्मयोग का करते रहते
पूरे दिन पारायण
कभी न
पूनो पर्व नहाए
माला नहीं घुमाई
किंतु विकल हो गये
दुखी जब
कोई दिया दिखाई
यह कर्तव्य भाव था उनका
कथा यज्ञ रामायण
✍️ शचींद्र भटनागर
::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
सुंदर आयोजन । सभी स्चनाये शानदार ।
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