सोमवार, 27 जुलाई 2020

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की साहित्यिक संस्था "प्रगति मंगला" ने ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया .....


प्रगति मंगला साहित्यिक संस्था एटा के तत्वावधान में कुरकावली जनपद संभल के यशस्वी गीतकार रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर ऑन लाइन परिचर्चा हुई। इस ऑनलाइन साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता आचार्य  डा. प्रेमीराम मिश्र पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष  जे. एल.एन. कालेज एटा ने की। मुख्य अतिथि  मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डा. मनोज रस्तोगी  रहे।  संयोजक उमाशंकर राही ने संचालन किया। संस्थापक बलराम सरस ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश डाला ।

आचार्य डा. प्रेमी राम मिश्र ने कहा कि रामावतार त्यागी  उस पीढ़ी के श्रेष्ठ कवि हैं जिसे हम रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, गोपाल सिंह नेपाली, नरेंद्र शर्मा, डॉ शिवमंगल सिंह सुमन ,देवराज दिनेश, वीरेंद्र मिश्र आदि के रूप में स्मरण करते हैं ।वह अपने समय के सर्वाधिक मुखर कवि के रूप में विख्यात रहे। उनका योगदान गीत के ही क्षेत्र में नहीं गद्य लेखन और पत्रकारिता में भी रहा है ।
मुख्य प्रस्तोता के रूप में मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डा. मनोज रस्तोगी ने  रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व और कृतित्व से अवगत कराया तथा  उनके बहुचर्चित गीत प्रस्तुत किये। उन्होंने बताया कि रामावतार त्यागी का जन्म 8जुलाई 1925 को कुकरावली जनपद संभल में एक जमींदार घराने में हुआ था। वह बचपन से ही कविता के तुके मिलाया करते थे।1950 से उनकी रचनाएं नवभारत,नवयुवक जैसे पत्रों में छपने लगीं थीं। आपने शिक्षण कार्य भी किया बाद में कई सम्मानित पत्रों के सम्पादक भी रहे। 1950 में नया खून काव्यसंग्रह, 1958में आठवां स्वर,1959 मैं दिल्ली हूं,1965 गुलाब और बबूल'( 1973), ' गाता हुआ दर्द'( 1982), ' लहू के चंद कतरे'( 1984), 'गीत बोलते हैं'(1986) काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। वर्ष 1954 में उनका उपन्यास 'समाधान' प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त 1957 में  उनकी कृति 'चरित्रहीन के पत्र'  पाठकों के समक्ष आई ।
हास्य व्यंग्य कवि त्यागी अशोका कृष्णम् कुरकावली संभल ने उनके संस्मरण सुनाते हुए बताया कि रामावतार त्यागी का जीवन एक खुली किताब था। वह सरलता से परिपूर्ण और कुटिलताओं से कोसों दूर थे। उन्होंने जो भोगा वही लिखा। आधुनिक गीत साहित्य का इतिहास उनके गीतों की विस्तार पूर्वक चर्चा किए बिना लिखा ही नहीं जा सकता
प्रख्यात नवगीतकार यश भारती माहेश्वर तिवारी मुरादाबाद ने कहा कि रामावतार त्यागी  हिंदी खड़ीबोली के ऐसे रचनाकार हैं जो काव्यत्व के धरातल पर अपने समकालीन बहुत से लोक विश्रुत कवियों से बहूत आगे थे । जमींदराना ठसक और विद्रोह का स्वर उनके निजी व्यक्तित्व के साथ साथ उनकी कविता में भी देखी जा सकती है । इसे हिंदी गीत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता हैकि उनकी अपेक्षा मौलिकता और कम काव्यात्मक पूँजी वाले कई लोग महफ़िल लूटते रहे और त्यागी जी जिस मूल्यांकन के हकदार थे वह उन्हें अभीतक नहीं मिला है ।
प्रख्यात हास्य व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि रामावतार त्यागी  पीड़ा के अमर गायक थे । वह उस उदधि के जैसे हैं जिसकी लहर-लहर में पीड़ा ही पीड़ा व्याप्त है।इन पीड़ाओं के ताप से समुद्र वाष्पीकृत होकर बादल बनके जब बरसता है तो पीड़ाओं की बाढ़ ले आता है। पीड़ाओं की इस बाढ़ से दो-दो हाथ करने नाम है, रामावतार त्यागी।उनका गीत संसारपीड़ाओं की मूसलाधार बरसात से कमाई गई खेती है।
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट  ने विचार रखते हुए कहा- श्री त्यागी जी ने अपने गीतों में जिस तरह से दर्द को जिया है और वह जिस तरह से दर्द को पालते और पुचकारते हैं,साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं क्योंकि जो व्यक्ति अपनी तप की सफलता के परिणाम में चुभन की कामना करे वह साधारण हो भी नहीं सकता।
   मुरादाबाद के ही साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा- रामावतार त्यागी कवि नहीं भारतीय सांस्कृतिक विरासत की चेतना के सोये हुए भावों में पुनर्जागरण का शंख फूंकने वाले मनीषी हैं।
संयोजक उमाशंकर राही वृन्दावन ने बताया कि रामावतार त्यागी ने फिल्मों के लिए भी कई गीत लिखे जिनमें फिल्म 'जिन्दगी और तूफान' 1975 के गीत- एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले' काफी लोकप्रिय हुआ।
  कवि बलराम सरस एटा ने कहा कि रामावतार त्यागी की सभी रचनाएं कालजयी हैं। वह अपनी रचनाधर्मिता से सदैव प्रासांगिक रहेंगे।उनका गीत --
"मन समर्पित तन समर्पित, और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ मातृ-भू तुझको अभी कुछ और भी दूँ " पाठ्य पुस्तकों में भी शामिल हुआ है ।
 संस्था की प्रशासक और साहित्यकार श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ ने विचार व्यक्त करने के बाद रामावतार त्यागी जी तन समर्पित को अपना स्वर प्रदान किया।
वरिष्ठ कवि जयराम जय कानपुर ने भी रामावतार त्यागी के गीत संसार पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उनके गीत हिंदी गीत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं ।
गुड़गांव की डॉ गुंजन शुक्ला ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि स्मृतिशेष रामावतार त्यागी जी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है । उन्होंने उनके एक गीत का अंश भी प्रस्तुत किया ।
गाजियाबाद की कवियत्री सोनम यादव ने भी स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के गीतों पर चर्चा करते हुए कहा कि उनके गीत मन में वेदना भर देते हैं । इसतरह के आयोजनों से नई पीढ़ी को महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
इस संगोष्ठी में मध्य प्रदेश की साहित्यकार डा. परवीन महमूद ने कहा कि देश के प्रख्यात दिवंगत साहित्यकारों पर साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन करके प्रगति मंगला संस्था एक सराहनीय कार्य कर रही है।

::::::प्रस्तुति:::::
बलराम सरस
संस्थापक
प्रगति मंगला
एटा ,उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष जिगर मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख......दिल को सुकून रूह को आराम आ गया


         ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो खामोशियों की जुबान में बोलती है और फ़िक्र को जज्बे की तराजू में तोलती है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें कहन का सलीक़ा भी ज़रूरी है और छंद का अनुशासन भी। इसीलिए उर्दू साहित्य में ग़ज़ल की अपनी एक अलग और विशिष्ट भूमिका है क्योंकि यह बेहद मीठी विधा है जिसमें मुहब्बत की कशिश का खुशबू भरा अहसास ज़िन्दादिली के साथ अभिव्यक्त होता रहा है। अनेक शायर हुए हैं जिन्होंने अपनी शायरी से हिन्दुस्तान की रूह को तर किया है, जिगर मुरादाबादी भी ऐसे ही अहम शायरों में शुमार होते हैं। अपनी खूबसूरत शायरी के दम पर मुहब्बतों का शायर कहलाने वाले अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी की पैदाइश 6 अप्रैल 1890 को मुरादाबाद में ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य और एक अच्छे शायर जनाब मौलवी अली ‘नज़र’ के यहाँ हुई।
उनका परिवार बेहद ऊँचे घराने से ताल्लुक रखता था, उनके पूर्वज बादशाह शाहजहाँ के यहाँ तालीम दिया करते थे बाद में किन्हीं वज़हों से उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी और वे मुरादाबाद आकर बस गए। मुरादाबाद के मुहल्ला- लालबाग में अमीन साहब वाली मस्जिद के नज़दीक रहने वाले इस महबूब शायर की बीमारी की बज़ह से शिक्षा बहुत साधारण रही, वह अंग्रेज़ी तो नाममात्र को ही जानते थे। बाद में खुद ही पढ़-पढ़कर फ़ारसी के विद्वान बने लेकिन किसी ने कहा भी है कि ‘शायरी इल्म से नहीं आती’। हालांकि पेट पालने के लिए उन्होंने कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे बेचे, कभी कोई और मुलाज़िमत भी की।
जिगर साहब शक्ल-ओ-सूरत के लिहाज़ से ख़ूबसूरत नहीं थे लेकिन उनके इश्कमिज़ाज होने और अलग ढंग से शेर कहने के हुनर के आगे उनकी शक्ल-सूरत के कुछ मानी ही नहीं रह जाते थे। उन्हें प्रेम में कई बार मात भी खानी पड़ी। एक बार आगरे की एक तवायफ वहीदन से दिल लगा बैठे, शादी की लेकिन ज़ल्द ही उनके मिज़ाज से अपना मिज़ाज न मिलने के कारण उनसे शादी तोड़कर संबंध समाप्त भी कर लिया। इसके बाद मैनपुरी की एक गायिका शीरज़न से भी इश्क किया, लेकिन यहाँ भी यह मुहब्बत ज़्यादा दूर तक नहीं जा सकी। बहरहाल इश्क में इतनी नाकामियों के बावजूद जिगर साहब ने इश्क़ को खुद से दूर नहीं होने दिया, हां शराब ने इस नाकाम आशिक को पनाह ज़रूर दी। बकौल जिगर- ‘मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादां/जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब उठा/किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़/मैं अपना जाम उठाता हूँ, तू किताब उठा।’ एक बार मशहूर गायिका अख़्तरी बाई फैजाबादी (बेगम अख़्तर) के शादी के पैग़ाम को भी जिगर ठुकरा चुके थे। बाद में शायर ‘असगर’ गौंडवी साहब की साली से जिगर साहब की शादी भी हुई जो आखिर तक चली भी।
अली सिकंदर से जिगर मुरादाबादी हो जाने तक की यात्रा इतनी आसान भी नहीं रही। जिगर साहब को शायरी अपने दादा और वालिद से विरासत में मिली लिहाज़ा उन्होंने लड़कपन में यानि कि तेरह-चौदह साल की उम्र में ही शे’र कहने शुरू कर दिए थे। शुरूआती दौर में अपने अश्’आर अपने वालिद ‘नज़र’ साहब को ही दिखाते थे और इस्लाह भी करवाते रहे, बाद में वह अपनी ग़ज़लें उस्ताद शायर ‘दाग़’ देहलवी, मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को भी दिखाया करते थे। उम्र में जिगर साहब से महज 6 साल बड़े मशहूर शायर ‘असगर’ गौंडवी की संगत से उनकी शायरी में सूफ़ियाना रंग और ज़यादा चमककर उभरा, हालांकि डॉ. मोहम्मद आसिफ़ हुसैन अपनी किताब ‘मुरादाबाद में ग़ज़ल का सफ़र’ में बताते हैं कि ‘जिगर की शायरी में कोई दर्शन नहीं है बल्कि व्यवहारिकता है। वह सुनी-सुनाई बातों पर शायरी नहीं करते बल्कि उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ देखा, सोचा, समझा और जो कुछ उनके साथ घटित हुआ, उसे उन्होंने अपने शे’रों में पेश करने की कोशिश की।’ बहरहाल, जिगर की ग़ज़लों के ये शे’र आज भी लोगों के दिलो-दिमाग़ में बसते हैं जो उन्हें बड़ा और अहम शायर बनाते हैं-
अगर न ज़ोहरा ज़बीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गु़ज़रे

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दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैगाम आ गया
दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया

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आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा गुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का कुसूर था

सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि ‘उर्दू शायरी में जिगर मुरादाबादी का अपना एक अलग और ऊँचा मुकाम है। कुतुब अली शाह से लेकर आज तक मुहब्बत की शायरी हुई है लेकिन जिगर की शायरी में मुहब्बत के मानी रूहानी भी हैं और दो दिलों के बीच पसरी धड़कनों की ज़मीन भी, उनकी ग़ज़लों में मुहब्बत के जितने रंग हो सकते हैं सब मौजूद हैं।’
      वहीं जिगर फाउंडेशन मुरादाबाद के सद्र और मशहूर शायर मंसूर उस्मानी कहते हैं कि ‘जिगर मुहब्बत के शायर थे, मुहब्बत जो इंसानियत की आत्मा है। हुस्न-ओ-इश्क और शराब की मस्ती में लिखने वाले शायर के तौर भी जिगर को जाना जाता है लेकिन यह सच है कि उनकी शायरी का एक पक्ष आध्यात्मिक भी है।’
जिगर साहब का शे’र पढ़ने का अन्दाज़ बेहद जादूभरा था और तरन्नुम लाजबाव। जिगर साहब के शेर पढ़ने के ढंग से उस दौर के नौजवान शायर इतने ज़यादा प्रभावित थे कि उनके जैसे शेर कहने और उन्हीं के अंदाज़ में शे’र पढ़ने की कोशिश किया करते थे। इतना ही नहीं ‘जिगर’ के जैसा होने और दिखने के लिए नए शायर ‘जिगर’ की ही तरह बड़ी-बड़ी बेतरतीब ज़ुल्फ़ें रखते, दाढ़ी बढ़ाते। और तो और उनके पहनावे की भी नकल करते, इसके अलावा ये नौजवान पीढ़ी बेतहाशा शराब भी पीती, सो अलग।
उनके शुरूआती दिनों में एक बार लखनऊ में वहजाद लखनवी ने एक मुशायरा रखा था जिसमें जिगर साहब को भी बुलाया गया था लेकिन पता नहीं किन बजहों से उन्हें पढ़ने नहीं दिया गया। जिगर साहब वहां से बाहर निकल आए और बाहर खड़े होकर अपने अश्’आर तरन्नुम में गाने लगे। देखते ही देखते सारे लोग मुशायरा छोड़कर बाहर आ गए और जिगर साहब को सुनने लगे और देखते ही देखते वहीं मुशायरा हो गया। उनके बारे में एक और किस्सा मशहूर है कि एक बार एक महफ़िल में जिगर साहब शे’र सुना रहे थे। पूरी महफ़िल उनके शेर पर ज़बरदस्त दाद दे रही थी, लेकिन एक साहब शुरू से आखिर तक चुपचाप बैठे रहे मगर आखि़री शेर पर उन्होंने उछल-उछलकर दाद देनी शुरू कर दी। इस पर जिगर साहब ने चौंककर उनकी ओर देखा और पूछा-क्यों जनाब, क्या आपके पास कलम है क्या? उस आदमी ने जवाब दिया, जी हां! है, क्या कीजिएगा? इस पर जिगर ने कहा कि मेरे इस शे’र में ज़रूर कोई ख़ामी रही होगी, वरना आप इतनी उछल-उछलकर दाद न देते। मैं इसे अपनी कॉपी में से काट देना चाहता हूँ।
जिगर साहब के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि उन्होंने अपने एक दोस्त के कहने पर एक फ़िल्म कंपनी में गाने लिखने के लिए एग्रीमेंट किया जिसके तहत उन्हें 10 ग़ज़लें देनी थीं और इसके पारिश्रमिक के रूप में उन्हें कुल 10 हज़ार रुपए दिए जाने थे जो उस ज़माने में एक बड़ी रक़म थी। फ़िल्म कंपनी ने उन्हें 5 हज़ार रुपए एडवांस भी दे दिए। जिगर साहब ने रक़म ली और घर आ गए। उसी रात उन्होंने एक सपना देखा कि गंदगी का एक छोटा-सा पहाड़ है, जिस पर एक शेर बैठा है। पहाड़ की तलहटी में बहुत से लोग इकट्ठा हैं और थोड़ी-थोड़ी देर में वह शेर अपने पंजों से वो गंदगी उछाल रहा है और लोग इस गंदगी से अपना दामन भर रहे हैं। ख़ुद शेर का जिस्म और लोगों के कपड़े, सब उस गंदगी से सन जाते हैं। इसी बीच उनकी आंख खुल गई। सांसें अस्त-व्यस्त थीं और माथे पर पसीना छलक आया था। सुबह हुई, तो जिगर साहब ने एडवांस में मिला रुपया फ़िल्म कंपनी को वापिस कर दिया और फिर कभी भी फ़िल्मी गीत ना लिखने कसम खाई। उन्होंने ख़ुद तो फ़िल्मों में गीत लिखने से परहेज़ किया, किन्तु दूसरी ओर उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी को फ़िल्मों में गीत लिखने के लिए ज़ोर देकर राज़ी कर लिया। लेकिन इसके बावजूद लेखक दिनेश दर्द के एक आलेख में किए गए ज़िक्र के अनुसार 1947 में आई फ़िल्म ‘रोमियो एंड जूलियट’ में जिगर का एक गीत मिलता है, जिसके बोल हैं-‘क्या बताएं इश्क़ ज़ालिम क्या क़यामत ढाए है...’, हालांकि, हो सकता है जिगर ने ये गीत फ़िल्म के लिए नहीं लिक्खा हो, फ़िल्मवालों ने ही जिगर साहब का पहले से लिक्खा हुआ गीत अपनी ज़रूरत के हिसाब से उनसे मांग लिया हो। यहाँ एक अहम बात का ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है कि ‘मदर इंडिया’ फिल्म के मशहूर निर्माता-निर्देशक महबूब खान की हर फिल्म की शुरूआत जिगर मुरादाबादी के शे’र- ‘क्या इश्क ने समझा है क्या हुस्न ने जाना है/हम ख़ाक- नशीनों की ठोकर में ज़माना है’ से ही होती है।
जिगर साहब का पहला दीवान ‘दाग़े-जिगर’ 1921 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद दूसरा दीवान ‘शोला-ए-तूर’ 1923 में अलीगढ़ की मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छपा। 1958 में कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ सामने आया। उनकी किताब ‘आतिश-ए-ग़ुल’ को 1959 में साहित्य अकादमी ने उर्दू की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उन्हें 5000 रुपये का पुरस्कार देकर सम्मानित किया। समूचे मुरादाबाद के लिए यह गर्व का विषय है कि जिगर साहब साहित्य अकादमी से पुरस्कृत होने वाले मुरादाबाद के पहले और अब तक के एकमात्र साहित्यकार हैं। बाद में फिर वह अपनी ससुराल गोंडा चले गए और वहीं बस गए। 9 सितम्बर 1960 को गोंडा में ही हुए उनके निधन से उर्दू शायरी का एक रंग ख़त्म हो गया। उनकी याद में मुरादाबाद में जिगर कॉलोनी, जिगर मंच, जिगर द्वार और जिगर पार्क शासन-प्रशासन द्वारा बनवाए गए हैं, वहीं गोंडा में जिगर गंज नाम से एक कॉलोनी एवं जिगर मैमोरियल इंटर कॉलेज के अलावा मज़ार-ए-जिगर भी है।


जिगर मुरादाबादी की कुछ ग़ज़लें-

(1)
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये

चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये

रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये

आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये

लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ ज़िगर
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये

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(2)
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई

ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई

वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई

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(3)
दिल गया रौनक-ए-हयात गई
ग़म गया सारी कायनात गई

दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई

उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई

मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई

हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई

नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई

क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात जिगर
मौत आई अगर हयात गई

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(4)
मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं

ये कह-कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं

वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं
ख़ुदा जाने क्या ख़याल आ रहे हैं

हमारे ही दिल से मज़े उनके पूछो
वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा करके हम भी तो शरमा रहे हैं

वो आलम है अब यारो-अग़ियार कैसे
हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं

मिज़ाजे-गिरामी की हो ख़ैर यारब
कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं

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(5)
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम

आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम

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(ग़ज़लें कविता कोश से साभार)

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

ए.एल.-49, दीनदयाल नगर-।,
काँठ रोड, मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर - 9412805981

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की काव्य कृति ‘भाव पंछी’ की रजनी सिंह द्वारा की गई समीक्षा

