'ख़्वाब समन्दर के' दूसरा संग्रह है डॉ मुजाहिद फ़राज़ की ग़ज़लों और नज्मों का, जो सोलह साल के इंतजार के बाद आया है। इकहत्तर ग़ज़लों, आठ नज्मों और दोहों को समेटे यह संग्रह न केवल वीरान और बदहाल जिन्दगी की दुश्वारियों को बयां करता है वरन् वर्तमान जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत भी देता है।अपनी गज़लों में डॉ फ़राज़ मानवीय संवेदनाओं में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हैं। ऐसा लगता है मानो उन्होंने इन ग़ज़लों, नज्मों और दोहों को जिया ही नहीं उसे भोगा भी है। उन्होंने जो भी लिखा है, साफगोई और मज़बूती के साथ लिखा है....
खुली हवा न मिली, अस्ल रौशनी न मिली
नये मकानों में सब कुछ था, जिन्दगी न मिली
हसद की आग में जलने से क्या मिला उसको
तमाम उम्र तरसता रहा, खुशी न मिली
किसी-किसी को ये ऐज़ाज़ बख्शता है खुदा
हर एक को तो जहाँ में सिंकदरी न मिली
इसी तलाश में सदियां गुजार दीं हमने
सुकून जिसमें मयस्सर हो वो घड़ी न मिली
डॉ फ़राज़ न केवल उच्च कोटि के शायर हैं वरन् एक मोटीवेशनल स्पीकर भी हैं। वह दुष्यंत की तरह मेहनत और लक्ष्य प्राप्ति का हौसला भरते हैं...
मैं ऐसी धूप से गुज़रा हूँ आकर
हिरन भी जिसमें काले पड़ गये हैं
तो समझो मंजिलों की जुस्तजू है
अगर पैरों में छाले पड़ गए हैं
इसी तरह युवा दिलों में जोश भरने और कुछ नया कर दिखाने को प्रेरित भी करते हैं ....
हमें बताओं न दुश्वारियां मसाफ़त की
जो हौसला हो तो तूफां भी रूख बदलते हैं
अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत नहीं गयी। दिल के इस दर्द को कुछ इस तरह बयां किया है डॉ. फ़राज़ ने.…..
आज़ादी-ए- गुलशन को ज़माना हुआ लेकिन
ज़हनों से गुलामी की यह काई नहीं जाती
हर नक़्श मिटा डाला है नफरत के जुनूँ ने
ये कोट, ये पतलून, ये टाई नहीं जाती
शरीफ़ों की शराफ़त को क्या खूब बेपर्दा किया है उन्होंने ....
शराबखानों की रौनक अब उनके दम से है
शरीफ लोग सुना था घरों में रहते हैं
डॉ फ़राज़ के शेरों के 'शेड्स' बहुआयामी हैं। खद्दर पर क्या बेहतरीन वार किया है.....
तू नादाँ क्या समझेगा इस खद्दर का ऐज़ाज़ है क्या
ये बँगला वो कार खड़ी है, लंबी चादर तान के सो
उनका लेखकीय कैनवास वृहद है। उन्होंने रंगीन और खुशनुमा पलों को भी समाहित किया है। अपनी नज़्म के कैनवास में तितली की आमद को कुछ यूं उकेरा है....
शोख, रंगीं हसीन वो तितली
मेरे आंगन में जबसे आई है
ऐसा लगता है जैसे रूठी हुई
इस चमन की बहार लाई है
'ख़्वाब समंदर के' के लेखक डॉ फ़राज़ इंसान में संघर्ष के जज्बे को जलाए रखने में यकीन रखते हैं। बरबस अल्लामा इकबाल की याद आ जाती है। डाक्टर साहब की गज़लें बातें करती हैं, संवाद करती हैं, जिन्दगी जीने का सलीका सिखाती हैं। डॉ फ़राज़ का चिंतन मौलिक है सो ग़ज़लों में बनावटीपन नज़र नहीं आता। तुकांत की कोशिश में कहीं-कहीं कुछ अशआर हल्के मालूम देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर डॉ साहब ने इतना उम्दा लिख दिया है कि उनकी स्वतः क्षतिपूर्ति हो गई है। गज़ल संग्रह में कम संख्या में दोहे उचित प्रतीत नहीं हो रहे। दोहे स्तरीय हैं, उनका पृथक प्रकाशन उनके साहित्यिक अवदान को और समृद्ध करेगा। उर्दू लेखक होने के बावजूद डॉ फ़राज़ ने हिन्दी साहित्य की तमाम खूबियों और छंदों की रस्मों को निभाने का सार्थक प्रयास किया है जिससे संग्रह पठनीय, असरदार और शानदार हो गया है। इन ग़ज़लों को देवनागरी में लिखकर उन्होंने एक अलग पहचान बनाने की कामयाब कोशिश की है। एक हुनरमंद कारीगर की भांति एक-एक पत्थर को करीने से तराश कर ग़ज़ल की यह आलीशान इमारत खड़ी करना, एक साधना है। साहित्य साधक डॉ मुजाहिद फ़राज़ साहब को इस अनूठे संग्रह के लिये दिली मुबारकबाद।
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