बुधवार, 19 अगस्त 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल ( वर्तमान में नोएडा निवासी) के साहित्यकार अटल मुरादाबादी की दो रचनाएं ------


सिर पर टोपी है रखी, मन में बहुत सवाल ।
इधर उधर अब झांकते,नहीं गल रही दाल।

मोदी जी पर नित नये,लगा रहे आरोप,
झूठे अब प्रपंच रच,करते बहुत बवाल।।

 सीट गयी इज्जत गयी,छूटा है अब ताज,
बनते थे इक शेर से, है गीदड़ की खाल।

 समझाए यह कौन अब,देश काल की बात,
अब मूरख जन हैं नहीं,फॅसें किसी ना हाल।।

मुॅह में हड्डी है फॅसी,अंदर-बाहर होय,
राजनीति भी दिख रही,अब जी का जंजाल।।

कुछ तो अच्छा कीजिए,अटल कहै है आज,
वरना डूबे नाव अब,हो गति बस बेहाल।।
(2)
भावना तो कहीं मर गयी देखिये ।
चंद आँसू नयन भर गयी देखिये।

कारवाँ तो जुडा पर हवा  हो गया,
भूख उसको हज़म कर गई देखिये।

नोक पर तीर की भाग्य की रेख है,
भाग्य की रेख तो मर गयी देखिये।

फूल तो  हैं खिलें खिल के मुरझा गये ,
गंध आँगन चमन झर गयी देखिये।

वक़्त तो कट गया फ़ासला छँट गया,
बेबसी प्यार को हर गयी देखिये।

✍️ अटल मुरादाबादी
बी -142 सेक्टर-52
नोएडा उ ०प्र०
मोबाइल फोन नम्बर 09650291108
8368370723न
Email: atalmoradabadi@gmail.com
& atalmbdi@gmail.com

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन होता है । मंगलवार 4 अगस्त को आयोजित गोष्ठी में प्रस्तुत मरगूब अमरोही, प्रीति चौधरी ,डॉ पुनीत कुमार ,नृपेंद्र शर्मा सागर, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, दीपक गोस्वामी चिराग , अशोक विद्रोही, राजीव प्रखर , डॉ श्वेता पूठिया,डॉ प्रीति हुंकार और सीमा वर्मा की रचनाएं -------


गोलू मोलू थे दो भाई, पर होती उनमें हर रोज़ लड़ाई।
लड़ते रहते वो तो हर दम, करते रहते फिर हाथापाई।

मम्मी-पापा खूब समझाते,पर दोनों के समझ न आई।
ऐसे में जम करके एकदिन,जब दोनों को डांट पिलाई।

लड़ना तो गंदी आदत, उनको तो फिर समझ में आई।
ऐसे में दोनों ने मिलके, एक दिन फिर कसम ये खाई।

हम दोनों अब नहीं लड़ेंगे, ना ही होगी हमारी पिटाई।
दोनों अब मिलज़ुल कर रहते,खूब करते हंसी हंसाई।

चारों ओर तारीफें रहतीं, मिसाल बन गए दोनों भाई।
खुशी खुशी अब दोनों रहते,जमके खाते खूब मलाई।
       
मरग़ूब अमरोही
दानिशमन्दान, अमरोहा                        मोबाइल-9412587622
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नन्ही राधा नाचती ,देख नए उपहार
चम-चम चमके घाघरा,चुनरी जालीदार

कोकिल सी है कूकती,आए भाई द्वार
घर आंगन में डोलती,राधा इस त्योहार

 प्रीति चौधरी
 गजरौला,अमरोहा
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चीनी क्यों होती मीठी
नमक क्यों होता नमकीन
नीबू खट्टा क्यों होता
कड़वी क्यों होती है नीम
सोच रहा भोला भोलू

कौआ क्यों गाता भद्दा
कोयल क्यों मीठा गाती
हिरण तेज़ दौड़ता क्यों
क्यों सबसे मोटा हाथी
सोच रहा भोला भोलू

छे के बाद क्यों आता सात
दो और दो क्यों होते चार
हिमालय इतना ऊंचा क्यों
पवित्र क्यों गंगा की धार
सोच रहा भोला भोलू

ऐसे है कुछ और प्रशन
मन ढूंढ रहा जिनके उत्तर
वो दिन जाने कब आएगा
होगी प्रभु कृपा मुझ पर
सोच रहा भोला भोलू

डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद -244001
M-9837189600
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पों - पों करती  हॉर्न  बजाती,
गाड़ी आती है,
सब  बच्चों को दूर - दूर  की,
सैर कराती है।
     
गीता,  नीता,  गोलू   सब  को,     
पास बुलाती है,
अंजुम  और  शमा  दीदी  को,
घरसे  लाती है।

कच्ची-पक्की सब सड़कों पर,
दौड़ लगाती है,
बाग   बगीचों   तालाबों   की,
छटा दिखाती है।

मंदिर,  मस्ज़िद,  गुरुद्वारे  के,
दरस कराती है,
गिरजा  को  पावन  श्रद्धा  से,
सीस झुकाती है।

रामू     श्यामू     को   बैठाने,
हॉर्न बजाती है,
घर आने  पर   देखो   बच्चो,
खुद रुक जाती है।

सब बच्चों  को  सुंदर - सुंदर,
गीत सुनाती है,
बैठे - बैठे   बच्चों   को   भी,
नींद सताती है।

तभी  अचानक  गाड़ी  अपने,
ब्रेक लगाती है,
चालक  बोला  उतरो   गाड़ी,
कल फिर आती है।

  वीरेन्द्र सिंह  ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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माँ भारती के लाल हो तो मातृभूमि पर मरो।
हो ऊँची शान देश की तुम काम कुछ ऐसे करो।
मिटा दो दुश्मनों के मान डरें वो भारत नाम से।
नज़र करे तिरछी कोई तो धीर फिर तुम ना धरो।
माँ भारती के लाल हो तुम मातृभूमि पर मरो।
हो निज ध्वजा ऊँची सदा जो हिन्द की पहचान है।
खिलती जो तीन रंग में जहाँ से न्यारी शान है।
प्राणों से बढ़कर तुम सदा रक्षा तिरंगे की करो।
कभी ना इसको भूलना है कर्ज तुमपर वतन का।
जो देशहित बलि चढ़ गए उन शहीदों के कफ़न का।
मिली है आज़ादी हमें अब इसकी सुरक्षा करो।
माँ भारती के लाल हो तो मातृभूमि पर मरो।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा , मुरादाबाद
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सपना देखा,सपना देखा ।
कल मैंने एक सपना देखा ।
लिए हाथ में लाल छड़ी, मैं।
परी बन गई बहुत बड़ी, मैं।

फिर बच्चे भी, आ गए सारे।
उड़ना चाहें, नभ में प्यारे।
पल भर में, फिर छड़ी घुमाई।
उनको नभ की, सैर कराई ।
उनको कुल्फी भी खिलवाई
संग थी रबड़ी और मलाई ।

*एक बना विद्यालय न्यारा ।
सबसे सुंदर सबसे प्यारा ।
वहाँ न कोई टीचर मारे।
खेल कूद और मौज बहारें ।
कैसा भी कोई छेद नहीं था।
जाति-धर्म का भेद नहीं था।

देश बन गया इतना प्यारा।
नतमस्तक था यह जग सारा।

दीपक गोस्वामी 'चिराग'
शिव बाबा सदन ,कृष्णा कुंज
बहजोई (सम्भल) 244410
(उ.प्र.) मो. 9548812618
ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com
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याद मेरे बचपन की
          मुझको जब भी आती है
मेरे मन की प्यारी सी
             खिड़की खुल जाती है
 ठुमक-ठुमक कर चलना
       सबको आकर्षित करता
रोना और मचल जाना
       ‌‌   भी आनंदित करता
थपकी देदे लोरी गा
            ‌ मां मुझे सुलाती है
मेरे मन की प्यारी सी
            खिड़की खुल जाती है
झड़ी लगाना प्रश्नों की
             नित मन था जिज्ञासु
डांट पड़ी तो गालों पर
               फिर बड़े-बड़े आंसू
बड़े प्यार से घंटों
              माता मुझे मनाती है
 मेरे मन की प्यारी सी
              खिड़की खुल जाती है
नानी दादी बड़े प्यार से
              गोदी में विठलातीं
लेती खूब बलैया काला-
              टीका रोज लगातीं
किस्सों में सुंदर परियां
              हमको दिखलाती है
मेरे मन की प्यारी सी
             खिड़की खुल जाती है
कंचे , खो-खो, चोर सिपहिया
       ‌            खेल कबड्डी करते
गुल्ली डंडा, छुपी छुपैया
                  नहीं किसी से डरते
बचपन के खेलों के
                 सारे चित्र दिखाती है
मेरे मन की प्यारी सी
               खिड़की खुल जाती है
बीत रहा हर पल जीवन
           है तेज समय की धारा
गया हुआ बचपन वापस
            फिर लौटे ना दोबारा
जाने यादें क्यों मेरे
              नैना छलकाती है
मेरे मन की प्यारी सी
                खिड़की खुल जाती है
        ‌
अशोक विद्रोही
82 188 25 541
412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
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बच्चों ने मिलजुल कर देखो,
मीठी खीर पकाई।