‘‘भाव पंछी जब पंख पसारे, उड़ा कल्पना लोक।
कुछ यथार्थ कुछ अभिनव, ढूंढा रहस्य भूलोक।
शब्दों की गूँथी माला, बेसुध पी रसववन्ती प्याला।
खोज-खोज अक्षर मोती, छन्द्धबद्ध नवनीत आला।
वश में कब रहता मनवा, भावुक कवि अनियंत्रित।
नभ के पार विचर पहुंची ,भाव-पंछी मुग्ध मोहित।’’
          मेरी उपरोक्त  काव्य पंक्तियाँ कवि दीपक गोस्वामी ‘चिराग’ की कृति को आद्योपांत पढ़ने के पश्चात् उमड़ पड़ी। वास्तव में कवि हृदय संवेदनाओं का उमड़ता हुआ सागर है जिसमें अपार बहुमूल्य वेशकीमती रत्नों का ढेर भरा पड़ा है। जितना उसमें डूबा उतना ही खजाना पा लिया। कवि संवेदनाओं के संसार में डूबकर अक्षरों की सुगढ़ माला का गुंठन करता है, उसमें कल्पना लोक की आकर्षक स्वप्निल दृश्यावली के साथ सार्थकता का सम्बन्ध भी अपना स्थान रखता है। साथ ही अपने भोगे, देखे और महसूस किये वातावरण से उत्पन्न आनन्द, उदासी, कलह और विवशता का चित्रण अपनी काव्य-प्रतिमा के सहारे व्यक्त करता है। यह संसार जितना सुकोमल संवेदनाओं से पूरित प्रतिभावान कवि का होगा उतनी ही विकलता उसकी काव्य मंजरी में रची-बसी होगी और पाठक उसे पढ़ने को उत्प्रेरित होगा। दीपक गोस्वामी इस उद्देश्य की पूर्ति करने में काफी हद तक सफल माने जायेंगे। यद्यपि काव्य-प्रतिभा का निखार जीवनभर ऊँचाईयाँ छूता रहता है। गोस्वामी ने अपने प्रथम काव्य-संग्रह में विभिन्न विषयों पर अपनी कलम चलाई है। वर्तमान में समाज को उद्वेलित करने वाली घटनाएँ कवि के मन को छूती हैं।

‘आह कब तक यों जलेंगे, लोग मेरे देश के,
   जुल्म ये कितना सहेंगे, लोग मेरे देश के।            (पृष्ठ 83)

तथा
     यह कैसा धर्मवाद है? यह कैसा कर्मवाद है?
            यह कैसा रे! जिहाद है?                       (पृष्ठ 133)

और -
खाता-पीता है भारत का, फिर भी पाक -पाक चिल्लाय।

दूसरी तरफ प्यार का अहसास कवि निम्न पंक्तियों में उमड़ता है।
            मेरे खत का, जबाब आया है।
            यार खत में, गुलाब आया है।         
 ,(पृष्ठ 67)

एवं -

    रूप की धूप से, पल भर में, पिघल जाओगे।
  उम्र की सीढ़ियाँ, चिकनी हैं, फिसल जाओगे।       (पृष्ठ 70)

            ‘प्रार्थना’ का भोलापन ईश्वर को सदैव प्रिय रहा है।
कवि‘चिराग’ पीछे नहीं हैं, प्रभु से दया मांगने में -

दया करना प्रभो! हम पर, कि तेरा ही सहारा है।
हैं बालक भोले-भाले हम, पिता तू सबसे न्यारा है।        (पृष्ठ 109)
         
उपरोक्त काव्य-धारा दर्शाती है कि कवि ‘गोस्वामी’ के संवेदनात्मक हृदय संसार में भावों का पंछी भटकता हुआ समाज-परिवार-राष्ट्र सबके प्रति कुछ कहने के लिए विकल है। भ्रूण-हत्या से द्रवित कवि पुकार उठता है -

            मत मार मुझे ओ माँ, मैं हूँ तेरी छाया।
            मैं भी दुनिया देखूँ, मन मेरा हर्षाया।

            सहज और सरल भाषा में रचित कविताएं क्लिष्टता से दूर पाठक के मन पर प्रभाव डालती हैं। अन्त में गोस्वामी की एक कविता प्रकृति रानी के सबसे उन्मुक्त उत्सव बसन्त की छटा इस प्रकार मन मोहती है कि कवि गा उठता है -

ओ! बसंत ऋतुराज पधारो, स्वागत आज तुम्हारा है।
मादक मोहक रूप तुम्हारा, सब ऋतुओं से न्यारा है।




* कृति : भाव पंछी (काव्य)
*रचनाकार : दीपक गोस्वामी 'चिराग'
*प्रकाशन :अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद,उ. प्र.
*प्रथम संस्करण : 2017 मूल्य : ₹ 140

*समीक्षक :  रजनी सिंह
रजनी विला, डिबाई
बुलंदशहर, उ. प्र.

रविवार, 26 जुलाई 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह ''साहित्यिक मुरादाबाद" में 19 जुलाई 2020 रविवार को आयोजित 211वें वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे में शामिल साहित्यकारों डॉ अशोक रस्तोगी, रवि प्रकाश, डॉ श्वेता पूठिया, अखिलेश कुमार वर्मा, मनोरमा शर्मा, संतोष कुमार शुक्ला, कंचनलता पांडेय, डॉ मीरा कश्यप, त्यागी अशोक कृष्णम, श्री कृष्ण शुक्ल, अनुराग रुहेला, सीमा वर्मा, दीपक गोस्वामी चिराग, विभांशु दुबे विदीप्त, राजीव प्रखर, मरगूब अमरोही, मुजाहिद चौधरी, अशोक विद्रोही, नृपेंद्र शर्मा सागर, प्रीति चौधरी, डॉ मनोज रस्तोगी, अमितोष शर्मा और डॉ प्रीति हुंकार की हस्तलिपि में रचनाएं -----
























शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता ------मुखौटे


कुछ केसरिया,कुछ सफेद,कुछ हरे हैं
कुछ देशभक्ति से लबालब भरे हैं
कुछ वफादार,कुछ बेपेंदी के लौटे हैं
बाज़ार में तरह तरह के मुखौटे हैं
मुखौटे लगाना,किसी की विवशता है
किसी की आवश्यकता है
कोई बिरला ही होता है
जो बिना मुखौटे के दिखता है
किसी को सुंदरता का मुखौटा भाता है
कोई बुद्धिजीवी होने का
मुखौटा लगाता है
बात को आगे बढ़ाते हैं
कुछ खास मुखौटे दिखाते हैं
ये ईमानदारी का मुखौटा है
सबसे ज्यादा बिकता है
सरकारी कर्मचारियों में पॉपुलर है
लेकिन ज्यादा नहीं टिकता है
भ्रष्टाचार की तेज़ आंधी में
उड़ जाता है
आदमी का असली चेहरा
समाज को दिख जाता है
एक कर्मचारी के साथ
कमाल हो गया
इधर ईमानदारी का मुखौटा लगाया
उधर मालामाल हो गया
जिंदगी खुशियों का झुनझुना हो गई
रिश्वत पहले से दस गुना हो गई
वफादारी का मुखौटा
बेरोजगारों के लिए जरूरी है
इसको लगाते ही
नौकरी की गारंटी पूरी है
अपनेपन का मुखौटा
आधुनिकता का आविष्कार है
आकर्षक और शानदार है
इसको पहनकर आदमी
अपनापन दर्शाता है
मौका मिलते ही
सांप बनकर आस्तीन में घुस जाता है
देशभक्ति के मुखौटे का
आजकल बड़ा क्रेज है
इसकी परफार्मेंस सनसनीखेज है
जो इस मुखौटे को नहीं लगाता है
तथाकथित देशभक्तों की निगाह में
देश द्रोही माना जाता है
अब आपको सबसे खास
आइटम से मिलवाते है
ऑल इन वन मुखौटा दिखाते हैं
इससे हमदर्दी,सहानुभूति,पश्चाताप
सहयोग और विश्वास टपकता है
परिस्थितियों के हिसाब से
ये खुद बा खुद रंग बदलता है
बड़े बड़े करोड़पति भी
इसकी कीमत नहीं चुका पाते हैं
इसको केवल नेता ले जाते है
उनको भी बड़ा त्याग करना पड़ता है
अपनी आत्मा को
गिरवी रखना पड़ता है।
मुखौटा लगाकर बिना मुखौटा दिखना
एक बहुत बड़ी कला है
इस मुखौटे ने सदियों से
भोले भाले लोगो को छला है।
ये हमारी दिली इच्छा है
कुछ ऐसा चमत्कार हो जाए
मुखौटा बाज़ार
हमेशा के लिए बंद हो जाए
आदमी जैसा है,वैसा ही दिखे
अगर कुछ और बनना चाहता है
उसके लिए जी जान से जुटे
अंत में
मै पूरी ईमानदारी से स्वीकारता हूं
ना मै कवि हूं
ना कविता के बारे में कुछ जानता हूं
जब मूड होता है
कवि का मुखौटा लगाता हूं
और कुछ भी लिख डालता हूं
आपसे विनम्र निवेदन है
मेरी इस तुकबंदी को
शांति से सहन कर लेना
क्षमा का मुखौटा लगाना
और मुझे क्षमा कर देना।

डॉ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M -9837189600

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली( जनपद संभल निवासी) साहित्यकार त्यागी अशोक कृष्णम की कविता---- यह साल कमाने का नहीं जान बचाने का है


निरंतर छह माह से
शवासन की मुद्रा में
खाट तोडते तोड़ते देखकर
निम्न मध्यमवर्गीय पत्नी ने
पति से कहा  झंझोडकर 
रसोई में खाली पड़े डिब्बे
अलमारी औऱ कनस्तर
गालियां दे रहे हैं तुम्हें
पेट मसोसकर
कुछ ध्यान भी है तुम्हें
किसी के सुख दुख दर्द दवाई का
बच्चों के फटे कपड़े चीनी दूध मलाई का
चौबीस घंटे पड़े रहते हो
हाथ पैरों को हिलाओ कुछ डुलाओ
नहाओ धोओ आदमी की शक्ल में आओ
खुद भी पियो खाओ
कुछ हमें भी खिलाओ पिलाओ
कुंभकर्णी निंद्रा त्यागते हुए
पति ने बड़े ही आध्यात्मिक लहजे में कहा
मानता हूं तुमने इन दिनों
बहुत कष्ट  भोगा, दुख सहा
देवी यह समय क्या लड़ने लड़ाने का है
तुमने सुना ही नहीं ध्यान से
यह साल कमाने का नहीं
जान बचाने का है
   
त्यागी अशोक कृष्णम्
कुरकावली संभल
 9719059703

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम की पहली काव्यकृति "इस कोलाहल में" का लोकार्पण । यह आयोजन हुआ था तेरह वर्ष पूर्व 31 जुलाई 2007 को । चित्र में हैं बाएं से डॉ मीना नकवी, स्मृतिशेष राजेंद्र मोहन शर्मा श्रृंग, स्मृतिशेष रामलाल अनजाना, योगेंद्र वर्मा व्योम और आनन्द कुमार गौरव ।


मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी जाकिर की रचना



🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2,फतेहाबाद रोड
आगरा-282 001
मोबाइल फोन नंबर. 9760613902,
847 695 4471.
Mail-  atzakir@gmail.com

मुरादाबाद की साहित्यकार मोनिका शर्मा मासूम की गजल


गुरुवार, 23 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ रामानन्द शर्मा से मनोज त्यागी की बातचीत .... यह साक्षात्कार लगभग चार साल पहले सितंबर 2016 में दैनिक जागरण के नोएडा संस्करण में प्रकाशित हुआ था ।


मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी के 81 वें जन्मदिन 22 जुलाई 2020 बुधवार को ऑनलाइन पावस गोष्ठी का आयोजन किया गया। साहित्यिक संस्थाओं "अक्षरा" और "हस्ताक्षर" के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस गोष्ठी में शामिल 23 साहित्यकारों माहेश्वर तिवारी, शचींद्र भटनागर , डॉ अजय अनुपम, डॉ मीना कौल, विशाखा तिवारी, डॉ मक्खन मुरादाबादी, डॉ प्रेमवती उपाध्याय , योगेंद्र वर्मा व्योम , डॉ मीना कौल, डॉ पूनम बंसल, सरिता लाल, डॉ रीता सिंह , डॉ मनोज रस्तोगी, जिया जमीर, ओंकार सिंह विवेक, श्री कृष्ण शुक्ला, मनोज वर्मा मनु, डॉ अर्चना गुप्ता, हेमा तिवारी भट्ट , मोनिका शर्मा मासूम, डॉ ममता सिंह , निवेदिता सक्सेना और राजीव प्रखर की रचनाएं ------


बादल मेरे साथ चले हैं परछांई जैसे
सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे

खुली हथेली पर बूंदें भी सागर लगती हैं
सतहों पर आकर ठहरी हो गहराई जैसे

वैसे पत्ता पत्ता चुप्पी पहने बैठा है
हिलता तो लगता है भीतर पुरवाई जैसे

राजा -रानी कथा कहानी में दुबके बैठे
शब्दों के घर आते भी तो पहुनाई जैसे ।

माहेश्वर तिवारी
मुरादाबाद
---------------------------

देख रोग के संक्रमण की बढ़ती रफ़्तार
रही न पहले सी सुखद पावस ऋतु इस बार

पौध रोपकर धान की घर आ गया किसान
किंतु न है कल का उसे कोई भी अनुमान

पता न कल हो कौन सा महारोग का रंग
आशंकित मन में न है कोई शेष उमंग

मन में है इतना अधिक संशय, भय अवसाद
मेघ देखकर भी नही मिल पाता आह्लाद

पींगों की प्रतियोगिता से न सजेगी डाल
अमराई में भी नहीं गूंजेंगे सुर-  ताल

किंतु अनिश्चय और भय, आशंका है व्यर्थ
अनुशासन से आदमी बनता बहुत समर्थ

नियमों का जब भी किया है हमने अपमान
किया विधाता ने तभी ऐसा दंड विधान

अनुशासन में सब रहें,  होगा सुखद भविष्य
मौसम के अनुसार ही फिर होंगे परिदृश्य
 
शचीन्द्र भटनागर
मुरादाबाद
-----------------------------

टोकरी में घर उठाये
चली बनजारिन।
दिन अंधेरे , बिजलियों से
रात लगती दिन ।

बारिशों की बात झरनों से नहीं होतीं
सूखती मिट्टी,लता के पात हैं पीले
बाढ़ में आईं लहर की
चिट्ठियों जैसे
खेत,घर , में रुक गये हैं
रेत के टीले
पूछते हैं,किस तरह बीते
पुराने दिन।।१।।

