सोमवार, 27 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष जिगर मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख......दिल को सुकून रूह को आराम आ गया


         ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो खामोशियों की जुबान में बोलती है और फ़िक्र को जज्बे की तराजू में तोलती है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें कहन का सलीक़ा भी ज़रूरी है और छंद का अनुशासन भी। इसीलिए उर्दू साहित्य में ग़ज़ल की अपनी एक अलग और विशिष्ट भूमिका है क्योंकि यह बेहद मीठी विधा है जिसमें मुहब्बत की कशिश का खुशबू भरा अहसास ज़िन्दादिली के साथ अभिव्यक्त होता रहा है। अनेक शायर हुए हैं जिन्होंने अपनी शायरी से हिन्दुस्तान की रूह को तर किया है, जिगर मुरादाबादी भी ऐसे ही अहम शायरों में शुमार होते हैं। अपनी खूबसूरत शायरी के दम पर मुहब्बतों का शायर कहलाने वाले अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी की पैदाइश 6 अप्रैल 1890 को मुरादाबाद में ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य और एक अच्छे शायर जनाब मौलवी अली ‘नज़र’ के यहाँ हुई।
उनका परिवार बेहद ऊँचे घराने से ताल्लुक रखता था, उनके पूर्वज बादशाह शाहजहाँ के यहाँ तालीम दिया करते थे बाद में किन्हीं वज़हों से उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी और वे मुरादाबाद आकर बस गए। मुरादाबाद के मुहल्ला- लालबाग में अमीन साहब वाली मस्जिद के नज़दीक रहने वाले इस महबूब शायर की बीमारी की बज़ह से शिक्षा बहुत साधारण रही, वह अंग्रेज़ी तो नाममात्र को ही जानते थे। बाद में खुद ही पढ़-पढ़कर फ़ारसी के विद्वान बने लेकिन किसी ने कहा भी है कि ‘शायरी इल्म से नहीं आती’। हालांकि पेट पालने के लिए उन्होंने कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे बेचे, कभी कोई और मुलाज़िमत भी की।
जिगर साहब शक्ल-ओ-सूरत के लिहाज़ से ख़ूबसूरत नहीं थे लेकिन उनके इश्कमिज़ाज होने और अलग ढंग से शेर कहने के हुनर के आगे उनकी शक्ल-सूरत के कुछ मानी ही नहीं रह जाते थे। उन्हें प्रेम में कई बार मात भी खानी पड़ी। एक बार आगरे की एक तवायफ वहीदन से दिल लगा बैठे, शादी की लेकिन ज़ल्द ही उनके मिज़ाज से अपना मिज़ाज न मिलने के कारण उनसे शादी तोड़कर संबंध समाप्त भी कर लिया। इसके बाद मैनपुरी की एक गायिका शीरज़न से भी इश्क किया, लेकिन यहाँ भी यह मुहब्बत ज़्यादा दूर तक नहीं जा सकी। बहरहाल इश्क में इतनी नाकामियों के बावजूद जिगर साहब ने इश्क़ को खुद से दूर नहीं होने दिया, हां शराब ने इस नाकाम आशिक को पनाह ज़रूर दी। बकौल जिगर- ‘मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादां/जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब उठा/किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़/मैं अपना जाम उठाता हूँ, तू किताब उठा।’ एक बार मशहूर गायिका अख़्तरी बाई फैजाबादी (बेगम अख़्तर) के शादी के पैग़ाम को भी जिगर ठुकरा चुके थे। बाद में शायर ‘असगर’ गौंडवी साहब की साली से जिगर साहब की शादी भी हुई जो आखिर तक चली भी।
अली सिकंदर से जिगर मुरादाबादी हो जाने तक की यात्रा इतनी आसान भी नहीं रही। जिगर साहब को शायरी अपने दादा और वालिद से विरासत में मिली लिहाज़ा उन्होंने लड़कपन में यानि कि तेरह-चौदह साल की उम्र में ही शे’र कहने शुरू कर दिए थे। शुरूआती दौर में अपने अश्’आर अपने वालिद ‘नज़र’ साहब को ही दिखाते थे और इस्लाह भी करवाते रहे, बाद में वह अपनी ग़ज़लें उस्ताद शायर ‘दाग़’ देहलवी, मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को भी दिखाया करते थे। उम्र में जिगर साहब से महज 6 साल बड़े मशहूर शायर ‘असगर’ गौंडवी की संगत से उनकी शायरी में सूफ़ियाना रंग और ज़यादा चमककर उभरा, हालांकि डॉ. मोहम्मद आसिफ़ हुसैन अपनी किताब ‘मुरादाबाद में ग़ज़ल का सफ़र’ में बताते हैं कि ‘जिगर की शायरी में कोई दर्शन नहीं है बल्कि व्यवहारिकता है। वह सुनी-सुनाई बातों पर शायरी नहीं करते बल्कि उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ देखा, सोचा, समझा और जो कुछ उनके साथ घटित हुआ, उसे उन्होंने अपने शे’रों में पेश करने की कोशिश की।’ बहरहाल, जिगर की ग़ज़लों के ये शे’र आज भी लोगों के दिलो-दिमाग़ में बसते हैं जो उन्हें बड़ा और अहम शायर बनाते हैं-
अगर न ज़ोहरा ज़बीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गु़ज़रे