रोज़ी लायी घर से चावल,
राजा लाया चीनी।
अहमद की केसर से फैली,
खुशबू भीनी-भीनी।
पापे ने भी हँसते-हँसते,
कलछी खूब चलाई।
बच्चों ने मिलजुल कर देखो,
मीठी खीर पकाई।

दादी, दादा, मम्मी, पापा,
या हों नाना-नानी।
देख-देख कर मुँह में सबके,
आया डट कर पानी।
चाचा जुम्मन करें शिकायत,
हमको नहीं चटाई।
बच्चों ने मिलजुल कर देखो,
मीठी खीर पकाई।

ज़ात-पात के भेद भुलाकर,
जब बच्चे मुस्काये।
बड़ों-बड़ों ने भी आँखों से,
पर्दे सभी हटाए।
सबके मन में अपनेपन ने,
अपनी पैठ जमाई।
बच्चों ने मिलजुल कर देखो,
मीठी खीर पकाई।

- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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 माँ तुम मुझको आज सुनाओ
 ऐसी एक कहानी।
 जिसमें न होराजा कोई
और न कोई रानी,
बस मै हूँ और तुम हो
न हो कोई परेशानी।
जहाँ हमारे सपने हो और साथ हो माँ प्यारी
दुख न हो जहां पर
भरपेट मिले खाना
न तू भूखी सोये न
मुझे पडे कम खाना
माँ.....
सुन्दर सुखद हो कल हमारा,
मै हूँ राजा बेटा और तू हैं महारानी
ये कमरा है राजमहल
बाकी दुनिया बेमानी।
मां...।।।

डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
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करो सफाई ,रखो सफाई
सदा मलिनता है दुःखदाई
जो बच्चे न साफ रहेंगे
वे अक्सर बीमार पड़ेंगे
रोज सबेरे जल्दी उठकर
करना है सबको स्नान
निज जीवन में आगे रहना
स्वस्थ शरीर की है पहचान।

डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद
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परिश्रम का फल
अजय और राहुल बड़े पक्के दोस्त थे । एक ही कक्षा में पढ़ते थे । पर दोनों में एक बड़ा भारी अन्तर था । जहाँ राहुल एक समृद्ध परिवार से होने के कारण थोड़ा अकड़ में रहता वहीं निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का अजय बेहद संयमित प्रकृति का था । राहुल हर चीज़ हासिल करना जानता था और अजय संतुष्टि से परिपूर्ण था । कभी - कभी अजय जब राहुल को किसी बात या  चीज़ के लिए ज्यादा मचलते देखता तो उसे समझाने की कोशिश करता पर राहुल उससे ही उलझ पड़ता पर अगले ही दिन दोनों एक दूसरे के गले में बाँहें डाले मिलते ।
      स्कूल में सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी घोषित होने की प्रतियोगिता थी । लड़कों में जबर्दस्त तरीके की प्रतिस्पर्धा थी । राहुल हर कोशिश कर रहा था । उसने अपने पिताजी से स्कूल फंड में भारी चंदा जमा करवाया था । साथ ही साथ निर्णायक मंडल में शामिल कई अध्यापकों के घरों में महँगे - महँगे उपहार भिजवाए थे । ऐसा  नहीं था कि कोई उसके प्रभाव में था पर वो हर तरीका अपना कर केवल खुद को आश्वस्त कर रहा था कि कोई ना कोई दाँव कामयाब रहेगा । वो मित्र मंड़ली में ये बातें खुल कर तो नहीं बताता था पर उसकी डींगों से लड़के सब समझ जाते । अजय या तो चुप रहता या राहुल से इस तरह की बातें करने को मना करता । पर राहुल उसकी सुनता ही कब था ।
      परिणाम घोषित हुआ । अजय विजेता बना । प्रधानाचार्य जी ने भाषण शुरू किया  " मैं पिछले कई वर्षों से अजय को देख रहा हूँ । वह एक निर्दोष , निडर व निष्पक्ष बालक है । निर्दोष इसलिए कि आसपास गलत होते हुए भी उसने किसी गलत आदत को नहीं अपनाया , निडर इसलिए कि अपने परिवार की स्थिति को वो निडरता से स्वीकार कर केवल परिश्रम के बलबूते पर ही इतने बड़े विद्यालय में पढ़ रहा है , निष्पक्ष इसलिए की ये जानते हुए भी कि उसके सभी साथी उस जैसे नहीं वो किसी भी बात को अपनी दोस्ती के आड़े नहीं आने देता । "
         हाल तालियों से गूँज रहा था । कुछ छात्र राहुल के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए थे कि अब राहुल की प्रतिक्रिया क्या होगी पर अजय पुरस्कार लेकर जैसे ही राहुल के पास पहुँचा राहुल ने दौड़कर उसे गले से लगा लिया । उसकी आँखों में आँसू थे पर इस बार ये हार या ईर्ष्या के नहीं दोस्त के परिश्रम की जीत के थे ।।

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार मयंक शर्मा केे दस गीतों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा-------


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 15 व 16 अगस्त 2020 को मुरादाबाद के युवा गीतकार मयंक शर्मा  केे दस गीतों पर ऑन लाइन   साहित्यिक  चर्चा का आयोजन  किया  गया । सबसे पहले मयंक शर्मा द्वारा   निम्न दस गीत पटल पटल पर प्रस्तुत किये गए-

(1)
जन्म सार्थक हो धरा पर स्वप्न हर साकार हो,
हम चलें कर्तव्य पथ पर और जय जयकार हो।।                               
कंटकों के बीच में भी हैं सुमन रहते खिले,
हो पवन जाती सुगंधित जब कभी इनसे मिले।
अन्न उपजाती स्वयं का वक्ष धरती चीरकर,
तृप्त होता मन सदा बहती नदी के तीर पर।
काज परहित के करें अपना यही व्यवहार हो।
हम चलें कर्तव्य पथ पर........ 

दीर्घजीवन भी निरा किस काम का बिन मान के,
हम चले जाएं बिना अपनी किसी पहचान के।
कामना प्रभु से भले दो अल्प जीवन सीढ़ियां,
त्याग ऐसे कर चलें हम याद रख लें पीढ़ियां।
हों विदा संसार से तो आँसुओं की धार हो।
हम चलें कर्तव्य पथ पर........     

बेल पर संघर्ष की खिलता सदा ही फूल है,
कुछ पलों का कष्ट मानो ठोकरों की धूल है।
इस समर में सामना है द्वेष, छल, मद, स्वार्थ से,
जीतना होगा हमें यह युद्ध निज पुरुषार्थ से।
लक्ष्य का संकल्प अपनी जीत का आधार हो।
हम चलें कर्तव्य पथ पर........

(2)

राम तुम्हें आना होगा इस धरा पर अबकी बार भी,
करना होगा धर्मशस्त्र से, दुःखियों का उद्धार भी।

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह ने सबको ऐसा घेरा है,
राह नहीं आसान जगत पर तम ने किया बसेरा है।
प्रेम, त्याग, पुरुषार्थ, शौर्य से गुण के तुम थे अवतारी,
राम नहीं कोई तुम जैसा रावण सब पर है भारी।
जीवन पथ आलोकित करके हरो घोर अंधियार भी,
करना होगा धर्मशस्त्र से....

मानव होकर हमने अपनी मानवता को मार दिया,
देव समझ बैठे थे ख़ुद को असुरों सा व्यवहार किया।
पथ में बिखरे शूल हमारे, अगणित अनचाहे डर हैं,
जीवन और मरण के जाने कैसे दोराहे पर हैं।
डोल रही जीवन नौका की थाम लो तुम पतवार भी,
करना होगा धर्मशस्त्र से....

(3)

मन ले चल अपने गाँव हमें शहर हुआ बेगाना,
दुख का क्या है दुख से अपना पहले का याराना।                                                           
इनकी पगडण्डी से लेकर हमने महल बनाये,
 पर अपने सिर के ऊपर इक छत भी डाल न पाए।। अब रातें सदियों सी लगतीं दिन सालों से  भारी, चलना है दुश्वार मगर चलने की ज़िम्मेदारी।
कुछ दिन रहना एक जगह फिर पंछी बन उड़ जाना।  मन ले चल...                                         

लगता है अब ख़ुद पर ख़ुद का ही अधिकार नहीं है, अपने मन वाले सपनों का ये संसार नहीं है।              मज़दूरी तो मजबूरी का नाम हुआ करती है,            तन से निकले खारे जल का दाम हुआ करती है।        याद रहेगा सपनों का आँसू बनकर बह जाना।        मन ले चल...                                                       

सोचा कब था इसी तरह हर दर्द छुपाना होगा!          अब तक जो पाया है उसका कर्ज़ चुकाना होगा।        ऐसे मुश्किल पल ने हमको सबक यही सिखलाया,    माटी में ही मिल जाएगा इस माटी का जाया।।          बिखर गया इस संकट में जीवन का ताना बाना,        मन ले चल...

(4)

स्वर्ग फिर स्वर्ग बनकर रहेगा
खून सड़कों पे अब न बहेगा।
रंग से हो सजी तस्वीर,
भारती अब हुआ कश्मीर।     

जो गवारा न थी एक धारा वही,
दुश्मनों के लिये वो सहारा रही।
थे उगलते ज़हर होंठ सब सिल गए,
दूर थे जो कभी अब गले मिल गए।
तोड़ डाली हरिक ज़ंजीर।
भारती अब हुआ....             

 है न आतंक में न कोई जंग में,
पत्थरों में नहीं न ये बदरंग में।
केसरी गंध में पुष्प मकरंद में,
है रचा औ बसा डोंगरी छंद में।
प्यार इसकी अजब तासीर।
भारती अब हुआ....             

दो कदम तुम चलो दो कदम हम चलें,
वादियों में वही ख़्वाब फिर से पलें।
हों अमन के निशाँ ख़ूबसूरत समाँ,
कान में घंटियाँ गूँजती हो अजाँ।
हाथ से फेंक दें शमशीर।
भारती अब हुआ...

(5)

बोल मजूरे ज़ोर लगाकर बोल मजूरे हल्ला,              मांगें हम ख़ैरात कोई न चाहें सस्ता गल्ला।               
अपनी ताक़त के दम से हैं दुनिया की तामीरें।
हम हीरे, चाँदी, सोना हैं हमसे हैं जागीरें।           
ठोकर पर क्यूँ रक्खो सर का ताज बनाकर रखना।    रूठेंगे तो टूटेगा हर एक तुम्हारा सपना।                हम सच के हामी हैं सच बोलेंगे खुल्लम खुल्ला।      बोल मजूरे ....                                                     
हम मज़दूर भले हों पर मजबूर नहीं हो सकते,      खून पसीने के हक़ से अब दूर नहीं हो सकते।          पाप तुम्हारे ज़ुल्मों का जब सर चढ़कर बोलेगा।        इंक़लाब की बोली तब बच्चा-बच्चा बोलेगा।   
अंगारे हम मत समझो तुम, पानी का बुलबुल्ला।        बोल मजूरे हल्ला बोल.....

(6)

साँझ ढले हो घना अँधेरा छत पर आ जइयो,          श्वेत चाँदनी की चादर चहुँ ओर बिछा जइयो।            चाँद आ जइयो...                     

तेरी एक झलक में परियों जैसा सम्मोहन है,              पूनम वाले दीप्त चाँद की छवि ही मनमोहन है।
धीरे-धीरे मुख से तेरा आँचल को सरकाना,              अँधियारी काली रातों का रौशन होते जाना।
तारों की बारात साथ में लेकर आ जइयो।
चाँद आ जइयो...

तेरा मादक बिम्ब नदी के जल में जब उतराता,
गोरी का यौवन भी उसके सम्मुख शरमा जाता।
नभ से आने वाली किरणें इस जग को चमकाएं,
मोहक मुखड़े को मिलती हैं तेरी ही उपमाएं।
आकर्षक ये रूप हमें हर शाम दिखा जइयो।
चाँद आ जइयो...

आज अँधेरा औ तुझमें कल चाँदी की बरसातें
ऐसे ही होते हैं दुख-सुख ईश्वर की सौगातें।
विपदाओं से डरना जैसे तेरा काम नहीं है,                चलते रहना है जीवन रुकने का नाम नहीं है।
हमको भी जीवन का तुम ये सार बता जइयो।
चाँद आ जइयो...

(7)

देखकर अपनी उड़ानें और सुख से प्रीत,                  लाँघकर भी रेख को हम थे नहीं भयभीत।

अंध मद में दौड़ते थे त्याग कर सब धीर,                   सामने था, न दिखा प्रकृति के नयन का नीर।           वेदना होती मुखर तो गूँजता है नाद,                       संकटों में हैं घिरे तब कर्म आये याद।
हार में भी मानते थे हम स्वयं की जीत।
लाँघकर भी रेख को....       

स्वच्छ नभ में हो रही अब लालिमा सी प्रात,              हैं विचरते मग्न होकर जीव औ जलजात।                पुष्प के अधरों पर खिली मंद सी मुस्कान,              और भ्रमरा छेड़ता अब प्रीत की रसतान।                स्वस्थ हो जाए धरा गूंजे मधुर संगीत।
लाँघकर भी रेख को....

(8)

लाल हुई केसर घाटी गूँजा अलगावी नारा, कायर गीदड़ ने धोखे से फिर शेरों को मारा।                    ज़ार-ज़ार रोकर कहता है भारत देश ये सारा,          अबकी व्यर्थ न जाने देंगे हम बलिदान तुम्हारा।                           
   
चूड़ी, बिछिया, ईंगुर, बिंदिया कुछ भी लौट न पाया,     हँसी-ख़ुशी जीवन का सपना, सपना ही रह पाया।     किसके सिर को छाती पर रक्खेगी माँ तुम बोलो!       बेटे की अर्थी का बोझा तोल सको तो तोलो।            बिन बेटे फीकी हैं ख़ुशियाँ सूना है जग सारा।
अबकी व्यर्थ....           

अनुबंधों में संबंधों में आग लगा दो सब में,                 हैं पिशाच वो, ढूँढ रहे नर, हम हैं किस ग़फ़लत में।     काग नहीं समझें भाषा, मीठी कोयल की बोली,         हैं दिखावटी गले मिलन वो खेलें ख़ून की होली।        ऑंखों में भर लें शोले औ दिल में हम अंगारा।
अबकी व्यर्थ....             

बरसों की ग़लती पर हम तो आज भी हैं शर्मिंदा,      नर्क बनाया स्वर्ग को जिसने वो वहशी है ज़िंदा।        छप्पन इंची सीना भी सिकुड़ा-सिकुड़ा सा जाए,        पत्थर को भी भस्म बना दे इक विधवा की हाए।        बिलख रही केसर की धरती कोई नहीं सहारा।
अबकी व्यर्थ....

(9)

रंगों के रंग में रंग जाएं खेलें मिलकर होली,
मुँह से कुछ मीठा सा बोलें भूलके कड़वी बोली।

ओढ़ बसंती चूनर फिर से इठलाई है धरती,
छोड़ पुरातन परिधानों को सजती और सँवरती
रंगों का है अर्थ हमारे जीवन में खुशहाली,
नव कोपल से पेड़ लदे हैं झूमे डाली-डाली।
प्रेम लुटाकर सब पर हम खुशियों से भर लें झोली।
मुँह से कुछ मीठा...

शिकवे और शिकायत सारी भस्म यहीं हो जाएं,
तन से तन का मेल नहीं बस मन से मन मिल जाएं।
रंगों का ये पर्व अनोखा है सबसे ही न्यारा,
ख़त्म हुआ जो हर रिश्ता जीवन लेता दोबारा।
संबंधों के फूल खिलाकर बन जाएं हमजोली।
मुँह से कुछ मीठा...

हर फागुन में सोए दिल की आग भड़क जाती है,
लाल गुलाबी चेहरे में जब सामने वो आती है।
उसके चंचल नयन सदा ही करते हैं मनमानी,
इतराती यौवन पर अपने लगती है अभिमानी।
पिचकारी से दागे है मानो वो बम की गोली।
मुँह से कुछ मीठा...