भीग कर बरसात में
सन्ध्या किशोरी भी,लाज से भर,
पांव से सर तक
हुई है लाल
बादलों की छांव यों छत पर टिकी आकर
धूप ने फैला दिये जैसे
सुखाने बाल
कीच में मां रख रही है, पांव को गिन गिन।।२।।

डॉ अजय अनुपम
 मुरादाबाद
---------------------------

बरखा रुत तन में अंगार भरने लगी...
सावनी दिन जलाने लगे
पुष्प उपवन में खिल खिल के मन में मेरे...
शूल बिरहा के बोने लगे

अंक से फ़ूल के भौरे सिमटे हुये।
फ़ूल डाली की बाँहो से लिपटे हुये।
मद भरी धूप की नर्म बौछार से...
अपना तन मन भिगोने लगे।।
सावनी दिन जलाने लगे।।

अब पिया है ,न कुछ उसका सन्देस है।
और मौसम बदलने लगा भेस है।
जागते जागते , स्वप्न सब प्रेम के....
थक के आँखो में सोने लगे।
सावनी दिन जलाने लगे।।
           
डॉ.मीना नक़वी
-----------------------------

मेघ-पल
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सावनी बौछारों के साथ
जब मैं मिली
पहली बार
भींग गई भीतर तक
लगा
नीम की हरी डाल
फूलों से भर गई है
महसूस की मैंने
संबंधों की अंतरंगता
जैसे
बैसाख-जेठ में
तपी धरती
महसूस करती है
पहली बौछारों के साथ
मेघों से
अपने रिश्तो की
चिरन्तरता
मन में उगा
एक गहरी तृप्ति का बोध
फिर खिले
सौंधी गंधों वाले
हज़ार-हज़ार फूल।

- विशाखा तिवारी
मुरादाबाद
---------------------------

जल्दी में थे बादल ज्यादा
आए थे, पर चले गए।

विगत साल तो भरे पड़े थे
चारों ओर बड़े पानी।
अब आए थे तो भर जाते
घर , दो - चार घड़े पानी।।
अबकी तो अनजाने में ही
बिना बात के छले गए।

ढोते - ढोते पानी शायद
थक कर चूर हुए काफी।
 बाढ़ पीड़ितों से या वे फिर
गए मांगने हों माफी।।
अनदेखी से इनकी ही तो
सपने जिनके दले गए।

मुई हवा ने था ललचाया
इनको बहला - फुसलाकर।
उसके पीछे भाग लिए ये
मरुथल के घर दहलाकर।।
छोड़ सिसकता,मार मार फिर
सब सूखे में डले गए।

    डॉ.मक्खन मुरादाबादी
    झ - 28 , नवीन नगर
    कांठ रोड , मुरादाबाद
मोबाइल: 9319086769
-------------------------------

मन मोर मचावे शोर,
घिरी है श्याम घटा घनघोर
कि सावन आओ री,
मेरे मन भायो री.... ।

शीतल झोकों भरी फुहारें
 गावें सखियाँ गीत मल्हारें,
हो गई चंदनी भोर,
जिया में उठती एक हिलोर
कि सावन आयो री,
मेरे मन भायो री... ।

लता-विटप हरियावन लागे
तृषित धरा के अधर परागे,
नाचते उपवन मोर विभोर,
पवन भी करता अतिशय शोर,
कि सावन आयो री,
मेरे मन भायो री.....।

घुमड़-घुमड़ बरसत हैं बदरा,
दमके दामिनी लरजत जियरा
बदरवा बरसत है पुरजोर,
मिलें हैं गगन धरा के छोर
कि सावन आयो री
मेघ इठलायो री..मेरे मन भायो री...

डॉ. प्रेमवती उपाध्याय
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
-----------------------------

मेघों को धमका रहा, सूरज तानाशाह ।
काग़ज़ वाली नाव की, किसे कहाँ परवाह ।।

पावस पर हावी हुआ, सूरज का बर्ताव ।
प्यासी धरती ला रही, अविश्वास प्रस्ताव ।।

रोज़ाना ही हर सुबह, तलब उठे सौ बार ।
पढ़ा कई दिन से नहीं, मेघों का अख़बार ।।

कहीं धरा सूखी रहे, कहीं पड़े बौछार ।
राजनीति करने लगा, बूंदों का व्यवहार ।।

पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।

तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप ।
धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप ।।

रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।

भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।

बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।

पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।

- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
--------------–------------------

सावन  की मत बात करो, इस कोरोना काल में
सावन भी सूखा जाएगा, इस कोरोना काल में।

सूने हैं  सुख के आँगन ,दुख की चादर है मैली
जीवन ह॔स है तड़प रहा  ,फँसा हुआ है जाल में।1

घेवर फैनी मेंहदी चूड़ी , कैसे झूले गीत मल्हार
देवालय भी हैं बंद पड़े , इस अभागे साल में।2

धरती का आँचल रीता ,अम्बर का दामन खाली
नहीं दिखती वो सौगातें ,जो सज जाएं  थाल में।3

सखी सहेली रिश्ते नाते ,सिमट गए दरवाज़ों तक
आस लगी बस कदमों की ,जाने हैं किस हाल में। 4

गरजते बादल बरसती बूंदे ,सावन का संगीत हैं
मन के मीना गीत हैं बिखरे, न सुर में न ताल में।5

जीवन की उम्मीद है टिकी,जग के पालनहार पे
समेट ले ये उलझन सारी,गति भर दे चाल में।6

डाॅ  मीना कौल
मुरादाबाद
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कभी गरजते कभी बरसते  रँग दिखाते हैं बादल
संग पवन के उड़ जाते हैं खूब छकाते हैं बादल

दूर गगन से करें इशारे, पर्वत पर आराम करें
लुका छिपी का खेल खेलकर सावन को बदनाम करें
विरह डगर में अगन हृदय कि और बढ़ाते हैं बादल

नैनों से जब जब बरसे हैं देख भिगोते यादों को
चमका कर ये चपल दामिनी याद दिलाते वादों को
रिमझिम बूंदों कि सरगम पर गीत सुनाते हैं बादल

कहीं कृषक कि आस बने तो कहीं मिलन विश्वास बने
चातक कि भी प्यास बुझाते कभी सकल आकाश बने
सदियों से इस तृषित धरा का द्वार सजाते हैं बादल

संग पवन के उड़ जाते हैं खूब छकाते हैं बादल
       
 डॉ पूनम बंसल
 मुरादाबाद
------------------------------

बिन्दिया‌ लगाओ सखि मेंहदी रचाओ
शंकर ने गौरा संग‌ ब्याह‌ रचाया...
पिया की बांसुरिया ने मन भरमाया
पावस ऋतु ने कैसे सबको लुभाया....

