बादल मेरे साथ चले हैं परछांई जैसे
सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे
खुली हथेली पर बूंदें भी सागर लगती हैं
सतहों पर आकर ठहरी हो गहराई जैसे
वैसे पत्ता पत्ता चुप्पी पहने बैठा है
हिलता तो लगता है भीतर पुरवाई जैसे
राजा -रानी कथा कहानी में दुबके बैठे
शब्दों के घर आते भी तो पहुनाई जैसे ।
माहेश्वर तिवारी
मुरादाबाद
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देख रोग के संक्रमण की बढ़ती रफ़्तार
रही न पहले सी सुखद पावस ऋतु इस बार
पौध रोपकर धान की घर आ गया किसान
किंतु न है कल का उसे कोई भी अनुमान
पता न कल हो कौन सा महारोग का रंग
आशंकित मन में न है कोई शेष उमंग
मन में है इतना अधिक संशय, भय अवसाद
मेघ देखकर भी नही मिल पाता आह्लाद
पींगों की प्रतियोगिता से न सजेगी डाल
अमराई में भी नहीं गूंजेंगे सुर- ताल
किंतु अनिश्चय और भय, आशंका है व्यर्थ
अनुशासन से आदमी बनता बहुत समर्थ
नियमों का जब भी किया है हमने अपमान
किया विधाता ने तभी ऐसा दंड विधान
अनुशासन में सब रहें, होगा सुखद भविष्य
मौसम के अनुसार ही फिर होंगे परिदृश्य
शचीन्द्र भटनागर
मुरादाबाद
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टोकरी में घर उठाये
चली बनजारिन।
दिन अंधेरे , बिजलियों से
रात लगती दिन ।
बारिशों की बात झरनों से नहीं होतीं
सूखती मिट्टी,लता के पात हैं पीले
बाढ़ में आईं लहर की
चिट्ठियों जैसे
खेत,घर , में रुक गये हैं
रेत के टीले
पूछते हैं,किस तरह बीते
पुराने दिन।।१।।
भीग कर बरसात में
सन्ध्या किशोरी भी,लाज से भर,
पांव से सर तक
हुई है लाल
बादलों की छांव यों छत पर टिकी आकर
धूप ने फैला दिये जैसे
सुखाने बाल
कीच में मां रख रही है, पांव को गिन गिन।।२।।
डॉ अजय अनुपम
मुरादाबाद
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बरखा रुत तन में अंगार भरने लगी...
सावनी दिन जलाने लगे
पुष्प उपवन में खिल खिल के मन में मेरे...
शूल बिरहा के बोने लगे
अंक से फ़ूल के भौरे सिमटे हुये।
फ़ूल डाली की बाँहो से लिपटे हुये।
मद भरी धूप की नर्म बौछार से...
अपना तन मन भिगोने लगे।।
सावनी दिन जलाने लगे।।
अब पिया है ,न कुछ उसका सन्देस है।
और मौसम बदलने लगा भेस है।
जागते जागते , स्वप्न सब प्रेम के....