(10)

मृत्तिका की सर्जना में तेल बाती सा जलूँ,
एक दीपक तुम बनो तो एक दीपक मैं बनूँ।

एक दीपक प्रेम का हो एक हो विश्वास का,
शुष्क रेतीली धरा पर बारिशों की आस का।
एक दीपक तुम कि जो निर्मल करे अंतःकरण,
एक मैं वह दीप जिससे ज्ञान का हो जागरण।
एक दीपक में जले हर दोष बोले मिथ्य का,
एक दीपक जो जले हर द्वार पर आतिथ्य का।
दूर तुमसे हो तिमिर तब मैं भला तम क्यों जनूँ!
एक दीपक तुम बनो....

एक दीपक से प्रकाशित धर्म का हो आचरण,
आचरण की शुद्धता व्यभिचार का कर दे क्षरण।
मैं जलाकर राख कर दूँ पापियों के पाप को,
तुम हरो करुणा, दया से दीन के संताप को।
एक दीपक मैं बनूँ संघर्ष जिसकी सम्पदा,
एक तुम जो आँधियों में भी रहे जलता सदा।
हो जहाँ तक भी अँधेरा रौशनी को ले चलूँ,
एक दीपक तुम बनो....

कर गए बलिदान ख़ुद को चाँदनी की चाह में,
दीप जगमग हों सदा उन प्रहरियों की राह में।
स्वप्न स्वर्णिम रश्मियों के वे हमें देकर गए,
है समय अब आ गया निर्माण का भारत नए।
एक दीपक भारती के पुण्य वैभव गान का,
जन्म पावन इस धरा पर ईश्वरी वरदान का।
कामना है हर जनम में दीप बनकर ही जलूँ।
एक दीपक तुम बनो....

इन गीतों पर चर्चा शुरू करते हुए मशहूर शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मयंक जी को मैंने जितना सुना था उससे ज्यादा लिटरेरी क्लब के पटल पर पढ़ा। मुझे कहने दिया जाये कि उनके गीतों में जिंदगी का जो हौसला अहसास की जो सच्चाई अपनी संस्कृति का जो सम्मान मौजूद है, वह उनके शानदार साहित्यिक भविष्य का अंदाजा लगाने के लिए बहुत काफी है।
वरिष्ठ कवि शचीन्द्र भटनागर ने कहा कि गेयता हो तो गीतात्मकता में माधुर्य और प्रभाव में वृद्धि हो जाती है। मयंक के प्रस्तुत गीतों में अध्यात्म है। परमार्थ पूर्ण जीवन की प्रेरणा है। मानव होकर मानवता विहीन होने का दु:ख है। श्रम जीवियों का अपना दर्द है। कश्मीर से संबंधित गीतों के माध्यम से देशभक्ति  का भाव उमड़ा है। सीमा के जांबाज प्रहरियों पर भरोसा है और विधेयात्मक भविष्य पर विश्वास है। संबंधों में आत्मीयता की प्रेरणा है दीपक बनकर सृजन की आकांक्षा है।
विख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मयंक के गीतों में यद्यपि समाज की अन्य चिंताएं भी हैं पर उनका मूल स्वर राष्ट्रीय चेतना से जन्मा राष्ट्रप्रेम है। वर्तमान में कविताएं इस धारा से कटी हुई है क्योंकि यह मुश्किल है।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि बहती हुई धारा जैसी गति और बोलचाल के शब्दों में उमड़ते मन के भावों को गीत के रूप में पिरोने काम आसान नहीं होता, लेकिन मयंक इसमें समर्थ हैं। सामयिक घटनाओं से,जीवन के और नैसर्गिक सौंदर्य के प्रति भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति और सामाजिक संदेश सब इन रचनाओं में उपस्थित है।
वरिष्ठ कवि आनंद कुमार गौरव ने उनके प्रस्तुत गीतों पर चर्चा करते हुए कहा कि मयंक जी से गीत काव्य को और पर्याप्त समृद्धि की बलवती सम्भावनाएँ हैं।  उन्होंने मुरादाबाद लिटरेरी
 क्लब द्वारा इस प्रकार के आयोजनों की सराहना की
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि मयंक शर्मा जी का जहां लाजवाब तरन्नुम श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर लेता है वहीं उनके गीतों के उत्कृष्ट भाव लोगों के दिलों में उतरते चले जाते हैं क्योंकि वहां कल्पना की अतिशयता नहीं है।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक पटल पर पिछले पांच-छह साल में जो नाम तेजी से उभरे हैं उनमें एक नाम है मयंक शर्मा का। उनके गीतों की स्वर लहरियां कभी तन मन में जोश भर देती हैं तो कभी करुणा का भाव भी जगा देती हैं। उनके गीत जहां भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हैं वहीं वह सामाजिक विकृतियों, विद्रूपताओं को भी बखूबी उजागर करते हैं। वह जहां एक ओर शिकवे शिकायतें  भुलाकर सम्बन्धों के फूल खिलाने, प्रेम और विश्वास का दीप जलाने का  आह्वान करते हैं।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि प्रिय मयंक गीतकार के रूप में उभरता हुआ नाम हैं। उनके गीत सहज सरल और सारगर्भित हैं जिसमें सामाजिक सरोकार भी है और राष्ट्र प्रेम भी कई गीत मंच पर सुनने का अवसर मिला गीत जब वो गाते है तो मानो सबको सम्मोहित कर लेते है और वो गीत हृदय को भीतर तक झंकृत करते हैं। मयंक को स्नेहिल शुभकामनाएं उनकी वाणी, स्वर कलम पर माँ शारदे की कृपा यूँ ही बनी रहे और वो अपनी रचनाधर्मिता से नगर को गौर्वान्वित करें।   
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि मुरादाबाद के बेहद संभावनाशील युवा कवि मयंक शर्मा के गीतों को अनेक बार सुना है विभिन्न कार्यक्रमों में, अपने मीठे स्वर में जब वह अपने गीत प्रस्तुत करते हैं तो उपस्थित सारे श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठते हैं। माँ सरस्वती जी की उन पर विशेष कृपा है।
प्रसिद्ध समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि मयंक शर्मा जी के गीत पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ तो उन्हें स्वत: ही गुनगुनाने लगा। मैंने यह उनके गीतों में तासीर देखी। अच्छा लगा कि उनसे मिलने से पहले उनकी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने का सुअवसर प्राप्त हो गया। तो यक़ीन हो गया कि वह एक आदर्शवादी व्यक्तित्व के धनी हैं। एक आदर्शवादी व्यक्ति जब मर्यादाओं का हनन होते हुए और काम,क्रोध,मद लोभ और मोह का साया हर तरफ़ मंडराते हुए देखता है तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को पुकारना स्वभाविक ही प्रतीत होता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आने वाले समय में एक कामयाब और सशक्त गीतकार हो कर उभरेंगे उनमें सृजनशीलता खूब भरी हुई है वह अपनी जड़ों से जुड़े हुए आसमान छूने की सलाहियत रखते हैं।
युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि मयंक उस सुरीली परम्परा के गीतकार हैं जिसकी शुरुआत बच्चन जी से हुई। आदरणीय भारत भूषण जी और स्मृतिशेष किशन सरोज जी ने जिसे पुष्पित पल्लवित किया और श्री कुँवर बेचैन तथा विष्णु सक्सेना आज भी जिसका परचम लहराए हुए हैं। मयंक जाग्रत चेतना के कवि हैं। उनकी रचनाओं में जागृति और आह्वान प्रचुरता से देखने को मिलता है।
समीक्षक डॉ रबाब अंजुम ने कहा कि मयंक जी का काव्य पढ़ा। उनके गीत बहुत कुछ कह गए। अपने सुरताल के साथ मयंक जी का होली के रंगों से शुरू हुआ गीत उर्दू के अवामी शायर नज़ीर की याद दिला गया।
युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि मयंक जी के  रचना पाठ में जो रस अनुभूति होती है उसमें लगता है कि संगीत भी साथ साथ बह रहा हो। मयंक जी की रचनाओं में  संस्कृति, स्वाभिमान, सामाजिकता, देश भक्ति ,संबंधों के प्रति यथा योग्य स्नेह व सम्मान  आदि मुख्यतया पाया जाता है। शृंगारिक रचना कर्म कर्म भी शालीनता को  प्रमुखता  से लिया गया है।
युवा शायर फ़रहत अली ख़ान ने कहा कि भक्ति है, श्रृंगार है, वीरता है, करुणा है, फ़लसफ़ा है यानी इन गीतों में कवि मयंक शर्मा जी के कई रंग देखने को मिले। दी गयी कविताओं के हवाले से वीर रस का प्रतिनिधित्व हालाँकि इन सब में से ज़्यादा है। वीर रस के अच्छे कवि ढूँढने पर भी नहीं मिलते, यानी वीर रस के ऐसे कवि जिन की कविताएँ विशेष काल-खंड की दीवारों को पार कर जाएँ और हर दौर में प्रासंगिक बनी रहें। मयंक शर्मा जी इस लिहाज़ से एक रौशन मुस्तक़बिल की उम्मीद जगाते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि मयंक जी सर्जन करते ही नहीं अपितु उसे जीते भी हैं। मानवता को अपनाने का सार्थक व प्रेरक आह्वान, पापों से त्रस्त होकर प्रभु से प्रार्थना, शहरों के बनावटी जीवन से उपजी वेदना, विभिन्न विसंगतियों से त्रस्त धरा, स्वाभिमानी श्रमिक के हृदयोउद्गार, मनोहारी प्राकृतिक वर्णन, शत्रु पर विजय का शंखनाद, सामाजिक समरसता आदि अनेक पहलुओं को कुशलता पूर्वक छूती उनकी लेखनी इसका स्पष्ट प्रमाण है।
कवि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा कि मयंक शर्मा एक उभरते हुए गीतकार हैं। सरल भाषा व संवाद शैली में छंदबद्ध किये हुए अपने गीत जब वह अपने सुमधुर स्वर में गाते हैं तब श्रोताओ को मानो सम्मोहित कर लेते हैं। उनके गीतों का जादू सुनने वाले के मन पर गहरी छाप अंकित करता है।
युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यपटल पर उर्जावान  व अपनी सुरीली आवाज़ से मंत्रमुग्ध करते हुए युवा गीतकार व गायक के रूप में  तेजी से उभरे हैं। मैं और मेरा पूरा परिवार मयंक भाई का बहुत बड़ा प्रशंसक है।मैं तो  अक्सर उनके गीतों की पंक्तियां गुनगुनाती हूँ।
ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि नौजवान गीतकार मयंक शर्मा के गीतों को पढ़कर मेरा पहला ता'सुर यही है कि ये गीत ख़ामोशी से पढ़ने वाले गीत नहीं है। इनको थोड़ी सी बुलंद आवाज़ में आप पढ़ेंगे तो आपको ज़्यादा मज़ा आएगा और आप इन गीतों के अधिक क़रीब पहुंचेंगे। इन गीतों में भरपूर ऊर्जा है, जो हमारे तन और मन को ऊर्जावान तो बनाती ही है, हमारे अन्दर सकारात्मकता भी भर देती है।