क्यों ये पपीहे तूने‌ पिउ पिउ गाया
निंदिया न आयी मुझे रात‌भर जगाया
रिमझिम‌ फुहार पड़ी‌ मन गुदगुदाया
इन्द्रधनुष देख सखि,फुहारों में भीग सखि
पावस ऋतु ने कैसे.....

क्या करूं बहिना‌ मेरी मां ने बुलाया
आओ जीजी संग झूलें भाभी का‌ खत आया
मुझे न बुलाओ मैय्या ,मुझे‌ न बुलाओ भाभी
पिया संग रहने को‌मन अकुलाया
पावस ऋतु ने कैसे सबको‌ लुभाया.....
 शंकर ने गौरा संग ब्याह‌ रचाया

- सरिता लाल
मुरादाबाद
----------------------------

मतवाले से बादल आये , लेकर शीतल नीर
धरती माँ की प्यास बुझायी , हर ली सारी पीर ।
पाती सर सर गीत सुनाती , बूँदे देतीं ताल
तरुवर झूम - झूम सब नाचें , हुए मस्त हैं हाल ।

नदियाँ कल - कल सुर में बहतीं , सींच रही हैं खेत
सड़कें धुलकर हुईं नवेली , बची न सूखी रेत ।
तपते घर भी सुखी हो गये , आया है अब चैन
गरमी से बड़ी राहत मिली , तपते थे दिन - रैन ।

डॉ. रीता सिंह
चन्दौसी (सम्भल)
--------------------------

कंक्रीट के जंगल में
 गुम हो गई हरियाली है
 आसमान में भी अब
 नहीं छाती बदरी काली है
पवन भी नहीं करती शोर
वन में नहीं नाचता है मोर
 नहीं गूंजते हैं घरों में
अब सावन के गीत
खत्म हो गई है अब
 झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत 
     नहीं होता अब हास परिहास
दिखता नहीं कहीं
सावन का उल्लास
सजनी भी भूल गई
करना सोलह श्रृंगार
औपचारिकता बनकर
 रह गए सारे त्यौहार
आइये थोड़ा सोचिए
और थोड़ा विचारिये
हम क्या थे और
अब क्या हो गए हैं
जिंदगी की भाग दौड़ में
इतना व्यस्त हो गए हैं
गीत -मल्हारों के राग भूल
 डीजे के शोर में मस्त हो गए हैं
यह एक कड़वा सच है
 परंपराओं से दूर हम
 होते जा रहे हैं
आधुनिकता की भीड़ में
 बस खोते जा रहे हैं

डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822
-------------------------

भारी   बारिश  बरसाने  का  मन  है
बादल  जैसा  हो  जाने  का  मन  है

सूखी  धरती   राह   तका  करती  है
चटख़  गयी  मायूस   रहा  करती  है
कई दिनों तक इसका आलिंगन कर
इसके  तन  को  सहलाने  का मन है
बादल  जैसा  हो   जाने  का  मन  है

केवल   पगडंडी   जैसी   बहती  हैं
अपना दुख भी ये किससे कहती हैं
इन नदियों से क़र्ज़ लिया था जो भी
इनको  जल्दी   लौटाने  का  मन  है
बादल  जैसा  हो  जाने  का  मन  है

अपने-अपने  घर  इक  दिन जाएंगी
थोड़ा  सुख  थोड़ा  सा दुख  पाएंगी
गीत  सुनाती  लापरवा  सखियों को
दिन  भर झूला  झुलवाने  का मन है
बादल  जैसा  हो  जाने  का  मन  है

आग   लगाती   तन्हाई   जारी    है
ऐसे  में   ख़ुश   रहना  फनकारी  है
यौवन  में  तपते  तन्हा  जिस्मों  को
भिगो भिगो कर तड़पाने का मन है
बादल  जैसा  हो  जाने  का मन  है

ज़िया ज़मीर
मुरादाबाद
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पुरवाई   के  साथ  में ,  आई   जब  बरसात।
फसलें  मुस्कानें  लगीं , हँसे  पेड़  के  पात।।

मेंढक   टर- टर  बोलते , भरे   तलैया- कूप।
सबके मन को भा रहा,पावस का यह रूप।।

खेतों  में  जल  देखकर , छोटे-बड़े  किसान।
चर्चा  यह  करने  लगे , चलो  लगाएँ  धान।।

फिर इतराएँ क्यों नहीं , पोखर-नदिया-ताल।
जब सावन ने कर दिया,इनको माला माल।।

अच्छे   लगते   हैं  तभी , गीत  और  संगीत।
जब सावन में साथ हों , अपने मन के मीत।।

जब  से  है  आकाश  में,घिरी घटा  घनघोर।
निर्धन  देखे  एकटक , टूटी छत  की  ओर।।

कभी कभी वर्षा धरे , रूप बहुत  विकराल।
कोप दिखाकर बाढ़ का ,जीना करे मुहाल।।

ओंकार सिंह विवेक
  रामपुर
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वर्षा के इंतजार में:

काले काले बदरा कब से, आसमान पर छाते हो।
उमड़ घुमड़ कर आते हो लेकिन केवल तरसाते हो।
उमस भरी गर्मी में तन मन, पस्त हुआ सा जाता है।
एक बार तो खुलकर बरसो, क्यों इतना  तरसाते हो।।

वर्षा होने पर:

रिमझिम लेकर आ गया, पावन सावन मास।
शुष्क दिलों में भी जगा, पुनः नया उल्लास।
जल से सब भरपूर हैं, नदियाँ पोखर ताल।
प्रियतम बिन कैसे बुझे, अंतर्मन की प्यास।

वर्षा के बाद के हालात पर:

घुसा हैं घरों में भी अब तो ये बरसात का पानी।
छतों से टपकता है अपने ही हालात का पानी।
कुँए सबके अलग थे गाँव में दलितों सवर्णों के।
पता कैसे लगाएं अब है ये किस जात का पानी।

श्रीकृष्ण शुक्ल
 मुरादाबाद
--------------------------

रिमझिम बरखा आई,
झूम  रे  मन  मतवाले ,

काले काले    बदरा
घिर-घिर के आते हैं,
अंजुरी में भर-भर के
बूंद -  बूंद   लाते   है,
            बूंद -बूंद  भर  देती
            खाली मन के प्याले,
            रिमझिम बरखा....