थक के आँखो में सोने लगे।
सावनी दिन जलाने लगे।।
डॉ.मीना नक़वी
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मेघ-पल
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सावनी बौछारों के साथ
जब मैं मिली
पहली बार
भींग गई भीतर तक
लगा
नीम की हरी डाल
फूलों से भर गई है
महसूस की मैंने
संबंधों की अंतरंगता
जैसे
बैसाख-जेठ में
तपी धरती
महसूस करती है
पहली बौछारों के साथ
मेघों से
अपने रिश्तो की
चिरन्तरता
मन में उगा
एक गहरी तृप्ति का बोध
फिर खिले
सौंधी गंधों वाले
हज़ार-हज़ार फूल।
- विशाखा तिवारी
मुरादाबाद
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जल्दी में थे बादल ज्यादा
आए थे, पर चले गए।
विगत साल तो भरे पड़े थे
चारों ओर बड़े पानी।
अब आए थे तो भर जाते
घर , दो - चार घड़े पानी।।
अबकी तो अनजाने में ही
बिना बात के छले गए।
ढोते - ढोते पानी शायद
थक कर चूर हुए काफी।
बाढ़ पीड़ितों से या वे फिर
गए मांगने हों माफी।।
अनदेखी से इनकी ही तो
सपने जिनके दले गए।
मुई हवा ने था ललचाया
इनको बहला - फुसलाकर।
उसके पीछे भाग लिए ये
मरुथल के घर दहलाकर।।
छोड़ सिसकता,मार मार फिर
सब सूखे में डले गए।
डॉ.मक्खन मुरादाबादी
झ - 28 , नवीन नगर
कांठ रोड , मुरादाबाद
मोबाइल: 9319086769
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मन मोर मचावे शोर,
घिरी है श्याम घटा घनघोर
कि सावन आओ री,
मेरे मन भायो री.... ।
शीतल झोकों भरी फुहारें
गावें सखियाँ गीत मल्हारें,
हो गई चंदनी भोर,
जिया में उठती एक हिलोर
कि सावन आयो री,
मेरे मन भायो री... ।
लता-विटप हरियावन लागे
तृषित धरा के अधर परागे,
नाचते उपवन मोर विभोर,
पवन भी करता अतिशय शोर,
कि सावन आयो री,
मेरे मन भायो री.....।
घुमड़-घुमड़ बरसत हैं बदरा,
दमके दामिनी लरजत जियरा
बदरवा बरसत है पुरजोर,
मिलें हैं गगन धरा के छोर
कि सावन आयो री
मेघ इठलायो री..मेरे मन भायो री...
डॉ. प्रेमवती उपाध्याय
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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मेघों को धमका रहा, सूरज तानाशाह ।
काग़ज़ वाली नाव की, किसे कहाँ परवाह ।।
पावस पर हावी हुआ, सूरज का बर्ताव ।
प्यासी धरती ला रही, अविश्वास प्रस्ताव ।।
रोज़ाना ही हर सुबह, तलब उठे सौ बार ।
पढ़ा कई दिन से नहीं, मेघों का अख़बार ।।
कहीं धरा सूखी रहे, कहीं पड़े बौछार ।
राजनीति करने लगा, बूंदों का व्यवहार ।।
पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।
तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप ।
धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप ।।
रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।
पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।
भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।
बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।
पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।
- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
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सावन की मत बात करो, इस कोरोना काल में
सावन भी सूखा जाएगा, इस कोरोना काल में।
सूने हैं सुख के आँगन ,दुख की चादर है मैली
जीवन ह॔स है तड़प रहा ,फँसा हुआ है जाल में।1
घेवर फैनी मेंहदी चूड़ी , कैसे झूले गीत मल्हार
देवालय भी हैं बंद पड़े , इस अभागे साल में।2
धरती का आँचल रीता ,अम्बर का दामन खाली
नहीं दिखती वो सौगातें ,जो सज जाएं थाल में।3
सखी सहेली रिश्ते नाते ,सिमट गए दरवाज़ों तक
आस लगी बस कदमों की ,जाने हैं किस हाल में। 4
गरजते बादल बरसती बूंदे ,सावन का संगीत हैं
मन के मीना गीत हैं बिखरे, न सुर में न ताल में।5
जीवन की उम्मीद है टिकी,जग के पालनहार पे
समेट ले ये उलझन सारी,गति भर दे चाल में।6
डाॅ मीना कौल
मुरादाबाद
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कभी गरजते कभी बरसते रँग दिखाते हैं बादल
संग पवन के उड़ जाते हैं खूब छकाते हैं बादल
दूर गगन से करें इशारे, पर्वत पर आराम करें
लुका छिपी का खेल खेलकर सावन को बदनाम करें
विरह डगर में अगन हृदय कि और बढ़ाते हैं बादल
नैनों से जब जब बरसे हैं देख भिगोते यादों को
चमका कर ये चपल दामिनी याद दिलाते वादों को
रिमझिम बूंदों कि सरगम पर गीत सुनाते हैं बादल
कहीं कृषक कि आस बने तो कहीं मिलन विश्वास बने
चातक कि भी प्यास बुझाते कभी सकल आकाश बने
सदियों से इस तृषित धरा का द्वार सजाते हैं बादल
संग पवन के उड़ जाते हैं खूब छकाते हैं बादल
डॉ पूनम बंसल
मुरादाबाद
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बिन्दिया लगाओ सखि मेंहदी रचाओ
शंकर ने गौरा संग ब्याह रचाया...
पिया की बांसुरिया ने मन भरमाया
पावस ऋतु ने कैसे सबको लुभाया....
क्यों ये पपीहे तूने पिउ पिउ गाया
निंदिया न आयी मुझे रातभर जगाया
रिमझिम फुहार पड़ी मन गुदगुदाया
इन्द्रधनुष देख सखि,फुहारों में भीग सखि
पावस ऋतु ने कैसे.....
क्या करूं बहिना मेरी मां ने बुलाया
आओ जीजी संग झूलें भाभी का खत आया
मुझे न बुलाओ मैय्या ,मुझे न बुलाओ भाभी
पिया संग रहने कोमन अकुलाया
पावस ऋतु ने कैसे सबको लुभाया.....
शंकर ने गौरा संग ब्याह रचाया
- सरिता लाल
मुरादाबाद
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मतवाले से बादल आये , लेकर शीतल नीर
धरती माँ की प्यास बुझायी , हर ली सारी पीर ।
पाती सर सर गीत सुनाती , बूँदे देतीं ताल
तरुवर झूम - झूम सब नाचें , हुए मस्त हैं हाल ।
नदियाँ कल - कल सुर में बहतीं , सींच रही हैं खेत
सड़कें धुलकर हुईं नवेली , बची न सूखी रेत ।
तपते घर भी सुखी हो गये , आया है अब चैन
गरमी से बड़ी राहत मिली , तपते थे दिन - रैन ।
डॉ. रीता सिंह
चन्दौसी (सम्भल)
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कंक्रीट के जंगल में
गुम हो गई हरियाली है
आसमान में भी अब
नहीं छाती बदरी काली है
पवन भी नहीं करती शोर
वन में नहीं नाचता है मोर
नहीं गूंजते हैं घरों में
अब सावन के गीत
खत्म हो गई है अब
झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत
नहीं होता अब हास परिहास
दिखता नहीं कहीं
सावन का उल्लास
सजनी भी भूल गई
करना सोलह श्रृंगार
औपचारिकता बनकर
रह गए सारे त्यौहार
आइये थोड़ा सोचिए
और थोड़ा विचारिये
हम क्या थे और
अब क्या हो गए हैं
जिंदगी की भाग दौड़ में
इतना व्यस्त हो गए हैं
गीत -मल्हारों के राग भूल
डीजे के शोर में मस्त हो गए हैं
यह एक कड़वा सच है
परंपराओं से दूर हम
होते जा रहे हैं
आधुनिकता की भीड़ में
बस खोते जा रहे हैं
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822
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भारी बारिश बरसाने का मन है
बादल जैसा हो जाने का मन है
सूखी धरती राह तका करती है
चटख़ गयी मायूस रहा करती है
कई दिनों तक इसका आलिंगन कर
इसके तन को सहलाने का मन है
बादल जैसा हो जाने का मन है
केवल पगडंडी जैसी बहती हैं
अपना दुख भी ये किससे कहती हैं
इन नदियों से क़र्ज़ लिया था जो भी
इनको जल्दी लौटाने का मन है
बादल जैसा हो जाने का मन है
अपने-अपने घर इक दिन जाएंगी
थोड़ा सुख थोड़ा सा दुख पाएंगी
गीत सुनाती लापरवा सखियों को
दिन भर झूला झुलवाने का मन है
बादल जैसा हो जाने का मन है
आग लगाती तन्हाई जारी है
ऐसे में ख़ुश रहना फनकारी है
यौवन में तपते तन्हा जिस्मों को
भिगो भिगो कर तड़पाने का मन है
बादल जैसा हो जाने का मन है
ज़िया ज़मीर
मुरादाबाद
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पुरवाई के साथ में , आई जब बरसात।
फसलें मुस्कानें लगीं , हँसे पेड़ के पात।।
मेंढक टर- टर बोलते , भरे तलैया- कूप।
सबके मन को भा रहा,पावस का यह रूप।।
खेतों में जल देखकर , छोटे-बड़े किसान।
चर्चा यह करने लगे , चलो लगाएँ धान।।
फिर इतराएँ क्यों नहीं , पोखर-नदिया-ताल।
जब सावन ने कर दिया,इनको माला माल।।
अच्छे लगते हैं तभी , गीत और संगीत।
जब सावन में साथ हों , अपने मन के मीत।।
जब से है आकाश में,घिरी घटा घनघोर।
निर्धन देखे एकटक , टूटी छत की ओर।।
कभी कभी वर्षा धरे , रूप बहुत विकराल।
कोप दिखाकर बाढ़ का ,जीना करे मुहाल।।
ओंकार सिंह विवेक
रामपुर
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वर्षा के इंतजार में:
काले काले बदरा कब से, आसमान पर छाते हो।
उमड़ घुमड़ कर आते हो लेकिन केवल तरसाते हो।
उमस भरी गर्मी में तन मन, पस्त हुआ सा जाता है।
एक बार तो खुलकर बरसो, क्यों इतना तरसाते हो।।
वर्षा होने पर:
रिमझिम लेकर आ गया, पावन सावन मास।
शुष्क दिलों में भी जगा, पुनः नया उल्लास।
जल से सब भरपूर हैं, नदियाँ पोखर ताल।
प्रियतम बिन कैसे बुझे, अंतर्मन की प्यास।
वर्षा के बाद के हालात पर:
घुसा हैं घरों में भी अब तो ये बरसात का पानी।
छतों से टपकता है अपने ही हालात का पानी।
कुँए सबके अलग थे गाँव में दलितों सवर्णों के।
पता कैसे लगाएं अब है ये किस जात का पानी।
श्रीकृष्ण शुक्ल
मुरादाबाद
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झूम रे मन मतवाले ,
काले काले बदरा
घिर-घिर के आते हैं,
अंजुरी में भर-भर के
बूंद - बूंद लाते है,
बूंद -बूंद भर देती
खाली मन के प्याले,
रिमझिम बरखा....
क स्तू री गंध बूंद
जिसका मृग मन प्यासा,
एक बूंद छूने को
व्याकुल ये तन प्यासा,
बूंद बूंद तृप्ति को
प्यासे यह जग वाले
रिमझिम बरखा...
तड़की है मेघ बीच
एक रेख बिजली की,
अंगड़ाई लेती ज्यों
मदमाती पगली सी ,
विह्वल रति मति तेरे
बस में हैं तड़पाले,,
रिमझिम बरखा...
धान मान खो देता
पुनः लह लहाने को,
पौध कुल -मुलाती है
धरती पर छाने को,
हरिया हौंसे मन में
खेत देख हरियाले,,
रिमझिम बरखा ...
प्यास बुझी धरती की
हरियाला पन बिखरा,
पत्तों का... बूटों का
एक नया रंग निखरा,
झम झम इस बारिश ने
पोखर सब भर डाले,,
रिम झिम बरखा आई
झूम रे मन.. मतवाले,,
मनोज वर्मा मनु
639709 3523
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रहा न वो लाखों का सावन
नहीं सुकोमल पहले सा मन
बदल गईं हैं रीत पुरानी
सूना है बाबुल का आँगन
वो पेड़ों पर झूले पड़ना
कजरी गाना पेंगे भरना
सखियों के सँग हँसी ठिठोली
सब कुछ था कितना मनभावन
रहा न वो लाखों का सावन
भैया सँग मैके आते थे
बाबुल कितना दुलराते थे
मम्मी के आंचल में छिपकर
जी लेते थे फिर से बचपन
रहा न वो लाखों का सावन
होती थी साजन से दूरी
भाती थी पर वो मजबूरी
आती थी जब उनकी पाती
भीग प्रेम से जाता था मन
रहा न वो लाखों का सावन
आज जमाना बदल गया है
शुरू हुआ अब चलन नया है
हक बहनों ने तो है पाया
मगर खो गया वो अपनापन
रहा न वो लाखों का सावन
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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पावस आया झूमकर,सड़क बनी है ताल।
छटपटाता मीन पथिक,फँसा ताल के जाल।1।
दूर तलक ईँटे दिखीं,ओढ़ सलेटी खाल।
सावन के अंधे हुए,फिर भी कस्बे लाल।2।
"पावस डिश है कौन सी,बतलाओ ना मॉम।"
"या पबजी सा गेम ये,"पूछे शहरी टॉम।3।
आफ़त ये बरखा हुई,जित देखें तित नीर।
झोपड़ियों की आँख से,उस पर बरसी पीर।4।
कहाँ कागजी कश्तियाँ,कहाँ राग मल्हार।
मोबाइल के आसरे,सावन का त्योहार।5।
हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद
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जब नाम लिखा तुमने अपना अहसास के सूखे पत्तों पर
सावन ने अमृत बरसाया मधुमास के सूखे पत्तों पर
तेरे आने की आहट से कोमल किसलय जयघोष हुआ
नव आस खिली, टूटे निर्जन विश्वास के सूखे पत्तों पर
तेरी श्वासों से श्वासित हो हर श्वास सुगंधित है ऐसे
मकरंद मिलाया हो जैसे मम प्यास के सूखे पत्तों पर
आलिंगन में पाकर तेरा मन का अंगनारा झूम रहा
यों रास रचाया है तुमने बनवास के सूखे पत्तों पर
अब साथ तेरे इस जीवन का दुख भी उत्सव हो जाता है
"मासूम"सुखद आभास मिले संत्रास के सूखे पत्तों पर
मोनिका "मासूम"
मुरादाबाद
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मोरे जियरा में आग लगाय गयी रे, सावन की बदरिया।
मोहिं सजना की याद दिलाय गयी रे, सावन की बदरिया।।
जब जब मौसम ले अंगडाई और चले बैरिनि पुरवाई।
मोरी धानी चुनरिया उड़ाय गयी रे सावन की बदरिया।।
मोहिं सजना -------
दादुर मोर पपीहा बोले, पिय की याद जिया में घोलै।
मोरे जियरा में हूक उठाय गयी रे, सावन की बदरिया।।
मोहिं सजना ---------
साज सिंगार मोहिं नहिं भावै, फिरि फिरि कारी घटा डरावै।
मोरी निंदिया पै बिजुरी गिराय गयी रे, सावन की बदरिया।।
मोहिं सजना -------
डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
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अंधेरों की अधिकता के ,
बरसते मेघ हैं फिर भी
तरसते नैन है फिर भी
न जाने क्यों ये पहले जैसा
मनभावन नहीं लगता
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता
ना जत्थे हैं कांवरियों के
न ही सड़कों पर भंडारे
न घंटो की ध्वनि गूंजे
न बम भोले के जय कारे
शिवालय शांत है एकदम
न ही हर हर न ही बम बम
हे कैलाशी हे सर्वेश्वर
तेरे पावस के उत्सव में
भला क्रंदन नहीं लगता
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता ।।
नहीं है संग सखियों का
नहीं डालो पे हैं झूले
उमंगे अनमनी बैठी
चढ़ा कर पींग नभ छूले
है धीमी कुहूंक कोयल की
कहानी चुप है हलचल की
सभी इच्छाओं के द्वारे
पडी हैं बंद सांकल सी
घरों में कैद इस जीवन में
अब जीवन नहीं लगता
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता
जिया में एक उलझन सी
पिया की याद बचपन सी
न पावों की कोई आहट
तलब आंखों को साजन की
चले आओ सुकुं मन के
मेरी आंखों के उजियारे
मेरे श्रृंगार की पुलकन
मेरे जीवन के ध्रुव तारे
तुम्हारे बिन कहीं दुनिया में
अपनापन नहीं लगता
कहीं जीवन नहीं लगता
कहीं भी मन नहीं लगता।
कहीं कुछ तो है सावन
इस दफा सावन नहीं लगता
निवेदिता सक्सेना
मुरादाबाद
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रूठ न जाना जान कर, ओ मेरे मनमीत।
आज गगन पर भी लिखा, मैंने अपना गीत।।
प्यासे को संजीवनी, घट का शीतल नीर।
दम्भी सागर देख ले, तू कितना बलवीर।।
झूले पर अठखेलियाँ, होठों पर मृदु गान।
इन दोनों के मेल से, है सावन में जान।।
दुबका बैठा इन दिनों, दहशत से उल्लास।
कैसे झूला डाल दूँ, अबके सावन मास।।
प्यासी धरती रह गयी, लेकर अपनी पीर।
मेघा करके चल दिए, फिर झूठी तक़रीर।।
प्यारी कजरी-भोजली, मधुरस गीत-बहार।
करना कभी न भूलना, सावन का श्रृंगार।।
राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
हार्दिक अभिनंदन
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