:::::::::प्रस्तुति::::::

ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद244001
मो० 7017612289

रविवार, 16 अगस्त 2020

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से 14 अगस्त 2020 को मासिक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया । इस ऑनलाइन काव्य गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों डॉ प्रेमवती उपाध्याय, ओंकार सिंह ओंकार, डॉ मीना कौल, शिशुपाल सिंह मधुकर ,डॉ मीना नकवी , वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ पूनम बंसल, श्री कृष्ण शुक्ल, राजीव प्रखर, अशोक विद्रोही , डॉ रीता सिंह, रवि प्रकाश , कमाल जैदी वफ़ा, प्रीति चौधरी, नृपेन्द्र शर्मा सागर, रचना शास्त्री, सीमा वर्मा, कंचन लता पांडेय , संजय विश्नोई, राजकुमार सेवक, डॉ कृष्ण लाल विश्नोई, रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ, अम्बरीष गर्ग, योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई और डॉ मनोज रस्तोगी की रचनाएं ------


क्रूर कंस वसुदेव-देवकी कारा में डाले,
हुआ कृष्ण का जन्म, खुले बन्दीगृह के ताले।।

छटा अनीति का अंधकार,
सत का सूरज चमका।
घोर अंधेरी अर्द्ध रात्रि,
में गगन इन्दु दमका।

गये पहरुए सोय, गिर गए हाथों से भाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

अम्बर पर काली-काली,
घनघोर घटा छाई।
चपला चमकी नभ बीच,
चली पूरब से पुरबाई।

अद्भुत हुआ प्रकाश बहे नभ से अमृत नाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

गगन गिरा कर श्रवण,
प्रकम्पित कंस हुआ भारी।
सुन प्रचंड ध्वनि, अंतरिक्ष,
की जागे नर नारी।

हुआ मृत्यु आभास, छा गए कंस दृगन जाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

मास भाद्रपद कृष्ण पक्ष की,
अष्टम तिथि आई।
वृहत सूचना युग परिवर्तन,
की संग-संग लाई।

काल पुरुष ने क्रूर कंस के मान मिटा डाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

भर वसुदेव अंक कृष्ण को,
गोकुलधाम चले।
देख अगम जल जमुना जी का ,
मन शत बार हिले।

चरण छुअन हित उठी तरंगें, साध हिये पाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

नव युग का निर्माता, नायक,
नन्द भवन पहुँचा।
यसुदा जन्में लाल हुई,
घर घर में शुभ चर्चा।

वेश बदल दर्शन हित आये ,अर्ध्य चन्द्र वाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

कृष्ण जन्म ने जन-गण के मन,
अभय बीज बोया।
जगा राष्ट्र का स्वाभिमान,
जो तब तक था सोया।

हुआ धरा पर स्वर्ग अवतरण, जिसके थे लाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

बजी क्रांति की दिव्य बाँसुरी,
संगठन किया भारी।
अनाचार की अंधियारी में,
बिखरी उजियारी।

बांध राष्ट्र को एक सूत्र में भाग्य बदल डाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

राजनीति के प्रखर प्रेणता,
कृष्ण कन्हैया थे।
साथ साथ उनके वलशाली,
दाऊ भैया थे।

इन युग्मो की कला-कीर्ति में कागज रंग डाले,
हुआ कृष्ण का जन्म खुले बन्दीगृह के ताले।।

✒️ डॉ प्रेमवती उपाध्याय
 मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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दर्द में डूबी है क्यों रात ,कोई क्या जाने !
किसने बख़्शी है ये सौग़ात, कोई क्या जाने !

आज छप्पर से टपकता है जो पानी घर में ,
कैसे गुज़रेगी ये बरसात , कोई क्या जाने !

जाने कब लौट के फिर आएँ मेरे आंगन में ,
गूँजते प्यार के नग़मात,कोई क्या जाने !

आज किस वास्ते मुरझाई हैं कलियाँ प्यारी ,
कैसी पेड़ों से हुई घात, कोई क्या जाने !

छोटा घर छोड़के महलों में ठहरती है सदा ,
धूप के दिल में है क्या बात, कोई क्या जाने !

किसलिए शोले भड़कते हैं किसी के दिल में ,
क्यों झुलस जाते हैं जज़्बात, कोई क्या जाने !

कल को "ओंकार" किसे घेरे अँधेरा ग़म का  ,
रास आएँ किसे हालात, कोई क्या जाने !
     
 ✍️ ओंकार सिंह "ओंकार"
1-बी- 241 बुद्धि विहार, मझोला,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001
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आओ लिखें नई कहानी,हम देश को सजाने की,
न हो जिसमे राजा- रानी,न हो बात खजाने की।

ले अतीत से उजला सोना, वर्तमान को रचें सुनहरा
नीव में रखें अभिलाषा हम,भविष्य उच्च बनाने की।

अपनी मिट्टी अपना पानी,अपना घर अपना समाज
अपनी धरती आप चुनें हम,फसलें नई उगाने की।

चल सागर से मोती लाएं, अम्बर से तारे लाएं हम,
लिखें नाम हवाओं पर लें,सौगन्ध सुगंध फैलानेकी

सत्य अहिंसा करूणा क्षमा, चरित्र चेतना अनुशासन
जीवन शिक्षा हो संपादित ,सर्वत्र सर्वदा पढ़ाने की ।

अपनी माता अपनी भाषा,निज गौरव इसे बनाएं हम
बन जाएँ आदर्श भावना,सकल विश्व को सिखाने की

मन दर्पण पर जमी  हुईं ,भूलें सारी अब हटाएं हम
रखें सब पर समान दृष्टि ,वसुधैव कुटुंब बसाने की।

हम ही राष्ट्र के सजग प्रहरी,हम ही वीरों की संतान
बात नहीं करने देंगे कभी,निज देश को झुकाने की।

रंग  बिरंगे सुमन खिलें , यहाँ सतरंगी छटा निखरे
अपनी डगर बना मीना, हर दिल में समा जाने की।
   
 ✍️ डाॅ मीना कौल
मुरादाबाद
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आओ मिलकर सभी निकालें
 हर मुश्किल का हल

मुश्किल क्योंकर है पहले तो
        यही समझना है
 बेमतलब की बातों में अब
         नहीं  बहकना है             
         सूझ - बूझ से ही निकलेगा
           हर परिणाम सुफल
         
सच का प्रहरी ही बन सकता
          निश्छल मन वाला
राग द्वेष से दूर ही रहता
          अपनेपन वाला
          मानवता के रंग में वह तो
            जाता खुद ही ढल

समय छेड़ कर तान बेसुरी
               हमें छकाता है
 छल - छद्मों से भरे स्वप्न अब
               हमें दिखाता है 
              इससे लड़ने को भर लें हम
               नैतिकता का बल
       
✍️  शिशुपाल "मधुकर"
 मुरादाबाद
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15  अगस्त सन् सैतालीस को देश मेरा आज़ाद हुआ।
गहन तिमिर से सूरज निकला ,चहुँओर आह्लाद हुआ।।

अग्रेजो़ ने भारत छोडा़, परसत्ता अवसान हुआ।
सफ़ल अन्त मे वीर सपूतों का अनमिट बलिदान हुआ।।

आजादी को प्राण मिले ,जीवन एक वरदान हुआ।
गाँधी के स्वप्नों   से चहुँ दिश भारत का सम्मान हुआ।।

कोमल कोमल कली पुष्प को साहस से फौलाद किया।
जंजीरों से भारत माँ के तन मन को आज़ाद किया।।

समय ज़रा सा क्या बदला हम हर बलिदान को भूल गये।
आजादी को पाते ही हम मान अपमान को भूल गये।।

दहेज हत्या  बलात्कार से नारी  जीवन त्रस्त हुआ।
आजादी आई   है किन्तु प्रेम का सूरज अस्त हुआ।।

वर्ग जाति और कुनबों ने भारत  को बर्बाद किया।
नफ़रत  के कु प्रभावों ने भावों का अवसाद किया।।

किंकर्तव्यम् जनता है  और नेता भष्टाचारी है।
आतंकवादी  हमले सहना अनचाही लाचारी है।।

अपने ह्रदय मे  ही हम प्रेम के बोज को  बोना भूल गये।
भारतवासी हो कर भी हम भारती  होना भूल गये।।

आओ करे सकंल्प कि  अब इस देश  को  स्वर्ग बनाना है ।
अम्न  के फ़ूलों की खुशबू से हर दिल को महकाना है।।

नहीं ज़रूरी इतना कि हम ज्ञानी ध्यानी बन जायें।
सर्व प्रथम मत भेद भुला कर हिन्दुस्तानी बन जायें।।
       
 ✍️ डा. मीना नक़वी
सबसे मिलकर---
-----------------------

सबसे मिलकर चलने वाले,
सदियों तक जिंदा रहते  हैं,
अनदेखी  करने   वाले   ही,
जीवन भर  निंदा  सहते  हैं।
   
        -----------------

सच्चे  मानव  के  अंतस  में,
अंतर्द्वंद    नहीं    पलता   है,
केवल खुशियों  के मंदिर  में,
आशा का  दीपक  जलता है,
कुटिल  भावना   रखने  वाले,
सबको  ही   गंदा   कहते  हैं।
सबसे मिलकर--------------

भेद-भाव   बिन  अंतर्मन  में,
श्रद्धा  भाव  स्वयं   आते   हैं,
केवल  प्यार  लुटाने  भर   से,
भटके  भी   मंज़िल   पाते  हैं,
सबकी  खातिर   लड़ने  वाले,
फांसी   का   फंदा   सहते  हैं।
सबसे मिलकर---------------

जग  के  कष्ट   दूर  करने  को,
विष  पीने   से  नहीं   हिचकते,
नहीं   देख   पाते   बच्चों   को,
भूखे    रोते   और    बिलखते,
बच्चे   तो  सबकी  आंखों   में,
बन   करके    चंदा   रहते   हैं।
सबसे मिलकर----------------

निंदनीय   बातें   सुनकर    भी,
क्रोधित   होना    नहीं   सुहाता,
मानवता  का   पथ   ठुकराकर,
इनको  जीना  तनिक  न भाता,
भूल - चूक   के   लिए   सर्वदा,
खुद    भी   शर्मिंदा    रहते   हैं।
सबसे मिलकर----------------

मानवता     में     बहने     वाले,
होते   हैं   मानव   अति   विरले,
सबके   मन   में    बसने   वाले,
अंतर्मन     के      होते    उजले,
ऐसे   मानव    इस    धरती  पर,
बनकर    गोविन्दा     रहते    हैं।
सबसे मिलकर------------------

 ✍️   वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ, प्र,
 9719275453
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इक सलोनी सी सुहानी रीत है ये जिंदगी
प्यार से इसको संवारो मीत  है ये जिंदगी

भोर की पहली किरन  सी देख है उजली धुली
उड़ रही है नील नभ  में  पंछियों  सी  चुलबुली
हार कर भी जो न रुकती जीत है ये जिंदगी

दर्द से होकर गुजरते हर ख़ुशी के रास्ते
मन शिवाला  सब बना है बंदगी के वास्ते
गुनगुना कर तुम जियो तो गीत है ये जिंदगी

याद के नूपुर बजाती चांदनी कि रात है
मौन अधरों पर रुकी यह अनकही सी बात है
आंसुओं में भी खिली जो प्रीत है ये जिंदगी

✍️   डॉ पूनम बंसल
मुरादाबाद
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हिंदू मुस्लिम नहीं हमारी, हिंदी ही पहचान रहे।
हम सबके दिल में अब केवल अपना हिंदुस्तान रहे।।

हम विकास के पथ पर चलकर, आगे बढ़ते जायेंगे।
अपने श्रम से मिल जुल कर हम, इसका नाम बढ़ायेंगे।
विश्व शिखर पर सदा सर्वदा, भारत की पहचान रहे
हम सबके दिल में अब केवल अपना हिंदुस्तान रहे।

बाधाएं कितनी भी आयें, हम बढ़ते ही जायेंगे।
देश की खातिर मिटना भी हो, तो फिर मिट भी जायेंगे।
हम न रहेंगे कितु हमारा, भारत सदा महान रहे।
हम सबके दिल में अब केवल,  अपना हिंदुस्तान रहे।

 ✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69,
रामगंगा विहार,
मुरादाबाद (उ.प्र.)
244001.
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किया तिरंगा ओढ़ कर, वीरों ने ऐलान।
क़तरा-क़तरा खून का, माटी पर क़ुर्बान।।

दूर नहीं आतंक का, जड़ से काम तमाम।
मेरी सारी रखियाँ, भारत माँ के नाम।।

मुझको मुझमें ही मिले, सारे तीरथ-धाम।
अन्तस-पट पर जब लिखा, मैंने जय श्रीराम।।

फँस कर माया-पाश में, मन-केवट लाचार।
भगवन इसको ले चलो, भवसागर से पार।।

कहें कलाई चूम कर, राखी के ये तार।
तुच्छ हमारे सामने, मज़हब की दीवार।।

सीपी बोली बूँद से, ओ कणिका नादान।
आकर मेरे अंक में, ले जा नव-उन्वान।।

 ✍️  राजीव 'प्रखर'
(मुरादाबाद)
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मान माता तेरा हम बढ़ाएंगे!
धूल माथे से तेरी लगाएंगे !!
एक क्या सौ जनम तुझ पे कुर्बान मां!
भेंट अपने सिरों की चढ़ाएंगे!
   गोले बारूद से न किसी तोप से
   दिल में डर ही नहीं है किसी ख़ौफ से
   बांध सर पे कफ़न चल  जिथर देंगे हम
   पग न रण में ये पीछे हटाएंगे
मान माता तेरा हम बढ़ायेंगे!
धूल माथे से तेरी लगाएंगे !!
  खूं से लथपथ सजे फिर भी बन्दूक से
  मन ये विचलित नहीं प्यास से भूख से
  चढ़ के दुश्मन के सीने पे ध्वज गाड़ दें
  प्यास उसके लहू से बुझायेंगे   !
मान माता तेरा हम बढ़ाएंगे!
धूल माथे से तेरी लगायेंगे !!
   छोड़ मां-बाप को गांव घर द्वार को
   हम समर्पित हुए मां !तेरे प्यार को
   मन ये संकल्प ले अब जिएं या मरें
   जीत करके ही वापस आएंगे !
मान माता तेरा हम बढ़ाएंगे !
धूल माथे से तेरी लगाएंगे !!
     गीत बनके फिज़ाओं में गूंजेंगे मां!
     बाद मरने के भी तुझको पूजेंगे मां!!
     राख होगा जो तन मिलके गंगा के संग
     तेरी फसलों को हम लहलहायेंगे!
मान माता की राह बढ़ाएंगे !
धूल माथे से तेरी लगाएंगे !!
एक क्या सो जन्म तुझ पर कुर्बान मां!
भेंट अपने सिरों की चढ़ायेंगे!
           
 ✍️अशोक विद्रोही
  8218825541
  412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
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मत बरसो अब घन बावरे
भर गये सब नदी ताल रे ।

अति बरसना भी दुखदाई
मनहुँ कोई विपदा आई
आ रही चहुँ ओर बाढ़ है
घिर गये सब शहर गाँव रे
मत बरसो अब घन बाबरे ।।

नाले बह चले राहों में
नाली खेल रहीं घरों में
सरिता का सड़कों पर नर्तन
घुमा रहा सब नगर नाव रे ।
मत बरसो अब घन बावरे ।।

बरखा सुख , दुख में न बदलो
कहीं कृषक का श्रम न हर लो
सींच लिया बहुत खेतों को
चले जाओ उलट पाँव रे ।
मत बरसो अब घन बावरे ।।

 ✍️ डॉ रीता सिंह
चन्दौसी (सम्भल)
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मजा नहीं पद - पदवी धन का बोझा ढोकर जीने में
मजा मौज से रोज सबेरे राम - नाम रस पीने में
                            (1)
कीमत असली राम - नाम की पहचानो ऐ जग वालो
रुपया - पैसा या जमीन का गर्व नहीं किंचित पालो
रखा  नहीं  कुछ सोना चाँदी हीरे और नगीने में
मजा नहीं पद पदवी धन का बोझा ढोकर जीने में
मजा मौज से रोज सबेरे राम - नाम रस पीने में
                             ( 2)
मिलता है वह नदी किनारे पर्वत की ऊँचाई में
मिलता है हरियाली मरुथल पेड़ों की परछाई में
मिलता है हर रोज सभी बारह हर एक महीने में
मजा नहीं पद - पदवी धन का बोझा ढोकर जीने में
मजा मौज से रोज सबेरे राम - नाम रस पीने में

✍️रवि प्रकाश
 बाजार सर्राफा
 रामपुर (उत्तर प्रदेश)
 मोबाइल 99976 15451
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वतन से मौहब्बत है ईमान मेरा,
वतन पर सभी कुछ है कुर्बान मेरा।

भुलावे में रहना न बिल्कुल पड़ोसी,
अगर चीन तेरा तो जापान मेरा।


मज़हब की दीवारें यहां न उठेंगी,
यहां पर है गीता औ' कुरआन मेरा।

वतन पर कटाये यहां सर सभी ने,
यहां रहने वाला है इंसान मेरा।

रहेंगे जो बंधकर के सब एकता में,
बनेगा तभी देश बलवान मेरा।

वतन पर किसी ने जो नजरें उठाई
उसे मार डालेगा  भगवान मेरा।

वतन पर शहादत 'वफ़ा' मिल गई जो,
सुबह शाम फिर होगा  गुणगान मेरा।

✍️ कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
प्रधानाचार्य
अम्बेडकर हाई स्कूल बरखेड़ा
सिरसी (सम्भल)9456031926
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खेतों को देख झूम जाते
देश-प्रेम गीतों को गाते
हम भारत स्वदेश के बालक
भारती को माँ कह बुलाते।।1।।

सावन में सब रंग रंग जाते
पेंग बढ़ाकर घन छू आते
महक-महक बारिश-बूँदों से
आँगन में खुशियाँ चहकाते।।२।।

भाई बहन रिश्ते महकाते
राखी का त्योहार मनाते
एक प्रेम डोर में बंधकर
बहना-रक्षा वचन निभाते।।३।।

देश प्रेम की नदी बहाते
शहीदों को नमन कर आते
जो दे आज़ादी गये हमें
उन वीरों को शीश झुकाते।।४।।

गुणगान स्वदेशी के गाते
विदेशी से दूरी बनाते
अपने भारत देश का नाम
विश्व पटल पर है चमकाते।।५।।
                           
 ✍️   प्रीति चौधरी
गजरौला ,अमरोहा
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 हो ऊँचा नाम जगत में,
     झुकने ना पाए तिरंगा।
ना लड़े कोई मज़हब को,
     मिटे जात-पात का दंगा।
निज मातृभूमि से बढ़कर,
    कुछ नहीं पूजनीय दूजा।
निश्चय को बना लो हिमालय,
    व्यवहार हो निर्मल गङ्गा।
जब बात देश की आये,
    तब मोह तजो प्राणों का।
ये जान चली भी जाये,
      लहराता रहे तिरंगा।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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है नहीं कोई भवितव्य हमारा
हम हैं नदी की धार में तिरते दिये।

धर बाती अधिकार की जब
चाहे कोई हमें जला दे बुझा दे।
लहर कोई अंचल की ओट ले सहेजे
या जब चाहे धार हमें डुबा दे।
है नहीं कोई मंतव्य हमारा
हम हैं किसी मँझधार में बहते दिये।

माटी के इस दिवले में
तुम प्राण अपने डाल के।
जला दो कहीं मंदिर में
या धर दो देहरी पे बाल के
है नहीं कोई गंतव्य हमारा
हम हैं किसी के द्वार पे जलते दिये।

साँझ ढलते ही जलाये गये
हम भोर होने तक जलते हैं ।
मुसाफिर आते जाते हैं यहाँ
रास्ते भला कब चलते हैं।
कि प्रतीक्षा ही ध्येय हमारा
हम हैं जले बेकार में बुझते दिये।
है नहीं कोई भवितव्य हमारा
हम हैं नदी की धार में तिरते दिये।

✍️  रचना शास्त्री
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    मानवता सो रही है
    भाईचारा खो रहा है
    कैसे करूंँ यकीं के
    मेरा देश रो रहा है
              हर तरफ है लूट जारी
              डाकुओं की भीड़ भारी
              जब रक्षक बने हों भक्षक
              और आवाम सो रहा है
    कैसे करूँ यकीं के
    मेरा देश रो रहा है
                कोड़ों की मार खाकर
                भगत सिंह ने लहू बहाया     
                लाखों ने शीश वारे
                तब देश था बचाया
                पर अब तो देशद्रोह का
                खुल्ला खेल हो रहा है
    कैसे करूँ यकीं के
    मेरा देश रो रहा है
                यह नानक की जमीं है
                यहाँ दयानंद भी आए
               यहांँ राम और कृष्ण ने
               जीवन के पाठ पढ़ाए
    पर अब तो नया चलन है
    "शैतान" बना हर मन है
    किसको "गुरू" हम समझे
    हर कोई  "भगवान" हो रहा है
                  कैसे करूँ यकीं के
                 मेरा देश रो रहा है
    "मैं" हूंँ बस "मेरा" ही सब कुछ
    "हम" शब्द आज गुम है
     एक साथ मिलकर रहना
    "क्या यह भी कोई नियम है ?"
               अपनी थैली भर लो
               किसी और की क्यों सोचो
               "लूटो" "खसोटो" "नोचो"
              "देश" क्या "ईमान" भी बेचो   
    जहाँ देखो वहशियत का
    नंगा नाच हो रहा है
                  कैसे करूँ यकीं के
                  मेरा देश रो रहा है
    एक हाथ में है "प्याला"
    दूजे में "राम माला"
    एक हाथ कर रहा है
   अरबों खरबों का घोटाला
                 एक हाथ में है खंजर
                 दूजे में बम की ज्वाला
                 एक हाथ कर रहा है
                 "निर्वस्त्र" "अबला बाला"
    कहीं "जवानी" को "नशे" में धकेला
    कहीं "बचपन" ही रौंद डाला
    कहीं खाने में जहर घोला
    कहीं पानी विष कर डाला
                    देखो मेरे वतन का
                    देखो मेरे चमन का
                    कैसा पतन हो रहा है
     कैसे करूँ यकीं के
     मेरा देश रो रहा है
             क्या और कसर बाकी है ? 
             क्या और जहर बाकी है  ?
             क्या नौजवानों की रगों में
            कहीं जोश की लहर बाकी है ?   
    क्या इस देश के चेहरे पर
    कोई और दाग बाकी है  ?
                 अब तो कोई भी आए
                 मेरे देश को बचाए
                 ये जो "सो" रही है "जनता"
                 इसे नींद से जगाए
   भटके हुए दिलों में
   फिर "देश प्रेम" जगाए
   ये जो आन है हमारी
   वो "तिरंगा" फिर मुस्कुराए
                 "भारत" विश्व में फिर से
                 एक नई पहचान बनाए
     देखो इस गुलशन का
     इस "जगत गुरू" से वतन का
     कैसा सर्वनाश हो रहा है
                    कैसे करूँ यकीं के
                    मेरा देश रो रहा है
      मानवता सो रही है
      भाईचारा खो रहा है
      कैसे करूँ यकीं के
      मेरा देश रो रहा है ।।

✍️  सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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प्रिय पार्क !
अब तुम इतने भी प्रिय नहीं रहे
सब तुम तक आने में डरते रहे
तुम लाख जतन भले करते रहो
लोग घरों में अपने दुबके रहे

न दौड़ना, टलना न कोई खेल
गृह कार्य में ही निकल रहा तेल
दूर हो गए पास नहीं आना है
यही वजह है किसी का नहीं मेल

✍️ कंचन लता पाण्डेय “कंचन”
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खुश रहने की परिभाषा बदली जीने का अरमान बदल गया
अक्लमंद हो गया हर धनवान  ज्ञानी का सम्मान बदल गया
स्वार्थ की ऐसी आंधी आयी हर मौकापरस्त अपनी जुबान बदल गया
सबसे बड़ा बनने की अंधी दौड़ में इंसान का अपना ईमान बदल गया
ऐसी बोली लगी पुरखो की विरासत की घर का हर सामान बदल गया
मुखौटौं के इस नये परिदृश्य में हर चेहरे का अपना पहचान बदल गया
बुढ़ापे की लाठी ने नजरें ऐसे फेरी माँ की ममता का एहसान बदल गया
दुश्मन हो गया है इंसान ही इंसान का खुद़ा का हर फरमान बदल गया
गंगा को  पवित्र न छोड़ा भगीरथ को मिला शिव का वरदान बदल गया
ईमारते खड़ी कर दी फसलें  रौदंकर मेरे गांव का हर निशान बदल गया
थिरकते हैं लोग शोरगुल संगीत पर पुराने साज़ो का कद्रदान बदल गया
न सकूँ इबादत में न होती मन्नते मंजूर मेरा तो शायद भगवान बदल गया

✍️-संजय विश्नोई
 दिल्ली
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"एक-एक को ऊपर-नीचे ,
                  ‌रखकर यदि हम जोडें ।
होगा योग दो ही उनका ,
                    चाहे जिधर से जोड़ें ।
लेकिन यदि बराबर रख दें ,
                   तब हो अजब नजारा ।
एक,दो,तीन,चार नहीं तब वो,
                        होंगे पूरे ग्यारहा ।
इसी तरह से ऊंच - नीच का,
                      यदि हम भेद मिटायें ।
समझें सदा बराबर सबको,
                        सबको गले लगायें ।
तब स्थिति सामाजिक अपनी,
                         होगी जग से न्यारी ।
नई -नई प्रतिभा उभरेंगी ,
                         लेकर क्षमता भारी ।
दुष्कर कार्य,सहज फिर होकर,
                          सिद्ध क्षणों में होंगे ।
अपने पन के भाव परस्पर ,
                          सब के मन में होंगे ।
मिटे दीनता और हीनता ,
                          धरती से भारत की ।
एक नया परिवेश सुखद हो,
                          धरती पर भारत की ।
भाग्य और भक्ति के बल पर ,
                         स्वर्ग लालसा अपनी ।
पूरी होगी स्वर्ग बने जब ,
                          धरा देश की अपनी               
               
✍️ राजकुमार ' सेवक '
 ग्राम :- रसूलपुर गूजर
 त० व पोस्ट:- कांठ
 जिला :- मुरादाबाद (उ०प्र०)
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सच्चे मित्र है कहां,स्वार्थ में सब लोट।
शराफत का चोला पहन,करते लूट खसोट।।1।।

शुभ से दूर शुभचिंतक, बुगले भक्त अनाप।
राम बचाये ऐसे सखा,प्रत्यक्ष वे संताप।।2।।

सच्चे मित्र सोधना,मुश्किल है ये काम।
ज्योति ले ढूंढो भला,दिये न मिले दाम।।3।।

अच्छा दोस्त वही जो,विपत्ति आये गाम।
रक्षा में तत्पर रहे,बिगड़े सुधारे काम।।4।।

खांडे की धार है मित्रता,लक्ष्मण की है कार।
सच्चे की है साख मित्रता,प्रभु का चमत्कार।।5।।

दो शरीर एक आत्मा, मित्र है ऊंची शान।
ऐसे मित्र नहीं मिले,खोजो थान सुथान।।6।।

मित्र की पहचान हुवै, संकट रहे जो साथ।
मन संतप्त हो सखा,ऊंचो राखै माथ।।7।।

समान स्थिति से मित्रता, और करो विश्वास।
सच्चे मित्र से न करो भूलकर ज परिहास।।8।

मित्र बने जो सम्पन्नता, विपन्नता रहे दूर।
ऐसे मित्र से विछन्नता,अच्छी सदा हजूर।।9।

मित्र के लिए कठिन नहीं, अपना जीवन दान।
पर ऐसा सखा कहाँ, दे जिसे अभयदान।।10।।

ज्योति जले मित्रता की,हुवै सत्य प्रकाश।
तम राशि कटे सदा, उज्ज्वल हो आकाश।।11।।

 ✍️ डॉ.कृष्णलाल विश्नोई, बीकानेर
मोब.नं.9460002309.
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धर्म युद्ध है विजय सत्य है अस्त्र उठाओ वीरो,
राष्ट्रीय रक्षा हेतु पहनो एकता का बाना।
संकल्प निभा तुम राम बनो लक्ष्मण साथ निभाना,
सावधान हो आसुरी सेना से तुम्हें है टकराना ।

थोड़ा और बढ़ो कृपाण की तेज करो धार ,
मैं बतलाऊं तुमको कैसे करना है प्रहार।
 वीरो और बढ़ो आगे बस इतना करो,
 दुश्मन के सीने पर चढ़ भरो उत्तंग हुंकार।

✍️ रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ
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 इस वस्त्रालय के वस्त्रों में, सिर्फ बिछौने है !
बिछने और बिछे रहने की, आदत है डाली  !
पता नहीं किस-किस ने मारा, किसने दी गाली!
मिट्टी के कुल्हड़  हैं या, पत्तों के दौने हैं ! !

अनाचार से, उत्पीड़न से,पलकें नहीं हिली
स्वाभिमान की चादर तो, ढूंढे से नहीं मिली
कायरता के दाग घने सदियों तक धोने हैं!

✍️ अम्बरीष गर्ग
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 पाप पुण्य के बीच मनुष्य आजीवन सिर धुनता है,
पर  क्षमादान ही जीवन मे मुक्ति का कारण बनता है।
कर्म योग से जीवन का संपूर्ण धरातल रचा गया,
ज्ञान योग की भाग भूमि को तपो त्याग से लिखा गया।।
पाप पुण्य का योग निरंतर हर प्राणी को ठनता है,
क्षमादान ही जीवन में मुक्ति का कारण बनता है।।
समझ बुझ कर परम प्रकृति के संसाधन सब रचे गए ,
कुछ अनुकूल कुछ प्रतिकूल और शूल सम गढ़े गए।।
इन सब में सामंजस्य बिठाना मानव की कार्य कुशलता है,
क्षमादान ही जीवन में मुक्ति का कारण बनता है।।
ईश्वर की कृपा से सारे संसाधन उपयोगी हैं,
मोह माया के जाल में लेकिन रोगी भौगी योगी है।।
लेकिन अनहद नाद प्रभु का कोई बिल्ला ही सुनता है,
पाप पुण्य के बीच मनुष्य आजीवन सिर धुनता है
क्षमादान ही जीवन में मुक्ति का कारण बनता है।।

 ✍️ योगेंद्र पाल सिंह
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हम देश के हर फैसले पर                                    एतराज जताते हैं
और तो और
अपनी ही हार पर
जश्न मनाते हैं
चोला हमने भले ही
 पहन रखा है रंग बिरंगा
 पर मन में हमारे
हमेशा रहता है हरापन
भूल जाते हैं सारे एहसान
खत्म करते रहते हैं अपनापन                            राह में कभी दांया हमें नहीं भाता है
हमेशा बांयी ओर चलना ही सुहाता है
खाकर यहां का अन्न
 गीत औरों का गाना आता है                                 नहीं लिखते हम                                                 
भविष्य की सुनहरी इबारत
इतिहास के काले पन्नों को ही                                हम दोहराते हैं
वैसे हमें देश से बहुत प्यार है                               अपने को ही देशभक्त कहलाते हैं

✍️डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822