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दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैगाम आ गया
दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया

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आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा गुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का कुसूर था

सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि ‘उर्दू शायरी में जिगर मुरादाबादी का अपना एक अलग और ऊँचा मुकाम है। कुतुब अली शाह से लेकर आज तक मुहब्बत की शायरी हुई है लेकिन जिगर की शायरी में मुहब्बत के मानी रूहानी भी हैं और दो दिलों के बीच पसरी धड़कनों की ज़मीन भी, उनकी ग़ज़लों में मुहब्बत के जितने रंग हो सकते हैं सब मौजूद हैं।’
      वहीं जिगर फाउंडेशन मुरादाबाद के सद्र और मशहूर शायर मंसूर उस्मानी कहते हैं कि ‘जिगर मुहब्बत के शायर थे, मुहब्बत जो इंसानियत की आत्मा है। हुस्न-ओ-इश्क और शराब की मस्ती में लिखने वाले शायर के तौर भी जिगर को जाना जाता है लेकिन यह सच है कि उनकी शायरी का एक पक्ष आध्यात्मिक भी है।’
जिगर साहब का शे’र पढ़ने का अन्दाज़ बेहद जादूभरा था और तरन्नुम लाजबाव। जिगर साहब के शेर पढ़ने के ढंग से उस दौर के नौजवान शायर इतने ज़यादा प्रभावित थे कि उनके जैसे शेर कहने और उन्हीं के अंदाज़ में शे’र पढ़ने की कोशिश किया करते थे। इतना ही नहीं ‘जिगर’ के जैसा होने और दिखने के लिए नए शायर ‘जिगर’ की ही तरह बड़ी-बड़ी बेतरतीब ज़ुल्फ़ें रखते, दाढ़ी बढ़ाते। और तो और उनके पहनावे की भी नकल करते, इसके अलावा ये नौजवान पीढ़ी बेतहाशा शराब भी पीती, सो अलग।
उनके शुरूआती दिनों में एक बार लखनऊ में वहजाद लखनवी ने एक मुशायरा रखा था जिसमें जिगर साहब को भी बुलाया गया था लेकिन पता नहीं किन बजहों से उन्हें पढ़ने नहीं दिया गया। जिगर साहब वहां से बाहर निकल आए और बाहर खड़े होकर अपने अश्’आर तरन्नुम में गाने लगे। देखते ही देखते सारे लोग मुशायरा छोड़कर बाहर आ गए और जिगर साहब को सुनने लगे और देखते ही देखते वहीं मुशायरा हो गया। उनके बारे में एक और किस्सा मशहूर है कि एक बार एक महफ़िल में जिगर साहब शे’र सुना रहे थे। पूरी महफ़िल उनके शेर पर ज़बरदस्त दाद दे रही थी, लेकिन एक साहब शुरू से आखिर तक चुपचाप बैठे रहे मगर आखि़री शेर पर उन्होंने उछल-उछलकर दाद देनी शुरू कर दी। इस पर जिगर साहब ने चौंककर उनकी ओर देखा और पूछा-क्यों जनाब, क्या आपके पास कलम है क्या? उस आदमी ने जवाब दिया, जी हां! है, क्या कीजिएगा? इस पर जिगर ने कहा कि मेरे इस शे’र में ज़रूर कोई ख़ामी रही होगी, वरना आप इतनी उछल-उछलकर दाद न देते। मैं इसे अपनी कॉपी में से काट देना चाहता हूँ।
जिगर साहब के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि उन्होंने अपने एक दोस्त के कहने पर एक फ़िल्म कंपनी में गाने लिखने के लिए एग्रीमेंट किया जिसके तहत उन्हें 10 ग़ज़लें देनी थीं और इसके पारिश्रमिक के रूप में उन्हें कुल 10 हज़ार रुपए दिए जाने थे जो उस ज़माने में एक बड़ी रक़म थी। फ़िल्म कंपनी ने उन्हें 5 हज़ार रुपए एडवांस भी दे दिए। जिगर साहब ने रक़म ली और घर आ गए। उसी रात उन्होंने एक सपना देखा कि गंदगी का एक छोटा-सा पहाड़ है, जिस पर एक शेर बैठा है। पहाड़ की तलहटी में बहुत से लोग इकट्ठा हैं और थोड़ी-थोड़ी देर में वह शेर अपने पंजों से वो गंदगी उछाल रहा है और लोग इस गंदगी से अपना दामन भर रहे हैं। ख़ुद शेर का जिस्म और लोगों के कपड़े, सब उस गंदगी से सन जाते हैं। इसी बीच उनकी आंख खुल गई। सांसें अस्त-व्यस्त थीं और माथे पर पसीना छलक आया था। सुबह हुई, तो जिगर साहब ने एडवांस में मिला रुपया फ़िल्म कंपनी को वापिस कर दिया और फिर कभी भी फ़िल्मी गीत ना लिखने कसम खाई। उन्होंने ख़ुद तो फ़िल्मों में गीत लिखने से परहेज़ किया, किन्तु दूसरी ओर उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी को फ़िल्मों में गीत लिखने के लिए ज़ोर देकर राज़ी कर लिया। लेकिन इसके बावजूद लेखक दिनेश दर्द के एक आलेख में किए गए ज़िक्र के अनुसार 1947 में आई फ़िल्म ‘रोमियो एंड जूलियट’ में जिगर का एक गीत मिलता है, जिसके बोल हैं-‘क्या बताएं इश्क़ ज़ालिम क्या क़यामत ढाए है...’, हालांकि, हो सकता है जिगर ने ये गीत फ़िल्म के लिए नहीं लिक्खा हो, फ़िल्मवालों ने ही जिगर साहब का पहले से लिक्खा हुआ गीत अपनी ज़रूरत के हिसाब से उनसे मांग लिया हो। यहाँ एक अहम बात का ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है कि ‘मदर इंडिया’ फिल्म के मशहूर निर्माता-निर्देशक महबूब खान की हर फिल्म की शुरूआत जिगर मुरादाबादी के शे’र- ‘क्या इश्क ने समझा है क्या हुस्न ने जाना है/हम ख़ाक- नशीनों की ठोकर में ज़माना है’ से ही होती है।
जिगर साहब का पहला दीवान ‘दाग़े-जिगर’ 1921 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद दूसरा दीवान ‘शोला-ए-तूर’ 1923 में अलीगढ़ की मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छपा। 1958 में कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ सामने आया। उनकी किताब ‘आतिश-ए-ग़ुल’ को 1959 में साहित्य अकादमी ने उर्दू की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उन्हें 5000 रुपये का पुरस्कार देकर सम्मानित किया। समूचे मुरादाबाद के लिए यह गर्व का विषय है कि जिगर साहब साहित्य अकादमी से पुरस्कृत होने वाले मुरादाबाद के पहले और अब तक के एकमात्र साहित्यकार हैं। बाद में फिर वह अपनी ससुराल गोंडा चले गए और वहीं बस गए। 9 सितम्बर 1960 को गोंडा में ही हुए उनके निधन से उर्दू शायरी का एक रंग ख़त्म हो गया। उनकी याद में मुरादाबाद में जिगर कॉलोनी, जिगर मंच, जिगर द्वार और जिगर पार्क शासन-प्रशासन द्वारा बनवाए गए हैं, वहीं गोंडा में जिगर गंज नाम से एक कॉलोनी एवं जिगर मैमोरियल इंटर कॉलेज के अलावा मज़ार-ए-जिगर भी है।


जिगर मुरादाबादी की कुछ ग़ज़लें-

(1)
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये

चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये

रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये

आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये

लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ ज़िगर
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये

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(2)
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई

ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई

वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई

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(3)
दिल गया रौनक-ए-हयात गई
ग़म गया सारी कायनात गई

दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई

उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई

मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई

हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई

नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई

क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात जिगर
मौत आई अगर हयात गई

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(4)
मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं

ये कह-कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं

वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं
ख़ुदा जाने क्या ख़याल आ रहे हैं

हमारे ही दिल से मज़े उनके पूछो
वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा करके हम भी तो शरमा रहे हैं

वो आलम है अब यारो-अग़ियार कैसे
हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं

मिज़ाजे-गिरामी की हो ख़ैर यारब
कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं

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(5)
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम

आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम

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(ग़ज़लें कविता कोश से साभार)

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

ए.एल.-49, दीनदयाल नगर-।,
काँठ रोड, मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर - 9412805981

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