क स्तू री   गंध    बूंद
जिसका मृग मन प्यासा,
एक  बूंद  छूने   को
व्याकुल ये तन प्यासा,
                  बूंद बूंद तृप्ति को
                 प्यासे यह जग वाले
                  रिमझिम बरखा...

तड़की है  मेघ  बीच
एक रेख बिजली की,
अंगड़ाई   लेती  ज्यों
मदमाती  पगली  सी ,
                विह्वल रति मति तेरे
                बस  में  हैं  तड़पाले,,
                रिमझिम बरखा...

धान मान खो देता
पुनः लह लहाने को,
पौध कुल -मुलाती है
धरती पर  छाने  को,
               हरिया हौंसे मन में
               खेत देख हरियाले,,
              रिमझिम बरखा ...

प्यास बुझी धरती की
हरियाला पन  बिखरा,
पत्तों  का...   बूटों का
एक नया रंग  निखरा,
             झम झम इस बारिश ने
             पोखर  सब  भर  डाले,,
             रिम झिम  बरखा आई
             झूम  रे  मन.. मतवाले,,

 मनोज वर्मा मनु
639709 3523
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रहा न वो लाखों का सावन
नहीं सुकोमल पहले सा मन
बदल गईं हैं रीत पुरानी
सूना है बाबुल का आँगन

वो पेड़ों पर झूले पड़ना
कजरी गाना पेंगे भरना
सखियों के सँग हँसी ठिठोली
सब कुछ था कितना  मनभावन
रहा न वो लाखों का सावन

भैया सँग मैके आते थे
बाबुल कितना दुलराते थे
मम्मी के आंचल में छिपकर
जी लेते थे फिर से बचपन
रहा न वो लाखों का सावन

होती थी साजन से दूरी
भाती थी पर वो मजबूरी
आती थी जब उनकी पाती
भीग प्रेम से जाता था मन
रहा न वो लाखों का सावन

आज जमाना बदल गया है
शुरू हुआ अब चलन नया है
हक बहनों ने तो है पाया
मगर खो गया वो अपनापन
रहा न वो लाखों का सावन

डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
----------------------------

पावस आया झूमकर,सड़क बनी है ताल।
छटपटाता मीन पथिक,फँसा ताल के जाल।1।

दूर तलक ईँटे दिखीं,ओढ़ सलेटी खाल।
सावन के अंधे हुए,फिर भी कस्बे लाल।2।

"पावस डिश है कौन सी,बतलाओ ना मॉम।"
"या पबजी सा गेम ये,"पूछे शहरी टॉम।3।

आफ़त ये बरखा हुई,जित देखें तित नीर।
झोपड़ियों की आँख से,उस पर बरसी पीर।4।

कहाँ कागजी कश्तियाँ,कहाँ राग मल्हार।
मोबाइल के आसरे,सावन का त्योहार।5।

हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद
-----------------------------

जब नाम लिखा तुमने अपना अहसास के सूखे पत्तों पर
सावन ने अमृत बरसाया मधुमास के सूखे पत्तों पर

तेरे आने की आहट से कोमल किसलय जयघोष हुआ
नव आस खिली, टूटे निर्जन विश्वास के सूखे पत्तों पर

तेरी श्वासों से श्वासित हो हर श्वास सुगंधित है ऐसे
मकरंद मिलाया हो जैसे मम प्यास के सूखे पत्तों पर

आलिंगन में पाकर तेरा मन का अंगनारा झूम रहा
यों रास रचाया है तुमने बनवास के सूखे पत्तों पर

अब साथ तेरे इस जीवन का दुख भी उत्सव हो जाता है
"मासूम"सुखद आभास मिले संत्रास के सूखे पत्तों पर

मोनिका "मासूम"
मुरादाबाद
--------------------------

मोरे जियरा में आग लगाय गयी रे, सावन की बदरिया।
मोहिं सजना की याद दिलाय गयी रे, सावन की बदरिया।।

जब जब मौसम ले अंगडाई और चले बैरिनि पुरवाई।
मोरी धानी चुनरिया उड़ाय गयी रे सावन की बदरिया।।
मोहिं सजना -------

दादुर मोर पपीहा बोले, पिय की याद जिया में घोलै।
मोरे जियरा में हूक उठाय गयी रे, सावन की बदरिया।।
मोहिं सजना ---------

साज सिंगार मोहिं नहिं भावै, फिरि फिरि कारी घटा डरावै।
मोरी निंदिया पै बिजुरी गिराय गयी रे, सावन की बदरिया।।
मोहिं सजना -------

डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
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घिरेबादल विवशता के,
 अंधेरों की अधिकता के ,
बरसते मेघ हैं फिर भी
तरसते नैन है फिर भी
न जाने क्यों ये पहले जैसा
 मनभावन नहीं लगता
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता

ना जत्थे हैं कांवरियों के
 न ही सड़कों पर भंडारे
न घंटो की ध्वनि गूंजे
 न बम भोले के जय कारे
 शिवालय शांत है एकदम
न ही हर हर न ही बम बम
हे कैलाशी हे सर्वेश्वर
 तेरे  पावस के उत्सव में
 भला क्रंदन नहीं लगता
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता ।।

नहीं है संग सखियों का
नहीं डालो पे हैं झूले
उमंगे  अनमनी बैठी
 चढ़ा कर पींग  नभ छूले
 है धीमी कुहूंक कोयल की
 कहानी चुप है हलचल की
 सभी इच्छाओं के द्वारे
 पडी  हैं  बंद  सांकल  सी
 घरों में कैद इस  जीवन में
अब जीवन नहीं लगता
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता

जिया में एक उलझन सी
 पिया की याद बचपन सी
न  पावों  की  कोई आहट
तलब आंखों को साजन की
चले आओ  सुकुं  मन के
  मेरी आंखों के उजियारे
मेरे  श्रृंगार की पुलकन
 मेरे जीवन के ध्रुव तारे
तुम्हारे बिन कहीं दुनिया में
अपनापन नहीं लगता
कहीं  जीवन नहीं लगता
कहीं भी मन नहीं लगता।
   कहीं कुछ तो है सावन
 इस दफा सावन नहीं लगता

निवेदिता सक्सेना
मुरादाबाद
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रूठ न जाना जान कर, ओ मेरे मनमीत।
आज गगन पर भी लिखा, मैंने अपना गीत।।

प्यासे को संजीवनी, घट का शीतल नीर।
दम्भी सागर देख ले, तू कितना बलवीर।।

झूले पर अठखेलियाँ, होठों पर मृदु गान।
इन दोनों के मेल से, है सावन में जान।।

दुबका बैठा इन दिनों, दहशत से उल्लास।
कैसे झूला डाल दूँ, अबके सावन मास।।

प्यासी धरती रह गयी, लेकर अपनी पीर।
मेघा करके चल दिए, फिर झूठी तक़रीर।।

प्यारी कजरी-भोजली, मधुरस गीत-बहार।
करना कभी न भूलना, सावन का श्रृंगार।।

राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद